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म्यांमार में अभी क्यों हुआ तख़्तापलट और अब आगे क्या होगा?
02-Feb-2021 9:30 AM
म्यांमार में अभी क्यों हुआ तख़्तापलट और अब आगे क्या होगा?

-फ़्लोरा ड्ररी

म्यांमार सेना ने ऐलान किया है कि उन्होंने देश की सत्ता अपने हाथों में ले ली है. सेना आंग सान सू ची समेत कई नेताओं को हिरासत में ले लिया है.

साथ ही देश के मुश्य शहरों की सड़कों पर सैनिक तैनात कर दिए गए हैं और संचार व्यवस्थाओं पर सीमित रोक लगा दी गई है.

अब से 10 साल पहले सेना ने सत्ता का हस्तांतरण जनता की चुनी हुई सरकार को किया था.

तख्तापलट की ख़बर से देश में एक बार फिर डर का माहौल पैदा हो गया है. साल 2011 में ही यहां पांच दशकों से चले आ रहे दमनकारी सैन्य शासन का अंत हुआ था. सोमवार तड़के ही आंग सान सू ची और अन्य राजनेताओं की गिरफ़्तारी ने एक बार फिर देश में नाउम्मीदी के उस दौर को ज़िंदा कर दिया है जिससे ये देश एक बार बाहर निकल चुका था.

सू ची और उनकी एक वक्त की प्रतिबंधित रह चुकी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी ने 2015 में बीते 25 वर्षों में देखे गए सबसे स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान के बाद देश का नेतृत्व किया.

सोमवार सुबह पार्टी को अपना दूसरा कार्यकाल शुरू करना था. लेकिन हुआ कुछ. संसद के पहले सत्र से कुछ घंटे पहले सू ची समेत कई राजनेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया.

लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में परदे के पीछे से सेना ने म्यांमार पर कड़ी पकड़ बना रखी थी. इसमें सबसे बड़ा योगदान म्यांमार के संविधान का है जिसमें संसद की सभी सीटों का एक चौथाई हिस्सा सेना के हाथों में रहता है और देश के सबसे शक्तिशाली मंत्रालयों का नियंत्रित करने की गारंटी सेना को देता है.

ऐसे में सवाल यही उठता है कि आखिर ये हुआ क्यों? और अब आगे क्या होने वाला है?

संसद के पहले सत्र से कुछ घंटे पहले सू ची सहित राजनेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया.

'ट्रंप जैसे चुनावी फ्रॉड के दावे'
बीबीसी के दक्षिण एशिया संवाददाता जोनाथन हेड ने बताया है कि सोमवार को म्यांमार की संसद का पहला सत्र होना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

बीते साल नवंबर में होने वाले चुनाव में आंग सान सू ची की पार्टी एनएलडी को 80 फ़ीसदी वोट मिले. ये वोट आंग सान सू ची की सरकार पर रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार के लगने वाले आरोपों के बावजूद मिले.

इन नतीज़ों के बाद सेना के समर्थन प्राप्त विपक्षी पार्टी ने चुनाव में धोखाधड़ी का आरोप लगाया. इस आरोप को एक बयान की शक्ल देते हुए नए कार्यकारी राष्ट्रपति मीएन स्वे ने हस्ताक्षर के साथ बयान जारी किया और इसके साथ ही देश में साल भर लंबा आपातकाल लागू हो गया.

म्यांमार के कार्यकारी राष्ट्रपति मीएन स्वे ने अपने बयान में कहा, "चुनाव आयोग 8 नवंबर को हुए आम चुनाव में वोटर लिस्ट की बड़ी गड़बड़ियों को ठीक करने में असफ़ल रहा है."

लेकिन इस आरोप को साबित करने के लिए उनके पास पुख़्ता सबूत नहीं थे.

ह्यूमन राइट वॉच, एशिया के डिप्टी डायरेक्टर फ़िल रॉबर्टसन ने बीबीसी से बातचीत में कहा, "ज़ाहिर तौर पर आंग सान सू ची को चुनाव में बड़ी जीत मिली. लेकिन नतीजे आने के बाद चुनावों में धांधली के आरोप लगाए गए. ये सब कुछ ट्रंप के दावों जैसा लग रहा था जहां आरोपों को साबित करने के कोई सबूत नहीं थे."

नवंबर में हुए चुनावों में सेना के समर्थन वाली यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवेलपमेंट पार्टी (यूएसपीडी) भले ही चुनाव जीतने से पीछे रह गई हो लेकिन इससे सेना का जो संसद में दख़ल है वो कम नहीं होने वाला था. साल 2008 में एक संवैधानिक संशोधन किया गया जिसके तहत सेना के पास 25 फ़ीसदी सीटों का आधिकार होता है. साथ ही तीन अहम मंत्रालय- गृह, रक्षा और सीमाओं से जुड़े मामलों के मंत्रालय का अधिकार पूरी तरह से सेना के पास होता है.

तो क्या एनएलडी की जीत के बाद संविधान में संशोधन किए जाने की संभावना थी?

बीबीसी दक्षिण एशिया के संवाददाता जोनाथन हेड कहते हैं कि इसके आसार ना के बराबर थे क्योंकि ऐसा करने के लिए सदन में 75 फीसदी समर्थन की ज़रूरत है. जो तब तक असंभव है जब तक सेना के पास संसद में 25 फ़ीसदी वोट हैं.

जापान में रह रहे म्यांमार के लोग सेना के विरोध में सड़कों पर उतर चुके हैं.

यंगून (रंगून) में मौजूद पूर्व पत्रकार आए मिन ठंट ने बीबीसी को बताया कि "सोमवार को जो हुआ उसके पीछे एक अन्य वजह भी हो सकती है. सेना के लिए ये एक शर्म की बात हो गई होगी क्योंकि उन्हें चुनाव में हार की उम्मीद नहीं थी. जिनके परिवार वाले सेना में हैं उन्होंने भी उनके खिलाफ़ ही वोट किया होगा."

वो ये भी कहती हैं, "ये समझना होगा कि देश में सेना अपने आपको किस तरह देखती है. अंतरराष्ट्रीय मीडिया आंग सान सू ची को 'राष्ट्रमाता' कहती है लेकिन सेना यहां खुद को 'राष्ट्रपिता' मानती है."

नतीजतन, जब सत्ता की बात आती है तो यहां सेना "दायित्व और हक़" की भावना महसूस करती है. हाल के सालों में म्यांमार अंतरराष्ट्रीय व्यापार की दिशा में अधिक खुला है, माना जाता है कि ये सेना को पसंद नहीं आया.

मिन कहती है कि यहां सेना किसी भी बाहरी को ख़तरे की तरह देखती है. मिन का मानना है कि कोरोना महामारी और अल्पसंख्यक रोहिंग्या को मताधिकार से वंचित रखने पर अंतराष्ट्रीय आलोचनाओं ने भी सेना के लिए इस तरह का कदम उठाने का ये वक्त उपयुक्त बना दिया.

हालांकि मिन कहती हैं कि जो कुछ हुआ है उससे वो स्तब्ध हैं.

भविष्य में क्या होगा?
ज़ाहिर है कि जानकार भी नहीं समझ पा रहे हैं कि आख़िर सेना ने ऐसा अभी क्यों किया क्योंकि इससे सेना को कोई बड़ा फ़ायदा होता नज़र नहीं आ रहा है.

नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर के एशिया रिसर्च इंस्टीट्यूट से जुड़े जेरार्ड मैकैथी कहते हैं, "यह ध्यान देने वाली बात है कि वर्तमान प्रणाली म्यांमार की सेना के लिए काफी फायदेमंद है. इसमें वाणिज्यिक हितों और राजनीतिक कवर में पूरी तरह से स्वायत्तता, बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय निवेश है. सब कुछ सेना के हाथों में है."

जेरार्ड कहते हैं कि ये भी हो सकता है कि सेना विपक्षी पार्टी यूएसडीपी को आगे के चुनाव में बेहतर और मज़बूत बनाने के लिए ये कर रही है.

वहीं ह्यूमन राइट वॉच के फ़िल रॉबर्टसन मानते हैं कि सेना का ऐसा क़दम म्यांमार को एक बार फिर अंतराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग कर देगा. दूसरी ओर देश के भीतर भी इस कारण गुस्सा पैदा होगा.

वह कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि म्यांमार के लोग इस क़दम को आसानी से स्वीकार कर लेंगे. लोग एक बार फिर सैन्य सत्ता वाले भविष्य की ओर नहीं बढ़ना चाहते. देश को लोग आंग सान सू ची को सैन्य सत्ता के ख़िलाफ़ एक चट्टान के तौर पर देखते हैं."

"लोगों को उम्मीद है की बातचीत से ये मुद्दा सुलझा लिया जाएगा. लेकिन अगर इसके ख़िलाफ़ बड़े प्रदर्शन होने लगे तो देश के बीतर संकट की स्थिति पैदा होने का ख़तरा हो सकता है."

(bbc.com)

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