संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आज के विश्व में किसी देश का अंदरूनी क्या?
04-Feb-2021 5:52 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय  : आज के विश्व में किसी  देश का अंदरूनी क्या?

पश्चिम की एक पॉप गायिका रिहन्ना ने भारत के किसान आंदोलन के समर्थन में एक ट्वीट क्या कर दिया, बात की बात में हिन्दुस्तानी राष्ट्रभक्त रिहन्ना की कम से कम कपड़ों वाली तमाम तस्वीरें निकाल लाए जो वे खुद ही अपने सोशल मीडिया पन्नों पर पोस्ट करती हैं। और हाल के महीनों में भारत नहीं, भारत सरकार की निजी सुरक्षा के लिए तैनात देश के सबसे घातक परमाणु हथियार ने भी इस अंतरराष्ट्रीय गायिका पर खुला हमला बोल दिया। यह हथियार एंटी मिसाइल, और एंटी एयरअटैक डिफेंस सिस्टम की तरह भारत सरकार की आलोचना पर खुद होकर पल भर में सक्रिय हो जाता है, और ट्विटर पर जवाबी परमाणु हमला शुरू कर देता है। कुछ लोग इस डिफेंस सिस्टम को कंगना रनौत नाम से भी बुलाते हैं। अभी इस डिफेंस सिस्टम की तरफ से पश्चिम की इस गायिका की चुनिंदा तस्वीरें पोस्ट करने पर लोगों ने इस देशी डिफेंस सिस्टम की भी टक्कर की तस्वीरें पोस्ट करना शुरू किया है, और ट्विटर का कम्प्यूटर बदन की भरमार वाली तस्वीरों को नंगी करार देते हुए बावला हो गया है। 

खैर, सोशल मीडिया के बकवासी हमलों पर लिखने जैसा कुछ है नहीं क्योंकि एक दशक पहले पखाने के दरवाजे के भीतर गालियां कुरेदते हुए लोग डरते भी थे, अब तो सोशल मीडिया पर अपने नाम, पहचान, और तस्वीर सहित बलात्कार की धमकियां भी लिख देते हैं, उनकी हम अब क्या आलोचना करें। लेकिन आज इस मुद्दे पर लिखने की बात इसलिए आन पड़ी है कि भारत सरकार ने खुलकर मशहूर विदेशियों के लिखे का विरोध किया है, और भारत के किसान आंदोलन को भारत का आंतरिक मामला बताया है। इस गायिका के अलावा दुनिया की सबसे मशहूर पर्यावरणवादी किशोरी ग्रेटा थनबर्ग सहित कई और चर्चित लोगों ने किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन का समर्थन किया है, और भारत सरकार ने इन सबकी बोलती बंद कर देने के अंदाज में अपनी प्रतिक्रिया ट्वीट की है। 
यह बात बड़ी दिलचस्प है कि किसी देश की कौन सी बात उसकी आंतरिक बात रहती है, और बाहर के लोगों के दखल के लायक नहीं कही जाती है। हमारी मामूली समझ तो अभी पिछले ही महीने तकरीबन इन्हीं दिनों अमरीका के संसद भवन पर हुए हमले पर भारतीय प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया को देखते आई है जिसमें अमरीकियों द्वारा, मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उकसावे और भडक़ावे पर देश की संसद पर हमला किया गया था, और वहां गिने जा रहे वोटों को नष्ट करने की कोशिश की गई थी। मारने वाले और पांच मरने वाले सभी अमरीकी थे, संसद भी अमरीका की थी, भडक़ाने वाला अमरीकी राष्ट्रपति था, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वहां लोगों को शांति की नसीहत दी थी। अब मोदी के ही मित्र रहे हुए डोनल्ड ट्रंप को अमरीकी जनता ने नमस्ते-ट्रंप कह दिया था, तो भडक़कर इस ट्रंप ने अपने लोगों को संसद पर हमला करने का फतवा देकर भेजा था। इस मामले में कुछ भी भारतीय नहीं था, लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री ने शांति की नसीहत दी थी। अब सवाल यह है कि मोदी यह नसीहत देते हुए जितने अमरीकी थे, या अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा देते हुए जितने अमरीकी थे, उतनी ही भारतीय रिहन्ना भी है। आज अगर उसने भारतीय किसान आंदोलन को लेकर कुछ अहिंसक बात कही है, तो यही बात तो ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, और अमरीका जैसे कई देशों से सांसद पहले बोल चुके हैं, इस आंदोलन का साथ दे चुके हैं। लेकिन चूंकि इस बार की यह ट्वीट अमरीकी मनोरंजन-दुनिया की एक सबसे चर्चित और कामयाब महिला की तरफ से आई थी, यह जायज था कि भारत की मनोरंजन-दुनिया की अपने को सबसे चर्चित और सबसे कामयाब मानने वाली महिला जवाबी हमला करती। इस तरह कंगना रनौत ने भारत (देश नहीं) सरकार को नापसंद किसान आंदोलन के समर्थन के खिलाफ तमाम परमाणु मिसाइलों को लेकर हमला शुरू कर दिया। 

चूंकि भारत में आज सक्रिय कंगनाएं अपनी तमाम ऊर्जा मोदी के आलोचकों पर हमले में लगाती हैं, इसलिए उनके पास यह वक्त नहीं रहता कि यह भी पढ़ सकें कि मोदी क्या लिखते हैं। मोदी ने अमरीका के हिंसक हमलावरों को शांति की नसीहत देकर एकदम जायज काम किया था, उसके लिए उनका अमरीकी होना जरूरी नहीं था। लेकिन कंगनाओं के साथ-साथ मोदी सरकार के लोग भी हिंसक अमरीकियों को मोदी की नसीहत लगता है नहीं पढ़ पाए। इसलिए आज वे दुनिया के मशहूर लोगों की मामूली अहिंसक ट्वीट पर भी भारत सरकार की तरफ से हमला कर रहे हैं कि किसान आंदोलन भारत का आंतरिक मामला है इससे बाहर के लोग दूर रहें। अब भारत सरकार के लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इसी तर्क का इस्तेमाल करते हुए अमरीका के हिंसक ट्रंपवादी मोदी से सवाल कर सकते हैं कि कैपिटल हिल के अंगने में तुम्हारा क्या काम है? 

जिनके दिमाग का दीवालिया निकल चुका है, महज वे ही लोग आज दुनिया को ऐसी सरहदों में बांटने की कल्पना कर सकते हैं जिनके आरपार लोग बयान भी न दें। अगर पश्चिम के देशों का दबाव न होता और वहां हिन्दुस्तानी बाल मजदूरों के बुने कालीनों का बहिष्कार न हुआ होता, तो क्या हिन्दुस्तान में कालीन उद्योग में बाल मजदूर घटे होते? ऐसे कितने ही मामले हैं जिनमें दूसरे देश या कोई अंतरराष्ट्रीय संगठन अपने दबाव से किसी देश में फेरबदल लाते हैं। बांग्लादेश में कपड़े बनाने वाले मजदूरों की बदहाली और उनकी बहुत ही कम मजदूरी के खिलाफ पश्चिम के देशों ने खुद अपने कारोबारियों का जमकर विरोध किया, और उन्हें मजबूर किया कि वे बांग्लादेश के कारखानेदारों से वहां के मजदूरों को अधिक मजदूरी दिलवाएं। यह तो आज की दुनिया में सभ्य और विकसित लोकतंत्रों की पहचान है कि वे अपने निजी स्वार्थों और अपनी तंग-सीमाओं से बाहर जाकर दूसरों के लिए कितना कुछ कर सकते हैं। और यह कोई नई बात भी नहीं है, हिन्दुस्तान जब आजाद हुआ उसके पहले से गांधी लगातार फिलीस्तीनियों के पक्ष में और इजराइल के खिलाफ लिखते थे। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का गांधी का विरोध तो उस देश की आंतरिक व्यवस्था पर सीधा हमला था, लेकिन हिन्दुस्तान उस पर गर्व करता है। गांधी न तो दक्षिण अफ्रीकी थे, न ही वहां आंदोलन का उनका कोई कानूनी हक बनता था। लेकिन वे उस पिछली सदी में भी एक जागरूक विश्व नागरिक थे, और इस नाते वह हक न होते हुए भी उनकी जिम्मेदारी थी। आज हिन्दुस्तान के जो कमअक्ल और अधिक बदनीयत वाले लोग गैरहिन्दुस्तानियों की आलोचना पर हिंसक हमले कर रहे हैं, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि ऐसा करते हुए वे गांधी की डाली हुई गौरवशाली परंपराओं को खारिज भी कर रहे हैं। जो लोग हिन्दुस्तान की सरकार की आलोचना को हिन्दुस्तानियों का देशद्रोह मानते हैं, और गैरहिन्दुस्तानियों की नाजायज दखल मानते हैं, वे गांधी के युग की दुनिया को भी नहीं समझते, आज की दुनिया तो दूर की बात है। दिक्कत यह है कि दुनिया को बचाने की फिक्र करने वालों की गिनी-चुनी ट्वीट के मुकाबले दुनिया को तबाह करने पर आमादा लोगों की ट्वीट लाखों गुना है। हिंसा की सुनामी के बीच भले लोगों के पांव जमीन पर टिके रहें, ऐसा खासा मुश्किल है। लेकिन फिर भी दुनिया का इतिहास है कि वह ऐसी ही नफरत और हिंसा के बीच से उबरकर एक बेहतर दुनिया बनी है। और इतिहास की मिसालों से परे इस दुनिया में ऐसी संभावनाएं हैं कि वह आज से बेहतर बन सकती है। आज दुनिया के किसी भी लोकतंत्र को यह भूल जाना चाहिए कि वे थ्यानमान चौक पर, हांगकांग में, सीरिया में या सिंघु बॉर्डर पर कुछ मनमानी करके बिना आलोचना, बिना प्रतिक्रिया रह सकते हैं। अंदरूनी मामला तो इतिहास के हर मामले को कहा जा सकता है, हिटलर अपने देश के भीतर दसियों लाख यहूदियों को मार रहा था, और वह भी उसका अंदरूनी मामला था। 21वीं सदी की दुनिया में इतना अंदरूनी कुछ भी नहीं रह गया है कि जिस पर सरहद के बाहर के लोग मुंह न खोलें। भारत सरकार के डिफेंस सिस्टम के दिमाग में यह बुनियादी बात बैठाने की जरूरत है। 

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