संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सूचना का अधिकार, सत्ता के पुलाव का सबसे सख्त कंकड़
06-Feb-2021 5:15 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सूचना का अधिकार,  सत्ता के पुलाव का  सबसे सख्त कंकड़

सत्ता पर बैठे लोग, समाज के ताकतवर लोग, सार्वजनिक संस्थाओं और ओहदों पर काबिज लोग अगर किसी बात पर सबसे अधिक विचलित होते हैं तो वह आरटीआई है, यानी सूचना का अधिकार। हाल के बरसों में इस कानून का जितना इस्तेमाल हुआ है, उसका एक बड़ा हिस्सा बेजा इस्तेमाल का है। लेकिन लोकतंत्र में कौन सा ऐसा कानून होता है जिसका बेजा इस्तेमाल न होता हो? इसलिए आरटीआई का इस्तेमाल करके ब्लैकमेलिंग की जाती है, और इसलिए आरटीआई कानून को कमजोर किया जाए, यह एक निहायत अलोकतांत्रिक सोच है। पार्षदों से लेकर सांसदों तक के चुनाव में लोग अमूमन कानून तोडक़र ही चुनाव जीतते हैं इसलिए क्या चुनाव व्यवस्था खत्म कर दी जाए? संसद और विधानसभाओं में अपराधी लगातार बढ़ते चले जा रहे हैं तो क्या इन सदनों को खत्म कर दिया जाए? सरकारें आमतौर पर भ्रष्ट रहती हैं, तो क्या निर्वाचित लोगों के मुकाबले फौज को सत्ता दे दी जाए? जब कभी लोग लोकतंत्र की छूट के बेजा इस्तेमाल से थकते हैं, वे तुरंत उस छूट को खत्म करने की बात करने लगते हैं। वे बेजा इस्तेमाल खत्म करने के बजाय छूट को खत्म करने की बात करते हैं। इसी तरह गुजरात में अभी राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त ने एक जिले के स्वास्थ्य विभाग के जनसूचना अधिकारियों को निर्देश दिया है कि बहुत अधिक आरटीआई लगाने वाले एक परिवार के तीन सदस्यों को अगले पांच बरस के लिए ब्लैकलिस्ट कर दिया जाए, और उनसे कोई आवेदन या अपील मंजूर न करें। 

हर दिन हिन्दुस्तान में कोई न कोई ताकतवर व्यक्ति ऐसा आदेश देते हैं जो कि सुप्रीम कोर्ट में घंटे भर भी खड़ा न हो। बिहार सरकार ने पिछले पखवाड़े दो ऐसे आदेश दिए जो कि लोकतंत्र के खिलाफ थे। बिहार सरकार ने यह आदेश जारी किया कि अगर सोशल मीडिया पर कोई जनप्रतिनिधि या सरकारी अधिकारी पर अमर्यादित टिप्पणी करेंगे, तो उस पर पुलिस सख्ती से कार्रवाई करेगी। उसके बाद बिहार का यह नया फैसला सामने आया है कि अगर राज्य में किसी विरोध-प्रदर्शन या सडक़ जाम में कोई शामिल होते हैं, और पुलिस उनके खिलाफ मामला पेश करती है, तो उन्हें न कोई सरकारी नौकरी मिल पाएगी, न ही कोई सरकारी ठेका मिल पाएगा। इसके खिलाफ हमने दो दिन पहले लिखा ही था, और अब आज गुजरात का यह आदेश आया है जो कि सूचना आयोग की बुनियादी जिम्मेदारी के ठीक खिलाफ है। अगर कोई परिवार किसी एक विभाग में अपनी निजी वजहों से भी बहुत अधिक संख्या में अर्जियां लगाता है, तो भी उसे ब्लैकलिस्ट करने का कोई अधिकार सूचना आयोग के पास नहीं है। 

अब जब कोरोना और लॉकडाऊन के पिछले करीब एक बरस में हिन्दुस्तान की तमाम सरकारों ने डिजिटल और ऑनलाईन कामकाज अधिक दूर तक सीख लिया है, तो सूचना के अधिकार की जरूरत घटनी चाहिए। सरकार के हर विभाग को अपनी फाईलों को ऑनलाईन करते जाना चाहिए ताकि लोगों को उसकी कॉपी मांगने के लिए धक्के न खाने पड़ें। सरकारी कामकाज में जिन फाईलों में सबसे अधिक भ्रष्टाचार होता है, उन फाईलों की कॉपियां देने में सबसे अधिक आनाकानी की जाती है। चूंकि सूचना आयोगों में ही भूतपूर्व सरकारी अफसरों को रखा जाता है, इसलिए उनकी एक प्राकृतिक सहानुभूति सरकारी अमले के साथ रहती है जो कि किसी को भी कोई कॉपी देना नहीं चाहते। बहुत सी जगहों पर परले दर्जे के भ्रष्ट रिटायर्ड अफसर सूचना आयोगों पर काबिज हो जाते हैं, और वे सरकार के संगठित भ्रष्टाचार को दबाए-छुपाए रखने की कोशिशों को बचाने का काम करते हैं, और सूचना मांगने वाले लोगों को तरह-तरह से परेशान करते हैं। हो सकता है कि गुजरात सूचना आयोग का यह अलोकतांत्रिक आदेश ऐसे ही सिलसिले का एक नतीजा हो। 

अब डिजिटल कामकाज के चलते हुए सरकारों को सूचना मांगने की जहमत खत्म करनी चाहिए, और सूचना के अधिकार को सूचना की जिम्मेदारी में बदलना चाहिए। सरकारी कामकाज जब तक राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित कोई गोपनीय दस्तावेज न हो, सूचना के अधिकार के तहत खुले हुए हर कागज को विभागों की वेबसाईटों पर डालने की जिम्मेदारी उन विभागों की होनी चाहिए। एक वक्त था जब पुलिस विभाग कोई एफआईआर करता था, तो वह एक रहस्य की तरह छुपी हुई बात रहती थी। अब एफआईआर को इंटरनेट पर डालना सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पुलिस की जिम्मेदारी हो गई है, इसलिए तकरीबन हर एफआईआर देखी जा सकती हैं। ऐसा ही हाल हर सरकारी दस्तावेज का होना चाहिए ताकि आम जनता को या आरटीआई एक्टिविस्ट को महीनों तक धक्के खिलाने के बाद अगली अपील की तरफ न धकेला जाए। हो सकता है कि आरटीआई का इस्तेमाल कुछ लोग ब्लैकमेलिंग के लिए भी करते हों। लेकिन कई लोग तो मीडिया का इस्तेमाल भी ब्लैकमेलिंग के लिए  करते हैं, और दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ में एक न्यूज पोर्टल के पत्रकार को एक मंझले दर्जे के वन अफसर से एक करोड़ रूपए के आसपास उगाही के मामले में गिरफ्तार किया गया है। तो ब्लैकमेलिंग को देखते हुए क्या मीडिया को बंद कर दिया जाए? लोकतंत्र में हर कानून के बेजा इस्तेमाल का रास्ता लोग निकालते हैं, लेकिन इस वजह से कोई भी कानून कमजोर करना नाजायज बात होगी। सूचना के अधिकार ने सरकार के भीतर की गंदगी को उजागर करने, और कम करने की कोशिश की है। जब ऐसी कोशिशों के बाद भी न सरकारों को कोई शर्म रहे, और न ही अदालतों की अधिक दिलचस्पी भ्रष्टाचार घटाने में रहे, तो फिर सूचना का अधिकार अकेले कौन सा भाड़ फोड़ सकता है? लेकिन भ्रष्ट लोकतंत्र के भीतर अपनी सीमित संभावनाओं के साथ सूचना का अधिकार एक बड़ा सकारात्मक बदलाव लेकर आया है, और इस कानून को खोखला करने की तमाम कोशिशों के खिलाफ लडऩा चाहिए। यह एक अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश भी सूचना के अधिकार को कमजोर करने वाला आया है, और उसने लोगों को बड़ा निराश भी किया है। कई बरस पहले, 2010 में, दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की इस दलील को खारिज कर दिया था कि मुख्य न्यायाधीश के दफ्तर को आरटीआई के दायरे में लाने से न्यायिक स्वतंत्रता में अड़चन आएगी। मामला दिलचस्प था कि जब हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई दफ्तर के तर्कों के खिलाफ फैसला दिया था। बाद में उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील हुई और वहां पर पांच जजों की बेंच ने एकमत होकर दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को सही कहा था, और सीजेआई दफ्तर के तर्कों को गलत माना था।  

हमें पक्का भरोसा है कि गुजरात सूचना आयोग का यह आदेश अदालत में तुरंत खारिज हो जाएगा।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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