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तुम तो मधु लिमये हो महुआ!
10-Feb-2021 2:23 PM
तुम तो मधु लिमये हो महुआ!

करीब डेढ़ साल पहले मैंने सांसद महुआ मोइत्रा पर एक लेख लिखा था जब उन्होंने लोकसभा में पहली बार अपना तेजतर्रार भाषण दिया था। महुआ के तेवर जस के तस हैं जो अभी लोकसभा में फिर उनकी तकरीर में देखने मिला।  
 

-कनक तिवारी

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शेरनी की तरह दहाड़ती हैं। फिलवक्त उन्होंने अपनी पार्टी का एक नुमाइंदा लोकसभा में महुआ मोइत्रा के नाम से निर्वाचित कराया है। अपने पहले भाषण में महुआ ने दो तिहाई बहुमत की संसदीय हेकड़ी के तैश को समझा दिया कि कपड़ा धोबी के यहां कितना भी साफ सांप्रदायिक भावनाएं भडक़ाकर धो लिया गया हो। उस पर लोकतंत्रीय इस्तरी चलाने से ही संसद की व्यापक समझ का मानक पाठ तैयार किया जा सकता है। अपने पहले क्रिकेट मैच या मेडन स्पीच में महुआ ने लोकसभा की पिच पर छक्का लगा दिया। वे शेरनी के जुमले में नहीं गरजीं। उन्होंने बहुत कम समय में जनसंसद में एक प्राथमिकी दर्ज करने के साथ भवियमूलक चुनौतियों का कोलाज भी बिखेरा। उस तर्कमहल की एक एक ईंट इतनी मजबूत रखी कि बीच बीच में दो तिहाई वाले भारी भरकम सत्ता पक्ष की ओर से की जा रही व्यवधानी हुल्लड़ तुलसीदास की रामचरितमानस की चौपाइयों के बीच में क्षेपक या गड़बड़ रामायण की तरह सुनने में बेहूदी लगी। 

बेहद संयत, सटीक, व्याकरणसम्मत, संसूचित करती जवाबदेह अंगरेजी गद्य में महुआ ने सैद्धांतिक सवाल उठाए। तकनीक की भाषा में कहें तो उसका डेमो सत्ता पक्ष के मुंह पर दे मारा। महुआ के बेहद कुलीन और ईंट ईंट जोडक़र तराशे गए भाषण के तर्कमहल को हिन्दी में अनुवादित कर सुना जाए। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लोकसभा के स्मरणीय नायक मधु लिमये का संसदीय इतिहास में पुनराविष्कार दिखा। शालीन मुद्रा में एनडीए सरकार के दो तिहाई बहुमत को पराजित नहीं लेकिन असहमत विपक्ष के रूप में महुआ ने कबूला। जैसे पोरस ने सिकंदर के सामने युद्ध में पराजय के बावजूद स्वाभिमानी सिर ऊंचा रखा। 

तृणमूल सांसद ने दो टूक कहा कि दो बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को विस्फोटक मुहाने पर शातिर साजिशी सियासत द्वारा बिठा दिया गया है। यह लोकतंत्र के लिए ट्रेजडी या अशुभ संकेत हो सकता है। उन्होंने कहा अल्पसंख्यकों के सडक़ों, बाजारों पर एक उन्मादी हिंसक और खुद को वहशी सांप्रदायिकता की सांस्कृतिक उत्तराधिकारी समझते लोगों द्वारा जानवर की तरह पीट पीटकर मारा और कत्ल किया जा रहा है। यह युग इस देश के इतिहास के नए परिच्छेद के रूप में लिखा जा रहा है। उन्हें बरगलाकर हिंसक बनना सिखाया भी जा रहा है। देश कूढ़मगज, कुंद, गैरप्रगतिशील और कुंठाग्रस्त सलाहकारों के रेवड़ में फंसा दिया गया है। वहां विज्ञानसम्मतता, आधुनिक भावबोध और सभ्यतामूलक समकालीन मूल्यों की कोई जरूरत नहीं रह गई है। 

लोकसभा में दिया जा रहा महुआ का भाषण महज नये सदस्य द्वारा बिखेरी गई चेतावनी का अहसास नहीं था। लगा जैसे हिन्दुस्तान का जख्मी और कराहता हुआ मौजूदा इतिहास खुद एक इंसानी प्रतिनिधि बनकर देश के नागरिकों की चेतना को झिंझोड़ रहा है। वह अभिमन्यु शैली का साहसी लेकिन सहायता मांगता हुआ चीत्कार नहीं था। उसमें महाभारत उपदेशक का भाव भी नहीं था। महुआ ने अद्भुत संयम, सावधानी और मुक्तिबोध के शब्दों की ‘दृढ़-हन’ की विनम्रता चेहरे पर कायम रखी। यह बताने के लिए कि विनम्रता मूल्यों को रचने में ज्यादा नायाब और स्थायी कारगर हथियार होती है। एक शब्द का दोहराव किए बिना, अटके बिना, सांसों के आरोह अवरोह का अभिनय कौशल इस सांसद को याद दिला गया कि इस नई महाभारत में उसे दुर्योधन और दु:शासन को भी नए रूपक में ढालकर ओज के हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर से उनकी पंक्तियों में आशीर्वाद लेना है। वह उसने अद्भुत सामायिकता के साथ किया। शायर राहत इंदौरी का शेर भी बहुत मौंजू तरीके से इस महिला सांसद ने सूत्रबद्ध चेतावनी के रूप में लोकसभा के रेकार्ड में लिखा तो दिया। महुआ मोइत्रा की तरह यदि छह सांसद भी संसद की तकरीरोंं में इसी तरह सजग रहे, तो भारी भरकम सत्तामूलक धड़े का हुल्लड़बाज हिस्सा अपने उस लक्ष्य तक तो पहुंचने में कठिनाई महसूस करेगा, जो एक बरसाती नदी के मजहबी, उद्दाम उफान की तरह हिन्दुस्तानियत की सदियों पुरानी उगी फसल को बेखौफ  होकर काफी कुछ बहा ले गया। 

एक भौंचक सरकार को अंगरेजी भाषा सरिता में चप्पू चलाती सांसद ने तर्क और तथ्य के दोहरे आक्रमण में फंसाकर पूछा जिसका जवाब ‘मोदी है तो मुमकिन है‘ के नारे में नहीं दिया जा सकता। 120 सरकारी नुमाइंदे हैं जो सूचना प्रसारण मंत्रालय में बैठकर हिन्दुस्तान की मीडिया के सेंसर अधिकारी हैं। उनके आदेश, निर्देश और समीक्षा के बाद ही मीडिया में खबरें तराशी, खंगाली और छापी जाती हैं। देश की अवाम की दौलत का केवल एक पार्टी और एक नेता के लिए दुरुपयोग हो रहा है। देश के चुनिंदा कॉरपोरेटी ही मीडिया मुगल हैं। सत्ता और संपत्ति के गठजोड़ का खुला खेल चल रहा है। उसकी परत-परत नोचकर महुआ ने संसद को अभियुक्त भाव से आंज भी दिया। यह मार्मिक सवाल पूछा कि देश की सेना तो देश की सेना है। वह एक व्यक्ति की सेवा में चुनाव प्रचार का एजेंडा कैसे बन सकती है। चाहे कुछ हो निराशा का एक बादल तो उनके भाषण से छंटा। एक लोकसभा सदस्य ने पूरी लोकसभा को उसके इतिहास, संगठन, मकसद और भविष्य का साफ सुथरा आईना दिखा दिया। यह तो वह भाषण है जिसने मार्क एंटोनी भले न हो, मधु लिमये, हीरेन मुखर्जी, नाथ पई, हेम बरुआ, सोमनाथ चटर्जी और राममनोहर लोहिया की एक साथ याद दिला दी। 

मौजूदा लोकसभा का भारी भरकम सत्ता पक्ष केवल संख्या बल के आधार पर ही अपना कीर्तिमान स्थापित नहीं कर सकता। कई नए तनाव जबरिया उठाए जा रहे हैं। सरकार के मुख्य घटक भाजपा की पूरी नीयत और ताकत जवाहरलाल नेहरू के रचे लोकशाही के एक एक अवयव पर सैद्धांतिकता की आड़ में निजी हमला करने की है। महुआ ने भी राजस्थान के पहलू खान और झारखंड के तबरेज अंसारी का नाम लेकर मॉब लिंचिंग की ओर अपनी आवेशित करुणा के जुमले में हमला किया। हैरत की बात है प्रधानमंत्री को अशोका होटल में भोज के वक्त या बिहार के स्वास्थ्य मंत्री को विश्व कप में भारत के खिलाड़ी रोहित शर्मा की बल्लेबाजी पर खुश होकर तालियां बजाते वक्त बिहार के मुजफ्फरपुर में 200 से भी ज्यादा बच्चों के सरकारी बदइंतामी के फलवरूप मर जाने पर भी अफसोस करते नहीं सुना देखा गया। महुआ मोइत्रा देश के लिए दिए गए बंग-संदेश में भारतीय नवोदय के अशेष हस्ताक्षरों राजा राममोहन राय, रवींद्रनाथ टैगोर, काज़ी नजरुल इस्लाम, विवेकानन्द और सुभाष बोस आदि की सामूहिक सांकेतिक अनुगूंज थी। तब भी हिन्दुस्तान की संसद में आधे से ज्यादा चार्जशीटेड सदस्य देश की रहनुमाई कर रहे हों-यही पेचीदा सवाल महाभारत में उठाए गए यक्ष प्रश्नों के मुकाबले कहीं अधिक तकलीफदेह हैै।

सांसद मोइत्रा ने बहुत कम समय मिलने के बावजूद अपनी विज्ञान और गणित की छात्र जीवन की डिग्रियों और अनुभवों से लैस होकर देश के समाने आई मुश्किलों को सात सूत्रों में बताने की कोशिश की। यह साफ है कि अवाम को तकलीफ दे रही मुसीबतों की संख्या नहीं होता। उसका घनत्व और परिणाम होता है। भारतीय और अन्य संस्कृतियों में सात का आंकड़ा तरह तरह से रेखांकित होता रहा है। उसे भी किसी गणितीय संख्या की तरह स्थिर करने के उद्देश्य से ईजाद नहीं किया गया होगा। हिन्दू विवाह के सात फेरे हों या सात वचन। आकाश के सात तारे हों। साल के सात दिन हों। सात समंदर हों। दूसरी संस्कृति में सात पाप हों। या किलों के सात दरवाजे कहे जाते रहे हों। ये यब लोकजीवन की खोज हैं। उनमें संख्या का महत्व नहीं है। उसके पीछे दर्शाए गए हेतु का महत्व होता है। महुआ मोइत्रा के भाषण में हिन्दुस्तान के अवाम की वेदना की कहानी शब्दों के साथ साथ उनकी आवाज के उतार चढ़ाव, चेहरे पर उग रहे तेवरों के झंझावातों के साथ हिलकोले खा रही थीं। पूरे सदन में सत्ताधारी पार्टी के प्रधानमंत्री सहित नए सांसदों और पुराने दिग्गजों ने तार्किक मुकाबला करने की कोशिश तो की लेकिन जो पैनापन भारतीय जनता की तकलीफों की आह से उठता हुआ तृणमूल कांग्रेस की युवा सांसद के ऐलान में समा गया था। वह एक तरह से हिन्दुस्तानियत का यादनामा बनकर उभरा है। 

लगभग कारुणिक तैश में आकर इस महिला सांसद ने कहा आज भारत में एकल तरह की राष्ट्रीयता या संस्कृति सायास फैलाई और विकसित की जा रही है। वह अपने अमल में लगभग हत्यारिणी है। लोगों को उनके घरों से निकालकर सडक़ों पर कत्ल किया जा रहा है। असम का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा राष्ट्रीय नागरिकता, रजिस्टर जैसे मुद्दे की आड़ में इस देश के गरीब, मजलूम और अशिक्षित लोगों से पूछा जा रहा है। वे दस्तावेजी सबूत दें कि कब से भारत के नागरिक हैं। अपनी व्यंग्य की भृकुटि में महुआ ने चेहरे पर कसैलापन लाते हुए सरकारी बेंच की तरफ तीखा सवाल किया। इस देश में तो मंत्री तक अपनी पढ़ाई की डिग्री बताने में नाकाबिल रहे हैं। 2014 से 2019 के बीच देश में मानव अधिकारों का उल्लंघन तो कम से कम दस गुना बढ़ गया है। यह संसद इस बात का घमंड नहीं करे कि सरकार के पास जरूरत से ज्यादा बहुमत है। उस बहुमत का स्वीकार तो करना पड़ेगा लेकिन उससे कमतर संख्या के विपक्ष को ज्यादा जवाबदारी के साथ जम्हूरियत की हिफाजत करनी होगी। आंकड़ों में यदि ज्यादा अंतर नहीं होता तो विपक्षी सरकार के ऊपर आवश्यक होने पर वैचारिक नियंत्रण तो कर सकता था। 

उनका यह भी कहना था कि सत्ताधारी पार्टी को वहम है। भले ही वह इसका प्रचार करती रहे कि अच्छे दिन आ गए हैं या और भी आने वाले हैं। लेकिन हकीकत यह है कि लगातार और बार बार झूठ बोलने से कोई बात लोगों को सच की तरह लगने लगती है और वे इस हिमाकत का शिकार हो जाते हैं। धर्म और राजनीति का इस कदर घालमेल कर दिया गया है कि दोनों अशुद्ध हो गए हैं। यह सब सायास और जतन के साथ किया जा रहा है। अब इस देश की एकता के लिए न तो कोई इकलौता नारा है या कोई इकलौता प्रतीक। महुआ मोइत्रा के इस कथन की अनुगूंज में हिन्दुस्तान के इतिहास को ‘इंकलाब जिन्दाबाद’, ‘वंदे मातरम’, ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’, ‘आराम हराम है’, ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, ‘जयहिन्द’ वगैरह की याद तो संसद सदस्यों के दिमागों के जरिए आई होगी। 

शुरुआत में ही अपने भाषण के संयत आचरण के लिए भी महुआ ने बहुत अदब और सम्मान के साथ देश के महान नेता मौलाना आजाद की याद की और उनके कहे हुए उद्धरण का पाठ किया। यह भी बताया कि संसद में प्रवेश करने के पहले मौलाना आजाद की प्रतिमा देश को उसकी बहुलवादी संस्कृति और सभी वैश्विक सभ्यताओं के आपसी सहकार की भी याद दिलाती रहती है। वही भारतीय सोच का प्रतिनिधि अक्स है। उसकी अनदेखी किसी भी कीमत पर संविधान निर्माताओं की उत्तराधिकारी पीढ़ी द्वारा लोकसभा में कैसे की जा सकती है। सच है, लोगों को भले अन्यथा समझाया जाता हो लेकिन 70 बरस पुराना लोकतंत्र और संविधान कहीं न कहीं दरक तो जरूर रहे हैं। उनके भाषण में एक देशभक्त की पीड़ा एक बुद्धिजीवी के कथन की भविष्यमूलकता और एक आम नागरिक से सरोकार रखने की सैद्धांतिक और प्रतिनिधिक कशिश ने एक साथ तृणमूल कांग्रेस की इस युवा सांसद के भाषण को संसद के अभिलेखागार में अपनी सम्मानित जगह पर रखने का वचन तो वक्त ने दिया होगा।  

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