संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घरेलू हिंसा की पराकाष्ठा के तीन अलग-अलग केस देश का हाल बता रहे हैं...
10-Feb-2021 5:15 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घरेलू हिंसा की पराकाष्ठा के तीन अलग-अलग केस देश का हाल बता रहे हैं...

हिन्दुस्तान में आमतौर पर मुस्लिमों के बीच न तो कन्या भ्रूण हत्या का चलन सुनाई पड़ता, न ही किसी की बलि देने जैसी धर्मान्धता सुनाई पड़ती। लेकिन पिछले चार दिनों में दो ऐसी दिल दहलाने वाली खबरें सामने आई हैं जिनकी वजह से न सिर्फ मुस्लिमों में, बल्कि भारत के बहुत से दूसरे सम्प्रदायों में ऐसी निजी हिंसा के बारे में लिखने की जरूरत महसूस हो रही है। पहली खबर इतवार के दिन केरल से आई जहां पर एक गर्भवती मदरसा-शिक्षिका ने अल्लाह को खुश करने के नाम पर अपने छह बरस के बेटे का गला काटकर उसे मार डाला। इसके बाद उसने खुद पुलिस को फोन करके खबर की कि उसने अपने बेटे को अल्लाह को कुर्बान कर दिया। केरल न सिर्फ हिन्दुस्तान का सबसे पढ़ा-लिखा राज्य है, बल्कि यह सेक्स अनुपात में देश में सर्वाधिक कन्या-आबादी वाला राज्य भी है। हालांकि मां के हाथों बेटे के इस कत्ल का लडक़े-लड़कियों से कोई लेना-देना नहीं है, और यह सिर्फ धार्मिक अंधविश्वास के चलते हुई पारिवारिक हिंसा है। जब इस महिला ने बेटे को मारा, तो बगल के कमरे में उसका पति उनके दो दूसरे बच्चों के साथ सोया हुआ था। इसके दो हफ्ते पहले आन्ध्रप्रदेश से अंधविश्वास से जुड़ी पारिवारिक हिंसा की एक दूसरी खबर आई थी जिसमें दो पढ़े-लिखे मां-बाप ने अपनी दो जवान पढ़-लिख रही बेटियों को मार डाला था कि वे मरने के बाद फिर जिंदा होकर लौट आएंगी। आज की ताजा खबर हरियाणा से है जहां एक महिला अभी दो महीने बाद गिरफ्तार हुई है। यह महिला हरियाणा की सबसे घनी मुस्लिम आबादी वाले इलाके मेवात की रहने वाली है, और उसे चार बेटियां हो चुकी थीं, लेकिन बेटा नहीं हुआ था। ऐसे में उसने पारिवारिक प्रताड़ऩा झेलते हुए तनाव में चारों बेटियों की गला काटकर हत्या कर दी थी, और खुद का भी गला काटने की कोशिश की थी। अस्पताल से अब छूटने पर उसे चार बेटियों की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है। 

पारिवारिक हिंसा के ये तीनों मामले अंधविश्वास और सामाजिक-पारिवारिक प्रताड़ऩा से जुड़े हुए हैं। शुरू के दो मामले अंधविश्वास में अपने ही बच्चों को मार डालने के हैं, और हरियाणा का मामला लडक़े की चाह वाले परिवार के दबाव में तनाव से की गई हत्याओं का है। इन तीन घटनाओं से दो अलग-अलग मुद्दे जुड़े हुए हैं, लेकिन ऐसी पारिवारिक हिंसा को एक साथ भी देखने की जरूरत है। धार्मिक अंधविश्वास लोगों को किस हद तक हिंसक-आत्मघाती बना देता है, उसकी कोई सीमा नहीं दिखती है। लोग अपने बच्चों को मार डालते हैं, देवी-देवता को खुश करने के लिए अपने शरीर का कोई अंग काटकर चढ़ा देते हैं, या खुदकुशी कर लेते हैं। एक तरफ तो यह दुनिया 21वीं सदी में पहुंची हुई है जब यहां के इंसान जाकर चांद को रौंद आए हैं, दूसरे ग्रहों पर जाने के रास्ते पर हैं, विज्ञान ने लोगों की बीमारियों को दूर किया है, जगह-जगह विज्ञान की पढ़ाई हो रही है, और उस बीच अंधविश्वास में ऐसी हिंसा हो रही है! एक तरफ धर्मशिक्षा देने वाले मदरसे की शिक्षिका अपने बच्चे को अल्लाह को कुर्बान कर रही है, दूसरी तरफ आन्ध्र में उच्च शिक्षित मां-बाप अपनी उच्च शिक्षा पा रही जवान बेटियों को मार डाल रहे हैं कि वे जिंदा हो जाएंगी। ऐसी नौबत में सिर्फ धर्म की शिक्षा को क्या कोसा जाए? धर्म की शिक्षा से परे उच्च शिक्षा भी लोगों के दिमाग के अंधविश्वास खत्म नहीं कर पा रही है। आज हिन्दुस्तान का सारा माहौल ही वैज्ञानिक सोच के खिलाफ हो चुका है, और इसका असर भी समाज में जगह-जगह देखने मिल रहा है। 

हरियाणा पहले भी कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनाम राज्य रहा है, और वहां आबादी में लड़कियों का अनुपात लडक़ों के मुकाबले खासा कम रहा है। वहां पर इस मुस्लिम परिवार में चार लड़कियों के बाद मां पर बेटा पैदा करने के लिए दबाव इतना बढ़ा कि उसने चारों लड़कियों के गले काटकर खुद का भी गला काटा, लेकिन वह जख्मी होकर रह गई, और बाकी जिंदगी का पता नहीं कितना हिस्सा जेल में जाएगा। हरियाणा एक ऐसा राज्य है जहां खाप पंचायतों से लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री तक लगातार लड़कियों के खिलाफ तरह-तरह के फतवे देते आए हैं, और राज्य की आम सामाजिक सोच लड़कियों के लिए हिकारत की है। जबकि हिन्दुस्तान में ओलंपिक से भी मैडल लेकर आने वाली लड़कियां हरियाणा की भी रही हैं। 

समाज के लोगों को ऐसी घटनाओं से महज सतह पर तैरते हुए लक्षण मानना चाहिए जिनकी बीमारी सतह के नीचे है, और मरने-मारने से कम दर्जे की हिंसा सामने नहीं आ पाती है। लोगों को यह समझना चाहिए कि हिंसा की पराकाष्ठा के कुछ मामले जब सामने आते हैं, तो उससे कम दर्जे की हिंसा के हजारों मामले और रहते हैं जो कि पुलिस और अखबार तक नहीं पहुंचते, घर की चारदीवारी के भीतर  जिनका दम घुटकर रह जाता है। ऐसी आत्मघाती या पारिवारिक हिंसा से उबरने के लिए लोगों के बीच एक वैज्ञानिक सोच विकसित होना जरूरी है, और समाज के भीतर लड़कियों और महिलाओं के लिए सम्मान बढऩा भी जरूरी है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में स्थित डॉ. दिनेश मिश्रा जैसे जीवट सामाजिक कार्यकर्ता लगातार अंधविश्वास के खिलाफ अपना वक्त और अपनी मेहनत लगाकर काम कर रहे हैं। अलग-अलग प्रदेशों में ऐसे और लोग भी हैं। लेकिन पुणे से लेकर बेंगलुरू तक अंधविश्वास और धर्मान्धता के खिलाफ काम करने वाले लोगों का साम्प्रदायिक कत्ल भी हो रहा है। ऐसे में अधिक संख्या में जागरूक लोगों को अधिक मेहनत करने की जरूरत है क्योंकि जब देश में कुछ ताकतें लगातार लोगों को धर्मान्ध और अंधविश्वासी बनाने के लुभावने काम में लगी हुई हैं, तब न्यायसंगत लोगों को जुटना होगा, वरना लोगों को अंधविश्वासी और धर्मान्ध बनाना तो एक अधिक आसान काम है ही। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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