विचार / लेख

टकराव तब भी होंगे मगर...
13-Feb-2021 2:33 PM
टकराव तब भी होंगे मगर...

-दिनेश श्रीनेत 

पिता और पुत्र के बीच होने वाला टकराव लंबे समय से रचनाकारों की दिलचस्पी का विषय रहा है। शेक्सपीयर के नाटकों से लेकर 'मुगल-ए-आज़म' और 'शक्ति' जैसी फिल्में हों, 'गांधी विरुद्ध गांधी' जैसा नाटक हो या तुर्गेनेव का 'पिता और पुत्र' जैसा क्लासिक उपन्यास हो। लोग इसे दो पीढ़ियों के जीवन मूल्यों के बीच टकराव की तरह देखते हैं। इतना लोकप्रिय होने की वजह शायद यह भी है कि ऐसा टकराव हर समय में और आम तौर पर हर परिवार में देखा जाता है। जरूरी नहीं कि इस टकराव में उतनी ही तल्ख़ी हो जैसी हम साहित्यिक रचनाओं या फिल्मों में देखते हैं, मगर हर परिवार में असमति के स्वर उठते ही रहते हैं।

इसकी एक बड़ी वजह जो मुझे समझ में आती है वह यह कि पिता की मौजूदगी में जब बेटा अपनी खुद की पहचान के प्रति सचेत होना आरंभ करता है तो वह अपने अवचेतन में हर उस चीज से बचना चाहता है, जिससे उसकी पहचान को उसके पिता की पहचान से जोड़ा जाए। पिता की पहचान से जोड़ा जाना ही दरअसल उसकी खुद की आइडेंटिटी के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए उसकी स्वतंत्र शख़्सियत हमेशा पिता के साथ असहमतियों पर टिकी होती है। आम तौर पर यह कान्फ्लिक्ट बड़े बेटे और पिता के बीच सबसे पहले आता है। क्योंकि तब तक पिता ने अपनी घरेलू और सामाजिक सत्ता छोड़ी नहीं होती है और बेटे का उस परिधि में प्रवेश हो रहा होता है। पिता का एकाधिकार और वर्चस्व कहीं न कहीं उसकी स्वतंत्र पहचान को बाधित कर रहा होता है।
 
यहां पिता का पक्ष समझना भी दिलचस्प होगा। पिताओं के बेटे जिस वक्त वयस्क हो रहे होते हैं, पिता को यह समझ में आने लगता है कि उनकी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा हमेशा वैसी नहीं रहने वाली कि वह उनकी ताकत से अपने आपको स्थापित किए रहें। लिहाजा वह कुछ 'टूल्स' और 'पिलर्स' का सहारा लेता है, जिनका निर्माण करना उन्होंने अपनी जवानी के संघर्ष के दिनों में सीखा है। ये 'टूल्स' अक्सर अकाट्य और कठोर सिद्धांतों के रूप में उनके जीवन में प्रवेश लेते हैं। वह अपने चारो तरफ एक सिस्टम एक तंत्र खड़ा करते हैं, जो उनकी चुकती हुई, क्षय की तरफ बढ़ती ऊर्जा को सहारा देते हैं।
 
किसी भी व्यवस्था, बिजनेस या निजी ज़िंदगी में जब सिस्टम का निर्माण होता है तो काम की प्रक्रिया आसान हो जाती है तथा समय और हालात के थपेड़ों से वह काफी हद तक अप्रभावित भी रहता है, मगर दूसरे स्तर पर यहां भी एक क्षय होना आरंभ हो जाता है। जब सिस्टम अपना लचीलापन खो देता है तो उसमें  बदलते समय के अनुरूप खुद को बदलने की क्षमता भी खत्म हो जाती है। कहा जाता है कि अतीत में डॉयनासार पूरी सृष्टि में इतने शक्तिशाली हो गए कि यही उनके विनाश का कारण बन गया। वहीं छोटे सरिसृप या कीड़े-मकोड़े अनुकूलन के जरिए लाखों वर्षों से सरवाइव कर रहे हैं। 

किसी काम को पहले से तय किए गए तरीके से ही किया जाएगा यह हर नई पीढ़ी में सबसे ज्यादा चिढ़ पैदा करती है। ऐसे  किसी भी सिस्टम का निर्माण उसके वजूद को निरर्थक बता देता है। इसलिए युवा जिद करते हैं, जल्दीबाजी करते हैं और गलतियां करते हैं। वे हर उस काम को अपने तरीके से, अपनी छाप से करना चाहते हैं, जो अब तक किसी और के बताए तरीके से होता आया है। यही उनके भीतर की अपार ऊर्जा को बाहर निकलने का स्वाभाविक मौका देता है। यह इतना स्वाभाविक है कि अगर किसी नई पीढ़ी में बीते के प्रति असंतोष न हो तो हमें यह मानना चाहिए कि उसके विकास में ही कुछ दोष है। 

आम तौर पर हमारे समाज में परवरिश की जितनी भी थ्योरी गढ़ी गई है, उसका सार यही होता है कि बच्चों को, युवाओं को, भावी पीढ़ी को उसी तरीके से विकसित करना है, जिसे पिछली पीढ़ियों ने समय की कसौटी पर खरा पाया है। इस तरह की धारणा गढ़ते समय में लोग यह भूल जाते हैं कि इस तरीके में आने वाली पीढ़ी की अपनी पहचान, उसकी खुद की रचनात्मकता के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं गई है। इसीलिए बहुत बार युवा उन मूल्यों के प्रति भी विद्रोह करता है जो वास्तव में अनुकरणीय होते हैं। सत्तर के दशक में युवाओं के बीच पनपा हिप्पी मूवमेंट इसकी दिलचस्प मिसाल है। इस काउंटरकल्चर की जड़ में उपभोक्तावाद, शहरी संस्कृति, बढ़ती औपरिकता का विरोध था मगर कालांतर में यह एक अराजक दर्शन में बदल गया, जिसमें नशीली दवाएं और यौन क्रांति शामिल हो गया। 

परंपरा और नवीनता का सतत् सिद्धांत है कि हमेशा पुराने मूल्यों में जो श्रेष्ठ है उसे अगली पीढ़ी स्वीकार करती है और जो मूल्य समय के साथ अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं, उन्हें छोड़ दिया जाता है। मगर यह प्रक्रिया टकराव में ही अपना आकार लेती है। सवाल यह उठता है कि क्या इस टकराव और संघर्ष का कोई विकल्प भी है? मुझे लगता है कि सबसे पहले हमारे समाज में इस टकराव को अस्मिताओं के संघर्ष के रूप में देखना बंद करना चाहिए। पुरानी पीढ़ी यानी पिता को हमेशा यह खतरा महसूस होता है कि अगर उन्होंने नए पनपने का मौका दे दिया, उसे सामाजिक स्वीकृति दे दी तो वे खुद मिट जाएंगे। अपने जीवन के तीस-चालीस सालों में हासिल की गई सत्ता को वह इतनी आसानी से मिटने नहीं देना चाहते। 

पुरानी कृषि और जमीन आधारित पारिवारिक व्यवस्था में यह पितृ सत्ता के रूप में दिखता था, वहीं आधुनिक समाज में पिछली पीढ़ी की यह 'जिद' उन्हें अकेलेपन की तरफ धकेल रही है, क्योंकि आधुनिक समाज व्यवस्था जिसमें हर 10 साल में बदल रही टेक्नोलॉजी का वर्चस्व है, युवाओं को ही पूरी अर्थव्यवस्था का केंद्र बना रहे हैं, पुरानी पीढ़ी अपने पुराने मूल्यों के साथ अकेली पड़ गई और हाशिये पर चली गई है। इसलिए यह मान कर चलें कि खासतौर पर भारतीय समाज में अस्मिताओं का यह संघर्ष और गहराने वाला है। 

जो समस्या की जड़ है, वो यह है हमारी पूरी समाज व्यवस्था में दो पीढ़ियों के बीच सतत संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। प्राचीन भारतीय समाज जो उपनिषदों तथा पुराणों की कथाओं के माध्यम से हमारे सामने आता है, उसमें भी कठोर पितृसत्तात्मकता होने के बावजूद संवाद के बहुत से मौके खुले होते थे। हमारी युवा पीढ़ी के पास रिसेंट हिस्ट्री यानी कि तात्कालिक इतिहास का कोई एक्सेस नहीं है। हम एक ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं, जिसकी स्मृति बहुत क्षीण है। हम 10 साल से ज्यादा पुरानी बातों को भूलने लगते हैं। हम अपने श्रेष्ठतम प्रयासों, विचारों और व्यक्तियों  का कोई आर्काइव नहीं बनाते। अतीत में भारतीय समाज अपने विचारों को एक सनातन शृंखला में बदलने का प्रयास करता था, जिसमें एक पीढ़ी अपने बाद वाली पीढ़ी को अपने मूल्य, विचार और अनुभव उत्तराधिकार में दे जाती थी।  यह परंपरा 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक भारतीय परिवारों में चलती रही। 

वहीं पश्चिम में विचारों और अनुभवों को एक इंस्टीट्यूशन में बदल दिया गया। यानी कि उसका एक्सेस हर किसी के लिए था। इसलिए वहां पर विचारों को किताबों में, प्रयोगशालाओं में, विश्वविद्यालयों में बदलने की कवायद रही। इसीलिए वहां पर इंटैलेक्चुअल प्रॉपर्टी, पेटेंट और ज्ञान के सार्वजनिकीकरण जैसे मुद्दों पर बहस आरंभ हुई। हमारे समाज का कठोर जाति आधारित ढांचा ऐसा करने से रोकता था। यहां पर एक जाति अपने कारोबारी हुनर को गोपनीय बनाकर रखना चाहती थी, ताकि उसकी अपनी संतानें सुरक्षित रहें। यहां ज्ञान को सबके सीखने के लिए खुला छोड़ने की परंपरा रही ही नहीं। 

हमने 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में जब पूरी तरह से ग्लोबल होते संसार से अपना नाता जोड़ लिया है तो हमें भी विचारों के सांस्थानिकरण की तरफ बढ़ना होगा। विचार और अनुभवों को इस तरह संचित करना होगा कि वह किसी कठोर सिस्टम में न बदलें बल्कि वह एक ज्यादा 'मुक्त समाज' में विचार, बहस और आलोचना के लिए उपलब्ध हों। इस तरह विचार, सिद्धांत और अनुभव पुरानी पीढ़ी के लिए 'सुरक्षा कवच' नहीं रहेंगे बल्कि एक सतत् प्रक्रिया का हिस्सा होंगे, हर पुरानी पीढ़ी युवाओं से सीखेगी और अपने अनुभवों को समृद्ध करेगी। युवा पिछले संचित ज्ञान में अपनी मौलिकता को जोड़कर उसे बेहतर बनाने में अपना योगदान देंगे। टकराव तब भी होंगे मगर वह समय का पहिया आगे की तरफ ले जाएंगे। (फेसबुक से)

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