संपादकीय
आज एक वेबसाईट पर जब एक खबर की हैडिंग दिखाई पड़ी कि पांच साल में पहली बार बिना किसी नियुक्ति के रिटायर हो सकते हैं जस्टिस बोबडे, तो इस हैडिंग से यह धोखा हुआ कि जस्टिस बोबडे की रिटायरमेंट के बाद की कोई पोस्ट अभी तय नहीं हुई है। समाचार आगे पढऩे पर समझ आया कि सुप्रीम कोर्ट का अगला मुख्य न्यायाधीश तय होने के पहले वर्तमान सीजेआई के रिटायर हो जाने की आशंका है, और ऐसा पांच बरस में पहली बार होगा। आमतौर पर अगला सीजेआई पहले तय हो जाता है।
अभी चार दिन पहले संसद में अपने एक धमाकेदार और शानदार भाषण में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने हाल ही में न्यायपालिका की साख चौपट होने को लेकर जिस तरह का हमला बोला, उसके बाद आज की यह हैडिंग ऐसी गलतफहमी पैदा कर रही थी। उन्होंने सेक्स शोषण के आरोपों से घिरे पिछले एक सीजेआई पर हमला बोला था, और कहा था कि वे खुद अपने खिलाफ हुई शिकायत की सुनवाई के जज बनकर बैठे थे, और रिटायर होते ही राज्यसभा में चले गए। महुआ मोइत्रा की बात एकदम खालिस खरी थी, इस एक मुख्य न्यायाधीश के ऐसे फैसलों से, और ऐसी संसद सदस्यता लेने से अदालत की साख पूरी चौपट ही हो गई है। लेकिन सच तो यह है कि राज्यसभा न जाने पर भी सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने वाले जज देश के बहुत से आयोग या ट्रिब्यूनल के मुखिया बन जाते हैं, और देश में 50 से अधिक ऐसी कुर्सियां हैं जिनमें रिटायर्ड बड़े जज ही आ सकते हैं। नतीजा यह होता है कि दिल्ली में सबसे शाही बंगलों पर पांच बरस और कब्जा बनाए रखने के लिए, सहूलियतों और दबदबे के लिए लोग, जज और नौकरशाह, फौजी और नेता, रिटायर होने के पहले समझौते करते हैं ताकि रिटायरमेंट के बाद वे शाही दिल्ली से लेकर प्रदेशों के राजभवनों तक कहीं काबिज रह सकें।
लेकिन यह बात महज न्यायपालिका तक सीमित नहीं है। राज्यों में देखें तो बहुत से ऐसे मामले लगातार सामने आते हैं जिनमें रिटायर होने वाले अफसर अपने आखिरी बरसों में वर्तमान सरकार को खुश करने के काम में लगे रहते हैं, उनके विवेक के फैसले सत्ता की पसंद के होते हैं ताकि वे रिटायर होने के बाद राज्य में पांच बरस के लिए कोई और कुर्सी-बंगला पा सकें। यह सिलसिला लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का एक बड़ा जरिया हो गया है, एक बड़ी वजह हो गई है। इस सिलसिले के खिलाफ किसी सामाजिक कार्यकर्ता को अदालत जाना चाहिए कि जज और अफसर जिस राज्य में काम करते हुए रिटायर हुए हैं, उस राज्य में उन्हें बाद में कोई नियुक्ति न मिले। ऐसी नियुक्तियां हितों के टकराव को बढ़ाती हैं, भ्रष्टाचार को बढ़ाती हैं।
हालांकि यह सुझाते हुए भी हमें अदालतों से बहुत उम्मीद नहीं है क्योंकि राज्यों के हाईकोर्ट के जज भी राज्य के मानवाधिकार आयोग जैसी कुर्सियों पर आते ही हैं, और जनता के बीच ऐसी धारणा बनी रहती है कि अदालती फैसले सरकार की मनमर्जी के होने से जजों को बाद में ऐसी कुर्सियां मिलती हैं। शासन हो या न्यायपालिका, इनको न सिर्फ अपनी निष्पक्षता बनाए रखनी चाहिए, बल्कि वह निष्पक्षता दिखनी भी चाहिए। अब देश भर में जनधारणा की कीमत बुझाकर फेंकी गई सिगरेट जितनी भी नहीं रह गई है। अब सुप्रीम कोर्ट की किसी संवैधानिक बेंच तक पहुंचने के बाद ही हो सकता है कि ऐसी किसी जनहित याचिका को इंसाफ मिल सके।
राज्यों के स्तर पर तो यह आसानी से मुमकिन है कि जिन कुर्सियों पर रिटायर्ड अफसर या रिटायर्ड जज को रखने की मजबूरी हो, वहां यह नियम लागू कर दिया जाए कि इसके लिए हर प्रदेश अपने प्रदेश से बाहर के लोगों में से लोगों को छांटे। इससे भ्रष्टाचार कुछ हद तक कम होगा, और पक्षपात का खतरा भी घटेगा। आज तो हालत यह है कि जज और अफसर रिटायर होने के पहले से ऐसी कुर्सियों पर निशाना लगाकर चलते हैं कि उन्हें अपना पुनर्वास कहां पर चाहिए। बहुत से मामले तो ऐसे हैं जिनमें एक-एक बरस पहले से अखबारों में यह छपने लगता है कि किस कुर्सी पर कौन काबिज होने वाले हैं, और होता भी वैसा ही है। यह पूरा सिलसिला पूरी तरह से अनैतिक, और हितों के टकराव के आधार पर असंवैधानिक भी है। आज जजों की निजी दिलचस्पी अगर ऐसे मनोनयन और नियुक्तियों में नहीं होती, तो शायद हितों के टकराव के खिलाफ जज बड़ी कड़ी बातें किसी फैसले में लिखते। आज भी इस सिलसिले को खत्म करने के लिए लोगों को ही अदालत जाना होगा, क्योंकि इस भ्रष्टाचार पर पहला पत्थर मारने का हक न सरकार में किसी को है, न अदालत में। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)