विचार / लेख
साठ बरस हो गए। यह बात तब से मेरे सीने में दफ्न है। समझ ही नहीं पाता था कि इसे उजागर करूं या नहीं करूं। 1960 में मैं रायपुर के साइंस कॉलेज में बीएससी प्रीवियस का विद्यार्थी था। जनरल नॉलेज की एक प्रतियोगिता के लिए हमीदिया कॉलेज भोपाल से निमंत्रण आया था। प्रिंसिपल ने मुझे और एक मेरे वरिष्ठ मित्र एसजे गाॉटलिब को चुना। वे मुझसे उम्र में 10 साल बड़े थे। बीच में पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने गए थे। वहां से फिर आकर पढ़ने लगे थे। बहरहाल हम भोपाल गए। रुकने का प्रबंध हमीदिया कॉलेज के हॉस्टल में ही था। भोपाल में वह हमारे लिए नई जगह थी। गॉटलिब के एक मित्र डॉ हेनरी बिलासपुर के थे। मेडिकल कॉलेज भोपाल में अंतिम वर्ष के विद्यार्थी थे। वे उनके कमरे में ठहरे और उनके बगल के कमरे में एक सिक्ख वरिष्ठ विद्यार्थी थे। उनके कमरे में मुझे ठहरा दिया गया। हम लगभग दो दिन वहां रहे। इसलिए उस अज्ञात मित्र से मित्रता हो गई।
उसके बाद की गर्मी की छुट्टियों में मैं अपने शहर राजनांदगांव से बिलासपुर, कटनी गाड़ियां बदलता हुआ इलाहाबाद के प्लैटफार्म पर पहुंचा। वहां से मुझे कानपुर जाना था। कानपुर में पांच नंबर गुमटी में मेरी बुआ रहती थीं। मेरे उक्त सिक्ख मित्र की बुआ भी पांच नंबर गुमटी में ही रहती थीं। अजीब संयोग था कि वह मित्र मुझे इलाहाबाद के रेलवे प्लैटफार्म पर मिला। हम दोनों बहुत खुश हो गए और एक लंबी सी सीमेंट की बेंच पर बैठ गए जिस पर करीब चार लोग बैठ सकते थे। लगभग बीच में एक अधेड़ बल्कि बुजुर्ग उम्र के बहुत प्रतिभाशाली देखते कुछ मटमैले भूरे से ढीले ढाले कपड़े पहने एक सज्जन बैठे थे। हल्की सी खिचड़ी हो चली दाढ़ी रही थी, बाल लंबे से। हम दोनों को गाड़ी बदलने के पहले खाना भी खाना था। हम दोनों अपने अपने घरों से पूरी सब्जी लाए थे। मैंने बुजुर्गवार से कहा कि थोड़ा सा खिसक जाए ताकि हम लोग बैठकर खाना खा लें। वे खिसक तो गए। दस मिनट बाद ही उठकर धीरे धीरे चले गए।
मैंने देखा गेट पर टिकट चेकर खड़ा था। उसने उन्हें देखते ही झुककर सलाम किया। लगभग पैर ही छुए। दो मिनट बाद मेरे दिमाग की घंटी बजी। रेलवे टिकट चेकर ने ऐसा क्यों किया। यह कौन है। मैं तेज कदमों से रेलवे टिकट चेकर के पास पहुंचा। ये कौन हैं? उन्होंने कहा पहचाना नहीं। यह तो निराला जी हैं। मैं प्लेटफार्म के बाहर बदहवास भागता हुआ दौड़ा। रिक्शा वालों के पास पहुंचा। वे समझे कि कोई ग्राहक है। मैंने कहा मुझे कही नहीं जाना है। अभी-अभी एक बुजुर्ग से सज्जन काफी तंदुरुस्त से यहां आए थे क्या? रिक्शा वालों ने कहा। हां निराला जी थे और हमारा फलांफलां साथी उनको ले गया है। अब तो मेरे पास कोई चारा नहीं था सिवाय इसके कि अपना सिर धुनूं। बहुत भारी कदमों से लौटा।
वर्षों तक सोचता रहा कि यह बात कैसे उजागर करूं। कितनी सच होगी। उनके विवेक पर कैसे भरोसा करूं। कभी इलाहाबाद आना ठीक से हुआ नहीं। अभी अक्टूबर 2019 में आया। आज रेलवे प्लैटफार्म पर हूं, वाराणसी जाने के लिए। अब प्लैटफॉर्म पहचाना नहीं जा रहा है। सीमेंट की वह बेंच यहां अब नहीं है। सब कुछ आधुनिक हो गया । कुछ अरसा पहले हिंदी के कई विद्वान सूर्यनारायण, बसंत त्रिपाठी, सुबोध शुक्ला वगैरह कॉफी हाउस में मुझसे मिलने आए। उनमें निरालाजी के पौत्र विवेक निराला भी थे। तब मैंने उनसे पूछा कि निराला जी तो शायद 1961 में चले गए। 1960 का जो वाकया मैं बता रहा, उस समय उनकी शारीरिक स्थिति क्या इतनी रही होगी कि वे स्टेशन पर आ जाते। उन्होंने कहा कि हां इतने बीमार नहीं थे और लीडर प्रेस स्टेशन के पास ही होने से आने की पूरी संभावना बनती है। तब मैंने हिम्मत की कि अज्ञात टिकट चेकर पर, अज्ञात रिक्शा वाले मित्रों पर भरोसा करके लिख दूं। तब से लेकर आज तक मैं इतना मूर्ख क्यों रहा? मन में कांटा चुभ रहा है। चुभता रहा। चुभता रहेगा। यह अपराध मुझे सालता रहेगा।