सामान्य ज्ञान
गुनाहों का देवता हिंदी उपन्यासकार धर्मवीर भारती के शुरुआती दौर के और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है। इसमें प्रेम के अव्यक्त और अलौकिक रूप का अन्यतम चित्रण है। सजिल्द और अजिल्द को मिलाकर इस उपन्यास के एक सौ से ज्यादा संस्करण छप चुके हैं। छ
गुनाहों का देवता वर्ष1949 में प्रकाशित हुआ था। उस समय धर्मवीर भारती की उम्र केवल तेईस वर्ष थी। इस उपन्यास से पहले वे प्रेम कविताएं लिखते रहे थे। इलाहाबाद की बहुचर्चित संस्था परिमल की स्थापना 10 दिसंबर 1944 को हुई थी। भारती परिमल के सदस्य थे और उसकी गोष्ठियों में कविता-पाठ किया करते थे। एक बार वहीं उनकी कविताओं की प्रशंसा हरिवंशराय बच्चन ने की थी। 1946-47 में उन्होंने परिमल की गोष्ठियों में तीन कहानियां पढ़ीं- स्वप्नश्री और रेखा , शिंजिनी तथा पूजा । इन कहानियों का परिवेश अत्यंत कलात्मक था और इनमें भी भारती ने अपनी कविताओं की तरह प्रेम को ही परिभाषित किया था। इसी प्रेम का विस्तार गुनाहों का देवता में हुआ और काव्य में इसकी परिणति कनुप्रिया के रूप में हुई।
इसे रोमांटिक एंटरटेनर कहकर साहित्य से बाहर करने की काफ़ी कोशिशें की गईं । कहानी का नायक चंदर सुधा से प्रेम तो करता है, लेकिन सुधा के पापा के उस पर किए गए अहसान और व्यक्तित्व पर हावी उसके आदर्श कुछ ऐसा ताना-बाना बुनते हैं कि वह चाहते हुए भी कभी अपने मन की बात सुधा से नहीं कह पाता। सुधा की नजरों में वह देवता बने रहना चाहता है और होता भी यही है। सुधा से उसका नाता वैसा ही है, जैसा एक देवता और भक्त का होता है। प्रेम को लेकर चंदर का द्वंद्व उपन्यास के ज्यादातर हिस्से में बना रहता है। नतीजा यह होता है कि सुधा की शादी कहीं और हो जाती है और अंत में उसे दुनिया छोडक़र जाना पड़ता है।
इस उपन्यास पर आधारित एक फिल्म और सीरियल का भी निर्माण हुआ है। लेकिन उन्हें उपन्यास जितनी सफलता नहीं मिल पाई थी।