विचार / लेख
-ध्रुव गुप्त
इसमें दो राय नहीं कि आतंक का कारखाना कहा जाने वाला हमारा पड़ोसी पाकिस्तान खुद भी आतंक का बड़ा भुक्तभोगी रहा है। धार्मिक कट्टरता की बुनियाद पर खड़े इस मुल्क में ऐसा कोई दिन नहीं गुजऱता जब वहां आतंकी हमलों में पांच-दस बेगुनाह नहीं मारे जाते। बावज़ूद इसके भारत-विरोध में अंधे हो चुके उस देश में हालात को बदलने की कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती। वह वैसा देश है जहां आतंकी दहशतगर्दी के पक्ष में खुलेआम सभाएं करते हैं। जहां सेना और सियासत न केवल आतंक का खुला समर्थन करती है, बल्कि आतंकियों को प्रश्रय, प्रशिक्षण और आर्थिक मदद भी मुहैया कराती है। जहां सुविधा के अनुसार आतंकियों का वर्गीकरण होता है - जो पाक का अहित करे वह बुरा आतंकी और जो पड़ोसी भारत सहित दूसरे देशों में अव्यवस्था फैलाए वह अच्छा आतंकी। पाक वह लोकतंत्र है जहां नीति-निर्धारण में आम जनता की कभी कोई भूमिका नहीं रही। वहां की गृह नीति मुल्ले-मौलवी तय करते हैं, अर्थनीति चीन तथा अमेरिका और विदेश नीति सेना तय करती है। आश्चर्य यह है कि उस देश में आम लोगों के बीच से असहमति और प्रतिरोध की कभी कोई गंभीर आवाज़ नहीं उठी। आज हालत यह है कि दुनिया के तमाम देश या तो पाक से नफरत करते हैं या अपने हितों के लिए उसका इस्तेमाल। चीन आज उसके साथ खड़ा ज़रूर दिखता है, लेकिन उसकी दिलचस्पी इस मरते देश की खाल तक नोच लेने भर में है।
दुनिया के इस भूभाग में आतंक की समस्या को अगर सुलझना है तो यह पाकिस्तान और आतंक के भुक्तभोगी उसके हमसाया मुल्क़ों - भारत और अफगानिस्तान के आपसी सहयोग से ही सुलझेगा। दुखद यह है कि ऐसी कोई संभावना दूर तक नजऱ नहीं आती। आज अपने ही अंतर्विरोधों, आतंक और अर्थसंकट की वज़ह से वह देश नष्ट होने के कगार पर खड़ा है। अपने देश की मीडिया के एक बड़े हिस्से में पाक की बर्बादी का जश्न चल रहा है। क्या सचमुच हमें पाकिस्तान की बर्बादी से ख़ुश होना चाहिए ? बिल्कुल नहीं। पाकिस्तान अगर मरेगा तो उसके साथ थोड़ा-थोड़ा भारत भी ज़रूर मरेगा ! आखिर कल तक तो वह हमारे अपने वज़ूद का ही हिस्सा रहा है।