अंतरराष्ट्रीय
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण की तीन आपात स्थितियों से निपटने के लिए एक नई योजना लेकर आया है. जलवायु संकट, जैव विविधता में ह्रास और प्रदूषण, ये तीनों संकट एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और इनका अकेले-अकेले हल नहीं निकाला जा सकता.
डॉयचे वैले पर स्टुअर्ट ब्राउन की रिपोर्ट
संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेश ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की नई रिपोर्ट की प्रस्तावना में कहा है, "प्रकृति के खिलाफ हमारे युद्ध ने धरती को छिन्न-भिन्न कर दिया है." इस रिपोर्ट में जलवायु संकट, जैव विविधता के ह्रास और प्रदूषण की समस्या से निबटने के लिए एकीकृत कार्रवाई का कार्यक्रम दिया गया है.
जैसे जैसे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है, जैव विविधता को होने वाली हानि तेजी से बढ़ रही है और नई-नई महामारियां फैल रही हैं, इन सभी समस्याओं का अलग-अलग हल ढूंढ़ने की कोशिश अपर्याप्त साबित हुई हैं. इसके जवाब में 'मेकिंग पीस विद नेचर' नाम की यह रिपोर्ट वैश्विक आपात स्थितियों के तत्काल हल के लिए एक ब्लूप्रिंट है. इसमें विश्व के विभिन्न पर्यावरणीय आकलनों के जरिए समस्याओं का हल निकालने की बात कही गई है.
टुकड़ों में कार्रवाई से नहीं हासिल होंगे लक्ष्य
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) के यूएन के 2030 सतत विकास लक्ष्यों के ढांचे के तहत आपस में जुड़े पर्यावरण संकटों से निपटना चाहता है और साल 2050 तक कार्बन तटस्थता का लक्ष्य हासिल करना चाहता है. यूनेप की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने डॉयचे वेले को बताया कि जलवायु संकट, जैव विविधता में ह्रास और प्रदूषण पर टुकड़ों में कार्रवाई करके "हम अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकते." बिना किसी समन्वय के हो रहे प्रयासों की वजह से साल 2100 तक धरती का तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले के मुकाबले कम से कम 3 डिग्री तक बढ़ जाएगा. हालांकि, कोरोना महामारी के कारण उत्सर्जन में आंशिक कमी आई थी.
यह पेरिस पर्यावरण समझौते के तहत तय किए गए लक्ष्य 1.5 डिग्री का दोगुना है. तय लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साल 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन को 45 फीसद तक कम करना होगा. द लांसेट में 2018 में छपे एक लेख के अनुसार अनुमानित 80 लाख में से 10 लाख से भी ज्यादा प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है. यही नहीं हर साल करीब 90 लाख लोगों की प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों के कारण मृत्यु हो जाती है. इस ट्रेंड को उल्टा करने के लिए समन्वित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है. यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे प्राकृतिक आवासों का संरक्षण कर, अत्यधिक फसल और शिकार को रोक कर और प्रदूषण कम करके जैव विविधता को होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है और जंगली जानवरों को जलवायु परिवर्तन को सहने लायक बनाया जा सकता है.
सोचना होगा प्राकृतिक पूंजी के बारे में
पर्यावरण में हो रहे व्यापक गिरावट से निपटने के लिए 'मेकिंग पीस विद नेचर' के लेखकों ने आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन को रोकने में फौरी कार्रवाई न करने से होने वाले भारी आर्थिक नुकसान की ओर ध्यान दिलाया है. रिपोर्ट में आजीविका, समृद्धि, स्वास्थ्य और खुशहाली के लिए प्राकृतिक पूंजी पर हमारी निर्भरता की ओर धयान दिलाया गया है और उसके असमान वितरण की चर्चा की गई है. इंसान धरती और उसके इकोसिस्टम पर निर्भर है और प्रकृति से फायदा उठाता है, लेकिन मौजूदा आर्थिक और वित्तीय प्रणालियों में इसका कोई हिसाब किताब नहीं है. यूएन महासचिव अंटोनियो गुटेरेश कहते हैं, "प्रकृति को देखने का नजरिया बदलकर हम इसके असल महत्व को समझ सकते हैं." उनका कहना है कि इस मूल्य को नीतियों, योजनाओं और आर्थिक व्यवस्था में शामिल कर हम ऐसी गतिविधियों में निवेश को बढ़ावा दे सकते हैं जिनसे प्रकृति बहाल होगी.
प्राकृतिक पूंजी की गणना करने के लिए भूमि क्षरण, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता की हानि और जल व वायु प्रदूषण के खर्च और लाभ का हिसाब किया जाता है. इंगर एंडरसन ने स्पष्ट किया कि अत्यधिक गरीबी और भुखमरी को खत्म करने के लिए विकास की जरूरत है. 1990 से हमारी उत्पादित पूंजी दोगुनी हो चुकी है, लेकिन हमारी प्राकृतिक पूंजी के मूल्य में जिसमें जीवन के लिए अहम क्षेत्र, हमारी जैविक संपदा, हवा, पानी और मिट्टी शामिल है, 40 फीसद की कमी आयी है.
यूनेप का कहना है कि प्राकृतिक पूंजी तथाकथित प्लैनेटरी पूंजी का 20 फीसद हिस्सा है. प्लैनेटरी पूंजी में मानव पूंजी और मानव निर्मित पूंजी व अन्य चीजें शामिल हैं. हालांकि स्टैंडर्ड आर्थिक कदमों और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दोनों में ही पर्यावरण का नियमन करने वाले इकोसिस्टम के मूल्य को शामिल नहीं किया गया है. इनमें पर्यावरणीय विनाश की वजह से प्राकृतिक पूंजी को होने वाले नुकसान को नहीं मापा जाता.
प्रकृति का मूल्य समझना होगा
जीडीपी यूं तो वर्तमान आय को मापती है, लेकिन यह नहीं बताती कि यह कितनी टिकाऊ है. रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रकृति का नुकसान कर मौजूदा आय को बढ़ाने का कदम टिकाऊ नहीं है. इंगर एंडरसन ने कहा, "आप नदी से सारी मछली निकाल कर अपने तिमाही आंकड़ों को तो सुधार लेंगे, लेकिन आगे का क्या? टिकाऊ आर्थिक विकास को मापने का एक अच्छा तरीका जीडीपी के स्थान पर ‘समावेशी धन‘ की प्रणाली हो सकता है. क्योंकि यह प्राकृतिक पूंजी में गिरावट की गणना करता है और चक्रीय व टिकाऊ आर्थिक प्रणाली को स्वीकार करता है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर कार्बन जैसी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गैसों के उत्सर्जन को कम करने और जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म किए जाने की जरूरत है. जीवाश्म ईंधन, गैर टिकाऊ कृषि और मछलीमारी, गैर अक्षय ऊर्जा, खनन और परिवहन के लिए सालाना 5 ट्रिलियन डॉलर की सब्सिडी को खत्म कर उसे लो कार्बन और टिकाऊ प्रौद्योगिकियों के समर्थन में लगाया जाना चाहिए.
चक्रीय और लो इंपैक्ट इकोनॉमी को बढ़ावा देने का एक और रास्ता उत्पादन और श्रम से करों को हटाकर उसे संसाधनों के उपयोग और निकलने वाले कचरे पर लगाना है. विकासशील देशों में कम ब्याज वाला ग्रीन फाइनेंस भी कार्बन उत्सर्जन करने वाले और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों को हतोत्साहित करने में योगदान दे सकता है.
समस्या किसी एक की नहीं, वैश्विक है
सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर अगले एक दशक में इस तरह के परिवर्तनकारी बदलाव कैसे लागू होंगे? गुटेरश जिसे शांति योजना और युद्ध के बाद का पुनर्निर्माण करार दे रहे हैं उस पर यह रिपोर्ट कहती है कि निजी क्षेत्र, श्रमिक संगठन, शैक्षिक निकाय और मीडिया के अलावा निजी स्तर पर लोग और सिविल सोसाइटी इस परिवर्तन का नेतृत्व कर सकते हैं. सरकारों को अंतरराष्ट्रीय सहयोग और कानूनों के माध्यम से इन प्रयासों का मार्गदर्शन करना होगा.
साल 2021 इस दिशा में महत्वपूर्ण साल होगा. इस साल नवंबर में ग्लास्गो में कॉप 26 का आयोजन होगा और इसी साल मई माह में चीन में होने वाले कॉप 15 यूएन बायोडायवर्सिटी कनवेंशन होगा. 'मेकिंग पीस विद नेचर' के संदेश का प्रसार करते हुए इंगर एंडरसन ने कहा, "हमने इसे एक साथ रखा है, ताकि सिविल सोसाइटी, एनजीओ, शिक्षाविद, शैक्षिक समूह और दुनियाभर के सामाजिक कार्यकर्ता इस तक पहुंच सकें." उन्होंने कहा, "शेयरहोल्डर और पेंशन फंड जो अधिक टिकाऊ निवेश करना चाहते हैं, उन्हें भी लक्षित किया गया है. यह पूरी तरह से एक सामाजिक प्रयास होना चाहिए."
तो क्या श्रीलंका इस स्थिति से वाकिफ नहीं है? ऐसा नहीं है. श्रीलंका की स्थिति मुंशी प्रेमचंद्र या रेणु की कहानियों के उस पात्र जैसी हो चुकी है जो साहूकार का ऋण चुकाने के लिए उसी के पास फिर से उधार मांगता है और हर बार जमीन का एक टुकड़ा रेहन रख आता है. मिसाल के तौर पर देखें तो 2021 में श्रीलंका पर विदेशी कर्ज के भुगतान और ब्याज का 710 करोड़ डॉलर बकाया है जिसे चुकाने के लिए वह चीन की मदद चाहता है. सूत्रों की मानें तो श्रीलंका की सरकार चीन के साथ एक मुद्रा विनियमन समझौता करने को राजी हो गयी है. साथ में श्रीलंका को उम्मीद है कि एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) से बजट समर्थन की सुविधा के तहत 30 करोड़ डॉलर की मदद और चीन विकास बैंक से 200 करोड़ डॉलर का उधार अलग से मिलेगा. इसके अलावा चीन ने 2019 और 2020 में श्रीलंका को कई सौ करोड़ डॉलर के दो अनुदानों से भी नावाजा है. जाहिर है चीन जानता है कि उसका पैसा डूबेगा नहीं. लेकिन अगर यह सौदे व्यापारिक नजरिए से घाटे का सौदा हैं तो, फायदा किसका हो रहा है?
श्रीलंका कर्ज के चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है. अब वहां के नीतिनिर्धारकों और आम लोगों को इस मुद्दे पर गंभीरता से व्यापक बहस करनी होगी. शायद अंतरराष्ट्रीय समुदाय, और खास तौर पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय संस्थाओं को भी श्रीलंका की बद से बदतर होती निवेश और आर्थिक व्यवस्था पर ध्यान देने की जरूरत है. साथ ही जरूरत है श्रीलंका को चीन पर बढ़ती निर्भरता पर भी अंकुश लगाने के बारे में सचेत करने की. लेकिन जापान और भारत के श्रीलंका में साझा निवेश के मंसूबों को झटका लगने के बाद फिलहाल सवाल यही है कि श्रीलंका को कौन समझाएगा? (dw.com)