संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बढ़ी हुई सहूलियतें हमेशा विकास नहीं, विनाश भी..
22-Feb-2021 5:41 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बढ़ी हुई सहूलियतें हमेशा विकास नहीं, विनाश भी..

जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ रही है हिन्दुस्तान जैसे दर्जे के देश भी सहूलियतों से भरते जा रहे हैं। पहले लोग ट्रेन या बसों से दूर के शहर जाते थे, आज अगर जेब में पैसे हों तो लोग प्लेन से निकल जाते हैं, या फिर अपनी कार से भी। कार अगर भरी हुई हो, तो वह बस या ट्रेन के मुकाबले सस्ती भी पड़ सकती है, लेकिन लोगों को अकेले भी जाना हो तो भी अपनी कार से जाना साफ-सुथरा लगता है, और सहूलियत का भी लगता है। बस अड्डे या स्टेशन पर गंदगी में औरों के साथ इंतजार नहीं करना पड़ता, और घर से घर तक का सफर अपनी कार में अधिक सुविधाजनक रहता है। शहरों में अब कई-कई मंजिल की पार्किंग बनती चली जा रही है, और लोग घूमने के लिए जिस बगीचे में साइकिल से जा सकते थे, उसके पास भी अब कई मंजिल की कार पार्किंग बन गई है जो कि एक बड़ी आधुनिक सहूलियत है। शहरों के भीतर लोग पहले पैडल-रिक्शा पर सवार होकर चले जाते थे, फिर ऑटोरिक्शा और सिटी बसों की बारी आई, लेकिन इस पूरे दौर में लोग निजी गाडिय़ों को बढ़ाते चले गए, खरीदी के लिए फाइनेंस कंपनियां लाल कालीन बिछाकर खड़ी थीं, और एक रूपया भी नगद भुगतान किए बिना गाड़ी मिल जा रही है। नतीजा यह है कि लोग पहली गाड़ी तो खरीदते ही हैं, उसके पुराने होने पर उसे बेचकर नई गाड़ी खरीदते भी अब उतना भी बोझ महसूस नहीं होता जितना कि कुछ बरस पहले नई पतलून खरीदते हुए होता था। 

नतीजा यह है कि जैसे-जैसे सहूलियत बढ़ रही हैं, वैसे-वैसे लोगों की आदतें भी बदल और बिगड़ रही हैं, और लोगों के खर्च बढ़ रहे हैं, पर्यावरण पर बोझ बढ़ रहा है, सडक़ें और अधिक जाम हो रही हैं, धरती पर प्रदूषण इन गाडिय़ों को बनाते हुए भी बढ़ रहा है, और इनके चलने से भी। अब जैसे-जैसे किनारे के पेड़ काट-काटकर, मैदानों को छोटा करके सडक़ें अधिक चौड़ी की जा रही हैं, वैसे-वैसे गाडिय़ां बढ़ती जा रही हैं, पार्किंग बढ़ती जा रही है, और लोग बेझिझक गाडिय़ों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने लगे हैं। 

यह भी देखने की जरूरत है कि दुनिया के सबसे संपन्न, सबसे विकसित, लेकिन साथ-साथ सबसे सभ्य यूरोपीय देशों में लोग साइकिल का चलन बढ़ाते जा रहे हैं, वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुफ्त किया जा रहा है ताकि लोग निजी गाडिय़ों न चलाएं। लंदन जैसे शहर में अधिकतर लोग पैदल या पैडल से चलते हैं, अधिक दूरी हो तो बस या सबवे (ट्रेन) से चलते हैं, और बहुत ही अधिक जरूरी हो तो ही कार लेकर निकलते हैं। पैडल और पैदल से लोगों और धरती, दोनों की ही सेहत बेहतर रहती है। 

लेकिन गाडि़य़ों से परे की बात करें तो भी सहूलियतें लोगों को बर्बाद भी कर रही हैं। लोग कुछ सामान सस्ते मिलने की वजह से बड़े-बड़े सुपर बाजार तक जाते हैं, और वहां से उन सामानों को सस्ते में पाकर साथ में दर्जनों दूसरे लुभावने गैरजरूरी सामान लेकर लौटते हैं। खर्च भी अधिक हो जाता है जबकि नीयत बचत की रहती है। और लाया गया गैरजरूरी सामान आमतौर पर सेहत पर भी भारी पड़ता है। इन दिनों हिन्दुस्तान के छोटे-छोटे शहरों में भी मोटरसाइकिलें दौड़ाते हुए बड़े-बड़े बैग टांगे लोग दिखते हैं जो खाना पहुंचाते हैं। अब लोग घर बैठे अपने फोन पर मनचाहे रेस्त्रां का मनचाहा खाना बुला सकते हैं, जिसके 30 मिनट में पहुंच जाने की गारंटी सी रहती है। नतीजा यह है कि लोग घर का सादा और सेहतमंद खाना खाने के बजाय अधिक बार बाहर का खाना बुलाने लगे हैं। कुछ ऐसी ही आदत ऑनलाईन खरीदी की सहूलियत से बिगड़ी है। पहले लोग किसी सामान की जरूरत होने पर बाजार जाकर उसे देखते थे, परखते थे, और फिर ठीक लगने पर खरीदते थे। अब इंटरनेट पर किसी सामान को तलाशते ही उसके सौ-सौ विकल्प साथ में दिखने लगते हैं, और ऐसा होता ही नहीं कि लोगों को उसमें से कोई सामान पसंद न आए। खरीदी पहले बाजार खुले रहने पर वहां जाकर होती थी, अब वह खरीदी चौबीसों घंटे कभी भी, कहीं से भी, आनन-फानन हो जाती है। सहूलियत तो बढ़ी है, लेकिन गैरजरूरी खरीदी और फिजूलखर्ची इनमें भी खासी बढ़ोत्तरी हो गई है। 

इन दिनों हर किसी के हाथ में दिखने वाले मोबाइल फोन को देखें तो लोग अपने फोन के तमाम फीचर जान भी नहीं पाते हैं कि उसके पहले उसका नया मॉडल आ जाता है जो कि कई नए फीचर के साथ लुभाना शुरू कर देता है। लोग बिना जरूरत नए फोन पर चले जाते हैं, और पुराना हैंडसेट आसपास के लोगों को दे देते हैं, या दुकान में एक्सचेंज में बेच देते हैं। जिन नए फीचरों की कोई जरूरत नहीं होती है, कैमरों के बढ़े हुए मेगापिक्सल का फर्क भी जिन्हें समझ नहीं पड़ता है वे भी नए मॉडल पर चले जाते हैं। पुराने हैंडसेट की जिंदगी खासी बाकी रहती है, लेकिन उससे मन भर जाता है क्योंकि सामने नया मॉडल रिझाते हुए खड़ा हो  जाता है। 

यह पूरा सिलसिला पूंजीवादी व्यवस्था और बाजार को बड़ा माकूल बैठता है। लेकिन लोगों की निजी जिंदगी गैरजरूरी  खर्च के बोझ से लद जाती है। अब अपनी, परिवार की, और आसपास के दायरे की फिजूलखर्ची की हवा कुछ ऐसे झोंके लेकर आती है कि लोग खर्च न करने की हालत में एक मानसिक अवसाद, डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। कुल मिलाकर आज की बात का मकसद यह है कि बढ़ी हुई सहूलियतें अगर समझदारी से इस्तेमाल न हों तो वे जेब और धरती, इंसान की सेहत और शहरी ढांचे सभी पर बोझ होती है। दुनिया के सबसे विकसित योरप में खासी तनख्वाह पाने वाले डॉक्टर और प्रोफेसर भी, बड़े अफसर और मंत्री भी साइकिल से आते-जाते दिखते हैं जिस कसरत से उनकी सेहत भी ठीक रहती है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लोग बगीचे में पैदल घूमने के लिए भी कार से जाकर कई मंजिला पार्किंग में कार चढ़ा सकते हैं। लोग अब तय करें कि विकास कहां है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news