ताजा खबर

उत्तराखंड में पति की संपत्ति में महिलाओं को बराबरी का अधिकार, इससे क्या कुछ बदलेगा?
25-Feb-2021 5:30 PM
उत्तराखंड में पति की संपत्ति में महिलाओं को बराबरी का अधिकार, इससे क्या कुछ बदलेगा?

VARSHA SINGH/BBC

-वर्षा सिंह

उत्तराखंड सरकार ने उत्तराखंड ज़मींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम में संशोधन करते हुए महिलाओं को कृषि भूमि में बराबरी का हक़ देने संबंधी अध्यादेश जारी किया है.

इसके बाद महिलाओं को अब उनके पति की पैतृक संपत्ति में सह-खातेदार बनाया जाएगा. क़रीब 35 लाख महिलाओं को इसका फ़ायदा मिलेगा. इसका मक़सद महिलाओं को आर्थिक तौर पर स्वतंत्र बनाना है.

इसके बारे में उत्तराखंड सरकार के प्रवक्ता और कैबिनेट मंत्री मदन कौशिक बताते हैं, "महिलाएँ छोटा व्यापार करना चाहती हैं, तो उनको बैंक से ऋण देने में कठिनाई आती थी. इसीलिए हमने महिलाओं को पति की पैतृक भूमि में सह-खातेदार बनाया है. पैतृक संपत्ति जब बेटे के पास आएगी, तो बहू सह-खातेदार हो जाएगी. उसके बाद के कायदे क़ानून वही हैं कि संपत्ति फिर बच्चों को मिलेगी. इससे महिलाओं को सम्मान मिलेगा और काम करने के लिए आर्थिक स्वतंत्रता भी मिलेगी."

देहरादून में वकील अनुपमा गौतम बताती हैं कि हिमाचल प्रदेश और केरल में पहले से इस तरह के क़ानून मौजूद हैं. हिमाचल प्रदेश में महिला की मृत्यु पर उसकी संपत्ति बेटियों को ही मिलती है.

वह बताती हैं, "क़ानून के तहत पति की बनाई संपत्ति में माँ-पत्नी-बच्चों सभी को बराबर का हिस्सा दिया गया था. लेकिन पैतृक संपत्ति अब तक सिर्फ़ लड़कों को मिल रही थी. वर्ष 1998 से विधवा महिलाओं को भी इस पर हक़ दिया गया. अब नए संशोधन के बाद तहसील में कृषि भूमि के खाते पर पत्नियों का नाम भी चढ़ेगा. अनुपमा कहती हैं कि पिता या पति की संपत्ति में अधिकार महिलाओं को आर्थिक, मानसिक और सामाजिक तौर पर मज़बूत करेगा."

हिमाचल में महिलाओं को ज़मीन पर मिले अधिकार को लेकर वर्ष 2015 में किया गया अध्ययन बताता है कि राज्य के ज़रिए सिर्फ़ 28% और परिवार के ज़रिए विरासत में सिर्फ़ 22% महिलाओं को ज़मीन पर हक मिला.

यहाँ भी महिलाओं को भू-अधिकार के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है. हक़ के बावजूद ज़मीन से जुड़े फ़ैसले और प्रबंधन उनके पति या बेटे ही करते हैं. हालाँकि परिवार के अंदर और बाहर इन महिलाओं की स्थिति में सुधार भी देखा गया. ऐसे परिवारों में घरेलू हिंसा के मामले भी कम हुए. ये रिपोर्ट राष्ट्रीय महिला आयोग को सौंपी गई थी.

पहले क्या रही है स्थिति
वहीं कृषि जनगणना 2015-16 की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 12.575 करोड़ पुरुषों के पास कृषि भूमि का मालिकाना है. जबकि 2.044 करोड़ महिलाओं के पास कृषि भूमि का मालिकाना हक़ है.

इसमें सबसे अव्वल आंध्र प्रदेश (12.6%) है. इसके बाद महाराष्ट्र (11.6 %) , बिहार(11.2 %), उत्तर प्रदेश (8.9 %), कर्नाटक (8.5 %) और केरल (8.5 %), तमिलनाडु(7.6 %), तेलंगाना (6.7 %), मध्य प्रदेश (5.8 %), गुजरात (4.3 %), राजस्थान (3.8 %), छत्तीसगढ़ (2.7 %) आते हैं.

VARSHA SINGH/BBC

इस रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तराखंड इन 12 राज्यों में शामिल नहीं है. मातृशक्ति वाले राज्य की महिलाएँ अब तक संपत्ति से बाहर रखी गई हैं. उम्मीद है कि सरकार के इस फ़ैसले के बाद ये स्थिति बदलेगी. हालाँकि इस रिपोर्ट में ये नहीं बताया गया कि महिलाओं का कृषि भूमि पर मालिकाना हक़ अकेले है या फिर संयुक्त तौर पर.

वर्ष 2011 की जनगणना आधारित रिपोर्ट ये भी बताती है कि उत्तराखंड में 40.81% कृषि उत्पादकों में 28.82% पुरुष और 64.00% महिलाएँ हैं. जबकि 11.23% पुरुष कृषि श्रमिक हैं और 8.84% महिलाएँ कृषिक श्रमिक की तरह कार्य करती हैं. हाउस-होल्ड इंडस्ट्री में भी 2.72% पुरुषों की तुलना में 3.41% महिलाएँ हैं.

देहरादून-टिहरी की सीमा पर बसे सरखेत गाँव की उषा देवी बताती हैं, "घर के पुरुष खेतों में हल लगाने का काम करते हैं. बीज की बुवाई से लेकर निराई-गुड़ाई, खाद डालना, पानी का इंतज़ाम सब उनके ज़िम्मे है. जितनी मेहनत खेतों को हरा-भरा करने में लगती है, उतनी ही मशक्कत इन्हें जंगली जानवरों के हमलों से बचाने के लिए करनी पड़ती है."

"जानवर अक्सर देर रात खेतों पर हमला करते हैं. पशुओं की देखभाल, जंगल से चारा लाना, जलावन के लिए लकड़ियाँ लाने जैसे कार्यों की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं के ही हिस्से हैं. वह सुबह 8 बजे घर से जंगल के लिए जाती हैं. चारा-पत्ती और लकड़ियाँ लेकर वापस लौटने में दोपहर हो जाती है."

उषा देवी बताती हैं कि औसतन हर रोज 12-15 घंटे घर, खेत और जंगल में काम करती हैं. लेकिन जिस ज़मीन को वो उपजाऊ बनाती हैं, अब तक उस पर उनका हक़ नहीं था. पति के बाद बेटे इसके मालिक होते थे.

महिलाओं में दिख रहा है उल्लास
उत्तराखंड में वैसे भी बड़ी संख्या में पुरुष काम की तलाश में शहरों की ओर चले जाते हैं. गाँव में घर-खेत समेत अन्य कार्यों की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर ही रहती है. अब उम्मीद की जा रही है कि ऐसी महिलाओं के जीवन में बदलाव आएगा.

सरखेत गाँव की किसान महिलाएँ राज्य सरकार के इस फ़ैसले पर ख़ुशी जताती हैं. सुषमा देवी कहती हैं कि पहाड़ में ज़्यादातर खेती तो महिला ही करती है. कई बार आदमियों के पास हल लगाने का भी समय नहीं होता, तो हम किसी को पैसा देकर बुलाते हैं. हम इन खेतों में दिन-रात लगे रहते हैं, लेकिन ये ज़मीन हमारी नहीं होती.


VARSHA SINGH/BBC

शांति पँवार भी मानती हैं कि औरतों को संपत्ति पर हक़ देना चाहिए. इससे उनके जीवन पर बहुत फ़र्क पड़ता है. उषा देवी कहती हैं कि कई बार आदमी छोड़ देता है, तो औरत कहीं की नहीं रह जाती. इस तरह ये होगा कि हम अपनी खेती करके ख़ुद कमाएँगे-खाएँगे. किसी पर निर्भर तो नहीं रहेंगे. अपने बच्चे भी पाल लेंगे.

रेशमा पँवार अपने घर की इकलौती मेहनतकश महिला हैं. उनके पति की मौत हो चुकी है और सास-ससुर बुजुर्ग हैं. उसके दो छोटे बेटे हैं. मटर के जिन खेतों की वह गुड़ाई कर रही है, क़ानून में हुए इस बदलाव से पहले ससुर के नाम पर दर्ज ज़मीन का ये टुकड़ा पति के बाद उसके नन्हे बेटों के नाम होता.

अभी उन्हें ख़ुद भी ये अंदाज़ नहीं है कि खेती की ज़मीन से जुड़े क़ानून में हुआ ये संशोधन उसके जीवन में क्या बदलाव ला सकता है. लेकिन वह इस बदलाव का स्वागत ये कहकर करती हैं "ये तो होना ही चाहिए, इन खेतों में हम ही तो काम करते हैं."

हालाँकि इन सभी महिलाओं को क़ानून में हुए इस बदलाव की जानकारी नहीं थी. उन्हें जब इस बारे में बताया, तो उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया दी. सरखेत गाँव की प्रधान ममता देवी के पति संजय कोतवाल सरकार के इस फ़ैसले पर ये कहकर अचरज जताते हैं "सरकार के पास करने के लिए कुछ और काम नहीं था."

क्या गर्भवती महिलाएं कोविड-19 वैक्सीन ले सकती हैं?
वो वीगर औरतें जिनके साथ सिर्फ़ रेप नहीं होता, ख़ौफ़नाक यातनाएं भी दी जाती हैं
उत्तराखंड में वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष तरुण जोशी कहते हैं कि काफ़ी लंबे समय से महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हक़ दिए जाने की माँग चल रही थी.

उन्होंने बताया, "पहाड़ में महिलाओं की रज़ामंदी के बिना ज़मीन बेची जा रही थी. इसका ख़ामियाजा महिलाओं को ही भुगतना पड़ता था. ये सिर्फ़ बैंक से लोन लेने में सुविधा का मामला नहीं है. ज़मीन पर हक़ महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा देगा. लेकिन ये भी देखना होगा कि व्यवहार में कितना कारगर होता है. बेटियों को पिता की संपत्ति में हक़ मिला है, लेकिन उसका बहुत असर हमें नहीं दिखता. महिलाएँ भी ज़मीन पर अपने हक़ की माँग नहीं करतीं."

आशंकाएँ भी कम नहीं
देहरादून में अस्तित्व संस्था से जुड़ी और महिला मुद्दों पर कार्य कर रही दीपा कौशलम कहती हैं, "सरकार का फ़ैसला तो अच्छा है, लेकिन इस तरह के फ़ैसले आपके क्लेम करने पर आधारित होते हैं. संपत्ति पर दावा करने की प्रक्रिया तकनीकी होती है. पढ़ी-लिखी महिलाएँ भी बहुत बार इसमें चूक जाती हैं. नए संशोधन में संपत्ति पर सह-खातेदार होना और उसके बेचने की आज़ादी होने की बात भी बहुत स्पष्ट नहीं है. अभी ये कहना मुश्किल होगा कि ये महिलाओं के लिए कितना फ़ायदेमंद होगा और वे उस पर कितना हक़ जताती हैं."


VARSHA SINGH/BBC

दीपा कहती हैं कि कोर्ट से जुड़े मामले में न्याय के लिए आप जज और वकील पर निर्भर करते हैं. वे कितने जेंडर सेंसेटिव हैं, इस पर भी केस का फ़ैसला निर्भर करता है. इसलिए महिलाओं को अपना हक़ पाने के लिए कोशिश करना और क़ानून के तकनीकी दाँव-पेंच, दोनों समस्याएँ मौजूद हैं.

पौड़ी में पलायन एक चिंतन संस्था के अध्यक्ष रतन सिंह असवाल कहते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में महिलाएँ सामाजिक तौर पर अपेक्षाकृत मज़बूत स्थिति में हैं. यहाँ की महिलाओं की मुश्किल ये है कि उन पर काम का बोझ बहुत अधिक है. घर, खेत, पशु की देखभाल, जंगल से लकड़ी लाने जैसे कार्यों की ज़िम्मेदारी पर्वतीय कार्य संस्कृति में महिलाओं के हिस्से आती है. इसलिए सरकार को महिलाओं के काम के बोझ को कम करने पर ध्यान देना चाहिए.

उनके मुताबिक़ संपत्ति में सह-खातेदार बनाने से महिलाओं की ये मुश्किल हल नहीं होने वाली. न ही इससे पलायन जैसी समस्या का हल निकलेगा.

उत्तराखंड कांग्रेस की प्रवक्ता गरिमा माहरा दसौनी आशंका जताती हैं कि कहीं इस तरह के क़ानून से परिवार में विवाद की स्थिति न बने.

वह कहती हैं कि महिलाएँ ग्राम प्रधान बनती हैं, लेकिन व्यवहार में प्रधान के सारे अधिकार उनके पति के पास होते हैं. महिलाओं को अपने अधिकारों की व्यवहार में लाने की स्वतंत्रता नहीं मिलती. उनका मानना है कि ग्राम पंचायत स्तर पर वर्कशॉप लगाकर महिलाओं को उनके क़ानूनी अधिकारों के बारे में ज़ागरूक करना चाहिए. (bbc.com)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news