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कितना सही है सरकारी कंपनियों को बेचने का फैसला
25-Feb-2021 7:17 PM
कितना सही है सरकारी कंपनियों को बेचने का फैसला

महामारी के आर्थिक दुष्प्रभाव झेल रही भारत सरकार सरकारी कंपनियों को बेच कर संसाधन बटोरना चाहती है. लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि भारत जैसे देश में जन सरोकार के आर्थिक क्षेत्रों को निजी कंपनियों को सौंपा जा सकता है?
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
केंद्रीय बजट पेश करने के बाद से ही केंद्र सरकार ने सरकारी कंपनियों और सरकारी संपत्ति को बेच कर संसाधन बटोरने की बात शुरू कर दी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग सभी आर्थिक क्षेत्रों से सरकार के निकलने की बात कह चुके हैं. बुधवार 24 फरवरी को तो उन्होंने दोटूक कह दिया कि सरकार को व्यापार करने की कोई जरूरत नहीं है.

सरकारी कंपनियों को बेचने का यह जो रास्ता सरकार ने चुना है यह एक तरह से अपेक्षित था. भारतीय अर्थव्यवस्था महामारी के पहले से मंदी में थी और महामारी ने तो इसकी कमर ही तोड़ दी. खुद सरकार का ही अनुमान है कि 2020 में देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ा ही नहीं, उल्टा सात प्रतिशत घट गया. कई जानकार इस आंकड़े के इससे तीन गुना से भी ज्यादा होने का अनुमान लगा रहे हैं.

ऐसे में सरकार के सामने सबसे बड़ा सवाल है कि आवश्यक सरकारी खर्च के लिए और आर्थिक गतिविधि के चक्र को चलाने के लिए पैसे लाए तो लाए कहां से. कई जानकार पहले से कह रहे थे कि संसाधन जुटाने के लिए सरकार संपत्ति बेचने की बात जरूर करेगी. सरकार अब तेल, गैस, बंदरगाह, हवाई अड्डे, ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में 100 सरकारी संपत्तियों को बेचना चाह रही है. प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि चार महत्वपूर्ण श्रेणियों को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों की सरकारी कंपनियों को बेच दिया जाएगा.

इन चार श्रेणियों में शामिल हैं एटॉमिक ऊर्जा, अंतरिक्ष और डिफेंस, यातायात और टेलीकॉम; ऊर्जा, पेट्रोल, कोयला और दूसरे खनिज; बैंक, बीमा और वित्तीय सेवाएं. बजट पेश करते समय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की थी कि इस साल सरकारी कंपनियों में विनिवेश के जरिए 1.75 लाख करोड़ रुपए कमाने का लक्ष्य रखा गया है. उन्होंने भरोसा दिलाया था कि धीरे धीरे एयर इंडिया और जीवन बीमा निगम में लंबित स्टेक सेल को भी पूरा किया जाएगा. इसके अलावा राज्यमार्गों और संचार तारों जैसी संपत्ति को भी बेचा जाएगा.

लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार हर साल विनिवेश का एक नया लक्ष्य रखती है और उसे हासिल करने से चूक जाती है. चालू वित्तीय वर्ष के लिए 2.10 लाख करोड़ रुपयों के विनिवेश का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन हासिल हो पाए सिर्फ 19,499 करोड़ रुपए. एयर इंडिया और एमटीएनएल जैसी कंपनियों को सरकार कई सालों से बेचना चाह रही है लेकिन हर साल सरकार की कोशिशें नाकाम रह जाती हैं.

मंदी में खरीदेगा कौन
अर्थशास्त्री अरुण कुमार कहते हैं कि इस संकट के समय में सरकार का ध्यान ही गलत दिशा में जा रहा है. वो कहते हैं कि मंदी के इस आलम में कंपनियों की भी तो आर्थिक हालत ठीक नहीं है, तो ऐसे में सरकारी संपत्ति खरीदने के लिए वो खुद कहां से पैसा लाएंगी. इसका नतीजा यह भी हो सकता है कि सरकारी संपत्ति औने पौने दाम में बिक जाएगी, जिससे याराना पूंजीवाद या क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा मिलेगा.

दूसरा, अरुण कुमार कहते हैं कि महामारी की वजह से हुए नुकसान की वजह से आज सार्वजनिक क्षेत्र की प्रासंगिकता और बढ़ गई है. बड़ी संख्या में जिन गरीब और माध्यम वर्ग के परिवारों को नुकसान हुआ वो ना निजी अस्पतालों में इलाज के खर्च का बोझ उठा पा रहे हैं और ना निजी स्कूलों की महंगी फीस के बोझ को. उन सब ने अपनी उम्मीदें एक बार फिर सरकार पर टिका दी हैं और ऐसे में कम से कम जन सरोकार के क्षेत्रों में सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती.

विनिवेश और दखल दोनों साथ साथ कैसे चलेंगे
अर्थशास्त्री आमिर उल्लाह खान कहते हैं कि यह कह देना तो ठीक है कि सरकार को कंपनियां नहीं चलानी चाहिएं लेकिन आज की सच्चाई यह है कि सरकार स्वायत्ता वाली सरकारी कंपनियों के कामकाज में भी पहले से कहीं ज्यादा दखल दे रही है. आमिर कहते हैं कि ओनजीसी एक पूरी तरह से लाभ कमाने वाली और सुचारु रूप से चलने वाली सार्वजनिक कंपनी थी लेकिन सरकार ने उसके फैसलों में दखल दे कर उसकी हालत को खराब कर दिया है.

आमिर कहते हैं आज सरकार आरबीआई जैसे शक्तिशाली नियामकों को भी स्वतंत्र रूप से फैसले लेने की अनुमति देने के लिए तैयार नहीं है, ऐसे में विनिवेश आखिर हो कैसे पाएगा. वो यह भी कहते हैं कि विनिवेश अगर सिर्फ वित्तीय घाटे से उबरने के लिए किया जाता है तो यह बदहाली में घर का सोना गिरवी रखने जैसा है, क्योंकि ऐसे में निवेशकों को आप पर भरोसा नहीं होता.

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