संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय निर्वाचित नेताओं की ज्ञान से ऐसी दहशत!
28-Feb-2021 5:56 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय  निर्वाचित नेताओं की  ज्ञान से ऐसी दहशत!

केन्द्र हो, या राज्य सरकार, या म्युनिसिपल, इन सबकी घोषणाओं को देखें तो समझ पड़ता है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि सब कुछ जानते हैं। वे वायुसेना के हमले की रणनीति की तकनीकी बारीकियां भी जानते हैं, वे उपग्रह टेक्नालॉजी भी जानते हैं, उन्हें यह भी मालूम रहता है कि अपने देश-प्रदेश के बच्चों को अचानक क्या पढ़ाना शुरू कर देना है, उन्हें शहरी विकास से लेकर ग्रामीण विकास तक की प्राथमिकताएं अकेले ही सब सूझ जाती हैं। शहरों के निर्वाचित प्रशासन को देखें तो किसी चौराहे का घेरा कितना बड़ा होना चाहिए, कहां पर डिवाइडर होना चाहिए, और कहां पर फुटपाथ होना चाहिए, इन तमाम बातों को निर्वाचित या मनोनीत नेता इस अंदाज में तय करते हैं, और उसकी मुनादी करते हैं कि मानो वे चक्रव्यूह भी तोडऩे की तरकीब सीखे हुए अभिमन्यु हों। 

अब सवाल यह उठता है कि देश में कल तक जो योजना आयोग था, और राज्यों में जो योजना मंडल होता है, और म्युनिसिपलों में पार्षदों की अलग-अलग कमेटियां होती हैं, या मेयर की कोई काउंसिल होती है, उनके जिम्मे क्या है? देश में अलग-अलग विषयों के जो माहिर लोग हैं, जानकार हैं, जिन्होंने तकनीक विकसित की है, उनकी जरूरत क्या है अगर नेता ही सर्वज्ञ हैं? आज देश से लेकर प्रदेश और शहर तक पहले राजनीतिक घोषणा होती है, और फिर नेता की उस घोषणा के मुताबिक अफसर अपने दम पर ही उस बताई हुई मंजिल तक राह बिछाना शुरू कर देते हैं। हालत यह है कि अलग-अलग प्रदेशों में मुख्यमंत्री मंचों से सार्वजनिक घोषणा करते हैं कि स्कूल किताबों में कौन से पाठ जोड़े जाएंगे, या कौन से पाठ हटाए जाएंगे। अब सवाल यह है कि ऐसी घोषणा के बाद पाठ्यक्रम तय करने के लिए जानकारों और विशेषज्ञों की बनी हुई कमेटी की जरूरत क्या रह जाती है? 

एक सवाल यह भी उठता है कि निर्वाचित नेता पर अपने पांच बरस के कार्यकाल के आखिर में एक चुनाव में अपनी सरकार की कामयाबी साबित करने की जिम्मेदारी भी रहती है। ऐसे में बिना किसी योजना के, अपनी मनमानी और अपनी निजी सोच से जनता की जिंदगी पर जनता के ही पैसों से इतना बड़ा फर्क डालने वाली योजना बनाने का इतना बड़ा दुस्साहस वे किस भरोसे से करते हैं? आज भारत की बैंक व्यवस्था को काबू करने वाले रिजर्व बैंक के गवर्नर की पढ़ाई-लिखाई महज एमए-इतिहास है, तो क्या भारत की बैंकिंग इतिहास का सामान बन चुकी है? क्या बैंकिंग और अर्थव्यवस्था, लोकतांत्रिक विकासशील शासन व्यवस्था की कोई समझ अब आरबीआई गवर्नर होने के लिए जरूरी नहीं रह गई है? 

अपने आसपास सरकार हांकते लोगों को देखें तो यही समझ पड़ता है कि सत्ता पर काबिज लोगों को जानकारों और विशेषज्ञों से खासा परहेज रहता है, और ऐसा लगता है कि उनकी मौजूदगी में नेताओं के मन में हीनभावना आ जाती है क्योंकि वे उनके विषयों की समझ उनके मुकाबले जरा भी नहीं रखते हैं, या बहुत कम रखते हैं। ऐसे में ज्ञान और विशेषज्ञता से दहशत खाना स्वाभाविक है अगर निर्वाचित और मनोनीत नेता अपने आपको विशेषज्ञों के साथ एक मुकाबले में खड़ा कर लेते हैं। जबकि हकीकत यह रहती है कि देश-प्रदेश या शहर की सत्ता विशेषज्ञों को नहीं दी जाती है, निर्वाचित नेताओं को दी जाती है, और उनसे लोकतंत्र यह उम्मीद करता है कि वे जानकारों की राय लेकर, योजनाशास्त्रियों से योजनाएं बनवाकर, उसके बाद उन पर अपनी लोकतांत्रिक समझ और जनता के प्रति जवाबदेही को लागू करके व्यापक जनकल्याण के फैसले लें। लेकिन यह सिलसिला अब चलन से बाहर हो गया है। अब निर्वाचित या मनोनीत नेता भाग्यविधाता के अंदाज में अकेले यह तय करने लगे हैं कि जनहित में क्या है। वे मंच से इसकी घोषणा करने लगे हैं, और फिर मातहत अफसरों पर महज यह जिम्मा रहता है कि उन घोषणाओं को पूरा करने के लिए तरकीबें निकाल लें, बजट निकाल लें, योजनाएं बना लें, और उन्हें लागू करके नेता को उसका तमाम श्रेय दिलवाएं। यह पूरा सिलसिला देश के लिए बड़ा खतरनाक हो गया है। विशेषज्ञता से इतनी भारी-भरकम हिकारत जनता का पीढिय़ों तक का नुकसान कर रही है। लोग चुनाव जीतकर आने की अपनी क्षमता को तकनीकी विशेषज्ञता भी मान रहे हैं, योजना बनाने की क्षमता भी मान रहे हैं, और किसी महामारी की हालत में देश के लोगों के लिए दवा और टीके तय करने की काबिलीयत भी मान रहे हैं। यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है। यह देश की संभावनाओं को अधकचरे ज्ञान, विशालकाय अहंकार, मनमानी और जिद के हवाले कर देने के सिवाय और कुछ नहीं है। 

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लोगों ने राजनेताओं की जिद और सनक पर बहुत बर्बादी होते देखी है। शहर को खोदकर एक वक्त भूमिगत नाली योजना शुरू कर दी गई थी। बड़े ताकतवर नेताओं ने बिना तकनीकी सर्वे के शहर के बीच से इसे शुरू कर दिया था, और इस बात का हिसाब ही नहीं लगाया गया था कि कितने पखाने को बहने के लिए कितनी ढलान लगेगी, और कितने पानी की जरूरत होगी, उस वक्त शहर में पानी की कुल खपत और उपलब्धता कितनी थी, उस ढलान के चलते शहर के बाहर तक उस पानी को पहुंचते हुए कितनी गहराई लगेगी। ऐसे कई तकनीकी सवाल थे जिनको पूरी तरह अनदेखा और खारिज करते हुए ही नेताओं ने अपनी मर्जी से ऐसी बड़ी योजना शुरू कर दी थी, जो कि किसी किनारे नहीं पहुंच पाई। जनता के करोड़ों रूपए खर्च हो गए, बरसों की दिक्कत हो गई, और सारे पाईप दफन हो गए। 

यह तो एक छोटी सी मिसाल है, हम तो अंतरिक्ष से लेकर आसमान तक, और पनडुब्बी से लेकर बुलेट टे्रन तक ऐसा ही रूख देख रहे हैं, ऐसा ही रूख अलग-अलग प्रदेशों में देखने मिलता है, अलग-अलग शहरों में देखने मिलता है। कुल मिलाकर एक लाईन में कहें तो निर्वाचित लोगों को ज्ञान से दहशत रहती है, और किसी बैठक में अपनी सोच पर लोग ज्ञानियों से कोई भी तर्क सुनना नहीं चाहते हैं, इसलिए तकनीकी विशेषज्ञों को खारिज करके ही निर्वाचित नेता हीनभावना से बच पाते हैं। लोगों को लगता है कि जनता के बीच से चुना जाना (!), या वोटों को खरीदकर आना ही दुनिया की सबसे बड़ी विशेषज्ञता है, दुनिया का सबसे बड़ा काम है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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