संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चर्चा मुस्लिम महिला पर हो, या उसके हिजाब पर?
01-Mar-2021 5:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : चर्चा मुस्लिम महिला पर हो, या उसके हिजाब पर?

अमरीकी राष्ट्रपति भवन में अभी दो दिन पहले एक ऐसा नजारा देखने मिला जिसकी किसी ने पिछली सरकार में कल्पना भी नहीं की थी। नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने कश्मीरी मूल की एक मुस्लिम महिला, समीरा फ़ाज़ली को अपनी टीम में शामिल किया है, और उसने व्हाईट हाऊस में अपनी परंपरागत पोशाक, हिजाब पहने हुए मीडिया को संबोधित किया। हम भारत, और कश्मीर से इस महिला के परिवार के संबंधों को छोड़ भी दें, तो भी यह बात दिलचस्प थी कि व्हाईट हाऊस के मीडिया ब्रीफिंग रूम में हिजाब बांधी हुई एक मुस्लिम महिला बोल रही थी। लेकिन डेमोक्रेटिक पार्टी के इस राष्ट्रपति से ऐसी उम्मीद की भी जा रही थी क्योंकि वे चुनाव के पहले से ही अपनी टीम में हर धर्म, और हर नस्ल, देश से जुड़े हुए लोगों को रख रहे थे। 

अब सोशल मीडिया पर इस बात ने एक अलग बहस छेड़ दी है कि इसे मुस्लिम महिला का सशक्तिकरण माना जाए, या फिर हिजाब लगाई हुई मुस्लिम महिला को उसके धर्म के रिवाज का गुलाम माना जाए? दोनों बातें अपने-अपने हिसाब से सही हैं, और सोचने का अलग-अलग नजरिया पेश करती हैं। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि कुछ मुस्लिम संगठन यह लिख रहे हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति भवन में पहली बार एक हिजाबधारी मुस्लिम महिला ने बोलने का मौका पाकर एक इतिहास रचा है। इन लोगों का मानना है कि मुस्लिमों को अपने समाज की महिलाओं  पर लादे गए हिजाब को ऐसे किसी गौरव के साथ जोडक़र नहीं देखना चाहिए क्योंकि यह रिवाज बुर्के की तरह मुस्लिम महिला पर एक बोझ और बंदिश है, उसके सिवाय कुछ नहीं। कुछ दूसरे लोगों का यह मानना है कि हिजाब और बुर्के का इस्तेमाल मुस्लिम महिला का विशेषाधिकार माना जाए, या उस पर बोझ माना जाए, यह एक अलग बहस का मुद्दा है। और आज अमरीकी राष्ट्रपति भवन में एक मुस्लिम महिला को, या कि एक मुस्लिम को जो महत्व मिला है, उस महत्व की खुशी मनाई जानी चाहिए, और बुर्के-हिजाब पर बहस पहले से चली आ रही है, और आगे भी चलती रहेगी। 

कुछ मुद्दे जटिल होते हैं, उन्हें अलग-अलग काटकर देखना कुछ मुश्किल होता है। अगर मुस्लिम महिला को बुर्के या हिजाब से आजादी दिलानी है, तो हर किस्म की खबर में जब कहीं इनकी चर्चा हो, तो इन्हें बोझ या बंदिश साबित करना भी जरूरी है, क्योंकि इनकी चर्चा अलग से की जाएगी, तो उसमें कम लोगों की दिलचस्पी होगी। अमरीकी राष्ट्रपति भवन में यह मौका मिलने की वजह से हिजाबधारी मुस्लिम महिला के हिजाब वाले हिस्से पर चर्चा होने से अधिक संख्या में लोग उसके बारे में सोचेंगे क्योंकि राष्ट्रपति भवन का महत्व इससे जुड़ा हुआ है। अब सवाल यह उठता है कि कई पहलुओं वाले किसी मुद्दे के एक पहलू पर चर्चा जरूरी लग रही हो, तो यह जरूरी नहीं है कि बाकी तमाम लोगों को भी उसके दूसरे पहलुओं पर चर्चा कमजरूरी या गैरजरूरी लगे। मुस्लिम महिला को मिले मौके के साथ उस मौके की चर्चा में हिजाब का जिक्र हो जाना उन लोगों को नाजायज और गैरजरूरी लग रहा है जो कि ऐसे पुराने और दकियानूसी रिवाज के लिए मुस्लिम पोशाक लादने वालों की आलोचना करते हैं। 

जटिल मामलों का विश्लेषण भी बहुत आसान नहीं होता है। फिजिक्स का कोई अच्छा प्रोफेसर अयोध्या में खड़े होकर मस्जिद गिरवाए तो उसके इस नफरतजीवी धर्मप्रेम की आलोचना करते हुए विज्ञान की उसकी समझ को अनदेखा किया जाए, या विज्ञान की चर्चा करते हुए उसकी इस साम्प्रदायिकता को अनदेखा किया जाए? हिटलर की चित्रकला की चर्चा करते हुए उसके किए हुए नस्लवादी जनसंहार को अनदेखा किया जाए या दुनिया के इस सबसे बड़े हत्यारे की कला को ही खारिज कर दिया जाए? जब रोम जल रहा था, और नीरो बांसुरी बजा रहा था, तो क्या उसके बांसुरीवादन की संगीत-समीक्षा की जाए, या उसके संगीत को ही खारिज कर दिया जाए? नरेन्द्र मोदी जब प्रधानमंत्री निवास में अपनी हथेली पर दाना रखे हुए मोर को दाना खिला रहे हैं, और उन्हीं की दिल्ली की सरहद पर महीनों के आंदोलन के बाद किसान मर रहे हैं, तो मोदी के पक्षीप्रेम की तारीफ की जाए, या किसान आंदोलन की उनकी अनदेखी को देखते हुए उनके पक्षीप्रेम को खारिज किया जाए? 

इसी तरह की बात योरप में कई देशों में मुस्लिम महिलाओं की पोशाक को लेकर बनाए गए कानून को लेकर उठ रही है कि क्या बुर्के पर रोक मुस्लिम महिला के सशक्तिकरण का मामला है, या अपनी पोशाक तय करने के उसके अधिकार को कुचलना है? हमारा मानना यह है कि धार्मिक प्रतीकों से लदी हुई पोशाक किसी भी धर्म में, औरत या मर्द किसी पर भी एक बोझ अधिक रहती है, वह आजादी का सुबूत नहीं रहती। लेकिन अगर किसी धर्म के मानने वाले लोग उसके धार्मिक प्रतीकों को पहनकर या ढोकर चलना चाहते हैं, तो यह उनका व्यक्तिगत आजादी का दावा भी हो सकता है कि सरकार जिसे बोझ मानती है, मानवाधिकारों का हनन मानती है, वे उसे अपना हक मानते हैं। मुस्लिम महिलाओं में बहुत सी ऐसी हैं जो बुर्का पहनने की हिमायती रहती हैं, फिर चाहे वे योरप के सबसे विकसित देशों में क्यों न रह रही हों। 

धार्मिक पोशाक की बात करें तो सिक्ख समाज में पुरूष पगड़ी पहनकर चलते हैं, और अगर वे अधिक हद तक धार्मिक रिवाज मानते हैं तो वे केश, कृपाण, कड़ा, कच्छा और कटार जैसे पांच प्रतीक पहनकर रहते हैं। अब दुनिया के किसी भी धर्म में अपने प्रतीकों को पहनकर चलने के मामले में अगर किसी धर्म के लोगों ने सबसे अधिक कानूनी संघर्ष किया है, तो वे सिक्ख हैं। दुनिया भर में उन्होंने दुपहिये चलाने पर भी हेलमेट न पहनने के लिए लंबे संघर्ष किए हैं, और धार्मिक आधार पर इसी एक समुदाय को हेलमेट से छूट मिली है। अब ऐसी छूट लोगों का भला करती है, या उन्हें खतरे में डालती है, यह एक अलग बहस का मुद्दा है। लेकिन अपने धार्मिक प्रतीकों की वजह से सिक्ख हेलमेट नहीं पहनते, यह उनके धार्मिक अधिकार का एक अलग मुद्दा है। मुस्लिम महिला पर हिजाब या बुर्के का बोझ भी धर्म से जुड़ी हुई पोशाक का मामला है, और चूंकि मुस्लिम समाज में महिलाओं पर ढेर सारे नाजायज प्रतिबंध लगाए जाते हैं, वहां महिलाएं दूसरे दर्जे की नागरिक रहती हैं, इसलिए ऐसी पोशाकों का विरोध दुनिया भर में अधिक होता है। बुर्के और हिजाब का कानूनी और सामाजिक विरोध चले ही आ रहा है, एक-एक करके कई यूरोपीय देशों ने इन पोशाकों पर कई किस्म की रोक लगाई हैं।
 
फिलहाल इस चर्चा के बाद हम दो दिन पहले अमरीकी राष्ट्रपति भवन की इस अभूतपूर्व घटना पर लौटना चाहते हैं कि एक मुस्लिम महिला को जो महत्व मिला है, वह हिजाब की उसकी अपनी पसंद के बावजूद मिला है, और हिजाब न उसमें आड़े आया, न उसमें काम आया। एक महिला होने की वजह से यह महत्वपूर्ण तो है, लेकिन अमरीका में तो आज उपराष्ट्रपति एक काली महिला है, ऐसे में मुस्लिम होने की वजह से समीरा फ़ाज़ली का वहां होना अधिक महत्वपूर्ण है, और उसी पर खुशी मनाने की जरूरत है। इस महिला को हिजाब की वजह से वहां पहुंचने का मौका नहीं मिला है, हिजाब को इस महिला की वजह से वहां पहुंचने का मौका मिला है, और यह मौका उस महिला पर चर्चा का है। अमरीकी दुनिया में जो महिला इतनी ऊंचाई पर पहुंची हुई है, और लंबे समय से वहां कामयाब है, बड़े ओहदों पर काम करते आई है, उस पर हिजाब कोई थोप नहीं सकता, यह उसकी अपनी पसंद की बात है। उसकी इस पसंद को इस मुद्दे में चर्चा में ऊपर रखना गलत होगा, उस महिला के अपने व्यक्तित्व को, उसकी कामयाबी को ही इस चर्चा में ऊपर रखना होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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