संपादकीय
अभी कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली, जहां पर चौबीसों घंटे पुलिस तैनात रहती है, में एक तेज रफ्तार महंगी कार ने एक स्कूटर सवार बुजुर्ग को टक्कर मारी और वह मौके पर ही मर गया। कार चलाने वाला लडक़ा हीरे के कारोबारी का लंदन में पढ़ रहा 18 बरस का बेटा था। मरने वाला घरेलू नौकर था, नौकरी भी छूट चुकी थी, बीवी किसी और के घर काम करती थी, और वह उससे मिलने जा रहा था। पुलिस ने मामला दर्ज करके लडक़े को आनन-फानन जमानत पर छोड़ दिया।
यह मामला अपने आपमें अनोखा नहीं है, और देश के सबसे चर्चित फिल्म अभिनेताओं से लेकर देश के सबसे बड़े कारोबारियों की बिगड़ैल औलाद तक को सडक़ों पर नशे की हालत में गरीबों को कुचलते पाया जाता है। कल की ही खबर है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में देर रात नशा करके लौटते पैसे वाले परिवारों के लडक़े-लड़कियां पुलिस के रोकने पर उनके साथ बदसलूकी पर उतर आए। बहुत अधिक पैसे वालों की औलादें सडक़ पर कितना भी बड़ा हादसा करे, उनका बच निकलना तकरीबन तय रहता है।
ऐसे मामलों में हम कानून में एक सुधार सुझाते आए हैं, और उसे एक बार फिर दुहराने की जरूरत है। आज सडक़ों पर किसी भी हादसे के लिए जब गाड़ी चलाने वाले या गाड़ी पर कोई कार्रवाई होती है, तो वह दुपहिए और चौपहिए, निजी या कारोबारी किस्म से बंटी हुई रहती है। मोटरसाइकिल कम दाम की रहे, या अधिक दाम की, जुर्माना एक सरीखा लगता है। वैसे ही कार तीन लाख की रहे या तीन करोड़ की, जुर्माना एक सरीखा रहता है। हादसे में मरने वाला गरीब रहे या पैसे वाला, मारने वाला गरीब रहे या पैसे वाला, उससे जुर्माने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। हम पहले भी कई बार इस बात को लिखते आए हैं कि किसी जुर्म या हादसे के लिए जिम्मेदार और उसके शिकार में जितना बड़ा आर्थिक फासला हो, जुर्माना उसी हिसाब से लगना चाहिए। एक करोड़पति की गाड़ी से दूसरे करोड़पति की मौत हो जाए, तो भी मरने वाले का परिवार शायद जिंदा रह ले। लेकिन जब एक करोड़पति की गाड़ी से एक मजदूर की मौत होती है, तो उस मजदूर का पूरा परिवार भी मर सकता है। इसलिए अगर जुर्म या हादसे के लिए जिम्मेदार व्यक्ति आर्थिक रूप से अधिक संपन्न हैं, तो उनकी संपन्नता से नुकसान पाने वाले व्यक्ति या मृतक के परिवार को बाकी जिंदगी के लिए एक पर्याप्त बड़ा मुआवजा देने का इंतजाम कानून में होना चाहिए।
दुनिया के कुछ देशों में तो एक बड़ा मुआवजा देकर कई किस्म के मामले अदालत के बाहर निपटाने का भी कानून है, लेकिन हम उसके खिलाफ इसलिए हैं कि उससे पैसे वाले लोग सजा से बच जाएंगे। हमारी आज की सलाह एक बराबरी की सजा के साथ-साथ मुजरिम के संपन्न होने पर एक मोटा मुआवजा उससे दिलवाने की बात जोडऩे के लिए है, किसी कैद को कम करने के लिए नहीं है। यह बात लोकतंत्र की मूलभावना के खिलाफ जाएगी, अगर लोग भुगतान करके अपनी कैद की माफी करवा सकेंगे, इसलिए वैसी कोई बात करनी नहीं चाहिए।
आज हिन्दुस्तान में जितने किस्म के ऐसे हादसे होते हैं उनमें से बहुतों के पीछे संपन्नता के बाहुबल का हाथ भी होता है। पैसा लोगों में बददिमागी भर देता है, और लोग अंधाधुंध बड़ी गाडिय़ों को नशे की हालत में भी अंधाधुंध रफ्तार से दौड़ाते हैं क्योंकि हादसा होने पर उन्हें पुलिस, गवाह, वकील, और अदालत में से एक या अधिक, या सबको खरीदने का पूरा भरोसा रहता है। इसलिए जिस पैसे पर उन्हें ऐसा घमंड है, उस पैसे से जुर्म और हादसों के शिकार लोगों को बड़ा मुआवजा दिलवाना चाहिए। कानून को ऐसा अंधा भी नहीं रहना चाहिए कि वह सबको एक बराबर कैद देकर उसे इंसाफ मान ले। इंसाफ तभी हो सकता है जब ऐसा एक भारी जुर्माना लगे जो किसी गरीब परिवार के लिए पर्याप्त मदद बन जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)