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भारत में हॉरर फ़िल्में डराती हैं, मगर कमाती नहीं!
02-Mar-2021 10:35 PM
भारत में हॉरर फ़िल्में डराती हैं, मगर कमाती नहीं!

SLATE FILMZ फ़िल्म परी का पोस्टर

-सुप्रिया सोगले


हिंदी फ़िल्मों का ज़िक्र होता है तो ज़ेहन में नाच-गाने, पारिवारिक, ज़बरदस्त एक्शन और कॉमेडी वाली फ़िल्मों का ज़िक्र अक्सर पहले होता है. पर बीते कुछ समय में हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री अपने यहाँ सबसे उपेक्षित समझी जाने वाली 'हॉरर फ़िल्मों की स्क्रिप्ट्स' को भी काफ़ी जगह दे रही है.
कई बड़े स्टार अब हॉरर फ़िल्मों में अपना हाथ आज़मा रहे हैं जिनमें अनुष्का शर्मा की फ़िल्म परी, अक्षय कुमार की फ़िल्म लक्ष्मी, राजकुमार की फ़िल्म स्त्री, विक्की कौशल की फ़िल्म भूत और अब जान्हवी कपूर की आने वाली फ़िल्म रूही शामिल हैं.

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क्या है हॉरर?
फ़िल्म इतिहासकार और फ़िल्म विचारक अमृत गंगर ने हॉरर फ़िल्मों की शैली का वर्णन करते हुए कहा कि भारतीय सौंदर्य शास्त्र में पश्चिमी शैली का बहुत प्रभाव है. शब्दकोश के मुताबिक़, अंग्रेज़ी शब्द हॉरर का हिंदी अर्थ आतंक या दहशत है. और ये दो शब्द भारतीय शास्त्रीय रस सिद्धांत के दो रसों के क़रीब आते हैं, जिसमें भयानक रस और रुद्रा रस शामिल हैं जो भावनात्मक भय और दहशत की व्याख्या करते हैं.
मगर पश्चिमी प्रभाव के कारण हॉरर को भूत-प्रेत की फ़िल्मों से जोड़ा जाता है.

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हिंदी सिनेमा में हॉरर फ़िल्मों की शुरुआत
फ़िल्म इतिहासकार एसएमएम असूजा का कहना है कि हिंदी सिनेमा में हॉरर शैली की फ़िल्में मूक फ़िल्मों यानी 'साइलेंट एरा' के दौर से ही शुरू हो गई थीं.

पर पारिवारिक दर्शक ना होने के कारण इस फ़िल्म शैली को हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में पनपने का मौक़ा नहीं मिला और उस दौर में हॉरर के नाम पर सिर्फ़ थ्रिलर फ़िल्में ही बनती थीं.

1920 के दशक में साइलेंट एरा वाली हॉरर फ़िल्मों पर बात करते हुए अमृत गंगर कहते हैं कि "उस दौर की कई पौराणिक फ़िल्में हॉरर फ़िल्मों के श्रेणी में आती हैं क्यूंकि उन फ़िल्मों में भय और आतंक का अधिव्यापन होता है जो दर्शकों के मन में दहशत पैदा करती थीं. हिंदी फ़िल्मों की यह ख़ासियत रही है कि एक ही फ़िल्म में अलग-अलग भावनाओं को कहानी में पिरोकर दर्शकों के लिए भावनात्मक थाली बनाई जाती है. लेकिन हॉरर को जब कॉमेडी के साथ जोड़ा जाता है, तो उसे कॉमेडी फ़िल्म की श्रेणी में डाल दिया जाता है."

साइलेंट एरा की हॉरर फ़िल्मों का उदाहरण देते हुए अमृत गंगर कहते हैं कि '1917 में आई दादा साहेब फ़ाल्के की फ़िल्म लंका दहन भी हॉरर फ़िल्मों में गिनी जा सकती है, जिसे अक्सर पौराणिक फ़िल्म की श्रेणी में रखा जाता है. वहीं साइलेंट एरा में (1924 में) काला नाग नामक एक फ़िल्म आयी थी जो मुंबई के चम्पसी-हरिदास मर्डर केस पर आधारित थी, जिसे हॉरर हिंदी फ़िल्म का उदाहरण कहा जा सकता है.'

वे कहते हैं कि 'हॉरर फ़िल्मों की श्रेणी में 1949 में बनी फ़िल्म महल सबसे बेहतरीन उदाहरण है. हमारी अनुभूति पश्चिम से थोड़ी अलग रही है और हॉरर हमेशा हमने मिश्रण के साथ ग्रहण किया है और यह मिश्रण साइलेंट एरा से 50 और 60 के दशक तक जारी रहा.'

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70 के दशक में रामसे की भूतिया कहानी
70 के दशक में जहाँ हिंदी सिनेमा के 'एंग्री यंग मैन' अमिताभ बच्चन फ़िल्म इंडस्ट्री में अपने झंडे गाड़ रहे थे, वहीं रामसे ब्रदर्स अपनी छोटी भूतिया कहानियों से हिंदी सिनेमा की हॉरर शैली में इतिहास रच रहे थे.

दो गज़ ज़मीन के नीचे, दरवाज़ा, पुराना मंदिर, तहख़ाना, वीराना, पुरानी हवेली, बंद दरवाज़ा - उन्होंने ऐसी कई हॉरर फ़िल्में बनाई और फ़िल्म इंडस्ट्री में दुर्लभ होती हॉरर शैली को बचाया.

पर रामसे ब्रदर्स की हॉरर फ़िल्मों में ऐसा क्या था जिससे दर्शक उनकी फ़िल्मों से बँधे रहे?

फ़िल्म इतिहासकार एसएमएम असूजा कहते हैं, "वो समझ गये थे कि सिर्फ़ हॉरर नहीं चलेगा, इसलिए उन्होंने हॉरर के साथ कामुकता को जोड़ दिया, जो एक प्रबल मिश्रण साबित हुआ क्योंकि कामुकता के लिए हमेशा से ही दर्शक रहे हैं. यही कारण रहा कि उनकी फ़िल्में जीवित रह पाई."

वे कहते हैं, "अगर आप उनकी फ़िल्में देखेंगे तो उसमें बहुत सारे बेडरूम सीन और अंग प्रदर्शन वाले सीन होते थे, वो पोस्टरों में हॉरर इमेज के साथ लगाये जाते थे. ऐसी फ़िल्मों के लिए छोटे दर्शक हैं और इस शैली की फ़िल्मों से रामसे ब्रदर्स कभी विचलित नहीं हुए जिससे उन्हें अपार सफलता मिली."

असूजा का मानना है कि 'उस दौर में बोहरा ब्रदर्स और दूसरे निर्माताओं ने भी हॉरर फ़िल्मों में हाथ आज़माया और कुछ सफ़ल भी हुए, पर जिस ख़ूबसूरती से रामसे ब्रदर्स इन दो शैलियों को फ़िल्म में पिरोया करते थे, उससे पूरी फ़िल्म बिकाऊ बन जाती और यही वजह रही कि वो सफल रहे.'

फ़िल्म ट्रेड के विश्लेषक अतुल मोहन ने रामसे ब्रदर्स की हॉरर फ़िल्म के सफलता का गणित समझाते हुए बताया कि 'वो बहुत सस्ते में फ़िल्म बनाया करते थे. उनके परिवार से ही निर्माता, निर्देशक, मेक-अप आर्टिस्ट, कॉस्ट्यूम, एडिटर और दूसरे तकनीकी टीम वाले लोग हुआ करते थे. उनकी फ़िल्मों में सिर्फ़ अभिनेता बाहरी हुआ करते थे. वो कम बजट में जल्दी फ़िल्में बना लिया करते थे, इसलिए फ़िल्म कमाई जल्दी कर लिया करती थीं.'

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90 के दशक से हॉरर का बदलता रूप
ये वो दौर था, जब दुनिया बदल रही थी. हिंदी सिनेमा बदल रहा था. उसी दौर में हॉरर फ़िल्म जिसे अब तक 'बी-ग्रेड फ़िल्म' का दर्जा दिया जाता था, उसमें बदलाव आ रहा था.

इस बदलाव के बारे में बात करते हुए फ़िल्म इतिहासकार अमृत गंगर कहते हैं, "रामसे ब्रदर्स ब्रांड की हॉरर फ़िल्में आज भी बन रही है. टेलीविज़न के बाद कई अभिनेताओं ने टीवी का रुख़ किया. बाहरी व्यापार के दबाव के कारण पश्चिम फ़िल्मों का हिंदी फ़िल्मों में प्रभाव बढ़ने लगा और नई पीढ़ी का रुझान पश्चिमी हॉरर फ़िल्मों जैसी बनने वाली फ़िल्मों में होने लगा. तकनीकी तौर पर भी यह बेहतर होने लगा और यह सबसे बड़ा बदलाव था."

वहीं फ़िल्म इतिहासकार एसएमएम असूजा ने राम गोपाल वर्मा की 1992 में अभिनेत्री रेवती के साथ आई फ़िल्म रात का ज़िक्र करते हुए कहा कि इस फ़िल्म ने हॉरर फ़िल्म का रुख़ बदला.

वे कहते हैं कि "रात वो पहली फ़िल्म थी, जिसमें सिर्फ़ हॉरर पर ही कहानी केंद्रित रही. ये बहुचर्चित फ़िल्म रही. इस फ़िल्म में कामुकता का इस्तेमाल नहीं किया गया था जो तब तक हॉरर फ़िल्मों में हुआ करती थी. राम गोपाल वर्मा ने फ़िल्म का प्रचार एक थ्रिलर के तौर पर किया. इस फ़िल्म में एक अनोखी अपील थी, जो दर्शकों के साथ जुड़ गई."

एसएमएम असूजा का मानना है कि रात ने हॉरर फ़िल्मों के लिए दरवाज़े खोल दिये और इस फ़िल्म के बाद हॉरर फ़िल्में बी-ग्रेड नहीं रह गईं.

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हॉरर फ़िल्में कमाई क्यों नहीं कर पातीं?
राम गोपाल वर्मा की फ़िल्म रात के बाद हॉरर फ़िल्में मेनस्ट्रीम फ़िल्मों की श्रेणी में आ गईं, पर इसकी बॉक्स-ऑफ़िस पर कमाई बहुत कम रही.
गिनी-चुनी कुछ ही भारतीय हॉरर फ़िल्में हैं जिन्होंने कमाई की. इसमें भूत, राज़, 1920, रागिनी एमएमएस और तुमबाड जैसी फ़िल्में शामिल हैं.
फ़िल्म ट्रेड के विश्लेषक अतुल मोहन का मानना है कि 'हॉरर फ़िल्मों की एक समर्पित फ़ैन-फ़ॉलोविंग है जो हिंदी और अंग्रेज़ी हॉरर फ़िल्में, दोनों को बड़े चाव से देखती है. इसलिए हम देखते हैं कि कुछ हॉलीवुड हॉरर फ़िल्में भारत में अच्छी कमाई कर लेती है, पर इनकी संख्या बहुत कम है. भारत में हॉरर फ़िल्मों के कद्रदानों की संख्या दक्षिण भारत में ज़्यादा है.'
वहीं फ़िल्म इतिहासकार एसएमएम असूजा मानते हैं कि हॉरर फ़िल्मों के साथ 'बी-ग्रेड' जुड़ा हुआ है, इसलिए पारिवारिक दर्शक इससे दूर रहते हैं. लेकिन हॉलीवुड की हॉरर फ़िल्में यहाँ अच्छी कमाई कर लेती हैं क्योंकि उन फ़िल्मों के साथ बी-ग्रेड फ़िल्म का दर्जा जुड़ा नहीं होता. उनका केंद्र सिर्फ़ हॉरर ही होता है और उनकी प्रॉडक्शन वैल्यू कम बजट में भी अच्छी होती है.'
हॉरर फ़िल्मो के पीछे का गणित समझाते हुए अतुल मोहन कहते हैं कि "अगर हॉरर फ़िल्में कम बजट में बनायी जायें, तो उसी एक समर्पित फ़ैन-बेस से फ़िल्म की अच्छी कमाई हो जाती है."
वे कहते हैं कि "हॉरर फ़िल्मों के साथ दूसरी दिक्कत ये है कि इन्हें ए-सर्टिफ़िकेट मिलता है, तो आप इन्हें टीवी या सैटेलाइट पर बेच नहीं सकते. जबकि आज सैटेलाइट बहुत बड़ा माध्यम है. अगर कोई फ़िल्म बॉक्स-ऑफ़िस पर 40-50 करोड़ रुपये बनाती है, तो उसे सैटेलाइट पर 25 से 30 करोड़ रुपये मिल जाते हैं. ये किसी भी फ़िल्म के लिए फ़ायदेमंद होता है. वहीं हॉरर फ़िल्म में अगर बड़े स्टार होते हैं, तो सैटेलाइट के ज़रिये उतनी कमाई नहीं होती, इसलिए बड़े फ़िल्मकार हॉरर फ़िल्में नहीं बनाते. और अगर सैटेलाइट माध्यम से कमाई ना हो, तो फ़ायदा नहीं होगा, इसलिए बड़े फ़िल्मकार हॉरर फ़िल्मों से दूरी बनाये रखते हैं."
उनका मानना है कि 'आख़िर में हर इंसान व्यापार ही देखता है. सभी देखते हैं कि फ़िल्म में कमाने की क्षमता होगी या नहीं.'
विक्रम भट्ट की हॉरर फ़िल्म राज़ बहुत सफल रही थी. भट्ट फ़िल्म्स ने 'प्रेम-काव्य की हॉरर शैली' पर एक बार को महारत हासिल कर ली थी, लेकिन वो उसे अपग्रेड नहीं कर पाये.
उसके बाद उनकी जो भी हॉरर फ़िल्में आयीं, वो वैसा कमाल नहीं कर पायीं.

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बड़े स्टार क्यों रहते हैं दूर?
हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में हॉरर फ़िल्में सालाना ठीक-ठाक संख्या में बन जाती हैं, पर बड़े स्टार इस फ़िल्म शैली से दूर रहते हैं.
हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में बहुत ही कम हॉरर फ़िल्में रही हैं जिनमें बड़े स्टार्स की मौजूदगी हो.
एसएमएम असूजा का कहना है कि 'अगर कोई हॉरर फ़िल्म बनाना चाहता है तो कोई बड़ा स्टार सामने नहीं आता, इसलिए बी-ग्रेड स्टार्स को ही फ़िल्म में रखना पड़ता है. जब फ़िल्म में बी-ग्रेड स्टार्स होते हैं, तो दर्शकों को थियेटर तक लाना ज़रा मुश्किल हो जाता है, इसलिए अंग प्रदर्शन और कामुकता जैसी चीज़ों का सहारा लेकर दर्शको को थियेटर तक खींचा जाता है.'
असूजा का ये भी मानना है कि बड़े फ़िल्म स्टार अपनी इमेज और पब्लिसिटी को लेकर बेहद असुरक्षित महसूस करते हैं. वो चाहते हैं कि उनकी स्टार अपील पर एक भूत हावी ना हो जाये, इसलिए स्टार्स 'हॉरर फ़िल्म शैली' से दूर रहते हैं. स्टार्स नहीं चाहते कि बदसूरत राक्षस या कोई जानवर बड़े पर्दे पर उनका शिकार करे. वो बड़े परदे पर बहुत सावधानी से खेलना पसंद करते हैं.

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बड़े स्टार और हॉरर फ़िल्में
हॉरर फ़िल्मों को लेकर बड़े स्टार्स के रुझान पर अतुल मोहन कहते हैं कि इस बदलते दौर में हर अभिनेता अलग-अलग किरदार करना चाहता है और अलग-अलग फ़िल्मों का हिस्सा बनना चाहता है. वो एक प्रयोग के तौर पर फ़िल्में करते हैं. अगर फ़िल्म दर्शकों को अच्छी लगी तो उसका दूसरा भाग या सिरीज़ बना सकते हैं.
असूजा 1979 में आयी राजकुमार कोहली की फ़िल्म जानी दुश्मन का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जानी दुश्मन हॉरर शैली में बनी भारतीय सिनेमा इतिहास की बहुत अहम फ़िल्म है. इस फ़िल्म में बहुत बड़े-बड़े स्टार्स रहे जिसमे संजीव कुमार, शत्रुघ्न सिन्हा, सुनील दत्त, रेखा, रीना रॉय, नीतू सिंह और कई दिग्गज अभिनेताओं का नाम शामिल है. फ़िल्म के गाने सारे सुपरहिट रहे और फ़िल्म सुपर हिट रही.
वहीं रामगोपाल वर्मा की भूत जिसमें अजय देवगन, रेखा, तनूजा, नाना पाटेकर और उर्मिला मातोंडकर थे, उसने हॉरर फ़िल्म से जुड़ी पुरानी धारणा को तोड़ने में मदद की.
रामगोपाल वर्मा की और से कई हॉरर फ़िल्में आयीं जिनमें 'डरना मना है', 'फूँक', 'डरना ज़रूरी है' शामिल हैं, पर वो भूत फ़िल्म की सफलता तक नहीं पहुंच पाई.
सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने भी दो हॉरर फ़िल्मों में अपने आप को आज़माया. उन्होंने होम प्रोडक्शन की 'अक्स' और रामगोपाल वर्मा की फ़िल्म 'डरना ज़रूरी है' की. दोनों ही फ़िल्में थ्रिलर थीं जिनमें हॉरर का भाव था, लेकिन दोनों ही फ़िल्में एक तरह का प्रयोग थीं.
लेकिन अब सैटेलाइट की क्षतिपूर्ति करने के लिए ओटीटी है, जहाँ सेंसरशिप नहीं है. तो आने वाले वक़्त में हॉरर फ़िल्मों में बढ़ोतरी देखने को मिल सकती है. (bbc.com/hindi)

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