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असम विधानसभा के चुनाव मार्च और अप्रैल में होने जा रहे हैं और ऐसा लग रहा है कि इस बार मुक़ाबला त्रिकोणात्मक होगा.
एक तरफ़ सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला मोर्चा है जिसके सामने कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाला गठबंधन है. इस चुनाव को त्रिकोणीय बनाने का काम 2019 के नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के दौरान बना गठबंधन कर रहा है. असम में 27 मार्च, एक अप्रैल और छह अप्रैल को चुनाव होने वाले हैं.
बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन में क्षेत्रीय असम गण परिषद (एजीपी) और यूनाइटेड पीपल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) शामिल है.
कांग्रेस पार्टी के महागठबंधन में मुस्लिम मतदाताओं की पार्टी के तौर पर उभरी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ़), बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ़), आंचलिक गण मोर्चा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एम) शामिल हैं.
बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ़) हाल ही में बीजेपी पर साझेदारों के साथ सही बर्ताव नहीं करने का आरोप लगाते हुए कांग्रेस के पाले में आई है.
नागरिकता संशोधन क़ानून
वहीं, इस चुनाव में तीसरी शक्ति के तौर रायजोर दल (आरडी) और असम जातीय परिषद (एजेपी) का गठबंधन मैदान में है.
ये दोनों पार्टियां 2019 के नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध प्रदर्शन के दौरान उभरी हैं.
यह क़ानून बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से भारत आने वाले ग़ैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने संबंधी क़ानून है.
असम में क़ानून का विरोध प्रदर्शन करने वाले किसी भी बाहरी व्यक्ति को राज्य में बसाने का विरोध कर रहे थे- असम में आधिकारिक तौर पर क़रीब 19 लाख विदेशी लोग बसे हुए हैं, जिनमें से अधिकांश बांग्लादेश से आए हुए हैं.
असम चुनाव का राजनीतिक महत्व
बीजेपी की नज़र असम में अपनी सरकार की वापसी पर है. असम पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा राज्य है, ऐसे में इस राज्य में दोबारा सरकार बनाने के साथ बीजेपी पूरे पूर्वोत्तर भारत में अपनी स्थिति को मज़बूत कर पाएगी.
कुछ विश्लेषकों के मुताबिक़ बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति को असम में काफ़ी कामयाबी मिली है. पहले असम के चुनावों में धार्मिक पहचान से इतर मूल जनजातीय और भाषायी पहचान बड़ा मुद्दा हुआ करती थी.
हिंदु अख़बार और सीएसडीएस लोकनीति की ओर से 2019 में किए गए सर्वे के मुताबिक़ असम में बीजेपी की कायमाबी की वजह धार्मिक ध्रुवीकरण रहा है. सर्वे के मुताबिक़ बीजेपी हाल के सालों में राज्य के अधिकांश हिंदू मतदाताओं का वोट पाने में कामयाब हुई है.
राज्य में बीजेपी के प्रभावी नेता और राज्य मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री हिमंता बिस्वा सरमा लगातार यह बयान देते रहे हैं कि उनकी पार्टी को मुस्लिम मतदाताओं की ज़रूरत नहीं है. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के सामने देश भर में लगातार सिमट रही अपनी राजनीति को और भी सिकुड़ने से बचाने का इम्तिहान है.
पार्टी को उम्मीद है कि एआईयूडीएफ़ के साथ उसका गठबंधन बीजेपी को मज़बूत चुनौती पेश करेगा, हालांकि कांग्रेस पार्टी अतीत में एआईयूडीएफ़ पर सांप्रदायिक राजनीति करने का आरोप लगाती रही थी.
लेकिन पार्टी को भरोसा है कि इस गठबंधन का लाभ मिलेगा. हालांकि दूसरी ओर बीजेपी इस मौक़े पर कांग्रेस-एआईयूडीएफ़ को हिंदू विरोधी राजनीतिक गठबंधन के तौर पर पेश करने की पूरी कोशिश कर रही है.
असम में बीजेपी के उभार ने क्षेत्रीय दलों की उम्मीद को बड़ा झटका दिया है लेकिन राज्य में नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के दो नए राज्य स्तरीय दल आरडी और एजेपी का उदय हुआ है.
इन दोनों दलों का गठबंधन राज्य की राजनीति में नए चैप्टर जोड़ने का वादा कर रहा है.
चुनाव पर नागरिकता क़ानून का असर
असम चुनाव में बीजेपी हिंदुत्व पर फ़ोकस करने के साथ विकासवादी राजनीति का दावा भी कर रही है जबकि उसके सामने दोनों गठबंधन नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध पर चुनाव लड़ रहे हैं.
राज्य में 2019 के आख़िरी महीनों से 2020 की शुरुआत तक नागरिकता संशोधन क़ानून के चलते बीजेपी के ख़िलाफ़ काफ़ी विरोध प्रदर्शन देखने को मिले थे.
विपक्ष के दोनों गठबंधन नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर बीजेपी के ख़िलाफ़ आम लोगों के ग़ुस्से को भुनाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं.
कांग्रेस पार्टी ने पूरे राज्य में नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया वहीं आरडी और एजेपी का उदय ही इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान हुआ है.
हालांकि बीजेपी का दावा है कि नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध, क़ानून की सही समझ नहीं होने के चलते थी और इसका चुनावों पर कोई असर नहीं होगा.
बीजेपी आईटी सेल के राज्य प्रमुख और पार्टी के चुनाव प्रबंधन समिति के संयोजक पबित्रा मार्गेहेरिता ने कहा कि चुनावों में नागरिकता क़ानून कोई मुद्दा नहीं है.
उन्होंने कहा, "हमलोग साफ़ सुथरी और प्रभावी सरकार के आधार पर फिर से लोगों का समर्थन माँग रहे हैं. हमलोगों ने बिना किसी बेईमानी के ज़रूरतमंदों की मदद की है. लोग हमें उन कामों के आधार पर आंकेंगे ना कि नागरिकता संशोधन क़ानून के आधार पर."
हालांकि विपक्षी गठबंधनों का आरोप है कि बीजेपी की सरकार ने राज्य के लोगों को बयानबाज़ी से भरमाया है और ज़मीनी स्तर पर कोई काम नहीं किया है.
मौजूदा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस पार्टी के नेता देबब्रता सैकिया ने कहा, "बीजेपी ने केवल लोगों को दिलासा दिया है. शासन के नाम पर इस सरकार ने मतदाताओं को विभिन्न योजनाओं के बदले पैसे दिए हैं. इससे राज्य पर क़र्जे़ का बोझ और भी बढ़ रहा है."
क्या बीजेपी का पलड़ा सबसे भारी है?
बीजेपी के सामने दो गठबंधन हैं, दोनों एक समान मुद्दे पर चुनाव मैदान में उतर चुकी हैं, दोनों का एक मंच पर नहीं आना, इनकी उम्मीदों को कम करता है.
हालांकि कांग्रेस पार्टी के सैकिया ने कहा कि उनका गठबंधन बीजेपी को रोकने के लिए आरडी-एजेपी गठबंधन का स्वागत करने को तैयार है.
सैकिया ने कहा, "आरडी और एजेपी को यह समझना होगा कि लोगों की आम समस्या क्या है? अगर वे मानते हैं कि राज्य की जनता को बीजेपी से मुक्ति मिलनी चाहिए तो उन्हें हमें बीजेपी के साथ तौलने से बचना होगा. हमारे विरोध करके उन्हें कोई फ़ायदा नहीं होगा."
आरडी-एजेपी एलायंस और कांग्रेस के बीच गठबंधन होने के पीछे सबसे बड़ा अवरोध एआईडीयूएफ़ है. दोनों नयी पार्टियों को लगता है कि कांग्रेस-एआईडीयूएफ़ का साथ देने से हिंदू वोटरों को नाराज़ करने का ख़तरा था.
आरडी के महासचिव कमल कुमार मेधी ने कहा, "एआईयूडीएफ़ को हटाने पर कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने में हमें कोई समस्या नहीं है. एआईयूडीएफ़ जैसी धर्म आधारित राजनीति करने वाली पार्टी को साथ लेकर हम लोगों का भरोसा जीतने की उम्मीद नहीं कर सकते."
वहीं बीजेपी के मार्गेहेरिता कहते हैं, "एआईयूडीएफ़ के जूनियर पार्टनर बन कर रह गई है कांग्रेस. ये लोग अपने दम पर मुक़ाबला करने की स्थिति में नहीं हैं. आरडी और एजेपी तो नयी पार्टियां हैं, इन्हें हमारे सामने गंभीर चुनौती देने लायक़ बनने में अभी सालों लगेंगे." (bbc.com)