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जब जज ने नाबालिग प्रेम विवाह को भी जायज माना
03-Mar-2021 10:39 PM
जब जज ने नाबालिग प्रेम विवाह को भी जायज माना

बिहार में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने देश में संभवत: पहली बार अपनी तरह एक ऐसा फैसला सुनाया है जिसमें कानून की जगह मानवीय तथा सामाजिक पहलू का ख्याल रखा गया है.

     डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट- 

न्याय के साथ मानवीय हित को भी सर्वोपरि मानते हुए बिहारशरीफ किशोर न्यायालय परिषद ने एक ऐसा फैसला दिया है, जिसकी प्रशंसा भी हो रही है, किंतु इसने एक नई बहस को जन्म दिया है. अपने एक फैसले में अदालत ने 18 साल से कम उम्र की नाबालिग लड़की को शादी की नीयत से भगाकर ले जाने और बलात्कार करने जैसे अपराध से एक किशोर को दोषमुक्त कर दिया. साथ ही उत्पन्न परिस्थिति के मद्देनजर सामाजिक व मानवीय हित में नाबालिग की शादी को भी जायज करार दिया. ऐसे मामले में तीन से दस साल तक की सजा का प्रावधान है. हालांकि इससे पहले भी देश की विभिन्न अदालतों में मानवीय या अन्य कारणों से सजा कम करने के फैसले दिए गए हैं.

नाबालिग ने भागकर की थी शादी
मामला अप्रैल 2019 का है. नूरसराय थाना क्षेत्र में 17 साल के एक किशोर तथा 16 साल की एक नाबालिग लड़की ने भागकर शादी कर ली. यह एक अंतरजातीय विवाह था. इस मामले में किशोरी के पिता ने किशोर के अलावा उसके माता-पिता और दो बहनों का आरोपित करते हुए नूरसराय में एफआइआर दर्ज कराई. इस केस के इन्वेस्टिगेटिंग आफिसर (आइओ) ने माता-पिता व बहन को निर्दोष बताते हुए केवल किशोर के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की.
मामला जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (जेजेबी) में भेजा गया. लड़की 23 अगस्त 2019 को किशोर न्याय परिषद में पेश हुई और बयान दर्ज कराते हुए कहा कि वह अपने प्रेमी के साथ स्वेच्छा से भागी थी. उसने यह भी बताया कि दोनों ने शादी भी कर ली है. लड़की ने यह भी कहा कि उसकी जान को उसके माता-पिता से खतरा है और वह अपने प्रेमी के साथ रहना चाहती है.

उसी दिन आरोपित किशोर भी कोर्ट में उपस्थित हुआ. अंतरजातीय विवाह को कारण बताते हुए किशोरी के माता-पिता ने भी उसे अपनाने से इंकार कर दिया. इस मामले में जेजेबी के प्रधान दंडाधिकारी मानवेंद्र मिश्रा तथा बोर्ड के सदस्य धर्मेंद्र कुमार व ऊषा कुमारी ने सभी अभिलेखों का अध्ययन किया.
बीते शुक्रवार को जेजेबी ने नाबालिग दंपति व उनके परिजनों की मौजूदगी में घंटों की गई सुनवाई के बाद अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया. लड़की अपनी चार माह की बच्ची के साथ पेश हुई थी. उसने रो-रोकर कोर्ट को बताया कि उसके मां-बाप उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं और अगर उसके पति को सजा दी जाती है, तो उसकी तथा उसकी बच्ची की जान संकट में पड़ जाएगी. लड़की ने ऑनर किलिंग का अंदेशा भी जताया. वर्तमान में लडके की उम्र 19 व लड़की की 18 साल है.

हर अपराध के लिए सजा देना न्याय नहीं
प्रधान दंडाधिकारी मानवेंद्र मिश्रा ने अपने फैसले में सुबूत रहते हुए भी नाबालिग बालिका को भगाकर शादी करने तथा शारीरिक संबंध बनाने के आरोप से किशोर को बरी करते हुए दोनों को साथ रहने का आदेश दिया. उन्होंने अपने फैसले में यह भी कहा कि इस जजमेंट को नजीर बनाकर कोई अन्य पक्षकार खुद को निर्दोष साबित करने का प्रयास नहीं कर सकेगा.

किशोर के माता-पिता को भी आदेश दिया गया कि वे दंपती के वयस्क होने तक उनकी तथा उनकी बच्ची की देखभाल व सुरक्षा करेंगे. कोर्ट ने स्थानीय बाल संरक्षण पदाधिकारी को भी किशोर, उसकी नाबालिग पत्नी व बच्चे की सतत निगरानी का निर्देश देते हुए कहा कि वे दो वर्ष तक प्रत्येक छह माह में उनके हालात की विस्तृत रिपोर्ट किशोर न्याय परिषद को देंगे.

फैसला सुनाते हुए प्रधान दंडाधिकारी ने कहा कि हर अपराध के लिए सजा देना न्याय नहीं है. यह बात सही है कि किशोर नाबालिग लड़की को भगा कर ले गया और उससे अवैध संबंध बनाया जिससे बच्ची पैदा हुई. यह वास्तव में अपराध है, किंतु अब जब बच्ची जन्म ले चुकी है और उसकी मां यानी नाबालिग लड़की को उसके मां-बाप अपनाने को तैयार नहीं हैं, तो ऐसे में आरोपित किशोर को दंडित कर तीन नाबालिगों की जान खतरे में नहीं डाली जा सकती है. ऐसे में तीन जिंदगियां बर्बाद हो जाएंगी. उन्होंने कहा, लड़का पत्नी व बच्चे को स्वीकार करते हुए उनकी देखभाल कर रहा है और आगे भी उनकी देखभाल करने का वचन कोर्ट को दिया है, ऐसे में यहां पर न्याय के साथ तीन लोगों का हित भी देखना जरूरी है.

तीन जिंदगियों का था सवाल  
किशोर न्याय परिषद के इस ऐतिहासिक फैसले को कानून के जरिए अलग-अलग नजरिए से देख रहे हैं. अधिवक्ता रोहित शेखर कहते हैं, ‘‘अगर नाबालिग दंपति को सजा दे दी जाती तो एक शिशु का जीवन तो प्रभावित होता ही, साथ ही तीन लोगों की जिंदगी भी प्रभावित हो जाती. अदालत की आशंका जायज थी कि लड़की की ऑनर किलिंग हो सकती थी और इससे बच्ची का जीवन भी संकट में पड़ सकता था. आखिर नाबालिग मां-बाप के गुनाहों की सजा चार माह की मासूम क्यों भुगते.''

वहीं अधिवक्ता राजेश सिंह इस फैसले से इत्तफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘‘यह सही है कि बच्ची के वेलफेयर को देखते हुए यह फैसला दिया गया है. ऑनर किलिंग की आशंका भी जायज है लेकिन जिस समय लड़की ने बयान दिया उस समय वह नाबालिग थी इसलिए उसके बयान का कोई मायने नहीं था. इस तरह से अगर फैसला दिया जाएगा, जिसके लिए 366-ए के तहत सजा का प्रावधान है, तो ऐसे कृत्यों को एक हद तक बढ़ावा ही मिलेगा. इसलिए ऐसे फैसले से बचना चाहिए था. सामाजिक नजरिए से यह फैसला जायज नहीं है. इसके लिए दूसरा तरीका भी अपनाया जा सकता था.''

परिस्थितियों के मद्देनजर पहले भी सुनाया है फैसला
ऐसा नहीं है कि किशोर न्याय परिषद के प्रधान दंडाधिकारी मानवेंद्र मिश्र ने पहली बार लीक से हटकर फैसला सुनाया है. पिछले साल ही उन्होंने बिहारशरीफ के इस्लामपुर थाने के कांड संख्या 122/20 व जेजेबी 146/20 मामले में ऐसा फैसला सुनाया था, जो मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ पूरी व्यवस्था को झकझोरने के लिए पर्याप्त थी.

इस मामले में उन्होंने चोरी के आरोपित किशोर को न केवल बरी कर दिया, बल्कि उसकी विपन्नता को देखते हुए स्थानीय प्रशासन को उसके परिवार को तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ मुहैया कराने का निर्देश भी पारित किया. दरअसल, इस मामले में 16 वर्षीय एक दिव्यांग किशोर पर एक कपड़े की दुकान में एक महिला का पर्स चुराने का आरोप लगाया गया था. पकड़े जाने पर उसने कुबूल किया कि पर्स उसने ही चुराया था लेकिन उसमें कुछ नहीं मिलने पर पर्स को कहीं फेंक दिया था.

कोर्ट में पेश किए जाने पर उसने बताया कि उसके पिता की कई साल पहले मौत हो गई थी. इस सदमे में उसकी मां की मानसिक स्थिति बिगड़ गई. उसका एक छोटा भाई भी है. इन सभी की जिम्मेदारी उसके कंधों पर ही है. ऐसी स्थिति में अभावग्रस्त होने के कारण उसने लाचार होकर चोरी की. अनुसंधान के दौरान जेजेबी के निर्देश पर उसकी सोशल बैकग्राउंड रिपोर्ट (सीबीआर) की जांच करने टीम जब उसके घर पहुंची, तो उसके घर की हालत देख चौंक गई.

उसकी मां के तन पर इतने कपड़े भी नहीं थे कि उसकी एक फोटो ली जा सकती. कपड़े के नाम पर आधी फटी हुई साड़ी थी. उसे न तो विधवा पेंशन मिलता था और न ही किसी अन्य योजनाओं का लाभ. बिना दरवाजे  का फूस का घर और बर्तन के नाम पर मात्र एक पतीला था. जज मिश्रा ने स्थानीय बीडीओ को उक्त किशोर को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने का निर्देश देते हुए उसे खाद्य सामग्री, वस्त्र व उसकी मां के लिए साड़ी भी दी.

इसी तरह नूरसराय थाने में एक छह वर्षीया बच्ची के साथ दुष्कर्म और अप्राकृतिक यौनाचार का मामला सामने आया था जिसमें महज नौ तिथियों पर सुनवाई के बाद फैसला देकर उन्होंने त्वरित न्याय देने की नजीर पेश की. इससे पहले मध्यप्रदेश के कटनी में किसी मामले में सात तिथियों पर सुनवाई कर फैसला दिया गया था.

यातनागृह से कम नहीं रिमांड होम
दरअसल, नाबालिगों के मामले में अधिकतर अपराधों की जननी आवेश या गरीबी ही होती है. पत्रकार रवि शेखर कहते हैं, ‘‘सवाल यह है कि ऐसे गरीब परिवारों तक केंद्र या राज्य सरकार की योजनाएं क्यों नहीं पहुंच पातीं हैं. यह देखना जरूरी है कि ऐसे लोग किसी साजिश का तो शिकार होकर सरकारी सुविधाओं से वंचित नहीं हो जाते हैं.''

वहीं रिमांड होम या महिला आवास गृहों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है. सभी भली-भांति जानते हैं कि वहां सुधार की बजाय आपराधिक प्रवृति के विकसित होने की गुंजाइश ही अधिक है. शायद इसलिए भावावेश या फिर मजबूरी में किए गए अपराध के लिए उन्हें सजा देकर वहां भेजना समस्या का समाधान नहीं है. वैसे भी इन केंद्रों की स्थिति गाहे-बगाहे समाचार पत्रों की सुर्खियां बनती ही रहती हैं.

मुजफ्फरपुर बालिका गृह में हो रहे कुकृत्य ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था जहां रह रही 42 बच्चियों में 34 से बलात्कार किया गया था. हाल ही में सीबीआई ने भागलपुर के रेशमनगर मोहल्ले में चल रहे बाल सुधार गृह में यौन शोषण व यातना के मामले में जो सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल की है, वह किसी का भी दिल दहला देने को काफी है.

पूछताछ में रिमांड होम में रह रहे एक बच्चे ने सीबीआई को बताया था कि एक बार उसका हाथ कट गया तो वहां की संचालिका रूपम मैडम ने कटने की जगह पर दूसरे बच्चों से नमक-मिर्च लगवा दिया. वहां वार्डेन के रूप में रह रहा प्रवेश दास नाम का व्यक्ति चार बच्चों के साथ रात में अप्राकृतिक यौनाचार करता था और जो उसकी बात नहीं मानता था उससे वह थूक चटवाता था. देवचंद्र सिंह नाम का एक व्यक्ति तो गुस्सा होने पर बच्चों की जांघ पर खड़ा हो जाता था. खाना मांगने पर रूपम द्वारा बच्चों को पीटा जाना तो आम बात थी.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस की रिपोर्ट के बाद प्राथमिकी दर्ज होने पर छह अगस्त 2018 को इस रिमांड होम के संचालन का एग्रीमेंट राज्य सरकार ने रद कर दिया था. वहीं सीबीआई की जांच अभी जारी है. शायद इन्हीं वजहों से ऐसे फैसले सामने आते हैं जिनमें अपराध के बिंदु से अलग हटकर सामाजिक या मानवीय पहलू को तवज्जो दी जाती है. (dw.com)

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