संपादकीय
पिछले दो-चार दिनों से हिन्दुस्तान का सोशल मीडिया आज, 8 मार्च के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के हिसाब से लिख रहा था, और महिलाओं के त्याग-समर्पण से लेकर उनकी कामयाबी तक के वीडियो और फोटो पोस्ट कर रहा था। यह सिलसिला हर बरस चलता है, लेकिन आज का आधा दिन निकल जाने तक भी जो बात हवा में उठते नहीं दिख रही है, और जो सबसे अधिक मायने रखती है, उस बात पर चर्चा होनी चाहिए।
इस देश में बरसों से महिला आरक्षण कानून बनाने की बात ही बात हो रही है, और हाल के बरसों में तो उसके बारे में बात भी बंद हो चुकी है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण उनकी आबादी के अनुपात में नहीं, बल्कि महज 30 फीसदी देने का विधेयक दशकों पहले से चले आ रहा है, लेकिन कई सरकारें आई-गईं, किसी ने उसे लागू करने की कोशिश नहीं की, और बड़ी-बड़ी पार्टियां बुनियादी रूप से ऐसे आरक्षण के खिलाफ बनी हुई हैं। महिला वोटरों को नाराज न करने के चौकन्नेपन में सोनिया गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस, मायावती की अगुवाई वाली बसपा, ममता बैनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस, मेहबूबा मुफ्ती की अगुवाई वाली पीडीपी, और जयललिता की पार्टी रही एआईएडीएमके, इनमें से कोई भी आज महिला आरक्षण की बात करते नहीं दिख रहे हैं। जिन पार्टियों ने अलग-अलग समय पर महिला आरक्षण की वकालत भी की थी, वे भी अब इस बारे में ठीक उसी तरह चुप बैठी हैं जिस तरह सामने सडक़ पर टक्कर हो जाने पर उठाने से बचने के लिए लोग मुंह मोड़ लेते हैं। तमाम पार्टियों और नेताओं ने मुंह मोड़ लिए हैं। और तो और पिछले 6 बरस में दो लोकसभा चुनाव, अनगिनत विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, लेकिन किसी एक में भी महिला आरक्षण चुनावी मुद्दा भी नहीं बना।
सोशल मीडिया पर बहुत सी महिलाएं लिख रही हैं कि पुरूषों को कुछ जगह खाली करनी पड़ेगी, तभी महिलाओं को जगह मिल पाएगी, लेकिन ऐसी प्रमुख महिलाएं, जिनमें पत्रकार भी हैं, सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, और लेखक-कलाकार भी हैं, उन्हें भी महिला आरक्षण का मुद्दा भूल ही गया है। हम जरूर इसी जगह पर हर साल कम से कम एक बार महिला आरक्षण की जरूरत याद दिलाते हैं, लेकिन हमारे कहे और लिखे हुए की कोई गूंज नहीं होती क्योंकि पुरूष प्रधान भारतीय राजनीति को तो छोड़ भी दें, महिला प्रधान राजनीतिक दलों में भी अब महिला आरक्षण की चर्चा इतिहास बन चुकी है।
संसद और विधानसभाओं में 30 फीसदी महिला आरक्षण से आज के मुकाबले महिलाओं की सीटें दुगुनी या अधिक हो जाएंगी, और जितनी सीटें उनकी बढ़ेंगी, उतनी सीटें पुरूषों की कम हो जाएंगी। यह नौबत किसी नेता को आज मंजूर नहीं दिखती है, खुद महिला अध्यक्ष वाली पार्टियों को भी। हिन्दुस्तान में एक ऐसा झूठ फैलाया गया है और उसे मजबूती के साथ खड़ा किया गया है कि एक तिहाई सीटों पर विधायक या सांसद के लायक महिला प्रत्याशी मिलना मुश्किल होगा। महिलाओं की सीटें हार जाने के डर से पार्टियां महिला आरक्षण का साथ नहीं दे रही हैं, नहीं देना चाहती हैं, ऐसा झूठ फैलाया जाता है। हकीकत तो यह है कि जब कोई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएगी तो वहां से किसी भी पार्टी की उम्मीदवार महिला ही होगी, और निर्दलीय उम्मीदवार भी महिला होगी। अगर महिलाओं में लीडरशिप की इतनी कमी है कि जीतने लायक उम्मीदवार मिलना मुश्किल होगा, तो यह मुश्किल तो हर पार्टी पर लागू होगी। इससे अधिक झूठ और फरेब की कोई बात नहीं हो सकती कि महिला का जीतना मुश्किल होगा। आज देश भर में पंचायतों और म्युनिसिपलों में महिला आरक्षण लागू है। छत्तीसगढ़ शायद ऐसा पहला राज्य था, या कम से कम शुरूआती राज्यों में था जहां पंचायतों में 50 फीसदी महिला आरक्षण लागू किया गया था। जब एक-एक गांव में महिला उम्मीदवार मिल जाती है, और सामान्य वर्ग, दलित या आदिवासी वर्ग, और ओबीसी तबके से भी महिला उम्मीदवार मिल जाती हैं, वे जीतकर पंचायत चला रही हैं, जिला पंचायत चला रही हैं, शहरों में वार्ड चला रही हैं, तो वे विधानसभा और संसद की सीट का काम क्यों नहीं कर सकतीं? एक विधानसभा क्षेत्र के भीतर तो सैकड़ों महिला पंच-सरपंच, और पार्षद-महापौर रहती हैं। उन्हें लीडरशिप के ऐसे दौर से गुजरने का मौका भी मिलता है, तो फिर उनमें से कोई विधायक या सांसद बनने के लायक न हो, यह सोचना और कहना परले दर्जे की बेईमानी की बात है।
हमारा यह मानना है कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर महिलाओं को झुनझुना थमाना बंद होना चाहिए। देश के महिला संगठनों को हर पार्टी को घेरना चाहिए कि वे महिला आरक्षण विधेयक पास कराएं, तो ही दुबारा चेहरा दिखाएं। आज देश में जिस तरह एक मजबूत किसान आंदोलन चला है, उसी तरह पूरे देश में एक मजबूत महिला आंदोलन चलना चाहिए, और उसे अपनी आबादी के अनुपात में संसद और विधानसभाओं की आधी सीटों की मांग करनी चाहिए। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र अपने पर बड़ा फख्र करता है, लेकिन हकीकत यह है कि हिन्दुस्तानी संसद में महिलाओं की मौजूदगी दुनिया की ढेर सारी संसदों के मुकाबले बहुत ही कम है। देश के महिला आंदोलन को सबसे पहले तो संसद, और विधानसभाओं से आधी कुर्सियां अपने लिए खाली करानी चाहिए, और इस एक मांग के पूरे होने के पहले कोई समझौता नहीं करना चाहिए। आज महिला दिवस के मौके पर हमारी यही राय है कि इससे कम कुछ नहीं मांगना चाहिए, और इससे कम किसी बात पर मानना नहीं चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)