संपादकीय
देश की सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था सीएसई ने कल एक रिपोर्ट प्रकाशित की है कि खाने-पीने के सामानों के डिब्बे-बोतल या पैकेट पर पोषक तत्वों की जानकारी के अलावा यह भी लिखा रहना चाहिए कि उनमें कौन सी चीजें नुकसानदेह हैं। यह रिपोर्ट 4 मार्च के विश्व मोटापा दिवस के मौके पर हुए एक ग्लोबल वेबिनार में विशेषज्ञों के बीच हुई चर्चा के बाद सामने आई है। इस वेबिनार में खाने-पीने के फालतू के सामान, जंकफूड, को लेकर भारत सरकार को एक विशेषज्ञ कमेटी द्वारा सात साल पहले दिए गए सुझावों पर भी चर्चा हुई जिस पर केन्द्र सरकारें सोई हुई हैं। बाजार में खाने-पीने के सामान पेश करने वाली कंपनियां तमाम नुकसानदेह जानकारी को छुपाना चाहती हैं, और वे सरकार के नियमों को प्रभावित करने के लिए काफी कुछ खर्च करने की स्थिति में भी रहती हैं। इस ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि आईसीएमआर के 2017 के आंकड़ों के मुताबिक देश में गैरसंक्रामक रोगों से मौतें 38 फीसदी थीं जो कि बढक़र 62 फीसदी हो गई हैं। आबादी में 17 फीसदी पुरूष और 14 फीसदी महिलाएं डायबिटीज के शिकार हैं। ऐसे में अगर खाने-पीने के बाजारू सामान अपने भीतर नमक और शक्कर, घी-तेल के खतरनाक स्तर को छुपाना जारी रखेंगे, तो हिन्दुस्तान एक टाईम बम के ऊपर बैठा हुआ साबित होगा।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि करीब डेढ़ बरस पहले इसी मुद्दे पर हमने उस वक्त की सीएसई की एक दूसरी रिपोर्ट पर लिखा था। हिन्दुस्तान में पैकेटबंद मीठा-नमकीन किस्म के सामान किस कदर सेहत के खिलाफ हैं। ऐसे सामानों में शक्कर, नमक, या कुछ रसायन इतने अधिक हैं कि उनसे सेहत को नुकसान पहुंचना तय है। बाजार में अधिक चलने वाले कई ब्रांड के अधिक चलने वाले सामानों का रासायनिक विश्लेषण करके सीएसई ने एक चार्ट भी प्रकाशित किया है कि किस-किसमें कितना फीसदी नुकसानदेह सामान मिला हुआ है।
देश में खान-पान का हाल एक बहुत फिक्र की बात है। यह बात जरूर है कि यह अमरीका जैसे देश से बहुत बेहतर है क्योंकि वहां पर लगातार जंक कहे जाने वाले बहुत ही नुकसानदेह खानपान की वजह से आबादी का एक बड़ा हिस्सा इतने भारी मोटापे का शिकार हो चुका है कि वह एक किस्म का राष्ट्रीय खतरा माना जा रहा है। भारत में भी दिल्ली जैसे उत्तर भारतीय शहर में महंगे स्कूल-कॉलेज को देखें, महंगे बाजारों में घूमते लोगों को देखें, तो अंधाधुंध मोटे लोग सबसे नुकसानदेह चीजें खाते-पीते दिखते हैं। इस नौबत को सुधारने में लोगों की दिलचस्पी धीरे-धीरे इसलिए कम हो रही है कि उनकी खर्च की ताकत में हासिल महंगे इलाज पर उन्हें बहुत भरोसा है कि आखिर में जाकर बाईपास से सब ठीक हो जाएगा, खाओ-पिओ ऐश करो। देश में ऐसी सोच महज उसी पीढ़ी का नुकसान नहीं कर रही है, बल्कि वह इस पीढ़ी के डीएनए से आगे बढऩे वाली तमाम पीढिय़ों को दिक्कत वाले जींस देकर जा रही है। इसके साथ-साथ देश की सीमित स्वास्थ्य सुविधाओं पर ऐसे लोग इतना अधिक बोझ डाल रहे हैं कि कम आय वाले लोगों को ऊंचा इलाज पाने की कतार में जगह ही नहीं मिल रही है।
हम सेहत के बचाव और चुस्त-दुरूस्त रहने के बारे में हर बरस एक-दो बार लिखते हैं कि बीमारियों से बचाव ही एकमात्र इलाज है, और कोई तरीका नहीं है कि एक बार खो चुकी सेहत को दुबारा पाया जा सके। देश के जो सबसे महंगे अस्पताल लोगों को यह भरोसा हासिल कराते हैं कि उनके पास तमाम बड़ी बीमारियों का इलाज है, उनको भी मालूम है कि इलाज की उनकी सीमा है, मेडिकल साईंस की भी एक सीमा है, और बदन को पहुंचा हुआ हर नुकसान दूर नहीं किया जा सकता। ऐसे में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को एक तरफ तो जनता को जागरूक करना चाहिए कि वे सेहत के लिए नुकसानदेह खान-पान से कैसे बचें। दूसरी तरफ उन्हें होटलों और बाकी खानपान के धंधों पर यह नियम भी लागू करना चाहिए कि वे हर सामान छोटी प्लेट में भी उपलब्ध कराएं ताकि लोगों को मजबूरी में अधिक खाना न पड़े, या प्लेट में जूठा न छोडऩा पड़े।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक फिट-इंडिया का नारा दिया है जो कि एक अच्छी जागरूकता हो सकता है अगर इसके साथ-साथ देश भर के शहरों में सैर के लिए बाग-बगीचे, और योग-ध्यान करने की जगह, उन्हें सीखने की सहूलियत उपलब्ध कराई जा सके। ये दोनों बातें मिलीजुली हैं, एक तरफ जागरूकता बढ़ाई जाए, सेहतमंद रहने की प्राकृतिक सहूलियत मुहैया कराई जाए, और दूसरी तरफ बाजार में खाने के लिए मजबूर लोगों को कम मात्रा में भी खरीदने की सुविधा रहे। छोटी प्लेट अनिवार्य करने की बात लंबे समय से चल रही है, लेकिन इस पर अमल हो नहीं पाया है। पता नहीं राज्य सरकारें अपने अधिकारों से अपने इलाकों में ऐसा कर सकती हैं या नहीं, लेकिन अगर ऐसे अधिकार हों तो जागरूक राज्यों को ऐसा करना ही चाहिए। फिर समाज के भीतर, परिवार के भीतर लोगों को तमाम डिब्बाबंद, पैकेट वाले, और टेलीफोन से ऑर्डर करके बुलाए जाने वाले खाने का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए। सबसे सेहतमंद खाना वह होता है जो घर पर बनता है, जिसमें घी-तेल का कम इस्तेमाल होता है, जिसमें चर्बी कम होती है, और जिसमें फल-सब्जी का अधिक से अधिक उपयोग होता है। इस जगह पर इससे ज्यादा खुलासे से चर्चा नहीं हो सकती, लेकिन लोगों को अस्पतालों से अधिक भरोसा अपनी जीवनशैली पर करना चाहिए कि अस्पतालों की नौबत ही न आए। यह जानकारी कोई परमाणु-रहस्य नहीं है, और कदम-कदम पर उपलब्ध है। जरूरत महज इतनी है कि अपनी जीभ पर काबू रखकर, उसे नाराज करके, बाकी बदन पर एहसान किया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)