संपादकीय
हिन्दुस्तान में कोरोना वैक्सीन लगाने का काम रफ्तार से चल रहा है। अलग-अलग राज्यों में रफ्तार कुछ कम या अधिक हो सकती है, लेकिन कुल मिलाकर करोड़ों लोगों को वैक्सीन लग चुकी है, और अधिक नाजुक या अधिक खतरे में जी रहे तबके इसे पहले पा रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी लोग वैक्सीन का इंजेक्शन लगवाते हुए अपनी तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं, जिनमें से कुछ का मतलब प्रसार हो सकता है, लेकिन कुछ का मकसद यह भी है कि वैक्सीन को लेकर जिन लोगों के मन में दहशत है वह दूर हो, और भरोसा कायम हो।
छत्तीसगढ़ सहित दूसरे बहुत से राज्यों के वैक्सीन लगाने के इंतजाम देखें तो उनमें एक बुनियादी चूक दिखाई पड़ रही है। अभी भी यह काम कागजों पर किया जा रहा है, एक ही जानकारी को अलग-अलग तीन-चार टेबिलों पर बताना पड़ रहा है, वक्त भी बर्बाद हो रहा है, और लोगों के लाए हुए कागज कम से कम तीन-चार कर्मचारी छू रहे हैं जिससे सभी लोगों पर खतरा बढ़ रहा है। एक तरफ तो हिन्दुस्तान डिजिटल कामकाज का दावा कर रहा है, अधिकतर राज्यों में काफी कुछ कामों में कम्प्यूटर का इस्तेमाल बढ़ा भी है, लेकिन जनता का सरकारी कामकाज से यह वास्ता कम्प्यूटरों पर एक अलग भरोसा पैदा कर सकता था, जो कि वह नहीं कर पाया। लोगों को वैक्सीन पर भरोसा हो गया, उसे लगाने की महीन सुई पर भरोसा हो गया, लेकिन लोग यह नहीं देख पाए कि कम्प्यूटर काम को आसान कैसे करता है। बहुत ही मामूली और गली-गली में उपलब्ध कम्प्यूटरों को तार से एक-दूसरे से जोड़ देने वाली लेन प्रणाली से टीकाकरण के पूरे इंतजाम को कागजमुक्त किया जा सकता था, लेकिन ऐसा किया नहीं गया। दरअसल जब वैक्सीन पाने और लगाने को ही बहुत बड़ी उपलब्धि मान लिया गया है, तो फिर उसे कागजमुक्त बनाकर भला और कौन सी कामयाबी पाई जा सकती थी?
लेकिन टीकाकरण जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रम आम लोगों के मन में सरकार के कम्प्यूटरीकृत इंतजाम के बारे में एक भरोसा पैदा हो सकता था, खासकर टीकाकरण के शुरुआती दौर में इस उम्र के आम लोगों को टीके लग रहे हैं, उन लोगों ने कम्प्यूटरों को अधिक देखा हुआ नहीं है। सरकार डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने की बात करती है, दावा करती है, लेकिन टीका लगाने जाने वाले को कई बार अपना नाम, पता, मोबाइल नंबर बताना पड़ रहा है, हर टेबिल पर बार-बार उसी जानकारी को दर्ज किया जा रहा है, टीकाकरण की क्षमता भी बर्बाद हो रही है, और एक-एक कागज को कई लोगों के छूने से संक्रमण का एक खतरा भी बढ़ रहा है। ऐसा भी नहीं है कि राज्य सरकारों ने इंतजाम में खर्च नहीं किया है, खर्च भी किया है लेकिन चार कम्प्यूटरों को आपस में जोडक़र पूरे काम को कागजमुक्त करने की कल्पना नहीं दिखाई है।
अब समय आ गया है कि सरकार को गैरजरूरी कागजी कार्रवाई का बोझ जनता पर से खत्म करना चाहिए। टीकाकरण से परे एक दूसरा मामला सरकारी कामकाज में गैरजरूरी कागजी कार्रवाई का है। आज लोग किसी भी सरकारी दफ्तर में मामूली सा काम लेकर जाते हैं तो उनसे ऐसे ढेर सारे कागज मांगे जाते हैं जो कि उस दफ्तर में पहले से जमा हैं। विश्वविद्यालय में नए इम्तिहान या दाखिले के लिए अर्जी लगाने पर उसी विश्वविद्यालय के पुराने नतीजों को मांगा जाता है। छोटे से छोटा सरकारी दफ्तर कागजों का अधिक से अधिक कचरा इक_ा करना चाहता है, मानो फोटोकॉपी की दुकानें उनके घरवाले चला रहे हों। दूसरी तरफ अमरीका जैसे विकसित और सभ्य सरकारों वाले देशों का यह हाल है कि वहां किसी भी सरकारी फॉर्म में मांगी जाने वाली हर जानकारी के बारे में यह तौला जाता है कि क्या उसे मांगना जरूरी है? हर सरकारी फॉर्म पर यह लिखना जरूरी होता है कि उसे भरने में करीब कितने मिनट लगेंगे? आज छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में बिजली का कोई मौजूदा ग्राहक घर पर एक एसी लगाने पर अगर खुद होकर स्वीकृत बिजली लोड को बढ़ाने की अर्जी दे, तो उससे वे सारे के सारे कागज फिर से मांगे जाते हैं जो उसने बिजली का कनेक्शन लेते हुए जमा किए थे। इससे ग्राहक के ऊपर कागजों को जुटाने का अंधाधुंध बोझ बढ़ता है, और खुद बिजली विभाग उन कागजों को दुबारा लेकर क्या कर लेगा जिनके आधार पर उसने पहला कनेक्शन दिया था?
कागजों को लेकर सरकारी व्यवस्था का मोह हैरान करता है। जब कभी पुराने कागजों के ग_े दीमकों के खाए हुए दिखते हैं, तब यह समझ नहीं आता कि इनका अधिक बड़ा शौक दीमक को है, या सरकार को? सरकारी दफ्तरों में जाकर देखें तो ऐसे गैरजरूरी मंगाए गए लोगों के दस्तावेज धूल खाते, पानी में भीगते, दीमक का इंतजार करते फर्श से छत तक भरे रहते हैं। इसके बावजूद सरकार अपनी आदत को सुधारना नहीं चाहती। आज टीकाकरण में कागजों के गैरजरूरी बेजा इस्तेमाल को देखते हुए इस पर लिखना सूझा, तो सरकारी दफ्तरों में कागजों का आम बेजा इस्तेमाल भी सूझ गया। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)