संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : 20 करोड़ भिखारियों वाला देश क्या अच्छे दिनों का दावा कर सकता है?
15-Mar-2021 5:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : 20 करोड़ भिखारियों वाला देश क्या अच्छे दिनों का दावा कर सकता है?

सोशल मीडिया इस मायने में बड़ा दिलचस्प है कि कई बरस पुरानी कोई कतरन निकालकर, उसके पुराने होने के जिक्र के बिना उसे पोस्ट कर दिया जाता है, और लोग उस पर टूट पड़ते हैं। कुछ लोग अनजाने में ऐसा कर बैठते हैं, और बहुत से लोग सोच-समझकर ऐसा करते हैं कि पेट्रोल और डीजल की महंगाई, रसोई गैस और तेल की महंगाई को लेकर यूपीए सरकार के वक्त एनडीए के नेताओं ने जितने प्रदर्शन किए थे, और डॉलर के महंगाई पर जितने भाषण दिए थे उनके वीडियो लोग पोस्ट करते हैं ताकि मनमोहन सरकार को जिन बातों के लिए मोदी सहित तमाम भाजपा नेता जितना कोसते थे, उन तर्कों को तो आज याद दिलाया जाए। ऐसी ही एक पुरानी कतरन आज सामने आई है जिसमें 2018 में इंदौर के किसी कार्यक्रम में आरएसएस के एक नेता इंद्रेश कुमार ने कहा था कि भीख मांगना भी हिन्दुस्तान में एक किस्म का रोजगार है। वहां पर ‘कलाम का भारत’ विषय पर आयोजित एक बैठक में इंद्रेश कुमार ने कहा था कि देश में 20 करोड़ लोगों का रोजगार भीख मांगना है, जिन्हें किसी ने रोजगार नहीं दिया उन्हें धर्म में रोजगार मिलता है। उन्होंने कहा जिस परिवार में पांच पैसे की कमाई भी न हो उस परिवार के कोई दिव्यांग या दूसरे सदस्य धार्मिक स्थलों पर भीख मांगकर परिवार का गुजारा करते हैं, और यह छोटा काम नहीं है। 

अब यह बात किसने कही, कब कही, इसे अगर छोड़ भी दें, तो भी मुद्दे पर सोचने-विचारने की जरूरत है। यह बयान देश में मोदी सरकार के रहते हुए उनके एक सहयोगी संगठन आरएसएस की तरफ से न भी आया होता, तो भी यह हकीकत तो है कि हर धार्मिक जगह के बाहर बड़ी संख्या में लोग भीख मांगते बैठे दिखते हैं। जो लोग ईश्वर की जगह पर उसकी उपासना करने जाते हैं, उनके मन में जाहिर तौर पर स्वर्ग का लालच और नर्क का डर तो रहता ही है, और ऐसे में वे भिखारियों को कुछ सिक्के देकर अगर स्वर्ग के किसी बड़े मकान पर रूमाल बिछाना चाहते हैं, तो यह इंसान के लिए एक बिल्कुल आम मिजाज की बात है। अब ऐसे लोगों की वजह से अगर हिन्दुस्तान में 20 करोड़ लोगों के रोजगार का अंदाज है, तो इस देश में रोजगार की हालत के बारे में सोचने की जरूरत भी है। यह भी हो सकता है कि सौ-दो सौ रूपए रोजी का काम मिलने पर भी बहुत से भिखारी उसे करने को तैयार न होते हों क्योंकि उसमें कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, और किसी धर्मस्थान के बाहर भीख मांगने में कोई मेहनत नहीं लगती, और खाने-पीने को भी मिल जाता है। यह देश के लिए एक शर्मनाक बात हो सकती है कि आबादी का 10-20 फीसदी भीख मांगकर गुजारा कर रहा है, और इसमें दिव्यांग, बीमार, बूढ़े और बच्चे, ऐसे तमाम कमजोर तबकों की बहुतायत है। लेकिन शर्म भरे पेट आने वाली चीज होती है। जब पेट भरा होता है तभी किसी को शर्म आ सकती है। पेट जब खाली रहता है तो सिर्फ भूख आती है, भूखे के पास शर्म भी नहीं आती कि उसके पास आकर क्या भूखे मरना है? इसलिए शर्म तो इस देश के भरे पेट वाले लोगों को आनी चाहिए कि 20 करोड़ लोग भीख मांगकर जीने को मजबूर हैं, या उसे किसी रोजगार से बेहतर समझते हैं। पिछले दो-तीन बरस में देश की मोदी सरकार ने और कई किस्म के तबकों के लिए अच्छे दिन लाने की बात की थी, यह एक अलग बात है कि दूसरी पार्टियां छोडक़र भाजपा में आने वाले लोगों के अलावा और किसी तबके के लिए अच्छे दिन आए नहीं। लेकिन इस सरकार ने भी भिखारियों के लिए अच्छे दिन लाने की योजना नहीं बनाई। भाजपा के राज वाले मध्यप्रदेश के इंदौर में इतना जरूर हुआ कि शहर को साफ करने के लिए बुजुर्ग भिखारियों और बेघरों का इंसानी कचरा म्युनिसिपल की कचरा गाडिय़ों में लादकर शहर के बाहर ले जाकर फेंक दिया गया, लेकिन भाजपा राज ने खुद अपने इंद्रेश कुमार की इस बात पर गौर नहीं किया कि रोजगार तो धर्मस्थानों के बाहर भीख मांगकर चल रहा है, बेघर गरीब, बुजुर्ग शहर के बाहर सुनसान में भला कहां भीख और रोटी पाएंगे। लेकिन इंदौर की इस मिसाल से परे बाकी पूरे देश में खुद आरएसएस के नेता की कही इस कड़वी बात पर उसके बाद के दो-तीन बरसों में भी किसी भाजपा सरकार ने ऐसा अभियान नहीं चलाया कि भिखारियों को कोई बेहतर जिंदगी दी जा सके। और फिर भिखारी कोई जमीन के नीचे छिपे हुए तो हैं नहीं, वे तो गैरभाजपा राज्यों में भी सडक़ों पर दिखते हैं, ट्रैफिक की लालबत्तियों पर दिखते हैं, घरों के बाहर दर्दभरी आवाज लगाते सुनाई पड़ते हैं, और धर्मस्थलों के बाहर तो उनका खास डेरा रहता ही है। देश की किसी भी सरकार ने भिखारियों के पुनर्वास के लिए कुछ किया हो ऐसा दिखता नहीं है। और अगर सचमुच ही इनकी गिनती 20 करोड़ जैसी है, तो फिर हिन्दुस्तान की किसी एक राज्य सरकार की भी इतनी ताकत नहीं हो सकती कि अपने राज्य के सारे भिखारियों का एक साथ पुनर्वास कर सके। 

एक पुरानी कतरन से आज इस मुद्दे पर लिखने की वजह पैदा हुई, और अब यह सोचना जरूरी लग रहा है कि कोई भी कल्याणकारी-लोकतांत्रिक सरकार किस तरह अपने इस सबसे कमजोर तबके के लिए क्या कर सकती है? इनके अनदेखा रहने की एक वजह शायद यह भी हो सकती है कि ये 20 करोड़ लोग पूरे हिन्दुस्तान में इस कदर बिखरे हुए, इस कदर बेघर गैरवोटर हैं कि इनका चुनाव में कोई इस्तेमाल ही नहीं है। और जिनकी चुनाव में कोई जरूरत नहीं है, उनकी फिक्र करने की भी कोई जरूरत नहीं है। यही भिखारी अगर संगठित होकर वोट डालने की हालत में रहते, तो राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नेता इनके घर पहुंचकर फर्श पर बैठकर खाना खाकर आते, फिर चाहे वह खाना खुद के ही लोगों का पहुंचाया हुआ क्यों नहीं रहता। 

जो प्रदेश या जो शहर अपने आपको गौरवशाली मानते हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि जब तक उनके इलाकों के ये सबसे कमजोर लोग जिंदा रहने लायक नहीं रहेंगे, लोगों की भीख के मोहताज बने रहेंगे, तब तक उनके इलाके की सरकारों का कोई गौरवगान नहीं हो सकता। भिखारियों में से शायद ही कोई हमारा लिखा पढ़ें, और शायद ही मीडिया को इस अधिक लिखने की जरूरत सूझती हो क्योंकि इस मुद्दे से विज्ञापनदाताओं का भला क्या लेना-देना? लेकिन समाज में सरोकार रखने वाले लोगों को इन बेजुबान भिखारियों के बारे में सोचना चाहिए कि क्या ये बाकी समाज के लिए बड़ी शर्मिंदगी की वजह नहीं बनते हैं? क्या बाकी समाज की इनके प्रति जिम्मेदारी नहीं बनती है? और यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के लिए अच्छे दिन आना इन्हीं लोगों से शुरू हो सकते हैं क्योंकि इनके अच्छे दिन सबसे ही सस्ते पड़ते हैं। बाकी लोगों की जिंदगी इनसे अधिक महंगी रहती है, और फिलहाल तो देश में ऐसे कमजोर तबकों के लिए सबसे सस्ते पडऩे वाले अच्छे दिनों के भी कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। आरएसएस के इंद्रेश कुमार को 2018 के बाद के भिखारियों के आंकड़े अपडेट करना चाहिए जो कि अब तक कई लाख बढ़ चुके होंगे, और उनकी कही बात को भाजपा की सरकारें शायद अधिक ध्यान से सुनें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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