संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बिना सच की राई, बना दिए गए झूठ के पहाड़ पर सैर सेहतमंद नहीं..
16-Mar-2021 7:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बिना सच की राई, बना दिए गए झूठ के पहाड़ पर सैर सेहतमंद नहीं..

राजस्थान में कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पार्टी के भीतर उनके प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट के बीच तनातनी को लेकर कांग्रेस विरोधी पार्टियों का खुश होना जायज ही है। पिछले बरस जब सचिन पायलट अपने समर्थक विधायकों को लेकर सरकार गिराने के लिए हरियाणा के रिसॉर्ट में जा बैठे थे, तब ऐसी भी चर्चा हुई थी कि उनके कब्जे से कांग्रेस विधायकों को खुद कांग्रेस पार्टी खरीदकर वापस लेकर आई थी, और सरकार बचाई थी। अब ऐसी खरीद-बिक्री पर कोई जीएसटी तो पटता नहीं है कि उसके बिल और रसीद पेश किए जा सकें, ये तमाम राजनीतिक कानाफूसियां ही रहती हैं। अब राजस्थान विधानसभा में सरकार ने एक साधारण सवाल का साधारण जवाब दिया है तो देश के मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा उस साधारण को असाधारण खबर बनाकर पेश करने में लग गया है। एक विधायक ने सवाल पूछा कि क्या बीते दिनों में फोन टेप किए जाने के प्रकरण सामने आए हैं? यदि हां तो किस कानून के अंतर्गत, और किसके आदेश पर? इसके जवाब में गृहविभाग ने कहा कि लोगों की सुरक्षा और कानून व्यवस्था को खतरा होने पर सक्षम प्राधिकारी के अनुमति लेकर केन्द्र सरकार के बनाए कानून के तहत फोन टेप किए जाते हैं। राजस्थान पुलिस ने इसी तरह फोन टेप किए हैं, और निगरानी पर लिए गए फोनों की मुख्य सचिव के स्तर पर बनी समिति समीक्षा करती है, कर चुकी है। 

अब यह साधारण सवाल देश के किसी भी राज्य में पूछा जा सकता है, और वहां की सरकार विधानसभा में ठीक ऐसा ही जवाब दे सकती है। इस सवाल-जवाब से कहीं भी यह नहीं निकलता कि कांग्रेस के बागी विधायकों के फोन टैप हुए हों। लेकिन मीडिया में सुर्खियां देखें तो दिखता है कि सचिन पायलट की बगावत के वक्त फोन टैप हुए थे, गहलोत सरकार ने पहली बार मंजूर किया। दर्जनों अखबारों, वेबसाईटों, और चैनलों ने ऐसी ही खबरें छापी हैं। न तो विधानसभा के सवाल में और न ही वहां के जवाब में पायलट का जिक्र है, या किसी विधायक के फोन का जिक्र है, और एक निहायत तकनीकी सवाल और तकनीकी जवाब को मीडिया ने अपना मनचाहा रंग देकर पेश कर दिया। बहुत पहले किसी ने ऐसी ही नौबत के लिए यह लिखा होगा- जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। 

कल से लेकर अब तक तकरीबन चारों तरफ मीडिया में खबरें ऐसी तस्वीर पेश कर रही हैं कि गहलोत सरकार ने पायलट के फोन टैप करने की बात मंजूर कर ली हो। हैडिंग धोखा देती है, पूरे समाचार में विधानसभा के सवाल-जवाब को बहुत छोटे से हिस्से में बीच में दबा दिया गया है, और अपनी राजनीतिक अटकलों को सरकार के जवाब की तरह खबर बना दिया गया है। अब यह इतनी चटपटी और सनसनीखेज बात है कि अखबार, वेबसाईटें, और चैनल कोई एक-दूसरे से पीछे रहना नहीं चाहते क्योंकि विधानसभा के सवाल और जवाब तक खबर को सीमित रखा जाए तो उसे कोई नहीं पढ़ेंगे। सवाल और जवाब एक सार्वभौमिक सत्य की तरह हैं कि कानून क्या है, और सरकार ने उसका उसी तरह इस्तेमाल किया है। इसमें भला क्या खबर बनती? 

हम पहले भी कई बार लिखते हैं कि लोग उतने ही समझदार बन सकते हैं जितने समझदार मीडिया का वे इस्तेमाल करते हैं। समझदार मीडिया, जिम्मेदार मीडिया, और सरोकारी मीडिया, इन खूबियों को अगर देखें तो ऐसा मीडिया कम ही बच गया है। मीडिया ने अपने पाठकों, दर्शकों, और श्रोताओं को जिम्मेदार-सोच के बोझ और उसकी मशक्कत की तकलीफ से बचाने की कोशिशों को लगातार जारी रखा है। अपने ग्राहकों को दिमाग पर जोर न डालना पड़ जाए इसकी पूरी कोशिश की जाती है। नतीजा यह होता है कि सजाकर पेश की गई एक सनसनीखेज तस्वीर के बाद उसके पाठक या दर्शक अपनी अक्ल का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करते। इस तरह के मीडिया तक सीमित रहने वाले लोग इस किस्म की सनसनीखेज और अर्धसत्य से भी कमसत्य, या पूरी तरह असत्य जानकारी को सच मानकर चलते रहेंगे। 

लोगों की जिंदगी में मीडिया के लिए वक्त बड़ा सीमित बचा है। लोगों को समाचार और विचार के अपने श्रोत बहुत सोच-समझकर तय करने चाहिए क्योंकि उनसे मिली जानकारी और सोच उनकी अपनी जिंदगी की कई बातें तय करती हैं।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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