सामान्य ज्ञान
पाल शैली भारत की एक जानी-मानी चित्रकला हुई है। जिसका चलन 11 वीं से 12 वीं शताब्दी में रहा है। भारत में पाल लघु चित्रकला के सबसे प्राचीन उदाहरण बौद्ध धार्मिक पाठों और जैन पाठों में विद्यमान हैं । पाल अवधि (750 ईसवी सन् से बारहवीं शताब्दी के मध्य तक) बुद्धवाद के अंतिम चरण और भारत बौद्ध कला की साक्षी है । नालंदा , ओदंतपुरी, विक्रम-शिला और सोमारूप के बौद्ध महाविहार बौद्ध शिक्षा तथा कला के महान केन्द्र थे। बौद्ध विषयों से संबंधित ताड़-पत्ते पर असंख्य पाण्डुलिपियां इन केन्द्रों पर बौद्ध देवताओं की प्रतिमा सहित लिखी तथा सचित्र प्रस्तुत की गई थीं । इन केन्द्रों में कांस्य प्रतिमाओं की ढलाई के बारे में कार्यशालाएं भी आयोजित की गई थीं । समूचे दक्षिण-पूर्व एशिया के विद्यार्थी और तीर्थयात्री यहां शिक्षा तथा धार्मिक शिक्षण के लिए एकत्र होते थे । वे अपने साथ कांस्य और पाण्डुलिपियों के रूप में पाल बौद्ध कला के उदाहरण अपने देश ले गए थे जिससे पाल शैली को नेपाल, तिब्बत, बर्मा, श्रीलंका और जावा आदि तक पहुंचाने में सहायता मिली । पाल द्वारा सचित्र पाण्डुलिपियों के जीवित उदाहरणों में से अधिकांश का संबंध बौद्ध मत की वज्रयान शाखा से था ।
पाल चित्रकला की विशेषता इसकी चक्रदार रेखा और वर्ण की हल्की आभाएं हैं । यह एक प्राकृतिक शैली है जो समकालिक कांस्य पाषाण मूर्तिकला के आदर्श रूपों से मिलती है और अजंता की शास्त्रीपय कला के कुछ भावों को प्रतिबिम्बित करती है । पाल शैली में सचित्र प्रस्तुत बुद्ध के ताड़-पत्ते पर प्ररूपी पाण्डु लिपि का एक उत्तम उदाहरण बोदलेयन पुस्तकालय, ऑक्सफार्ड, इंग्लैंड में उपलब्ध है । यह अष्ट सहस्रिका प्रज्ञापारमिता, आठ हजार पंक्तियों में लिखित उच्च कोटि के ज्ञान की एक पाण्डुलिपि है। तेरहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा बौद्ध मठों का विनाश करने के बाद पाल कला का अचानक ही अंत हो गया। कुछ मठवासी और कलाकार बचकर नेपाल चले गए जिसके कारण वहां कला की विद्यमान परंपराओं को सुदृढ़ करने में सहायता मिली।
डीम्ड विश्वविद्यालय
समविश्वविद्यालय या डीम्ड विश्वविद्यालय एक स्वायत्तता की स्थिति है जो भारत के उच्च निष्पादन करने वाले संस्थानों और विभिन्न विश्वविद्यालयों के विभागों को प्रदान किया जाता है। किसी विश्वविद्यालय को यह दर्जा अनुदान आयोग द्वारा प्रदान किया जाता है।
डीम्ड विश्वविद्यालय की स्थिति प्राप्त संस्थान न सिर्फ अपने पाठ्यक्रम को निर्धारित करने की पूर्ण स्वायत्तता ही प्राप्त करते हैं बल्कि प्रवेश नीति, विभिन्न पाठ्यक्रमों की फीस और शुल्क, तथा छात्रों के लिए निर्देश भी बनाने के लिए स्वतंत्र होते हंै।