संपादकीय
छत्तीसगढ़ के नक्सलग्रस्त बस्तर के बीजापुर जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर कल दोपहर नक्सलियों के हमले में 22-24 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए हैं। इनमें दो तिहाई राज्य पुलिस के बताए जा रहे हैं और एक तिहाई सीआरपीएफ के। इस इलाके में नक्सलियों की तलाश और मुठभेड़ में राज्य और केंद्र के सुरक्षा बल मिलकर काम करते हैं, और किसी नाकामयाबी की हालत में आम तौर पर दोनों ही एक-दूसरे से तोहमत से बचते हैं और जिम्मेदारी बंद कमरे की बैठक में तय होती है, और बाहर दोनों एकजुट नजर आने की कोशिश करते हैं। नक्सल मोर्चे पर यह हाल-फिलहाल में एक बड़ी शहादत है, और कुल एक या दो नक्सलियों की लाशें मिलने की सरकारी खबर से यह बात साफ होती है कि यह कोई मुठभेड़ नहीं थी, बल्कि सुरक्षा बल नक्सलियों के बिछाए हुए किसी जाल में फंस गए थे, और उन पर दो-तीन तरफ से हुई गोलीबारी में दिन की रौशनी में भी वे कोई जवाबी कार्रवाई नहीं कर पाए और उनकी एकमुश्त शहादत हुई है। लेकिन यह कैसे हुआ इसकी बारीकियां आज यहां लिखने का मकसद नहीं है, मुद्दे की बात यह है कि चौथाई सदी से अधिक हो चुका है कि अविभाजित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से सबसे अधिक दूरी पर बसा हुआ बस्तर नक्सल प्रभावित चले आ रहा है, और मौतों के आंकड़ों में उतार-चढ़ाव से परे यह समस्या कभी खत्म नहीं हो पाई है। इसने भोपाल और रायपुर में बैठे कई मुख्यमंत्री देख लिए हंै, केंद्र में कई सरकारें देख ली हैं, लेकिन सुरक्षाकर्मियों को इस मोर्चे पर झोंकने से परे केंद्र और राज्य की कोई नीति अब तक सामने नहीं आई है। जब निर्वाचित-लोकतांत्रिक सरकारों के पास भी रणनीति ही अकेली नीति हो, तो फिर ऐसी जटिल हथियारबंद सामाजिक-राजनीतिक समस्या आखिर खत्म कैसे होगी?
जब कभी नक्सलियों से बातचीत की कोई सलाह दी जाए तो तुरंत ही सरकारों की तरफ से यह प्रतिक्रिया आती है कि नक्सलियों की कोई एक लीडरशिप, उनका कोई एक संगठन तो है नहीं, बात करें तो किससे करें? और फिर सत्तारूढ़ पार्टियां, सरकार, और नक्सल संगठन इनकी तरफ से तरह-तरह की शर्तें सामने आने लगती हैं कि वे बातचीत के लिए तैयार हैं बशर्तें दूसरा पक्ष हथियार डाल दे, या नक्सल-इलाकों से सुरक्षाबलों को हटा लिया जाए। ऐसी शर्तों को खारिज करने से आगे बढक़र और कोई बात अभी तक हो नहीं पाई है, और अकेले बस्तर के नक्सल मोर्चे पर सैकड़ों जवान शहीद हो चुके हैं, ग्रामीण-आदिवासियों और नक्सलियों की मौतों को भी गिनें, तो कुल मिलाकर यह गिनती हजारों तक भी पहुंच सकती है।
नक्सलियों से बातचीत का कोई गंभीर और ईमानदार इरादा इस चौथाई सदी में हमें सुनाई भी नहीं पड़ा है। छत्तीसगढ़ में एक दशक से पहले बस्तर के एक कलेक्टर का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया था, और चूंकि वह बड़ा अफसर था, राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक खासे दबाव में थीं कि उसे रिहा कराया जाए। उसे छोडऩे के एवज में नक्सलियों ने कई मांगें रखी थीं, जिन पर गौर करने और चर्चा करने के लिए नक्सलियों और सरकार की आपसी और मिलीजुली पसंद के कुछ लोगों की एक कमेटी बनाई गई थी जिसकी सिफारिशों पर बस्तर की जेलों में सड़ रहे बहुत से बेकसूर लगने वाले आदिवासियों को छोड़ा भी गया था। बहुत से लोगों के खिलाफ मामले वापस लिए गए थे और वह नौजवान आईएएस कलेक्टर रिहा होकर लौटा था। लेकिन उस वक्त की छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार, और केंद्र की यूपीए सरकार ने बातचीत की इस अस्थाई मेज को स्थाई बनाकर बातचीत आगे बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की, और अखिल भारतीय सेवा के महज एक अफसर को बरी कराने के साथ ही यह संभावना भी खत्म कर दी।
नक्सलियों को गैरराजनीतिक मुजरिम करार देना इस मुद्दे का एक सरकारी-अतिसरलीकरण है। दुनिया का इतिहास है कि हथियारबंद राजनीतिक-आंदोलनों को कभी महज सरकारी हथियारों से खत्म नहीं किया जा सका है। हर कहीं बातचीत जरूरी साबित हुई है, और हिंदुस्तान में भी पंजाब के आतंकी दिनों से लेकर उत्तर-पूर्वी राज्यों के बहुत से हथियारबंद आंदोलनों तक समाधान बातचीत से ही निकला है। हिंदुस्तान के बाहर भी इतिहास के सबसे लंबे, उत्तरी आयरलैंड के हथियारबंद और आतंकी आंदोलन का खात्मा बातचीत से ही हुआ था, और आखिरी दौर के समझौते के लिए उस वक्त के अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उत्तरी आयरलैंड पहुंचकर मध्यस्थता की थी। छत्तीसगढ़ में एक अफसर की रिहाई के लिए ऐसी मध्यस्थता कायम होने के बाद भी उसकी संभावनाओं को आगे बढ़ाने का मौका सरकारों ने गंवा दिया, और मौतें जारी हैं।
लोकतांत्रिक-निर्वाचित सरकारों की कामयाबी बंदूकों से नक्सलियों को मारने में नहीं है, अगर उन्हें पूरी तरह खत्म करना मुमकिन मान भी लिया जाए, तो भी। कामयाबी इसमें है कि देश के भीतर के किसी भी किस्म के हथियारबंद-आंदोलनकारियों को लोकतंत्र की मूलधारा में वापिस लाया जाए। कोई भी लोकतांत्रिक देश दूसरे देशों से भी बातचीत करके अमन कायम करने और मौतों को रोकने की कोशिश करते हैं। ऐसे में अपने देश के भीतर के असहमत लोगों को बातचीत के लिए तैयार करना निर्वाचित सरकारों की जिम्मेदारी है। नक्सली तो लोकतंत्र पर ही भरोसा नहीं करते हैं, सरकार और संविधान पर भरोसा नहीं करते हैं, इसलिए उनसे तो ऐसी पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन लोकतांत्रिक सरकार की यह बुनियादी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है कि वह देश के भीतर के लोगों को बातचीत के लिए सहमत करे, और फिर कोई रास्ता निकाले। इस चौथाई सदी में एक भी सरकार ऐसा कोई ईमानदार कदम उठाते नहीं दिखी है, न छत्तीसगढ़ की, और न ही देश के बाकी आधा दर्जन नक्सल-प्रभावित राज्यों की, और न ही केंद्र में सत्ता संभालने वाले अलग-अलग गठबंधनों ने ऐसी कोशिश की है। यह सिलसिला फौजी-रणनीति या पुलिसिया नजरिए से तो ठीक है, लेकिन लोकतंत्र के नजरिए से यह नाकाफी है। इस देश को अपने छोटे सुरक्षाकर्मियों को इस तरह शहादत की तरफ धकेलना बंद करना चाहिए, और बातचीत की अधिक बड़ी चुनौती मंजूर करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)