संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हथियारबंद नक्सल मोर्चे से परे भी एक कोशिश की जरूरत है, उसे भी आजमाएं
05-Apr-2021 1:46 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हथियारबंद नक्सल मोर्चे से परे भी एक कोशिश की जरूरत है, उसे भी आजमाएं

छत्तीसगढ़ के बस्तर में दो दिन पहले नक्सल हमले में बाईस सुरक्षाकर्मियों की शहादत के बाद आज केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बस्तर पहुंचे और शवों की घर रवानगी के पहले राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के साथ मिलकर श्रद्धांजलि दी। इसके बाद केंद्र और राज्य के बड़े सुरक्षा अफसरों की बैठक हुई और उससे निकलकर अमित शाह और भूपेश बघेल ने नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई को निर्णायक अंत तक ले जाने की घोषणा की। राजनीतिक रूप से परस्पर विरोधी इन दोनों नेताओं ने भी इस कठिन मौके पर एक-दूसरे के साथ पूरी तरह खड़े रहने की बातें कहीं। दोनों ही नेताओं ने नक्सलियों को बुरी तरह धिक्कारते हुए उनके खात्मे की बात दुहराई है। 

जाहिर है कि केंद्र और राज्य के सुरक्षा बलों ने दो दिन पहले ही अपने बाईस साथियों को खोया है और बहुत से जख्मी साथी अस्पतालों में अभी जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। ऐसे में अपने सुरक्षा बलों के मनोबल को बढ़ाने के अलावा नेता और कर भी क्या सकते हैं? और फिर यह जितनी बड़ी हिंसक घटना हुई है, लोकतंत्र को बचाने में लगे हुए सुरक्षा कर्मचारी जितनी बड़ी संख्या में मारे गए हैं, ऐसे में केंद्र और राज्य की यह जवाबदेही भी होती है कि नक्सलियों के खिलाफ हथियारबंद कार्रवाई की जाए। इसलिए यह मौका किसी और बात का रहता नहीं है, खासकर ऐसे में शांति सुझाना एक बहुत ही अलोकप्रिय बात होना तय है। फिर भी सरकारें अपना काम कर रही हैं, हम अपना काम कर रहे हैं।

आज बस्तर के इस मोर्चे पर एक और खबर आई है कि इस मुठभेड़ के बाद से लापता सीआरपीएफ का एक जवान नक्सलियों के कब्जे में है। ऐसा पता लगा है कि नक्सलियों ने ही पुलिस और मीडिया को फोन पर यह खबर दी है और इस जवान की जम्मू में रह रही पत्नी से भी फोन पर बात करके कोई नुकसान न करने का भरोसा दिलाया है। इसके पहले भी कुछ ऐसे मौके आए हैं जब कुछ छोटे पुलिस कर्मचारी नक्सलियों के कब्जे में पहुंच गए थे, और बाद में उन्हें रिहा किया गया। इसलिए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि बड़ा अफसर न होने पर भी इस जवान की रिहाई के लिए केंद्र और राज्य सरकार वही लचीलापन दिखाएंगी जो कि दस बरस पहले एक आईएएस के अपहरण के बाद दिखाया गया था, या जो कंधार विमान अपहरण के बाद तालिबानी आतंकियों को रिहा करके दिखाया गया था।

आज चूंकि नक्सली हथियारबंद होकर मोर्चे पर डटे हुए हैं, और वे सुरक्षाकर्मियों को मारने का कोई भी मौका नहीं चूकते हैं, इसलिए उन पर जवाबी हथियारबंद कार्रवाई न करने की कोई वजह नहीं है। केंद्र और राज्य के सुरक्षाबल अब मिलकर और अधिक ताकत से उन पर हमला बोलेंगे, ऐसे आसार हैं। लेकिन इस बीच इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान जैसे दुश्मन समझे जाने वाले देश के साथ भी अभी सरहद पर अमन कायम रखने का जो समझौता निचले फौजी स्तर पर हुआ है, उसके पीछे भारत और पाकिस्तान के सुरक्षा सलाहकारों के बीच मध्यस्थों के मार्फत लंबी बातचीत बताई जाती है। वैसे भी कूटनीति में या अंतरराष्ट्रीय संबंधों में परदे के पीछे की कोशिशें जब किसी कामयाबी तक पहुंचाने के करीब रहती हैं, तभी परदे के बाहर कैमरों के सामने औपचारिक बातचीत होती है। इसलिए नक्सलियों के खिलाफ सरकारी कार्रवाई अपनी जगह चलती रहे, लेकिन परदे के पीछे ऐसी कोशिशें जरूर करनी चाहिए जो कि लोकतंत्र के हिमायती लोगों के बीच तो हो, लेकिन जिसमें ऐसे लोग भी शामिल हों जिन पर कि नक्सलियों का भी भरोसा हो। बस्तर जैसे नक्सल मोर्चे पर जो भी कार्रवाई हो रही है, वह दोनों ही पक्ष रातों-रात तो बंद करने से रहे, लेकिन बस्तर से दूर किसी और शहर में बैठे विचारवान और विश्वसनीय लोग हिंसा को खत्म करने और लोकतंत्र को जीत दिलाने के लिए काम कर सकते हैं। ऐसी बातचीत के बिना मोर्चों पर छोटे सुरक्षा कर्मचारी उसी तरह शहीद होते रहेंगे जिस तरह शतरंज की बिसात पर प्यादे खत्म होते रहते हैं और वजीर पीछे बैठे नजारा देखते रहते हैं। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और केंद्र या राज्य की सरकारों की कामयाबी हथियारबंद उग्रवादियों या आतंकवादियों को मारने में नहीं है, उन्हें लोकतंत्र की मूलधारा में लाने में है। हिंदुस्तान में कोई भी नेता नक्सलियों को पांच बरस भी मारते रहकर न तो उन्हें खत्म कर सकते हैं, और न ही खुद महानता का दर्जा पा सकते हैं। लेकिन अगर कोई नेता नक्सल हिंसा को ही खत्म करके नक्सलियों को लोकतंत्र में ला सकें, तो वह बहुत बड़ी ऐतिहासिक कामयाबी होगी। इसलिए हम बंदूकों के लिए कोई मनाही किए बिना भी लोकतांत्रिक ताकतों को लोकतांत्रिक समाधान तलाशने की एक नई पहल सुझाना चाहते हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि ऐसी कोशिश तेजी से कामयाब हो जाए, लेकिन तेजी से तो दसियों हजार सुरक्षा कर्मचारी मिलकर भी एक अकेले बस्तर से नक्सलियों को खत्म नहीं कर पा रहे हैं। नक्सलियों के साथ औपचारिक शांतिवार्ता की कोई जमीन अभी तैयार नहीं है, लेकिन यह लोकतांत्रिक-निर्वाचित सरकार का जिम्मा है कि अनौपचारिक बातचीत से ऐसी जमीन तैयार करे। और इस सिलसिले में कामयाबी मिले या न मिले, नक्सलियों के दिल-दिमाग की बात जानने वाले जो मध्यस्थ सरकार के प्रतिनिधियों के साथ बैठेंगे, वे कम से कम सरकारी-लोकतंत्र की खामियों पर तो चर्चा करेंगे ही, और उससे सरकार को अपनी व्यवस्था को सुधारने का एक मौका भी मिलेगा।

देश के आधा दर्जन राज्यों और केंद्र सरकार के सामने मनमोहन सिंह-सरकार के वक्त से ही माओवादी या नक्सली कही जाने वाली हिंसा देश का सबसे बड़ा आंतरिक खतरा बनी हुई है। इसे खत्म करने के लिए जिस तरह कई किस्म के सुरक्षा बल, कई किस्म के हथियार, और कई किस्म की रणनीति का इस्तेमाल पिछले कई दशकों से चले आ रहा है, वैसी ही एक अलग शांतिवार्ता की रणनीति हम सुझा रहे हैं, इस पर भी कोशिश करनी चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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