संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अभूतपूर्व कोरोना और जड़ों से कटा प्रशासन
11-Apr-2021 6:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अभूतपूर्व कोरोना और  जड़ों से कटा प्रशासन

छत्तीसगढ़ में अंधाधुंध रफ्तार से कोरोना बढ़ रहा है वह लोगों के लिए तो फिक्र की बात है ही, लेकिन वह शासन और प्रशासन के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती भी है। केंद्र सरकार जिस रफ्तार से कोरोना के टीके उपलब्ध करा पा रही है उसका अधिकतम इस्तेमाल छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में हो भी रहा है। लेकिन पहले टीके के बाद दूसरा टीका लगना और उसके बाद एक पखवाड़े और गुजर जाने पर ही यह उम्मीद की जा सकती है कि उसका असर शुरू होगा। टीका बनाने वाले वैज्ञानिकों का भी यह निष्कर्ष है कि करीब 70 फीसदी लोगों में ही टीके का असर होगा। अभी यह भी साफ नहीं है कि यह असर कितने महीने रहेगा, लेकिन दुनिया के दवा उद्योग के सरगनाओं का यह मानना है, और दबी जुबान से यह कहना भी है, कि इसे हर बरस लगाने की जरूरत पड़ सकती है। 

हिंदुस्तान जैसा देश, या छत्तीसगढ़ जैसे राज्य इस पूरे खर्च को कहां से उठा सकेंगे यह एक रहस्य की बात है। लेकिन दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शासन और प्रशासन अपने स्तर पर इस संक्रामक रोग के फैलाव को रोकने के लिए क्या कर सकते हैं? अभी प्रशासन अपने एक सदी पुराने परंपरागत तौर-तरीकों से इसे रोकने की कोशिश कर रहा है और कहीं रात का कफ्र्यू लगाया जा रहा है तो कहीं लॉकडाउन किया जा रहा है। यह समझने की जरूरत है कि ऐसी तरकीबों से कोरोना को महज कुछ दिन आगे खिसकाया भर जा सकता है, उसे रोका नहीं जा सकता, उसे खत्म तो बिल्कुल ही नहीं किया जा सकता। 

जिस राज्य छत्तीसगढ़ को हम बहुत करीब से देखते आ रहे हैं उसमें राज्य बनने के बाद से एक बड़ा फर्क बड़ा दिखता है। और यह फर्क एक हिसाब से कोरोना की रोकथाम में भी आड़े आ रहा है। छत्तीसगढ़ में अविभाजित मध्यप्रदेश के वक्त के बड़े-बड़े जिले काट-काटकर छोटे कर दिए गए हैं, और उस वक्त के एक-एक कलेक्टर एसपी के काम के इलाके अब चार-पांच जिलों में भी बंट गए हैं। मतलब यह कि वे अफसर उसी कुर्सी पर बैठे-बैठे पहले से कम काम करते हैं, लेकिन वे लोगों को पहले के मुकाबले और भी कम हासिल हैं। एक वक्त था जब अविभाजित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल थी, और छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा अफसर किसी एक संभाग का कमिश्नर होता था। अब राजधानी रायपुर में आ गई तो मुख्यमंत्री पिछले 20 बरस से इसी शहर में रहते हैं। छोटे-छोटे जिलों के कलेक्टर पूरे वक्त उनके प्रति जवाबदेही के साथ फोन पर रहते हैं। जिस वक्त आज के चार-पांच जिलों के इलाके के अकेले कलेक्टर रहते थे उस वक्त भी वे आम जनता को अधिक हासिल रहते थे, उनका जनता के साथ संपर्क अधिक बड़ा रहता था, अधिक गहरा रहता था, लेकिन हाल के इन दो दशकों में छत्तीसगढ़ के कलेक्टर और एसपी जैसे, इलाकों के अफसर लोगों से धीरे-धीरे कटते चले गए हैं और वह धीरे-धीरे सूरजमुखी के फूलों की तरह सत्ता की ओर चेहरा किए हुए अकेले उसी के प्रति जवाबदेह रह गए हैं। नतीजा यह हुआ है कि जनता के बीच उनकी जो पैठ रहनी चाहिए थी, वह पूरी तरह खत्म हो गई है, और शायद ही कोई ऐसे कलेक्टर-एसपी रह गए हैं जो कि जनता के बीच अधिक उठते-बैठते हैं। अगर कुछ ऐसे अफसर हैं भी, तो जाहिर तौर पर उनको अपने इलाकों में बेहतर काम करने में जनसहयोग का फायदा मिलता है। प्रशासन के काम का एक बड़ा हिस्सा लोगों से संपर्क का रहना चाहिए ताकि किसी आपदा के वक्त, विपदा के वक्त, या किसी भी चुनौती के वक्त एक अफसर भी अपने स्तर पर लोगों के बीच अपनी साख से भरोसा पैदा कर सके। आज हालत यह है कि मैदानों में काम करने वाले अफसरों के लोगों से संपर्क खत्म हो गए हैं, और उनकी कही बात का कोई असर भी नहीं रह गया है। वे लोगों से बात नहीं कर सकते, वे उन्हें आदेश दे सकते हैं, जो कि लोकतंत्र में एक आखिरी रास्ता रहना चाहिए। 

जहां तक निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का सवाल है, उनका भी हाल पूरी तरह से चुनाव केंद्रित और सत्ता केंद्रित होकर रह गया है। आज कोरोना को देखते हुए जनता को जो सावधानी बरतनी चाहिए थी, वह सावधानी केवल प्रशासन के आदेश से लादी जा सक रही है, कोई ऐसे स्थानीय नेता नहीं दिखते जो कि खुद होकर शहर की सड़कों पर निकल पड़ें और जिनकी बात मानकर भीड़ छंट जाए, लोग वक्त पर दुकानें बंद करने लगें। छत्तीसगढ़ की राजधानी वाला यह शहर रायपुर गवाह है कि एक वक्त यहां पर एक एडीएम और एक सीएसपी हुआ करते थे, और वे अपने स्तर पर आंदोलनों से भी निपट लेते थे, म्युनिसिपल के अवैध कब्जा विरोधी अभियान को भी चला लेते थे। अभी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सम्पादकों से ऑनलाइन बातचीत की तो उन्होंने खुद कहा कि वे लॉकडाउन के खिलाफ हैं, लेकिन जनता इससे कम किसी बात पर नियम-निर्देश मानने को तैयार नहीं है। 

यह जिम्मेदारी प्रशासन की नहीं है, यह शासन की जिम्मेदारी है कि जिलों के प्रशासन, जिलों की पुलिस को एक बार फिर जनता से जोड़ा जाए। कायदे की बात तो यह है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों और दूसरे राजनीतिक दलों, सामाजिक नेताओं को भी यह काम करना चाहिए, लेकिन पूरा प्रदेश यही सूरजमुखी के खेतों सरीखा होकर रह गया है। एक बार फिर प्रशासन को जनता से जोडऩे की जरूरत है, और इसके ठोस रास्ते निकाले जाने चाहिए। न सिर्फ प्रशासन बल्कि आज के शासन में भी कुछ स्तरों पर यह कमी आ गई है जिससे न तो अफसरों या मंत्रियों तक जनता की दिक्कतों और सुझावों की बात पहुंच पाती, न ही जनता की सोच का राज्य के शासन-प्रशासन में कोई फायदा मिल पाता मिल पाता। छत्तीसगढ़ एक बड़े राज्य का छोटा सा हिस्सा रहने के बाद अपने आपमें एक राज्य तो बन गया, लेकिन अविभाजित मध्यप्रदेश के वक्त उसका शासन-प्रशासन जनता से जितना जुड़ा हुआ था, वह अब नहीं रह गया। आज कोरोना के संक्रमण को रोकने की बात हो, कोरोना मौतों की बात हो, कोरोना वायरस के टीके की बात हो, इन सबमें जनता के बीच प्रशासन के संपर्क कम होने का नुकसान हो रहा है। यह जरूर है कि कुछ प्रमुख संगठनों के नेताओं से बंद कमरे की बैठक के बाद उनसे शासन को आइसोलेशन केंद्र बनाने में मदद मिली है, लेकिन संगठनों के पदाधिकारियों से परे आम जनता के बीच शासन और प्रशासन की सीधी पहुंच साफ-साफ घटी हुई दिखती है। इस निष्कर्ष के खिलाफ शासन और प्रशासन के लोग बहुत सी मिसालें दे सकते हैं, लेकिन उन्हें बंद कमरे में आत्ममंथन करना चाहिए कि आज जनता के बीच उनका कितना उठना-बैठना रह गया है, और अपने ही इलाके की जनता को हालात की गंभीरता समझाने के लिए पुलिस की गाडिय़ों पर मशीनगन तैनात करके फ्लैग मार्च निकालने जैसा अलोकतांत्रिक काम करना पड़ रहा है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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