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स्टिंगर मिसाइलः अमेरिका के इस मारक हथियार ने जब अफ़ग़ानिस्तान में रूसी सेना को तबाह किया
18-Apr-2021 10:29 AM
स्टिंगर मिसाइलः अमेरिका के इस मारक हथियार ने जब अफ़ग़ानिस्तान में रूसी सेना को तबाह किया

-उमर फ़ारूक़

अफ़ग़ान मुजाहिदीन के हाथों में स्ट्रिंगर मिसाइल आई तो अफ़ग़ानिस्तान-रूस युद्ध की तस्वीर ही बदल गई

गफ़्फ़ार ने अपनी तीन हमलावर टीमों को एक-दूसरे से कुछ दूरी पर त्रिकोणीय क्रम में रखा था. प्रशिक्षण के दौरान उन्हें यही सिखाया गया था. वे लंबे समय से घात लगाकर इंतज़ार कर रहे थे.

कुछ ही देर में जब उन्होंने कुछ रूसी, एमआई-24 हेलीकॉप्टरों को हवा में आते देखा तो उन्हें उनके सब्र का फल मिल गया. गफ़्फ़ार की टीम के सदस्यों में से एक ने हेलीकॉप्टर पर निशाना लगा कर ट्रिगर दबा दिया, लेकिन उस समय उनके होश उड़ गए, जब मिसाइल हेलीकॉप्टर से टकराने के बजाय सिर्फ 300 मीटर की दूरी पर ही ज़मीन पर जा गिरी.

मुजाहिदीन को प्रशिक्षित करने वाले पाकिस्तान के सेवानिवृत्त कर्नल महमूद अहमद ग़ाज़ी के अनुसार, ऑपरेशन विफल रहा, लेकिन इस मिसाइल की गूंज केवल अफ़ग़ानिस्तान के सैन्य ठिकानों में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में सुनी गई.

अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध ग्रस्त क्षेत्र के अंदर सोवियत वायु सेना के खिलाफ स्टिंगर मिसाइल का यह पहला उपयोग था. इसके बाद जलालाबाद और काबुल के क्षेत्रों में रूसी और अफ़ग़ान हवाई यातायात को निलंबित कर दिया गया था.

अमेरिका निर्मित स्टिंगर मिसाइलों को संचालित करने और संभालने के लिए पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी, आईएसआई ने सबसे पहले दो सैन्य कमांडरों को प्रशिक्षित किया था. नंगरहार के रहने वाले एक सैन्य कमांडर गफ़्फ़ार और दूसरे काबुल के रहने वाले कमांडर दरवेश, ये दोनों गुलबुद्दीन हिकमतयार के हिज्ब-ए-इस्लामी समूह से जुड़े हुए थे.

वे दोनों धाराप्रवाह रूसी बोलने के साथ-साथ उर्दू और पश्तो में भी माहिर थे. आईएसआई ने दोनों कमांडरों को देश की राजधानी इस्लामाबाद और जुड़वां शहर रावलपिंडी को जोड़ने वाले क्षेत्र, फैज़ाबाद के ओजड़ी कैंप के स्टिंगर ट्रेनिंग स्कूल में दो सप्ताह तक प्रशिक्षण दिया. ट्रेनिंग के बाद पहले ऑपरेशन के लिए दोनो कमांडरों को जलालाबाद हवाई अड्डे की तरफ भेजा गया था.

आईएसआई के स्टिंगर ट्रेनिंग स्कूल के तत्कालीन प्रमुख और मुख्य प्रशिक्षक सेवानिवृत्त कर्नल महमूद अहमद ग़ाज़ी ने अपनी पुस्तक में लिखा है, "ये 25 सितंबर 1986 का दिन था, जब गफ़्फ़ार अपनी टीम के साथ जलालाबाद हवाई अड्डे के उत्तर पूर्व में, कुछ दूरी पर टीलेनुमा पहाड़ी की झाड़ियों और चट्टानों में घात लगाए बैठे थे."

क्या थी स्टिंगर मिसाइल
स्टिंगर कंधे पर रख कर सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल है, जिसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकता है.

यह अमेरिकी रक्षा उद्योग का एक उत्पाद था. अफ़ग़ान युद्ध के दौरान इस मिसाइल के उपयोग से रूसी वायु सेना के परखच्चे उड़ गए थे. स्टिंगर के आने से पहले, मुजाहिदीन के सैन्य अभियानों का बहुत कम प्रभाव पड़ रहा था. विशेषज्ञों का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में रूसी सेना की हार का मुख्य कारण स्टिंगर्स ही थी.

सेवानिवृत्त कर्नल महमूद अहमद ग़ाज़ी, जो अफ़ग़ान मुजाहिदीन के लिए स्थापित स्टिंगर ट्रेनिंग स्कूल के प्रमुख थे, पाकिस्तान सेना की वायु रक्षा रेजिमेंट में एक अधिकारी थे. उन्हें आईएसआई टीम के प्रमुख के रूप में स्टिंगर के प्रशिक्षण के लिए वॉशिंगटन डीसी भी भेजा गया था.

उन्हें अमेरिका भेजने का मुख्य उद्देश्य अफ़ग़ानिस्तान में लड़ रही अफ़ग़ान मुजाहिदीन टीमों को स्टिंगर चलाने के लिए प्रशिक्षित करना और स्टिंगर के संचालन की कला में उन्हें माहिर करना था. ताकि स्टिंगर मिसाइलों की मदद से रूसी वायु सेना की शक्ति को ख़त्म कर दिया जाए.

अफ़ग़ानिस्तान में रूसी वायु सेना के ख़िलाफ़ स्टिंगर बेहद प्रभावी और कारगर साबित हुईं. स्टिंगर मिसाइलों के आगमन के बाद, रूसियों ने अफ़ग़ानिस्तान में ज़मीनी हमलों के लिए अपने लड़ाकू जहाज़ों का उपयोग करना शुरू कर दिया.

स्टिंगर्स के आने से पहले, अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध के दौरान रूसी और अफ़ग़ान सेनाओं को प्रतिद्वंदी वायु सेना का सामना नहीं करना पड़ता था. इसलिए अधिकांश रूसी हेलीकॉप्टरों का उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों में अफ़ग़ान मुजाहिदीन के ठिकानों पर ज़मीनी हमलों के लिए किया जाता था.

सेवानिवृत्त कर्नल महमूद अहमद ग़ाज़ी ने अपनी पुस्तक 'अफ़ग़ान वॉर एंड स्टिंगर सागा' में लिखा है कि "1986 में 36 लॉन्चर और 154 स्टिंगर मिसाइलों को अफ़ग़ानिस्तान भेजा गया था. इनमें से 37 स्टिंगर चलाए गए, जिनसे 26 रूसी जहाज़ गिराए गए थे."

1989 तक अफ़ग़ान जंग में, स्टिंगर के निशाने पर मार करने की दर में लगातार वृद्धि होती गई और आखिरकार रूसी अफ़ग़ानिस्तान से वापस चले गए.

आईएसआई स्टिंगर स्कूल 1993 तक सक्रिय रहा, उस दौरान पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व का ध्यान इसी पर केंद्रित रहा. जिसका सबूत इस बात से मिलता है कि उस समय के दो प्रधानमंत्रियों, मोहम्मद ख़ान जुनेजो और फिर बेनज़ीर भुट्टो ने उस स्कूल का दौरा किया था.

सेवानिवृत्त कर्नल ग़ाज़ी अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि प्रमुख अमेरिकी राजनेता और सीआईए के अधिकारी अक्सर इस स्कूल का दौरा करते थे.

ओजड़ी शिविर दुर्घटना
आईएसआई में अफ़ग़ान डेस्क के सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल महमूद अहमद ग़ाज़ी ने फ़ैज़ाबाद के ओजड़ी शिविर में एक साथी अधिकारी के कार्यालय में प्रवेश किया, तो उन्होंने अपने सहयोगी को चिंताजनक स्थिति में फील्ड फोन पर किसी को फोन मिलाते देखा.

ये 10 अप्रैल, 1988 को सुबह 9:30 बजे का समय था. ओजड़ी शिविर पाकिस्तान की शक्तिशाली खुफिया सेवा, आईएसआई का अलग-थलग और सुनसान सा स्थानीय कार्यालय और इंटेलिजेंस का अफ़ग़ान डेस्क का फिल्ड ऑफिस था. इसके विशाल परिसर के भीतर गोला-बारूद का गोदाम भी था.

लेफ्टिनेंट कर्नल महमूद अहमद ग़ाज़ी ने बाद में अपने संस्मरणों में लिखा था कि "फील्ड फोन का उपयोग करने वाले अधिकारी परेशान दिखाई दे रहे थे, क्योंकि उन्हें बारूद के गोदाम से कोई जवाब नहीं मिल रहा था. बारूद के गोदाम से कोई जवाब न मिलने का मतलब था कि कोई बहुत बड़ी गड़बड़ है."

कर्नल महमूद अहमद ग़ाज़ी ने लिखा है, कि "उन्होंने (फील्ड फोन का उपयोग करने वाले अधिकारी) मुझे बताया कि जहां गोला बारूद रखा जाता है, वहां से उन्होंने एक ज़ोरदार धमाके की आवाज़ सुनी है. इसी बीच मेजर बट दौड़ते हुए ऑफिस में दाखिल हुए और कहा कि बारूद के गोदाम में विस्फोट हो गया है. अफ़ग़ान डेस्क के प्रमुख ब्रिगेडियर अफज़ल जंजुआ और कर्नल इमाम (अफ़ग़ान मुजाहिदीन के प्रशिक्षक) समेत कार्यालय के सभी अधिकारी तुरंत गोदाम की तरफ दौड़ पड़े."

कर्नल ग़ाज़ी ने अपनी पुस्तक 'अफ़ग़ान वॉर एंड स्टिंगर सागा' में लिखा है कि जब हम बारूद के गोदाम पर पहुंचे, जो अफ़ग़ान डेस्क कार्यालय से केवल 200 मीटर की दूरी पर था, तो हमने ओजड़ी कैंप में कुछ अधिकारियों और सैनिकों को देखा. वो ओजड़ी कैंप के परिसर से बारूद से भरे ट्रक निकालने की कोशिश कर रहे थे. जब उन्हें ये अहसास हुआ कि किसी भी क्षण इससे बड़ा विस्फोट हो सकता है तब उन्होंने ट्रक निकलने का ये ऑपरेशन शुरू किया था.

सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल ग़ाज़ी ने लिखा, "गेट पर पहुंचने के बाद इन ट्रकों के ड्राइवर उस समय डर गए जब उन्होंने परिसर से निकलने वाला गेट बंद पाया. जैसे ही गेट पर तैनात सिक्योरिटी वालों को पता चला कि कुछ गड़बड़ है, तो उन्होंने निर्धारित प्रक्रिया (एसओपी) के अनुसार सभी फाटकों को बंद कर दिया था. एक अन्य अधिकारी, मेजर रफाक़त, बारूद से भरे उन ट्रकों में से दस ट्रकों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने में कामयाब हो गए थे."

कर्नल ग़ाज़ी ने लिखा कि ''बारूद के गोदाम के पास पहुंचने पर, हमें एक भयानक दृश्य दिखाई दिया. गोला-बारूद गोदाम, जो छत तक हथियारों से भरा पड़ा था, आग की चपेट में था. गोदाम में कोई व्यक्ति नहीं था. ज़ाहिरी तौर पर कोई भी आग बुझाने की कोशिश नहीं कर रहा था. ऐसा लगता था कि गोदाम में जो लोग मौजूद थे, उन्होंने गलत प्राथमिकताएं अपनाई थीं. पहले आग को नियंत्रित करने के बजाय, वे प्राथमिक चिकित्सा और घायल लोगों को निकालने में लग गए थे. यह अनुभवहीनता और प्रशिक्षण की कमी का एक निश्चित संकेत था."

उन्होंने लिखा कि "हम सभी को महसूस हो गया था कि बड़ा विस्फोट होने में बस कुछ ही क्षण बाकी हैं जो बस होने वाला है. कर्नल इमाम ने तत्काल ख़तरे को महसूस किया, मुझे उनके शब्द याद हैं कि "बहुत देर हो गई, अब कुछ नहीं हो सकता."

वो लिखते हैं कि "अभी हम मुश्किल से 'जगह खाली करो' ही चिल्ला पाए थे, कि एक बड़ा विस्फोट हो गया."

ये भयानक विस्फोट जिस समय हुआ, वहां मौजूद किसी आईएसआई अधिकारी की तरफ से ऐसी सूचनाओं का सामने आना दुर्लभ ही होता है.

33 साल पहले रावलपिंडी और इस्लामाबाद के संगम पर स्थित आईएसआई के फील्ड ऑफिस में से एक, ओजड़ी कैंप में हुए इस धमाके की वजह से, रॉकेट, मिसाइल और कई अन्य तरह के गोला-बारूद आवासीय और व्यापारिक क्षेत्रों पर बारिश की तरह बरस रहे थे. इस धमाके की भयावह याद लोगों के दिमागों से अभी तक नहीं मिटी.

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अफ़ग़ान युद्ध पूरे जोरों पर था और पाकिस्तान की आईएसआई, अमेरिका की सीआईए की मदद से अफ़ग़ान विद्रोहियों को हथियार, गोला-बारूद, प्रशिक्षण और धन मुहैया करा रही थी. आईएसआई इस्लामाबाद और रावलपिंडी को मिलाने वाले स्थान पर स्थित, ओजड़ी शिविर का इस्तेमाल हथियार और गोला बारूद जमा करने के तौर पर कर रही थी.

लेफ्टिनेंट कर्नल महमूद अहमद ग़ाज़ी के संस्मरणों से पता चलता है कि शहर के बीचों-बीच गोला बारूद के इस गोदाम के निर्माण का विचार, आईएसआई के तत्कालीन महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल अख्तर अब्दुल रहमान का था.

कर्नल ग़ाज़ी के अनुसार, जनरल रहमान ने आईएसआई के भीतर यह धारणा बनाने की कोशिश की, कि ओजड़ी कैंप में धमाका नुक़सान पहुंचाने का ऑपरेशन था. ताकि वो खुद पर होने वाली इस आलोचना का रुख मोड़ सकें कि आखिर शहर के बीचों-बीच इतनी बड़ी मात्रा में गोला बारूद क्यों जमा किया गया था.

सेवानिवृत्त कर्नल ग़ाज़ी लिखते हैं कि "हर तरह के हथियार को मिला कर कुल दस हज़ार टन का भंडार था जो हवा में उड़ रहा था, स्टिंगर हवा में उड़ रही थीं. हजारों रॉकेट, एंटी टैंक माइन्स (टैंक तबाह करने वाली बारूदी सुरंगें), रिकाइलज़, राइफल्स (छोटी तोपों) के गोले और हलके हथियारों की लाखों गोलियों का क़हर हर तरफ बरस रहा था. यह एक पागलखाना था."

कर्नल ग़ाज़ी के अनुसार, इस विस्फोट में कई आईएसआई अधिकारी, एक दर्जन से अधिक अफ़ग़ान मुजाहिदीन के साथ मारे गए थे. जो उस समय स्टिंगर ट्रेनिंग स्कूल में प्रशिक्षण ले रहे थे. यह स्कूल उसी परिसर में स्थित था.

उन दिनों, यह व्यापक रूप से माना जाता था कि ओजड़ी कैंप धमाके में रूसियों का हाथ था. ताकि अफ़ग़ानिस्तान को स्टिंगर की आपूर्ति में देरी हो या फिर आपूर्ति निलंबित हो जाये. लेकिन सेवानिवृत्त कर्नल ग़ाज़ी एक अलग ही कहानी बताते हैं.

स्टिंगर मिसाइलों के बारे में अफ़वाहें, कॉन्स्पिरेसी थ्योरी और सच

ज्वाइंट चीफ़्स ऑफ़ स्टाफ़ कमेटी (तीनों सशस्त्र सेनाओं के प्रमुखों की कमिटी) के तत्कालीन अध्यक्ष जनरल अख्तर अब्दुल रहमान ने 10 अप्रैल, 1988 की शाम को ओजड़ी कैंप का दौरा किया था. उस समय आग पर काबू पाया जा चुका था.

कर्नल ग़ाज़ी के अनुसार, उन्होंने परिसर में मौजूद आईएसआई अधिकारियों से बात की. "जनरल रहमान ने अधिकारियों से कहा कि उन्हें लगता है कि यह कार्रवाई जान-बूझकर की गई है. क्योंकि सभी गोला-बारूद जो हमारे पास था वो बहुत कारगर साबित हुआ था और पिछले छह से सात वर्षों में कभी भी ऐसी रिपोर्ट नहीं हुई. यह जनरल अख्तर का विचार था कि शहर के अंदर इतने बड़े पैमाने पर गोला-बारूद के गोदाम का निर्माण किया जाये.

"कम्युनिकेशन करने वाले हमारे लोगों ने शहरी क्षेत्रों के पास इस बारूद गोदाम के निर्माण पर कई बार आपत्ति जताई थी. लेकिन जनरल अख्तर ने इन आपत्तियों को सख़्ती के साथ खारिज कर दिया था. उनकी प्राथमिकताएं वास्तव में बहुत अलग थीं. कर्नल गाज़ी के अनुसार, आईएसआई और सेना के हलकों में तनाव था, कुछ लोग इस विस्फोट को जान-बूझकर की गई कार्रवाई बता रहे थे और कुछ लोग इसे दुर्घटना बता रहे थे. लेकिन जनरल आलोचना का रुख़ मोड़ना चाहते थे. क्योंकि शहर के अंदर गोदाम बनाने का विचार उनका था. इसलिए उनकी आलोचना भी हो रही थी. जनरल ज़िया ने भी उस शाम को जब प्रभावित क्षेत्र का दौरा किया, तो उनका भी वही कहना था."

ओजड़ी कैंप की घटना को समझाने के लिए उन दिनों कुछ कॉन्स्पिरेसी थ्योरी भी चल रही थीं. उनमे से एक थ्योरी यह थी कि शायद अफ़ग़ान मुजाहिदीन में से, किसी ने चोरी से कुछ स्टिंगर मिसाइलें ईरानियों को बेच दी थीं. लेकिन कुछ लोगों का कहना था कि पाकिस्तान की सेना में से किसी ने यह काम किया था. क्योंकि अमेरिका की सैन्य विशेषज्ञों की एक टीम शिविर का दौरा करने वाली थी, ताकि मिसाइलों की संख्या की जांच की जा सके.

सेवानिवृत्त कर्नल ग़ाज़ी ने इस थ्यौरी के बारे में सीधे तौर पर अपनी पुस्तक में तो कुछ नहीं लिखा. लेकिन वह इस दुर्घटना के बारे में दो तथ्य बताते हैं कि उन्हें इस कॉन्स्पिरेसी थ्योरी के बारे में पता था.

सबसे पहले, सेवानिवृत्त कर्नल ग़ाज़ी आईएसआई की अफ़ग़ान डेस्क में स्टिंगर मिसाइलों की संख्या का विवरण देते हैं: "पाकिस्तान को अमेरिका से कुल 487 लांचर और 2288 स्टिंगर मिसाइलें मिली थीं. इनमें से, 10 अप्रैल, 1988 को प्रसिद्ध ओजड़ी शिविर विस्फोट में 122 लॉन्चर और 281 स्टिंगर नष्ट हो गए थे, जिसके बाद हमारे पास केवल 365 लांचर और 2007 मिसाइलें बची थीं. इनमें से, 336 लांचर और 1969 मिसाइलों का इस्तेमाल मुजाहिदीन ने किया था और बाकी अमेरिका को वापस कर दिये गये थे."

संभवतः इस बयान से, कर्नल ग़ाज़ी उस कॉन्स्पिरेसी थ्योरी का खंडन करना चाहते थे कि आईएसआई में से किसी ने ईरानियों को स्टिंगर बेच दी थीं.

सेवानिवृत्त कर्नल ग़ाज़ी की स्टिंगर कहानी में ईरानियों का भी उल्लेख है. अपनी पुस्तक में, उन्होने 1987 में घटी एक घटना के बारे में बताया है. जब समूह के कमांडर यूनुस खालिस हेलमंद नदी के किनारे यात्रा करते हुए, भटक कर ईरानी क्षेत्र में चले गए थे. इसके बाद ईरानी सेना ने उन्हें पकड़ लिया था और स्टिंगर मिसाइलों को ज़ब्त कर लिया था. पाकिस्तानी विदेश कार्यालय ने ईरानी सरकार पर दबाव डाला लेकिन इसके बावजूद ईरानी सरकार ने मिसाइलों को वापस करने से इनकार कर दिया.

"'उसी साल (1987) में एक बार फिर खालिस के एक कमांडर (जिसे चार लॉन्चर और 16 स्टिंगर दिए गए थे) ने, हेलमंद प्रांत से गुज़रने वाली हेलमंद नदी के तेज़ बहाव के कारण ईरान के रास्ते यात्रा करने का फैसला किया, हालांकि, उन्हें ऐसा करने की सख्त मनाही थी. उन्हें किसी भी कीमत पर ईरानी क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना था. ईरानी क्षेत्र से गुज़रते हुए उन सभी को गार्ड ने पकड़ लिया और यह आखिरी बार था, जब हमने स्टिंगर मिसाइलों को देखा था. मुजाहिदीन के समूह को बाद में रिहा कर दिया गया था, लेकिन ईरानियों ने इन मिसाइलों और लॉन्चरों को कभी वापिस नहीं लौटाया."

कमांडरों और उनके साथियों को पाकिस्तान लाया गया उनसे आईएसआई और अमेरिकी सीआईए अधिकारियों दोनों ने पूछताछ की थी. सीआईए अधिकारियों ने कमांडर और उसके सहयोगियों पर झूठ का पता लगाने वाली मशीनों का भी इस्तेमाल किया था. लेकिन सेवानिवृत्त कर्नल ग़ाज़ी के अनुसार, सीआईए ने आईएसआई को अपने निष्कर्षों के बारे में नहीं बताया.

'अफ़ग़ान युद्ध के निर्णायक हथियार'
5 जुलाई, 1989 को, वॉशिंगटन पोस्ट ने अमेरिकी सेना के एक विशेष अध्ययन के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. जिसमें अमेरिकियों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि अमेरिका निर्मित स्टिंगर मिसाइलों के उपयोग ने अफ़ग़ान युद्ध का पासा पलटने में एक निर्णायक भूमिका निभाई थी.

अमेरिकी सेना की इस विशेष रिपोर्ट के अनुसार, अफ़ग़ानिस्तान में रूस के खिलाफ लड़ रहे अफ़ग़ान गुरिल्लाओं ने अमेरिका में निर्मित इन विमान भेदी मिसाइलों की मदद से "युद्ध की प्रकृति को बदल दिया था और ये युद्ध के निर्णायक हथियार साबित हुए थे."

रिपोर्ट के अनुसार, मुजाहिदीन ने 340 मिसाइलें दागीं, जिनसे 269 रूसी जहाज़ों को गिराया गया था. ये प्रदर्शन अमेरिकी मानकों से असामान्य रूप से अधिक था. मिसाइलों के अपने लक्ष्य को सटीक रूप से निशाना बनाने की क्षमता 79 प्रतिशत थी.

अध्ययन में अफ़ग़ान युद्ध के आखिरी तीन वर्षों का विश्लेषण किया गया. ताकि यह देखा और परखा जा सके कि सितंबर 1986 में शुरू हुए युद्ध में स्टिंगर के उपयोग की वजह से, रूस और अफ़ग़ान युद्ध की रणनीति में क्या बदलाव आया और इसके क्या परिणाम निकले.

इस अध्ययन से यह पता चला कि विमानों के ईंधन को सूंघते हुए उनका पीछा करने वाली इस मिसाइल के आने से 'लड़ाई की प्रकृति में एक दम से बदलाव आया'. यह बात भी आमने आई कि पहली मिसाइल लॉन्च होने के एक महीने के भीतर सोवियत-अफ़ग़ान हवाई हमलों की कार्रवाई बंद हो गई थी.

वॉशिंगटन पोस्ट को प्राप्त दस्तावेज़ के सारांश के अनुसार, "स्टिंगर के आने से पहले, केवल रूसी स्थिर और गतिशील पंख वाले लड़ाकू जेट ही हर दिन जीतते थे. सितंबर 1986 में, युद्ध की शैली में नाटकीय रूप से बदलाव आया. क्योंकि इससे पहले (सोवियत-अफ़ग़ान) हवाई जंगी मुठभेड़ प्रभावी नहीं होती थी, फौजी दस्तों की बिना रोक टोक आवाजाही और रसद की आपूर्ति सामान्य थी.

वॉशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के सन्दर्भ के अनुसार, "रक्षा विभाग के कुछ अधिकारियों ने संदेह व्यक्त किया था कि विश्वसनीय आंकड़े प्राप्त किए जाएं. क्योंकि जिन गुरिल्लाओं का इंटरव्यू लिया गया था, वे अपनी लड़ाकू शक्ति का प्रभाव जमाने के लिए, शायद मार गिराए जाने वाले जहाज़ों की वास्तविक संख्या न बता रहे हों."

"इसके अलावा, दागी गई मिसाइलों की संख्या 340 बताई गई थी, जो सितंबर 1986 और फरवरी (1988) के अंत तक चलने वाले प्रतिरोध के दौरान भेजी गई लगभग 1,000 मिसाइलों की संख्या से कम थीं." (bbc.com)

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