संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सरकारी, राजनीतिक, या कारोबारी विवादों से टीकों की साख न गिरे
24-Apr-2021 6:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सरकारी, राजनीतिक, या कारोबारी विवादों से टीकों की साख न गिरे

किसी एक घटना को लेकर उस पर संपादकीय लिखा जाए या नहीं यह दुविधा कभी-कभी रहती है। और कल भी छत्तीसगढ़ के एक नए जिले की एक खबर को लेकर यह दुविधा थी, लेकिन वहां से कल ही दो ऐसी खबरें और आ गईं कि जिनसे लगा कि इस जिले में कोरोना को लेकर लोगों की सोच और जागरूकता के स्तर पर लिखने की जरूरत है। यह जिला छत्तीसगढ़ का एक नया बना हुआ जिला जीपीएम है, गौरेला पेंड्रा मरवाही नाम का यह जिला छत्तीसगढ़ का सबसे लंबे नाम वाला जिला भी है और आदिवासी आबादी का जिला भी है। छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी इसी इलाके के रहने वाले थे। यहां पर पहली घटना सामने आई कि जब एक ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जिसे छत्तीसगढ़ में मितानिन कहा जाता है, वह लोगों को टीकाकरण के बारे में प्रेरित करने गई थी, और उसे लोगों ने वहां से मारकर भगा दिया क्योंकि लोग टीकाकरण पर भरोसा नहीं कर रहे थे। इसी जिले की एक अलग खबर यह है कि एक नौजवान एक कोरोना सेंटर में भर्ती किया गया था, जहां पर उसके परिवार के कुछ और लोग भी भर्ती थे, वह वहां से गायब हो गया था और अभी रेल लाइन के पास उसकी लाश मिली है। ऐसा अंदाज लगाया जा रहा है कि कोरोना की दहशत में जाकर उसने आत्महत्या कर ली है। एक तीसरी घटना इसी जीपीएम जिले से आई जहां पर छत्तीसगढ़ पुलिस का एक सब इंस्पेक्टर वर्दी में, प्लास्टिक की लाठी लिए हुए, गांव के लोगों को टीकाकरण के लिए जाने को मजबूर करते दिख रहा है, और गांव की महिलाएं उसी वीडियो में यह कहते हुए सुनाई पड़ रही हैं कि टीका लगवाना या न लगवाना उनका अधिकार है, और पुलिस इसके लिए जबरदस्ती नहीं कर सकती। यह वीडियो खासा लंबा है और यह बहस देर तक चलती है जिसमें पुलिस सब इंस्पेक्टर लगातार यह कहते हुए दिखता है कि टीका तो लगवाना ही पड़ेगा और पूरे गांव को चलना पड़ेगा। ऐसे में गांव की महिलाएं और वहां के आदमी लगातार पुलिस के वीडियो के जवाब में वीडियो बना रहे हैं और विरोध भी कर रहे हैं, अपने अधिकार भी गिना रहे हैं।

इन तीन घटनाओं को देखें तो यह साफ दिखता है कि इस आदिवासी बहुल जिले में लोगों की टीकाकरण के खिलाफ सोच बनी हुई है, कहीं वे टीकाकरण की प्रेरणा देने के लिए आई हुई मितानिन को मार रहे हैं, तो कहीं पुलिस का विरोध कर रहे हैं, और शायद ऐसे माहौल को देखते हुए ही पुलिस अपने दायरे से बाहर जाकर लोगों को लाठी के बल पर टीका लगवाने की कोशिश कर रही है जो कि सरकार के नियमों के बिल्कुल खिलाफ है। लेकिन शायद सरकारी अमले का यह सोचना रहता है कि जिस कोरोना की वजह से पुलिस सहित सभी की जिंदगी खतरे में पड़ी हुई है, उससे लोगों को बचाने के लिए कुछ जबरदस्ती करके भी लोगों का टीकाकरण करवाया जाना चाहिए। और तीसरी घटना बताती है कि लोगों में कोरोना के इलाज या कोरोनावायरस में भर्ती होने के खिलाफ किस तरह की दहशत फैली हुई है।

अब सवाल यह है कि टीकाकरण के खिलाफ तो देश के बहुत से पढ़े-लिखे पत्रकार भी रात-दिन सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं, और टीकों के असर पर सवाल खड़े कर रहे हैं। कुछ जाने-माने पेशेवर पत्रकारों ने भी ट्विटर पर यह लिखा है कि टीके लगवाने के बाद भी 26 हजार लोग देश में अब तक कोरोनाग्रस्त हो चुके हैं। इसके जवाब में एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार ने यह याद दिलाया है कि यह 26 हजार लोग उन 13.50 करोड़ लोगों में से हैं जिन्हें टीका लग चुका है। जब इतनी बड़ी संख्या में टीका लगवा चुके लोगों को देखें तो उनके मुकाबले 26 हजार लोग कोई मायने नहीं रखते हैं, और बाकी लोग अगर पॉजिटिव नहीं हुए हैं तो वह बात अधिक मायने रखती है। टीकाकरण को लेकर इसी जगह पर हमने कुछ दिन पहले भी यह लिखा था कि इसका विरोध करने के पहले यह सोचने की जरूरत है कि टीके से अगर कुछ लोगों को नुकसान भी हो रहा है तो टीके से लोगों को ऐसा फायदा भी हो रहा है कि पहले तो वे कोरोना संक्रमित होने से बच रहे हैं, और अगर हो भी जाते हैं तो संक्रमण के लक्षण उन पर बहुत हल्के रहते हैं, और उनकी जान खतरे में नहीं आती। इस बात को देखते हुए ऐसा लगता है कि टीके को एक राजनीतिक मुद्दा बनाना या केंद्र सरकार की कमजोर होती साख के साथ टीके की साख को भी कमजोर मानकर चलना जायज बात नहीं है। यह टीका ना तो केंद्र सरकार ने विकसित किया है, न ही किसी नेता का इसमें कोई योगदान है। ये टीके वैज्ञानिकों ने बनाए हुए हैं और इनको बनाने के पीछे इतना लंबा तजुर्बा लगता है जो कि 2-4 सरकारों के कार्यकाल में खड़ा नहीं हो जाता। इसलिए मोदी को नापसंद करने वाले लोगों का, मोदी के कार्यकाल में वैज्ञानिकों के बनाए हुए टीकों को भी नापसंद करना सही बात नहीं होगी। और टीकों की विश्वसनीयता को बिना किसी वैज्ञानिक आधार के बिना किसी सबूत के महज आशंका के आधार पर या अपने पूर्वाग्रह के आधार पर, अपनी नापसंदगी के आधार पर खारिज कर देना ठीक नहीं है। 

और फिर देश का एक हिस्सा ऐसा भी है जो कि परंपरागत ज्ञान या परंपरागत अंधविश्वास पर अधिक भरोसा करता है और वहां पर परंपरागत दवाओं से, जादू से, या किसी ताबीज और टोटके से इलाज करने की परंपरा है। आदिवासी इलाकों में या पिछड़े इलाकों में परंपरागत तरीके से इलाज करने वाले लोग या जादू टोने से इलाज करने वाले लोग भी ऐसे टीकों का विरोध करवाते हैं, और लोग उनके झांसे में आ जाते हैं। ऐसे में सरकार को वहां पर टीके की विश्वसनीयता बनाना कुछ मुश्किल पड़ता है। और जीपीएम जिले में पुलिस का एक छोटा सा अधिकारी जिस तरह से लोगों को मुफ्त टीका लगवाने के लिए जोर डालते दिख रहा है, वह अतिउत्साह अधिक है क्योंकि उसकी कोई अवैध कमाई तो इससे जुड़ी हुई नहीं है, वह गांव के लोगों से टीके के लिए कोई वसूली या उगाही करते नहीं दिख रहा है, वह मुफ्त टीका लगवाने की ही बात कर रहा है।

लेकिन महानगरों में बसे हुए टीकाविरोधी पत्रकारों से लेकर, पिछड़े हुए भीतरी आदिवासी इलाकों के टीकाविरोधी गांव तक एक बात एक सरीखी है कि वे टीके की विश्वसनीयता को गिराना चाहते हैं। हम टीकों को लेकर बाजार में चल रहे दाम के विवाद, केंद्र और राज्य के बीच चल रहे अधिकारों के या जिम्मेदारियों के विवाद से परे टीकों को पहली नजर में और हमारी सीमित समझ में लोगों के फायदे का मानकर चल रहे हैं। जब तक वैज्ञानिकों और जानकारों से नुकसान का सुबूत नहीं आएगा तब तक हम टीके लगवाने के हिमायती हैं। इसके लिए सोशल मीडिया पर भी लोगों में जागरूकता की जरूरत है, और सोशल मीडिया से बहुत दूर अंधविश्वास में जी रहे या परंपरागत ज्ञान पर आश्रित तबकों में भी टीकों के असर को लेकर विश्वसनीयता बनाने की जरूरत है। यह काम लाठी के बल पर नहीं हो पाएगा क्योंकि आपातकाल में सबने देखा हुआ है कि नसबंदी के फायदे तो बहुत थे लेकिन उसे जिस तरह लोगों के सिर पर पुलिस की लाठी के बल पर लादा गया था उससे वह हिंदुस्तान का सबसे बड़ी नफरत का शिकार सरकारी कार्यक्रम हो गया था। चूंकि छत्तीसगढ़ में ऐसी एक ही घटना हुई है इसलिए हम उसे कोई प्रतिनिधि-घटना मानकर पूरे प्रदेश की पुलिस को कसूरवार नहीं मान रहे, लेकिन इतना जरूर है कि पुलिस का एक सब इंस्पेक्टर अगर ऐसे अज्ञान का शिकार है कि टीके के लिए लोगों के साथ जबरदस्ती  करनी है, तो ऐसे अज्ञान को पुलिस के, और बाकी सरकारी अमले के बीच से खत्म करने की भी जरूरत है। यह सिलसिला जल्द ही उजागर हो गया इसलिए आज सरकार के पास इसमें सुधार की गुंजाइश है। छत्तीसगढ़ ऐसा अकेला या अनोखा प्रदेश नहीं होगा जहां टीकाकरण को लेकर सरकारी अमले के किसी व्यक्ति में ऐसी गलतफहमी हो और अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारी को लेकर ऐसी खुशफहमी हो, इसलिए बाकी लोगों के सामने भी यह एक मिसाल है कि किस तरह ऐसे सामाजिक खतरे घटाए जा सकते हैं। देशभर में जगह-जगह से ऐसी खबरें आ रही हैं कि कोरोना मरीज कहीं किसी इमारत से कूदकर, तो कहीं किसी और तरीके से आत्महत्या कर रहे हैं। आज समाज में धार्मिक या सामाजिक नेताओं का कोई असर है, तो उन्हें अपने-अपने दायरे में लोगों को टीकाकरण के लिए, इलाज के लिए, जागरूक करना चाहिए और दहशत कम करने की कोशिश भी करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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