संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मीडिया नाम के किरदार के सतह के नीचे के काम भी समझने की बड़ी जरूरत है
26-Apr-2021 3:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मीडिया नाम के किरदार के सतह के नीचे के काम भी समझने की बड़ी जरूरत है

पिछले कुछ दिनों से हिंदुस्तान की खबरों में सतह पर ही इतना कुछ तैर रहा था कि लिखने के लिए कोई मुद्दा ढूंढना मुश्किल नहीं था। लेकिन सतह से नीचे, आंखों से सीधे-सीधे न दिखने वाले भी बहुत से ऐसे मुद्दे रहते हैं जिनको देखना-समझना और उन पर लिखना जरूरी होता है। ऐसा ही एक मुद्दा हिंदुस्तान में आज मीडिया में है, और मीडिया के बारे में भी है। इसे लिखना न महज मीडिया के बारे में लिखना होगा, बल्कि लोकतंत्र के बाकी पहलू भी इससे जुड़े हुए हैं, और उन पर लिखना भी हो जाएगा।

अभी जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ मुख्यमंत्रियों के साथ एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की, और उसके बाद टीवी की खबरों में केवल एक खबर लगातार छाई रही कि किस तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने वीडियो कॉन्फ्रेंस का अपने सिरे से जीवंत प्रसारण कर दिया था। केंद्र सरकार से लेकर, कुछ मुख्यमंत्रियों तक ने इसकी खूब आलोचना की और दो दिन मीडिया में केजरीवाल की यह नाजायज कहीं जा रही हरकत, प्रोटोकॉल के उल्लंघन के रूप में छाई रही। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो इस बात को लेकर टूट ही पड़ा कि किस तरह केजरीवाल ने प्रधानमंत्री के साथ बैठक के प्रोटोकॉल को तोड़ा है। यह एक अलग बात है कि बैठक के चलते हुए ही केजरीवाल ने इस बात के लिए मोदी से भरपूर माफी मांग ली थी। लेकिन देश में कोरोना मोर्चे पर हालत को लेकर हुई इस बैठक के बाद तमाम खबरें केवल प्रोटोकॉल के इस उल्लंघन को लेकर बनती रहीं,  मानो देश में कोरोना के खतरे से अधिक बड़ा प्रोटोकॉल पर यह खतरा था। 

सतह के नीचे की चीजों को पढऩे या उनका अंदाज लगाने वाले लोगों ने इसे केजरीवाल की पुरानी कई हरकतों और तरकीबों से जोडक़र देखा और अंदाज लगाया कि देश की खतरनाक नौबत पर प्रधानमंत्री की जिस बैठक के बाद आमतौर पर केंद्र सरकार की नाकामी आलोचना के केंद्र में होनी चाहिए थी, वह आलोचना तो कहीं हो ही नहीं पाई क्योंकि केजरीवाल ने प्रोटोकॉल तोड़ दिया था। लोगों का यह अंदाज है कि केजरीवाल ने सोच-समझकर ऐसी हरकत की जिसे कि बाद में सोचे-समझे मीडिया ने सोच-समझकर शाम की सुर्खी बना दिया और केंद्र सरकार की नाकामी की बात तो आई-गई ही हो गई। अब यह बात सच है या नहीं है, यह तो केजरीवाल और मोदी ही बता सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक जीवन में ऐसे बहुत से मौके आते हैं जब किसी एक खबर को दबाने के लिए उसी वक्त कोई दूसरी खबर ऐसी चटपटी खड़ी कर दी जाती है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो उस पर टूट ही पड़ता है। फिर आज तो देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मोटे तौर पर मोदी सरकार के साथ सिंक्रोनाइज्ड स्विमिंग करते दीखता है। 

प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ऐसे फर्क को लेकर पिछले कुछ महीनों में हमने इसी जगह एक से अधिक बार लिखा है कि किस तरह बीते कल के अखबारों को आज के मीडिया नाम के एक व्यापक शब्द के तहत लाया गया है, और धीरे-धीरे अखबार नाम का शब्द, न्यूजपेपर नाम का शब्द, गायब कर दिया गया और केवल मीडिया शब्द रह गया। आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबार, और एक किस्म से डिजिटल मीडिया भी, इस मीडिया शब्द के तहत आ गए हैं और अखबारों की अपनी एक पेशेवर पहचान गायब हो गई है। आज इस देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हाल को देखें तो लगता है कि बीते कल का प्रिंट मीडिया, यानी अखबार एक बेहतर पत्रकारिता करते थे जिसकी विश्वसनीयता अधिक थी, जिसे लोग अधिक गंभीरता से लेते थे, और जिसे तोडऩा-मरोडऩा इतना आसान नहीं था जितना कि आज टीवी चैनलों के साथ देखने मिलता है. 

टीवी चैनल अपने प्रसारण को लेकर और प्रसारण के बाद सोशल मीडिया पर अपने लोगों की मौजूदगी से अपना जो आक्रामक तेवर दिखाते हैं, उसके भीतर एक बड़ी सधी हुई सोच दिखती है। अभी जब केंद्र सरकार एकदम से आलोचना का शिकार हो रही थी, देश और दुनिया के अखबार कोरोना के बेकाबू होने को लेकर भारत की मोदी सरकार के खिलाफ काफी कुछ लिख रहे थे, उस वक्त यह देखना दिलचस्प था कि किस तरह हिंदुस्तान के अधिकतर समाचार चैनलों ने एक ही दिन एक ही शब्द को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया कि हिंदुस्तान में व्यवस्था नाकामयाब हो गई है, सिस्टम फेल हो गया है। ये शब्द ‘सिस्टम’ और ‘व्यवस्था’ बरसों से कहीं चर्चा में नहीं थे, लेकिन एकाएक जब आलोचना का केंद्र मोदी के इर्द-गिर्द हो चुका था, तब मानो मोदी के विकल्प के रूप में व्यवस्था नाम का शब्द छांटा गया और बहुत सारे चैनलों के संपादकों और चर्चित एंकरों ने लिखना शुरू किया कि किस तरह व्यवस्था फेल हो गई, किस तरह सिस्टम फेल हो गया। नतीजा यह हुआ कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का फोकस प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द से हटकर किसी एक ऐसी अदृश्य ‘व्यवस्था’ पर फोकस हो गया जिसे किसी ने देखा सुना ही नहीं था और जो मानो भारत सरकार से परे की कोई चीज हो। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ऐसी व्यापक सुनियोजित कोशिश उसे प्रिंट मीडिया से बिल्कुल अलग-थलग कर देती है. और यहां पर हमारी पिछले कई महीनों की यह वकालत जायज साबित होती है कि अखबारों को अपने-आपको मीडिया शब्द से बाहर लाकर अखबार या न्यूज़पेपर शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए, जो कि उनकी असली पहचान है, जो कि एक इज्जतदार पहचान भी है।

अभी चार दिन पहले हिंदुस्तान के एक नामी-गिरामी पत्रकार रहे हुए और पिछली यूपीए सरकार के वक्त पद्मश्री हासिल कर चुके, और मौजूदा एनडीए सरकार के तहत राज्यसभा में जाने की कोशिश के लिए चर्चित एक पत्रकार ने जिस तरह देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित करने की वकालत की है उस पर हम इसी जगह काफी लंबा लिख चुके हैं। लेकिन यह बात समझने की जरूरत है कि देश के किसी रद्दी अखबार के संपादक का भी ऐसा फतवा देने का हौसला नहीं हो सकता था, कागज पर छपने वाले शब्दों की एक अलग इज्जत होती है जो कि अखबारों से अलग होने के बाद महत्व खो देती है। इसलिए देश में अखबारों को अपनी पुरानी इज्जतदार और विश्वसनीय पहचान पाने के लिए अपने को मीडिया नाम की विशाल छतरी के साए से बाहर निकाल लेना चाहिए। आज जिस तरह केंद्र सरकार को आलोचना से बचने के लिए पूरे मीडिया पर सोशल मीडिया के रास्ते दबाव बनाया जा रहा है कि मीडिया सकारात्मक खबरें दिखाए। क्या कोई टीवी के पहले के अखबारों को ऐसी नसीहत दे सकते थे कि सच के बजाय सकारात्मक दिखाएँ? ऐसे वक्त सच की जगह ‘सकारात्मक’ होने की नसीहत, सच की जगह ‘सरकारात्मक’ होने की नसीहत है, और कुछ नहीं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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