विचार / लेख
-अंकित जैन
सीएमसी, वेल्लोर
नीति नियंता (beurocrates and health care) विमान को पायलट चलाते है, एक कमर्शियल पायलट बनने के लिए करीब 3-4 साल की ट्रेनिंग और 1500 घंटों का फ्लाइट एक्सपीरियंस चाहिए होता है। बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है। पायलट को जब हवाई जहाज उतराना होता है तब एयरपोर्ट पर एक एयर ट्रैफिक कंट्रोलर होता है जो पायलट को विमान को हवाई अड्डे पर उतरवाने में मदद करता है।
एयर ट्रैफिक कंट्रोलर बनने के लिए भी कम से कम 5 साल लग जाते हैं, क्योंकि ये भी बड़ी जिम्मेदारी का काम है। एक एयर ट्रै्रफिक कंट्रोलर पायलट की मदद करता है, किसी दिन जब अनिर्णय की स्थिति होती है तो अंतिम निर्णय पायलट का ही होता है उसे कब, कैसे, कहाँ,ंंं वह विमान को उतरेगा।
अब सोचिये की एयर ट्रैफिक कंट्रोलर की जगह एक इतिहास, समाजिक शास्त्र या पोलिटिकल एडमिनिस्ट्रेशन जैसे विषय पड़े हुए आदमी को बिठा दे और उसको पायलट का बॉस भी बना दे तो आप सोचिये क्या होगा। जो पायलट विमान को इतने वर्षों से निर्बाध रूप से उड़ा रहा था अब उसे एक अनुभवहीन व्यक्ति की बातें सुननी पड़ेगी और माननी पड़ेगी। प्लेन क्रैश होंगे और लोगो की जिंदगियां खतरे में पड़ जाएंगी।
ठीक ऐसा ही कुछ हुआ है हमारे हेल्थ केअर सिस्टम के साथ, हमने उस विषय के वरिष्ठ जानकार और अनुभव प्राप्त व्यक्ति के ऊपर एक इतिहास, समाजशास्त्र, और पोलटिकल ड्डस्र पड़े हुए नौकरशाह व्यक्ति को बैठा दिया। अब सारे निर्णय वही लेता है जिसे न मेडिकल फील्ड का ज्ञान है ना अनुभव। अगर कोई विषय का जानकार उसे कुछ समझाना भी चाहे तो वह नही सुनता। बंद ड्डष् कमरों में बैठकर कुछ बयूरोक्रेट निर्णय लेते है जिसका धरातल से कोई संबंध नहीं, और अनुभवी पायलट की राय को भी दरकिनार कर दिया जाता है, नतीजा क्रैश पर क्रैश हुए जा रहे है और लोग मर रहे हैं।
अब एक बयूरोक्रेट डॉक्टर को बताता है कि मरीज का इलाज कैसे करना है, कब करना है, किस मरीज को द्बष्ह्व देना है, कौन सी दवाई आनी है कौन सी नही आई है । जब दुनिया के सारे देशों में कोरोना की दूसरी लहर ने हाहाकार मचाया तो हमारे देश में कोई तैयारी क्यों नहीं की।
क्या प्रधानमंत्री की टीम में कोई एपिडेमियोलॉजिस्ट था, और अगर था तो क्या उसे कोई ऑटोनोमी थी। अगर होती तो ये विकराल स्थिति होती ही नही। फरवरी में जब धीरे धीरे केसेस बढऩे शुरू हुए तभी डॉक्टर्स और एक्सपर्ट ने आशंका जतानी शुरू कर दी कि संभवत: दूसरी लहर आने वाली है पर इतिहास पड़े हुए किसी नौकर शाह ने कोई निर्णय नही लिया, नतीजा क्रैश।
आज भी जब नीतिया बनाई जा रही है तब क्या किसी भी बड़े निर्णय में रेजिडेंट डॉक्टर या मेडिकल ऑफिसर की राय ली जा रही है जो कि धरातल पर काम कर रहे है और आधारभूत समस्याओं को जानते है? अब एक नौकरशाह जिसने अपने जीवन मे सिर्फ एक एग्जाम पास की है वह नीतिया बनाता है और एक डॉक्टर जिसने 10 साल पढ़ाई की अनुभव लिया, जीतोड़ मेहनत कर नीट और ठ्ठद्गद्गह्लश्चद्द पास किया ( यकीन मानिए हृश्वश्वञ्ज श्चद्द निकालने में क्कस्ष्ट से कही अधिक परिश्रम लगता है) उसे कही रखा भी नही जाता।
अगर आपको किसी सरकारी संस्थान का नाम लेना हो जो अपने आप मे एक मिसाल है, जिसका नाम और काम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है तो जो नाम सामने आएगा वह है ढ्ढस्क्रह्र. क्या आप जानते है इसरो में ड्ढद्गह्वह्म्शष्ह्म्ड्डष्4 नहीं है , और जो थोड़े बहुत बयूरोक्रेट है वह भी ढ्ढस्क्रह्र के पदाधिकारियों के अनुसार काम करते है उनके मालिक नहीं बनते। अब आप फर्ज करे कि ISRO का डायरेक्टर कोई नौकरशाह होता तो क्या आज हम मंगलयान, या चंद्रयान बना पाते। क्या हम अंतरिक्ष मे वह मुकाम हासिल कर पाते जो हमारे वैज्ञानिकों ने कर दिखाया है। आज चिकित्सा और स्वास्थ्य को भी नौकरशाही से आजादी की दरकार है।