विचार / लेख
-चिन्मय मिश्र
"अब नहीं कोई बात खतरे की
अब सभी को सभी से खतरा है |"
जौन एलिया
ऐसा माना जाता है कि संकट में ही व्यक्ति और समाज का असली चेहरा सामने आता है | कोविड महामारी के इस दूसरे दौर ने भारतीय समाज के उस भ्रम को पूरी तरह से तोड़ दिया है कि हमारा समाज एक सभ्य, शिष्ट, संस्कारवान व अहिंसक समाज है | इस महामारी ने हमें समझाया है कि भारतीय का समाज का एक तबका/वर्ग अब पहले से अधिक दानवी, अशिष्ट, असभ्य, हिंसक व खूंखार होने के साथ ही साथ निर्लज्जता की सीमाओं को लांघ चुका है ! निम्न चार घटनाओं पर गौर करिए |
पहली है आगरा की | जहाँ पर एक तस्वीर में एक महिला, अपने पति को बचाने के लिये, उसके मुँह से मुँह लगाकर साँस देते हुए उसे जीवित रखने की असफल कोशिश कर रही है | वह एक दर्जन से ज्यादा अस्पताल घूम आई है | कुछ हाथ नहीं आया | उसे मालूम ही होगा कोरोना बेहद संक्रामक है | इस तरह से सांस देने से स्वयं की जान खतरे में पड़ जाएगी | पर प्रेम में विचार की गुंजाइश, नहीं होती वहां तो सिर्फ भावना होती है | साथ जीने और मरने की | यह तस्वीर एक मायने में सिर्फ नए आगरा, जिसे अभी तक अपने ताजमहल पर नाज था, की ही नहीं बल्कि पूरे भारत के लिए एक नया प्रतीक है, कि कैसे एक अस्पताल के ठीक बाहर व्यक्ति बिना आक्सीजन के मर सकता है | क्या भारतीय शासन-प्रशासन (सिस्टम नहीं) में अपने नागरिकों को लेकर वैसी तड़प नहीं है जैसी इस तस्वीर में रेणु सिंघल की अपने पति रवि सिंघल के लिए दिखाई पड़ रही है ?
दूसरी घटना भी उत्तरप्रदेश की ही है | यहां एक अत्यंत वृद्ध व्यक्ति अपनी मृत पत्नी को साईकिल पर पैडल के ऊपर कुछ इस तरह लादकर (जी हां लादकर ही ठीक शब्द है) ले जा रहे हैं, जैसे कि किसी मृत पशु या सामान भरे बोरे को ले जाया जाता है | मृतका का शरीर जमीन से घिसट रहा है | यह बुजुर्ग भारतीय नागरिक किस मनःस्थिति में होंगे इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती | आजादी के सात दशक बाद शव को ले जाने तक की कोई व्यवस्था नहीं | यहाँ पर शासन-प्रशासन ही नहीं, समाज भी असफल और निर्दयी नजर आ रहा है | याद रखिये अपवाद हर जगह होते हैं |
तीसरी घटना या स्थिति तो पूरे भारत में व्याप्त है | यह है श्मशान गृहों व घाटों में लाशों के जलने का न टूटने वाला सिलसिला | पहले बनारस का मणिकर्णिका घाट ही अपवाद था, जहाँ पर कि लगातार चौबीसों घंटे चिताएं प्रज्जवलित रहती हैं | अब पूरे भारत के लिए यह सामान्य घटना हो गई है | शवदाह गृह छोटे पड़ रहे हैं, युद्धस्तर पर नए प्लेटफार्म बनाए जा रहे हैं | बिजली से चलने वाले शवदाह गृहों की भट्टियां स्वयं ही जल गई हैं और लगातार शवदाह की वजह से चिमनियां गरम होकर पिघल गई हैं, गिर गई हैं | परन्तु मृत्यु के सरकारी आंकड़े इस सबको झुठला रहे हैं |
चौथी घटना भी बेहद त्रासद है | दिल्ली में अब कुत्तों के लिए निर्मित शवदाह गृह में मनुष्यों का अंतिम संस्कार होगा | कोरोना ने प्राणियों के बीच का अंतर ही समाप्त कर दिया, खासकर मृत्यु के बाद | यह एक अकल्पनीय स्थिति है और इसके बावजूद सरकारी आकड़े स्वीकार कर ही नहीं रहे हैं कि इतनी अधिक संख्या में मौते हुई हैं | तो अब मनुष्य और कुत्ते के बीच का भेद भी खत्म हो गया है | वैसे पहले भी आम जनता को मनुष्य समझने की गलती हमारा अधिकांश शक्तिशाली वर्ग जिसके पास सत्ता व समृद्धि है नहीं करता था | वर्ना लोग इस महामारी में वापस अपने घर जो कि सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं, क्यों लौटते ? घटनाएं तो अनगिनत हैं |
पश्चिम में महामारियों की व्यापकता और वीभत्स्ता दिखने के लिए अक्सर पिशाचों/चुडैलों का सहारा लिया जाता रहा है | हम उन्हें एक काल्पनिक प्राणी की संज्ञा देते हैं | परन्तु भारत की वर्तमान स्थिति को देखते हुए लगता है कि अब पिशाच होने के लिए मृत्यु जरुरी नहीं है | कोई व्यक्ति जीते जी पिशाच हो सकता है | वह मनुष्य का रक्तपान कर सकता है | अपने आसपास नजर दौड़ाइये, हर तरफ पिशाचनुमा मनुष्य नजर आएँगे | ऐसा लगने लगा है कि पिशाच अब मनुष्य से अलग कोई योनि नहीं बल्कि मनुष्यों की ही एक प्रजाति है | यह तय है कि वे संख्या में कम हैं, अपवाद हैं, परन्तु कमोवेश उनका पूरी मानवता पर कब्जा हो गया है | पिशाचों के बारे में विस्तार में जाएं तो पता चलता है कि, "पिशाच यूं तो एक काल्पनिक प्राणी है, जो प्राणियों के जीवन-सार खाकर जीवित रहते हैं, आमतौर पर उनका खून पीकर | हालांकि विशिष्ट रूप से इनका वर्णन मरे हुए किन्तु अलौलिक रूप से अनुप्रमाणित जीवों के रूप में किया गया | कुछ अप्रचलित परंपराएं विश्वास करती थीं कि पिशाच (रक्त चूषक) जीवित लोग थे |" अगर हम इसकी आखिरी पंक्ति में यह परिवर्तन कर दें कि, "कुछ वर्तमान प्रचलित परंपराएं विश्वास करती हैं कि पिशाच (रक्त चूषक) जीवित लोग हैं |" तो क्या यह आपत्तिजनक है ? जैसा कि मैंने पहले भी लिखा कि यहाँ सामान्यीकरण नहीं किया जा रहा है | नव पिशाच मनुष्यों में से निकला एक वर्ग है |
सोचिए | लोग आक्सीजन के बिना मर रहे हैं | वहीं दूसरी ओर आक्सीजन का एक सिलेंडर 1 लाख रु. तक में बेचा जा रहा है | शासन के स्तर पर आरोप प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं | एक राज्य दूसरे राज्य में जा रहे आक्सीजन टेंकर को जबरन रोक रहा है | सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय तक हैरान हैं | ऐसा तब जबकि अधिकांश सरकारी विज्ञप्तियां बता रहीं है कि देश में आक्सीजन की कोई कमी नहीं है | और आगे बढ़िये अस्पताल पहुंचिए | वैसे तो वहां जगह मिल जाए तो, अपनी किस्मत को सराहिये | अन्दर जाने के पहले ही निजी अस्पताल के शुल्क देखते ही हम किस्मत को कोसने लगते हैं | अपवादों को छोड़ दें, तो जिस तरह का अनापशनाप लाभ कमाया जा रहा है और संवेदनाओं को ताक पर रखा जा रहा है, वह किसी साधारण मनुष्य का काम नहीं है, उसके लिए तो (आप समझ ही गए होंगे) वही बनना पड़ता है | परन्तु कोई विकल्प नहीं है | सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को जिस तरह से पिछले वर्षों में नष्ट किया गया, उसके परिणाम हमारे सामने हैं | हर ओर मौत ही मौत है, और मर्मातक चीत्कारें हैं | पर कुछ लोगों पर इस सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ता | क्यों ? आप ही बताइये |
जब अस्पताल पहुंचेंगे तो दवाइयां भी लगेगीं | 800 रु. वाला इंजेक्शन 15000 रु. से लेकर 50,000 रु. में भी मिल जाए तो गनीमत | इससे कम का मिलेगा तो उसमें पुरानी बोतल में ग्लूकोज भरा होगा | साँस लेने में मददगार सारे उपकरण 5 गुना से ज्यादा महंगे हो चुके हैं| परन्तु केंद्र शासन, राज्य शासन और स्थानीय प्रशासन की और से अब तक कोई भी ठोस कार्यवाही सामने नहीं आई | इन नव पिशाचों की बन आई है | अब शवदाह भी ठेके पर देना शुरू हो गया है, प्रशासन इसे नकार रहा है | कंधे देने के लिए 5000 रु. तक मांगे जा रहे हैं | तो क्या इन्हें मनुष्य कहा जा सकता है ? सोचिए और खुद को ही उत्तर दीजिए | यहीं पर इस बात पर गौर करना आवश्यक है कि यह पैशाचिकी प्रवृत्ति समाज के ऊपरी तबके या सतह तक सीमित नहीं रह गई है | इसकी एक व्यापकता वास्तव में झुरझुरी पैदा कर देती है | सांस तोड़ते मरीज को अस्पताल ले जाने के लिए एम्बुलेंस वाले औसतन 300 रु. प्रति किलोमीटर मांग रहे हैं, खासकर दिल्ली जैसे महानगरों में | महामारी से पहले यह 12 रु. प्रति किलोमीटर था | घर से 50 किलोमीटर दूर ले जाने का 15000 से 25000 रु. तक | क्या कोई सामान्य मनुष्य एक दम तोड़ते व्यक्ति से मोलभाव कर सकता है | उसकी उखड़ती सांसें भी अब विचलित नहीं कर पा रहीं हैं |
इस सबके बाद, या कहें तो सबसे पहले सरकार और प्रशासन पर बात करना चाहिए | परन्तु उन पर क्या बात करें | वे दूरदर्शी लोग हैं कुछ भी अनजाने में नहीं करते | कोरोना की पहली लहर के बाद से ही यह तय था कि यह जल्दी जाने वाला नहीं है | कम से कम सन् 2022 तक तो बना ही रहेगा | पर आज जो परिस्थितियां हमारे आपके सामने हैं, उसे देखकर साफ लगता है कि शासन-प्रशासन की प्राथमिकता में से जनता नदारद है | वैसे एक और तबका है, हमारे वैज्ञानिकों का | कोरोना को लेकर यह आजतक किसी एक बात पर सहमत नहीं हुआ | एक दवाई की कमी हुई तो उसे अनुपयोगी ठहरा दिया गया | आक्सीजन की कमी हुई तो समझाया गया कि इसका दुरूपयोग हो रहा है | अस्पताल में बिस्तरों कि कमी हुई तो कहा गया कि भर्ती होने की जरुरत ही नहीं है | यह सब पहले से तय क्यों नहीं था ?
वैसे पिशाच की एक और परिभाषा है, "एक प्रकार का भूत या प्रेत जिनकी गणना हीन देव योनियों में होती है तथा जो वीभत्स कार्य करने वाले माने जाते हैं | उक्त के आधार पर वीभत्स तथा जघन्य कार्य करने वाला व्यक्ति | किसी काम या बात के सन्दर्भ में वैसा ही उग्र और भीषण रूप रखने वाला जैसा पिशाचों का होता है |" तो अपने आस पास देखिए | मूल्यांकन कीजिए और पहचानिए | इतना जरुर करिए कि जो हो रहा है उसे भूलने की कोशिश न करें | बहुत घबड़ाहट हो तो आगरा के प्रौढ़ युगल के असीम प्रेम वाली तस्वीर को याद करिए | बेहद सुकून मिलेगा | पर यह भी याद रखिए कि इस कलयुग में सावित्रियां भी अपने सत्यावानों को नहीं बचा पा रहीं हैं | ऐसा इसलिए क्योंकि मनुष्यता पर पैशाचिक प्रवृत्ति हावी होती जा रही है |