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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ... अदालतों में रोज दिख रहा है कि देश में सरकार का भट्ठा बैठ गया है
05-May-2021 5:21 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ... अदालतों में रोज दिख रहा है कि देश में सरकार का भट्ठा बैठ गया है

हिंदी भाषा जानने वालों के बीच कुछ ऐसे शब्द भी प्रचलित रहते हैं जिनका उन्हें मतलब ठीक से नहीं मालूम रहता, और ना ही वे उसकी तस्वीर की कल्पना कर पाते, जैसे भट्ठा बैठ गया। अब यह भट्ठा कैसा होता है जो कि बैठ जाता है, और क्या बाकी वक्त खड़े रहता है, यह कल्पना कुछ मुश्किल रहती है कि यह आखिर होता क्या है! लेकिन जिन लोगों ने ईंट के भट्ठे देखे हैं, वे कल्पना कर सकते हैं कि बड़ी मेहनत से कच्ची ईंटों को एक के ऊपर एक लगाकर जिस तरह से जमाया जाता है और फिर भीतर भट्टी सुलगाकर ईंट भट्ठा लगाया जाता है, वह अगर बैठ जाए, यानी ध्वस्त हो जाए, अंग्रेजी में कहें तो कोलैप्स हो जाए, तो कुछ ऐसा ही हाल पिछले एक पखवाड़े से सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार का दिख रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार का भट्ठा बैठ चुका है। सुप्रीम कोर्ट अपने सवाल केंद्र सरकार को ठीक से समझा नहीं पा रही है क्योंकि केंद्र सरकार समझते हुए अनजान बनना चाहती है। और जो चाहकर अनजान बने, उसे कोई जानकार क्या बना सकते हैं, फिर चाहे वे सुप्रीम कोर्ट हो, या फिर दिल्ली हाईकोर्ट हो।

कुछ दिन पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने ऑक्सीजन की डिमांड और सप्लाई को लेकर जितने सवाल किये, और उनके जवाब हलफनामे पर मांगे, तो केंद्र सरकार के वकील ने अदालत से गुजारिश की इन जवाबों को हलफनामे पर ना मांगा जाए। यह बहुत हैरानी की बात है कि आंकड़ों और तथ्यों को अगर देश एक बड़ी अदालत जानना चाह रही है तो केंद्र सरकार उसे हलफनामे पर देने से कतरा रही है। कोई सरकार जब ऐसा करती है तो एक सामान्य समझ बूझ से भी हमें यह शंका होती है कि सच इतना असुविधाजनक है कि सरकार उसे अदालत को बताना नहीं चाहती है. वरना और कौन सी वजह हो सकती है कि केंद्र सरकार पीनाज मसानी की तरह यह गजल गाने लगे कि ऐसी बातें पूछते नहीं हैं जो बताने के काबिल नहीं हैं। केंद्र सरकार का यह रुख जरा भी हैरान नहीं करता है क्योंकि वह सच बताने की हालत में नहीं है। काफी देर से, मानो दिन निकलने के घंटों बाद दोपहर को सोकर अदालत उठी हो, और देर से नींद टूटने के बाद वह हड़बड़ाहट में केंद्र सरकार से सवाल-जवाब कर रही हो. वक्त बहुत बर्बाद हो चुका है लेकिन फिर भी अदालत तो अदालत है और सुप्रीम कोर्ट तो शाम को भी सो कर उठे तो भी वह उस मुल्क के लिए सुबह कहलाएगी और इसलिए अब रोज सरकार अदालत में जवाब तलब की जा रही है, और वहां जानकारियां देने के बजाय जानकारियां न देने में अधिक दिलचस्पी रख रही है। केंद्र सरकार का यह हाल कुछ नया नहीं है, वह एकतरफा काम करने की आदी रही है। उसे अधिक सवाल-जवाब पसंद नहीं है, मुख्यमंत्रियों या राज्यों की तरफ से किए गए सवाल ही उसे पसंद नहीं हैं, अपनी नजरों में वह इतनी काबिल है कि उसे कोई सलाह भी पसंद नहीं, लेकिन अब अदालतों का दुस्साहस है कि वे केंद्र सरकार से सवाल कर रही हैं ! वह भी इस केंद्र सरकार से!

आज इस तरह की जानकारी दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को लेनी पड़ रही है, उत्तर प्रदेश और मद्रास जैसे हाई कोर्ट को छोटे-छोटे मामलों में केंद्र और राज्य सरकार से जवाब मांगना पड़ रहा है, हुक्म देना पड़ रहा है और लॉक डाउन लगाने का फैसला भी खुद ही लेना पड़ रहा है, ऐसी नौबत देश के अलग-अलग राज्यों में कई जगहों पर है। और शायद यह पहला मौका है जब देशभर में आपस में जुड़ा हुआ कोरोनावायरस खतरा सभी राज्यों को कहीं ना कहीं जोडक़र चल रहा है, लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट यह मान रहा है कि इस मामले में अलग-अलग राज्य के हाई कोर्ट अगर अपने अपने प्रदेश के मामलों की सुनवाई कर रहे हैं तो सुप्रीम कोर्ट उनमें दखल देना नहीं चाहता है, क्योंकि वे हाईकोर्ट अपने राज्य को बेहतर समझते हैं। अब तक किसी राज्य के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का कोई बड़ा टकराव नहीं हुआ है और उत्तर प्रदेश में लॉकडाउन का हुक्म देने वाले हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने रोक जरूर दिया है, लेकिन हाईकोर्ट की खुद होकर शुरू की गई सुनवाई को नहीं रोका है और फिर चाहे कितनी ही देर से क्यों ना सही सुप्रीम कोर्ट ने खुद होकर ऑक्सीजन के मामले में, वैक्सीन के मामले में, केंद्र सरकार से जवाब तलब शुरू किया है। और दिल्ली में तो हाल यह है कि हाईकोर्ट ऑक्सीजन सप्लायर के कारोबार को अपनी निगरानी में लेने की बात कर रहा है। 

यह पूरा सिलसिला अभूतपूर्व है, और भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था में कार्यपालिका की इतनी छोटी-छोटी बातों को जब न्यायपालिका को देखना पड़ रहा है, तो उसके बारे में महज यही कहा जा सकता है कि कार्यपालिका यानी सरकार का भ_ा बैठ गया है। और यह बात हम अदालत के रुख को देखकर ही नहीं कर रहे हैं, हमारे नियमित पाठक यह देख रहे हैं कि हम लगातार किस तरह सरकार की नाकामी, सरकार की निष्क्रियता, सरकार की बदइंतजामी के बारे में लिखते आ रहे हैं, और सरकार की नीयत और उसकी क्षमता दोनों पर काफी शक हम जाहिर कर चुके हैं। यह सिलसिला आज देश में महज एक वजह से जारी है कि देश में निर्वाचित सरकार को वापस बुलाने का कोई संवैधानिक प्रावधान संविधान बनाते हुए रखा नहीं गया था। और फिर यह भी है कि आज की केंद्र सरकार लोगों की भावनात्मक लुभावनी लहरों पर सवार, शोहरत के आसमान पर है, उसे भला कौन हिला सकता है? 

ऐसे में लोगों को अपनी सोच बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की कही बातों को भी देखना चाहिए जो कि वह सरकार के बारे में कह रहा है। हो सकता है कि इस मामले का फैसला आए और उस फैसले में सरकार के खिलाफ कुछ भी ना रहे जैसा कि पिछले वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के बहुत से मामलों में दिखाई देता रहा है कि सरकार की आलोचना महज जजों की जुबानी जमाखर्च में दिखती है, फैसलों में वह नदारद रहती है। वैसा ही कुछ अभी भी हो सकता है। लेकिन देश की जनता को अपने राजनीतिक शिक्षण के लिए अपनी राजनीतिक जागरूकता के लिए अदालत में चल रही बहस को भी सुनना चाहिए, जजों की बात को भी सुनना चाहिए, और जिस वकील के अदालत में हार जाने का खतरा अधिक है, उसके तर्कों को भी सुनना चाहिए। हारे हुए के अधिक तर्क तो अदालत के फैसले में भी नहीं आते, इसलिए उसकी बात को अभी यहीं सुन लेना चाहिए। यह नहीं मानना चाहिए कि अदालत इंसाफ लिखने जा रही है, बहुत से मामलों में अदालत इंसाफ नहीं लिखती, महज एक फैसला लिखती है। इसलिए जिन लोगों की पहुंच अदालती कार्यवाही की खबरों तक है, उन्हें अदालत के सवाल-जवाब, अदालत की बहस, इन सबको पढऩा चाहिए और उसके बाद अदालत के फैसले से परे अपनी सामान्य समझबूझ से, प्राकृतिक न्याय की अपनी बुनियादी समझ से, फैसला करके देखना चाहिए कि क्या वह अदालत के फैसले से मेल खाता है? 

जब देश में न्यायपालिका पर लोगों का पूरा पूरा भरोसा बच नहीं गया है और हमारे जैसे लोकतांत्रिक लोग भी जब अदालत के रुख, रवैये, और उसके निष्कर्षों पर हैरान होते रहते हैं, तो जनता को तो इसके बारे में सोचना ही चाहिए। लेकिन जनता को केंद्र सरकार के बारे में भी यह सोचना चाहिए कि आखिर इस सरकार को राज्यों की ऑक्सीजन की जरूरत, देश में ऑक्सीजन के उत्पादन और ऑक्सीजन के बंटवारे के बारे में पूछे गए आंकड़ों को हलफनामे पर देने में क्या दिक्कत हो रही है क्योंकि अदालत में किसी बात को हलफनामे पर कहने में दिक्कत केवल यह होती है कि वह अगर गलत निकल जाए तो हलफनामा देने वाले एक सजा के हकदार हो सकते हैं। आज केंद्र सरकार के सामने क्या इस तरह का कोई खतरा मंडरा रहा है ? क्या इस तरह का खतरा मंडरा रहा है कि उसने ऑक्सीजन पहुंचाने में चूक की है, राज्यों के साथ भेदभाव किया है, आखिर किस्सा क्या है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि इसी वक्त के आसपास जब सुप्रीम कोर्ट में कोरोना की वैक्सीन के मोल भाव को लेकर बहस चल रही थी, और वकीलों के बीच नहीं चल रही थी, सुप्रीम कोर्ट के जज और केंद्र सरकार के वकील के बीच चल रही थी, जब जज यह जानना चाहते थे कि वैक्सीन के इतने तरह के रेट क्यों रखे गए हैं? केंद्र सरकार पेटेंट कानून के तहत इस रेट पर काबू क्यों नहीं कर सकती है, तो यह सवाल भी ऑक्सीजन के सवाल के साथ मिलकर एक बड़ी तस्वीर पेश करता है कि भट्ठा किस तरह बैठ गया है। ईंट का भट्ठा पकने के पहले अगर बैठ जाए तो वह बहुत बड़ी तबाही होता है कबाड़ बन चुकी, ढेर बन चुकी, वैसे कच्ची ईंट न ईंट रह जाती, और ना ही मिट्टी रह जाती। आज देश में सरकारी इंतजाम का हाल कुछ इसी तरह का दिख रहा है जब वह मुर्दों से उम्मीद की जा रही है कि वे आत्मनिर्भर हो जाएं, और खुद इंतजाम कर लें अपने जलने का, जब बीमारों  से उम्मीद की जा रही है कि वे कम ऑक्सीजन लें, और अधिक ऑक्सीजन लेकर देश पर बोझ न बनें, तो यह बैठ चुके भट्ठे की हालत दिखती है, किसी चलते हुए कारोबार का हाल नहीं दिखता।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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