विचार/लेख
-गिरीश मालवीय
बहुत से लोग आज टेक्नोलॉजी को खुदा माने बैठे हैं लेकिन जिनके हाथों में टेक्नोलॉजी का विकास की कमान है वो किस तरह से डिस्क्रिमिनेशन कर सकते हंै ये लोग नहीं जानते।
यहाँ हम किसी कांस्पीरेसी थ्योरी की बात नहीं कर रहे। भास्कर के संपादकीय पेज पर एक खबर छपी है कि ऑक्सीमीटर अश्वेतों में गलत ऑक्सीजन लेवल की गणना दे रहे हैं। कोविड के दौर में यह गलती जानलेवा साबित हो गई है। जब अमेरिका में कोविड अपने चरम पर पहुंचा तो हजारों अश्वेत सही समय पर सही इलाज के लिए वंचित रह गए क्योंकि ऑक्सीमीटर की रीडिंग अश्वेतों में ज्यादा दिखा दी गई। नतीजा यह हुआ हजारों अश्वेत की मौत हो गई।
अमरीका की प्रमुख स्वास्थ्य नियामक एफडीए ने हाल के शोध में कहा है कि अश्वेत रोगियों को खतरनाक रूप से निम्न रक्त ऑक्सीजन का स्तर लगभग तीन गुना पाया गया है, जो कि श्वेत रोगियों के रूप में पल्स ऑक्सीमेट्री द्वारा पता लगाया गया।
सिर्फ यही नहीं 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया कि एक सॉफ्टवेयर के कारण श्वेतों को अश्वेतों की तुलना में हॉस्पिटल में इलाज में प्राथमिकता मिली। आने वाले दौर में कोरोना के बाद किस तरह से दुनिया एक सर्विलांस विश्व में बदल रही है। इस पर जब मैंने एक वीडियो बनाने के दौरान रिसर्च की तो मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि चेहरे की पहचान करने वाली टेक्नोलॉजी फेशियल रिकग्निशन बड़े पैमाने पर भेदभाव कर रही है।
स्टडी से पता चलता है कि अधिकांश फेशियल रिकग्निशन सॉफ्टवेयर का एल्गोरिदम श्वेत लोगों की तुलना में काले लोगों और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के चेहरे की गलत पहचान कर रहा है।
ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के प्रमुख। कारण अफ्रीकी अमेरिकी व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत के बाद पुलिस की कार्यनीति के साथ लॉ इन्फोर्समेंट के लिए इस्तेमाल की गई फेसिअल रिकग्निशन की इस टेक्नोलॉजी को गहन जांच के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है।
अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन ने कहा कि पुलिस बॉडी कैमरा फुटेज पर चेहरे की पहचान के सभी उपयोग पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए क्योंकि यह गलत पहचान कर रहे हैं। चेहरे की पहचान करने वाली इस टेक्नोलॉजी को अमरीका के सैन फ्रांसिस्को में बैन कर दिया गया है।
यह तो हुई अमरीका की बातें आपको लग रहा होगा कि वहाँ यह होता है!...हमारे यहाँ थोड़ी ही न यह सब होता है!. जबकि यह समस्या भारत मे बहुत बड़े पैमाने पर है।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार द्वारा लगभग तीन करोड़ राशन कार्ड रद्द किए जाने के खिलाफ याचिका लगाई गई। दरअसल गुडिय़ा देवी की ओर से जनहित याचिका दायर की गई जिसकी झारखंड में सिमडेगा जिले की 11 वर्षीय बेटी संतोषी की 28 सितंबर, 2018 को भुखमरी से मृत्यु हो गई।
याचिका में कहा गया है कि संतोषी, जो एक गरीब दलित परिवार से संबंध रखती थी, की मृत्यु हो गई क्योंकि स्थानीय अधिकारियों ने उसके परिवार का राशन कार्ड रद्द कर दिया था क्योंकि वे इसे आधार से जोडऩे में विफल रहे थे। मार्च 2017 से परिवार को राशन मिलना बंद हो गया और इसके परिणामस्वरूप, पूरा परिवार भूख से मर गया। उस वक्त यह मामला खूब सुर्खियां बटोर रहा था।
आप जानते हैं कि राशन कार्ड को आधार से क्यों नही जोड़ा जा सका? क्योंकि आधार में जो बायोमेट्रिक टेक्नोलॉजी उपयोग की गई है वह संतोषी के परिवार की सही पहचान नहीं कर पाई। सिर्फ संतोषी का ही नहीं बल्कि ऐसे तीन करोड़ परिवारों का राशन कार्ड रदद् कर दिया गया।
2018 में उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने बताया था कि राशन कार्डों के डिजिटलीकरण और आधार सीडिंग के दौरान 3 करोड़ राशन कार्ड फर्जी पाए गए जिन्हें रद्द किया गया।
अब बताइये, आप यह क्या कर रहे हैं ! आपने टेक्नोलॉजी को एक ऐसे फ्रैंक्सटाइन में तब्दील कर दिया हैं जो haves और haves not के बीच की दूरी को और अधिक बढ़ा रही है।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का खेल कितना मजेदार है, इसका पता हमें चीन और अमेरिका के ताजा रवैयों से पता चल रहा है। चीन हमसे कह रहा है कि हम अमेरिका से सावधान रहें और अमेरिका हमसे कह रहा है कि हम चीन पर जरा भी भरोसा न करें। लेकिन मेरा सोचना है कि भारत को चाहिए कि वह चीन और अमेरिका, दोनों से सावधान रहे। आँख मींचकर किसी पर भी भरोसा न करे।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘ग्लोबल हेरल्ड’ ने भारत सरकार को अमेरिकी दादागीरी के खिलाफ चेताया है। उसने कहा है कि अमेरिकी सातवें बेड़े का जो जंगी जहाज 7 अप्रैल को भारत के ‘अनन्य आर्थिक क्षेत्र’ में घुस आया है, यह अमेरिका की सरासर दादागीरी का प्रमाण है। जो काम पहले उसने दक्षिण चीनी समुद्र में किया, वह अब हिंद महासागर में भी कर रहा है। उसने अपनी दादागीरी के नशे में अपने दोस्त भारत को भी नहीं बख्शा।
चीन की शिकायत यह है कि भारत ने अमेरिका के प्रति नरमी क्यों दिखाई ? उसने इस अमेरिकी मर्यादा-भंग का डटकर विरोध क्यों नहीं किया ? चीन का कहना है कि अमेरिका सिर्फ अपने स्वार्थों का दोस्त है। उसके स्वार्थों के खातिर वह किसी भी दोस्त को दगा दे सकता है। उधर अमेरिकी सरकार के गुप्तचर विभाग ने अपनी ताजा रपट में भारत के लिए चीन और पाकिस्तान को बड़ा खतरा बताया है। उसका कहना है कि चीन आजकल सीमा-विवाद को लेकर भारत से बात जरुर कर रहा है लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति से ताइवान, हांगकांग, द.कोरिया और जापान आदि सभी तंग हैं। वह पाकिस्तान को भी उकसाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।
भारत की मोदी सरकार पाकिस्तानी कारस्तानियों को शायद बर्दाश्त नहीं करेगी। यदि किसी आतंकवादी ने कोई बड़ा हत्याकांड कर दिया तो दोनों परमााणुसंपन्न पड़ौसी देश युद्ध की मुद्रा धारण कर सकते हैं। चीन की कोशिश है कि वह भारत के पड़ौसी देशों में असुरक्षा की भावना को बढ़ा-चढ़ाकर बताए और वहां वह अपना वर्चस्व जमाए। वह पाकिस्तानी फौज की पीठ तो ठोकता ही रहता है, आजकल उसने म्यांमार की फौज के भी हौंसले बुलंद कर रखे हैं।
उसने हाल ही में ईरान के साथ 400 बिलियन डालर का समझौता किया है और वह अफगान-संकट में भी सक्रिय भूमिका अदा कर रहा है जबकि वहां भारत मूक दर्शक बना हुआ है। अब अमेरिका ने घोषणा की है कि वह 1 मई की बजाय 20 सितंबर 2021 को अपनी फौजें अफगानिस्तान से हटाएगा। ऐसी हालत में भारत के विदेश मंत्रालय को अधिक सावधान और सक्रिय होने की जरुरत है। हमारे विदेश मंत्री डा. जयशंकर पढ़े-लिखे विदेश मंत्री और अनुभवी कूटनीतिज्ञ अफसर रहे हैं। विदेश नीति के मामले में भाजपा नेतृत्व से ज्यादा आशा करना ठीक नहीं है लेकिन जयशंकर यदि कोई मौलिक पहल करेंगे तो भाजपा नेतृत्व उनके आड़े नहीं आएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-तारण प्रकाश सिन्हा
महामारियों और मानवता के बीच जंग का इतिहास सदियों पुराना है। हर सदी में किसी न किसी महामारी ने मानवता के सामने चुनौतियां पेश कीं, और हर बार मनुष्यता की ही जीत हुई। अब एक बार फिर एक विषाणु ने मनुष्य के ज्ञान और विज्ञान को चुनौती है। हर बार की तरह इस बार भी हम निश्चित ही जीतेंगे। वह हमारी जिजीविषा ही थी, जिसने हमेशा हमारे अस्तित्व की रक्षा की। जब कभी संकट गहराया, हमारी जिजीविषा उतनी ही तीव्र होती रही। संकट के बीच जीवन को बचाए रखने की कला हमने विकसित की। कोविड-19 के संक्रमण के इस दूसरे दौर में जो परिस्थितियां निर्मित हुई हैं, उसने कुछ पल के हमें हतप्रभ जरूर कर दिया है, लेकिन हम निराश नहीं हैं। हमारे योद्धा एक बार फिर कोविड के खिलाफ मैदान पर हैं, और इस बार वे ज्यादा कौशल, अनुभव और संसाधनों के साथ जंग लड़ रहे हैं। संक्रमण के पहले दौर की तुलना में हमारे योद्धाओं में कई गुना ज्यादा आत्मविश्वास है। वे कई गुना ज्यादा हौसले के साथ लड़ाई लड़ रहे हैं। कोविड-19 ने इस बार हालांकि ज्यादा तेज हमला किया है, लेकिन उस पर पलटवार भी उतनी ही तेजी से हो रहा है।
कोविड-19 की दूसरी लहर की अचनाक हुई शुरुआत के कारण हालांकि शुरुआती बढ़त महामारी के पक्ष में नजर आ रही है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछली बार की तरह इस बार भी बहुत जल्द कोविड को पीछे धकेल दिया जाएगा।
हमें यह देखना होगा कि पिछली बार की तुलना में इस बार कोविड-19 हमें ज्यादा नुकसान क्यों पहुंचा पा रहा है। इस बार देखा जा रहा है कि अपने बदले हुए स्वरूप में यह वायरस ज्यादा संक्रामक है, इस बार युवाओं और बच्चों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। हर परिवार में एक से ज्यादा सदस्य इस बार वायरस की चपेट में आ रहे हैं। वायरस की इसी आक्रमकता की वजह से पूरे देश में हालात तेजी से बिगड़े और संसाधनों की किल्लत होने लगी। यह तो तय है कि नयी आवश्यकताओं के अनुरूप शीघ्र ही नये संसाधनों का इंतजाम कर लिया जाएगा, लेकिन तब तक हो रहे नुकसान को टालना हम सबकी जिम्मेदारी है। सबसे ज्यादा जरूरी है कि परिवार में किसी को संक्रमण ही आशंका होते ही उसे आइसोलेटेड करते हुए टेस्ट कराया जाए ताकि दूसरे सदस्य सुरक्षित रह सकें। जिन सदस्यों की उम्र 45 वर्ष से अधिक है, उनका टीकाकरण करवाया जाए। मास्क का प्रयोग घर के भीतर भी किया जाए। बार-बार हाथों को धोया जाए। उपलब्ध चिकित्सा संसाधनों का लाभ जरूरतमंद लोगों को मिल सके इसके लिए जरूरी है कि अस्पतालों में दाखिले के लिए आपाधापी न मचाई जाए। जिन लोगों का उपचार होम आइसोलेशन में रहते हुए हो सकता है, उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। किसी भी दवा की खरीद और उसका उपयोग डाक्टर की सलाह पर ही किया जाना चाहिए, अनावश्यक रूप से की गई खरीदी से भी बाजार में दवाइयों की किल्लत हो सकती है और जरूरतमंद लोग उनसे वंचित हो सकते हैं।
कोरोना से लड़ी जा रही इस दूसरी जंग में संसाधनों के साथ-साथ समझदारी भी एक प्रभावी हथियार साबित हो सकती है। हम लोगों ने पिछली जंग भी इसी समझदारी और एकजुटता के बल पर जीती थी। हालांकि इस समय परिस्थितियां बहुत विकट हैं, लेकिन हम सब मिलकर बहुत जल्द इन पर विजय पा लेंगे। हम सबके लिए एक-एक जान बहुत कीमती है, हमें इस दूसरी लहर के कारण मिले सामुहिक सदमे की स्थिति से शीघ्र ही बाहर आकर महामारी का मुकाबला पूरी ताकत के साथ करना ही होगा। निश्चित ही यह अंधकार छंटेगा और प्रकाश की नयी किरणें फूटेंगी।
साहिर लुधियानवी जी लिखते हैं-
इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस हफ्ते मैंने अपने दो मित्र खो दिए। एक तो पाकिस्तान के श्री आई.ए. रहमान और दूसरे इंदौर के श्री महेश जोशी ! ये दोनों अपने ढंग के अनूठे लोग थे। दोनों ने राजनीति और सार्वजनिक जीवन में नाम कमाया और ऐसा जीवन जिया, जिससे दूसरों को भी कुछ प्रेरणा मिले। श्री आई.ए. रहमान का पूरा नाम इब्न अब्दुर रहमान था। 90 वर्षीय रहमान साहब का जन्म हरियाणा में हुआ था और वे विभाजन के बाद पाकिस्तान में रहने लगे थे।
वे विचारों से मार्क्सवादी थे लेकिन उनके स्वभाव में कट्टरपन नहीं था। इसीलिए पाकिस्तानी राजनीतिक दलों के सभी नेता उनका सम्मान करते थे। उन्होंने जिंदगीभर इंसानियत का झंडा बुलंद किया। 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान में याह्याखान सरकार ने जुल्म ढाए तो उन्होंने उसके खिलाफ आवाज उठाई। जनरल अयूब और जनरल जिया-उल-हक के ज़माने में भी वे बराबर लोकतंत्र और मानवीय अधिकारों के लिए लड़ते रहे। जब जनरल ज़िया ने पाकिस्तानी अखबारों पर शिकंजा कसा तो उसके खिलाफ आंदोलन खड़ा करने वालों में वे प्रमुख थे। फौजी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया था।
उसी दौरान 1983 के आस-पास मेरी मुलाकात रहमान साहब और प्रसिद्ध बौद्धिक और जुल्फिकार अली भुट्टो के वित्त मंत्री रहे डा. मुबशर हसन से लाहौर में हुई थी। मुबशर साहब का जन्म भी पानीपत में हुआ था। दोनों ने भारत और पाकिस्तान के बीच शांति, मैत्री और लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए कई संगठन खड़े किए थे। उन्होंने लाहौर, दिल्ली और कोलकाता में इनके अधिवेशन भी आयोजित किए थे। इन अधिवेशनों में मेरे-जैसे कुछ भारतीय अतिथियों को हमेशा निमंत्रित किया जाता था। भारत-पाक संबंधों पर हमारे दो-टूक विचारों को उन्होंने हमेशा सम्मानपूर्वक सुना है।
वे अपने मतभेद भी प्रकट करते थे तो भी उनकी भाषा कभी आक्रामक नहीं होती थी। वे इतने मधुरभाषी, मिलनसार और गर्मजोश थे कि उनसे मिलते वक्त हमेशा ऐसा लगता था कि हम किसी अपने बुजुर्ग हमजोली के साथ हैं। वे पाकिस्तान के प्रसिद्ध अखबार ‘पाकिस्तान टाइम्स’ के संपादक और मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष भी रहे। अस्वस्थता के बावजूद वे, ‘डान’ अखबार में अपने निर्भीक और निष्पक्ष लेख भी लिखते रहे। उन्हीं के प्रयत्नों से हामिद अंसारी नामक एक भारतीय नौजवान को लंबी जेल से छुटकारा मिला। जो लोग सारे दक्षिण एशिया को एक परिवार समझते हैं, वे रहमान साहब, मुबशरजी और असमा जहाँगीर— जैसे लोगों को कभी भुला नहीं सकते।
इसी प्रकार मेरे दूसरे मित्र और इंदौर क्रिश्चियन कालेज में छह साल मेरे सहपाठी रहे महेश जोशी (82 वर्ष) इंदौर से कई बार कांग्रेसी विधायक रहे। मेरे आंदोलनों में उन्होंने मेरे साथ जेल भी काटी और पुलिस की लाठियां भी खाईं। मेरे आंदोलनकारी साथियों में से महेश जोशी मप्र में मंत्री बने और विक्रम वर्मा (भाजपा) केंद्र में। जोशीजी का जन्म राजस्थान के कुशलगढ़ में हुआ था लेकिन वे इंदौर के ही होकर रहे। महेश जोशी यद्यपि अपनी दो-टूक शैली के लिए जाने जाते थे लेकिन वे बिना किसी राजनीतिक भेद-भाव के सबकी सहायता करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। ऐसे दोनों मित्रों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि ! (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के मेरीलेंड नामक प्रांत की विधानसभा में एक ऐसा विधेयक लाया गया है, जो भारतीय लोगों के लिए बड़ी मुसीबत पैदा कर सकता है। वह विधेयक यदि कानून बन गया तो बाइडन और मोदी प्रशासनों के बीच भी तनाव बढ़ सकता है।
भारत और अमेरिका के रिश्तों पर अमेरिका के सातवें बेड़े ने पहले ही छींटे उछाल रखे हैं और मेरीलैंड विधानसभा ने यदि इस विधेयक को कानून बना दिया तो भारत की इस तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार को अपनी चुप्पी तोडऩी ही पड़ेगी। क्या है, यह विधेयक ? इस विधेयक में ‘स्वास्तिक’ को घृणास्पद चिन्ह बताया गया है और इसे कपड़ों, घरों, बर्तनों, बाजारों या कहीं भी इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगाने का प्रावधान है। इस स्वास्तिक का आजकल अमेरिका के नए नाज़ी या वंशवादी गोरे लोग जमकर दिखावा करते हैं।
माना जाता है कि हिटलर ने अपनी नाजी पार्टी का प्रतीक-चिन्ह इसी ‘स्वास्तिक’ को बनाया था और इसे दिखाकर ही लाखों यहूदियों को मारा और जर्मनी से भगाया था। लेकिन सच्चाई कुछ और ही है।
हिटलर ने अपनी कुख्यात पुस्तक ‘मीन केम्फ’ में ‘स्वास्तिक’ शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया है। इस नाजी प्रतीक चिन्ह के लिए उसने जर्मन शब्द ‘हेकन क्रूज़’ इस्तेमाल किया है। हिटलर को न संस्कृत आती थी और न ही हिंदी ! उसे क्या पता था कि ‘स्वास्तिक’ का अर्थ क्या होता है ? हेकन क्रूज का अर्थ है— मुड़ा हुआ क्रॉस। लेकिन अंग्रेज पादरी जेम्स मर्फी ने जब ‘मीन केम्फ’ का अंग्रेजी अनुवाद किया तो उसने ‘हेकन क्रूज़’ को ‘स्वास्तिक’ कह दिया ताकि यूरोप के ईसाई हिटलर के विरुद्ध हो जाएं, क्योंकि क्रॉस तो ईसाइयत का प्रतीक है और स्वास्तिक हिंदुत्व का! लेकिन लोगों को यह अंदाज नहीं है कि यहूदियों को ईसा का हत्यारा घोषित करके पिछली कई सदियों से ईसाई शासक और पोप उन पर घोर अत्याचार करते रहे हैं। हिटलर ने इसी अत्याचार को घोर वीभत्स रुप दे दिया। उसका ‘स्वास्तिक’ शब्द से कुछ लेना-देना नहीं है। हिटलर का स्वास्तिक टेढ़ा है, भारत का स्वास्तिक सीधा है। यूनान, यूरोप और अरब देशों में जिस ‘क्रॉस’ का इस्तेमाल होता है, वह प्राय: टेढ़ा और कभी-कभी उल्टा भी होता है।
भारत का स्वास्तिक कुशल-क्षेम का प्रतीक है जबकि हिटलर का ‘स्वास्तिक’ घृणा और द्वेष का प्रतीक है। भारत के स्वास्तिक से किसी भी अमेरिकी यहूदी या ईसाई या मुसलमान को कोई आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन अंग्रेजी भाषा की मेहरबानी के कारण हमारे भारतीय स्वास्तिक को हिटलर का ‘हेकन क्रूज़’ समझने की गलतफहमी हो रही है। आशा है, इस मामले में हमारा राजदूतावास चुप नहीं बैठेगा, वरना अमेरिका में भारतीयों का रहना मुश्किल हो जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
क्या आपको पता है कि कोविड हो जाने के बाद टीका लगवाना है या नहीं, या फिर पहली खुराक के बाद संक्रमित होने पर क्या करना सही होगा?
-अंजलि मिश्रा
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल का पहला सप्ताह बीतने के साथ देश में 8.70 करोड़ लोगों को कोविड-19 वैक्सीन लगाया जा चुका था. रोज़ाना लगाए जाने वाले टीकों की बात करें तो मंत्रालय के ही आंकड़े बताते हैं कि सात अप्रैल तक इनका औसत 30,93,861 था. इतने बड़े पैमाने पर चल रहे इस टीकाकरण अभियान में वैक्सीन लगवा चुके या लगवाना चाह रहे लोग, इसकी ज़रूरत और महत्व को समझने के बावजूद कई तरह की आशंकाओं से भी घिरे हुए हैं. सत्याग्रह यहां पर कुछ ऐसे सवालों के जवाब खोजने की कोशिश कर रहा है जो वैक्सीनेशन से जुड़ी आपकी तमाम दुविधाओं और आशंकाओं को खत्म कर सकते हैं.
क्या वैक्सीन लगने के बाद कोरोना संक्रमण नहीं होगा?
यह जानना थोड़ा चौंकाने वाला हो सकता है कि वैक्सीन कोरोना संक्रमण से नहीं बचाती है यानी कि वैक्सीन लगने के बाद भी किसी को कोरोना वायरस का संक्रमण हो सकता है. इतना ही नहीं, इसके बाद वह और लोगों को संक्रमित भी कर सकता है. वैक्सीन से मिली रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) कोरोना वायरस से होने वाली बीमारी कोविड-19 की गंभीरता को कम करती है. ऐसे ज्यादातर मामलों में संक्रमित को अस्पताल ले जाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती है और अगर ले जाना भी पड़े तो उसे न्यूमोनिया होने या शरीर के किसी और अंग को कोई गंभीर नुकसान पहुंचने का खतरा बहुत कम हो जाता है. इसके अलावा, वैक्सीनेशन के चलते आसपास के लोगों को संक्रमित करने की संभावना भी कुछ हद तक कम हो जाती है. इसलिए अपने साथ-साथ वरिष्ठ नागरिकों, गंभीर बीमारियों से पीड़ित लोगों और बच्चों की सुरक्षा के लिहाज से भी वैक्सीनेशन ज़रूरी है.
वैक्सीन के दोनों डोज़ के बीच कितने दिनों का अंतराल रखा जाना चाहिए?
भारत में कोविड-19 से बचने के लिए दो टीके – कोवीशील्ड और कोवैक्सिन – उपलब्ध हैं. शुरूआत में दोनों ही वैक्सीनों के पहले और दूसरे डोज़ के बीच 28 से 42 दिनों का अंतराल रखा गया था. स्वास्थ्य विज्ञानियों का कहना है कि वैक्सीन का पहला डोज़ लगने के बाद, शरीर में एंटीबॉडीज बनने में दो से तीन हफ्ते का समय लगता है. इस दौरान शरीर में धीमी रफ्तार से रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होना शुरू होती है जिसके लिए कम से कम 28 दिनों का समय दिया जाना ज़रूरी है. इस समयांतराल के बाद दिया गया दूसरा डोज़ या बूस्टर डोज़ एंटीबॉडीज़ बनाने की इस प्रक्रिया को तेज़ कर देता है.
कोवैक्सिन के लिए दोनों डोज़ के बीच रखा गया अंतर अभी भी 4-6 सप्ताह ही है. लेकिन कोवीशील्ड की बात करें तो हाल ही में इसके लिए निर्धारित समयांतराल को बढ़ाकर अब चार से आठ सप्ताह कर दिया गया है. यानी अब 28 दिन बाद तो वैक्सीन लिया ही जा सकता है लेकिन 56 दिन पूरे होने का इंतज़ार भी किया जा सकता है. दरअसल बीती फरवरी में हुए एक अध्ययन में यह पाया गया था कि जब वैक्सीन का दूसरा डोज छह हफ्ते के भीतर दिया गया तो यह 54.9 फीसदी असरकारी रहा. अवधि को छह से आठ हफ्ते करने पर यह आंकड़ा 59.9, नौ से 11 हफ्ते के बीच करने पर 63.7 और 12 हफ्ते या उससे ज्यादा करने पर बढ़कर 82.4 फीसदी तक पहुंच गया.
कोवीशील्ड की निर्माता कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदर पूनावाला भी अपने कई साक्षात्कारों में कह चुके हैं कि ‘अगर दोनों डोज़ के समयांतराल को तीन महीने रखा जाता है तो वैक्सीन की एफिकेसी 90 फीसदी रहती है.’ कई देशों में एस्ट्राज़ेनेका वैक्सीन यानी कोवीशील्ड के लिए तय समयांतराल 12 हफ्ते ही है लेकिन भारतीय नियामकों ने इसे अभी आठ हफ्ते तक ही सीमित रखा है. ऐसा माना जा रहा है कि भविष्य में समुचित डेटा मुहैया हो जाने पर इसे और बढ़ाया जा सकता है. फिलहाल सबसे अच्छा विकल्प इसे सात से आठ सप्ताह के बीच लगवाना होना चाहिए.
वैक्सीन कितने समय के लिए प्रभावी होगी?
कोरोना वायरस से निपटने में इस्तेमाल किए जा रहे तमाम टीकों को इमरजेंसी इस्तेमाल के लिए अनुमति दी गई है. ये सभी टीके बीते कुछ महीनों में ही विकसित किए गए हैं यानी इनमें से किसी भी वैक्सीन को विकसित करने के लिए सालों-साल चलने वाले ट्रायल नहीं किए जा सके हैं. इसलिए वैज्ञानिक वैक्सीन्स के लंबे समय तक प्रभावी होने के बारे में अभी किसी भी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाए हैं.
कुछ उदाहरणों पर गौर करें तो अमेरिका में इस्तेमाल की जा रही मोडेर्ना और फाइज़र वैक्सीन के छह महीने के लिए प्रभावी होने की बात कही जा रही है. वहीं, भारत में इस्तेमाल की जा रही है कोवीशील्ड के मामले में यह आंकड़ा आठ महीने बताया जा रहा है. कोवीशील्ड से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि इस वैक्सीन का पहला इस्तेमाल हुए अभी तक महज आठ महीने बीते हैं, इसलिए मौजूदा डेटा कम से कम आठ महीने सुरक्षा देने की बात कहते हैं लेकिन आने वाले समय में यह अवधि बढ़ भी सकती है.
मोडेर्ना, फाइज़र, कोवीशील्ड समेत तमाम टीकों को विकसित करने वाले वैज्ञानिक इशारा देते हैं कि अगर वैक्सीन से लंबे समय के लिए, इम्युनिटी विकसित नहीं होती है तो कुछ समय बाद एक और बूस्टर डोज़ दिया जा सकता है. कुछ संभावनाएं कहती हैं कि हर साल डोज़ दिए जाने की ज़रूरत भी पड़ सकती है. फिलहाल, ज्यादातर वैक्सीनों के एक से डेढ़ साल तक प्रभावी होने की उम्मीद की जा रही है. इतने समय में वैज्ञानिक तबका वैक्सीन के कई और विकल्प और इलाज के आधुनिक तरीके विकसित होने की उम्मीद भी जताता दिखता है.
क्या वैक्सीन बच्चों को दी जा सकती है?
वैक्सीन आम तौर पर पहले केवल वयस्कों पर आजमाई जाती हैं. एक बार यह स्थापित हो जाने पर कि कोई वैक्सीन वयस्कों के लिए पूरी तरह से सुरक्षित और प्रभावी है, बच्चों पर इसका परीक्षण करना शुरू किया जाता है. भारत में लगाई जा रही वैक्सीनों की बात करें तो कुछ समय पहले ही बच्चों पर कोवीशील्ड का परीक्षण शुरू हुआ है जिसके नतीजे अगले तीन-चार महीनों में आएंगे. इसके बाद ही कहा जा सकेगा कि यह बच्चों के लिए सुरक्षित है या नहीं.
वहीं, कोवैक्सिन के मामले में ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआई) ने 12 साल से अधिक उम्र वालों के लिए इसके इस्तेमाल की अनुमति दी है. चूंकि फिलहाल फ्रंट लाइन वर्कर्स, वरिष्ठ नागरिकों और स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त लोगों को वैक्सीनेशन में वरीयता दी जा रही हैं इसलिए युवा और बच्चों को यह वैक्सीन नहीं दी जा सकती. वैसे कोरोना वायरस के दुष्प्रभाव बच्चों पर अपोक्षाकृत कम देखने को मिल रहे हैं इसलिए दुनिया भर में 16 साल से अधिक आयु वालों को ही वैक्सीन दी जा रही है. वहीं, बच्चों के लिए सुरक्षा उपाय के तौर पर मास्क लगाना, हाथ धोना, सोशल डिस्टेंसिंग जैसी सावधानियों को ही बरतने की सलाह दी जा रही है.
क्या सर्दी-बुखार होने पर वैक्सीन लगवानी चाहिए?
सर्दी-बुखार होने पर वैक्सीन ना लगवाने की सलाह दी जाती है क्योंकि ऐसे समय में व्यक्ति की इम्युनिटी कमजोर होती है और शरीर वायरस से लड़ रहा होता है. चूंकि वैक्सीन भी शरीर में इम्यून रिस्पॉन्स को वैसे ही ट्रिगर करती है जैसे कि कोई बीमारी करती है, इसलिए सर्दी-बुखार के दौरान वैक्सीन लेने पर ये लक्षण गंभीर हो सकते हैं. इसके अलावा, सर्दी-बुखार कोरोना संक्रमण के लक्षणों में से भी एक है, इसलिए भी इस दौरान वैक्सीन न लेने की सलाह दी जाती है. यहां पर यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि अगर कोई कोरोना संक्रमित है तो उसे वैक्सीन नहीं लेनी चाहिए. इसके साथ ही, अगर पहला डोज़ लगने के बाद किसी को कोरोना संक्रमण हो जाता है तो भी उसे अगला डोज़ तब तक नहीं लेना चाहिए, जब तक संक्रमण के लक्षण पूरी तरह से चले न जाएं.
वैज्ञानिक सलाह देते हैं कि सर्दी-बुखार के अलावा अगर किसी को किसी तरह की एलर्जी हो, किसी तरह का ब्लीडिंग डिसऑर्डर या रोग प्रतिरोधक क्षमता से संबंधित कोई समस्या हो तो उसे भी वैक्सीन नहीं लगवानी चाहिए. इसके साथ ही, गर्भवती और दूध पिलाने वाली महिलाओं या प्रेग्नेंसी प्लान कर रही महिलाओं को भी वैक्सीन न लगवाने की सलाह दी जा रही है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वैक्सीन महिलाओं (या पुरुषों) की प्रजनन क्षमता पर किसी तरह का बुरा असर डालती है. इसके अलावा, पीरियड्स के दौरान वैक्सीन लगवाने में भी स्वास्थ्य विज्ञानी कोई समस्या नहीं देखते हैं.
अगर कोई पहले ही कोरोना संक्रमित हो चुका हो तो क्या उसे वैक्सीन लेने की ज़रूरत है?
वैज्ञानिकों को कहना है कि संक्रमण से शरीर में विकसित होने वाली इम्युनिटी, अलग-अलग लोगों में अलग-अलग तरह से काम करती है. चूंकि संक्रमण की गंभीरता और उस समय शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता के मुताबिक शरीर संक्रमण का सामना करता है और ठीक होने पर, शरीर में इसी के मुताबिक (कम या ज्यादा मात्रा में) मेमोरी सेल्स सक्रिय होती हैं, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह इम्युनिटी कितनी प्रभावी और कितने समय तक रहने वाली है. इसीलिए संक्रमण का शिकार हो चुके लोगों को भी वैक्सीन लेने की सलाह दी जाती है, फिर चाहे संक्रमण एक साल पहले हुआ हो या कुछ ही हफ्ते पहले. और इस तरह के लोगों को भी वैक्सीन के दोनों डोज़ लेना ज़रूरी है. और अगर किसी को पहला डोज़ लेने के बाद कोरोना संक्रमण हो जाए तो उसे संक्रमण के लक्षण खत्म होते ही दूसरा डोज़ ले लेना चाहिए.
पूरे देश का टीकाकरण होने में कितना समय लगेगा?
केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण बीते हफ्ते मीडिया से बात करते हुए, यह कहते नज़र आए थे कि ‘वैक्सीन उनके लिए है जिन्हें इसकी ज़रूरत है न कि उनके लिए जो वैक्सीन लगवाना चाहते हैं. कई लोग पूछ रहे हैं कि हम सभी के लिए टीका क्यों नहीं उपलब्ध करवा रहे हैं. टीकाकरण अभियान के दो मुख्य उद्देश्य कोविड से होने वाली मौतों को कम करना और हेल्थकेयर सिस्टम को अतिरिक्त दबाव से बचाना है.’ फिलहाल राजनीतिक नेतृत्व से लेकर वैज्ञानिकों तक का कहना यही है कि इन परिस्थितियों में यह कहना मुश्किल है कि पूरी जनसंख्या का टीकाकरण होने में कितना समय लग सकता है.
तमाम जगहों पर वैक्सीन की कमी और उसके उत्पादन में हो रही देरी भी इस सवाल का कोई निश्चित जवाब ना मिल पाने की एक वजह है. साथ ही अभी यह भी नहीं पता कि वैक्सीन कितने दिन प्रभावी रहेगी. यानी कि ऐसा भी हो सकता है कि वैक्सीन लगवा चुके लोगों की इम्युनिटी सबको वैक्सीन लगने से पहले ही खत्म हो जाए. लेकिन इस बात की भी प्रबल संभावना है कि कुछ समय में कुछ और वैक्सीन भारत में उपलब्ध हो जाएं. और जो पहले से ही उपलब्ध हैं उनका उत्पादन आज की तुलना में काफी बढ़ जाए. लेकिन इनका असर महसूस होने में इस साल के अंत तक का समय लग सकता है.
कोवीशील्ड के चलते ब्रेन में ब्लड क्लॉटिंग की शिकायतों को कितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए?
यूरोप के कुछ देशों में, वैक्सीन लेने के बाद लोगों के मस्तिष्क में खून के थक्के (ब्लड क्लॉट) जमने की शिकायतें सामने आई थीं. इसके बाद कुछ समय के लिए कोवीशील्ड के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई थी. इन शिकायतों की गंभीरता परखने के लिए आंकड़ों पर गौर करें तो पचास लाख लोगों को वैक्सीन लगाए जाने के बाद 30 लोगों के मस्तिष्क में ब्लड क्लॉटिंग देखने को मिली थी. इनमें सात लोगों की मौत भी हो चुकी है. इन मामलों की संख्या बहुत कम होने के चलते ज्यादातर स्वास्थ्यविद इसे वैक्सीन का दुष्प्रभाव मानने से इनकार करते हैं. वहीं, कोवीशील्ड के निर्माताओं का कहना है कि यूरोपियन मेडिसिन्स एजेंसी (ईएमए) इस मामले की जांच कर रही है. निर्माता तर्क देते हैं कि इससे पहले वैक्सीन के चलते लोगों में प्रतिकूल न्यूरोलॉजिकल बदलावों की बात भी कही गई थी लेकिन बाद में हुई जांच में वैक्सीन को इसका जिम्मेदार नहीं पाया गया. उन्हें उम्मीद है कि ब्लड क्लॉटिंग के मामले में यही नतीजे दोहराए जा सकते हैं.
क्या भारत में लगाए जा रहे टीके वायरस के अलग-अलग वैरिएंट्स के लिए प्रभावी होंगे?
ज्यादातर वैक्सीन इस तरह डिजाइन किए जाते हैं कि वे वायरस के एक से अधिक वैरिएंट के लिए भी प्रभावी हों. कोवीशील्ड के बारे में दावा किया जा रहा है कि यह वैक्सीन वुहान वायरस (कोरोना वायरस के शुरूआती वैरिएंट) के लिए जहां 85 फीसदी तक प्रभावी है. वहीं, यूके, साउथ अफ्रीका और अन्य वैरिएंट के लिए 40 से 60 फीसदी तक प्रभावी पाई गई है. भारत में यूके वैरिएंट से जुड़े संक्रमण के मामलों में पाया गया है कि वैक्सीन लगने के बाद संक्रमण होने पर किसी को भी अस्पताल में भर्ती कराने की नौबत नहीं आई है. कोवैक्सिन की बात करें तो जनवरी में एक शोध के हवाले से आईसीएमआर का कहना था कि यह यूके, ब्राजील और साउथ अफ्रीका वैरिएंट से भी बचा सकती है.
कोवैक्सिन या कोवीशील्ड?
कोवैक्सिन की दो खुराकों के बीच का अंतराल कम होने की वजह से उसका सुरक्षा कवच कोवीशील्ड से थोड़ा पहले काम करना शुरू कर सकता है. इसके अलावा कोवैक्सिन का एफिकेसी रेट 81% बताया जा रहा है. वहीं, एस्ट्राज़ेनेका या कोवीशील्ड के मामले में दोनों डोज़ में रखे गए समयांतराल के हिसाब से यह 60 से 90 फीसदी हो सकता है. कोवीशील्ड और कोवैक्सिन, दोनों को ही लगाए जाने के बाद टीके की जगह पर दर्द, सूजन, खुजली, गर्माहट या लाली देखने को मिल सकती है. इसके अलावा वैक्सीन की वजह से बुखार, सिरदर्द, जोड़ों में दर्द, कमजोरी आदि लक्षण भी देखने को मिल सकते हैं. इसके लिए खूब पानी पीने की जरूरत है और पैरासिटामॉल भी ली जा सकती हैं. अगर लक्षण ज्यादा गंभीर हों तो तुरंत अस्पताल जाने की सलाह दी जाती है. जानकारों के मुताबिक कोवैक्सिन की तुलना में कोवीशील्ड के साइड इफेक्ट्स कम देखने को मिल रहे हैं.
दरअसल कोवीशील्ड आधुनिक वायरल वेक्टर टेक्नॉलजी से बनाई गई वैक्सीन है. इसमें चिंपाज़ियों में सर्दी-जुकाम के लिए जिम्मेदार एडनोवायरस का इस्तेमाल वाहक की तरह किया गया है. इसकी मदद से शरीर में कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन (या कहें वायरस के जेनेटिक कोड्स) को शरीर में पहुंचाने की व्यवस्था की गई है. इस तरह की वैक्सीन से बगैर वायरस का प्रवेश करवाए, अपने आप शरीर में उसकी मेमोरी सेल्स तैयार की जाती हैं. ऐसा करने से वैक्सीन के साइड इफेक्ट्स आशंका कम हो जाती है. दूसरी तरफ, कोवैक्सीन के निर्माण में असक्रिय कोरोना वायरस का इस्तेमाल किया गया है. यह वैक्सीन बनाने का दशकों पुराना और आजमाया हुआ तरीका है. कुल मिलाकर यह कहना मुश्किल है कि दोनों में से कौन सी वैक्सीन बैहतर है. और अगर इस मामले में किसी नतीजे पर पहुंच भी गए तो फिलहाल अस्पताल में वैक्सीन चुनने की आज़ादी किसी को नहीं है. इस समय कोवैक्सिन के मुकाबले कोवीशील्ड का उत्पादन काफी बड़े स्तर पर हो रहा है इसलिए ज्यादातर लोगों को वही लगाई जा रही है.
केंद्र सरकार और चुनाव आयोग ने रिकॉर्ड तादाद में केंद्रीय बलों की तैनाती कर विधान सभा चुनावों में हिंसा पर अंकुश लगाने का दावा किया था. बावजूद इसके चौथे चरण में केंद्रीय बलों की फायरिंग में ही चार लोगों की मौत हो गई.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
पश्चिम बंगाल विधान सभा के चुनावों में मतदान के चार चरण हो चुके हैं और चौथे दौर के मतदान में हुई हिंसा के बाद बाकी चार चरणों के दौरान भी हिंसा का अंदेशा बढ़ने लगा है. दूसरी ओर, इस हिंसा के लिए बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने में जुटी हैं. पश्चिम बंगाल की छवि भद्रलोक वाली रही है. लेकिन राज्य में चुनावों के दौरान यह छवि कहीं गुम हो जाती है.
भारी सुरक्षा के बावजूद हिंसा
यूं तो राज्य में चुनावी हिंसा की परंपरा बहुत पुरानी रही है. लेकिन मौजूदा विधानसभा चुनावों में जैसी हिंसा शुरू हुई है वैसी पहले कभी नहीं हुई थी. यह पहला मौका है जब शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए तैनात केंद्रीय सुरक्षा बलों की फायरिंग में ही चार लोगों की मौत हुई हो. चौथे चरण के चुनाव में हिंसा के दौरान कुल पांच लोगों की मौत हुई है. वैसे वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए इस बार भी हिंसा की आशंका तो बहुत पहले से जताई जा रही थी. बीते लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कामयाबी के बाद राज्य में राजनीतिक हिंसा की घटनाएं लगातार तेज हुई हैं. कोई भी महीना ऐसा नहीं बीता है जिस दौरान किसी न किसी पार्टी के कार्यकर्ता की हत्या नहीं हुई हो.
मौजूदा विधानसभा चुनाव के पहले तीनों चरण भी हिंसा से अछूते नहीं रहे थे. इस तथ्य के बावजूद कि टीएमसी पर हिंसा का आरोप लगाने वाली बीजेपी और उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने इस बार रिकॉर्ड तादाद में केंद्रीय बलों की तैनाती की है. पहले चरण में कई नेताओं के काफिले पर हमले हुए तो दूसरे चरण में नंदीग्राम में भी मतदान केंद्रों पर कब्जा करने और हमले के आरोप सामने आए. इस दौरान टीएमसी और बीजेपी से जुड़े कुछ लोगों की रहस्यमय हालत में मौतें भी हुईं. दोनों दलों ने इनको हत्या करार देते हुए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराया था. लेकिन चौथे चरण ने अब तक की तमाम हिंसा को पीछे छोड़ दिया है. इससे यह भी बात साबित हो गई है कि राज्य के चप्पे-चप्पे में केंद्रीय बलों की तैनाती के बावजूद इस हिंसा पर लगाम लगाना संभव नहीं है.
आजादी जितना पुराना है हिंसा का इतिहास
पश्चिम बंगाल देश विभाजन के बाद से ही हिंसा के लंबे दौर का गवाह रहा है. विभाजन के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे पर भी बंगाल में भारी हिंसा होती रही है. वर्ष 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है. उसके बाद इस इतिहास में ऐसे कई और नए अध्याय जुड़े. दरअसल, साठ के दशक के द्वितीयार्ध में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा को एक नया आयाम दिया था. किसानों के शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने उस दौरान पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं. वर्ष 1971 में सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ उसने पहले की तमाम हिंसा को पीछे छोड़ दिया. वर्ष 1977 के विधानसभा चुनावों में यही उसके पतन की भी वजह बनी. सत्तर के दशक में भी वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और सीपीएम की पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा होती रही है.
लेफ्ट के सत्ता में आने के बाद कोई एक दशक तक राजनीतिक हिंसा का दौर चलता रहा था. बाद में विपक्षी कांग्रेस के कमजोर पड़ने की वजह से टकराव धीरे-धीरे कम हो गया था. लेकिन वर्ष 1998 में ममता बनर्जी की ओर से टीएमसी के गठन के बाद वर्चस्व की लड़ाई ने हिंसा का नया दौर शुरू किया. उसी साल हुए पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा हुई. उसके बाद राज्य के विभिन्न इलाकों में जमीन अधिग्रहण समेत विभिन्न मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों और माओवादियों की बढ़ती सक्रियता की वजह से भी हिंसा को बढ़ावा मिला. उस दौरान ममता बनर्जी जिस स्थिति में थीं अब उसी स्थिति में बीजेपी है. नतीजतन टकराव लगातार तेज हो रहा है.
आरोप-प्रत्यारोप तेज
अब चौथे चरण की हिंसा के बाद टीएमसी और बीजेपी के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर लगातार तेज हो रहा है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जहां इस हिंसा के लिए केंद्र सरकार, बीजेपी और गृह मंत्री अमित शाह को जिम्मेदार ठहराया है वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह तक ने इसके लिए ममता के भड़काऊ बयानों को जिम्मेदार ठहराया है. ममता बनर्जी कहती हैं, "मैं तो पहले से ही केंद्रीय बल के जवानों के जरिए अत्याचार के आरोप लगाती रही हूं. अब मेरी बात आखिर सच साबित हो गई है. यह फायरिंग अमित शाह के इशारे पर की गई है. उनको तुरंत अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए.” टीएमसी महासचिव पार्थ चटर्जी कहते हैं, "यह बंगाल के चुनावी इतिहास में अपनी किस्म की पहली घटना है.”
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस हिंसा के लिए टीएमसी और उसकी गुंडा वाहिनी को जिम्मेदार ठहराया है. मोदी ने अपनी रैली में कहा, "अपनी हार तय जान कर दीदी (ममता बनर्जी) और उनकी पार्टी हिंसा पर उतर आई है. उन्होंने केंद्रीय बल के जवानों का घेराव करने जैसे भड़काऊ बयान देकर ऐसी हालत पैदा कर दी है.”
समाजशास्त्रियों का कहना है कि इस बार बंगाल की सत्ता के लिए जैसी कांटे की लड़ाई है उसमें चुनावी नतीजों के बाद खासकर ग्रामीण इलाकों में भी बड़े पैमाने पर हिंसा के अंदेशे से इंकार नहीं किया जा सकता. इसलिए राजनीतिक और सामाजिक हलकों में यह मांग उठ रही है कि चुनावी नतीजों के बाद भी कुछ दिनों तक संवेदनशील इलाकों में केंद्रीय बलों को तैनात रखा जाना चाहिए. समाजशास्त्री प्रोफेसर कालीपद दास कहते हैं, "राज्य के ग्रामीण समाज में धर्म और जाति के आधार पर विभाजन साफ नजर आ रहा है. ऐसे में चुनावी नतीजों के बाद भी हिंसा का अंदेशा है. चुनाव आयोग को इस पहलू का भी ध्यान रखना चाहिए.” कोलकाता पुलिस के पूर्व आयुक्त गौतम चक्रवर्ती कहते हैं, "जिलों में मतदान के दौरान हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव आयोग को नई रणनीति बनानी चाहिए.” (dw.com)
-प्रेम रेंझाई
एक बहुत बड़े मनसविद कार्ल गुस्ताव जुंग ने अपने संस्मरणों में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात लिखी है। उसने लिखा है कि मनुष्य के सारे दुखों का कारण मनुष्य की कल्पना की शक्ति है। कोई पशु दुखी नहीं है, क्योंकि कोई पशु कल्पना नहीं कर सकता। कल्पना की शक्ति मनुष्य के बड़े से बड़े दुख का कारण है। क्यों? क्योंकि मनुष्य जिस हालत में भी हो, उससे बेहतर की कल्पना कर सकता है।
एक सुंदर स्त्री आपको पत्नी की तरह मिल जाए, प्रेयसी की तरह मिल जाए, लेकिन ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो उससे सुंदर स्त्री की कल्पना न कर सके। और अगर आप अपनी पत्नी से सुंदर स्त्री की कल्पना भी कर सकते हैं तो दुखी हो गए। यह पत्नी व्यर्थ हो गई। कितना ही सुंदर महल हो, आप उससे बेहतर महल की कल्पना तो कर ही सकते हैं, न भी बना सकें। बस उस कल्पना के साथ ही तुलना शुरू हो गई। और महल झोपड़े से बदतर हो गया।
जब बेहतर कुछ हो सकता हो तो जो भी हमारे पास है वह गैर-बेहतर हो गया। कल्पना की शक्ति मनुष्य के दुख का भी कारण है, उसकी सृजनात्मकता का, उसकी क्रिएटिविटी का भी। कोई पशु सृजन नहीं करता। पशु एक पुनरावृत्ति में जीते हैं। लाखों वर्ष तक उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही ढंग का जीवन व्यतीत करती है। आदमी नए की खोज करता है, नए का सृजन करता है। कल्पना के कारण वह देख पाता है-कुछ बदलाहट की जा सकती है, कुछ बेहतर बनाया जा सकता है। लेकिन जिस शक्ति से सृजनात्मकता पैदा होती है उसी शक्ति से मनुष्य का दुख भी पैदा होता है।
इसलिए बड़े हैरान होंगे आप जान कर कि सृजनात्मक लोग सर्वाधिक दुखी होते हैं। जो व्यक्ति भी क्रिएटिव है, कुछ सृजन कर सकता है-चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं, वैज्ञानिक हैं, कवि हैं, बहुत दुखी होते हैं। क्योंकि किसी भी स्थिति में उन्हें अंत नहीं मालूम हो सकता, उस स्थिति से बेहतर हो सकता है। और जब तक वे बेहतर को न पा लें तब तक दुखी होंगे। और ऐसी कोई अवस्था नहीं हो सकती जिससे बेहतर की कल्पना न की जा सके।
-रिचर्ड महापात्रा
दुनिया में सबसे तेजी से गरीबी कम करने वाले भारत में 45 साल के बाद एक साल में सबसे ज्यादा गरीब बढ़े
कोरोना महामारी भारत में ऐसे समय आई, जब देश में एक दशक में सबसे कम आर्थिक वृद्धि दर्ज की गई थी। सुस्त अर्थव्यवस्था ने असंगत रूप से ग्रामीण क्षेत्रों पर ज्यादा असर डाला, जहां देश के बहुसंख्यक उपभोक्ता और गरीब रहते हैं। यहां तक कि बिना किसी आधिकारिक आंकड़े के हम यह मान सकते हैं कि गांवों में एक साल में गरीबी बढ़ी है।
पिछले साल तक बेरोजगारी बढ़ रही थी, उपयोग की जाने वाली चीजों पर खर्चा कम हो रहा था, और जनता के लिए किया जाने वाला विकास कार्य स्थिर था। यही तीनों कारक एक साथ यह दर्शाते हैं कि कोई अर्थव्यवस्था कितनी बेहतर है।
अब 2021 पर आते हैं, गांवों में रहने वाले ज्यादातर असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले और गरीब हैं। पिछले एक साल से वे अनियमित काम पा रहे हैं। कठिन हालात में गुजर बसर करने के उनके किस्से अब सामने भी आ रहे हैं। लोगों ने खाने में कटौती करनी शुरु कर दी है। राशन के दाम बढऩे से लोगों ने दाल खाना बंद कर दिया। लोगों को रोजगार देने वाली मनरेगा जैसी योजना उनके काम की मांग को पूरा नहीं कर पा रही। तमाम लोग अपनी छोटी सी जमा पूंजी पर गुजारा कर रहे हैं। कोरोना की दूसरी लहर के तेज होने के चलते पूरी तरह निराशा के हालात बन रहे हैं। कोई यह दलील दे सकता है कि अर्थव्यवस्था का बुरा दौर बीत चुका है और हाशिये के लोगों के लिए सरकार ने कई उपाय किए हैं। सवाल यह है कि इसका नतीजा क्या रहा?
विश्व बैंक के आंकडों के आधार पर प्यू रिसर्च सेंटर ने अनुमान लगाया है कि कोरोना के बाद की मंदी के चलते देश में प्रतिदिन दो डालर या उससे कम कमाने वाले लोगों की तादाद महज पिछले एक साल में छह करोड़ से बढक़र 13 करोड़, चालीस हजार यानी दोगुने से भी ज्यादा हो गई है। इसका साफ संकेत है कि भारत 45 साल बाद एक बार फिर ‘सामूहिक तौर पर गरीब देश’ बनने की ओर बढ़ रहा है। इसके साथ ही 1970 के बाद से गरीबी हटाने की ओर बढ़ रही देश की निर्बाध यात्रा भी बाधित हो चुकी है। पिछली बार आजादी के बाद के पहले 25 सालों में गरीबी में बढ़त दर्ज की गई थी। तब, 1951 से 1954 के दौर में गरीबों की आबादी कुल आबादी के 47 फीसद से बढक़र 56 फीसद हो गई थी।
हाल के सालों में भारत ऐसे देश के तौर पर उभरा था, जहां गरीबी कम करने की दर सबसे ज्यादा थी। 2019 के गरीबी के वैश्विक बहुआयामी संकेतकों के मुताबिक, देश में 2006 से 2016 के बीच करीब 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर निकाला गया। इसके उलट 2020 में दुनिया में सबसे ज्यादा गरीबों की तादाद बढ़ाने वाले देश के तौर पर भारत का नाम दर्ज हो रहा है।
देश में 2011 के बाद गरीबों की गणना नहीं हुई है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के हिसाब से 2019 में देश में करीब 36 करोड़, 40 लाख गरीब थे, जो कुल आबादी का 28 फीसद है। कोरोना के कारण बढ़े गरीबों की तादाद इन गरीबों में जुड़ेगी।
दूसरी ओर, शहरी क्ष़ेत्रों में रहने वाले लाखों लोग भी गरीबी रेखा से नीचे आ गए हैं। प्यू रिसर्च सेंटर के अनुमान के मुताबिक, मध्यम वर्ग सिकुड़ कर एक तिहाई रह गया है। कुल मिलाकर चाहे पूरी आबादी के बात करें या देश को भौगोलिक खंडों में बांटकर देखें, देश में करोड़ों लोग या तो गरीब हो चुके हैं या गरीब होने की कगार पर हैं।
क्या यह एक अस्थायी स्थिति है ? सामान्य धारणा यह है कि आर्थिक प्रगति होने पर तमाम लोग गरीबी रेखा से ऊपर आ जाएंगे। लेकिन सवाल यह है कि यह कैसे होगा ? लोगों ने खर्च कम कर दिया है या वे खर्च करने के लायक ही नहीं बचे हैं। उन्होंने अपनी सारी बचत गंवा दी है, जिससे भविष्य में भी उनके खर्च करने की क्षमता कम हो चुकी है।
सरकार भी इस त्रासदी के दौर में नापतौल कर ही लोगों को राहत दे रही है। इसका मतलब है कि यह आर्थिक स्थिति फिलहाल बनी रहेगी। महामारी की तरह इससे निकलने का रास्ता भी अभी तय नहीं है। (downtoearth.org.in)
-शालिनी सहाय
नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के कुछ कार्यकर्ताओं को रात में ले जाया गया और अगले दिन उनके शव परिवारों को भेजे दिए गए। कोई जानकारी नहीं दी गई कि क्या हुआ, कैसे हुआ। मुकदमा, सुनवाई और जेल तो दूर की बात है। चेहरे समेत पूरे शव पर चोट के ढेरों निशान थे।
मैं जिन सोशल मीडिया हैंडल को फॉलो करती हूं, उनकी आवाज गुम हो गई है। हर बीतते दिन के साथ म्यांमार में जमीनी स्तर पर क्या हो रहा है, यह जानना और मुश्किल होता जा रहा है। जो रिपोर्ट छन-छनकर आ रही है, उसके मुताबिक, म्यांमार वायुसेना ने थाईलैंड से लगती सीमा पर बमबारी की है और सेना अंधाधुंध तरीके से आम लोगों को मार रही है। ऐसी स्थिति में भारत के सामने अलग तरह की पसोपेश की स्थिति आ खड़ी हुई है। वह खुलकर विरोध नहीं कर रहा है कि पिछली बार ऐसी ही स्थिति में उसने तो अपने को काट लिया था, लेकिन चीन ने तब म्यांमार से रिश्तों को बेहतर करने का मौका ताडक़र हालत अपने पक्ष में कर लिया था। म्यांमार से जो भी खबरें आ रही हैं, उनमें से एक संगीतकार के हवाले से उभरती तस्वीर दिल को झकझोरने वाली है। विभिन्न प्लेटफार्मों पर आई जानकारी यह अंदाजा लगाने के लिए काफी है कि म्यांमार में आम लोगों की हालत कैसी है। नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं को रात में ले जाया गया और अगले दिन उनके शव परिवारों को भेजे दिए गए। कोई जानकारी नहीं दी गई कि क्या हुआ, कैसे हुआ। मुकदमा, सुनवाई और जेल तो दूर की बात है। चेहरे समेत पूरे शव पर चोट के ढेरों निशान थे। एक आदमी के मुंह में कोई दांत नहीं था और उसके शरीर के कई अंग भी गायब थे। वे उसे रात में ले गए थे और परिवार वालों को खबर भिजवाई थी कि आकर शव ले जाएं।
वे छात्रों, प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लेते हैं और पकड़े गए कुछ लोगों को सरेआम सडक़ों-गलियों में सिर पर बंदूक तानकर गोली मार देते हैं, जिससे लोगों में खौफ बने। हम जानते हैं कि उनका मुकाबला ईंट-पत्थरों से नहीं कर सकते। लेकिन हम वह सब कर रहे हैं जो कर सकते हैं। हम बंदूकों से डरकर चुप नहीं बैठना चाहते। हर व्यक्ति लडऩे के लिए तैयार है, और अब हर कोई बंदूक प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है।
अब सामान्य जीवन नहीं रह गया है। मेरा मतलब है, सब बंद है। सब कुछ थम गया है। शहर के बाहर से खाने-पीने का कोई सामान नहीं आ रहा है। आने-जाने का कोई साधन नहीं। लोग कैद होकर रह गए हैं। सभी बैंक बंद हैं, हम अपना पैसा भी नहीं निकाल सकते। वही खा रहे हैं जो पास है। लगता है, जल्दी ही भुखमरी की हालत होगी। कोई सुरक्षित नहीं है। वे आपके पर्स की तलाशी लेंगे। पैसे मिले तो रख लेंगे। वे सुरक्षा बलों की तरह तो सलूक ही नहीं कर रहे। लगता है जैसे डाकू हों।
एक बैंड के एक गायक को ले जाया गया। उन्हें एनएलडी समर्थक के रूप में जाना जाता था क्योंकि वे पार्टी के नेताओं और लोकतंत्र को बढ़ावा देते थे। कोई नहीं जानता कि वह अभी कहां हैं। वह रॉक योर वोट नाम के बैंड में थे। यह बैंड लोगों को वोट देने के लिए जागरूक करता था। बैंड का टॉक शो और गीत-संगीत का खासा असर हुआ और युवाओं में वोट के प्रति जागरूकता आई भी। अब बैंड के गायक को उठा लिए जाने से युवाओं में खासा गुस्सा है।
सोशल मीडिया पर एक नागरिक ने कहा कि उन्होंने बर्मी शिक्षा प्रणाली को नष्ट कर दिया है क्योंकि वे तब बेवकूफ लोगों को स्मार्ट लोगों की तुलना में आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं। 1988 में मैं सात साल का था। अभी मेरे बेटे की उम्र ठीक इतनी ही है। मेरे बचपन में मुझे समझना-सीखना पड़ा कि संघर्ष कैसे करें, दुनिया के दूसरे हिस्सों के कलाकारों की तुलना में मुझे कितनी अधिक मेहनत करनी होगी। मुझे संतोष था कि मेरे बेटे को वैसे हालात से नहीं गुजरना होगा, क्योंकि चीजें बेहतर दिख रही थीं। अब जब मैं अपने बेटे को देखता हूं तो अफसोस होता है कि उसे भी उन्हीं हालात से दो-चार होना होगा।
बड़े दर्द भरे और नाउम्मीदी में उन्होंने कहा कि शर्तिया है कि हमें यूएन बचाने नहीं आ रहा। यूएन शायद 1,000 और बयान जारी करेगा और शायद बड़ा सख्त भी, लेकिन... सेना कहीं नहीं जाने वाली। अगर गृहयुद्ध होता है, तो वे हम पर बम बरसाएंगे। म्यांमार की सेना युद्ध की तैयारी कर रही है। सेना अस्पतालों, स्कूलों में बलों को तैनात कर रही है। अगर अंतरराष्ट्रीय हवाई हमले होते हैं तो वे इन अस्पतालों और स्कूलों पर कब्जा करके मोर्चा खोलेंगे। (navjivanindia.com)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय की यह बात तो बिल्कुल ठीक है कि भारत का संविधान नागरिकों को अपने ‘धर्म-प्रचार’ की पूरी छूट देता है और हर व्यक्ति को पूरा अधिकार है कि वह जिसे चाहे, उस धर्म को स्वीकार करे। हर व्यक्ति अपने जीवन का खुद मालिक है। उसका धर्म क्या हो और उसका जीवन-साथी कौन हो, यह स्वयं उसे ही तय करना है।
यह फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति रोहिंगटन नारीमन ने अश्विन उपाध्याय की एक याचिका को खारिज कर दिया। उस याचिका में उपाध्याय ने यह मांग की थी कि भारत में जो धर्म-परिवर्तन लालच, भय, ठगी, तिकड़म, पाखंड आदि के जरिए किए जाते हैं, उन पर रोक लगनी चाहिए। धर्म-परिवर्तन पर रोक के कानून देश के आठ राज्यों ने बना रखे हैं लेकिन 1995 के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला देते हुए इस याचिका में मांग की गई थी कि शीघ्र ही एक केंद्रीय कानून बनना चाहिए।
न्यायमूर्ति नारीमन ने न सिर्फ इस याचिका को रद्द कर दिया बल्कि यह कहा है कि याचिकाकर्ता इस याचिका को वापस ले ले, वरना अदालत उस पर जुर्माना ठोक देगी। अश्विन उपाध्याय बिदक गए और उन्होंने अपनी याचिका वापस ले ली। अब वे गृह मंत्रालय, विधि आयोग, विधि मंत्रालय और सांसदों से अनुरोध करेंगे कि वे वैसा कानून बनाएं। मेरी समझ में नहीं आता कि अश्विन उपाध्याय जज की धमकी से क्यों डर गए? वे जुर्माना लगाते तो उन्हें जुर्माना भर देना था और अपने मुद्दे को दुगुने उत्साह से उठाना था। अगर मैं उनकी जगह होता तो एक कौड़ी भी जुर्माना नहीं भरता और जज से कहता कि माननीय जज महोदय आप यदि मुझे जेल भेजना चाहें तो भेज दीजिए। मैं सत्य के मार्ग से नहीं हटूंगा। मैं जेल में रहकर अपनी याचिका पर बहस करुंगा और अदालत को मजबूर कर दूंगा कि देशहित में वह वैसा कानून बनाने का समर्थन करे।
जस्टिस नारीमन से कोई पूछे कि दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने समझ-बूझकर, पढ़-लिखकर और स्वेच्छा से किसी धर्म को स्वीकार किया है ? एक करोड़ में से एक आदमी भी ऐसा नहीं मिलेगा। सभी आंख मींचकर अपने मां-बाप का धर्म ज्यों का त्यों निगल लेते हैं। जो उसे चबाते हैं, वे बागी या नास्तिक कहलाते हैं। जो लोग भी अपना धर्म-परिवर्तन करते हैं, क्या वे वेद या बाइबिल या जिन्दावस्ता या कुरान या ग्रंथसाहब पढक़र करते हैं ? ऐसे लोग भी मैंने देखे जरुर हैं लेकिन वे अपवाद होते हैं।
ज्यादातर वे ही लोग अपना पंथ, संप्रदाय, धर्म या पूज्य-पुरुष परिवर्तन करते हैं, जो या तो भेड़चाल, अंधविश्वास या लालच या भय या ढोंग के शिकार होते हैं। मैं अंतरधार्मिक, अंतरजातीय, अंतरप्रांतीय विवाहों का प्रशंसक हूं लेकिन उनके बहाने धर्म-परिवर्तन की कुचाल घोर अनैतिक और निंदनीय है। इसीलिए अदालत के मूल भाव से मैं सहमत हूँ लेकिन उक्त याचिका पर उसका फैसला मुझे बिल्कुल तर्कसंगत नहीं लगता। इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की किसी नई और बड़ी पीठ को विचार करना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
1) पिछली बार सरकार प्रो एक्टिव नजर आ रही थी..... लोगो को पकड़ पकड़ कर टेस्ट करने के लिए ले जा रही थी इस बार नजारा बदल गया है लोग खुद सामने आकर टेस्ट कराने को तैयार है लेकिन सरकार पर्याप्त संसाधन तक उपलब्ध नहीं करवा पा रही है.....टेस्ट कराने के लिए लोग दिन दिन भर इंतजार कर रहे हैं
2) पिछली बार सरकार ने कोविड सेंटर्स खोले थे क्वारंटाइन करने के लिए लोगो को गाड़ियों में भर भर कर वहाँ भेजा जा रहा था, उनके खाने पीने सोने की सारी व्यवस्था की थी.....रेल के डिब्बों को कोविड सेंटर्स में बदला गया, ......लेकिन इस बार कहीं से भी कोई खबर नहीं आ रही कि कहीं भी कोई भी कोविड सेंटर काम कर रहा हो.....बल्कि जो कोविड सेंटर चालू थे उन्हें भी एक एक कर के बन्द करवा दिया गया.... अब जिनके घर मे एक ही रूम है और उनके परिवार का सदस्य पॉजिटिव हो गया है वे लोग पूछ रहे हैं कि हमको अलग रखने के लिये सरकार ने क्या व्यवस्था की है सरकार के पास कोई जवाब नहीं है ?
3) पिछली बार सरकारी अधिकारियों ने लॉक डाउन के दौरान अपने रुकने के लिए महामारी एक्ट के नाम पर शहर के बड़े बड़े होटलों पर कब्जा जमा।लिया था, बाद में जब वो होटल खाली किये गए तो बुरी हालत में ऑनर को मिले ओर सबसे बड़ी बात तो यह कि आज तक होटल के मालिकों को सरकार की तरफ से कोई भुगतान नहीं किया गया, बिल दिए उनको महीने बीत गए हैं....... शायद इसलिए ही इस बार होटल गेस्ट हाउस के अधिग्रहण का कदम अभी तक नहीं उठाया गया है
4) पिछली बार सबसे ज्यादा हल्ला वेंटिलेटर को लेकर मचाया जा रहा था ओर उस हल्ले का फायदा उठाकर घटिया वेंटिलेटर की सप्लाई की गयी जो आज बन्द पड़े हुए हैं....PM केयर के फंड की रकम से गुजरात की कम्पनियो से खूब वेंटिलेटर खरीदे गए और जमकर घोटाला किया इस बार कोई वेंटिलेटर का नाम भी नहीं ले रहा......
5) पिछली बार एक लाख तक रोज मरीज मिल रहे थे लेकिन किसी भी हॉस्पिटल में ऑक्सीजन की सप्लाई को लेकर ऐसी खबरें नहीं आ रही थी जैसी खबरे अब आ रही है कई शहरों में हॉस्पिटल में ऑक्सीजन सप्लाई खत्म होने की कगार पर है....... यहाँ पूरे एक साल में सरकार सोती रही आक्सीजन सप्लाई की व्यवस्था पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.
6) पिछली बार सड़को पर मच्छर मारने का धुंआ उड़ाकर कोरोना वायरस को मारने का खूब प्रयास किया गया लेकिन इससे कोरोना वायरस की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा..... इस बार सरकार ने वैसी कोई बेवकूफी नहीं की......
7) पिछली बार आपको याद होगा कि छूने से कोरोना फैलता है यह बात को खूब फैलाया गया इंदौर जैसे शहर में तो सब्जियों को बिकने से रोक दिया गया, पिछली बार तो आलू प्याज में भी कोरोना वायरस निकल रहा था, इस बार सरकार को थोड़ी अकल आयी है इस तरह की बेवकूफियां नहीं की जा रही, अब यह कहा जा रहा है कि यह सिर्फ साँस के जरिए फैल रहा है बाकी छूने से नहीं फैल रहा है.......
-रमेश अनुपम
आखिरकार गुरुदेव ने मन ही मन एक युक्ति ढूंढ ही निकाली। उन्होंने रूखमणी से अपने साथ आने के लिए कहा ताकि प्लेटफार्म में किसी दुकान से सौ रुपए का चिल्हर करवा कर वे उसे पच्चीस रुपए दे सकें। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इस फैसले को देखकर मृणालिनी देवी प्रसन्न हुई।
गुरुदेव अपने साथ रूखमणी को लेकर प्लेटफार्म की ओर बढ़ गए। थोड़ी दूर जाने के बाद गुरुदेव अपने असली रूप में आ गए। जेब से दो रुपए निकाले और रूखमणी को डांटते हुए बोले तुम मुसाफिरों को लुटती हो मैं अभी तुम्हारी शिकायत करता हूं और तुम्हें जेल भिजवाता हूं। रूखमणी गुरुदेव की डांट से घबरा गई वह उसके चरणों में गिर गई।रूखमणी डर कर कांपने लगी और कहने लगी मुझे कुछ नहीं चाहिए, मुझे जाने दीजिए, मेरी शिकायत मत कीजिए।
यह सारी कथा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में ‘फांकि ’ कविता में कुछ इस तरह से है-
‘ऐई बोले सेई मेयेटाके
आड़ा लेते निये गेलेम डेके
आच्छा करेई दिलेम तारे हेंके
केमन तोमार नोकरी थाके
देखबो आमी
पैसेंजरे के ठकीये बेडाओ
घोंचार नाष्टामी
केंदे जखन पडलो पाये धरे
दूई टाका तार हाथे दीये
दिलेम बिदाय करे। ’
(यह बोलकर उस स्त्री को एक आड़ में ले जाकर मैंने उसे अच्छे से डांटा। मैंने उससे कहा कि मैं देखता हूं कि तुम्हारी नौकरी कैसे बचती है, पैसेंजर को तुम ठगती हो। तब रोते हुए उसने पांव पकड़ लिए। उसी समय मैंने उसे दो रुपए का नोट देकर विदा कर दिया। )
रूखमणी को दो रुपए थमाकर उसे विदा करने के बाद गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर वापस यात्री प्रतीक्षालय में पहुंचे। मृणालिनी देवी तो जैसे उनकी प्रतीक्षा ही कर रही थीं, गुरुदेव के आते ही पूछा कि क्या सौ रुपए तुड़वाकर रूखमणी को पच्चीस रुपए दे दिए। गुरुदेव ने मृणालिनी देवी से झूठ बोलते हुए कहा कि हां मैंने सौ रुपए तुड़वाकर रूखमणी को पच्चीस रुपए दे दिए हैं।
मृणालिनी देवी ने खुश होकर कहा कि अब रूखमणी अपनी बेटी की शादी के लिए आभूषण बनवा सकेगी और अपनी बेटी को दुल्हन के रूप में अच्छे से विदा कर सकेगी। यह कल्पना कर ही मृणालिनी देवी का हृदय एक अलौकिक आनंद से भर उठा था। उसे लगा कि उसके जीवन की एक बड़ी साध अब शीघ्र ही पूरी होने वाली है।
पेंड्रा रोड पहुंचकर भी बार-बार मृणालिनी देवी यह सोच-सोच कर मन ही मन आनंदित होती रहती थी कि रूखमणी की बेटी को उसके ब्याह में आभूषण बनवाने के लिए पच्चीस रुपए देकर उन लोगों ने एक बड़े पुण्य का कार्य किया है ।
अपनी बीमारी के पूरे दो महीनों में मृणालिनी देवी कई-कई बार इस घटना का गुरुदेव से उल्लेख करतीं और मन ही मन खुश होती थी। इन दो महीनों में रूखमणी की बेटी के लिए उन्होंने जो कुछ किया था उसका स्मरण कर, मृणालिनी देवी के हृदय में जैसे अमृत का संचार होने लगता था।
अंतत: जब मृणालिनी देवी इस पृथ्वी से विदा ले रही थीं तब भी वे इस घटना को जो उनके जीवन की सबसे मूल्यवान घटना थी, याद कर रहीं थीं। वे अपने अंतिम समय में भी इस घटना को भूल नहीं पा रही थी और बार-बार उसका स्मरण कर रही थीं।
गुरुदेव ने ‘फांकि’ कविता में लिखा है-
‘ऐई दूटी मास सुधाय दिलो भरे। बिदाय नीलेम सेई कथाटी स्मरण करे।’
मृणालिनी देवी के जीवन के ये दो मास जैसे अमृत से भरे हुए थे। जब विदा हो रही थीं तब भी उनके अधरों पर इसी एक घटना का स्मरण था।)
इस समय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के हृदय में जो कुछ घटित हो रहा था उसे अभिव्यक्त करने के लिए शब्द भी शायद कम पड़ जायेंगे। उनकी वेदना को प्रदर्शित कर सके, ऐसी शक्ति भी किसी भी शब्द में नहीं थी।
ऐसी मर्मांतक वेदना जो गुरुदेव के हृदय को छलनी किए जा रही थी, उसे प्रकट करने की शक्ति भला किस भाषा में हो सकती थी।
गुरुदेव क्लांत हैं। उनके जीवन के सबसे मार्मिक क्षण यहीं हैं जब उन्हें उनके द्वारा किए गए छल के लिए जो क्षमा प्रदान कर सकती थी आज वही उससे दूर चली गई है।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अंतर्यामी से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे मृणालिनी देवी को आज सत्य से परिचित करवाना चाहते हैं। इन दो महीनों में उन्होंने मृणालिनी देवी को जो दुख दिया है, जो कष्ट पहुंचाया है, मात्र पच्चीस रुपए के लिए जो झूठ बोला है, उसके साथ छल किया है, उस जघन्य पाप से से वे मुक्त होना चाहते हैं ।
‘फांकि’ कविता में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की वेदना कुछ इस तरह से प्रकट हुई है -
‘ओगो अंतर्यामी
बिनूर आज जानाते चाई आमी
सेई दू मासेर अर्धेय आमार विषम बाकी
पंचिस टाकार फांकि ’ ( हे अंतर्यामी ! आज मैं बीनू को बताना चाहता हूं। वे दो मास का अर्ध्य जो विषम है मेरे मन में शेष है ,जो पच्चीस रुपए के लिए मैने छल किया था )
गुरुदेव सोच रहे हैं कि आज रूखमणी को एक लाख रुपए देने पर भी मैं मृणालिनी देवी से किए गए छल से मुक्त नहीं हो पाऊंगा। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर यह सोच-सोच कर द्रवित हो रहें हैं कि मृणालिनी देवी जिन बीते हुए दो महीनों को अपने साथ लेकर गई हैं उसमें वे जान ही नहीं पाई हैं कि मैंने उसके साथ कितना बड़ा छल या धोखा किया है।
गुरुदेव आहत हैं, उनका हृदय अपार वेदना से द्रवित है। गुरुदेव अपने किए गए इस छल से, धोखे से क्षुब्ध हैं। वे इसके लिए हर तरह के प्रायश्चित करने के लिए तैयार हैं।
उन्होंने मृणालिनी देवी से जो छल किया है, उस छल से मुक्त होने के लिए वे अपना सब कुछ अर्पण करने के लिए प्रस्तुत हैं । पर इसे संभव करें तो भला कैसे करें बस इसी एक चिंतन में आकंठ डूबे हुए हैं।
(शेष अगले हफ्ते)
-विनोद कुमार शर्मा
आज (10 अप्रैल) खलील जिब्रान के देहावसान का दिन है। आज ही के दिन 1930 में न्यूयार्क में एक सडक़ दुर्घटना में उनकी मृत्यू हो गई थी। इस समय उनकी उम्र कुल अड़तालीस वर्ष थी। उनका जन्म लेबनान के एक कैथोलिक मान्यता के परिवार में हुआ। इस समय लेबनान तुर्क आथमन वंश के अति कठोर शासन के आधीन था। यहां सब ओर भूख और गरीबी का साम्राज्य ही था। काम की तलाश में परिवार अमेरिका आया पर जिब्रान कुछ समय बाद अपनी मातृभूमि चले आये और बेरूत के एक कॉलेज से उन्होंने आगे की शिक्षा पूरी की । वे अंग्रेजी फ्रांसीसी और अरबी भाषाओं के जानकार थे ।
इक्कीस वर्ष की उम्र में उनकी पहली पुस्तक स्पिरिट्स रिबेलियंस प्रकाशित हुई और लेबनान के धार्मिक कट्टर समाज की जड़ें हिला दीं । कैथोलिक चर्च ने सभी प्रतियों को आग लगाने, एवं खलील जिब्रान को देश तथा धर्म सभी से निष्कासित कर दिया । इस पुस्तक में तीन कहानियां थीं, इसमें से तीसरी कहानी तत्कालीन ईसाई पाखंड की निर्ममता और क्रूरता को उजागर करती थी। कुछ समय जिब्रान अपने पेरिस के चित्रकार मित्र के पास चित्रकला का अभ्यास किया और बाद में न्यूयार्क आ गए। दुर्घटना में मारे जाने के समय तक उनके साहित्य से लोग इतना प्रेम करने लगे थे कि उनके शरीर को लेबनान के राष्ट्रीय झण्डे में लपेट कर लेबनान ले जाया गया। और ईसाई, शिआ, सुन्नी और यहूदियों का जनसैलाब उनको विदा देने आया । आज भी उनकी समाधि उनके प्रेमियों को खींचती है , जहां लगातार यात्री पहुंचते हैं ।
उनकी लगभग पच्चीस पुस्तकें प्रकाशित हैं । वे चित्रकार होने से अपनी पुस्तकों के आवरण और अंदर भी अपने ही चित्रों से सजाते थे । ओशो ने अमेरिका में सार्वजनिक प्रवचन न देने के दिनों में चार पांच मित्रों के बीच दो बातचीत श्रृंखला चलाईं, जिनकी रिकॉर्डिंग से दो पुस्तकें बनी ‘पुस्तकें जिन्हे मैं प्यार करता हूं’ और ‘स्वर्णिम बचपन।’ पहली में उन्होंने अपनी प्रिय पुस्तकों को एक एक करके बताया है कि इस पुस्तक में क्या है और इसे क्यों पढ़ी जाए। दूसरी में उन्होंने अपने बचपन और अपने गांव की बातों को सुनाया है। अपनी प्रिय पुस्तकों के उन्होंने दस दस के समूह में वर्णन किये हैं। उनकी पुस्तक सूची में संभतया पहली तीन पुस्तकों में दस स्पेक जरथुस्त्र है। फिर जब वे अगली दस पुस्तकों की सूची देते हैं तो पहली पुस्तक पैगम्बर ही चुनते हैं । यह कहते हुए कि यह पुस्तक दस स्पेक जरथुस्त्र की ही अनुकृति है । मैं पढऩे में बहुत ढीला होने से यह पुस्तक कभी देख नहीं पाया पर पैगम्बर को जरूर देखने समझने का मौका मिला, उस तरह से देखें तो यह पुस्तक ओशो की पसंद की पुस्तक सूची में भी बिल्कुल ऊपर है ।
इस पुस्तक से जिब्रान को भी बहुत प्रेम था, पूरी हो जाने पर भी चार साल तक इसकी पाण्डुलिपि को और-और अधिक सुन्दर करने का प्रयास करते रहे । इसके अंदर विचारों और अधिक कह पाने के लिये चित्र बनाये । जिब्रान की यह क्षमता थी कि वे काव्य को गद्य की तरह स्थूल और गंभीरता दे सकें और गद्य को काव्य की तरह रहस्य और लोच से भर सकें। जीवन में जिन चीजों को भी लक्ष्य की तरह मानव जाति ने चुना है वे सभी बातें किसी न किसी तरह के आध्यात्मिक लोगों द्वारा ही आदमी से कही गई हैं। यह पुस्तक भी जीवन के यथार्थ और रहस्य को शब्दों में उतार पाती है। बाहर की दुनिया को जानना कह पाना भी अधूरा सा है और केवल अनुभूतियों में डूबते उतराते रहना भी इसे केवल मानसिक करके अनुपयोगी बनाता है।
यहां कोई चीज पूरी है भी नहीं है न तो गणित और न ही दर्शन। विरोधाभासों का मेल ही जीवन है। दो विपरीतताओं को खुला आमंत्रण और इस बात के डर का अभाव कि मैं इसे कैसे सिद्ध कर पाऊंगा या कह पाऊंगा। यह स्वीकृति ही हमें जीवन के थोड़े-बहुत नज़दीक लाती है। नहीं तो यहां है तो सब कुछ बेबूझ। जिब्रान की पुस्तक पैगम्बर का अलमुस्तफा अपने मूल में जाने से पहले लोगों को हर विषय पर अपने विचार देता है, उत्तर की तरह। ये उत्तर धर्मग्रंथों के क्विंटलों कचरे से कुछ एक कीमती चीजें चुनने की तुलना में बिना कचरे वाला सीधा खजाना ही हैं। जो परिशुद्ध है। काम का है। यह भारत के ब्रहृमसूत्र और उपनिषदों के सामने भी कहीं कमजोर नहीं पड़ता, कहना चाहिए और ज्यादा संघनित। जिब्रान को मरे नब्बे साल हो गए। इतने पहले भी धरती पर रहकर खुद को इतना हरा भरा करने के अवसर थे, आज के हम कुपोषित से आदमी जिनके शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा सब कुछ कुपोषित हैं। सब एकतरफा, बौने और अधूरे से। कोशिश करेंगे कि जिब्रान जैसे लोगों से कुछ तो संपन्नता अर्जित करें, जिससे धरती पर हमारे खाने पीने का कुछ तो बदला हम समाज को दे सकें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
म्यांमार में सेना का दमन जारी है। 600 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। आजादी के बाद भारत के पड़ौसी देशों— पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, मालदीव— आदि में कई बार फौजी और राजनीतिक तख्ता-पलट हुए और उनके खिलाफ इन देशों की जनता भडक़ी भी लेकिन म्यांमार में जिस तरह से 600 लोग पिछले 60-70 दिनों में मारे गए हैं, वैसे किसी भी देश में नहीं मारे गए।
म्यांमार की जनता अपनी फौज पर इतनी गुस्साई हुई है कि कल कुछ शहरों में प्रदर्शनकारियों ने फौज का मुकाबला अपनी बंदूकों और भालों से किया। म्यांमार के लगभग हर शहर में हजारों लोग अपनी जान की परवाह किए बिना सडक़ों पर नारे लगा रहे हैं। लेकिन फौज है कि वह न तो लोकनायक सू ची को रिहा कर रही है और न ही अन्य छोटे-मोटे नेताओं को! उन पर उल्टे वह झूठे आरोप मढ़ रही है, जिन्हें हास्यास्पद के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।
यूरोप और अमेरिका के प्रतिबंधों के बावजूद म्यांमार की फौज अपने दुराग्रह पर क्यों डटी हुई है ? इसके मूल में चीन का समर्थन है। चीन ने फौज की निंदा बिल्कुल नहीं की है। अपनी तटस्थ छवि दिखाने की खातिर उसने कह दिया है कि फौज और नेताओं के बीच संवाद होना चाहिए। चीन ऐसा इसलिए कर रहा है कि म्यांमार में उसे अपना व्यापार बढ़ाने, सामुद्रिक रियायतें कबाडऩे और थाईलैंड आदि देशों को थल-मार्ग से जोडऩे की उसकी रणनीति में बर्मी फौज उसका पूरा साथ दे रही है।
भारत ने भी संयुक्तराष्ट्र संघ में दबी जुबान से म्यांमार में लोकतंत्र की तरफदारी जरुर की है लेकिन उसके रवैए और चीन के रवैए में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। भारत सरकार बड़ी दुविधा में है। उसकी परेशानी यह है कि वह बर्मी लोकतंत्र का पक्ष ले या अपने राष्ट्रीय स्वार्थों की रक्षा करे? जब म्यांमार से शरणार्थी सीमा पार करके भारत में आने लगे तो केंद्र सरकार ने उन्हें भगाने का आग्रह किया लेकिन मिजोरम सरकार के कड़े रवैए के आगे हमारी सरकार को झुकना पड़ा। सरकार की रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजने की नीति का सर्वोच्च न्यायालय ने समर्थन कर दिया है, जो ठीक मालूम पड़ता है लेकिन फौजी अत्याचार से त्रस्त लोगों को अस्थाई शरण देना भारत की अत्यंत सराहनीय नीति शुरु से रही है।
म्यांमार की फौजी सरकार ने अपने लंदन स्थित राजदूत क्याव जवार मिन्न को रातोंरात अपदस्थ कर दिया है। उन्हें दूतावास में घुसने से रोक दिया गया है। शायद उनका घर भी वहीं है। उन्होंने अपनी कार में ही रात गुजारी। ब्रिटिश सरकार ने इस पर काफी नाराजी जाहिर की है लेकिन उसे कूटनीतिक नयाचार को मानना पड़ेगा। राजदूत मिन्न ने फौजी तख्ता-पलट की निंदा की थी। अमेरिका ने हीरे-जवाहरात का व्यापार करने वाली सरकारी बर्मी कंपनी पर प्रतिबंध लगा दिया है।
भारत को अपने राष्ट्रहितों की रक्षा जरुर करनी है लेकिन यदि वह फौजी तख्ता-पलट के विरुद्ध थोड़ी दृढ़ता दिखाए तो उसकी अन्तरराष्ट्रीय छवि तो सुधरेगी ही, म्यांमार में आंशिक लोकतंत्र की वापसी में भी आसानी होगी। भारत फौज और नेताओं की बीच सफल मध्यस्थ सिद्ध हो सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव और पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कल इस्लामाबाद में बड़ी चतुराई दिखाने की कोशिश की। दोनों ने दुनिया को यह बताने की कोशिश की कि रूस और पाकिस्तान आतंकवाद से लडऩे के लिए कटिबद्ध हैं। रूस ने वादा किया कि वह पाकिस्तान को ऐसे विशेष हथियार देगा, जो आतंकवादियों के सफाए में उसके बहुत काम आएंगे। यहां पहली बात यह कि वह कौनसा आतंकवाद है, जिसे रूस खत्म करना चाहता है? क्या तालिबान का? क्या कश्मीरियों का? क्या बलूचों का? क्या पठानों का? इनमें से किसी का भी नहीं।
रूस की चिंता उसके चेचन्या-क्षेत्र में चल रहे मुस्लिम आतंकवाद की हो सकती है लेकिन उसका कोई प्रभाव पाकिस्तान में नहीं है। उसकी जड़ों में तो व्लादीमीर पूतिन ने पहले ही से म_ा डाल रखा है। सच्चाई तो यह कि इधर रूस का फौजी उद्योग जरा ढीला पड़ गया है। उसके सबसे बड़े शस्त्र-खरीददार भारत ने अपनी खरीद एक-तिहाई घटा दी है। पूर्वी यूरोप के देश भी उसके हथियार कम खरीद रहे हैं। यदि ये हथियार पाकिस्तान को रूस अगर मुक्त रुप से बेचेगा तो भारत को नाराजगी हो सकती है।
इसीलिए लावरोव ने आतंकवाद की ओट ले ली है। आतंकियों को मारने के लिए कौन-से मिसाइलों की जरुरत होती है ? पाकिस्तान की फौज उन्हें चाहे तो बाएं हाथ से ढेर कर सकती है। जहां तक तालिबान का सवाल है, वे अभी भी अफगानिस्तान में लगभग रोज ही खून बहा रहे हैं। लेकिन रूस तो उन्हें पटाने में लगा हुआ है। वह उन्हें मास्को बुला-बुलाकर बिरयानी खिलाने में जुटा हुआ है। लावरोव को पता है कि रुस के हथियार सिर्फ भारत के खिलाफ ही इस्तेमाल होंगे। फिर भी वह उन्हें पाकिस्तान को बेचने पर डटे हुए हैं।
लावरोव की लौरी पर ताल ठोकते हुए पाक सेनापति कमर जावेद बाजवा ने भी डींग मार दी। उन्होंने कह दिया कि पाकिस्तान की किसी भी देश के साथ कोई दुश्मनी नहीं है। दक्षिण एशिया क्षेत्र में वह शांति और सहयोग का वातावरण बनाना चाहता है। उनसे कोई पूछे कि फिर कश्मीर को हथियाने की माला आप क्यों जपते रहते हैं ? लावरोव ने आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक मामलों में पाकिस्तान को पूर्ण सहयेाग का वादा किया है। शांघाई सहयोग संगठन के सदस्य होने के नाते अब रूस चाहेगा कि पाकिस्तान को रुस और चीन की गलबहियों में लपेट लिया जाए और अफगानिस्तान और ईरान को भी।
ईरान के साथ चीन का 25 वर्षीय समझौता हो ही चुका है। यह अघोषित गठबंधन दक्षिण एशिया में अमेरिकी रणनीति की काट करेगा। ‘एशियाई नाटो’ की टक्कर में अब ‘एशियाई वारसा-पेक्ट’ की नींव पड़ रही है। भारत से उम्मीद यही है कि वह इन दोनों अघोषित गठबंधनों से खुद को मुक्त रखेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गोपाल राठी
जाति और उपजाति में बटे भारतीय समाज में जाति एक सच्चाई है जिसे आप नकार नहीं सकते। जाति के आधार पर ही आप सम्मान या तिरस्कार पाने के अधिकारी बन जाते है। हमारे समाज मे जातीय विषमता का हमें कदम कदम पर साक्षात्कार होता है। भारतीय व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति का नाम और ठांव पूछने के पहले जाति जानने की कोशिश करता है और उनके आपसी सम्बन्ध और व्यवहार जाति के आधार पर ही निर्धारित होते हैं । एक दूसरे से बिल्कुल अपरिचित और भाषा और संस्कृति के लिहाज से अलग अलग व्यक्ति अगर सजातीय होते है तो उनकी आंखों में चमक आ जाती है और भाव भंगिमा बदल जाती है।
नर्मदा की परिक्रमा हजारों साल से की जा रही है । परिक्रमा वासियों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था जगह जगह पर रहती है । कहीं किसी आश्रम में या कही गांव में सामूहिक रूप से यह व्यवस्था चल रही है ।
परिक्रमा में मेरा जो अवलोकन रहा वह यह है कि नर्मदा तट के हर गांव में परिक्रमा को एक तपस्या माना जाता है और परिक्रमा करने वाले को तपस्वी। इस भावना के कारण नर्मदा परिक्रमा वासियों को हर जगह श्रद्धा पूर्वक सम्मान मिलता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सम्मान किसी को उसकी जाति देखकर नहीं मिलता। रास्ते मे हम चाय आदि के लिए कई जगह।के तो दुकानदार ने हमसे पैसे ही नहीं लिए । दुकानदार ने ना हमारा नाम पूछा ,ना जाति पूछी ,ना गांव पूछा । उसके लिए हमारा परिकमा वासी होना ही पर्याप्त था । बड़वानी जिले के परसूद में तो चाय वाले के बाजू में एक मुस्लिम भाई की पान की दुकान थी उसने भी हमसे पान के पैसे नहीं लिए बल्कि रास्ते के लिए पान के चार बीड़े बनाकर रख दिए।
हमने सिवनी जिले के कहानी ग्राम में रात्रि विश्राम किया । वहां ग्राम पंचायत भवन में ठहरे हम सभी परिक्रमा वासियों का रात्रि भोजन एक परिवार में था । वहां हमारे साथ गए सभी परिकमा वासियों को भोजन उपरांत एक नारियल और दस ।पये भेंट के साथ परिवार के सदस्यों ने हम सबके बारी बारी से पांव पड़े । इस तरह पांव पढ़वाने से हम थोड़े असहज हुए ,थोड़ा पीछे हटे लेकिन कोई नहीं माना । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम परिक्रमा वासियों के समूह में एक सज्जन आदिवासी समाज के जो उदयपुरा तहसील जिला रायसेन के निवासी थे और एक दम्पत्ति दलित समाज से थे जो दमोह जिले के रहने वाले थे । हम सबको "महाराज" के संबोधन से पुकारा जा रहा था । जात पांत की कोई बात ही नहीं थी । आगे अन्य आश्रमों में भी जात पांत पूछे बिना भोजन और आवास की व्यवस्था हो गई ।
नर्मदा परिक्रमा जैसे धार्मिक अनुष्ठान में कोई पूछता ही नहीं है कि तुम कौन जात हो ? जातिगत भेदभाव से मुक्त परिक्रमा के इस पक्ष से हमें अत्यंत खुशी हुई । ऐसा लगा कि जैसे जाति विहीन ,वर्ग विहीन समाज बनाने का हमारा सपना साकार हो गया है ।
हमारे संत भी तो यही कहते रहे हैं ।
जात-पात पूछे ना कोई,
हरि को भजे सो हरि का होई
*जाति न पूछो साधु की,
पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का,
पड़ा रहन दो म्यान।
बीजापुर में रिहा किये गए जवान को सकुशल वापिस लाने के पीछे जो शख्स हैं, वह है 92 साल के युवा और बस्तर के ताऊ जी धर्मपाल सैनी। उन्हें बस्तर का गांधी कहा जाता है।
वे कोई 45 साल पहले अपनी युवावस्था में बस्तर की लड़कियों से जुड़ी एक खबर पढ़ कर इतने विचलित हुए कि यहां आए और यहीं के हो गए।
अपने गुरु विनोबा भावे से डोनेशन के रूप में 5 रुपए लेकर वे 1976 में बस्तर पहुंचे। वह युवा पिछले 40 सालों से बस्तर में है। पद्मश्री धरमपाल सैनी अब तक देश के लिए 2000 से ज्यादा एथलीट्स तैयार कर चुके हैं।
मूलतः मध्यप्रदेश के धार जिले के रहने वाले धरमपाल सैनी विनोबा भावे के शिष्य रहे हैं।
60 के दशक में सैनी ने एक अखबार में बस्तर की लड़कियों से जुड़ी एक खबर पढ़ी थी। खबर के अनुसार दशहरा के आयोजन से लौटते वक्त कुछ लड़कियों के साथ कुछ लड़के छेड़छाड़ कर रहे थे।लड़कियों ने उन लड़कों के हाथ-पैर काट कर उनकी हत्या कर दी थी।
यह खबर उनके मन में घर कर गई। उन्होंने बस्तर की लड़कियों की हिम्मत और ताक़त को सकारात्मक बनाने की ठानी।
कुछ सालों बाद अपने गुरु विनोबा भावे से बस्तर आने की अनुमति मांगी लेकिन शुरू में वे नहीं माने। कई बार निवेदन करने के बाद विनोबा जी ने उन्हें 5 रुपए का एक नोट उन्हें थमाया और इस शर्त के साथ अनुमति दी कि वे कम से कम दस साल बस्तर में ही रहेंगे।
आगरा यूनिवर्सिटी से कॉमर्स ग्रेजुएट सैनी खुद भी एथलीट रहे हैं।
वे बताते हैं कि जबवे बस्तर आए तो देखा कि छोटे-छोटे बच्चे भी 15 से 20 किलोमीटर आसानी से चल लेते हैं। बच्चों की इस क्षमता को खेल और शिक्षा में इस्तेमाल करने की योजना उन्होंने बनाई।
उनके डिमरापाल स्थित आश्रम में हजारों की संख्या में मेडल्स और ट्रॉफियां रखी हुई हैं।आश्रम की छात्राएं अब तक स्पोर्ट्स में ईनाम के रूप में 30 लाख से ज्यादा की राशि जीत चुकी हैं।
धर्मपाल जी को बालिका शिक्षा में बेहतर योगदान के लिए 1992 में सैनी को पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया। 2012 में 'द वीक' मैगजीन ने सैनी को मैन ऑफ द इयर चुना था। श्री सैनी के बस्तर में आने के बाद साक्षरता का ग्राफ 10 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत के करीब पहुंच चुका है।
उनके विद्यालय की बच्चियां एथलीट, डॉक्टर और प्रशासनिक सेवाओं में जा चुकी हैं ।
आज सैनीजी 92 साल के हैं और राकेश्वर सिंह को सकुशल लाने का अनुरोध मुख्यमंत्री भूपेश्वर बघेल ने किया था।
खबर तो यह भी है कि वे कई महीने से नक्सलियों से शांति वार्ता के लिए प्रयास कर रहे थे। वार्ता के शुरू होने से पहले केंद्रीय बलों ने यह दबिश दी और वार्ता को पटरी से नीचे उतार दिया। बहरहाल सैनी जी के प्रति आभार। उनकी सहयोगी मुरुतुण्डा की सरपंच सुखमती हक्का का भी आभार। चित्र में खड़ी सुखमती बानगी है कि बस्तर में औरत कितनी ताकतवर है।
(पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के फेसबुक पेज से )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव और भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर के बीच हुई बातचीत के जो अंश प्रकाशित हुए हैं और उन दोनों ने अपनी पत्रकार-परिषद में जो कुछ कहा है, अगर उसकी गहराई में उतरें तो आपको थोड़ा-बहुत आनंद जरुर होगा लेकिन आप दुखी हुए बिना भी नहीं रहेंगे। आनंद इस बात से होगा कि रूस से हम एस-400 प्रक्षेपास्त्र खरीद रहे हैं, वह खरीद अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद जारी रहेगी।
रूस भारत से साढ़े सात करोड़ कोरोना-टीके खरीदेगा। यद्यपि इधर भारत ने रूसी हथियार की खरीद लगभग 33 प्रतिशत घटा दी है लेकिन लावरोव ने भरोसा दिलाया है कि अब रूस भारत को नवीनतम हथियार-निर्माण में पूर्ण सहयोग करेगा। उत्तर-दक्षिण महापथ याने ईरान और मध्य एशिया होकर रूस तक आने-जाने का बरामदा और चेन्नई-व्लादिवस्तोक जलमार्ग तैयार करने में भी रूस ने रूचि दिखाई है। लावरोव ने भारत-रूस सामरिक और व्यापारिक सहयोग बढ़ाने के भी संकेत दिए हैं।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि भारत किसी भी देश के साथ अपने संबंध घनिष्ट बनाने के लिए स्वतंत्र है। उनका इशारा इधर भारत और अमेरिका की बढ़ती हुई घनिष्टता की तरफ रहा होगा लेकिन उन्होंने कई ऐसी बातें भी कही हैं, जिन पर आप थोड़ी गंभीरता से सोचें तो लगेगा कि वे दिन गए, जब भारत-रूस संबंधों को लौह-मैत्री कहा जाता था। क्या कभी ऐसा हुआ है कि कभी कोई रूसी नेता भारत आकर वहां से तुरंत पाकिस्तान गया हो ? कल नई दिल्ली में पत्रकार-परिषद खत्म होते ही लावरोव इस्लामाबाद पहुंच गए।
रूस का रवैया भारत के प्रति अब लगभग वैसा ही हो गया है, जैसा कभी अमेरिका का था। वे इस्लामाबाद क्यों गए ? इसलिए कि वे अफगान-संकट को हल करने में जुटे हुए हैं। सोवियत रूस ने ही यह दर्द पैदा किया था और वह ही इसकी दवा खोज रहा है। लावरोव ने साफ-साफ कहा कि तालिबान से समझौता किए बिना अफगान-संकट का हल नहीं हो सकता। जयशंकर को दबी जुबान से कहना पड़ा कि हाँ, उस हल में सभी अफगानों को शामिल किया जाना चाहिए।
यह हमारी सरकार की घोर अक्षमता है कि हमारा तालिबान से कोई संपर्क नहीं है। हम यह जान लें कि तालिबान गिलजई पठान हैं। वे मजबूरी में पाकिस्तानपरस्त हैं। वे भारत-विरोधी नहीं हैं। यदि उनके जानी दुश्मन अमेरिका और रूस उनसे सीधा संपर्क रख रहे हैं तो हम क्यों नहीं रख सकते? हमें हुआ क्या है? हम किससे डर रहे हैं? या मोदी सरकार के पास योग्य लोगों का अभाव है ? लावरोव ने तालिबान से रूसी संबंधों पर जोर तो दिया ही, उन्होंने ‘इंडो-पेसिफिक’ की बजाय ‘एशिया-पेसिफिक’ शब्द का इस्तेमाल किया।
उन्होंने अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलियाई चौगुटे को ‘एशियन नाटो’ भी कह डाला। चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर रूस अब अमेरिकी वर्चस्व से टक्कर लेना चाहेगा। लेकिन भारत के लिए यह बेहतर होगा कि वह किसी भी गुट का पिछलग्गू नहीं बने। यह बात जयशंकर ने स्पष्ट कर दी है लेकिन दक्षिण एशिया की महाशक्ति होने के नाते भारत को जो भूमिका अदा करनी चाहिए, वह उससे अदा नहीं हो पा रही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
अनिल अंबानी के बड़े बेटे अनमोल ने ट्वीट कर कहा है कि ‘एक्टर्स, क्रिकेटर्स,राजनीतिज्ञों को अपना काम बिना किसी रोक-टोक के करने दिया जा रहा है, लेकिन कारोबार पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है।’ प्रोफेशनल एक्टर्स अपनी फिल्मों की शूटिंग जारी रख सकते हैं. प्रोफेशनल क्रिकेटर देर रात तक खेल सकते हैं. प्रोफेशनल राजनीतिज्ञ भारी भीड़ के साथ अपनी रैलियां कर सकते हैं. लेकिन आपका कारोबार आवश्यक सेवाओं में नहीं आता।’
इंदौर की कल की खबर है कि स्वच्छता सर्वेक्षण के नाम पर कुछ दिनों पहले शहर की शाहराहो पर ठेले लगाकर जो व्यापार कर रहे थे उन्हें हटा दिया गया और जब उन्होंने दुबारा उसी जगह पर ठेले लगाने चाहे तो लगाने नही दिये जा रहे। उन्होंने नगर निगम के गेट पर अपना रोजगार वापस बहाल करने को लेकर प्रदर्शन किया तो उनके खिलाफ केस दर्ज कर गिरफ्तारी के आदेश निकाल दिए गए।
अनिल अंबानी के बेटे ने अपने ट्वीट में जो एक आशंका जताई है उस पर हमें ध्यान देने की जरूरत है उन्होंने कहा कि ये लॉकडाउन्स स्वास्थ्य को लेकर नहीं हैं। ये नियंत्रण करने के लिए हैं और मुझे लगता है कि हम में से कई अनजाने में बेहद बड़े और भयावह प्लान के जाल में फंस रहे हैं।
विश्व भर की सरकारे दरअसल पूरी तरह से कंट्रोल हासिल कर लेना चाहती है पब्लिक हैल्थ तो एक बहाना है। अगर आपने कल बीबीसी पर रिलीज की गई ‘वेक्सीन पासपोर्ट’ की रिपोर्ट नही देखा है तो एक बार उसे जरूर देखिए आपको पूरा खेल समझ मे आ जाएगा कि क्या गजब तरीके से जनता को एक ट्रैप में फँसाया जा रहा है। इस रिपोर्ट ने बीबीसी जैसे निष्पक्ष समझे जाने वाले मीडिया संस्थानों के असली इरादे जाहिर कर दिए हैं। हर रिपोर्ट में दूसरा पक्ष क्या कह रहा है इसकी जरूर बात की जाती है लेकिन रिपोर्ट के आखिरी चंद सेकंड में ब्रिटेन के सांसदों की राय बताई गई और प्रोग्राम अचानक से खत्म कर दिया गया।
वैक्सीन पासपोर्ट को एकमात्र उपाय के रूप में पब्लिक के दिमाग मे ठूँसा जा रहा है यहाँ ये कहने की कोशिश की जा रही है कि सरकारे तो लॉक डाउन लगाना नहीं चाहती लेकिन यदि आपको ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था को खोलना हैं तो वैक्सीन सर्टिफिकेट ही एकमात्र उपाय है विकसित देशों में यह खेल शुरू हो गया है और मोदीजी को ऊपर से चाबी भर दी गयी है कि जितना जल्दी हो वो यहाँ पर वैक्सीन रोल आउट के प्रोग्राम चलाए। देश के सारे कलेक्टर्स को निर्देश है कि अपने अपने जिले में जितने अधिक से अधिक लोगो को वेक्सीन लगवाए उतना अच्छा
इस बार सरकार का ध्यान बीमारी से ज्यादा वेक्सीन के रोल आउट पर है।
अच्छा एक बात बताइये कि कोई बीमारी होती है तो मार्केट में उसकी दवा पहले आती है कि वैक्सीन पहले आती है? यह दुनिया की ऐसी पहली बीमारी है जिसकी दवा नहीं है लेकिन वेक्सीन है।
-अरुण कान्त शुक्ला
शनिवार 3 अप्रैल को बीजापुर जिले के तर्रेम इलाके के पास सीआरपीएफ, कोरबा बटालियन और पुलिस के जवानों पर घात लगाकर नक्सलियों द्वारा किया गया हमला जिसमें 23 जवान मारे गए, 31 घायल हुए और एक नक्सलियों की पकड़ में है, पिछले 15 दिनों में सुरक्षा बलों पर किया गया तीसरा हमला है। इसके पूर्व भी 21 मार्च, 2021 को सुकमा में हुई मुठभेड़ में 17 जवान शहीद हुए थे और फिर 23 मार्च, 2021 को माओवादियों ने नारायणपुर में एक बस को उड़ा दिया था जिसमें 5 पुलिसकर्मी शहीद और 13 घायल हुए थे। पिछले एक दशक में बस्तर, सुकमा, दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर जिलों के गांवों के आसपास एक दर्जन से अधिक बड़े नक्सल हमले सुरक्षा जवानों पर हो चुके हैं। 25 मई 2013 को बस्तर जिले की दरभा घाटी में हुए नक्सली हमले में महेंद्र कर्मा, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नन्द कुमार पटेल,पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 30 से अधिक कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जान से हाथ धोना पड़ा था। अभी तक ऐसे हमलों में लगभग 350 से अधिक सुरक्षाकर्मी अपनी जान से हाथ धो चुके होंगे। इतनी ही संख्या में अथवा इससे अधिक माओवादी भी सुरक्षा कर्मियों के हमले में मारे गए होंगे।
शहरी क्षेत्र में एक आम धारणा बन चुकी है कि माओवाद अब कोई क्रांतिकारी आंदोलन न होकर अराजक आतंकवाद बन कर रह गया है। मैंने यहाँ उन घटनाओं का जिक्र नहीं किया है जिनमें आम आदमी याने आदिवासी अथवा अर्ध-नगरीय क्षेत्र में रहने वाला नागरिक या किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता जो माओवादियों का विरोध करता हो, पुलिस का मुखबिर होने के शक में माओवादियों के द्वारा तड़पा तड़पा कर मार दिया जाता है। अनेक बार ऐसा भी होता है जब जैसे सुरक्षाकर्मियों को गलत जानकारी मिलती है या शक होता है और उनके हाथों निर्दोष लोग मारे जाते हैं वैसे ही माओवादी भी गलती से अथवा शक में आम निर्दोष लोग मारे जाते हैं। स्वाभाविक है अपनी इस गलती को दोनों पक्षों में से कोई स्वीकार नहीं करता है। इन घटनाओं की जितनी भी निंदा की जाए कम है। यदि प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अपना असम दौरा बीच में छोड़कर वापस आए और घायल जवानों से मिले तो केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी बंगाल का चुनाव छोड़कर आए और घायल जवानों से मिले। स्वाभाविक तौर पर उनसे वे ही रटे रटाये जुमले सुनने मिले जो प्रत्येक गृहमंत्री और मुख्यमंत्री से अभी तक प्रत्येक घटना के बाद सुनने मिलते हैं। जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जायेगी। हमने नक्सलियों को सबक सिखाया और उनकी योजना चौपट की वगैरह।
इस लेख का विषय फोर्स की क्या गलती थी या उनसे कहाँ चूक हुई, इसका शोध करना नहीं है। हम सिर्फ यह चाहते हैं कि माओवादी सक्रियता के लगभग 6 दशकों के बाद माओवादी इस पर विचार करें कि वे किसकी मदद कर रहे हैं और किसको नुकसान पहुंचा रहे हैं। यदि आतंक फैलाकर या बनाए रखकर ही माओवाद को ज़िंदा रखना माओवादियों का मकसद है, तो वे अपने मकसद में फौरी तौर पर इसलिए कामयाब दिख सकते हैं की आतंक फैलाने में वे कामयाब हो गए हैं| पर, यदि वे यह सोचते हैं कि वे इस तरह के हमला करके देश में कायम व्यवस्था को कमजोर कर पाए हैं या उसे बदलने की दिशा में माओवाद को तनिक भी दूर आगे बढ़ा पाए है, तो वे पूरी तरह गलत है| या, वे यह सोचते हैं कि वे नगरीय इलाके के जनमानस को यह सन्देश देने में कामयाब हुए हैं की माओवाद ताकतवर होकर बहुत आगे बढ़ आया है और अब बारी आ गयी है कि अर्बन जनता भी हथियार उठाकर उनके साथ हो ले, तो भी वे पूरी तरह गलत हैं क्योंकि इस हिंसा के फलस्वरूप पैदा होने वाली व्यग्रता का पूरा फायदा देश का शासक वर्ग ही उठा रहा है|
माओवादी जिस हथियारबंद संघर्ष के जरिये तथाकथित क्रान्ति का सपना आदिवासियों को दिखाते हैं, उसका कभी भी सफल न होना, दीवाल पर लिखा एक ऐसा सत्य है, जिसे माओवादी पढ़ना नहीं चाहते हैं| जिस देश में अभी तक मजदूर-किसान के ही एक बड़े तबके को, जो कुल श्रम शक्ति का लगभग 98% से अधिक ही होगा, संगठित नहीं किया जा सका हो| जिस देश में नौजवानों और छात्रों के संगठन लगभग मृतप्राय: पड़ गए हों और वामपंथी शिक्षा कुल शिक्षा से तो गायब ही हो, स्वयं वामपंथ की शैक्षणिक गतिविधियां लगभग शून्य की स्थिति में आ गई हों, वहाँ, शैक्षणिक सुविधाओं से वंचित आदिवासी समाज को जंगल में क्रान्ति का पाठ पढ़ाकर, बन्दूक थमा कर क्रान्ति का सपना दिखाना एक अपराध से कम नहीं है| इस बात में कोई शक नहीं कि जितनी हिंसा माओवाद के नाम पर राज्य सत्ता स्वयं देश के निरपराध और भोले लोगों पर करती है और सेना-पुलिस के गठजोड़ ने जो अराजकता, हिंसा,बलात्कार विशेषकर बस्तर के आदिवासी समाज पर ढा कर रखा है, उसकी तुलना में माओवादी हिंसा कुछ प्रतिशत भी न हो, पर, भारतीय समाज का अधिकाँश हिस्सा आज भी हिंसा को बर्दाश्त नहीं कर पाता है| राज्य अपनी हिंसा को क़ानून, शांति कायम करने के प्रयासों, देशद्रोह, राष्ट्रवाद जैसे नारों के बीच छुपा जाता है, वहीं, माओवादियों के हर आक्रमण को या उनके नाम पर प्रायोजित आक्रमण को बढ़ा-चढ़ा दिखाता है, यह हम पिछले लंबे समय से देख रहे हैं|
पिछले कुछ वर्षों में एक सोची समझी साजिश के तहत अर्बन-नक्सल की थ्योरी प्रचारित की जा रही है जिसकी आड़ में देश के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों और शिक्षाविदों को निशाना बनाकर उन्हें राष्ट्र-द्रोह के मामलों में फंसाकर या तो जेल में डाला जा रहा है या आम देशवासियों की नजर में उनकी छवि देशद्रोही की बनाई जा रही है। आज देश के शोषितों का बहुत बड़ा हिस्सा किसान सरकार के साथ सीधे-सीधे दो-दो हाथ कर रहा है और सरकार तथा उसके नुमाईंदे उस किसान समूह को आतंकवादी से लेकर राष्ट्र-द्रोही तक सिद्ध करने पर उतारू हैं। जैसे ही 3 अप्रैल की माओवादी घटना हुई, शासक पार्टी की आईटी सेल ने सोशल मीडिया में और सरकार के इशारे पर आज के इस बिक चुके डिजिटल मीडिया ने देश के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों और शिक्षाविदों, विश्वविद्यालयओं को माओवाद के लिए जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। इसका एक नमूना सोशल मीडिया में घूमता यह संदेश है;
"शहीद हुए जवानों पर हथियार भले ही नक्सलियों ने ताने थे मगर उनके हाथों में वो हथियार देश की किसी सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे "ज्ञानी" प्रफ़ेसर ने पहुंचाए हैं। किसी "आला" दर्जे के साहित्यकार ने उन नक्सलियों की ट्रेनिंग का खर्चा उठाया है। रंगमंच के रंगों में सिर से पैर तक डूबे किसी "क्रांतिकारी" रंगकर्मी ने नक्सलियों के हमले की स्क्रिप्ट लिखी है। किसी "टॉप क्लास" फिल्मकार ने उन नक्सलियों के रहने-खाने की व्यवस्था की है। किसी एसी रूम में बैठकर खबर के खोल में संपादकीय बांच रहे किसी "निष्पक्ष" पत्रकार ने उन नक्सलियों की बंदूकों में गोलियाँ भरी हैं। उन जवानों ने हिडमा के साथियों से प्रत्यक्ष युद्ध में बलिदान नहीं दिया है, उन्होंने हमारे-आपके आस-पास मौजूद इन नामी-गिरामी हस्तियों से चल रहे परोक्ष युद्ध में बलिदान दिया है।"
यह एक जाना माना तथ्य है कि एक ऐसी व्यवस्था में, जैसी व्यवस्था में हम रह रहे हैं, एक ऐसी फासिस्ट सत्ता काबिज है जो किसी भी तरह की बौद्धिकता से आम देशवासी को दूर रखना चाहती है। उसे एन 5 राज्यों के चुनाव के समय इस घटना ने एक बड़ा अवसर दे दिया है। पूंजीवाद मात्र एक शासन की व्यवस्था नहीं है, वह एक जीवन शैली भी है और वह पैदा होने के साथ ही मनुष्य को अपने साँचे में ढालना शुरू कर देती है। यही कारण है कि उससे घृणा करने वाले ही उसे जीवन रस भी देते रहते हैं। इसे हथियार से नहीं जन-आंदोलनों से ही बदला जा सकता है।
माओवादियों को सोचना होगा कि उनकी इन सभी गतिविधियों से आखिर किसकी मदद होती है? आज इस देश के अमन पसंद लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या एक ऐसी सत्ता से छुटकारे पाने की है, जिसने इस देश की सदियों पुरानी सहिष्णुता और भाईचारे को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है| जो, खुले आम, आम जनता के खिलाफ पूंजीपतियों के पक्ष में तनकर खड़ी है और जिसने अपना एकमात्र कार्य केवल किसी भी प्रकार से विरोधियों को समाप्त करके देश में फासीवाद को स्थापित करना घोषित करके रखा है| उस समय माओवादियों के ये आक्रमण अंतत: उसी सत्ता की मदद करने वाले हैं जिससे छुटकारा पाने की जद्दोजहद में इस देश के शांतिप्रेमी लोग लगे हैं|
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
बात दूकानों में लगे बोर्ड से शुरू हुई थी इसलिए वहीं ख़त्म की जाए। ‘एक मात्र दूकान’ होने का दावा उनका थोथा दावा होता है क्योंकि वैसी दूकानें और भी होती हैं। ऐसा लिखने के पीछे आशय यह होता है कि ग्राहक इधर-उधर न देखे, सीधे उनकी दूकान में घुस जाए और अपनी जेब ढीली कर दे।
पूरे देश में भ्रमण के दौरान मैंने दूकानों में लगे विज्ञापन बोर्डों पर अक्सर यह लिखा पाया, ‘...मिलने का एकमात्र स्थान।’
यद्यपि वह सामान आसपास की अनेक दूकानों में उपलब्ध रहता है लेकिन हर किसी का दावा होता है कि कथित सामान का एक मात्र विक्रेता वही है।
दावा करना हमारी आदत में शामिल है। जो भी हम कहते हैं वो दावे के साथ कहते हैं। दावा करने का अर्थ है, अपनी बात की सत्यता को स्थापित करना और अपनी बात पर टिके रहना।
बच्चे के जन्म से दावा करना आरम्भ होता है। बच्चे के पिता का दावा होता है कि बच्चा ‘उसका’ है जबकि असलियत केवल बच्चे की मां जानती है। बच्चे को देखकर अनुमान लगाया जाता है कि वह किस पर गया है? यदि मां सामने होगी तो वह मां पर गया होता है और यदि बाप सामने होता है तो वह बाप पर गया, ऐसा दावा किया जाता है। जब दोनों सामने हों तो चतुर लोग चुप्पी साध लेते हैं कि कौन झंझट में पड़े।
इसके बाद बच्चा बड़ा होता है। यदि शांत स्वभाव का है तो दोनों खुद को ‘क्रेडिट’ देते हैं और अगर उद्दंड होता है तो मां पिता को श्रेय देती है वहीँ पर पिता मां को। यह सिलसिला बच्चे के गुण-अवगुण के आधार पर निरंतर चलता रहता है। दोनों एक-दूसरे पर मजबूती से अपने दावे प्रस्तुत करते हैं और बहस चलती रहती है।
यह दावों का खेल पति-पत्नी के बीच भी चलते रहता है। पत्नी का दावा रहता है कि पूरे परिवार का भार वह उठा रही है जबकि पति को यह ग़लतफ़हमी रहती है कि भार उसके मत्थे पर है। सही बात तो यह है कि दोनों मिलकर इस भार को उठाते हैं लेकिन जब दोनों के बीच किसी वज़ह से बहस छिड़ जाती है तो दोनों एक-दूसरे को नाचीज़ सिद्ध करने में आमादा हो जाते हैं। पत्नी का दावा होता है कि दिन भर घर में वह रहती है, बच्चों की देखरेख करती है, तीन समय का भोजन तैयार करती है लेकिन पति क्या करता है? उसे बच्चों से कोई मतलब नहीं, उसे किचन से कोई लेना-देना नहीं, उसे घर से कोई सरोकार नहीं। गौर से देखा जाए तो पत्नी की दावों में दम है और पति इन दावों के सामने बेदम नजऱ आएगा।
इसी प्रकार की स्थिति राजनीतिक दलों में भी होती है। हर दल इस बात का दावा करता है कि वही देश को रास्ते में लाने में सक्षम है जबकि उनके सत्ता पर आसीन होते ही असलियत सामने आने लगती है। यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि इन दलों के नेताओं से खुद अपना घर नहीं संभलता जबकि ये इतने बड़े देश को सँभालने का दावा करते हैं। इन सबकी नजऱ में दूसरा अयोग्य है लेकिन अपनी अयोग्यता इन्हें नजऱ नहीं आती।
खैर, बात दूकानों में लगे बोर्ड से शुरू हुई थी इसलिए वहीं ख़त्म की जाए। ‘एक मात्र दूकान’ होने का दावा उनका थोथा दावा होता है क्योंकि वैसी दूकानें और भी होती हैं। ऐसा लिखने के पीछे आशय यह होता है कि ग्राहक इधर-उधर न देखे, सीधे उनकी दूकान में घुस जाए और अपनी जेब ढीली कर दे। बिल्कुल उसी प्रकार, जिस प्रकार से घर में पति आत्मसमर्पण करते हैं, मतदाता अपना वोट देकर मूर्ख बनते हैं और ग्राहक कथित दूकानदार से सामान खरीदने के बाद अपना सिर धुनते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
छत्तीसगढ़ के टेकलगुड़ा के जंगलों में 22 जवान मारे गए और दर्जनों घायल हुए। माना जा रहा है कि इस मुठभेड़ में लगभग 20 नक्सली भी मारे गए। यह नक्सलवादी आंदोलन बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से 1967 में शुरु हुआ था। इसके आदि प्रवर्तक चारु मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी जैसे नौजवान थे। ये कम्युनिस्ट थे लेकिन माओवाद को इन्होंने अपना धर्म बना लिया था। मार्क्स के ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ के आखिरी पेराग्राफ इनका वेदवाक्य बन गया है।ये सशस्त्र क्रांति के द्वारा सत्ता-पलट में विश्वास करते हैं। इसीलिए पहले बंगाल, फिर आंध्र व ओडिशा और फिर झारखंड और मप्र के जंगलों में छिपकर ये हमले बोलते रहे हैं और कुछ जिलों में ये अपनी समानांतर सरकार चलाते हैं। इस समय छत्तीसगढ़ के 14 जिलों में और देश के लगभग 50 अन्य जिलों में इनका दबदबा है। ये वहां छापामारों को हथियार और प्रशिक्षण देते हैं और लोगों से पैसा भी उगाहते रहते हैं।
ये नक्सलवादी छापामार सरकारी भवनों, बसों और नागरिकों पर सीधे हमले भी बोलते रहते हैं। जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को भडक़ा कर ये उनकी सहानुभूति अर्जित कर लेते हैं और उन्हें सब्जबाग दिखा कर अपने गिरोहों में शामिल कर लेते हैं।
ये गिरोह इन जंगलों में कोई भी निर्माण-कार्य नहीं चलने देते हैं और आतंकवादियों की तरह हमले बोलते रहते हैं। पहले तो बंगाली, तेलुगु और ओडिय़ा नक्सली बस्तर में डेरा जमाकर खून की होलियां खेलते थे लेकिन अब स्थानीय आदिवासी जैसे हिडमा और सुजाता जैसे लोगों ने उनकी कमान संभाल ली है।केंद्रीय पुलिस बल आदि की दिक्कत यह है कि एक तो उनको पर्याप्त जासूसी सूचनाएं नहीं मिलतीं और वे बीहड़ जंगलों में भटक जाते हैं। उनमें से एक जंगल का नाम ही है—अबूझमाड़। इसी भटकाव के कारण इस बार सैकड़ों पुलिसवालों को घेर कर नक्सलियों ने उन पर जानलेवा हमला बोल दिया। 2013 में इन्हीं नक्सलियों ने कई कांग्रेसी नेताओं समेत 32 लोगों को मार डाला था।
ऐसा नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने अपनी आंख मींच रखी है। 2009 में 2258 नक्सली हिंसा की वारदात हुई थी लेकिन 2020 में 665 ही हुईं। 2009 में 1005 लोग मारे गए थे जबकि 2020 में 183 लोग मारे गए। आंध्र, बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना के जंगलों से नक्सलियों के सफाए का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि वहां की सरकारों ने उनके जंगलों में सडक़ें, पुल, नहरें, तालाब, स्कूल और अस्पताल आदि बनवा दिए हैं।बस्तर में इनकी काफी कमी है। पुलिस और सरकारी कर्मचारी बस्तर के अंदरुनी इलाकों में पहुंच ही नहीं पाते। केंद्र सरकार चाहे तो युद्ध-स्तर पर छत्तीसगढ़-सरकार से सहयोग करके नक्सल-समस्या को महिने-भर में जड़ से उखाड़ सकती है। यह भी जरुरी है कि अनेक समाजसेवी संस्थाओं को सरकार आदिवासी क्षेत्रों में सेवा-कार्य के लिए प्रेरित करे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
जैसा कि कहा था वही हो रहा है वैक्सीन लगवाना ऐच्छिक नही अनिवार्य ही बनाया जा रहा है। कल इंदौर कलेक्टर ने आदेश दिया है सरकारी दफ्तर में जाने वाले 45 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को अपने साथ वैक्सीनेशन का सर्टिफिकेट लाना अनिवार्य होगा। तभी उन्हें सरकारी दफ्तरों में एंट्री मिलेगी। इंदौर में सरकार कर्मचारियों को वैक्सीन लगवाना जरूरी है, अगर किसी सरकारी कर्मचारी ने वैक्सीन नहीं लगवाई तो उसे सरकारी दफ्तर में आने की अनुमति नहीं रहेगी।
बिहार सरकार ने पुलिस कर्मियों के लिए कोरोना वैक्सीन लेना लेना अनिवार्य कर दिया गया है। कोरोना को टीका नहीं लेने वाले पुलिस कर्मियों के वेतन पर रोक लगा दी जाएगी। बिहार में सरकार ने जिला शिक्षा अधिकारियों को निर्देश दिया है कि बिहार में सभी शिक्षकों का भी कोरोना टीकाकरण किया जाये कुछ जिलों में तो यह आदेश निकाल दिए गए हैं कि अगर किसी दुकानदार के पास भीड़ अधिक है और उसने कोरोना की वैक्सीन नहीं ली है, तो उस पर कार्रवाई की जाए इसके साथ ही दुकानदार से जुर्माना वसूला जायेगा।
छत्तीसगढ़ सरकार ने तो वैक्सीन नहीं तो पेंशन नहीं तक की मुनादी करवाना शुरू करवा दी है यह मुनादी होते ही लाताकोडो ग्राम पंचायत के अपात्र ग्रामीण भी वैक्सीन लगवाने के लिए पिकअप वाहन में बैठकर ब्लॉक मुख्यालय पहुंच गए।
सूरत शहर ने तो ओर कमाल किया है बिना वैक्सीन लिए मार्केट में प्रवेश नहीं करने का फरमान भी जारी कर दिया है।मनपा ने कहा है कि टेक्सटाइल, डायमंड यूनिट, हीरा बाजार, कॉमर्शियल शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, मॉल में कार्यरत वे सभी लोग जो 45 साल से अधिक उम्र के हाईरिस्क में आते हैं अगर उन्होंने वैक्सीन नहीं ली हो और 45 साल से कम उम्र के लोग आरटीपीसीआर या रैपिड टेस्ट की निगेटिव रिपोर्ट नहीं लेकर आए तो उन्हें प्रवेश नहीं दिया जाएगा।
सूरत में सारे नियमो को धता बताए हुए 45 साल से कम उम्र वालो को भी वैक्सीन लगाई जा रही है।
मुंबई के माल्स में तभी प्रवेश मिलेगा जब आप वैक्सीनेशिन का सर्टिफिकेट गेट पर प्रस्तुत कर पाएंगे। यानी कुछ ही दिनों में न सिर्फ एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन बल्कि हर छोटी छोटी जगहों पर वेक्सीन सर्टिफिकेट मांगा जाएगा। जो नहीं लगवाएगा उसे समाज का दुश्मन बता कर कठघरे में खड़ा कर दिया जाएगा।
मात्र एक ही महीने में लोग भी अब इस सबके लिए मेंटली प्रिपेयर हो गये है कि हां यह सही कदम है ! ऐसा ही होना चाहिए। उन्हें इसमें कोई गलती नजर नहीं आ रही है।
हम जानते हैं कि वैक्सीन लगवा चुके लोगो के पास यह वैक्सीन सर्टिफिकेट डिजिटल फॉर्म में रहता है उनके स्मार्ट फोन में सेव है। कल को इन्ही लोगो को यदि कहा जाए कि देखिए स्मार्टफोन के साथ रिस्क है कभी आप इसे लाना ही भूल जाए या इसकी बैटरी लो हो जाए तो आप क्या करेंगे ? ऐसा करते हैं कि आपकी हथेली के पीछे हम एक RFID चिप इम्प्लांट कर देते हैं जिसमें वैक्सीनेशिन के सारी जानकारी सेव रहेंगी तो लोग इसके लिए खुशी-खुशी तैयार हो जाएंगे।
यानी ये तो वही हुआ न जिसके बारे में हम जैसे कई लोग आपको साल भर से बता रहें कि यह एक तरह आईडी 2020 योजना को लागू किया जा रहा है यह घटते हुए हम देख रहे हैं तब भी हम जैसे लोग जो आपको इसके बारे में चेतावनी दे रहे थे उन्हें कांस्पिरेसी थ्योरिस्ट बोला जा रहा हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चुनावों के दौरान सत्तारुढ़ और विपक्षी दलों के बीच भयंकर कटुता का माहौल तो अक्सर हो ही जाता है लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में हमारी राजनीति का स्तर काफी नीचे गिरता नजर आ रहा है। केंद्र सरकार के आयकर-विभाग ने तृणमूल कांग्रेस के नेताओं पर छापे मार दिए हैं और उनमें से कुछ को गिरफ्तार भी कर लिया है। तृणमूल के ये नेतागण शारदा घोटाले में पहले ही कुख्यात हो चुके थे। इन पर मुकदमे भी चल रहे हैं और इन्हें पार्टी-निकाला भी दे दिया गया था लेकिन चुनावों के दौरान इनको लेकर खबरें उछलवाने का उद्देश्य क्या है ? क्या यह नहीं कि अपने विरोधियों को जैस-तैसे भी बदनाम करवाकर चुनाव में हरवाना है ? यह पैंतरा सिर्फ बंगाल में ही नहीं मारा जा रहा है, कई अन्य प्रदेशों में भी इसे आजमाया गया है। अपने विरोधियों को तंग और बदनाम करने के लिए सीबीआई और आयकर विभाग को डटा दिया जाता है। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे की पत्नी रुचिरा बेनर्जी और उनके दूसरे कुछ रिश्तेदारों से एक कोयला-घोटाले के बारे में पूछताछ चल रही है और चिट-फंड के मामले में दो अन्य मंत्रियों के नाम बार-बार प्रचारित किए जा रहे हैं। इन लोगों ने यदि गैर-कानूनी काम किए हैं और भ्रष्टाचार किया है तो इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई जरुर की जानी चाहिए लेकिन चुनाव के दौरान की गई सही कार्रवाई के पीछे भी दुराशय ही दिखाई पड़ता है।
इस दुराशय को पुष्ट करने के लिए विपक्षी दल अन्य कई उदाहरण भी पेश करते हैं। जैसे जब 2018 में आंध्र में चुनाव हो रहे थे, तब टीडीपी के सांसद वाय.एस. चौधरी के यहां छापे मारे गए। अगले चुनाव में चौधरी भाजपा में आ गए। कर्नाटक के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता शिवकुमार के यहां भी 2017 में दर्जनों छापे मारे गए। उन दिनों वे अहमद पटेल को राज्यसभा चुनाव में जिताने के लिए गुजराती विधायकों की मेहमाननवाजी कर रहे थे। पिछले दिनों जब राजस्थान की कांग्रेस संकटग्रस्त हो गई थीं, केंद्र सरकार ने कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलौत के भाई और मित्रों पर छापे मार दिए थे। लगभग यही रंग-ढंग हम केरल के कम्युनिस्ट और कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ इन चुनावों में देख रहे हैं। कई तमिल नेता और उनके रिश्तेदारों को सरकारी एजेंसिया तंग कर रही हैं। द्रमुक पार्टी ने भाजपा पर खुलकर आरोप भी लगाया है कि वह अपने गठबंधन को मदद करने के लिए यह सब हथकंडे अपना रही है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान मप्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलनाथ के रिश्तेदारों को भी इसी तरह तंग किया गया था। 2018 में प्रादेशिक चुनावों के पहले कांग्रेसी नेता भूपेश बघेल (आजकल मुख्यमंत्री) को भी एक मामले में फंसाने की कोशिश हुई थी। इस तरह के आरोप अन्य प्रदेशों के कई विरोधी नेताओं ने भी लगाए हैं। चुनाव के दौरान की गई ऐसी कार्रवाइयों से आम जनता पर क्या अच्छा असर पड़ता है ? शायद नहीं। गलत मौके पर की गई सही कार्रवाई का असर भी उल्टा ही हो जाता है। (नया इंडिया की अनुमति से)