विचार/लेख
-सुसंस्कृति परिहार
दिल्ली सरकार की घर-घर राशन योजना पर जिस तरह कहर बरपा उसकी हकीकत सामने आने लगी है। केन्द्र सरकार की मंशा के अनुरूप सुको का गत दिवस आया फैसला यह बताता है कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकार यानि उसके मुख्यमंत्री और मंत्रियों के बहुत से अधिकार छीनकर उपराज्यपाल को दिए जाने वाले हैं। अभी तक तो व्यवस्थापिका को महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा है। राष्ट्रपति तक को केन्द्रीय केबीनेट की कठपुतली की संज्ञा दी जाती थी।यह अधिकार छीनने की कोशिश ना केवल दिल्लीवासियों की हार होगी बल्कि तमाम केन्द्र शासित राज्यों के लिए खुली चुनौती होगी।
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के अधिकार क्षेत्र को लेकर फैसला सुनाया है, जिसमें भ्रष्टाचार रोधी शाखा और जांच कमीशन को केंद्र सरकार के अधीन रखा गया है जबकि बिजली एवं राजस्व विभाग को दिल्ली सरकार के अधीन रखा गया है. सेवाओं के मामले में दोनों जजों में मतभेद के चलते इसे तीन जजों की पीठ के समक्ष भेजा गया है.दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल (एलजी) मामले में जस्टिस एके सीकरी की अगुवाई वाली दो सदस्यीय पीठ ने फैसला सुनाया हैं, जिसमें भ्रष्टाचार रोधी शाखा (एसीबी) को केंद्र सरकार के अधीन रखा गया है जबकि बिजली एवं राजस्व विभाग को दिल्ली सरकार के अधीन रखा गया है.गृह मंत्रालय ने 21 मई 2015 को एक नोटिफिकेशन जारी किया था, जिसमें सर्विसेज़, सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और ज़मीन से जुड़े मामलों को उपराज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में रखा गया था। इसमें ब्यूरोक्रेट के सर्विस से संबंधित मामले भी शामिल थे। इसे दिल्ली सरकार ने पहले उच्च न्यायालय में और बाद में सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी।
विवाद की शुरुआत तब हुई थी जब केंद्र सरकार ने 23 जुलाई, 2014 को भी एक नोटिफिकेशन जारी किया था, जिसके तहत दिल्ली सरकार की कार्यकारी शक्तियों को सीमित कर दिया गया था और दिल्ली सरकार के ACB का अधिकार क्षेत्र दिल्ली सरकार के अधिकारियों तक सीमित किया गया था। इसके जाँच दायरे से केंद्र सरकार के अधिकारियों को बाहर कर दिया गया था। इस नोटिफिकेशन को दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी जिसे खारिज कर दिया गया था।
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली सरकार की ओर से मामले को उठाते हुए कहा गया कि सर्विसेज़ तथा ACB जैसे मामलों में गतिरोध कायम है और इन मुद्दों पर सुनवाई की जरूरत है।पिछले वर्ष जून में सुप्रीम कोर्ट की 5 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने फैसला दिया था कि ज़मीन, सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस से संबंधित मामलों को छोड़कर दिल्ली सरकार के फैसलों में उपराज्यपाल की सहमति की आवश्यकता नहीं होगी। लेकिन इस फैसले में सेवाओं (Services) और अन्य मुद्दों को लेकर कुछ नहीं कहा गया था। इसके लिये दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी।केंद्र सरकार की ओर से दलील दी गई थी कि उपराज्यपाल को केंद्र से अधिकार मिले हुए हैं।सिविल सर्विसेज़ का मामला उपराज्यपाल के हाथ में है क्योंकि यह अधिकार राष्ट्रपति ने उपराज्यपाल को दिया है। इसलिये मुख्य सचिव की नियुक्ति आदि का मामला उपराज्यपाल ही तय करेंगे।दिल्ली के उपराज्यपाल की पावर अन्य राज्यों के राज्यपाल के अधिकार से अलग है।संविधान के तहत दिल्ली के उपराज्यपाल को विशेषाधिकार मिला हुआ है।विधानसभा होने का यह अर्थ नहीं है कि दिल्ली एक राज्य है और उसे अन्य राज्यों की तरह अधिकार प्राप्त हैं।दिल्ली पूर्णतया केंद्र द्वारा शासित प्रदेश है और अंतिम अधिकार केंद्र के ज़रिये राष्ट्रपति के पास है।
जबकि दिल्ली सरकार ने अपने पक्ष में कहा कि चुनी हुई सरकार के पास अधिकार होना ज़रूरी है।उपराज्यपाल को कैबिनेट की सलाह पर काम करना चाहिये।संविधान के अनुच्छेद 239AA के तहत चुनी हुई सरकार होती है, जो जनता के प्रति जवाबदेह होती है।ज़मीन, सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस के अलावा राज्य और समवर्ती सूची में शामिल मामलों में दिल्ली विधानसभा को कानून बनाने का अधिकार है।जैसे ही जॉइंट कैडर के अधिकारी की पोस्टिंग दिल्ली में होती है, वह दिल्ली प्रशासन के तहत आ जाता है।ACB को भी दिल्ली सरकार के दायरे में होना चाहिए क्योंकि आपराधिक दंड संहिता में ऐसा प्रावधान है।पिछले साल 4 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की संवैधानिक पीठ ने संविधान के अनुच्छेद-239AA की व्याख्या की थी, जिसमें उसने कहा था कि दिल्ली में उपराज्यपाल दिल्ली सरकार की मंत्री परिषद की सलाह से काम करेंगे, यदि कोई अपवाद है तो वह मामले को राष्ट्रपति को रेफर कर सकते हैं और जो फैसला राष्ट्रपति लेंगे, उस पर अमल करेंगे।उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों के बंटवारे को लेकर लंबे समय से चला आ रहा गतिरोध लगता है अभी पूरी तरह से खत्म नहीं होने वाला। सेवाओं को लेकर पीठ में मतैक्य नहीं होने की वज़ह से खंडित फैसला आया, इसीलिये अब यह मामला तीन जजों वाली खंडपीठ देखेगी।जब तक पूरा फैसला नहीं आता टकराव बरकरार रहेगा। तब तक मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल उपराज्यपाल की कठपुतली बन कर ही काम करेंगे। आखिरकार दिल्ली केंद्र शासित राज्य की सजा भोगेगा ही ।अन्य केन्द्र शासित राज्यों को इस मुद्दे पर विचार करना आवश्यक है वरना जनता भी अपना वजूद खो देगी।
-सत्येंद्र रंजन
वर्षों से खाली पड़े पदों पर एक बार भर्ती कर लेना समस्या का समाधान नहीं है। दरअसल, इसीलिए नौकरियां देने का वादों पर सवाल लगातार कायम रहे हैं। अत: कांग्रेस और अन्य पार्टियां अगर अपने ऐसे वादों को विश्वसनीय बनाना चाहती हैं, तो इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है कि वे उन नौकरियों की अर्थव्यवस्था भी बताएं। ये अर्थव्यवस्था निम्नलिखित बिंदुओं को शामिल करते हुए बन सकती है।
कांग्रेस ने असम में चुनाव जीतने पर पांच लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने का वादा किया है। इस वादे का क्या असर होगा, यह चुनाव नतीजे के एलान के बाद ही पता चलेगा। लेकिन पांच महीने पहले बिहार में हुए विधानसभा चुनाव के अनुभव पर गौर करें, तो वहां राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव का ऐसा वादा काफी हद तक कारगर रहा था। तेजस्वी यादव का वादा था कि अगर उनकी पार्टी की सरकार बनी, तो वे बतौर मुख्यमंत्री जिस पहले फैसले पर दस्तखत करेंगे, वह दस लाख नौजवानों को सरकारी नौकरी देने का होगा। इस वादे का जबरदस्त असर हुआ। जिस चुनाव को शुरुआत में बीजेपी- जेडी (यू) के पक्ष में एकतरफा समझा जा रहा था, उसे तेजस्वी यादव के इस वादे ने कांटे की टक्कर का बना दिया। तेजस्वी यादव की सभाओं में नौजवानों की उमड़ती भीड़ ने इस बात की तस्दीक की थी कि आज नौकरी के वायदे की कितनी अहमियत है।
देश में रोजगार का सवाल-या कहें बेरोजगारी की समस्या-अति गंभीर रूप में है। ताजा अनुमानों के मुताबिक युवा बेरोजगारी की दर 20 फीसदी से अधिक हो चुकी है। हालात पहले से भी बेहतर नहीं थे, लेकिन कोरोना महामारी के दौरान अनियोजित लॉकडाउन के फैसले ने हालत को बेहद डरावना बना दिया है। वैसे में नौकरी देने के राजनीतिक वादे से खास कर युवा मतदाता अगर किसी पार्टी या नेता की तरफ आकर्षित होते हों, तो यह स्वाभाविक ही है। असल में 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की बड़ी जीत के पीछे भी एक बड़ा कारण प्रधानमंत्री पद के तत्कालीन उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का हर साल दो करोड़ नौकरी देने का वादा था। लेकिन मोदी और तेजस्वी यादव और अब राहुल गांधी के वादे में एक महत्त्वपूर्ण फर्क है। मोदी ने नौकरी के प्रकार को अस्पष्ट रखा था। जबकि आरजेडी और कांग्रेस ने सरकारी नौकरी का स्पष्ट उल्लेख किया है। इसलिए ये बहस का विषय है कि ऐसी नौकरी के वादे के जरिए बेरोजगारों को लुभाने की आरजेडी और कांग्रेस की रणनीति में कितना दम है? क्या इस वादे के पीछे उनकी कोई सुविचारित- विस्तृत योजना है, या फिर उन्होंने महज ‘चुनावी वादे’ के बतौर इसे अपने चुनाव घोषणापत्र में शामिल कर दिया है?
इससे पहले कि बात आगे बढ़ाई जाए, आज के मीडिया माहौल को देखते हुए यहां एक स्पष्टीकरण जरूरी है। आज का मीडिया माहौल सत्ताधारी दल का अंध-समर्थन और विपक्ष की पल-पल और कदम-दर-कदम पड़ताल करने का है। चूंकि हम यहां सवाल कांग्रेस और आरजेडी से कर रहे हैं, तो इसे भी उसी माहौल का हिस्सा समझा जा सकता है, क्योंकि इस लेख में बीजेपी के वादों की पड़ताल नहीं है। लेकिन ऐसा करने के पीछे ये समझ है कि बीजेपी के रोजगार या विकास के वायदे असल में पड़ताल करने योग्य नहीं हैं। अब यह साफ हो चुका कि उनके पीछे कोई सुविचारित योजना नहीं है। साथ ही अब ये पार्टी अपने राजनीतिक बहुमत के लिए ऐसे वादों पर निर्भर भी नहीं है। उसका प्रमुख राजनीतिक हथियार सामाजिक पूर्वाग्रहों और द्वेष के आधार पर किया गया ध्रुवीकरण है। इसके जरिए बीजेपी परंपरागत सामाजिक वर्चस्वों को फिर से भारतीय समाज में मजबूत करने में फिलहाल कामयाब रही है। दरअसल, यह पार्टी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में और भारतीय संविधान के लागू होने के बाद हुई सामाजिक- आर्थिक प्रगति का निषेध है। इसलिए इससे सकारात्मक बहस की कोई गुंजाइश नहीं बचती। दरअसल, इस पार्टी का बुनियादी चरित्र आरंभ से ऐसा ही रहा है। इसलिए आर्थिक मुद्दों पर उससे संवाद करना अप्रसांगिक है।
कांग्रेस, आरजेडी या गैर भाजपा दूसरे दलों की प्रासंगिकता आर्थिक- सामाजिक प्रगति के लिए उनके योगदान के रिकॉर्ड पर रही है। इसलिए ऐसे दल जब कोई ध्यान खींचने वाला वादा करते हैं, तो उस वादे की जरूर पूरी पड़ताल की जानी चाहिए। फिलहाल, मुद्दा सरकारी नौकरियों के वादे का है। तो (असम में) कांग्रेस और (बिहार में) आरजेडी से यह अवश्य पूछा जाना चाहिए कि आखिर (चुनाव जीतने पर) कैबिनेट की पहली बैठक में नौकरियां देने के वादे से देश में लगातार भीषण हो रही बेरोजगारी की समस्या का समाधान कैसे निकलेगा? हम यहां यह मान कर चल रहे हैं कि तेजस्वी अगर जीत गए होते, तो दस लाख सरकारी नौकरियां देने की प्रक्रिया वे शुरू कर देते। या असम में अगर कांग्रेस जीती, तो उसकी सरकार पांच लाख सरकारी नौकरियां दे देगी। तेजस्वी ने कहा था कि गुजरे वर्षों के दौरान बिहार में दस लाख पद खाली हैं, जिन पर भर्ती नहीं हुई है। हम बिना ज्यादा पड़ताल किए मान लेते हैं कि असम में भी पांच लाख सरकारी पद खाली होंगे, जिन्हें भरने में कोई तकनीकी रुकावट नहीं है।
मगर इन दोनों वादों से यह साफ है कि नौकरियां देने का यह वन टाइम यानी एक बार का कदम होगा। लेकिन जो लोग इस संख्या से बाहर रह जाएंगे, कांग्रेस या आरजेडी के पास उनके लिए क्या योजना है? और फिर जिस देश में लगभग सवा करोड़ युवा हर साल श्रम बाजार में प्रवेश करते हों, वहां एक बार नौकरी दे देने के कदम से आखिर खुशहाली का सपना कैसे साकार हो सकता है? इसीलिए इस लेख का विषय यह है कि सरकारी नौकरियों के वादे का अर्थशास्त्र क्या है?
देश में आजादी के बाद ऐसा अर्थशास्त्र अपनाया गया था। उससे एक ऐसा आर्थिक ढांचा बना, जिससे एक बेहद गरीब देश में एक बड़ा मध्य वर्ग उभर पाया। इसके अलावा उस कारण गरीब और पिछड़े तबकों का जीवन स्तर भी पहले से ऊंचा उठाने में मदद मिली। योजनाबद्ध विकास और विकास नीति में पब्लिक सेक्टर को केंद्रीय भूमिका देना उस अर्थशास्त्र का सार था। बाकी उपलब्धियों को फिलहाल छोड़ दें, तो उस अर्थव्यवस्था का यह परिणाम ही कम चमत्कृत करने वाला नहीं है कि भारत में जीवन प्रत्याशा 1947 के लगभग 33 साल से बढ़ कर अब तक लगभग 70 साल के करीब पहुंच गई है। 1991 में सोवियत संघ के विखंडन के बाद नव-उदारवादी विचारधारा और उसके संचालकों की हुई फौरी जीत के बाद भारत ने भी उपरोक्त अर्थव्यवस्था से अलग दिशा तय की थी। वो दिशा अपनी पराकाष्ठा पर 2014 में योजना आयोग को भंग किए जाने के साथ पहुंची। उसके बाद जिस तरह के सांप्रदायिक- क्रोनी राजनीतिक अर्थव्यवस्था (पॉलिटिकल इकॉनमी) देश पर हावी हुई है, वह हम सबके सामने है।
बहरहाल, 2008-09 की आर्थिक मंदी और कोरोना महामारी के बाद नव-उदारवाद के मुख्य गढ़ देशों में भी इस विचारधारा को न सिर्फ चुनौती मिली है, बल्कि अब वहां की सरकारें अपनी साख बरकरार रखने के लिए उस नुस्खे का खुद उल्लंघन कर रही हैं, जिसे उन्होंने दुनिया भर पर थोपा था। उसकी सबसे ताजा मिसाल जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में 1.9 ट्रिलियन का दिया गया कोरोना राहत पैकेज है। जिन देशों में राजकोषीय अनुशासन बरकरार रखने के लिए किफायत (ऑस्टेरिटी) की नीति राजनीतिक दायरे में सर्वमान्य थी, वहां कर्ज लेकर राहत और जन कल्याण के कार्यों पर खरबों डॉलर खर्च करने का नया ट्रेंड पुरानी नीतियों की सीमा को साफ कर गया है।
दरअसल, इस बात की समझ की कुछ झलक कांग्रेस नेताओं ने भी हाल में दिए हैं। एक अमेरिकन यूनिवर्सिटी के शिक्षकों और छात्रों के साथ संवाद में राहुल गांधी ने ये दो टूक कहा था कि 1990 के दशक में जो नीति कारगर हुई, वह अब नहीं होगी। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने हाल में एक अंग्रेजी अखबार में अपने कॉलम में लिखा- ‘कोई विचारधारा बिना बदले नहीं रहती। गुजरे वर्षों में कांग्रेस ने स्वतंत्रता हासिल करने का संकल्प लिया, रूढि़वादी और प्रगतिशील तत्वों को समाहित किया, वामपंथ की तरफ झुकी, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को अपनाया, फिर मध्य मार्ग की तरफ लौटी, बाजार अर्थव्यवस्था की समर्थक बनी, वेल्फेयरिज्म (कल्याणकारी नीतियों) को गले लगाया और अब अपनी आर्थिक और सामाजिक नीतियों को फिर से परिभाषित करने की कोशिश कर रही है, ताकि वह बीजेपी से अलग दिख सके।’ इन दोनों बयानों में कॉमन बात यह है कि 1990 के दशक के बाद की नीतियों को अपर्याप्त माना गया है, लेकिन अब कैसी नीति चलेगी, इसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। और चूंकि कांग्रेस में अभी ये स्पष्टता नहीं है, तो पूरे विपक्ष (वामपंथी पार्टियों को छोड़ कर) के दायरे में ऐसा नहीं है, यह सहजता से मान कर चला जा सकता है। (बाकी पेज 7 पर)
इसकी वजह यह है कि गुजरे सौ साल में भारत में आर्थिक दिशा पर मंथन मोटे तौर पर सिर्फ कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के भीतर हुआ है। बाकी पार्टियां अपने अलग तर्क और प्रासंगिकता के साथ उभरीं और सफल हुईं। जब आजादी के बाद कांग्रेस ने ‘विकास के समाजवादी ढर्रे’ की नीति को स्वीकार किया,
तो बाकी सभी पार्टियों ने उस ढर्रे को स्वीकार कर लिया। अपवाद सिर्फ बीजेपी रही, जिसके पास हालांकि कभी कोई अपनी खास आर्थिक नीति नहीं रही, लेकिन जो अपने आधुनिकता और नेहरू द्रोह के कारण हर उस चीज की विरोध रही, जिनसे नेहरू और कांग्रेस का नाम जुड़ा था। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण योजनाबद्ध विकास और पब्लिक सेक्टर से बीजेपी का विरोध-भाव स्वाभाविक है। इन दोनों को अंतिम रूप से नष्ट करने में पिछले लगभग सात साल में वह काफी कामयाब रही है।
बहरहाल, जब कांग्रेस या कोई अन्य बीजेपी विरोधी पार्टी नौकरी, रोजगार, विकास आदि की बात करती है, तो ये स्वाभाविक सवाल उठता है कि अब अपनी नई सोच में (अगर दिशा में उनकी कोई कोशिश है तो) वे योजनाबद्ध विकास और पब्लिक सेक्टर की क्या और कैसी भूमिका देखती हैं? कोरोना महामारी के बाद जो दुनिया भर में जो अनुभव दिखा, उसने इन दोनों पहलुओं की प्रासंगिकता फिर से जाहिर कर दी है। चीन, वियतनाम और क्यूबा अगर महामारी के मुकाबले में चमकते हुए नाम हैं, तो उन तीनों में सामान्य बात यही दो पहलू हैं। दूसरी ओर मानव इतिहास के सबसे धनी देश अमेरिका और समृद्ध यूरोपीय देशों में जो तबाही मची, उसके पीछे यही कारण समझा गया है कि धीरे- धीरे सरकारी सेवाओं का निजीकरण करती गई सरकारों के पास आपात स्थिति को संभालने के लिए हाथ-पांव ही नहीं बचे हैं। उन देशों में समृद्धि की चमक के भीतर बढ़ी गैर-बराबरी और आम जीवन स्तर में आई गिरावट को भी महामारी के अनुभव ने खोल कर सामने रख दिया है। भारत भी इस कहानी से अलग नहीं है। इसलिए किसी नई सोच में इन दो पहलुओं की अनदेखी अगर की जा रही हो, तो उसकी सफलता आरंभ से संदिग्ध रहेगी, ये बात आज लगभग पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है। इस सिलसिले में ये तथ्य भी उल्लेखनीय है कि पूर्व यूपीए सरकार ने वेलफेयरिज्म की जो नीति अपनाई थी, उसकी अपनी उपलब्धियां जरूर थीं, लेकिन उसके पीछे के तर्क उसी दौर में कमजोर पडऩे लगे थे। जब जॉबलेस ग्रोथ (जीडीपी की ऐसी ऊंची विकास दर जिससे रोजगार पैदा ना हो रहे हों) की बात आंकड़ों से सिद्ध हो गई, तब ये सवाल उठा था कि आखिर मनरेगा या खाद्य सुरक्षा जैसे कार्यक्रमों से कितनी खुशहाली हासिल की जा सकती है? 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस ने न्यूनतम आय (न्याय) योजना का जो वादा किया था, वह भी असल में वेल्फेरिजम की पुरानी नीति से निकला था। लेकिन रोजगार से जो आत्म-गरिमा का भाव आता है, उसके साथ एक आत्म-विश्वास से भरे समाज की रचना करने के लिहाज से यह नीति अपर्याप्त है।
तो यह साफ है कि सरकारी नौकरियां तभी दी जा सकती हैं, जब सरकारी क्षेत्र में नई- नई नौकरियों के अवसर बनें। वर्षों से खाली पड़े पदों पर एक बार भर्ती कर लेना समस्या का समाधान नहीं है। दरअसल, इसीलिए नौकरियां देने का वादों पर सवाल लगातार कायम रहे हैं। अत: कांग्रेस और अन्य पार्टियां अगर अपने ऐसे वादों को विश्वसनीय बनाना चाहती हैं, तो इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है कि वे उन नौकरियों की अर्थव्यवस्था भी बताएं। ये अर्थव्यवस्था निम्नलिखित बिंदुओं को शामिल करते हुए बन सकती है:
योजना बनाने और अर्थव्यवस्था को निर्देशित करने की राज्य की सत्ता को फिर से स्थापित करने का संकल्प।
बाजार को नियंत्रित करने के उपायों का ऐलान
पब्लिक सेक्टर को फिर से खड़ा करने की व्यापक योजना
शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक परिवहन और बैंकिंग को सरकार के हाथ में वापस लाने का संकल्प
पब्लिक सेक्टर के तहत ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास
आर्थिक गैर-बराबरी को घटाने और एकाधिकार (मोनोपॉली) को नियंत्रित करने की योजना।
धनी तबकों पर आय कर और कॉरपोरेट टैक्स को बढ़ाना-यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जिससे उपरोक्त योजनाओं के लिए संसाधन जुटाए जा सकते हैं।
वेल्थ टैक्स और उत्तराधिकार कर का प्रावधान। संसाधन जुटाने के लिए ये भी अहम कदम हैं।
अगर ये कदम सोशलिस्ट लगते हैं, तो कांग्रेस या बीजेपी की सोच से अलग भारत बनाने का इरादा रखने वाली पार्टियों को खुद से ये शब्द जोडऩे से हिचकना नहीं चाहिए। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि अगर वे उपरोक्त (या उससे बढिय़ा किसी योजना) के साथ सामने नहीं आती हैं, तो आम जन के पास नौकरियां देने के उनके वादे और 2014 के नरेंद्र मोदी के वादे में फर्क करने का कोई आधार नहीं होगा। ना ही उससे देश के लोगों के सामने ऐसा एजेंडा सामने आएगा, जिसके इर्द-गिर्द इक_ा होकर वे सांप्रदायिक-क्रोनी पॉलिटिकल इकॉनमी के खिलाफ संघर्ष के लिए उत्साहित हो सकें। (janchowk.com)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका यों तो अपने आप को दुनिया का सबसे अधिक सभ्य और प्रगतिशील राष्ट्र कहता है लेकिन यदि आप उसके पिछले 300-400 साल के इतिहास पर नजर डालें तो आपको समझ में आ जाएगा कि वहां इतनी अधिक हिंसा क्यों होती है। पिछले हफ्ते अटलांटा और कोलेरोडो में हुई सामूहिक हत्याओं के बाद राष्ट्रपति जो बाइडन ने ‘आक्रामक हथियारों’ पर तत्काल प्रतिबंध की मांग क्यों की है ? पिछले एक साल में 43500 लोग बंदूकी हमलों के शिकार हुए हैं।
हर साल अमेरिका में बंदूकबाजी के चलते हजारों निर्दोष, निहत्थे और अनजान लोगों की जान जाती है, क्योंकि वहां हर आदमी के हाथ में बंदूक होती है। अमेरिका में ऐसे घर ढूंढना मुश्किल है, जिनमें एक-दो बंदूकें न रखी हों। इस समय अमेरिका में लोगों के पास 40 करोड़ से ज्यादा बंदूकें हैं। बंदूकें भी ऐसी बनती हैं, जिन्हें पिस्तौल की तरह आप अपने जेकेट में छिपाकर घूम सकते हैं। बस, आपको किसी भी मुद्दे पर गुस्सा आने की देर है। जेकेट के बटन खोलिए और दनादन गोलियों की बरसात कर दीजिए।
अब से ढाई-सौ तीन-सौ साल पहले जब यूरोप के गोरे लोग अमेरिका के जंगलों में जाकर बसने लगे तब वहां के आदिवासियों ‘रेड-इंडियंस’ के साथ उनकी जानलेवा मुठभेड़ें होने लगीं। तभी से बंदूकबाजी अमेरिका का स्वभाव बन गया। अफ्रीका के काले लोगों के आगमन ने इस हिंसक प्रवृत्ति को और भी तूल दे दिया। अमेरिकी संविधान में 15 दिसंबर 1791 को द्वितीय संशोधन किया गया जिसने अमेरिकी सरकार को फौज रखने और नागरिकों को हथियार रखने का बुनियादी अधिकार दिया।
इस प्रावधान में 1994 में सुधार का प्रस्ताव जो बाइडन ने रखा। वे उस समय सिर्फ सीनेटर थे। क्लिंटन-काल में यह प्रावधान 10 साल तक चला। उस दौरान अमेरिका में बंदूकी हिंसा में काफी कमी आई थी। अब बाइडन ‘आक्रामक हथियारों’ पर दुबारा प्रतिबंध लगाना चाहते हैं और किसी भी हथियार खरीदने वाले की जांच-पड़ताल का कानून बनाना चाहते हैं।
आक्रामक हथियार उन बंदूकों को माना जाता है, जो स्वचालित होती हैं और जो 10 से ज्यादा गोलियां एक के बाद एक छोड़ सकती हैं। हथियार खरीदने वालों की जांच का अर्थ यह है कि कहीं वे पहले से पेशेवर अपराधी, मानसिक रोगी या हिंसक स्वभाव के लोग तो नहीं हैं ? बाइडन अब राष्ट्रपति हैं तो वह ऐसा कानून तो पास करवा ही लेंगे लेकिन कानून से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका के उपभोक्तावादी, असुरक्षाग्रस्त और हिंसक समाज को सभ्य और सुरक्षित कैसे बनाया जाए ? यह कानून से कम, संस्कार से ज्यादा होगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सुसंस्कृति परिहार
जब देश शहीदेआज़म भगत सिंह और राम मनोहर लोहिया को शिद्दत से याद कर रहा था।उसी महत्वपूर्ण दिन सडक़ से विधानसभा तक विशेष सशस्त्र बल पुलिस बिल 2021 के विरोध में बिहार विधानसभा में महागठबंधन के तमाम साथियों के विपक्ष ने विधानसभा अध्यक्ष को घेर लिया उन्हें सदन में आने नहीं दिया गया इससे डबल इंजन की सरकार के मुखिया को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने सशस्त्र पुलिस बल को ना केवल बुलाया बल्कि पुलिस अधीक्षक और कलेक्टर की मौजूदगी में विपक्षी विधायकों की लात घूसों से जमकर पिटाई कराई। यह बिहार के लोकतांत्रिक इतिहास में कलंक की तरह दर्ज हो गया। बिहार का वैशाली लोकतंत्र का जन्मदाता स्तब्ध देखता रह गया जब जनप्रतिनिधियों जिनमें महिलाएं भी शामिल थी बेज्जत की गईं। सदन से निकलते रक्तरंजित विधायक स्ट्रेचर पर नजर आए।
हालांकि बिहार में विपक्षी पार्टी आरजेडी लगातार नीतीश कुमार सरकार को अलग-अलग मामलों पर घेरती रही है। मंगलवार को आरजेडी ने बेरोजगारी, करप्शन, लॉ एंड ऑर्डर जैसी समस्याओं को लेकर विधानसभा घेराव का नाम देकर मार्च निकाला था। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ मार्च में शामिल हुए। पटना में कार्यकर्ता डाक बंगला चौराहा तक पहुंच गए। वहां जब पुलिस ने आगे बढऩे से रोका तो बैरिकेडिंग को तोडऩे का प्रयास किया गया। पुलिस ने वॉटर कैनन चलाए। भीड़ की तरफ से जमकर ईंट और पत्थर बरसाए गए। कई पुलिसवाले और पत्रकार भी घायल हो गए। इसके बाद पुलिस ने जबाब में लाठीचार्ज किया। आरजेडी कार्यकार्ताओं को जमकर पीटा गया। लाठीचार्ज में आरजेडी कार्यकर्ताओं और कई विधायकों को भी चोटें आईं। दो घंटों के मशक्कत के बाद पुलिस आरजेडी कार्यकर्ताओं को हटाने में सफल रही। सडक़ के बाद बिहार सदन में भी जबरदस्त हंगामा हुआ। विधानसभा में बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक 2021 बिल लाया गया था। इसके विरोध में आरजेडी विधायकों ने जमकर हंगामा किया। बिल की कॉपी फाडक़र विधानसभा अध्यक्ष के ऊपर फेंक दी। हंगामा थमता न देख सदन की कार्यवाही 2 बजे तक स्थगित कर दी गई। आरजेडी विधायक यहीं नहीं रूके। विधानसभा में रिपोर्टिंग टेबल को तोड़ डाला। कार्यवाही फिर रोकनी पड़ी। आरजेडी विधायकों ने उग्र तेवर दिखाते हुए विधानसभा अध्यक्ष को ही उनके चैंबर में एक तरह से बंधक बना लिया। विधानसभा अध्यक्ष 4 बजे से शुरू होने वाले कार्यवाही के लिए निकलना चाह रहे थे, लेकिन आरजेडी विधायक चैंबर के दरवाजे पर ही जाकर बैठ गए।
आरजेडी विधायक जब काफी कोशिशों के बावजूद नहीं माने तो विधानसभा में डीएम और एसपी को बुलाया गया। डीएम-एसपी ने भी उग्र विधायकों को समझाने की कोशिश की। विधायक अड़े रहे। बाद में बड़ी संख्या में पुलिस जवानों को सदन के भीतर बुलाया गया। पुलिस ने हंगामा कर रहे विधायकों को बाहर निकालने का काम किया। आरजेडी नेता राबड़ी देवी ने एक वीडियो ट्वीट करते हुए लिखा है, ‘पूर्व मंत्री हमारी महिला विधायक अनिता देवी जी को निर्लज्ज नीतीश कैसे घसीटवा रहे है। इसी क्रम में साड़ी भी खुल जाती है। तुमने आज ये जो चिंगारियाँ भडक़ाई है कल यही चिंगारियाँ तुम्हारे काले काल के काले सुशासन को जला कर भस्म कर देंगी। बिहार हिसाब करेगा और जल्द. कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने कहा प्रजातंत्र की हत्या हुई है। देशवासी अगर आज भी नहीं जागे तो प्रजातंत्र देश में नहीं बचेगा। गुंडागर्दी अब बीजेपी और जेडीयू का रास्ता बन गई है। बिहार के जहानाबाद में माले नेताओं ने विहार विधान सभा में हुए जमकार बवाल के खिलाफ धिक्कार मार्च निकाला। संसद के सभी नियमों, परंपराओं को ताक पर रखकर हथियारबंद पुलिस, एसपी-डीएम को सदन के अंदर बुलवाकर नीतीश सरकार ने विपक्षी विधायकों की जमकर पिटाई कराई। नीतीश सरकार ने लात-घूंसे से पीटते हुए सदन से बाहर करने, महिला विधायकों की साड़ी, बाल खींच कर पिटाई करते हुए सदन से बाहर फेंकवा कर लोकतंत्र का गला घोट दिया है।
मणिपुर के विशेष सुरक्षा सशस्त्र बल की कहानी बरबस याद आती है जब इस बल के द्वारा इम्फाल में 19 नौजवानों को सिर्फ भीड़ में होने के करण सशस्त्र बल ने गोलियों से भूंज डाला था जिसका प्रतिकार इरोम चानू शर्मिला ने कई साल सत्याग्रह कर भी नहीं इस कानून को हटवा पाईं। हां उसका मुख्यालय जरूर इम्फाल से बाहर किया गया। इसी तरह के अधिकार से लैस यदि बिहार सशस्त्र पुलिस बल हुआ तो बिहार का क्या होगा। जरूरी है उसके अधिकारों पर सरकार खुली बहस करे। विपक्ष को भी गंभीरता से सुने। हंगामा होना स्वाभाविक है पर जनता के प्रतिनिधियों के साथ हुए इस सलूक के लिए सरकार को माफी मांगनी चाहिए। वरना असंतोष बढऩा ही है। विपक्ष का लोकतांत्रिक अधिकार है कि उसके विचारों को सुना और समझा जाए। आज जनप्रतिनिधियों का ये हाल हुआ कल यदि ये बिल पास हो गया तो जनता का क्या हश्र होगा?
-रमेश अनुपम
विनोद कुमार शुक्ल के सम्पूर्ण लेखन में एक विशेष प्रकार का सम्मोहन है, एक तरह का जादू भी। अपने उपन्यास या कहानियों के माध्यम से विनोदजी जिस दुनिया को रचते हैं, वह लातिनी लेखक ग्रेबिएल गार्सिया मार्कवेज की तरह किसी जादुई यथार्थ की दुनिया से कम नहीं है।
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यथार्थ विनोदजी के यहां उस तरह से नहीं आता है जिस तरह से वह अन्य लेखकों के यहां दिखाई देता है, विनोदजी के गद्य में यह यथार्थ फैंटेसी के साथ घुल-मिलकर इस तरह से आता है कि पहचान कर पाना मुश्किल हो जाता है कि इसमें कितना यथार्थ है और कितनी कल्पना?
उनके यहां फैंटेसी का अपना एक अलग जादू है, जो जादू उनके किसी समकालीन हिंदी लेखक के यहां दुर्लभ है। विनोदजी के यहां फैंटेसी किसी बच्चे की चित्रकारी की तरह है जो रंगों से खेलते हुए अनायास ऐसा कुछ रच देता है कि हम अवाक रह जाते हैं।
विनोदजी के यहां जो चीजें मुझे सबसे अधिक चमत्कृत करती हैं वह है एक बच्चे जैसी कल्पना, जो मछलियों को आकाश में तैरा सकती हैं और चिडिय़ों को पानी के भीतर उड़ा सकती हैं। उनकी रचनाओं को गौर से देखेेेें तो उनकी रचनाओं में बच्चों जैसी एक जिद भी है, कि मैं जो कुछ भी कह रहा हूं, उस पर तुम्हें यकीन करना ही होगा।
उपन्यास या कहानी क्या है एक बच्चे की जिद ही तो है जिस पर बिना यकीन किए आपका प्रवेश वहां निषिद्ध है।
कभी-कभी लगता है विनोदजी अपनी रचनाओं में सुरबहार पर कोई पक्का शास्त्रीय राग बजा रहे हैं और अपने आरोह-अवरोह में, द्रुत और विलंबित में हमें डूब जाने के लिए विवश कर रहे हैं।
कभी लगता है गणेश पाईन या गुलाम शेख की अद्भुत पेंटिंग की तरह वे हमें अपने रंगों और रेखाओं के साथ एकाकार कर देने की कोई जादुई कोशिश कर रहे हैं या कभी ऋत्विक घटक या अपर्णा सेन की फिल्मों की तरह किसी अलौकिक दृश्य या ध्वनियों की किसी ऐसी दुनिया में ले जा रहे हैं, जिसे हमने इस से पहले कभी इस तरह से देखा और सुना ही नहीं था।
विनोदजी का संपूर्ण गद्य मुझे किसी पवित्र ऋचा की तरह लगता है, जहां जाने से पहले स्वयं को भी पवित्र किया जाना अनिवार्य है।
विनोदजी का पद्य मुझे किसी प्रागैतिहासिक शिला लेखों की भांति प्रतीत होते हैं जिसे अब तक ठीक-ठीक पढ़ा जाना बाकी है और जिसे अब तक समझा जाना बाकी है।
विनोदजी को पूरी तरह से समझे जाने के हमारे दावे निर्मूल सिद्ध हो सकते हैं, क्योंकि विनोदजी तात्कालिकता से परे एक ऐसे महत्वपूर्ण और दुर्लभ रचनाकार हैं, जो पाठकों और आलोचकों से एक नई दृष्टि की मांग करते हैं, जो समकालीनता की भीड़ से अलहदा सर्वकालिकता का वरण करते हैं।
वे मुक्तिबोध की तरह लोकप्रियता और सर्व स्वीकार्यता पर यकीन करने से बचते हुए एक बीहड़ मार्ग पर चलना अधिक पसंद करते हैं, जहां अस्वीकृत किए जाने के खतरे अनगिनत हैं।
(पहली किस्त 22 मार्च को पोस्ट)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका के मामले में भारत अजीब-सी दुविधा में फंस गया है। पिछले एक-डेढ़ दशक में जब भी श्रीलंका के तमिलों पर वहां की सरकार ने जुल्म ढाए, भारत ने द्विपक्षीय स्तर पर ही खुली आपत्ति नहीं की बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी तमिलों के सवाल को उठाया। उसने 2012 और 2013 में दो बार संयुक्त-राष्ट्र संघ के मानव अधिकार आयोग में इस मुद्दे पर श्रीलंका के विरोध में मतदान किया लेकिन इस बार इसी आयोग में श्रीलंका सरकार के विरोध में कार्यवाही का प्रस्ताव आया तो भारत तटस्थ हो गया। उसने मतदान ही नहीं किया। आयोग के 47 सदस्य राष्ट्रों में से 22 ने इसके पक्ष में वोट दिया 11 ने विरोध किया और 14 राष्ट्रों ने परिवर्जन (एब्सटेन) किया। भारत ने 2014 में भी इस मुद्दे पर तटस्थता दिखाई थी। इसका मूल कारण यह है कि पिछले छह-सात साल में भारत और श्रीलंका की सरकारों के बीच संवाद और सौमनस्य बढ़ा है। इसके अलावा अब वहां का सिंहल-तमिल संग्राम लगभग शांत हो गया है। अब उन गड़े मुर्दों को उखाड़ने से किसी को कोई खास फायदा नहीं है।
इसके अलावा चीन के प्रति श्रीलंका का जो झुकाव बहुत अधिक बढ़ गया था, वह भी इधर काफी संतुलित हो गया है। लेकिन भारत सरकार के इस रवैए की तमिलनाडु में कड़ी भर्त्सना हो रही है। ऐसा ही होगा, इसका पता उसे पहले से था। इसीलिए भारत सरकार ने आयोग में मतदान के पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह श्रीलंका के तमिलों को न्याय दिलाने के लिए कटिबद्ध है।वह तमिल क्षेत्रों के समुचित विकास और शक्ति-विकेंद्रीकरण की बराबर वकालत करती रही है लेकिन इसके साथ-साथ वह श्रीलंका की एकता और क्षेत्रीय अखंडता के समर्थन से कभी पीछे नहीं हटी है। उसने श्रीलंका के विभाजन का सदा विरोध किया है। उसने दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों की आवाज़ में आवाज मिलाते हुए मांग की है कि श्रीलंका की प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव करवाए जाएं।दूसरे शब्दों में भारत ने बीच का रास्ता चुना है। मध्यम मार्ग ! लेकिन पाकिस्तान, चीन, रुस और बांग्लादेश ने आयोग के प्रस्ताव का स्पष्ट विरोध किया है, क्योंकि उन्हें श्रीलंका के तमिलों से कोई मतलब नहीं है। भारत को मतलब है, क्योंकि भारत के तमिल वोटरों पर उस मतदान का सीधा असर होता है। इसीलिए भारत ने तटस्थ रहना बेहतर समझा। श्रीलंका के तमिल लोग और वहां की सरकार भी भारत के इस रवैए से संतुष्ट हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-राकेश दीवान
आखिर साढ़े तीन महीने से दिल्ली घेरकर बैठे किसान आंदोलन ने सरकार का सामना करने के लिए चुनाव का रास्ता चुन ही लिया। पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों ने किसानों को सत्तारूढ़ राजनीतिक जमातों से टकराने का एक और अवसर उपलब्ध करवाया है। आंदोलन के ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ ने पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के मतदाताओं से अपील की है कि- ‘भाजपा सरकार तीन किसान विरोधी कानून लेकर आई जो निर्धन कृषकों एवं उपभोक्ताओं हेतु किसी भी प्रकार के शासकीय संरक्षण को समाप्त कर देते हैं और साथ ही कॉर्पोरेट और बडे पूंजीपतियों को विस्तार की सुविधा प्रदान करते हैं। उन्होंने किसानों से बिना पूछे किसानों के लिए इस तरह के निर्णय लिए हैं। ये ऐसे कानून हैं जो हमारे भविष्य के साथ-साथ हमारी आने वाली पीढिय़ों को भी नष्ट कर देंगे।’
‘कुछ दिनों में आप सभी राज्य विधानसभाओं के लिए अपने-अपने राज्यों में हो रहे चुनावों में मतदान करेंगे। हम समझ चुके हैं कि मोदी सरकार संवैधानिक मूल्यों, सच्चाई, भलाई, न्याय आदि की भाषा नहीं समझती है। ये लोग वोट, सीट और सत्ता की भाषा समझते हैं। आपमें इनमें सेंध लगाने की शक्ति है।’
‘...भाजपा को यह सबक मिलना चाहिए कि भारत के किसानों का विरोध करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। यदि आप उन्हें यह सबक सिखाने में कामयाब होते हैं तो इस पार्टी का अहंकार टूट सकता है और हम वर्तमान किसान आंदोलन की मांगों को सरकार से मनवा सकते हैं।’
‘संयुक्त किसान मोर्चा’ का इरादा यह नहीं है कि आपको बताए कि किसे वोट देना है, लेकिन हम आपसे केवल भाजपा को वोट नहीं देने का अनुरोध कर रहे हैं। हम किसी पार्टी विशेष की वकालत नहीं कर रहे हैं। हमारी केवल एक अपील है- कमल के निशान पर गलती से भी वोट न दें।‘
आखिर ग्यारह बार की निरर्थक बातचीत, बिजली-पानी बंद करने, रास्तों पर कीलों समेत बाड की घेराबंदी करने जैसी तरह-तरह की प्रताडऩा और फूहड़, बेहूदी, अपमानजनक टिप्पणियों के जबाव में किसानों के पास सरकार से निपटने का एकमात्र तरीका चुनाव ही तो बचा है। वैसे भी किसी लोकतांत्रिक, अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलन को महीनों, सालों अनसुना करने वाली सत्ता से राजनीतिक चुनौती ही नतीजे दिलवाती है।
पैंतीस साल के ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ जैसे अनेक गैर-दलीय आंदोलनों का भी यही अनुभव रहा है। नर्मदा पर बनने और बनाए जाने वाले बड़े बांधों से होने वाले विस्थापन और न्यायपूर्ण पुनर्वास के सवाल पिछली सदी के अंतिम 15 सालों में शिद्दत से उठने लगे थे, लेकिन उन पर किसी ऐसी राजनीतिक पार्टी ने अपनी तरफ से कोई पहल नहीं की जो बदल-बदलकर सत्ता पर काबिज होती रही हैं। वे तब ही कभी-कभार कुछ सक्रिय दिखाई दीं जब उन्हें अपना राजनीतिक नफा-नुकसान दिखाई देने लगा। बांध विरोधी आंदोलन जैसे समूह गैर-दलीय राजनीति करते हैं और उनके लिए चुनाव लगभग अंतिम और मजबूरी का विकल्प हुआ करता है। नतीजे में केवल चुनावी जीत-हार की राजनीति करने और उसी आधार पर सुनने, न-सुनने वाली राजनीतिक पार्टियों ने देश की सर्वाधिक गंभीर समस्याओं में से एक विस्थापन की भी नहीं सुनी।
अहिंसक, शांतिपूर्ण और अब तक राजनीतिक दलों से परहेज करने वाले किसान आंदोलन का विकल्प-हीनता की मजबूरी में पनपा यह राजनीति-प्रेम उसे कहां ले जाएगा? कहने को भले ही किसान आंदोलन ‘किसी पार्टी विशेष की वकालत’ न करते हुए भाजपा को हराने की अपील करता दिखाई दे रहा हो, लेकिन व्यवहार में इसका नतीजा किसी-न-किसी पार्टी की जीत होगा। सवाल है कि क्या हमारी प्रातिनिधि लोकतांत्रिक प्रणाली में केवल चुनावी जीत-हार करती भाजपा समेत सभी राजनीतिक जमातें किसानों की बुनियादी समस्याओं को समझकर उनका हल कर पाएंगी?
मसलन-सब जानते हैं कि कोविड-19 के कारण भारत समेत समूची दुनिया में पिछला साल बेहद संकट का रहा है। इस संकट का सर्वाधिक खामियाजा किसानों, मजदूरों और गरीबों ने भुगता है। ऐसे में ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’ (मनरेगा) आड़े वक्त में काम आ सकती थी, लेकिन मेघालय को छोडकर देश के सभी राज्यों और केन्द्र-शासित प्रदेशों में ‘मनरेगा’ की मजदूरी की दर पिछले, यानि 2020-21 के साल से कम, एक रुपया या शून्य बढाई गई हैं। आसन्न चुनावों के बावजूद तमिलनाडु, पुडुचेरी में इस साल 17 रुपयों की बढ़ोत्तरी की गई है, पश्चिम बंगाल में नौ रुपए बढ़े हैं और केरल में कोई वृद्धि नहीं की गई है।
‘मनरेगा’ कानून के मुताबिक मजदूरी की ये दरें ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ और स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर केन्द्र सरकार तय करती है, लेकिन दिहाड़ी की दम पर टिकी गरीब आबादी की मजदूरी बढ़ाने के लिए किसी राज्य सरकार ने आवाज नहीं उठाई। एक तरफ कोरोना के इसी दौर में हर घंटे 90 करोड़ रुपयों की कमाई करने वाले पूंजीपति हैं और दूसरी तरफ अपनी रोजी-रोटी गंवाने वाले, ‘मनरेगा’ पर निर्भर करीब 11 करोड़ मजदूर, लेकिन राजनीतिक जमातें इस शर्मनाक अंतर को पाटने के लिए कोई तजबीज नहीं रखतीं। क्या किसान आंदोलन भाजपा को वोट ना देने की अपील करते हुए सत्ता में आने वाली दूसरी पार्टियों की इस या ऐसी ही कमजोरियों का ध्यान रख पा रहा है?
‘आईआईटी-दिल्ली’ में पढा रहीं अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा के मुताबिक किसानों, मजदूरों और ग्रामीणों को अब कुछ नए संकटों का सामना करना होगा। (बाकी पेज 8 पर)
मसलन-ताजे आर्थिक सर्वेक्षण में प्रस्ताव रखा गया है कि ‘खाद्य सुरक्षा योजना’ में वितरित किए जाने वाले सस्ते अनाज (मोटा अनाज-एक रुपए, गेहूं - दो रुपए और चावल- तीन रुपए) की कीमतें बढ़ा दी जाएं।
दूसरे, इसी ‘खाद्य सुरक्षा कानून’ के तहत लाभ लेने वाली देश की करीब दो तिहाई आबादी की संख्या घटाकर 40 फीसदी कर दी जाए। तीसरे, ‘भारतीय खाद्य निगम’ (एफसीआई) द्वारा गेहूं की खरीद के मापदंडों को और सख्त किया जाए। इस सख्ती में गेहूं की नमी को 14 फीसदी से घटाकर 12 फीसदी करना, मिलावट को 0.75 प्रतिशत से घटाकर 0.50 प्रतिशत करना जैसी बातें शामिल हैं। सरकार के इन उपायों से किसानों के अलावा जिस आबादी पर भारी असर होगा वह राशन की दुकानों से मिलने वाले अनाज और दूसरी चीजों के बल पर जिन्दा रहती है। रीतिका खेड़ा कहती हैं कि ‘बेशक देश की खाद्य सुरक्षा व्यवस्था मंहगी है, लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) के दो-तीन फीसदी खर्च से एक तरफ गेहूं-धान पैदा करने वाले 15 प्रतिशत किसानों को लाभ पहुंचता है और दूसरी तरफ, सस्ते अनाज के रूप में देश के करीब 66 प्रतिशत लोगों का पेट भरता है।
सवाल है कि क्या देश की राजनीतिक जमातों को इन या ऐसे ही किन्हीं मुद्दों की समझ और उन पर कदम उठाने का हौसला है? और यदि ऐसा नहीं है तो क्या उन्हें यह सब सिखाने की जिम्मेदारी किसानों और आम नागरिकों की नहीं होनी चाहिए? पश्चिम बंगाल में 2010-11 में सिंगूर, नंदीग्राम में जमीन के सवालों को लेकर तत्कालीन वाम-मोर्चे की सरकार और कॉर्पोरेट टाटा से आम लोगों ने संघर्ष फांदा था और नतीजे में 37 साल की वाम-मोर्चा सरकार और टाटा कंपनी बाहर हो गए थे। क्या उसी नागरिक पहल से किसान आंदोलन कोई सबक लेना चाहेगा?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधि सिंधु जल बंटवारे के संबंध में आजकल दिल्ली में बैठक कर रहे हैं। पिछले दो-ढाई वर्ष में दोनों देशों के बीच तनाव का जो माहौल रहा है, उसके बावजूद इस बैठक का होना यही संकेत दे रहा है कि पाकिस्तान की फौज और नेताओं को जमीनी असलियत का भान होने लगा है या फिर कोई मध्यस्थ उन्हें बातचीत के लिए प्रेरित कर रहा है। यह संकेत इसलिए भी पुष्ट होता है कि प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनापति क़मर बाजवा, दोनों ने ही भारत के साथ बातचीत के बयान दिए हैं। उसके पहले दोनों देशों के फौजी अफसरों ने सीमांत पर शांति बनाए रखने की भी घोषणा की थी। जहां तक जमीनी हकीकत का सवाल है, पाकिस्तान कोरोना की लड़ाई भी अन्य देशों के दम पर लड़ रहा है। वहां मंहगाई और बेरोजगारी ने सरकार की नाक में दम कर रखा है।
विरोधी दल इमरान-सरकार को उखाडऩे के लिए एक हो गए हैं। सिंध, बलूच और पख्तून इलाकों में तरह-तरह के आंदोलन चल रहे हैं। पहले की तरह अमेरिका पाकिस्तान को अपने गुट के सदस्य-जैसा भी नहीं समझता है। वह अफगानिस्तान से निकलने में उसका सहयोग जरुर चाहता है लेकिन नए अमेरिकी रक्षा मंत्री सिर्फ भारत और अफगानिस्तान आए लेकिन पाकिस्तान नहीं गए, इससे पाकिस्तान को पता चल गया है कि उसका वह सामरिक महत्व अब नहीं रह गया है, जो शीतयुद्ध के दौरान था। चीन के साथ उसकी नजदीकी भी अमेरिका के अनुकूल नहीं है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के लिए व्यावहारिक विकल्प यही रह गया है कि वह भारत से बात करे। इस बात को आगे बढ़ाने में संयुक्त अरब अमारात की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जा रही है, हालांकि दोनों देश इस बारे में मौन हैं। यूएई के विदेश मंत्री शेख अब्दुल्ला बिन जायद, भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर और अजित दोभाल के साथ-साथ पाकिस्तानी नेताओं के भी सतत संपर्क में हैं।
भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्री 30 मार्च को दुशाम्बे में होनेवाले एक सम्मेलन में भी भाग लेंगे और ऐसी घोषणा भी हुई है कि शांघाई सहयोग संगठन द्वारा आयोजित होनेवाली आतंकवादी-विरोधी सैन्य-परेड में भारत भी भाग लेगा। यह परेड पाकिस्तान में होगी। ऐसा पहली बार होगा। यह सिलसिला बढ़ता चला जाए तो कोई आश्चर्य नहीं कि इमरान खान के कार्यकाल में ही भारत-पाक संबंधों में स्थायी सुधार की नींव रख दी जाए। सबसे पहले दोनों देशों को अपने-अपने राजदूतों की वापसी करनी चाहिए और दोनों प्रधानमंत्रियों को कम से कम फोन पर तो सीधी बात करनी चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुल्तान अहमद
2008 में सपरिवार इंडिया जाना हुआ।
दिसंबर का महीना था। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। और हम थे कराचीवासी, जहां पर ठंड बड़ी मिन्नतों के बाद किसी महबूबा की भांति दुर्लभता से ही दर्शन कराती है, वो भी केवल दो चार दिन ही ! सर्दी से सिकुडक़र बच्चें लगभग आधे ही हो गये थे।
ये तो आप लोग भी जानते ही होंगे कि दिल्ली की निर्दयी ठंड-
केवल दुई या रुई से ही जाती है।
मुझे एक टैक्सी वाले से मोलभाव करते हुए देखकर, एक सरकारी बस का कंडक्टर मेरे पास आकर बोला-
आप हिंदुस्तानी मालूम नहीं होते हैं।
जी, मैं पाकिस्तानी हूँ। मैंने कहा।
रात के इस पहर, किसी प्राईवेट गाड़ी से सफर करना उचित नहीं है। सरकारी बस में किराया भी कम लगेगा और हिफाजत भी ज़्यादा रहेगी।
रात के लगभग दो-अढ़ाई का समय रहा होगा। मैंने कंडक्टर की बात सुनकर, सरकारी बस से ही सफर करने को बेहतर समझा।
कन्डक्टर ने सामान रखवाया और सबसे अच्छी सीट ये कहकर दी कि आप हमारे अतिथि हैं।
अपने मोबाईल से हमारे रिश्तेदारों से बात भी करवाई और यूँ सभी यात्रियों से परिचय भी हो गया और हम वीआईपी भी हो गये।
सफर शुरू हुआ।
मोदी नगर से पहले एक प्राइवेट बस ने, जिसमें तीर्थयात्री थे, ओवरटेक करते हुए, हमारी बस को टक्कर मार दी। दोनों ड्राइवरों में हाथापाई हो गयी। हमारी सरकारी बस के ड्राइवर ने पुलिस में कम्पलेन कर दी। अगले नाके पर, पुलिस ने दूसरी प्राईवेट बस को रोक लिया। दोनों बस की सवारियाँ अपने-अपने ड्राइवर की तरफदारी करने लगे। पुलिस असमंजस की स्थिति में थी। तभी एक सवारी ने कहा की अच्छा आप पाकिस्तानी सवारी से पूछ लो, वो किसी का पक्ष नहीं लेगें।
इससे पहले कि हम अपना बयान देते, दूसरी बस से एक बूढ़ी महिला मेरे पास आयी और कहने लगी-
बेटा रात का समय है और वैसे भी झगड़ा निबटाना पुण्य का काम होता है।
मंैने कहा, गलती किस की थी, मैं सच में नहीं जानता, परन्तु नुकसान किसी का भी नहीं हुआ है। अब हम केवल झूठे स्वाभिमान की खातिर लड़ रहे हैं। बेहतर है, इस हादसे को भूलकर आगे बढ़ चलें।
दोनों ड्राइवरों को राजी किया और फिर सफर शुरू हुआ।
चीतल रेस्टोरेंट, खतौली पर खूब पेट भरकर शाकाहारी व्यंजनों का स्वाद लिया।
भाई साहब !
यहाँ का बड़ा स्वादिष्ठ भोजन होता है। खूब मन से खाना, पैसों की चिंता मत करना।
जो भी पास से गुजरता, यही कहता हुआ जाता। ओय छोटू ! देखो भाई साहब को सभी सब्जी देना। मांस मछली भी मिलती है, कहो तो भिजवा दूँ।
मगर, मैंने मना कर दिया। अब यहाँ आकर भी शाकाहारी भोजन का आनंद नहीं लिया तो फिर कब ? साथ ही बिल की भी चिंता सताने लगी थी, खा जो इतना चूके थे।
मैं भुगतान काऊंटर पर पहुंचा।
वहां पर फिर दोनों ड्राइवरों में बहस छिड़ी हुई था। मगर अब माजरा दूसरा था। दोनों ड्राइवर, मेरे खाने का भुगतान करने पर झगड़ रहे थे।
वो मेरी बस में है तो मंै ही खाना खिलाऊँगा ना !
दूसरे ने कहा-
यार देखो उनके कारण ही मेरी जान बची, वरना पुलिस मुझे कहाँ छोडऩे वाली थी। आखिर गलती तो मेरी ही थी, ओवरटेक करने में। अब पछतावा हो रहा है।
इसी बीच, वो बूढ़ी महिला आयी और कहने लगी-
तुम लोग अब बस भी चलाओगे या यूँ ही लड़ते रहोगे। भुगतान मैं कर आयी हूं, बड़ा सज्जन आदमी लगता है।
और इधर बच्चे भावनाओं के समुद्र की अथाह गहराइयों में डूबे जा रहे थे। क्या ये अज़ीज़ दुश्मन भी, हमारी ही तरह इंसानियत के पुजारी नहीं है ?
बच्चों का अतिथि सत्कार और सहिष्णुता से जो परिचय आज हुआ था, उससे तो कभी राजनीतिक पटल पर उनका साक्षात्कार नहीं हुआ था।
बच्चे अचम्भित थे, यात्रियों के व्यवहार पर। आहिस्ता से कान में पूछते थे-
पापा ! क्या वाकई ये हमारा पड़ोसी मुल्क इंडिया ही है ! इन्हें तो हमारी सरकार बड़े दुश्मन कहती है। कहीं हम किसी दूसरे मुल्क में तो नहीं आ गये हैं ?
अब पता चला कि आप सही कहते थे, दुश्मनी केवल सरकारी स्तर पर है, अवाम के बीच नहीं है। ये केवल सियासी लोगों के हथकंड़े हैं।
लकीरें हैं तो रहने दो, किसी ने रूठ कर गुस्से में शायद खींच दी थीं।
इन्हीं को अब बनाओ पाला और आओ कबड्डी खेलते हैं। गुलज़ार
-राघवेंद्र राव
पिछले दिनों शैक्षिक जगत में उस समय हलचल मच गई, जब राजनीतिक विश्लेषक और लेखक प्रताप भानु मेहता ने सोनीपत स्थित ग़ैर सरकारी विश्वविद्यालय अशोका यूनिवर्सिटी से प्रोफ़ेसर के पद से त्यागपत्र दे दिया.
अपने त्यागपत्र में मेहता ने कहा कि विश्वविद्यालय के संस्थापकों के साथ एक बैठक के बाद उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि विश्वविद्यालय से उनका जुड़ाव एक 'राजनीतिक बोझ' माना जा सकता है. उन्होंने यह भी कहा कि चूँकि उनका सार्वजनिक लेखन स्वतंत्रता के संवैधानिक मूल्यों और सभी नागरिकों के लिए समान सम्मान का प्रयास करने वाली राजनीति के लिए है, ये भी विश्वविद्यालय के लिए जोख़िम उठाने जैसा समझा जा सकता है. मेहता के त्यागपत्र के कुछ दिन बाद सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने भी अशोका यूनिवर्सिटी से इस्तीफ़ा दे दिया.
बोलने की आज़ादी
सुब्रह्मण्यम ने अपने त्यागपत्र में कहा कि यह बात उनके लिए परेशान करने वाली थी की मेहता जैसे व्यक्ति ने ख़ुद को विश्वविद्यालय छोड़ने के लिए मजबूर पाया. इन दो बड़े नामों का एक साथ अशोका यूनिवर्सिटी को छोड़ देना भारत के शैक्षिक जगत के लिए एक झटके के समान था. बड़े पैमाने पर इस बात की चर्चा हुई. रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने इस मामले को बोलने की आज़ादी पर एक गंभीर चोट कहा.
एक सोशल मीडिया पोस्ट में राजन ने मेहता को सरकार के लिए एक काँटा बताया. उन्होने कहा, "अशोका यूनिवर्सिटी के संस्थापकों को यह महसूस करना चाहिए कि उनका मिशन वास्तव में राजनीतिक पक्ष लेना नहीं था, बल्कि प्रोफ़ेसर मेहता जैसे लोगों के बोलने के अधिकार की रक्षा करना जारी रखना था."
इस घटनाक्रम को दुखद बताते हुए राजन ने यह भी कहा कि बोलने की आज़ादी एक महान विश्वविद्यालय की आत्मा है और इस पर समझौता करके संस्थापकों ने विश्वविद्यालय की आत्मा का सौदा किया है.
कई विदेशी शिक्षाविदों ने भी प्रताप भानु मेहता के प्रति समर्थन जताया. ऑक्सफ़र्ड, कैम्ब्रिज, कोलंबिया, येल, हार्वर्ड, और प्रिंस्टन सहित अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के 150 से अधिक शिक्षाविदों ने विश्वविद्यालय के ट्रस्टियों और प्रशासकों को एक खुले पत्र में कहा कि वे इस बात से व्यथित हैं कि मेहता को 'राजनीतिक दबाव' के चलते विश्वविद्यालय छोड़ना पड़ा.
वहीं दूसरी ओर अशोका यूनिवर्सिटी के छात्र संगठन ने कक्षाओं के बहिष्कार का आह्वान करते हुए कहा कि छात्र दोनों प्रोफ़ेसरों के इस्तीफ़े से बेहद दुखी हैं और जिन शर्तों के तहत इस्तीफ़े हुए हैं, वे उनसे असंतुष्ट हैं. छात्रों ने कहा कि उन्होंने न केवल बौद्धिक दिग्गजों को खो दिया है, बल्कि उस विश्वास को भी खो दिया है कि विश्विद्यालय प्रशासन उन्हे बाहरी राजनीतिक दबावों से बचाएगा.
अशोका यूनिवर्सिटी ने पूरे मामले पर 'गहरा अफ़सोस' जताते हुए यह माना कि उसकी 'संस्थागत प्रक्रियाओं में कुछ ख़ामियाँ हैं.' लेकिन वो ख़ामियाँ क्या हैं, इस पर विश्वविद्यालय ने कुछ नहीं कहा. लेकिन इतना ज़रूर कहा कि विश्वविद्यालय उन ख़ामियों को सुधारने के लिए काम करेगा, जिससे उसकी अकादमिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्धता की पुष्टि होगी.
शिक्षाविदों का इस प्रकरण पर क्या कहना है?
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद का यह मानना है कि अपने इस्तीफ़े में और छात्रों को लिखे अपने पहले पत्र में मेहता ने जो संकेत किया था, उससे यह निष्कर्ष निकाला जाना बहुत ग़लत नहीं है कि उनको अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोमोटर्स की तरफ़ से यह बताया गया या इशारा किया गया कि उनका रहना अब अशोका यूनिवर्सिटी के लिए बोझ बन गया है और मेहता विश्वविद्यालय के विकास के रास्ते में या उनके प्रोमोटर्स के रास्ते में रोड़ा बन गए हैं.
वे कहते हैं, "इसका अर्थ बहुत स्पष्ट है कि प्रताप भानु मेहता के जो सार्वजनिक विचार हैं, वे सार्वजनिक विचार अभी जो सत्ता में हैं, उनके प्रतिकूल हैं. संभवतः इस कारण उनको कहा गया कि आप हमारे लिए बोझ बन रहे हैं, असुविधाजनक हैं. यह उनको संकेत किया गया और प्रताप भानु मेहता ने एक भले मानुस की तरह अशोका यूनिवर्सिटी को असुविधा से बचाने के लिए इस्तीफ़ा दे दिया."
मोदी सरकार में मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रह्मण्यम के त्यागपत्र ने भी मेहता के त्यागपत्र की गंभीरता को बढ़ा दिया है.
अपने इस्तीफ़े में सुब्रह्मण्यम ने कहा कि यह बात बहुत ज़्यादा परेशान करने वाली है कि अशोका यूनिवर्सिटी अपनी निजी स्थिति और निजी पूँजी के आधार पर भी अब अकादमिक अभिव्यक्ति और आज़ादी को स्थान नहीं दे सकता है.
अपूर्वानंद कहते हैं कि इन दोनो बातों से स्पष्ट है कि अशोका यूनिवर्सिटी के ट्रस्टीज़ अवश्य ही कुछ दबाव महसूस कर रहे थे, जिस्की वजह से उन्होने प्रताप भानु मेहता जैसे व्यक्ति को विश्वविद्यालय छोड़ने का इशारा किया, जिन्हें वे पहले ट्रॉफ़ी की तरह चारों तरफ़ दिखा रहे थे.
लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर संगीत कुमार रागी का कहना है कि इस मामले में जाँच की जाए या मेहता उन तथ्यों के साथ सामने आएँ कि कौन सी ऐसी बात थी, जिसके कारण उनको लगा कि अशोका यूनिवर्सिटी में काम करना मुश्किल है.
रागी कहते हैं, "प्राइवेट यूनिवर्सिटी कोई चैरिटी तो कर नहीं रही हैं और अगर वो चैरिटी नहीं कर रही हैं, तो उसके दिमाग़ में बौद्धिक सवाल के साथ-साथ व्यापारिक सवाल भी हैं और उन व्यापारिक सवालों में मैं नहीं जानता कि प्रताप भानु मेहता को किसी ने यह कहा होगा कि आप आर्टिकल ना लिखें."
रागी कहते हैं कि उन्हें नहीं लगता कि भारत सरकार का किसी यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर पर इस तरह का दबाव होगा कि अगर वो सरकार के ख़िलाफ़ कुछ कहेंगे, तो सरकार यूनिवर्सिटी प्रबंधन के ख़िलाफ़ चली जाएगी.
लेकिन अशोका यूनिवर्सिटी प्रशासन ने माना है कि चूक हुई है, उसका क्या? रागी कहते हैं कि प्रक्रियागत चूक के आधार पर कोई आदमी यूनिवर्सिटी नहीं छोड़ सकता. वे कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि कोई अकादमिक कारण रहा, जिसकी वजह से प्रताप भानु मेहता को इस्तीफ़ा देने की आवश्यकता पड़ी."
क्या भारत के विश्वविद्यालयों में बौद्धिक स्वतंत्रता पर प्रहार हो रहा है?
एक आरोप जो अक्सर सुनने में आता है, वो ये है कि केंद्र सरकार विश्वविद्यालयों की बौद्धिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास कर रही है.
पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई मामले देखने को मिले, जहाँ दक्षिणपंथी गुटों ने विश्वविद्यालयों में उन विषयों पर विचार-विमर्श होने में बाधा डाली, जिनसे दक्षिणपंथ की असहमति है.
गत वर्षों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जादवपुर यूनिवर्सिटी, बर्दवान यूनिवर्सिटी और हैदराबद यूनिवर्सिटी में समय-समय पर छात्र प्रदर्शन होते रहे हैं.
अपूर्वानंद कहते हैं कि पिछले छह वर्षों में जो भारत की पब्लिक यूनिवर्सिटीज़ के साथ जो हो रहा है, अगर उसे देख लिया जाए, तो यह बहुत साफ़ तौर पर ज़ाहिर है कि अशोका यूनिवर्सिटी में जो अभी हुआ और हल्के ढंग से हुआ, वो पब्लिक यूनिवर्सिटीज़ में बहुत हिंसक तरीक़े से हुआ है.
वे जेएनयू में हुई हिंसा का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस हमले में दो शिक्षक और अनेक छात्र घायल हुए, उस हमले में शामिल गुंडों की पहचान हो जाने के बावजूद उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई.
अपूर्वानंद कहते हैं, "दिल्ली विश्वविद्यालय में आप कई विषयों पर सेमिनार अब नहीं कर सकते. इसके लिए आपको जगह नहीं मिलेगी. जैसे कश्मीर पर अगर आप सेमिनार करना चाहें, तो जगह नहीं मिलेगी, आर्टिकल 370 पर करना चाहें, तो जगह नहीं मिलेगी. कई विषय ऐसे हैं, जिन पर आप डीयू मे खुलेआम विचार विमर्श नहीं कर सकते."
वे कहते हैं कि राज्यों के विश्वविद्यालय पहले ही ध्वस्त हो चुके हैं और उनमें अकादमिक स्वतंत्रता की बात करना ही बेमानी है. क्योंकि वहाँ अकादमिक ताक़त ही नहीं बची है. वे कहते हैं, "केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पिछले छह सालों में जो कुलपतियों की नियुक्तियाँ हुई हैं, वो भी या तो सत्ता के अनुयायी हैं या उनकी विचारधारा के लोग हैं. तो उनके ज़रिए भी विश्वविद्यालयों को नियंत्रित कर लिया गया है." लेकिन प्रोफ़ेसर रागी कहते हैं कि यह एक गंभीर सवाल है, जिसका मंथन बहुत गहराई से होना चाहिए. उनके अनुसार पिछले 70 साल में राइट विंग के बुद्धिजीवियों को कभी भी यूनिवर्सिटी सिस्टम में आने नहीं दिया गया और ना ही काम करने दिया गया.
वे कहते हैं, "इसकी एक मिसाल देखी जा सकती है. इंडियन काउंसिल ऑफ़ सोशल साइंस रिसर्च में पीएचडी के पोस्ट-डॉक्टोरल फ़ेलो के रिसर्च टॉपिक का अगर एक आँकड़ा निकालें, तो आपको चौंकाने वाले तथ्य मिलेंगे. जितना भी काम हुआ है, वो वामपंथ आंदोलन पर और कांग्रेस से संबंधित रहा है. जितने भी बड़े-बड़े यूनिवर्सिटी सिस्टम थे, उनका राजनीतिकरण हो चुका था और वहाँ पेट्रन-क्लाइंट का संबंध रहा, जो एक ही विचारधारा का रहा और अपने विद्यार्थियों का पालन पोषण करता रहा."
रागी यह भी कहते हैं कि पिछले छह साल में भारत का राष्ट्रीय विमर्श और बौद्धिक विमर्श दोनों बदला है और लोगों ने इस बारे में एक वैकल्पिक तरीक़े से बात करने की कोशिश की है. वे कहते हैं, "मेरा मानना है कि सबकी अपनी बौद्धिक ख़ेमेबाज़ी है, सबके अपने बौद्धिक अखाड़े हैं. इन अखाड़ों में 70 साल तक आपने काम किया. एक वैकल्पिक विमर्श खड़ा हो रहा है तो आपको डर सता रहा है या कुछ लोगों को यह परेशानियाँ हो रही हैं."
क्या बड़ा सवाल विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का है?
एक आरोप ये भी है कि पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता छीनने के प्रयास बढ़ा दिए हैं.
प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अब केंद्रीय ढंग से पाठ्यक्रम बना कर भेज रहा है. वे कहते हैं, "दुनिया में कोई भी विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय तभी कहलाता है, जब वो अपने शिक्षकों की नियुक्ति ख़ुद करता है, अपने ढंग से छात्रों को दाख़िल कर सकता है और अपना पाठ्यक्रम ख़ुद बना सके. लेकिन भारत में अब पाठ्यक्रम ख़ुद बनाने की आज़ादी भी विश्वविद्यालयों से छीन ली गई है. सेंट्रल यूनिवर्सिटीज़ के लिए कॉमन एंट्रेन्स टेस्ट लाया जा रहा है, तो छात्रों को अपने ढंग से दाखिल करने की आज़ादी भी छीनी जा रही है." उनका यह भी मानना है कि अकादमिक स्वतंत्रता के लिए अब जगह बहुत कम रह गई है. वे कहते हैं, "कुछ दिन पहले एक सर्कुलर में कहा गया कि अगर आप संवेदनशील विषयों पर कोई वेबिनार करना चाहें, तो पहले आपको विदेश मंत्रालय से अनुमति लेनी पड़ेगी. एक आदेश यह है कि अग हिंदी या ऐसे विषय पर विदेशी विद्वानों के साथ मिलकर आप कुछ करना चाहते हैं, तो उसके लिए भी सरकार की अनुमति लेनी पड़ेगी."
अपूर्वानंद कहते हैं कि परिसरों में अकादमिक स्वतंत्रता पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी है और अगर शिक्षक और छात्र की बातचीत पर भी निगरानी होगी, तो वो भी ख़त्म हो जाएगी. लेकिन एक दूसरी विचारधारा का यह मानना है कि विश्वविद्यालयों, ख़ासकर सार्वजनिक विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर कोई ख़तरा नहीं है और विश्वविद्यालयों में अशांति की वजहें कुछ और हैं.
प्रोफेसर संगीत रागी कहते हैं कि यह बेचैनी उन्हीं विश्वविद्यालयों में है, जो पहले वामपंथ के गढ़ हुआ करते थे.
वे कहते हैं, "आज एक नया बौद्धिक विमर्श खड़ा हो रहा है, वो बात करने की कोशिश कर रहा है, आज उसको ताक़त भी मिल रही है तो आप परेशन हो रहे हैं. कल तक आप अपने काडर को नियुक्त कर देते थे, तो कोई दिक़्क़त नहीं होती थी. आज अगर राइट विंग की तरफ़ झुकाव वाले व्यक्ति को वाइस चांसलर बनाया जा रहा है, तो आपको परेशानी हो रही है."
अपूर्वानंद इस बात से सहमत नहीं हैं कि विश्वविद्यालयों में अशांति और बेचैनी की वजह वामपंथियों का क़ब्ज़ा दक्षिणपंथियों के हाथ में चला जाना है.
वे कहते है, "ऐसा कोई उदाहरण पिछले 70 वर्षों में नहीं है कि दक्षिणपंथी लोग नियुक्त नहीं हुए या वो वाइस चांसलर नहीं बने. यह कहना कि राइट-विंग के लोगों को जगह नहीं मिली, यह एक अजीब सा तर्क है, क्योंकि दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतने सारे कॉलेजों में अचानक राइट विंग के लोग कहाँ से सामने आ गए. वे पहले से ही थे वहाँ पर." उनका मानना है कि अकादमिक बहसों में कौन आगे निकल रहा है, कौन नहीं निकल रहा है, कौन कितनी किताबें लिख रहा है, किसको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल रही है, वो अपनी विद्वता और मेधा के स्तर पर भी मिल सकती है.
वे कहते हैं, "षड्यंत्र या चापलूसी करके आप कुलपति बन सकते हैं, लेकिन चापलूसी और षड्यंत्र करके आप अंतरराष्ट्रीय जगत में विद्वान नहीं माने जाएँगे ना? तो अंतरराष्ट्रीय जगत में तो रोमिला थापर ही विदुषी मानी जाती हैं. अगर आप उनके बराबर का कोई विद्वान खड़ा कर दीजिए, तो ठीक है."
अपूर्वानंद के अनुसार सिर्फ़ यह कह देना काफ़ी नहीं है कि हमारे वेदों और पुराणों में सब कुछ था और हमने शून्य का आविष्कार किया. "वेद हों, या महाभारत हो या प्राचीन इतिहास हो, उस पर भी अगर दक्षिणपंथ ने काम नहीं किया, मेहनत नहीं की, पढ़ा नहीं, व्याख्या नहीं की, तो उसके लिए कौन दोषी है. आपको रोका किसने था इतने दिनों तक काम करने से. आप भी अध्यापन कर रहे थे, तो आप भी किताब लिख सकते थे,"
अपूर्वानंद का मानना है कि इन दो इस्तीफों पर नज़र गई क्योंकि ये बड़े नाम हैं. वे कहते हैं कि दिल्ली यूनिवर्सिटी से चर्चित अध्यापक चुपचाप निकल गए हैं, क्योंकि उन्हें घुटन महसूस हो रही थी.
वे कहते हैं, "पिछले छह-सात वर्ष में 90-100 सेमिनार रद्द हुए हैं, क्योंकि माना गया कि वो सुविधाजनक विषय नहीं थे. लोगों को आमंत्रित किया गया और फिर उस आमंत्रण को वापस ले लिया गया. हरियाणा सेंट्रल यूनिवर्सिटी में अँग्रेज़ी विभाग की युवा अध्यापिका स्नेहसता ने महाश्वेता देवी के नाटक का रूपांतर किया, जिसके चलते उन पर जाँच बिठा दी गई. जोधपुर यूनिवर्सिटी में अँग्रेज़ी विभाग के एक अध्यापक ने सेमिनार किया, जिसके चलते वो सस्पेंड हो गई और कई वर्ष सस्पेंड रही."
अशोका यूनिवर्सिटी के ताज़ा मामले ने ये बहस और तेज़ कर दी है कि शिक्षण संस्थाओं में सत्ता का दख़ल बढ़ता जा रहा है, हालाँकि सरकार इन आरोपों से इनकार करती है.
अशोका यूनिवर्सिटी
अशोका यूनिवर्सिटी की स्थापना 2014 में की गई थी. विश्वविद्यालय के अनुसार उसके कुछ संस्थापकों ने इंडियन स्कूल ऑफ बिजनस (आईएसबी), मेकमाई ट्रिप .कॉम, नौकरी.कॉम, एप्टेक और सन फार्मा जैसे संस्थान स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. अशोका यूनिवर्सिटी का केम्पस हरियाणा के सोनीपत ज़िले के राई में स्थित राजीव गांधी एजुकेशन सिटी में है. इसकी स्थापना हरियाणा निजी विश्वविद्यालय अधिनियम, 2006 के तहत की गई थी और ये विश्वविद्यालय यूजीसी से मान्यता प्राप्त है. नवंबर 2014 में इस विश्वविद्यालय को यूजीसी अधिनियम की धारा 22 के तहत डिग्री देने के लिए अधिकृत किया गया था. विश्वविद्यालय के अनुसार उसकी सभी डिग्रियों को मंज़ूरी दी जा चुकी है. (bbc.com/hindi)
-गिरीश मालवीय
खुला चैलेंज है 26 मार्च को मोदीजी बांग्लादेश दौरे पर जा रहे हैं उनसे कहिए कि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के सामने दो टूक शब्दों में यह बोले कि जो ‘घुसपैठिये’ बांग्लादेश से भारत में आए हैं उन्हें अपने देश में वापस लें।
गृहमंत्री अमित शाह दो साल पहले कह रहे थे कि बांग्लादेशी घुसपैठिए दीमक की तरह हैं, वे लोग देश का संसाधन खत्म कर रहे हैं। चुन-चुनकर उन्हें देश से बाहर निकालेंगे, हमने असम में एनआरसी के जरिए 40 लाख घुसपैठियों को पहचानने का काम किया है।
2018 में शक्ति केंद्र सम्मेलन को संबोधित करते हुए शाह ने कहा था भाजपा का संकल्प है कि एक भी बांग्लादेशी घुसपैठिया को भारत में रहने नहीं देंगे, वे लोग देश का संसाधन खत्म कर रहे हैं।
अब वक्त आ गया है मोदीजी की शेख हसीना से मीटिंग होने वाली है! इससे बढिय़ा मौका कोई और हो ही नही सकता। आज भी नहीं बोलिएगा तो फिर कब बोलिएगा?
बंगाल के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहते है कि भारत में कुल दो करोड़ मुसलमान घुसपैठिए मौजूद हैं जिसमें से एक करोड़ पश्चिम बंगाल में ही हैं। जाहिर सी बात है ये लोग आए तो बांग्लादेश से ही होंगे। भक्त तो बांग्लादेश घुसपैठियों की संख्या 4 करोड़ बताते हैं अब सीधी सी बात है कि यदि आप एनआरसी लागू कर इन 4 करोड़ लोगों की पहचान कर उन्हें अलग करते हो तो उन्हें समुंदर में तो नही फिंकवा दोगे।
आप उन्हें डिटेंशन सेंटर में रखेंगे! कोई बताए कि 4 करोड़ की आबादी रखने के लिए देश मे कहाँ ओर कुल कितने डिटेंशन सेंटर बनाए जाएंगे? इन डिटेंशन सेंटर की व्यवस्था का खर्चा कौन उठाएगा रोजाना 4 करोड़ लोगों के खाने पीने का खर्चा कौन उठाएगा? क्या यह खर्च भारत के टैक्सपेयर्स से ही नही वसूला जाएगा! क्या आप यह खर्च उठाने को तैयार है?
जब एनआरसी का मुद्दा चरम पर था तो बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने बयान दिया था कि भारत की सरकार भारत में अवैध तरीके से रहने वाले बांग्लादेशियों की सूची बांग्लादेश को दे ताकि वह उन्हें वापस अपने देश बुला सकें। उन्होंने कहा था हम उन्हें (बांग्लादेश नागरिक) वापस बुला लेंगे क्योंकि उनके पास अपने देश में घुसने का अधिकार है।
वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि बांग्लादेश भी अपने यहाँ घुसपैठ की समस्या बता रहा है ढाका से प्रकाशित बांग्ला दैनिक बांग्लादेश प्रतिदिन ने 2019 में 29 सितंबर को प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि बांग्लादेश में 5 लाख बिहारी (हिंदी भाषी) अवैध तरीके से रह रहे हैं। अखबार ने इस बात पर चिंता जताई है कि बांग्लादेश में अवैध घुसपैठियों की संख्या बढ़ती जा रही है, कहीं शेख हसीना मोदीजी के सामने इन्हें ही वापस लेने की मांग नहीं उठा दे।
23 मार्च : भगतसिंह शहादत दिवस
- कनक तिवारी
भगतसिंह के साथ दिक्कत है। हर संप्रदाय, जाति, प्रदेश, धर्म, राजनीतिक दल, आर्थिक व्यवस्था को उन्हें पूरी तौर पर अपनाने से परहेज है। उनके चेहरे की सलवटें अलग अलग तरह के लोगों के काम आ जाती हैं। वे उसे ही भगतसिंह के असली चेहरे का कंटूर घोषित करने लगते हैं। उनका असली चेहरा पारदर्शी, निष्कपट, स्वाभिमानी, जिज्ञासु, कर्मठ और वैचारिक नवयुवक का है। वह किसी भी व्यवस्था की रूढि़ को लेकर समझौतापरक नहीं हो सकता। आज भी दुनिया और भारत उन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं। उन्हें भगतसिंह ने वक्त की स्लेट पर स्थायी इबारत की तरह लिखा था। साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, अधिनायकवाद और तानाशाहियां अपने जबड़े में लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सर्वहारा बल्कि पूरे भविष्य को फंसाकर लीलने के लिए तत्पर हैं। भगतसिंह की भाषा पढऩे पर कुछ भी पुराना या बासी नहीं लगता। वे भविष्यमूलक इबारत गढ़ रहे थे। नए भारत के बारे में सोच की डींग उन्होंने नहीं मारी। जो सोचा वह कर दिखाया। भगतसिंह का ब्रिटिश साम्राज्यवाद से जनसंघर्ष पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल को लेकर हुआ। मजदूरों और कर्मचारियों को किसी भी सरकारी अन्याय के विरुद्ध हड़ताल नहीं करने का अधिकार ब्रिटिश अवधारणा से उत्पन्न हुआ है। हिंदुस्तानी अदालतें मौलिक भारतीय अवधारणाओं की समीक्षा नहीं करतीं। वहां भी भगतसिंह की बौद्धिक गतिशीलता का प्रस्थान बिंदु इतिहास में झिलमिला रहा है जिस तरह आसमान में धु्व तारा।
यक्ष प्रश्न है क्या भगतसिंह और साथियों का हिंसा में विश्वास था? सीधा उत्तर है नहीं। सशस्त्र क्रांति का समर्थन भगतसिंह की थ्योरी में हिंसा का समर्थन नहीं है। सांडर्स की हत्या के तत्काल बाद मिले क्रांतिकारी पर्चे में साफ लिखा था उन्हें एक मनुष्य का खून बहाने में गहरा दुख है। ऐसा वे चाहते भी नहीं थे। शांति मार्च की अगुआई कर रहे लाला लाजपत राय को लाठियों से पीटकर मार डाला गया। उस घटना का बदला बौद्धिक के बदले यौद्धिक तरीके से ही कारगर ढंग से लिया जा सकता था। इससे ही अंग्रेज शासक में खौफ पैदा होता कि स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों को वहशी इरादों के साथ मार डालने की कोशिश नहीं करे। पूरक प्रश्न है लाला लाजपत राय की हत्या का बदला भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भगतसिंह के मुकाबले ज्यादा कारगर ढंग से लिया? इतिहास उत्तर नहीं देता। इसलिए कोई छह महीने बाद भगतसिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ मौका मिलने पर असेंबली में बम इस तरह फेंका कि किसी को चोट तक नहीं लगे। चाहते तो असेंबली के कुछ सदस्यों को खत्म भी कर सकते थे। बम विस्फोट के बाद उठे धुएं और गर्द गुबार में वे दोनों क्रांतिकारी भाग भी सकते थे लेकिन उन्होंने दोनों काम जानबूझकर नहीं किए। भगतसिंह चाहते थे और जानते थे कि असेंबली बम काण्ड की वजह से उन्हें फांसी नहीं हो सकती। सांडर्स की हत्या की वजह से जरूर हो सकती है। भगतसिंह न्याय व्यवस्था की ढिलाई से भी परिचित थे। उनका अनुमान होगा कि मुकदमा कम से कम फैसला होने तक कुछ समय तो लगेगा। यह समय वे खुद को और अधिक शिक्षित करने के अतिरिक्त न्यायालय की प्रक्रिया के माध्यम से पूरी दुनिया को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक क्रांतिकारी पक्ष की तरफ भी ध्यान आकृष्ट करना चाहते थे। भगतसिंह जानते थे उनके आंदोलन के कारण कांग्रेस के युवा तत्वों को पार्टी पर पकड़ बनाने में मदद मिलेगी। हुआ भी यही।
भगतसिंह लाहौर जेल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ बौद्धिक स्तर पर आखरी खंदक की लड़ाई लड़ रहे थे। इतिहास यह सवाल भी पूछेगा यदि कांग्रेस अधिकारिक तौर पर भगतसिंह के आंदोलन का समर्थन नहीं कर पाई तो क्या 1942 का आंदोलन पूरी तौर पर अहिंसक कहा जा सकता है? खुद गांधी ने स्वीकार किया है कि भारत छोड़ो आंदोलन पूरी तौर पर अहिंसक नहीं था। गांधी ने कहा है भगतसिंह और उनके साथियों की देशभक्ति और आंदोलन को लेकर उनके मन में सम्मान है। देश के नवयुवकों को उन्होंने लेकिन आगाह किया कि वे भगतसिंह के रास्ते पर नहीं चलें। गांधी को स्पष्ट करना चाहिए था कि वे भगतसिंह के कथित यौद्धिक रास्ते की आलोचना कर रहे थे। भगतसिंह के बौद्धिक रास्ते से उनका इस तरह मतभेद उजागर होना चाहिए था कि देश का हर व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार गांधी या भगतसिंह के राजनीतिक विचारों में से एक को चुन सकने के लिए स्वतंत्र होता।
अपने साथियों में समाजवादी विचारों की तरफ सबसे पहले भगतसिंह आकर्षित हुए थे। साथी अजय घोष के अनुसार उन्हें माक्र्सवादी नहीं कहा जा सकता। भगतसिंह ने न्याय व्यवस्था की उन विसंगतियों की ओर ध्यान खींचा था जो आज भी कायम हैं। इसलिए भगतसिंह अदालतों के सामने नतमस्तक नहीं होते थे। बाकुनिन की पुस्तक ‘दि गॉड एण्ड द स्टेट’ का उन पर गहरा असर था। भगतसिंह ने विदेश जाने से इंकार किया था। कम्युनिस्ट पार्टियों ने उन्हें निमंत्रित भी नहीं किया था। ‘भारत का इतिहास’ (मास्को 1984) नामक पुस्तक में क्रांतिकारियों के आन्दोलन का महत्व कमतर आंकते हुए यही लिखा है कि ‘भूमिगत क्रांतिकारियों की आतंकवादी कार्रवाइयों ने वस्तुत: औपनिवेशिक शासन के खिलाफ किसी जनव्यापी आन्दोलन को जन्म नहीं दिया।’ यह लगभग आश्चर्यजनक है कि भगतसिंह की शहादत के बाद सबसे पहले 22-29 मार्च 1931 को पेरियार रामास्वामी नायकर ने अपनी पत्रिका ‘कुडई आरसू’ में संपादकीय लिखा। 1934 में भगतसिंह के प्रसिद्ध लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं‘ का तमिल अनुवाद छापा। मार्च 1931 में ही भगतसिंह का लेख ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र’ लाहौर के ‘द पीपुल’ अखबार में छपा। हिंदी वांग्मय में अपना स्थान सुरक्षित करने के लिए भगतसिंह को कुछ वर्षों इंतजार करना पड़ा। जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय और यशपाल वगैरह के साहित्य में भगतसिंह और क्रांति आंदोलन रेखांकित है। उसे पूरी तौर पर भगतसिंह के व्यक्तित्व का चित्रण नहीं कहा जा सकता। अज्ञेय और यशपाल क्रांतिकारी भी रहे हैं।
भगतसिंह ने आनुषंगिक सवालों को लेकर भी बौद्धिक जेहाद किया था। उस वक्त कानून था यदि किसी व्यक्ति ने अंग्रेजी वेशभूषा पहने हुए अपराध किया है, तो उसे जेल में बेहतर दर्जा दिया जाएगा। भगतसिंह ने अंग्रेजी वेशभूषा तथा फेल्ट हैट पहने अंसेबली में बम फेंका था। इसलिए उन्हें बेहतर दर्जा दिया गया। जेल में भगतसिंह ने इस नियम के खिलाफ ही बगावत की। उन्हें कठोर शारीरिक यातनाएं झेलनी पड़ीं। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि 1928 का साल देश में महत्वपूर्ण उथल-पुथल का था। इसमें से भी सबसे बड़ी उथल-पुथल भगतसिंह का भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में एक कद्दावर नौजवान नेता के रूप में उठ खड़ा होना था। पहला सवाल है कि दुनिया के इतिहास में 23, 24 वर्ष की उम्र का भगतसिंह से बड़ा बुद्धिजीवी कोई हुआ है? भगतसिंह का यह चेहरा नौजवान पीढ़ी के सामने प्रचारित करने का कोई भी कर्म हिन्दुस्तान में सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों सहित भगतसिंह के प्रशंसक-परिवार ने भी नहीं किया। भगतसिंह की उम्र का कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति क्या भारतीय राजनीति का धूमकेतु बन पाया? भगतसिंह का यही चेहरा सबसे अप्रचारित है। लोग भगतसिंह को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी कहने में हिचकते हैं।
17 वर्ष की उम्र में भगतसिंह को एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में ‘पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या’ विषय पर ‘मतवाला’ नाम की कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका के लेख पर पचास रुपए का प्रथम पुरस्कार मिला था। भगतसिंह ने 1924 में लिखा था पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी नहीं देवनागरी होनी चाहिए। लोहिया ने कहा था कि रवीन्द्रनाथ टेगौर से मुझे शिकायत है कि ‘गीतांजलि’ तो आपने बांग्ला भाषा और लिपि में ही लिखी। महात्मा गांधी से भी शिकायत की कि ‘हिन्द स्वराज’ आपने मातृभाषा गुजराती में लिखी। भगतसिंह जैसे 17 साल के तरुण ने हिन्दुस्तान के इतिहास को रोशनी दी। भगतसिंह जिज्ञासु विचारक थे क्लासिकल विचारक नहीं। विकासशील थे। अपने अंतत: तक नहीं पहुंचे थे। भगतसिंह को इतिहास और भूगोल के खांचे से निकालकर अगर विवेचित करें, तो दो अलग अलग निर्णय हासिल होते हैं। 1914 से 1919 के बीच पहला विश्वयुद्ध हुआ। उसका भगतसिंह पर भी गहरा असर हुआ। राष्ट्रीय राजनीति में धूमकेतु की तरह एक नियामक बनकर उभरने की भूमिका में आए। तब 1928 का वर्ष आया। 1928 हिन्दुस्तान की राजनीति के मोड़ का बहुत महत्वपूर्ण वर्ष है। 1928 से 1930 के बीच ही कांग्रेस की हालत बदल गई। कांग्रेस पहले पिटीशन करती थी। अंग्रेज से यहां से जाने की बातें करने लगी। मजबूर होकर लगभग अर्धहिंसक आंदोलनों में भी अपने आपको झोंकना पड़ा। यह भगतसिंह का कांग्रेस की नैतिक ताकत पर मर्दाना प्रभाव था। कांग्रेस का यह चरित्र मुख्यत: भगतसिंह की वजह से बदला। भगतसिंह इसके समानांतर एक बड़ा आंदोलन खुद भी चला रहे थे।
-रमेश अनुपम
विनोद कुमार शुक्ल के होने और उनके निरंतर रचते चले जाने के बहुतेरे निहितार्थ हैं। वे हमारे समय के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में शुमार हो चुके हैं, हिंदी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं सहित विश्व के अग्रणी पंक्तियों के लेखकों में उन्हें समादृत किया जाता है।
84 वर्ष की उम्र में भी पढ़ने और लिखने की ललक जिस तरह से उनके भीतर बरकरार है, वह देखते ही बनता है।
कोरोना काल में उन्होंने प्रचुर साहित्य की रचना की है। कहानी, कविता के अतिरिक्त बच्चों के लिए ढेर सारी कहानियां और कविताएं।
विनोदजी के सम्पूर्ण साहित्य को केंद्र में रखकर सेतु प्रकाशन दिल्ली द्वारा रचनावली की योजना भी मूर्त रूप लेने जा रही है। हालांकि विनोदजी जिस तरह से निरंतर सृजन कर्म में निमग्न हैं, संभव है बहुत कुछ उसमें आने से रह जायेगा, जो बाद में कभी आएगा।
विनोद कुमार शुक्लजी की स्मृतियों के कोठार में ऐसा बहुत कुछ एकत्र है जिसे सुनकर आप समय के आर-पार को देख सकते हैं, बहुतेरी ऐसी विरल ध्वनियों को सुन सकते हैं जो समय की ओट में कहीं छिपी हुई सुस्ता रहीं हैं, बहुतेरी छवियों को निहार सकते हैं जो क्षितिज के पार कहीं झिलमिलाती जान पड़ती हैं, बशर्ते आप विनोदजी को जानने की कितनी अभिलाषा रखते हैं। उनकी स्मृतियों के कोठार का दरवाजा तभी आपके लिए खुल सकता है।
विनोदजी के इस कोठार में एक तरह से सबका प्रवेश निषिद्ध हैं, केवल उन्हें छोड़कर जो इस सुंदर पृथ्वी से प्रेम करना जानते हैं, जो इस सुंदर पृथ्वी को बचाने की चिंता रखते हैं, जो समस्त मनुष्य प्रजाति से और सम्पूर्ण प्रकृति से गहरा अनुराग रखते हैं। विनोदजी के गद्य या पद्य में प्रवेश भी तभी संभव होता है।
विनोदजी को सुनना भी एक ऐसी पगडंडी से होकर गुजरने जैसा है जो सपाट नहीं है अपितु थोड़ा ऊबड़-खाबड़ और पथरीला है पर यह रास्ता आपको उस झरने की ओर ले जाने वाला रास्ता बन जाता है जिसकी निर्झरणी में आप देर तक भीग सकते हैं, जिसकी वेगवती धार में आप तन-मन प्राण से डूब सकते हैं, जिसकी जलराशि में आप जीवन के प्रच्छन्न फूलों के खिलने का आभास पा सकते हैं।
विनोदजी से जब भी मेरी मोबाइल से बात होती है मुझे हृदय के नोटबुक के कोरे पन्ने खोलने पड़ते हैं ताकि उनकी सारी बातें मैं दर्ज कर सकूं। कुछ छूट न जाये इस डर से और सब कुछ ज्यों का त्यों दर्ज हो जाए इस अभिलाषा के साथ।
कोरोना के चलते अब उनसे मिलना बहुत कम हो गया है, पर भला हो इस मोबाइल क्रांति का जिससे आप अपने किसी प्रिय से आत्मीय संवाद तो कायम रख सकते हैं, उन्हें सुन सकते हैं और कल्पना की आंखों से देख भी सकते हैं। अगर आप वीडियो कांफ्रेंसिंग की सुविधा नहीं लेना चाहते हैं तो।
विनोदजी साहित्य में और अपने निजी जीवन में आत्म प्रचार से कोसों दूर-दूर रहते हैं। साहित्यिक तिकड़मों और षड्यंत्रों से बेखबर तमाम तरह की गुटबाजियों से बेपरवाह अपने सृजन की एकांतिक साधना में निरत वे मुझे किसी संत या योगी के समतुल्य अधिक जान पड़ते हैं।
-कनक तिवारी
भगतसिंह भारतीय समाजवाद के सबसे कम उम्र के चिंतक हैं। विवेकानंद, गांधी, जयप्रकाश, लोहिया, नरेन्द्रदेव, सुभाषचन्द्र बोस, मानवेन्द्र नाथ राय और जवाहरलाल नेहरू वगैरह ने समाजवाद शब्द का उल्लेख उनसे बड़ी उम्र में किया। भारतीय क्रांतिकारियों के सिरमौर के रूप में चंद्रशेखर आजाद से भी ज्यादा लोकप्रिय हो गए भगतसिंह पंजाबी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के लेखक विचारक थे। उन्होंने सर्वाधिक लेखन हिन्दी में किया। माक्र्सवाद से प्रभावित होने के बावजूद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनना स्वीकार नहीं किया था। 1928 के आसपास और खासतौर पर सान्डर्स वध के बाद भगतसिंह का भूकम्प इतिहास ने महसूस किया। उनके समर्थक होने के बाद न केवल जवाहरलाल नेहरू जैसे नवयुवक को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, बल्कि पूर्ण स्वराज्य का नारा कांग्रेस को नेहरू की अध्यक्षता में देना पड़ा। भगतसिंह अकेले ऐसे योद्धा हैं जिनकी शहादत के पहले महात्मा गांधी से ख्याति किसी कदर कम नहीं थी। यह पट्टाभिसीतारमैया ने अपनी पुस्तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास में स्वीकार किया है।
भगतसिंह ने कांग्रेस और क्रांतिकारियों के पारंपरिक नारे ‘वन्दे मातरम्’ की जगह ‘इंकलाब जिंदाबाद’ को भारतीयों के कंठ में इंजेक्ट किया। वह नारा क्रांति का प्रतीक बन गया। भगतसिंह ने धार्मिक आस्थाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने के लिए ‘अल्लाह ओ अकबर’, ‘सत श्री अकाल’ और ‘वंदे मातरम्’ जैसे नारे उछालने में विश्वास नहीं किया। उन्होंने गांधी के आह्वान पर स्कूल की पढ़ाई छोडक़र आजादी के आंदोलन में खुद को झोंक दिया। साम्यवादी विचारकों माक्र्स, लेनिन, एंजिल्स और प्रिंस क्रापाटकिन आदि को पढऩे के अतिरिक्त भगतसिंह ने अप्टॉन सिंक्लेयर, जैक लंडन, एम्मा गोल्डमैन, बर्नर्ड शॉ, चाल्र्स डिकेन्स, एंगेल्स और बाकुनिन आदि को भी उतनी ही गंभीरता से पढ़ा था। उन्होंने चौबीस वर्ष से कम उम्र में तीन सौ से अधिक महत्वपूर्ण किताबें पढ़ रखी थीं और शहादत के दिन भी लेनिन की जीवनी पढ़ते-पढ़ते फांसी के फंदे पर झूल गए।
भगतसिंह का निर्माण नेशनल कॉलेज लाहौर के प्रिंसिपल छबील दास, द्वारका दास लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री, महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी और उनके मित्रों भगवतीचरण वोहरा, चंद्रशेखर आजाद, सोहनसिंह जोश, सुखदेव, विजय कुमार सिन्हा, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि ने मिलकर किया था। आश्चर्य है भगतसिंह के साहित्य में विवेकानंद का उल्लेख नहीं है। मार्च, 1927 में भगतसिंह द्वारा स्थापित नौजवान सभा लाहौर में बंगाल के क्रांतिकारी नेता और विवेकानंद के भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त को ‘पश्चिम में युवा आंदोलन’ विषय पर भाषण देने के लिए बुलाया गया था। बंगाल के क्रांतिकारी और कांग्रेस के सभी बड़े नेता तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू और सुभाष बोस आदि विवेकानंद से प्रभावित थे। भगतसिंह पर शायद सबसे अधिक असर अपने चाचा अजीत सिंह का था। बगावत करने की वजह से उन्हें अंग्रेजों ने लगभग पूरे जीवन का देश निकाला दिया था। अजीत सिंह, पिता किशन सिंह, लाला लाजपत राय, प्रिंसिपल छबीलदास, लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष बोस का समर्थन करने के बावजूद भगतसिंह के साथ कांग्रेस के सरकारी प्रस्तावों ने न्याय नहीं किया। भगतसिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नामक क्रांतिकारी संगठन के नाम में सोशलिस्ट नाम का शब्द इस आशय के साथ जोड़ा कि भारत को स्वतंत्रता मिलने पर उसका आर्थिक उद्देश्य समाजवाद होना चाहिए। पांच दशक बाद संविधान में संशोधन द्वारा समाजवाद शब्द जोड़ा गया।
भगतसिंह और साथियों का जीवन धर्मनिरपेक्षता को परवान चढ़ाते बीता। उनका विश्वास था धर्म का राजनीति से लेना-देना नहीं होना चाहिए। नास्तिक भगतसिंह को ईश्वर या धर्म की परंपराओं में विश्वास नहीं था। दलित वर्ग के लिए क्रांतिकारी संगठनों के दरवाजे बराबरी के आधार पर खुले थे। किस्सा है कि मुसलमानों के अलग-अलग रूढ़ विश्वासों के कायम रहते झटका और हलाल किस्म के मांस को एक साथ परोसकर खिलाए जाने की घटनाएं भी क्रांतिकारियों के बीच होती रहती थीं। भगतसिंह का जीवन प्रकाश की तरह उजला और सूरज के ताप की तरह उष्ण था। अध्ययन और अध्यवसाय के बिना क्रांति की कल्पना उनमें नहीं थी। विपरीत राजनीतिक घटनाओं के बावजूद महात्मा गांधी को लेकर बेहद सम्मान भी था। उनके लिए किसान मजदूर और विद्यार्थी क्रांति के आधार थे।
भगतसिंह अनोखे नेता इसलिए थे कि वे किसी लीक पर नहीं चले। उन्होंने भारतीय क्रांति और स्वतंत्रता युद्ध के मूल्य स्थिर और विकसित करने में परंपरावादी राजनीतिशास्त्र का मुखौटा नहीं लगाया। चाहते तो आयरलैण्ड, फ्रांस और रूस की क्रांतियों के जननायकों जैसा रास्ता तलाश सकते थे। उन्होंने वैसा नहीं किया। भगतसिंह ने रूसी विचारकों को अपने अंतिम दौर में प्रेरणा स्त्रोत बनाया। शुरुआती दौर में आयरलैण्ड के विद्रोहियों से प्रेरणा ग्रहण करते रहे। भगतसिंह ने पूरी तौर पर सशस्त्र क्रांति को खारिज नहीं किया। साफ कहा सशस्त्र क्रांति उस समय ही अनिवार्य विकल्प है, जब जनता पूरी तौर पर क्रांति के नियामक मूल्यों के लिए सुशिक्षित हो। भगतसिंह सशस्त्र क्रांति को केवल जनता और हुक्मरानों का ध्यान खींचने का माध्यम भर समझते थे। उनके वैचारिक फलसफा में आर्थिक क्रांति करने के लिए सर्वहारा की सार्थक और निर्णायक भूमिका का समावेश था।
भगतसिंह के राजनीतिक उद्देश्य मसलन धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और अस्पृष्यता उन्मूलन वगैरह संविधान में शामिल तो कर लिए गए हैं। अमल में उनकी लचर स्थिति है। भगतसिंह समर्पित नौजवानों की बड़ी टीम बनाए जाने के पक्षधर थे जो राजनीतिक आदर्शों को यथार्थ में तब्दील कर सके।उनके कई साथी तार्किक दृष्टि से सम्पन्न और उतने ही घनत्व के थे। विचार और कर्म के समन्वय को ध्रुव तारा बनाकर आकाश में टांक देने की भगतसिंह की बौद्धिक कुशलता उन्हें इतिहास में ईष्र्या योग्य बनाती है। बेहद हंसमुख चेहरे को देखकर समझना मुश्किल था कि उनमें बगावत के शोले उबल रहे हैं। वे मृत्युंजय थे। शुरुआत में खतरों से खेलने का रूमानी एडवेंचर भले रहा हो, बाद में भगतसिंह की वैचारिक प्रौढ़ता गाढ़े वक्त में हिन्दुस्तान की आजादी को लेकर बहुत काम आ रही थी। भगतसिंह को औसत जीवन भी नहीं मिला।
असेंबली बम काण्ड में धुएं और गर्द गुबार की अफरातफरी के चलते उनके और बटुकेश्वर दत्त को आसानी से भाग जाने का मौका भी था। असेंबली बम काण्ड क्रांतिकारिता का क्लाइमैक्स था। दरअसल असेंबली में बम नहीं बल्कि क्रांति के अग्निमय शोलों से लकदक वे लाल परचे फेंके। वे किसी भी मुर्दा कौम में बगावत के स्फुलिंग भर सकते थे। वह ब्रिटिश सम्राज्यवाद को भारतीय युवकों की एक प्रतीकात्मक चुनौती थी। उसका समकालीन इतिहास पर वांछित असर पड़ा।
भगतसिंह का दुर्भाग्य है कि अपनी सुविधा के अनुसार उन्हें हिंसक, क्रांतिकारी, कम्युनिस्ट या कांग्रेस के अहिंसा के सिद्धांत का विरोधी बताकर इस अशेष जननायक का मूल्यांकन करने की कोशिश की जाती है। क्रांतिकारियों का उत्सर्ग कच्चे माल की तरह रूमानी क्रांतिकारी फिल्मों का अधकचरा उत्पाद आज नवयुवक पीढ़ी को बेचा जा रहा है। उसके सामने आजादी के बदले अपने देश में बेकारी का सवाल मुंह बाए खड़ा है। भगतसिंह का असली संदेश किताबों को पढऩे की ललक और उससे उत्पन्न अपने से श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों से सिद्धांतों की बहस में जूझने के बाद उन सबके लिए एक रास्ता तलाश करने की है जिन करोड़ों भारतीयों के लिए कोई प्रतिनिधि शक्ति इतिहास में दिखाई नहीं देती। भगतसिंह इस लिहाज से दुर्घटनाग्रस्त होने के बावजूद इतिहास की दुर्घटना नहीं थे। वे संभावनाओं के जननायक थे। उनसे कई मुद्दों पर असहमति भी हो सकती है लेकिन भगतसिंह से बौद्धिक मुठभेड़ किए बिना सभी तरह की विचारधाराओं का श्रेष्ठि वर्ग आज तक उनसे कन्नी काटता रहा है। तकलीफदेह सूचना है कि भगतसिंह ने लगभग तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें जेल में लिखी थीं जो बाहर पहुंचाए जाने के बावजूद लापरवाही, खौफ या अकारण नष्ट हो गईं। जेल की डायरी उनकी आखिरी किताब है। उसके टुकड़े-टुकड़े जोडक़र उनके तेज दिमाग के तर्कों के समुच्चय को पढ़ा और प्रशंसित किया जा सकता है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चार दिन पहले तक मुंबई के जो पुलिस कमिश्नर रहे, ऐसे परमबीर सिंह ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को जो चि_ी भेजी है, उसने हिंदुस्तान की राजनीति को नंगा करके रख दिया है। उस चि_ी में उन्होंने लिखा है कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने पुलिस के सहायक सब-इंस्पेक्टर को आदेश दिया था कि वह उन्हें कम से कम 100 करोड़ रु. हर महिने लोगों से उगाकर दे। इस सब-इंस्पेक्टर का नाम है-अनिल वाजे।
वाजे को अभी इसलिए गिरफ्तार किया गया है कि उसे उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर के बाहर बारुद से भरी कार खड़ी करने के लिए जिम्मेदार पाया गया है। इतना ही नहीं, उस कार के मालिक मनसुख हीरेन की हत्या में भी उसका हाथ होने का संदेह है। वाजे को कई वर्ष पहले भी संगीन अपराधों में लिप्त पाया गया था। गृहमंत्री देशमुख ने वाजे को पैसा बटोरने की तरकीब भी बताई थी।
उन्होंने उससे कहा था कि मुंबई में 1750 रेस्तरां और शराबवाले हैं। यदि एक-एक से दो-दो, तीन-तीन लाख रु. भी वसूले तो 40-50 करोड़ रु. तो ऐसे ही हथियाए जा सकते हैं। यह बात वाजे ने परमबीर को उसी दिन बता दी थी। परमबीर ने अपनी इस जानकारी के प्रमाण भी दिए हैं। वाजे था तो मामूली इंस्पेक्टर के पद पर लेकिन उसकी सीधी पहुंच गृहमंत्री और मुख्यमंत्री तक थी। वाजे जब राष्ट्रीय जांच एजेंसी के फंदे में फंस गया तब भी मुख्यमंत्री ठाकरे उसको बचाते रहे और परमबीर सिंह का तबादला कर दिया।
परमबीर सिंह अपने नाम के मुताबिक वाकई परमबीर साबित हुए, उन्होंने सरकारी पद पर रहते हुए भी मुख्यमंत्री को ऐसा खत लिख दिया, जो महाराष्ट्र की संयुक्त सरकार के लिए परमतीर (अग्निबाण) सिद्ध हो सकता है। अब उस पत्र की प्रमाणिकता पर ही संदेह व्यक्त किया जा रहा है लेकिन गृहमंत्री उस पर मानहानि का मुकदमा चलाएंगे, यही सिद्ध करता है कि पत्र में कुछ न कुछ दम जरुर है। यह पत्र महाराष्ट्र की ही नहीं, हमारे देश की राजनीति की भी असलियत को उजागर कर देता है। देश में कोई पार्टी और नेता ऐसा नहीं है, जो यह दावा कर सके कि उसका दामन साफ है। राजनीति आज काजल की कोठरी बन चुकी है। साम, दाम, दंड, भेद के बिना वह चल ही नहीं सकती। भर्तृहरि ने हजार साल पहले ठीक ही कहा था कि राजनीति ‘नित्यव्यया, नित्यधनागमा’ है। यह रहस्य मुझे अब से 60-65 साल पहले ही पता लग गया था, जब मैं इंदौर में धड़ल्ले से चुनाव-प्रचार किया करता था। दिल्ली में अपने कुछ परम मित्र प्रधानमंत्रियों और कई मुख्यमंत्रियों ने इस तथ्य पर अपनी मुहर भी लगाई और अपनी मजबूरी भी बताई।
राजनीति चलाने के लिए यदि आप कभी भिखारी, कभी डाकू, कभी सेवक और कभी मालिक की भूमिका नहीं निभा सकते तो आप उससे दूर ही रहें तो बेहतर है। राजनीति में यदि आप सफल होना चाहते हैं तो आपको बेशर्म, खुशामदी, नौटंकीबाज, घोर स्वार्थी और लफ्फाज होना बेहद जरुरी है। पता नहीं, इस राजनीति का शुद्धिकरण कौन करेगा, कैसे करेगा और कब करेगा ? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से कल तीन महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक तो अलास्का में अमेरिकी और चीनी विदेश मंत्रियों की झड़प, दूसरी मास्को में तालिबान-समस्या पर बहुराष्ट्रीय बैठक और तीसरी अमेरिकी रक्षा मंत्री की भारत-यात्रा। इन तीनों घटनाओं का भारतीय विदेश नीति से गहरा संबंध है। यदि अमेरिकी और चीनी विदेशमंत्रियों के बीच हुई बातचीत में थोड़ा भी सौहार्द्र दिखाई पड़ता तो वह भारत के लिए अच्छा होता, क्योंकि गलवान-मुठभेड़ के बावजूद चीन के साथ भारत मुठभेड़ की मुद्रा नहीं अपनाना चाहता है। लेकिन अलास्का में दोनों पक्षों ने तू-तू-मैं-मैं का माहौल खड़ा कर दिया है। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विरुद्ध खुलेआम भाषण दिए हैं।
इसका अर्थ यही हुआ कि बाइडन प्रशासन में भी चीन के प्रति ट्रम्प-नीति जारी रहेगी। अब भारत को दोनों राष्ट्रों के प्रति अपना रवैया तय करने में सावधानी और चतुराई दोनों की जरूरत होगी। दूसरी घटना मास्को में तालिबान-समस्या को लेकर हुईं। उस वार्ता में रुस के साथ-साथ अमेरिका, भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया।
अफगान सरकार और तालिबान के प्रतिनिधि वहां उपस्थित थे ही। दोहा-समझौते के मुताबिक अफगानिस्तान में अमेरिका और यूरोपीय देशों के जो लगभग 10 हजार सैनिक अभी भी जमे हुए हैं, वे 1 मई तक वापस लौट जाने चाहिए लेकिन मास्को बैठक में इस मुद्दे पर कोई सहमति नहीं हो पाई है। तालिबान के प्रवक्ता ने कहा है कि वे काबुल में इस्लामी सरकार स्थापित करने के लिए कटिबद्ध हैं जबकि वार्तारत देशों का कहना है कि वहां मिली-जुली सरकार बने। यदि 1 मई को विदेशी फौजों की वापसी नहीं हुई तो तालिबान ने सख्त कार्रवाई की धमकी दी है।
आश्चर्य है कि वहां भारत गूंगी गुडिय़ा क्यों बना रहता है ? वह कोई पहल क्यों नहीं करता है? वह अमेरिका का पिछलग्गू क्यों बना रहता है? यह ठीक है कि भाजपा के पास विदेश-नीति विशेषज्ञों का अभाव है और वह गैर-भाजपाइयों विशेषज्ञों को संदेहास्पद श्रेणी में रखती है लेकिन हमारा विदेश मंत्रालय कोई ऐसी पहल क्यों नहीं करता, जिससे तालिबान और गनी-अब्दुल्ला सरकार भी सहमत हो। अफगानिस्तान में स्वतंत्र चुनाव के बाद जिसकी भी सरकार बने, सभी राष्ट्र उसे मान्यता क्यों न दें?
तीसरा घटना है, अमेरिकी रक्षामंत्री लायड आस्टिन की हमारे नेताओं से भेंट। वे रूसी एस-400 प्रक्षेपास्त्रों की बात जरूर करेंगे। वे अपने हथियार भी बेचेंगे लेकिन भारत को सावधान रहना होगा कि अफगानिस्तान में वे अमेरिका की जगह भारत को फंसाने की कोशिश नहीं करें। (नया इंडिया की अनुमति से)
महान जीनियस हरिनाथ डे
-रमेश अनुपम
एफ.ए.की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात हरिनाथ डे ने कोलकाता के प्रसिद्ध कॉलेज प्रेसीडेंसी में बी.ए. की कक्षा में प्रवेश लिया।
सन् 1896 में हरिनाथ डे ने लेटिन तथा अंग्रेजी ऑनर्स के साथ बी. ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
सन् 1896 में ही उन्होंने प्राइवेट छात्र के रूप में कोलकाता विश्वविद्यालय से एम. ए.लैटिन की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
The Calcutta University Magazine ने प्रकाशित किया-
' We congratulate mr Harinath De of our college who , having passed his B.A. E&amination in Latin and has stood First class, having secured as much as || percent of the ma&imum marks'
सन् 1897 के अप्रैल माह में हरिनाथ डे ने इंग्लैंड के प्रख्यात कॉलेज कैम्ब्रिज क्राइस्ट कॉलेज में दाखिला लिया। कैंब्रिज कॉलेज में पढ़ते-पढ़ते हरिनाथ डे ने कोलकाता विश्वविद्यालय से ग्रीक भाषा में भी एम.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली। उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय द्वारा स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया।
सन् 1898 में भारत सरकार द्वारा उन्हें प्रति वर्ष 200 पौंड की स्कॉलरशिप प्रदान की गई ।
कैंब्रिज में पढ़ते हुए हरिनाथ डे ने क्लासिकल ट्राईपास की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली थी।
हरिनाथ डे से पूर्व केवल एक भारतीय विद्यार्थी ने यह परीक्षा उत्तीर्ण की थी और वह भारतीय कोई और नहीं अरबिंदो घोष थे, जिन्होंने सन् 1892 में यह परीक्षा उत्तीर्ण की थी जो कालांतर में श्री अरबिंदो के नाम से चर्चित हुए।
सन 1900 में हरिनाथ डे ने उस समय की सर्वाधिक प्रतिष्ठापूर्ण I.C.S. की परीक्षा भी अच्छे नंबरों से पास कर ली, पर उन्होंने I.C.S. की सेवा में जाना स्वीकार नहीं किया।
सन 1901 में उन्होंने Medieval and Morden Languages Tripose की परीक्षा भी कैंब्रिज से उत्तीर्ण कर ली। उसी वर्ष उन्हें अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर तथा फ्रांसीसी अंग्रेजी साहित्यकार जेफ्री चौसर पर किए गए काम के लिए स्किट एवार्ड से सम्मानित किया गया।
कैंब्रिज में अध्ययन के दरम्यान ही उन्होंने फ्रांस और जर्मनी की यात्रा की। इन्हीं वैश्विक यात्राओं के मध्य वे अरबिक भाषा के विषय में शोध के लिए इजिप्ट भी गए।
सन् 1901 में वे इंडियन एजुकेशनल सर्विस (I.E.S.) में चयनित होकर भारत लौटे। 7 दिसंबर को उन्होंने सुप्रसिद्ध ढाका कॉलेज में अंग्रेजी भाषा और साहित्य के प्राध्यापक के रूप में पदभार ग्रहण किया।
वे पहले भारतीय आई.ई.एस. थे, उनसे पूर्व किसी भी भारतीय को यह गौरव प्राप्त नहीं हुआ था।
Christ's College Magazine में उन्हीं दिनों प्रकाशित हुआ 'Harinath De ,B.A. has been appointed to a post in the Imperial branch of the Educational Service of India . Mr. De is the first native of India to obtian a post in this service, as he was the first to be placed in the First class in the Classical Tripos'.
सन् 1904 में लॉर्ड कर्जन ढाका गए। वहां उन्होंने हरिनाथ डे से मिलने की अपनी इच्छा प्रकट की। लॉर्ड कर्जन भले ही अन्य मामलों में भारत में कुख्यात रहें हों, पर शिक्षा के प्रति उनमें गहरा रुझान था। वे विद्वानों का आदर करते थे, इसलिए स्वाभाविक था वे ढाका में हरिनाथ डे से मिलने की अपनी इच्छा को दबा नहीं पाए थे।
सन् 1905 में हरिनाथ डे का ट्रांसफर ढाका से प्रेसीडेंसी कॉलेज कोलकाता हो गया। संस्कृत, अरबिक तथा ओडिय़ा भाषा में उत्कृष्टता के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा पांच हजार रुपए की पुरुस्कार राशि से सम्मानित किया गया।
सन् 1907 में हरिनाथ डे कोलकाता के प्रसिद्ध इंपीरियल लाइब्रेरी (वर्तमान में नेशनल लाइब्रेरी) के लाइब्रेरियन नियुक्त किए गए। इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए भी हरिनाथ डे ने अपना पढऩा-लिखना और विविध भाषाओं के प्रति अपने अनुराग को कभी समाप्त नहीं होने दिया। अपने भीतर के ज्ञान की लौ को कभी बुझने नहीं दिया।
सन् 1908 में उन्होंने संस्कृत भाषा में प्रथम श्रेणी से एम. ए. की परीक्षा पास की, उन्हें पुरस्कार स्वरूप दो गोल्ड मेडल प्रदान किए गए।
सन् 1909 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय में अपनी पी-एच. डी. की थिसिस जमा की। कोलकाता विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें अंग्रेजी, ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, आर्मेनियन, संस्कृत, अरबिक, पर्शियन, उर्दू भाषाओं का परीक्षक नियुक्त किया गया।
दुनिया की छत्तीस भाषाओं में एक साथ अपनी किरण बिखेरने वाला यह सूर्य 30 अगस्त सन 1911 को सदा-सदा के लिए बादलों में कहीं छिप गया।
छत्तीसगढ़ और रायपुर का इतिहास जब भी लिखा जायेगा वह महान जीनियस हरिनाथ डे के बिना कभी पूरा नहीं होगा।
आज भले ही छत्तीसगढ़ ने उसे भूला दिया हो पर आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ न केवल अपने इस सपूत को याद करेगा, अपितु गर्व के साथ सिर ऊंचा उठाकर कह भी सकेगा कि हरिनाथ डे छत्तीसगढ़ के सचमुच हीरा थे और हमेशा रहेंगे।
अगले रविवार.. ‘जब बिलासपुर रेलवे स्टेशन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने किया अपनी पत्नी मृणालिनी देवी से छल।’
-प्राण चढ्डा
संकुचित हो रहा हरियाली का छत, सूखती नदियां और वनोषधियों के लिए जंगल का निर्मम दोहन का नतीजा है यह जैवविविधता पर संकट के दौर में है। प्रकृति के खुले खजाने की लूट मची है। वन्य जीव अब नेशनल पार्क और सेंचुरी में बचे हैं, आबादी जंगल तक पँहुच रही है और जंगल वन्य जीव पानी के लिए भटके आबादी के करीब पहुंच गए तो समझो उनकी मौत खींच लाई है।
आजादी के बाद देश में चीता खत्म हुआ।1950 के आसपास छत्तीसगढ़ की कोरिया रियासत में नाइट ड्राइव में भारत के अंतिम तीन चीते मारे गए। फिर देश में चीता नहीं दिखा। भेडि़ए तेजी से खत्म हो रहे हैं, गांव के करीब दिखने वाले लकड़बघ्घा, जंगली बिल्ली, खरगोश, लोमड़ी का दिखना तो अब सौभाग्य की बात है।
टाइगर के वह तेवर नहीं रहे कि जब उनकी सँख्या अधिक थी तब जो होते। अब नेशनल पार्क में टाइगर जिप्सी के आगे, पीछे सडक़ की रैम्प पर ‘कैटवाक’ करता महसूस होता है। कभी टाइगर का खौफ जंगल की रक्षा करता, और जंगल उसको आश्रय देता। सदियों से चल रहा, यह नाता जंगल की कटाई, और वैध अवैध कटाई के कारण विनष्ट हो गया है। हर साल जंगल की इन दिनों में लगने वाली आग जंगल और वन्यजीवों के लिए समान घातक बनी रहती है।
छत्तीसगढ़ का राजकीय पशु लुप्त होने के कगार पर है। डब्ल्यूटीआई और वन विभाग की इसके संवर्धन के लिए प्रयास किया जा रहा है, जिसके तहत एक जोड़ा युवा वन भैसा असम से लाकर बारनवापारा सेंचुरी में रखा गया है।
छत्तीसगढ़ के बहतरीन जंगल इंद्रावती नेशनल पार्क में, नक्सलियों की चलती है। यहां वन भैसे या टाइगर शेष है या नहीं और हैं तो कितने यह कोई प्रमाण देते हुए नहीं कहा सकता। वन विभाग नक्सलियों के भय से यहां वन्यजीवों की गिनती भी नहीं करा सकता। जैव विविधता की एक कड़ी टूटी तो माला बिखरते देर नहीं लगती। मधुमक्खी, तिलती या पतंगे कम हुए तो इसका असर जंगल की हरियाली पर दिखता है। जब पराग वाहक ही नहीं तो जंगल में बीज कैसे बनेगा। नए पौधों की कमी से जंगल हरियाली कम होती जाएगी।
जिसका बुरा असर सींग और खुर वॉले वन्यजीवों पर पड़ेगा, ये जीव पंजे और केनाईन वाले जीवों का शिकार हैं। उनको भी पेट भरने के लाले पड़ेंगे। यह है जैव श्रृंखला में कीट-पतंगों की कमी का दुष्प्रभाव। कोई कड़ी टूटी माला बिखरी।
जंगल में पुराने बड़े पेड़ों की कमी होने और मानव की दखलंदाजी के वजह कोटर आशियाना बनने वॉले बड़ा काला धनेश, बड़े उल्लू अब कम हो गए है। गिद्ध जिस गति से शहरी इलाके में खत्म हुई वह चिन्तनीय है। अब ये पहुंच विहीन इलाकों में है, जैसे बाँधवगढ़ के राज बेहरा, अचानकमार के औरापानी, कान्हा नेशनल पार्क में।
कान्हा नेशनल पार्क की बड़ी उपलब्धि कड़ी जमीन पर रहने वाले सख्त खुरों वाला बारहसिंघा जिसे लुप्त होने से बचा लिया गया और अब खतरे की रेखा को यह पार कर गए हैं। बाइसन याने इंडियन गौर भी छत्तीसगढ़ में काफी है। पर छत्तीसगढ़ में टाइगर को सौभाग्यशाली ही देख पता है। उडऩे वाली गिलहरी अब यदाकदा दिखतीं हैं। मासूम चिडिय़ा और सरीसृप खमोशी से कम होते जा रहे हैं और किसी को पता भी नहीं लगता।
साल का सदाबहार शीतल जंगल बचना होगा, क्योंकि इसका रोपण सफल नहीं होता। यह कुदरती तरीके से उगते और फिर बढ़ते हैं। चंदन, कत्थे याने खैर के पेड़ नित्य कम हो रहे, इसकी भरपाई कठिन है। कोई पेड़ सालों में बढ़ता है और कुछ घँटे की अवधि में टुकड़े होकर बिखर जाता है।
आर्युवेदिक दवा के लिए जंगल को फिक्स डिपाजिट माने, जिस कंपनी को दवा बनना हो वह अपना जंगल खुद तैयार करे। जंगल में उनकी वसूली से जनकल्याण हो रहा है लेकिन जंगल के विनाश की कीमत पर यह बहुत मंहगा है। जंगल के हाट बाजार में कोई इसकी खरीद फरोख्त नहीं करे इसके लिए सख्त कदम उठाने का वक्त आ गया है। इसकी भरपाई के लिए, कुल्लू, अर्जुन, दहीमन तेंदू बिल्व और चार जैसे कई पेड़ कम हो रहे हंै उनका प्लान्टेशन कैसे और बढ़े इस तरफ कदम अब जरूरी है। वेटलैंड की निरन्तर हो कमी से बछ, ब्रह्मी बूटी जैसी दिव्य वनोषधि की कमी जैवविवधता संकट में जा रहीं हैं। वेटलैंड की कमी से जीव और वनस्पतियों को क्षति हो रही है।
चीन और अमेरिका के संबंधों में राष्ट्रपति ट्रंप के समय की कड़वाहट जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद यदि किसी ने खत्म होने की उम्मीद की थी, तो दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बातचीत से उम्मीद की किरणें बुझ सी गई हैं.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र का लिखा-
बातचीत की जैसी शुरुआत हुई उससे लगता चीन के विदेश मंत्री वांग यी और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के विदेश मामलों के प्रमुख यांग जेइची की अमेरिका यात्रा चीन-अमेरिका संबंधों में और कड़वाहट घोल देगी. अमेरिका के अलास्का प्रांत के एंकरेज में अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन और राष्ट्रपति जो बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सलीवान के साथ चीनी नेताओं की मुलाकात रूखे माहौल में हुई. दोनों पक्षों के बीच यह तय था कि बैठक की शुरुआत वह बारी-बारी से मीडिया को दो-दो मिनट के वक्तव्य देकर करेंगे. लेकिन बात यहीं से बिगड़ने लगी.
विदेश मंत्री ब्लिंकेन ने चीनी सरकार के द्वारा हाल में उठाए कुछ कदमों पर चिंता जताई जिसमें शिनजियांग, ताइवान और हांगकांग में मानवाधिकार उल्लंघनों का जिक्र भी था. साथ ही यह भी कि चीन से लगातार अमेरिकी सरकारी संस्थानों और कंपनियों पर साइबर हमले हो रहे हैं और अमेरिका इन बातों से चिंतित है क्योंकि यह घटनायें नियमबद्ध अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चोट पहुंचा रही हैं. अपने मित्र देशों पर चीन की आर्थिक ज्यादतियों की बात भी अमेरिका ने रखी. हालांकि इसमें कुछ नया नहीं था क्योंकि ट्रंप सरकार की तर्ज पर ही बाइडेन सरकार भी इन मुद्दों को पूरी ताकत से उठाती आ रही है. लेकिन चीनी पक्ष इस बात से कुछ ज्यादा ही भड़क गया.
शुरुआती बयानों के बाद तल्खी
कूटनीति में बिन बात तैश में आने का कोई काम नहीं मगर चीनी पक्ष को ब्लिंकेन की बात नागवार गुजरी और जवाब में चीन के पार्टी नेता यांग जेइची ने अमेरिकी नीतियों की धुलाई करते हुए काफी कुछ कह डाला. उन्होंने कहा कि अमेरिका का खुद का इतिहास मानवाधिकार उल्लंघनों से भरा है, खास तौर पर अश्वेत अमेरिकी नागरिकों को लेकर. दो मिनट के बजाय लगभग आठ मिनट के इस लम्बे वक्तव्य में यांग जेइची ने अमेरिकी सरकार को मानवाधिकार मुद्दे पर पहले अपने गिरेबान में झांकने की नसीहत दी और साथ ही यह भी कह डाला कि अमेरिकी लोकतंत्र में भी खामियां बहुत हैं और अब तो कुछ अमेरिकी नागरिक भी इससे असंतुष्ट हैं.
बस फिर क्या था जेक सलीवान भी जवाब देने का लोभ संवरण न कर सके और सभा से बाहर जाते मीडियाकर्मियों को वापस बुला कर उन्होंने कहा कि अमेरिका और चीन में अंतर यही है कि जहां चीनी सरकार देश में मानवाधिकार हनन और अल्पसंख्यकों की चिंताओं को स्वीकार तक नहीं कर रही, अमेरिका में रंगभेद और लोकतंत्र की खामियों पर खुलेआम सार्वजनिक बात होती है और यही बात अमेरिका को खास बनाती है. सलीवान की यह बात बेशक दिल जीतने वाली है. किसी भी लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत यही है कि वहां बेहतरी और सुधार की कोशिशें लगातार जारी रहें और इस बारे में खुल कर बहस मुबाहिसा भी हो सके. अमेरिका के नेतृत्व में चल रही नियमबद्ध अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के समर्थन में सलीवान ने चीन की विदेशनीति पर सीधा निशाना साधते हुए कहा कि ऐसी व्यवस्था का विकल्प अगर जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसी व्यवस्था है, तो वह दुनिया के लिए और भी खतरनाक होगी.
क्यों बिगड़ा बातचीत का माहौल
किसी भी मंत्री स्तरीय वार्ता के लिए यह काफी बुरी शुरुआत है, और यहां तो विश्व राजनीति के दोनों धुरंधरों की बैठक थी. तो ऐसा क्या हुआ कि बात इतनी बिगड़ गई? सबसे पहली बात तो यही है कि चीन ने सोचा था कि अब जब कि डॉनल्ड ट्रंप सत्ता में नहीं रहे और जो बाइडेन सत्ता में आ चुके हैं, चीन और बाइडेन सरकार के बीच सब कुछ ठीक हो जायेगा. बाइडेन सरकार की ओर से चीन पर आ रहे वक्तव्यों को चीन ने गंभीरता से नहीं लिया. अमेरिकी शासन व्यवस्था के किताबी ज्ञान के अनुसार तो रिपब्लिकन और डेमोक्रेट सरकारों की विदेश नीतियों में व्यापक अंतर होने चाहिए लेकिन बाइडेन सरकार ने कुछ भी नहीं बदला है, आखिर उन्हें रिपब्ल्किन सांसदों का भी समर्थन चाहिए.
ट्रंप सरकार की इंडो-पैसिफिक नीति हो या क्वाड, अब्राहम अकॉर्ड हो या चीन के साथ आर्थिक संबंध. बाइडेन सरकार ने रिपब्लिकन-डेमोक्रेट के चक्कर में न पड़कर मुद्दों की खूबी देख कर उन्हें जारी रखा है. कहीं न कहीं इस बात को समझने में चीन ने चूक की और बातचीत के इस दौर को दो महाशक्तियों के बीच संवाद की शुरुआत का जामा पहनाने की कोशिश भी की. अमेरिकी प्रशासन को यह बात नहीं पसंद आयी और इसे खुले तौर पर मीडिया के सामने रखा भी गया. साफ है, कूटनीतिक मेसेजिंग की चीन की योजना फिस्स हो चुकी है. साथ ही बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जीनपिंग के बीच पृथ्वी दिवस पर 22 अप्रैल को होने वाली ऑनलाइन बैठक भी खटाई में पड़ती दिख रही है.
तीन साल से आमने सामने हैं चीन अमेरिका
चीन और अमेरिका के बीच पिछले काफी समय से तनातनी बनी हुई है जिसकी शुरुआत लगभग तीन साल पहले ट्रंप के कार्यकाल में ही हो गयी थी. ट्रंप के राष्ट्रपति रहते ही अमेरिका और चीन के बीच दोनों देशों के बीच व्यापार युद्ध छिड़ा जो समय के साथ और ज्यादा तल्ख होता चला गया. इसमें दो राय नहीं है कि चीन ने ट्रंप को कम करके आंका और व्यापार युद्ध में मुंहकी खायी. पिछले 2-3 वर्षों में अमेरिका ने एक तरफ इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को मजबूत किया और भारत की इसमें बड़ी भूमिका भी सुनिश्चित की. साथ ही अमेरिका ने भारत, जापान, अमेरिका और आस्ट्रेलिया के साझा सामरिक सहयोग के मंच क्वाड को भी मजबूती दी. सामरिक और कूटनीतिक मसलों पर अच्छी समझ का परिचय देते हुए तो फिलहाल बाइडेन प्रशासन ट्रंप की कई नीतियों को अपने ढंग से आगे बनाता दिखा रहा है, जो दुनिया के तमाम देशों के लिए भी राहत की खबर है.
दूसरी ओर चीन अपनी बढ़ती आर्थिक और सैन्य ताकत की वजह से अपने को अमेरिका से कहीं भी कमतर नहीं आंकता. अमेरिकी प्रधानता और वर्चस्व को चुनौती देने की चीन की मंशा भी धीरे धीरे सामने आती जा रही है. लेकिन चीन अभी भी आर्थिक, सैन्य, और सामरिक स्तर पर अमेरिका से काफी पीछे है. चीन को यह समझना होगा कि सिर्फ सरकार बदल जाने से अमेरिका के साथ उसके संबंध नहीं सुधरेंगे. संबंधों में सुधार के लिए दोनों पक्षों को व्यापक पैमाने पर कदम उठाने होंगे. शायद इस दिशा में चीन को कुछ दूर आगे बढ़ कर शांति और समझौते की पहल करनी पड़ेगी. अंततः दोनों देश यदि आपसी बातचीत को सही रास्ते पर ला सकें तो सबके लिए अच्छा होगा, लेकिन फिलहाल ऐसा होना मुश्किल लग रहा है. (dw.com)
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
-हेमंत कुमार झा
चाहे जितने मुर्दाबाद कर लें, आज दो सरकारी बैंक निजी हो रहे हैं, कल चार होंगे, परसों आठ होंगे। आज सौ रेलवे प्लेटफार्म निजी हो रहे हैं, कल हजार होंगे। जैसे, शुरू में बड़े शहरों में निजी स्कूल खुले और धनाढ्य-नवधनाढ्य वर्ग ने उस पर पैसों की बरसात कर उसे अंगीकार किया। आज कस्बों-गांवों में भी निजी स्कूलों की भरमार है और रिक्शावाला, दिहाड़ी मजदूर भी अपना पेट काट कर बच्चों की फीस भरने के लिए विवश है, क्योंकि यह तथ्य स्वीकृत कर लिया गया है कि बच्चों को अगर बड़ा आदमी बनना है तो निजी स्कूलों ही विकल्प हैं।
अपनी हड़ताल के दौरान बैंकों के बाबू लोग नारे लगाते देखे गए ‘नीति आयोग, मुर्दाबाद।’ इसमें कोई हैरत की बात भी नहीं थी क्योंकि यह नीति आयोग ही है जो व्यापक निजीकरण का खाका खींच रहा है और यह उसी की दृष्टि है जिसके अनुसार बैंकों के निजीकरण की ओर कदम बढ़ाए जा रहे हैं। तो नीति आयोग का मुर्दाबाद तो बनता है।
हैरत तब भी नहीं हुई थी जब इन्हीं बाबू लोगों के बड़े हिस्से ने योजना आयोग को अप्रासंगिक ठहराए जाने का समर्थन किया था और उसकी जगह नीति आयोग के गठन की घोषणा का उल्लास के साथ खैरमकदम किया था।
एक वह दिन था और एक आज का दिन है।
खैरमकदम से शुरू होकर मुर्दाबाद तक पहुंचने में कई वर्ष लग गए इन बाबू लोगों को। हालांकि, इस बीच नीति आयोग से जुड़े अधिकारियों और विशेषज्ञों ने कभी भी निजीकरण को लेकर अपने विचारों को नहीं छुपाया। वे शुरू से ही स्पष्ट थे कि पब्लिक सेक्टर की इकाइयों से लेकर स्कूल और अस्पताल तक निजी हाथों को दे देना चाहिये। यहां तक कि नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने तो ‘कम्प्लीट प्राइवेटाइजेशन ऑफ एलिमेंट्री एडुकेशन’ जैसी खतरनाक बातें भी की। वे सरकारी जिला अस्पतालों तक में निजी हिस्सेदारी बढ़ाने की न सिर्फ वकालत करते रहे थे बल्कि इस विचार को मूर्त रूप देने के लिये योजनाओं पर काम भी कर रहे थे।
गौर करने की बात यह है कि यह सब 2019 के आम चुनाव से बहुत पहले, नरेंद्र मोदी की सरकार के पहले कार्यकाल के पूर्वार्ध में ही हो रहा था। जब योजना आयोग को खत्म कर नीति आयोग का गठन किया गया था तो कहा गया था कि बदलते दौर में भारत के विकास को दिशा देने में इसकी बड़ी भूमिका होगी।
लेकिन, शुरू से ही स्पष्ट था कि नीति आयोग में ऐसे विशेषज्ञों का जमावड़ा है जो हर मर्ज का इलाज निजीकरण में ही तलाशते हैं। वे कल्पनाशून्य विशेषज्ञ भारत की विशिष्ट आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार योजनाएं बनाने में कोई भी रुचि लेने के बजाय सब कुछ कारपोरेट के हवाले करने की योजनाओं पर काम करते रहे और इधर राजनीतिक नेतृत्व जम कर राष्ट्रवाद, धर्मवाद, अस्मितावाद, मिथकीय अतीत के सहारे पुनरुत्थानवाद आदि को विमर्श के केंद्र में स्थापित करता रहा।
ये पढ़े लिखे बाबू लोग, जो आज नीति आयोग का मर्सिया गा रहे हैं, तब इस ओर ध्यान देने की जरूरत भी महसूस नहीं कर रहे थे कि असल में नीति आयोग है क्या, यह कर क्या रहा है और इसके किए का हमारे या हमारे बाल-बच्चों के भविष्य पर कैसा असर पड़ेगा। जिस दिन अमिताभ कांत ने प्रारंभिक शिक्षा के ‘कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन’ की जरूरत बताई थी और सरकारी अस्पतालों में निजी वार्ड बनाने की कार्य योजनाओं पर काम शुरू किया था उस वक्त इस बाबू वर्ग का बड़ा हिस्सा राजनीतिक सत्ता के गढ़े गए नैरेटिव्स का मुखर प्रवक्ता बनकर अपने ड्राइंग रूम्स को संवेदनहीन विचारहीनता की उत्सवस्थली में बदल रहा था।
यह जरूर है कि बैंकिंग-बीमा सहित तमाम पब्लिक सेक्टर इकाइयों की कर्मचारी यूनियनों ने शुरू से ही निजीकरण की किसी भी योजना का विरोध किया और यदा-कदा धरना-प्रदर्शन भी करते रहे। लेकिन, इनका महत्व रस्मी विरोध से अधिक कभी नहीं रहा क्योंकि दिन में ‘निजीकरण मुर्दाबाद’ का नारा लगाने वाला बाबू रात के प्राइम टाइम में टीवी पर चीखते एंकरों के शोर में पाकिस्तान को धूल चाटते और अपने देश को महाशक्ति बनते देख सब कुछ भूल जाता रहा। यह उस देश के शहरी मध्यवर्ग की आत्महंता आत्ममुग्धता थी जिसने इस तथ्य को स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि जिस देश में दुनिया के सबसे अधिक बेरोजगार बसते हों, सबसे अधिक कुपोषित माताएं और नौनिहाल बसते हों, जहाँ के किसानों की आत्महत्या की दर दुनिया में सर्वाधिक हो, जहां के कस्बाई-ग्रामीण इलाकों की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था ध्वस्त हो वह किसी भी सूरत में विश्व महाशक्ति तो नहीं ही बन सकता।
आर्थिक उदारवाद से उपजी समृद्धि और राजनीतिक वर्ग के गढ़े गए नैरेटिव्स से उपजी विचारहीनता ने शहरी मध्यवर्ग को विकल उपभोक्ता में बदल डाला जिसके उपभोग की ललक कभी कम न होती हो। खुद के स्वार्थों में डूबे और नतीजे में घोर आत्मकेंद्रित होते इस वर्ग ने इस देश की दो तिहाई आबादी, जो निहायत ही निर्धन है, के सरोकारों से खुद को न केवल पूरी तरह काट लिया बल्कि उनके शोषण का लाभान्वित भागीदार भी बन गया।
जो निजी क्षेत्र के कामगारों के बढ़ते शोषण से आंखें मूंदे रहे, श्रम कानूनों में मनुष्य और मनुष्यता विरोधी बदलाव लाती राजनीतिक सत्ता के समर्थन आधार बने रहे, जब खुद उनके बिल में पानी जाने लगा तो आज बिलबिलाते चूहों की तरह निकल कर, सडक़ों पर इधर-उधर जमावड़े लगा कर ‘जिंदाबाद-मुर्दाबाद’ के नारे लगा रहे हैं। वे आंदोलित हैं और सरकार को धमकी दे रहे हैं कि उनकी मांगों पर अगर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में वे और अधिक ‘उग’ आंदोलन करेंगे।
कितनी हवाई और निराधार कल्पनाएँ कर रहे हैं ये बाबू लोग कि सरकार उनके आंदोलन से ठिठक जाएगी और उनकी संस्थाओं का निजीकरण नहीं होगा। वे चाहते हैं कि हर चीज का निजीकरण हो जाए लेकिन उनके संस्थान का निजीकरण न हो ताकि नौकरी की सरकारी सुरक्षा के साथ वे नियमित और अबाध मोटी पगार पाते रहें और प्रस्तावित निजी रेलवे प्लेटफार्म के लकदक माहौल में आरामदेह निजी एक्सप्रेस ट्रेन की प्रतीक्षा करते रहें, कि निजी ट्रेन की सुविधासम्पन्न बोगियों में सफर करते छुट्टियां मनाने मनपसंद जगहों पर जाते रहें कि अपने बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में पढ़ाते रहें, महंगे निजी अस्पतालों में अपना इलाज करवाते रहें।
वे निजीकरण के विरोध में आज नारे लगाते देखे गए लेकिन उनसे बढक़र निजीकरण का कोई पैरोकार नहीं रहा। वे आंदोलन कर रहे हैं और सोचते हैं कि इससे शायद कोई फर्क पड़ जाए। कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। जैसे, निजीकृत हो चुकी या होती जा रहीं पब्लिक सेक्टर की अन्य इकाइयों के कर्मियों के आंदोलन से कोई फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि, बतौर आंदोलनकारी, चरित्र बल के मामले में सब के सब एक समान हैं।
दुनिया के इतिहास में आज तक कोई भी ऐसा आंदोलन सफल नहीं हुआ जिसके आंदोलनकारियों की जमात बतौर आंदोलनकारी, चरित्रबल के मामले में दरिद्र हो। आंदोलनकारियों का चरित्र आंदोलन का चरित्र निर्धारित करता है।
चाहे जितने मुर्दाबाद कर लें, आज दो सरकारी बैंक निजी हो रहे हैं, कल चार होंगे, परसों आठ होंगे।
आज सौ रेलवे प्लेटफार्म निजी हो रहे हैं, कल हजार होंगे। जैसे, शुरू में बड़े शहरों में निजी स्कूल खुले और धनाढ्य-नवधनाढ्य वर्ग ने उस पर पैसों की बरसात कर उसे अंगीकार किया। आज कस्बों-गांवों में भी निजी स्कूलों की भरमार है और रिक्शावाला, दिहाड़ी मजदूर भी अपना पेट काट कर बच्चों की फीस भरने के लिए विवश है, क्योंकि यह तथ्य स्वीकृत कर लिया गया है कि बच्चों को अगर बड़ा आदमी बनना है तो निजी स्कूलों ही विकल्प हैं।
आप निजीकरण विरोधी नारे लगाते रहो, उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे आपके नारे का दम जानते हैं। वे जानते हैं कि जल्दी ही आपका दम उखड़ जाने वाला है।
उपनिवेशवाद से लडऩे में सामूहिक भागीदारी ने आंदोलन को प्रभावी बनाया था, नवउपनिवेशवाद ने इस सामूहिकता को ही नष्ट कर अपना जाल बिछाया है। हितों के अलग-अलग द्वीपों पर लड़ती कामगारों की जमातें लड़ाई शुरू होने के पहले ही हार रही हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक बार फिर भारत के साथ अपने संबंधों को सहज बनाने की पहल की है। उन्होंने इस्लामाबाद में आयोजित सुरक्षा-संवाद में बोलते हुए कहा कि भारत यदि पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध बना ले तो उसे मध्य एशिया के पांचों राष्ट्रों तक पहुंचने की बड़ी सुविधा मिल जाएगी लेकिन यह तभी होगा जबकि भारत कश्मीर में जनमत—संग्रह कराने को तैयार हो।
इमरान खान को शायद याद नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के जनमत-संग्रह के प्रस्ताव को खुद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव रद्द कर चुके हैं। वह कभी का मर चुका है। खुद पाकिस्तान उसके लिए कभी तैयार नहीं हुआ है। उस प्रस्ताव के शुरु में कहा गया है कि पाक-कब्जे के कश्मीर में से पाक-फौजें और अफसर बिल्कुल हटें। क्या उन्हें पिछले 70 साल में कभी पाकिस्तान सरकार ने हटाने की कोशिश भी की है? इस्लामाबाद में जब प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने मुझसे जनमत-संग्रह की बात की थी तो मैंने उनसे यही सवाल पूछा था। वे चुप हो गईं।
प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, जनरल मुशर्रफ तथा पाकिस्तान के अन्य कई राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से मैं पूछता था कि क्या आप कश्मीरियों को तीसरा विकल्प देने याने आजादी के लिए सहमत हैं तो वे कहते थे कि इसकी जरुरत ही नहीं है। सिर्फ दो ही विकल्प है। या तो वह पाकिस्तान में मिले या भारत में !
क्या इमरान खान तीसरे विकल्प के लिए तैयार हैं ? यदि नहीं तो फिर जनमत-संग्रह की बात बेमतलब है। कश्मीर निश्चय ही एक समस्या है। इसे बातचीत से हल किया जा सकता है। अटलजी, डॉ. मनमोहन सिंह और जनरल मुशर्रफ ने एक चार-सूत्री रास्ता निकाला था। इमरान उसे लेकर ही आगे क्यों नहीं बढ़ते ? जहां तक मध्य एशिया के राष्ट्रों से भारत के फायदे की बात है, इमरान बिल्कुल सही हैं। यदि भारत-पाक संबंध सहज हो जाएं तो भारत को पाकिस्तान से होकर आने-जाने का रास्ता मिल सकता है।
मध्य एशिया के इन पांचों राष्ट्रों— उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमानिस्तान और किरगिजिस्तान में अपार खनिज संपदा भरी पड़ी है। तेल, गैस, लोहे, तांबे, एल्यूमिनियम और कीमती पत्थरों के अनगिनत भंडार अभी तक अनछुए पड़े हैं। इन देशों में पिछले 50 साल में मैं कई बार जाकर रहा हूँ। 1200 किमी की आमू दरिया (वक्षु सरिता) के किनारे मैं कई बार पैदल भी- घूमा हूं। यदि इस क्षेत्र की खनिज-संपदा का हम दोहन कर सकें तो अगले पांच साल में भारत और पाकिस्तान यूरोप से भी अधिक मालदार बन सकते हैं।
दोनों देशों के करोड़ों लोगों को रोजगार मिल सकता है। भारत की कोशिश है कि जो रास्ता उसे पाकिस्तान और अफगानिस्तान से हो कर नहीं मिल रहा है, वह ईरान से होकर मिल जाए। ऐसा हुआ तो पाकिस्तान किनारे लग जाएगा। ऐसा न हो, इसके लिए जरुरी है कि इमरान खान आतंकवाद के खिलाफ बेहद सख्ती से पेश आएं और कश्मीर पर बातचीत शुरु करें। यदि ऐसा हुआ तो भारत से ज्यादा पाकिस्तान का भला होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विष्णु नागर
सुप्रीम कोर्ट में कल यह सामने आया कि देश के दो से चार करोड़ लोगों के राशनकार्ड मोदी सरकार के आदेश पर रद्द कर दिए गए हैं। जाहिर है राशन कार्ड उन्हीं के बनते हैं, जो देश के निर्धनतम वर्गों से हैं। आदिवासी हैं, दलित आदि हैं। सरकार ने इन राशन कार्डों को बोगस बताते हुए रद्द कर दिया है क्योंकि ये आधार कार्ड से जुड़े नहीं हैं।सुप्रीम कोर्ट ने भी इतने बड़े पैमाने पर राशन कार्ड रद्द करने को बहुत गंभीर मामला बताया है।
दिलचस्प यह है कि देश का सर्वोच्च न्यायालय पहले ही यह निर्णय दे चुका है कि नागरिकों की मूल जरूरतों के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता पर जोर नहीं दिया जा सकता मगर यह सरकार कब किसी आदेश-अनुदेश को मानती है?अभी दिल्ली केंद्रशासित प्रदेश का मामला फिर सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट रूप से उपराज्यपाल के अधिकारों को सीमित कर चुका था मगर मोदी सरकार फिर एक विधेयक लेकर आई है, जिसमें दिल्ली विधानसभा की हैसियत नगरपालिका से भी बदतर हो जाएगी जो भाजपा कभी दिल्ली को राज्य का दर्जा देने की बात घोषणापत्र में शामिल करती थी, वह राज्य सरकार के अधिकारों को सीमित करके भी खुश है। भाजपा की सिद्धांत निष्ठा, मोदी निष्ठा में बदल चुकी है।
सब जानते हैं कि ग्रामीण-आदिवासी अंचलों में रहने वालों के लिए आधार कार्ड बनवाना कितना कठिन है। बन जाए तो इंटरनेट की सुविधा की हालत बेहद इन इलाकों में खस्ता है। ज्यादातर ऐसे अंचलों में ये काम नहीं करते। इसके अलावा एक उम्र के बाद मध्यवर्ग के लोगों के अंगूठे के निशान तक काम नहीं करते तो मेहनती गरीब वर्गों के लिए यह कितना कठिन है?
इस कारण बिना सूचना दिए बड़े पैमाने पर कार्ड रद्द कर दिए गए हैं। इस कारण उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, झारखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश आदि राज्यों के लोगों के राशनकार्ड रद्द कर दिए गए हैं।
गरीबों-आदिवासियों को राशन न देकर मारो, रसोई गैस पर सब्सिडी खत्म कर के मारो। उनके जंगल और जमीनें छीनकर मारो। विकास के नाम पर उन्हें मारो। उन्हें हिन्दू बना कर (या ईसाई बना कर) उनकी संस्कृति को भी मारो। नक्सली बता कर भी मारो। शहर आएँ तो गंदगी और बेरोजगारी से मारो। सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा है। इस नाम पर उनकी झुग्गी-झोपडिय़ों को खत्म करके उन्हें मारो। उन्हें मारने के लिए गोली चालन ही जरूरी नहीं। गोली चलाकर भी मारो तो जरूरी है प्रेस ऐसे मामलों को कवर करना चाहे और चाहे तो सरकार कवर करने दे?
भक्तों के दिमाग कुंद हैं, दिल में कंकर-पत्थरों का निवास जमा लिया है। लोकसभा का हाल यह है कि वहाँ विरोध सुना नहीं जाता और सरकारी पक्ष केवल जय मोदी, जय मोदी करना जानता है। अदालतें भी कभी-कभी ही आशा जगाती हैं मगर उनकी भी सुनता कौन है?
राशन का मुद्दा किसान आंदोलन का ही मुद्दा नहीं बनना चाहिए, अन्य उतने ही सशक्त लोकतांत्रिक आंदोलन भी जरूरी हैं वरना लाकडाऊन में अंबानियों- अडाणियों की संपत्ति बेतहाशा बढ़ती रहेगी और साधारणजन मरते, डूबते रहेंगे। टीवी चैनल सुशांत सिंह राजपूत और कंगना रनौत की माला जपते रहेंगे।
-अनुपमा सक्सेना
भला हो इलाहाबाद की कुलपति महोदया का। अजान से डिस्टर्ब हो रही हैं तो बंद करने के प्रयास शुरू कर दिए। बहुत कुछ याद आ गया और बहुत उम्मीदें जाग गईं।
लगभग 09-10 वर्ष पहले की घटना याद आ गई। सरकंडा में नए-नए शिफ्ट हुए थे हम लोग। पास की नूतन कॉलोनी में पानी की बड़ी टंकी के ऊपर 10 लाउड स्पीकर लगाकर 24 घंटे की नवधा रामायण शुरू हो गई। घर में दो पढऩे वाले बच्चे, दो हम प्रोफेसर, और 85 वर्ष की वृद्ध माँ थीं। जाकर वहां बैठे 2-4 भक्तों से जो ष्टष्ठ लगाकर बैठे हुए थे, हाथ जोडक़र निवेदन किया कि कृपया वॉल्यूम धीमा कर दें। फिर जैसा होता है, मेरे सामने तो कर दिया जैसे ही मेरी गाड़ी आगे बढ़ी, फुल वॉल्यूम। फिर सक्सेना साहेब गए उनके साथ भी यही हुआ।
दूसरे दिन नूतन कॉलोनी में रहने वाले बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकारियों से जाकर अनुरोध किया। वो बस यह बोलकर चुप हो गए , परेशानी तो बहुत है मैडम पर बोले कौन। आसपास मोहल्ले-पड़ोस से बोला। परेशान सब थे किन्तु कोई ऊपर वाले के डर से कोई नीचे वाले के डर से, बोले कोई कुछ नहीं। दो दिन बाद जब अनुनय विनय से काम नहीं बना तो रात 12 बजे पुलिस थाने फोन किया। बोले मैडम आप निश्चिंत रहें, अभी बंद करवाते हैं , बड़ी खुशी लगी, किन्तु सुबह हो गई वो ‘अभी’, ‘कभी’ नहीं आया। तीसरे दिन, दिन मैं फिर पुलिस को दो-तीन बार फोन किया, हर बार आश्वासन तो मिला, हुआ कुछ नहीं।
चौथे दिन मेरा धैर्य जवाब दे गया और उनका वॉल्यूम और तेज होता गया। यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकले तो सीधे पहले गाड़ी मोड़ी और सरकंडा थाना जाकर रोकी। मैंने कहा उनसे कि अभी के अभी एफआईआर लिखिए नहीं तो मैं 15 दिन की छुट्टी लेकर उच्च न्यायालय में याचिका दायर करूंगी और उसमें यह भी लिखूंगी कि पुलिस ने कुछ नहीं किया। बोले मैडम आप जाएँ यूनिवर्सिटी, आने के पहले सब बंद हो जायेगा।
शाम पांच बजे जब लौटे तो मुख्य सडक़ से वही जोर का शोर। गाड़ी फिर सीधी सरकंडा थाने। अबकी थाना प्रभारी को भी गुस्सा आ गया क्यूँकि वे स्वयं, आयोजनकर्ताओं को मना करके गए थे सुबह। फिर उन्होंने जीप ली, पुलिस वालों से गाड़ी भरी और मुझे बोले चलिए आप पीछे-पीछे। आकर सारे लाउडस्पीकर उतरवाए , जब्ती बनाई। तो फाइनली चौथे दिन 10 लॉउडस्पीकर्स के शोर से छुटकारा मिला। ना तो ऊपर वाला नाराज हुआ ना नीचे वाले ?
उसके बाद और भी कई घटनाएं हो चुकीं। एक बार होली पर ष्ठड्डठ्ठद्दद्ब छ्वद्ब जैसे पुलिस अधिकारी थे जिन्होंने एक मैसेज पर लाउड स्पीकर्स बंद करवा दिए थे अन्यथा हमेशा कई दिनों तक ऊपर जैसा ही कार्यक्रम होने के बाद ही शोर बंद होता था। दोनों बच्चे जब घर से बाहर पढऩे चले गए तो मैंने भी तौबा बोल ली। जिनको परेशानी है वे लडें़, सारी दुनिया का ठेका नहीं ले रखा।
परेशानियां तो अभी भी हैं। कुलपति महोदया का प्रयास सफल हो तो हमें भी अपने आसपास के रोज सुबह मंदिरों में घंटों बजने वाले लाउड स्पीकर्स, वर्ष में कई बार होने वाली भागवत, नवधा, शादियों में बजने वाले डीजे , दुर्गापूजा पर देर रात कॉलोनी में होने वाले गरबा, आदि के समय होने वाले अनावश्यक शोर से छुटकारा मिले।
हम भी कुलपति तो नहीं पर प्रोफेसर तो हैं हीं, डिस्टर्ब तो हम भी होते हैं। और हाँ, कुलपति महोदया की ही बात हम भी दोहरा रहे हैं, हमारे इन सब कर्मों और इच्छाओं में किसी धर्म के विरूद्ध जैसा कुछ भी नहीं है। भगवान अल्लाह कोई भी हो, लाउडस्पीकर से तो खुश होते नहीं ना।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(क्वाड) चौगुटे की असलियत जल्दी ही सामने आ गई। चौगुटे के चारों राष्ट्रों के नेताओं ने अपने-अपने भाषण में चीन का नाम तक नहीं लिया था और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक लचीले और समावेशी संगठन की बात कही थी लेकिन कल ही जापान पहुंचे अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन और रक्षा मंत्री लॉयड आस्टिन ने चीन के विरुद्ध गोलंदाजी शुरु कर दी। यहां पहला सवाल तो यही है कि अभी बाइडन-प्रशासन को सत्ता में आए ढाई महिने ही हुए हैं लेकिन उसके विदेश और रक्षा मंत्री जापान कैसे पहुंच गए। उन्होंने अपनी पहली विदेश-यात्रा के लिए जापान को ही क्यों चुना है ? और दोनों वहां साथ-साथ गए हैं ? वे वहां इसीलिए गए हैं कि उन्हें वहां जाकर चीन पर दबाव पैदा करना है। उसे यह बताना है कि चौगुटे में जो ढीली-पोली बातें हुई हैं, वे अपनी जगह ठीक हैं लेकिन अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसका घेराव करने पर आमादा है।
जापानी मंत्रियों के साथ जारी किए गए अपने संयुक्त वक्तव्य में उन्होंने चीन का नाम साफ़-साफ़ लिया और कहा कि उसका बर्ताव बहुत ही आक्रामक है। उसके पड़ौसी देशों और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसने सैनिक, आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। जापान के सेंकाको द्वीप और दक्षिण चीनी समुद्र में अन्य देशों के साथ चीन की दादागीरी को चुनौती देते हुए उन्होंने कहा है कि ‘‘यदि चीन हिंसा और आक्रमण पर उतारु हो गया तोज्.. हम उसे पीछे धकेल देंगे।’’ उन्होंने हांगकांग और ताइवान में चीन के अत्याचारों का भी जिक्र किया। तिब्बत और सिंक्यांग में चल रहे दमन पर भी उन्होंने उंगली उठाई। ब्लिंकन ने नॉर्थ कोरिया के परमाणु-निरस्त्रीकरण की बात को तो दोहराया ही, उन्होंने म्यांमार में फौजी बल प्रयोग की भी निंदा की। ये दोनों अमेरिकी मंत्री जापान के बाद अब दक्षिण-कोरिया भी जाएंगे। जाहिर है कि अमेरिका इन चार राष्ट्रों के इस गुट में कई अन्य नए सदस्य-राष्ट्रों को भी जोडऩा चाहेगा लेकिन यह तो स्पष्ट ही है कि उक्त सभी मुद्दों पर भारत की राय बिल्कुल वैसी ही नहीं है, जैसी कि अमेरिका की है।
यदि भारत अमेरिका की कुछ रायों से कहीं-कहीं सहमत भी है तो भी वह उससे अपनी सहमति सार्वजनिक तौर पर व्यक्त नहीं करता है। जैसे म्यांमार में फौजी सत्ता-पलट और नार्थ कोरिया के बारे में वह तटस्थ है। अब अमेरिकी रक्षा मंत्री आस्टिन भारत भी आ रहे हैं। वे भारत को पटाएंगे कि वह चीन के खिलाफ थोड़ा-बहुत जहर जरुर उगले लेकिन गलवान घाटी मुठभेड़ के बावजूद भारत काफी संयम से पेश आता रहा है और अमेरिका मुठभेड़ की कितनी ही बांग लगाए, वह अपने अलास्का में बैठकर चीन से धंधे की बात मजे से कर रहा है। चौगुटे के पीछे अमेरिका के असली इरादे इन दोनों मंत्रियों ने बिल्कुल साफ कर दिए हैं। भारत को बहुत सावधान रहना होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने महिलाओं की फटी जींस पर जो बयान दिया है उसका सोशल मीडिया पर जमकर विरोध हो रहा है. खासकर महिलाएं और युवतियां आगे आकर उनके बयान की आलोचना कर रही हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
सोशल मीडिया पर उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के रिप्ड या फटी जींस को लेकर दिए बयान पर खासा बवाल मचा हुआ है. खासतौर पर महिलाएं और लड़कियां इस मुद्दे पर मुखर होकर अपने विचार रख रही हैं. लड़कियां ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफार्म का इस्तेमाल कर अपनी बात दुनिया तक पहुंचा रही हैं साथ ही रावत की मानसिकता पर सवाल उठा रही हैं. वे अपनी फटी जींस वाली तस्वीर भी पोस्ट कर टिप्पणी कर रही हैं. महिला राजनीतिक कार्यकर्ता, फिल्मी हस्तियां और आम लड़कियां मुख्यमंत्री से अपनी सोच बदलने को कह रही हैं.
रावत ने 17 मार्च को देहरादून में बाल संरक्षण आयोग की ओर से नशा मुक्ति को लेकर कार्यशाला में कहा कि युवा पीढ़ी गलत दिशा में जा रही है. रावत ने एक यात्रा का जिक्र करते हुए कहा, "मैं एक दिन हवाई जहाज से जयपुर से आ रहा था. मेरे बगल में एक बहनजी बैठी थी. मैंने उनकी तरफ देखा नीचे गम बूट थे. जब और ऊपर देखा तो जींस घुटने से फटी हुई थी. उनके साथ दो बच्चे थे. महिला खुद भी एनजीओ चलाती थी."
रावत ने पूछा कि फटी जींस में महिला समाज के बीच जाती है, तो वहा क्या संस्कार देगी? उन्होंने कहा महिलाओं को फटी जींस में देखकर हैरानी होती है और इससे समाज में क्या संदेश जाएगा.
रावत का यह बयान तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हुआ और समाज की हर वर्ग की महिलाओं ने इसकी आलोचना की. गायिका सोना महापात्रा ने ट्विटर पर अपनी एक तस्वीर डाली है जिसमें उनके घुटने दिख रहे हैं और वह रिप्ड टी शर्ट पहनी नजर आ रही हैं. उन्होंने लिखा जो लड़कियां रिप्ड जींस पहनती हैं उन्हें भारत में किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं है.
I don’t wear jeans owing to the humidity & heat here but happy for this ripped T shirt with my संस्कारी घुटना’s showing!..& #GirlsWhoWearRippedJeans don’t need anyone’s permission in #India . We are the land of the glorious Konark, Khajurao, Modhera, Thirumayam, Virupaksha! ????????♀️???? https://t.co/zP98bBiLkd pic.twitter.com/gZQfWjN6Rb
— Sona Mohapatra (@sonamohapatra) March 17, 2021
अमिताभ बच्चन की नातिन नव्या नवेली नंदा ने तीरथ के बयान पर अपनी प्रतिक्रिया इंस्टाग्राम स्टोरीज के जरिए दी. नव्या ने लिखा, "हमारे कपड़े बदलने से पहले अपनी मानसिकता बदलिए." उन्होंने अपनी एक पुरानी तस्वीर फटी हुई जींस के साथ भी पोस्ट की.
एक आम महिला यूजर ने ट्विटर पर अपनी फटी जींस के साथ तस्वीर पर लिखा, "मैं मां हूं और रिप्ड जींस पहनती हूं."
I am a mom and I wear ripped jeans.#rippedjeans #RippedJeansTwitter pic.twitter.com/y62imtEVRx
— Tina BK (@tina_bkaran) March 17, 2021
अभिनेत्री गुल पनाग ने भी एक तस्वीर रिप्ड जींस के साथ साझा की.
#RippedJeansTwitter pic.twitter.com/zwitZiIE9k
— Gul Panag (@GulPanag) March 17, 2021
दूसरी ओर दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालिवाल ने ट्विटर पर लिखा, "उत्तराखंड के सीएम को लड़कियों के जींस पहनने से दिक्कत है. मुख्यमंत्री तो बन गए पर दीमाग अभी भी सड़क छाप है. वो दिन दूर नही जब जींस पहनने पर ये यूएपीए लगा देंगे."
तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने ट्विटर पर तीरथ के बयान की तीखी आलोचना करते हुए लिखा, "सीएम साहब जब आपको देखा तो ऊपर-नीचे, आगे-पीछे हमें बेशर्म आदमी दिखता है."
रावत ने अपने बयान में कहा था, "हम ये सब पश्चिमीकरण की पागल दौड़ में कर रहै हैं जबकि पश्चिमी दुनिया हमारा अनुसरण कर रही है, अपना शरीर ढंक कर, योग कर रही है."
गुरुवार को शिवसेना की राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने मुद्दे को राज्यसभा में उठाया और चर्चा की मांग की. विवाद के बाद रावत ने अब तक अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.
(dw.com)