विचार/लेख
उरुफ जाफरी
पाकिस्तान में केबल टीवी के पॉपुलर होने के साथ ही भारतीय टीवी और फिल्मों की चर्चा भी शुरू हुई। स्टार प्लस, जी सिनेमा, जी टीवी और कलर्स टीवी के ड्रामे और शो खूब देखे जाने लगे।
यह भी कहा जा सकता है कि इससे पाकिस्तान के अपने चैनलों की डिमांड भी कम हुई।
इसका इलाज ये निकाला गया कि ‘कहानी घर-घर की’, ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, जैसे टीवी धारावाहिकों का फार्मूला तैयार किया गया, जो बिकने भी लगा।
जब पाकिस्तान में केबल टीवी पर भारतीय चैनलों को बैन किया गया तो दर्शक उदास भी हुए। लेकिन आज भी पाकिस्तान के हमारे अपने ड्रामों में यह फार्मूला चल रहा है।
कौन कौन से सीरियल हुए मशहूर
पाकिस्तान के एक कामयाब टीवी और फि़ल्म लेखक साजी गुल, आजकल ग्रीन इंटरटेनमेंट चैनल के कंटेंट हेड हैं।
उनका कहना है, ‘स्टार प्लस ने हमारी मेल ऑडिएंस हमसे छीन ली क्योंकि सास बहू फार्मूला सिर्फ महिलाएं देखा करती थीं। स्टार प्लस का दौर पाकिस्तान ड्रामों के लिए पतन का दौर था।’
‘फिर पाकिस्तानी ड्रामे ने दोबारा करवट तब ली जब कैमरा तकनीक और कंटेंट में एडवरटाइजिंग से जुड़े लोगों ने भाग लिया।’
उन्होंने कहा, ‘ये और बात है कि जब वो (भारतीय चैनल वाले) हमसे लिखवाते हैं तो उन्हें पाकिस्तानी रंग ही चाहिए और हमारी उर्दू भी उन को बहुत पसंद है।’
भारतीय टीवी चैनलों को क्या पाकिस्तान में लोग अब भी मिस करते हैं? ये सवाल जिसके भी सामने मैंने रखा, उन लोगों को ‘कहानी घर-घर की’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, जरूर याद आया।
याद आता भी क्यों नहीं, पाकिस्तान में जब केबल टीवी ने आंख खोली तो सबसे बड़े आकर्षण हुआ करते थे, स्टार प्लस, जी टीवी, कलर्स टीवी और बॉलीवुड फि़ल्में।
स्टार प्लस और जी टीवी के ड्रामे जैसे हमारे घरों में रहने लगे। शाम के साढ़े छह बजे नहीं कि अम्मी, दादी, भाभियां, सासें, हम सभी टीवी का रिमोट संभाल के बैठ जाते और अगर केबल में मसला होता तो केबल वाले को भी फोन किया जाता।
ये 2004 की बात होगी जब मेरी बीबीसी उर्दू लंदन से वापसी हुई थी तो घर का माहौल फिर से मिला।
अगर काम से जल्दी वापसी हो जाती तो स्टार प्लस लग ही जाता और कोई ना कोई सीरियल का लुत्फ़ उठाया जाता। अम्मी से बात मनवानी होती तो पूजा की थाली भी बना ली जाती।
प्रोडक्शन के हिसाब से कहानी तो दस किश्त के बाद भी कुछ ज्यादा आगे ना बढ़ी होती लेकिन सीन इतने लंबे जरूर होते कि दो ब्रेक में ड्रामा ख़त्म हो जाता।
ये स्टार प्लस या जी की वो तरकीब थी जो दर्शकों को बांधे रखती।
ताहिर जमां का ताल्लुक पहाड़ी इलाके हुंज़ा से है, जहां महिलाएं कम ही घरों से निकलती हैं।
वे याद करते हैं, ‘गोपी और ससुराल गेंदा फूल जैसे ड्रामे मेरी सासू मां के दिल से बहुत करीब थे। वो जैसे ड्रामे देखते हुए हर हीरोइन और वैम्प को डांटना अपना कर्तव्य समझतीं, फिर उनको याद दिलाया जाता कि ये तो सिर्फ एक ड्रामा है, लेकिन हम दोनों देखते रोज थे।’
ताहिर जमां का मानना है, ‘हमारी महिलाएं न सिर्फ इन ड्रामों को शौक से देखती थीं बल्कि उसमें जो कुछ होता वो अपने जीवन में भी अप्लाई करतीं।’
‘वो ये भूल कर कि ये सभी धारावाहिक इतने लंबे-लंबे सीन्स पर एडिट किए जाते हैं, देखने वाले मासूम लोग उनके प्रभाव में गुम हो जाते।’
भारत और पाकिस्तान के टीवी सीरियल
टीवी और फिल्मों के मशहूर लेखक साजी गुल कहते हैं, ‘हमारे पास अपनी शैली वाले लेखक और निर्देशक हैं, जबकि भारतीय टीवी मनोरंजन में हर चैनल एक ही जैसा काम प्रोड्यूस कर रहे हैं।’
हालांकि पाकिस्तान की अपनी मनोरंजन की दुनिया पर भारतीय टीवी चैनलों का असर आज भी है, जो फार्मूला सबसे ज्यादा बिकता है वह है सास-बहू की तकरार वाला ड्रामा, क्योंकि भारतीय चैनलों ने यही मसाला हर ड्रामे पर छिडक़ा है और केबल से जो कुछ हम तक आया वो सिर्फ महिलाओं तक सीमित या लिमिटेड था।
अगर बात की जाए केबल पर भारतीय ड्रामों पर पाबंदी के बाद की तो महिलाओं ने भी यही कहा कि हम अब देखते ही नहीं और अगर देखे भी तो एक लंबा समय बीत चुका है।
ज़्यादा वक्त लंदन में गुजार कर आने वाली लाहौर की एक हाउस वाइफ का मानना है, ‘हमारी संस्कृति तो अलग-अलग है लेकिन पहनावा जरूर हमको भाता है। चाहे साड़ी हो या लहंगे। फैशन फॉलो करने से तो हमें कोई नहीं रोक सकता। साड़ी और ज्वेलरी के डिजाइन और कलर कॉम्बिनेशन के लिए तो हम दुबई से भी अक्सर खरीददारी करते हैं।’
कुछ महिलाओं का ये भी कहना था कि उन सभी जी और स्टार प्लस के ड्रामों में भारतीय कल्चर खूब जम कर दिखाया जाता। उसका पाकिस्तानी समाज पर भी असर रहा है और आगे भी रहेगा।
कुछ महिलाओं ने ये भी कहा कि एक दूसरे की संस्कृति को समझने के लिए कौन सा हिमालय पार जाना पड़ता है। एक घर के दो हिस्से ही तो हैं, जो धर्म के नाम पर बांट दिए गए। लेकिन अगर हम आम पाकिस्तानी युवा की बात करें तो हमारी आम बोलचाल में हिंदी ड्रामों और फिल्मों की भाषा जरूर बोली जाती है।
एक उबर चालक ने अपनी सवारियों के बारे में कहा, ‘कस्टमर अपमान करते हैं।’
ये एक उदाहरण है कि किस तरह से पाकिस्तानी जुबान में ऐसे जुमले भी आ गए जो भारतीय ड्रामों या फिल्मों में इस्तेमाल होते हैं, जैसे कि सीख लेना, अच्छे से मिल लेना, इसके चलते वैसा हो गया, ऐसा कब तक चलेगा, रोक लगा दी है। वगैरह-वगैरह।
भारत में पाकिस्तानी टीवी सीरियल
हालांकि ये भी याद रखना होगा कि पाकिस्तान के लेखक-लेखिकाओं के लिखे ड्रामे भारत में भी खूब मकबूल हुए हैं।
नूर उल हुदा शाह, बी गुल, फरहत इश्तियाक़ और उमेरा अहमद के टीवी ड्रामे सरहद पार भी शौक से देखे गए।
फरहत इश्तिाक़ का ड्रामा हमसफऱ शुद्ध पाकिस्तानी समाज पर बनाया गया था और सरहद पार भी खूब चर्चा में रहा।
हमारे समाज में जागीरदारों का मुद्दा बड़ा मुद्दा है, ज्यादा ड्रामे इसकी चर्चा करते हैं लेकिन बकौल लेखक और आलोचक सलमान आसिफ कहते हैं कि हमारी सभ्यता में वो रंग नहीं है शायद जो हिंदू धर्म से जुड़े हैं।
आसिफ का यह भी कहना था कि हिंदुस्तान में त्योहार भी इतने सारे हैं कि ड्रामे के कई एपिसोड उनको मनाते हुए दिखाए जा सकते हैं और वो रौनक, वो रंगीनी सभी को अपनी ओर खींचती है।
यही वजह है पाकिस्तानी समाज में शादी ब्याह से लेकर मनोरंजन की स्क्रीन्स तक में इनकी परछाइयां देखी जा सकती हैं।
आसिफ कहते हैं कि आज के टीवी सीरियल्स चकाचौंध भरे होते हैं और ये सरहद के दोनों तरफ बन रहे हैं।
वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों ने यह भी कहा कि भारतीय टीवी और बॉलीवुड असली भारत नहीं दिखाते हैं, जो टीवी और फिल्मी स्क्रीन्स से बहुत अलग, सादा और मुश्किल है।
मुल्क के तौर पर भी भारत बड़ा है, तो वहां ज्यादा मुद्दे हैं। यही वजह है कि नेटफ्लिक्स में अच्छा कवर किया जा रहा है, चाहे ‘दिल्ली क्राइम’ हो या ‘बॉम्बे बेगम’। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि टीवी ड्रामों की और नेटफ्लिक्स को देखने वाले दर्शक अलग-अलग हैं।
हाल ही में नेटफ्लिक्स पर दिखाए जाने वाले सीरियल ‘द रेलवे मैन’ ने तो जैसे लोगों को हिलाकर रख दिया।
समाज की हर कहानी को लिखना और स्क्रीन्स पर दिखाना भी एक बड़े हिम्मत की बात है। यह पाकिस्तान के लेखकों के लिए आसान नहीं है।(bbc.com)
डॉ. आर.के. पालीवाल
मध्य प्रदेश में प्रचंड बहुमत से बनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार के पंख धीरे-धीरे खुलने शुरु हुए हैं। पूत के पांव पालने में दिखने से भविष्य का अनुमान लगने की कहावत के आधार पर मध्य प्रदेश की नई सरकार के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि उसका ऊंट किस करवट बैठने वाला है। जिस तरह से अल्पमत सरकार बनाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है क्योंकि उसे समर्थन देने वाला हर विधायक मंत्री पद की ख्वाईश रखता है।
वैसे ही प्रचंड बहुमत की सरकार बनने में यह परेशानी रहती है कि जीतने वाले विधायकों में मंत्री पद की खवाइश रखने वाले कई दर्जन कद्दावर विधायक दावेदारी करते हैं और जब केन्द्र के मंत्री और सासंद एवम कई बार चुनाव जीते उम्मीदवार भी विधायकों की सूची में शामिल हो जाएं तो ऐसे लोगों को मंत्रालय भी कद के अनुरूप देना पड़ता है। यही कारण रहा कि सरकार के मंत्री पद बांटने में इतना विलंब हुआ और अब मंत्रियों के विभाग बांटने में भी जबरदस्त माथापच्ची हो रही है।
अभी तक सरकार के गठन से लेकर नई सरकार के प्रारंभिक फैसलों से तीन बात तो स्पष्ट दिखाई देती हैं। मध्य प्रदेश में अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यत: केंद्र सरकार का ही राज होगा और प्रदेश सरकार केंद्र सरकार की खड़ाऊ की तरह केन्द्र सरकार के इशारों पर काम करेगी। जिस तरह से मुख्यमंत्री और कैबिनेट के अन्य मंत्रियों का चयन हाई कमान के निर्देशन में हुआ है और कैबिनेट ने जिस प्रकृति के प्रारंभिक फैसले लिए हैं उससे यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि राज्य सरकार पूरी तरह केन्द्र सरकार के इशारों पर चलेगी। सरकार के लिए धर्म सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी। राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा और बाद में उसके प्रचार प्रसार के लिए मध्य प्रदेश सरकार ज्यादा से ज्यादा भक्तों को अयोध्या भेजकर लोकसभा चुनाव के लिए माहौल बनाने की पूरी कोशिश करेगी।
तीसरे शिवराज सिंह चौहान की सरकार के काफी निर्णयों को बदला जा सकता है। सबसे पहले भोपाल में बी आर टी एस कॉरिडोर योजना का खात्मा किया जा रहा है जिसे सरकार ने सार्वजनिक यात्रा के साधन के रूप में मील का पत्थर कहा था। लाडली बहना योजना को पुराने स्वरूप में जारी रखने पर वर्तमान मुख्यमंत्री का गोलमाल उत्तर था कि जन कल्याण की सभी योजनाओं को आगे बढ़ाएंगे। सरकार के शुरूआती निर्णय दर्शाते हैं कि कम से कम मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का युग लगभग समाप्त हुआ।शिवराज सिंह चौहान का कद न केवल मध्य प्रदेश भाजपा में सबसे ऊपर है उनका नाम राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के विकल्प के रुप में भी जब तब उछलता रहता था। 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत प्रदेश सरकार का सबसे प्रमुख लक्ष्य होगा। वर्तमान सरकार की सफलता की यही सबसे बडी कसौटी होगी।
विधान सभा चुनाव नतीजों के बाद शिवराज सिंह चौहान ने अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए यही तीर चला था जब वे सबसे पहले छिंदवाड़ा यह कहकर गए थे कि आगामी लोकसभा चुनाव में यह सीट भी भाजपा को दिलाकर लोकसभा चुनाव में प्रदेश में क्लीन स्वीप करना है। हालांकि उनके इस वक्तव्य से भी केन्द्रीय नेतृत्व ने उन्हें कुर्सी नहीं सौंपने के निर्णय में कोई बदलाव नहीं किया। शायद शिवराज सिंह चौहान पर केंद्रीय नेतृत्व को अपने हिसाब से काम कराने का विश्वास नहीं था इसीलिए मध्य प्रदेश में डॉ मोहन यादव के नेतृत्व में नई टीम खड़ी की गई है ताकि वह रिटर्न गिफ्ट के रूप में लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल कराने के लिए केंद्रीय नेतृत्व की योजनाओं को क्रियान्वित कर सके।
हृदयेश जोशी
लक्षद्वीप से वाकई प्यार, या महज़ पाखंड ? हम इतना आंदोलित होते नहीं दिखते जब संवेदनशील हिमालय को तोड़ा जाता है या हसदेव अरण्य जैसे अनमोल जंगल की हत्या की जाती है। पश्चिमी तट पर हमें खिलखिलाता लक्षद्वीप दिखाया जा रहा लेकिन पूर्वी तट के आगे अंडमान-निकोबार द्वीपों में 72000 करोड़ के अल्ट्रा मेगा प्रोजेक्ट लाकर उसकी दुर्लभ जैव विविधता को नष्ट करने की तैयारी है।
मालदीव-लक्षद्वीप विवाद के बारे में बोल रहे कितने लोग प्रकृति को करीब से महसूस करते हैं, मैं नहीं कह सकता। प्रकृति का कोई भी नज़ारा चाहे वो खिडक़ी से दिखने वाली सुबह की लाली हो, हिमालय की धवल चोटियां या सुदूर समुद्र तट पर उठती-गिरती लहरें, सबका अपना मज़ा है। इन ख़ूबसूरत नज़ारों को लेकर फैलाई कड़वाहट बताती है कि हम प्रकृति की सुंदरता नहीं अपनी कुरूपता में खोये हैं। अगर आप हिन्दुस्तान में घूमे हैं और अगर आपके पास कुदरत की अठखेलियां देखनी की नजऱ और पवित्रता है तो आपको हर जगह खूबसूरत लगेगी। पंजाब-हरियाणा में सरसों से लदे खेत, यूपी में चंबल के बीहड़ों से लेकर बलिया में गंगा की ख़ूबसूरती, बिहार के गांव, झारखंड के जंगल, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के झरने और पठार और अरण्य, बंगाल और ओडिशा की संस्कृति, कितना कुछ है। अभी मैंने दक्षिण के तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र या पश्चिम में गोवा, महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर में दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल और कश्मीर आदि का जि़क्र ही नहीं किया।
राजस्थान और उत्तर-पूर्व क्या कुदरती ख़ूबसरती में किसी से कम हैं? असल में जो सुंदरता हमें दिखाई जा रही है या जिसके लिये हम लड़ रहे हैं वह सुंदरता नहीं हमारे भीतर की कुरूपता है। हर विषय पर ध्रुवीकृत होकर बोलना और लडऩा हमारा नया शगल बन चुका है। वरना हज़ारों ग्लेशियरों और हरियाली से भरपूर या 7,500 किलोमीटर की तटरेखा वाले इस देश के नागरिक तब अपने अभिमान के लिये इतना आंदोलित होते क्यों नहीं दिखते जब संवेदनशील हिमालय को तोड़ा जाता है या बहुमूल्य हसदेव अरण्य जैसे अनमोल जंगल की हत्या की जाती है और वहां रह रहे मूल निवासियों और आदिवासियों को उजाड़ा जाता है। हम तब परेशान क्यों नहीं होते जब हमारे मैंग्रोव तबाह किये जाते हैं या शहरों का सीवेज पवित्र नदियों में छोड़ा जाता है।
संयोगवश इस समय हमारे जंगल, झरने, समुद्र तट और हिमालयी क्षेत्र ही नहीं यहां रहने वाले लोग भी संकट में हैं। एक बड़ा ख़तरा पूर्वी तटों पर है जहां अंडमान-निकोबार द्वीप पर करीब 72,000 करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट लाकर इस संवेदनशील क्षेत्र को हांगकांग, सिंगापुर और दुबई बनाने की योजना है। इस कृत्रिम अभिमान और उत्तेजना ने प्रकृति से प्रेम या भारत की अस्मिता के लिये अभिमान जितना भी दिखाया हो लेकिन एक सुविधाभोगी समाज की पाखंडी प्रवृत्ति और दूरदृष्टिहीनता को अवश्य उजागर किया है।
-लक्ष्मीकांत पाण्डेय
एक सहेली ने दूसरी सहेली से पूछा:- बच्चा पैदा होने की खुशी में तुम्हारे पति ने तुम्हें क्या तोहफा दिया ?
सहेली ने कहा - कुछ भी नहीं!
उसने सवाल करते हुए पूछा कि क्या ये अच्छी बात है ? क्या उस की नजऱ में तुम्हारी कोई कीमत नहीं ?
लफ्ज़ों का ये ज़हरीला बम गिरा कर वह सहेली दूसरी सहेली को अपनी फिक्र में छोडक़र चलती बनी।
थोड़ी देर बाद शाम के वक्त उसका पति घर आया और पत्नी का मुंह लटका हुआ पाया। फिर दोनों में झगड़ा हुआ।
एक दूसरे को लानतें भेजी। मारपीट हुई, और आखिर पति पत्नी में तलाक हो गया।
जानते हैं प्रॉब्लम की शुरुआत कहां से हुई ? उस फिजूल जुमले से जो उसका हालचाल जानने आई सहेली ने कहा था।
बिकास जी ने अपने जिगरी दोस्त पवन से पूछा:- तुम कहां काम करते हो?
मनोज जी- फला दुकान में।
बिकास जी - कितनी तनख्वाह देता है मालिक?
मनोज जी-18 हजार।
बिकास जी-18000 रुपये बस, तुम्हारी जिंदगी कैसे कटती है इतने पैसों में ?
मनोज जी- (गहरी सांस खींचते हुए)- बस यार क्या बताऊं।
मीटिंग खत्म हुई, कुछ दिनों के बाद मनोज जी अब अपने काम से बेरूखा हो गया। और तनख्वाह बढ़ाने की डिमांड कर दी।
जिसे मालिक ने रद्द कर दिया। पवन ने जॉब छोड़ दी और बेरोजगार हो गया। पहले उसके पास काम था अब काम नहीं रहा।
एक साहब ने एक शख्स से कहा जो अपने बेटे से अलग रहता था। तुम्हारा बेटा तुमसे बहुत कम मिलने आता है। क्या उसे तुमसे मोहब्बत नहीं रही?
बाप ने कहा बेटा ज्यादा व्यस्त रहता है, उसका काम का शेड्यूल बहुत सख्त है। उसके बीवी बच्चे हैं, उसे बहुत कम वक्त मिलता है।
पहला आदमी बोला- वाह!!
यह क्या बात हुई, तुमने उसे पाला-पोसा उसकी हर ख्वाहिश पूरी की, अब उसको बुढ़ापे में व्यस्तता की वजह से मिलने का वक्त नहीं मिलता है। तो यह ना मिलने का बहाना है
इस बातचीत के बाद बाप के दिल में बेटे के प्रति शंका पैदा हो गई। बेटा जब भी मिलने आता वो ये ही सोचता रहता कि उसके पास सबके लिए वक्त है सिवाय मेरे।
याद रखिए जुबान से निकले शब्द दूसरे पर बड़ा गहरा असर डाल देते हैं।। बेशक कुछ लोगों की जुबानों से शैतानी बोल निकलते हैं।
हमारी रोज़मर्रा की जि़ंदगी में बहुत से सवाल हमें बहुत मासूम लगते हैं।
जैसे-
तुमने यह क्यों नहीं खरीदा।
तुम्हारे पास यह क्यों नहीं है।
तुम इस शख्स के साथ पूरी जिंदगी कैसे चल सकती हो।
तुम उसे कैसे मान सकते हो।
वगैरा वगैरा...
इस तरह के बेमतलबी फिजूल के सवाल नादानी में या बिना मकसद के हम पूछ बैठते हैं।
जबकि हम यह भूल जाते हैं कि हमारे ये सवाल सुनने वाले के दिल में नफरत या मोहब्बत का कौन सा बीज बो रहे हैं।।
आज के दौर में हमारे इर्द-गिर्द, समाज या घरों में जो टेंशन टाइट होती जा रही है, उनकी जड़ तक जाया जाए तो अक्सर उसके पीछे किसी और का हाथ होता है।
वो ये नहीं जानते कि नादानी में या जानबूझकर बोले जाने वाले जुमले किसी की जि़ंदगी को तबाह कर सकते हैं।
ऐसी हवा फैलाने वाले हम ना बनें।
मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू अपनी पत्नी साजिदा अहमद के साथ जब रविवार रात चीन रवाना हो रहे थे, तब देश में भारत से संबंधों पर एक अलग ही बहस छिड़ी हुई थी।
मोहम्मद मुइज़्ज़ू राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार चीन के औपचारिक दौरे पर हैं। चीनी राष्ट्रपति के न्योते पर मोहम्मद मुइज़्ज़ू अपनी सरकार के शीर्ष प्रतिनिधिमंडल के साथ चीन पहुंचे हैं।
चीन में दोनों देशों के बीच कई समझौतों पर आधिकारिक बातचीत होगी।
मोहम्मद मुइज़्ज़ू राष्ट्रपति बनने के बाद सबसे पहले 27 नवंबर को तुर्की के दौरे पर गए थे। इससे पहले मालदीव के राष्ट्रपति पहला विदेश दौरा भारत का करते थे।
ताज़ा बहस मुइज़्ज़ू सरकार के मंत्रियों और नेताओं के पीएम मोदी और भारत पर की विवादित टिप्पणी के बाद शुरू हुई है।
इस कहानी में जानेंगे कि मालदीव का मीडिया इस बहस को कैसे देख रहा है और मालदीव के अहम लोग क्या कह रहे हैं?
लक्षद्वीप बनाम मालदीव की बहस
इन तस्वीरों पर काफ़ी लोगों ने ये कहा कि अब भारतीयों को मालदीव नहीं, लक्षद्वीप जाना चाहिए। पीएम मोदी ने भी भारतीयों से लक्षद्वीप घूमकर आने की बात अपने ट्वीट में की थी।
पीएम मोदी की तस्वीरों पर मुइज़्ज़ू सरकार में मंत्री मरियम शिउना ने आपत्तिजनक ट्वीट किए थे। शिउना ने पीएम मोदी को इसराइल से जोड़ते हुए निशाने पर लिया था।
इसके अलावा वो लक्षद्वीप का भी मजाक उड़ाते हुए दिखी थीं। मालदीव के नेता मालशा शरीफ और महज़ूम माजिद भी भारत को घेरते हुए नजर आए थे।
ज़ाहिर रमीज मालदीव सीनेट के सदस्य हैं और प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव के सदस्य हैं।
वो सोशल मीडिया पर पीएम मोदी की लक्षद्वीप वाले तस्वीरों पर कहते हैं, ‘बढिय़ा कदम है, पर हमसे मुकाबला करने की बात भ्रामक है। भारतीय इतने साफ कैसे हो सकते हैं। उनके कमरों से कभी ना जाने वाली बदबू बड़ी रुकावट है।’
सोशल मीडिया पर एक अभियान भी मालदीव में शुरू किया था, जिसमें लोगों से मालदीव आने की बात कही जा रही थी और वहाँ की ख़ूबसूरती को बताया जा रहा था।
ऐसे में जब मालदीव सरकार के नेताओं की ओर से पीएम मोदी के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी या प्रतिक्रिया आईं तो इसके जवाब में भारतीयों की ओर से भी ग़ुस्से का इज़हार सोशल मीडिया पर किया गया।
बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार, सलमान ख़ान, सचिन तेंदुलकर, श्रद्धा कपूर समेत कई हस्तियों ने भारत के समंदर में घूमने की बात की। अक्षय कुमार समेत कई लोगों ने मालदीव की ओर से आई प्रतिक्रियाओं पर कड़ी आपत्ति जताई।
ये मामला बढ़ता देख मालदीव की सरकार को सफाई देनी पड़ी। मालदीव सरकार ने बयान जारी कर कहा, ‘जो बातें सोशल मीडिया पर कही जा रही हैं, वो हमें पता हैं। ये निजी बयान हैं। इनका सरकार से कोई नाता नहीं। आगे ऐसा किसी ने बयान दिया तो हम कार्रवाई करने से हिचकेंगे नहीं।’
इस बयान के कुछ घंटों बाद ही ये रिपोर्ट्स आने लगीं कि मालदीव सरकार ने भारत को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले मंत्रियों को निलंबित कर दिया है।
मालदीव का मीडिया क्या कह रहा है?
भारत और मालदीव के संबंधों में आई ताज़ा हलचल पर वहाँ के मीडिया में भी रिपोर्ट्स की जा रही हैं।
मालदीव के मीडिया समूह द एडिशन की रिपोर्ट के मुताबिक, लक्षद्वीप में टूरिजम बढ़ाने की बात करने वाले भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी के फैसले पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले तीन डिप्टी मंत्रियों को मालदीव सरकार ने सस्पेंड कर दिया है।
इन लोगों को पीएम मोदी का अपमान और आलोचना के चलते सस्पेंड किया गया है। पीएम मोदी ने बीते हफ्ते लक्षद्वीप में टूरिजम बढ़ाने को लेकर वीडियो पोस्ट किया था।
द एडिशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार ने इन लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की है। जनता की ओर से इन नेताओं पर एक्शन लिए जाने की मांग की जा रही थी। कहा जा रहा है इन लोगों के बयानों से मालदीव के पर्यटन पर असर हुआ और देश की छवि खऱाब हुई।
मालदीव के मीडिया में भारतीयों की ओर से यात्राओं को रद्द करने के फैसले को भी जगह दी जा रही है। मालदीव जाने वालों में सबसे ज़्यादा तादाद भारतीयों की होती है।
हर साल मालदीव कितने भारतीय जाते हैं?
रविवार देर रात टूर एंड ट्रैवल कंपनी ‘इज़ माय ट्रिप’ की ओर से भी मालदीव की फ्लाइट बुकिंग रद्द करने का एलान किया गया।
‘इज़ माय ट्रिप’ के सीईओ निशांत ने सोशल मीडिया पर पोस्ट लिख कहा- हम अपने देश के साथ खड़े हैं और मालदीव की फ्लाइट बुकिंग हमने सस्पेंड कर दी हैं।
भारत से हर साल मालदीव बड़ी संख्या में लोग जाते हैं। बीते कुछ सालों में इस संख्या में इजाफा देखने को मिला है।
मालदीव के मीडिया में और क्या कुछ छपा
द प्रेस की रिपोर्ट में भी पीएम मोदी का अपमान करने वाले नेताओं को सस्पेंड किए जाने की ख़बर को प्रमुखता से छापा गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की सरकार लक्षद्वीप में सफ़ेद रेत बीच की ओर पर्यटकों को आकर्षित करने की कोशिश कर रही है।
ऐसा कहा जा जाता है कि मालदीव की सफेद रेत वाले बीच काफी सुंदर होते हैं। इन तटों की तस्वीरें, वीडियो भी सोशल मीडिया पर मशहूर हस्तियों समेत लोग शेयर करते रहे हैं।
भारत की इस कोशिश पर मालदीव सरकार समर्थक सोशल मीडिया एक्टिविस्टों ने टिप्पणी की, जिससे बाद में मालदीव सरकार ने किनारा किया।
इस रिपोर्ट में मालदीव सरकार के बयान को जगह दी गई।
इस बयान के मुताबिक़, ‘विदेशी नेताओं और शीर्ष व्यक्तियों के खिलाफ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपमानजनक टिप्पणी के बारे में मालदीव सरकार को जानकारी है। ये विचार निजी हैं और मालदीव सरकार के नज़रिए का प्रतिनिधित्व नहीं करते। सरकार का मानना है कि बोलने की आजादी का बर्ताव लोकतांत्रिक और जिम्मेदार तरीके से किया जाना चाहिए ताकि इससे नफरत, नकारात्मकता न बढ़े और अंतरराष्ट्रीय साझेदारों के साथ मालदीव के रिश्ते प्रभावित ना हों। सरकार के संबंधित विभाग ऐसे लोगों पर एक्शन लेने से हिचकेंगे नहीं, जो इस तरह की अपमानजनक टिप्पणी करते हैं।’
मालदीव में कहाँ से कितने लोग आते हैं?
मालदीव के मीडिया संस्थान एवीएएस ने देश में आने वाले पर्यटकों की संख्या पर रिपोर्ट की है। दिसंबर 2023 की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मालदीव आने वाले सबसे ज़्यादा पर्यटक भारतीय हैं।
इस रिपोर्ट के मुताबिक, मालदीव में किस देश से आते हैं कितने लोग?
भारत- 2 लाख 5 हजार
रूस- 2 लाख 3 हजार
चीन- 1 लाख 85 हजार
यूके- 1 लाख 52 हजार
जर्मनी- 1 लाख 32 हजार
इटली- 1 लाख 11 हजार
अमेरिका- 73 हजार
रिपोर्ट में कहा गया है कि मालदीव में 1135 पर्यटन संबंधी सुविधाएं हैं। इनमें 175 रिसॉर्ट, 802 गेस्ट हाउस, 144 सफारी और 14 होटल हैं।
मालदीव के पूर्व नेताओं की आपत्ति
मालदीव के मीडिया संस्थान सन ने भी देश के पूर्व नेताओं के बयानों को जगह देते हुए इस मामले पर रिपोर्ट की है।
सन ने पूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह के रविवार को दिए बयान को जगह दी है।
सोलिह ने कहा था, ‘भारत के खिलाफ मालदीव के सरकारी अधिकारियों द्वारा सोशल मीडिया पर नफऱती भाषा इस्तेमाल किए जाने की मैं निंदा करता हूँ। भारत मालदीव का हमेशा से अच्छा दोस्त रहा है और हमारे दोनों देशों के बीच सालों पुरानी दोस्ती पर नकारात्मक असर डालने वाले इस तरह के संवेदनहीन बयान देने की हमें इजाजत नहीं देनी चाहिए।’
सोलिह की पार्टी एमडीपी ने भी बयान जारी कर मुइज़्ज़ू सरकार के इन बयानों की निंदा की।
सोलीह के राष्ट्रपति रहते हुए भारत और मालदीव के संबंध कऱीबी रहे थे।
मालदीव के कुछ और नेताओं ने भी भारत को लेकर की गई टिप्पणियों का विरोध किया था।
मालदीव के पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद ने लिखा था, ‘मौजूदा मालदीव सरकार के उप मंत्रियों और सत्तारूढ़ गठबंधन के राजनीतिक दल के एक नेता की पीएम मोदी और भारतीय लोगों के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई अपमानजक टिप्पणी निंदनीय और नफऱत से भरी है। सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों को मर्यादा बनाए रखनी चाहिए। उन्हें स्वीकार करना चाहिए कि सोशल मीडिया एक्टिविज़्म और नहीं होगा और लोगों को देश के हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी निभाएंगे।’
उन्होंने लिखा, ‘हमारा संबंध आपसी सम्मान, इतिहास, संस्कृति और जनता के बीच मज़बूत रिश्तों की बुनियाद पर टिका है। भारत आजमाया हुआ और पक्का दोस्त है।’
मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने भी कहा था, ‘मालदीव सरकार की मंत्री मरियम एक ऐसे प्रमुख सहयोगी देश के लिए भयावह भाषा बोल रही हैं, जो मालदीव की सुरक्षा और समृद्धि के लिए अहम हैं। मुइज़्ज़ू सरकार को ऐसे बयानों से दूर रहना चाहिए। साथ ही ये स्पष्ट करना चाहिए कि ये सरकार के विचार नहीं हैं।’
मालदीव के सोशल मीडिया पर क्या चल रहा है?
मालदीव की कई अहम हस्तियां इस मामले पर अपनी राय व्यक्त कर रही हैं।
मालदीव की संसद के स्पीकर मोहम्मद असलम ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘कुछ उप-मंत्रियों की पीएम मोदी पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी मालदीव के लोगों की सोच नहीं है। भारत और मालदीव सम्मान, सहयोग साझा करते हैं, जिससे दोनों को फायदा होता है। आइए इस रिश्ते को और मजबूत करते हुए आपसी संबंध बेहतर बनाते हैं।’
अहमद अदीब मालदीव के पूर्व पर्यटन मंत्री हैं।
वो सोशल मीडिया पर लिखते हैं, ‘शांति, सौहाद्र्र, सहिष्णुता और आतिथ्य सत्कार के उसूलों पर हमने मालदीव की टूरिज़्म इंडस्ट्री को बनाया। वैश्विक ब्रैन्डस और निवेश के जरिए हम यहां तक पहुंचे, इनमें भारत से मिले सहयोग भी शामिल हैं। तब जाकर हमें सफलता मिली और हम मालदीव को लग्जरी रिसॉर्ट डेस्टिनेशन में बदल पाए।’
अहमद अदीब कहते हैं, ‘मालदीव के कुछ नेताओं की ओर से जो आपत्तिजनक और नस्लभेदी टिप्पणी पीएम मोदी और भारतीयों पर की गई, मैं उसकी निंदा करता हूं। मालदीव सरकार ने इन बयानों और नेताओं से दूरी बरती, ये फैसला सराहनीय है। वैश्विक आर्थिक चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए ये जरूरी है कि हम सभी देशों से दोस्ताना संबंध रखें।’
मालदीव के सांसद हुसैन साहिम कहते हैं, ‘भारत हमेशा मालदीव का दोस्त और कऱीबी सहयोगी रहा है। सरकार में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों की टिप्पणी निंदनीय है।’ एक और सांसद कासिम इब्राहिम भी सोशल मीडिया पर लिखते हैं, ‘जैसी टिप्पणी की गई, वो न सिर्फ राजनयिक उसूलों के खिलाफ है बल्कि ये दोनों देशों के पुराने संबंधों पर भी असर डालेगा। भारत मालदीव का दोस्त रहा है। ये अहम है कि हम दोस्ती और सदियों पुराने रिश्ते को बनाए रखें। हम ऐसे बयानों की इजाजत नहीं देनी चाहिए जो हमारे संबंधों पर असर डाले।’
सफात अहमद वित्तीय सलाहकार हैं। वो सोशल मीडिया पर एक लंबी पोस्ट में दोनों देशों के संबंधों के बारे में बताती हैं।
वो कहती हैं, ‘मालदीव और भारत पुराने दोस्त, सहयोगी और साझेदार हैं। 1965 से अब तक भारत और मालदीव के बीच संबंध हैं। हिंद महासागर क्षेत्र में स्थायित्व के लिए दोनों देशों के संबंध बेहद अहम हैं। सरकार के कुछ नेताओं की ओर से जो बयान दिए गए, वो दुर्भाग्यपूर्ण हैं। टूरिज्म हमारी अर्थव्यवस्था की जान है। महज राजनीतिक दबाव के लिए टूरिज्म इंडस्ट्री को खतरे में डालना देशभक्ति नहीं है। अफसोस कि इसकी कीमत मालदीव के लोगों को चुकानी होगी।’
अहमद महलूफ पिछली सरकार में युवा मामलों और खेल मंत्री थे।
वो सोशल मीडिया पर कहते हैं, ‘पड़ोसी देश पर की टिप्पणी के बाद पैदा हुए विवाद से चिंतित हूं। भारतीयों के मालदीव का बहिष्कार करने का हमारी अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर होगा। ऐसे किसी अभियान से उबर पाना हमारे लिए मुश्किल रहेगा। मैं सरकार से मांग करता हूं कि इस मसले को जल्द सुलझाएं। भारत सदैव हमारा करीबी पड़ोसी रहेगा। हम भारत और भारतीयों से प्यार करते हैं और मालदीव में हमेशा उनका स्वागत है। मालदीव का नागरिक होने के नाते मैं सभी मालदीव वासियों की ओर से पीएम मोदी और भारत पर की टिप्पणी के लिए माफी मांगता हूं।’ (bbc.com/hindi)
गोकुल सोनी
एक दिन हमारे प्रेस में एक आदमी आया। उसके हाथ में एक तस्वीर थी। उस समय के हमारे सिटी चीफ (मुख्य नगर प्रतिनिधि) को वह फ़ोटो दिखाकर बताने लगा कि देखो मैंने अपने कैमरे से एक भूत की तस्वीर ली है। अति उत्साही सिटी चीफ महोदय ने दूसरे दिन अखबार में छाप दिया कि रायपुर कलेक्टोरेट परिसर में जो पानी टंकी है उसमें एक आदमी की लाश है। लाश भूत बनकर पानी टंकी के अंदर ही लेटा हुआ है। तस्वीर भी कुछ इसी तरह की थी कि टंकी में पानी भी भरा है और उसके अंदर एक लाश भी चित्त अवस्था में है। कलेक्टर आफिस में खलबली मच गई, लोग घबराने लगे, इतना डर कि कोई टंकी की ओर जाता भी नहीं था।
समाचार छपने के बाद संपादक जी ने मुझे बुलाया और उस फोटो के बारे में मेरी राय जाननी चाही। मैंने कहा -भूत होता है या नहीं ये तो मैं नहीं जानता लेकिन किसी कैमरे से इस तरह भूत की फोटो खींचना संभव नहीं है। फिर मैंने उस तकनीक के बारे में बताया। फोटोग्राफर या फोटोग्राफी को समझने वाले जानते हैं कि पहले फिल्म वाले कैमरे में एक फोटो खींच लेने के बाद दूसरी फ़ोटो खींचने के लिए फि़ल्म को आगे बढ़ाया जाता था। ऐसा करने के लिए कैमरे के ऊपर लगे एक लिवर को दांयें हाथ के अंगूठे से घूमाना पड़ता था। कभी-कभी कैमरे के अंदर का गेयर स्लिप करने से फिल्म आगे नहीं बढ़ती थी। हम जो पहले फोटो खींचे होते थे उसी के उपर दूसरी फ़ोटो भी खिंच जाती थी। फोटोग्राफी की भाषा में इसे डबल एक्सपोज, ओवरलेप या कुछ लोग सैंडिवज भी कहते हैं। उस फोटो खींचने वाले के साथ भी ऐसा ही हुआ था। पहले उसने उस कैमरे से किसी लाश की फोटो खींची रही होगी। फिल्म आगे नहीं बढ़ी और उसी के ऊपर टंकी की फोटो खींच ली । जब फिल्म से प्रिंट बनवाया तो दोनों फोटो मिलाकर ऐसा दिख रहा था मानो टंकी के अंदर किसी की लाश पड़ी हो।
पूरी बात समझकर संपादक जी खूब हंसे। अपनी ही गलती थी इसलिए खंडन छापना उचित नहीं था। मामला वहीं शांत भी हो गया। यहां फेसबुक के मित्रों को बता दूं कि अब डिजिटल कैमरे में एक नहीं अनेक ओवरलेप फोटो खींचने की सुविधा होती है। इसे मल्टी एक्सपोजर के नाम से जाना जाता है। खैर, क्या आप कभी भूत देखे हैं और उसकी फोटो खीचें हैं।
के.जी.कदम
हाल ही जैसे ट्रक वाले सडक़ों पर उतरे थे, ठीक वैसे ही अब सब्जियां सडक़ों पर उतर गई है। जी हां सब्जियां हड़ताल पर है।
हुआ यूं कि किसी विदेशी ऑनलाइन फूड टेस्ट एटलस कम्पनी ने एक रिपोर्ट में बता दिया कि ‘आलू बैंगन की सब्जी विश्व के 100 सबसे बेकार खाने में से एक है।’
तब से ये सब्जियां गुस्से में है।
ये रिपोर्ट ना बैंगन बॉस को हजम हुई, ना आलू भाई को और सच पूछो तो मुझे भी नहीं। मुझे तो खूब पसंद है आलू बैंगन।
बैंगन भले ही इंट्रोवर्ट किस्म का है। अकेला पकना पसन्द करता है। लेकिन आलू भाई तो हर सब्जी के साथ मेल मिलाप रखता है।
बस आलू का यही व्यवहार काम आया, उतर गई सारी सब्जियां सडक़ पर गोभी, टमाटर, लौकी, भिंडी.. सबकी सब सब्जियां।
कुछ ही देर में ‘आलू बैंगन जिन्दाबाद’ से लेकर ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, आलू बैंगन का नाम रहेगा’ जैसे नारों से आकाश गूंज गया। सडक़े जाम हो गई।
कद्दू.. जिसे भले ही कम लोग पसन्द करे.. लेकिन साईज के चलते इस आन्दोलन का लीडर बनाया गया।
हम आदमियों में भी.. भले ही बुद्धि कम हो लेकिन शरीर का सुव्यवस्थित आकार प्रकार लीडर बनाने में खासी मदद कर देता है।
खैर सब्जियों ने तय किया कि नोटिस भेजा जाए इस कम्पनी को कि आपने किस आधार पर ये तय किया जनाब.. कि आलू बैंगन है सबसे खराब?
जरूर आपकी सर्वे टीम के सदस्य हमारे देश के लोग है। इसलिए वे सर्वे में सेटिंग सेट करना कराना जानते है किसे दबाना है, किसे उठाना है.. या फिर आप लोगों ने किसी नई या नहीं बिकने वाली सब्जी से सेंटिग बैठाई है। हम यह नहीं होने देंगे।
एक टिन्डा जो जुलूस में सबसे पीछे चल रहा था। एकाएक आगे आ गया और बोला.. ‘अरे वो विदेशियों। तुम लोग हमारी सब्जियों का स्वाद कैसे समझ सकते हो तुम्हारे घरों में तो रोज मुर्गे, मच्छी, सांप-कैंकड़े और भेड़ बकरी पकते है। कभी हमारे बैंगन का भर्ता खाकर तो देखोज् उंगलियां चाटोगे उंगलियां।
टिण्डे द्वारा बैंगन की इस तारीफ के बाद आलू ने एक तिरछी नजर टिन्डे पर फेंकी तो टिन्डे ने फिर हुंकार भरी और और ये हमारा भाई आलू ये राजा है राजा अमेरिका से लेकर अफ्रीका तक इसकी पकड़ है। ये इस कम्पनी को धूल चटा देगा।
कद्दू ने टिन्डे को हाथ के इशारे से चुप कराया.. भारतीय नेता की भांति कद्दू भी नहीं चाहता कि कोई छोटा मोटा एक टिन्डा भी नेता बन जाये
सो कद्दू गला साफ करके बोला..
देखो दोस्तों, हमें धैर्य रखना है। जबान पर काबू रखना है। कम्पनी से गलती भी हो सकती है। पर हम गालियां नहीं देंगे.. उटपटांग बोलने का नतीजा भीलवाड़ा के विधायकों से पूछो हम कानून के साथ मिलकर आगे बढ़ेंगे। हम विदेशियों को आलू बैंगन की इज्जत से नहीं खेलने देंगे। हम जब तक आलू बैंगन को विश्व की सर्वश्रेष्ठ सब्जी घोषित नहीं करवा देते, यहीं डटे रहेंगे।
आकाश एक बार फिर ‘आलू बैंगन -अमर रहे’ के नारों से गूंज उठा।
ये सभा और आगे बढ़े इससे पहले इन डटी हुई सारी सब्जियों को एक ठेले में भरकर सब्जीवाला मुहल्ले की और बढ़ गया।
ले.. आऔ... भाभीजी ..
ले.. आलू, बैंगन, टमाटर, मूली, मटर, मेथी, पालक, अदरक, लहसुन प्याज ले लो।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
फिलीस्तीन इलाकों में जहां इस्राइली सेनाओं ने अवैध कब्जा जमा लिया है वहां पर फिलीस्तीनी नागरिकों को बेदखल किया जा रहा है और अवैध बस्तियों का निर्माण किया जा रहा है। इस्राइल अधिकृत फिलीस्तीनी इलाकों में बर्बरता का कानून चल रहा है। स्थिति इतनी भयाभय है कि जो स्वयंसेवी संस्थाएं फिलीस्तीनियों के लिए मानवीय सहायता का काम कर रही हैं, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना करके प्रवेश परमिट नहीं दिया जा रहा है। इस्राइली प्रशासन काम करने नहीं दे रहा है।
अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं को 16 दिसम्बर 2009 को अचानक ईमेल के जरिए इस्राइली प्रशासन ने सूचित किया कि स्वयंसेवी संस्थाओं को इस्राइल अधिकृत फिलीस्तीन इलाकों में काम करने का परमिट नहीं दिया जाएगा।
पहली बात यह कि फिलीस्तीन इलाकों में परमिट देने का अधिकार फिलीस्तीन प्रशासन को है, यदि इस्राइल ऐसा करता है तो वह फिलीस्तीन प्रशासन को कागजी संगठन मात्र बना रहा है और यह फिलीस्तीन जनता का अपमान है।
उल्लेखनीय है फिलीस्तीन प्रशासन में इन दिनों जो लोग बैठे हैं वे जनता के द्वारा चुने गए लोग हैं। फिलीस्तीन में आम चुनाव जितने पारदर्शी और लोकतांत्रिक ढ़ंग से होते हैं वैसे चुनाव इस्राइल में भी नहीं होते। फिलीस्तीन की संसद में ईमानदार और जनसेवा के लिए कुर्बानी देने वाले लोग ही संसद के लिए चुने जाते हैं।
इसके विपरीत इस्राइल में समूचा राजनीतिक नेतृत्व भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। मध्य-पूर्व के सबसे ज्यादा भ्रष्ट और बर्बर फंड़ामेंटलिस्ट इस्राइल में सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे हैं। इनमें यहूदी फंडामेंटलिस्टों का वर्चस्व है।
फिलीस्तीन की सामयिक सच्चाई यह है कि अभी तक इस्राइल ने फिलीस्तीन की जमीन से अपने अवैध कब्जे नहीं हटाए है। अवैध रूप से बसायी गयी पुनर्वास बस्तियों को नहीं हटाया गया है । कुछ बस्तियों को कुछ समय पहले प्रतीकात्मक तौर पर खाली कराया गया था किंतु असल में सभी अवैध पुनर्वास बस्तियां ज्यों की त्यों बसी हुई हैं। संकेत मिल रहे हैं कि वेस्ट बैंक में बसायी गयी अवैध 149 बस्तियों को इजरायल नहीं हटाएगा। इसका अर्थ है कि फिलीस्तीनियों को स्थायी तौर पर विभाजन और घृणा में जीना पड़ेगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवीय कार्यकलाप संयोजन दफतर के मुताबिक अभी वेस्ट बैंक में इस समय 651 निगरानी चौकियां हैं। इन निगरानी चौकियों के जरिए फिलीस्तीनियों की चैकिंग होती है। जबकि अवैध बस्तियों के इलाकों में मात्र आठ निगरानी चौकियां हैं।
निगरानी चौकियों के बहाने फिलीस्तीनियों को दैनन्दिन जीवन में अकथनीय तकलीफों का सामना करना पड़ता है। उनकी रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर समूची अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाह हो गयी है। आश्चर्य की बात है जो फिलीस्तीनी नागरिक अपने वतन आना चाहते हैं उन्हें इस्राइल आने नहीं देता और इसके बदले में फिलीस्तीनियों की जमीन पर अवैध ढ़ंग से यहूदियों को बाहर से लाकर बसाया जा रहा है। ऐसा करके स्थायी तौर पर वह फिलीस्तीन को पूरी तरह नष्ट करके उसका अंत ही कर देने पर आमादा है।
फिलीस्तीनियों पर एक तरफ हमले हो रहे हैं दूसरी ओर उन्हें बेदखल करके उनकी जमीन हथियाकर अवैध ढंग से यहूदी बस्तियां बसायी जा रही हैं। अवैध यहूदी बस्तियां सिर्फ बस्तियां ही नहीं हैं बल्कि इन्हें फिलीस्तीनी बस्तियों से अलग काटकर बसाया जा रहा है। उनकी बस्तियों से अलग इन्हें दीवार बनाकर किले की तरह बसाया जा रहा है। यह एक तरह का स्थायी विभाजन है जिसे फिलीस्तीन की सरजमीं पर थोपा जा रहा है।
कोई सभ्यता मानवीय है या नहीं यह इस तथ्य से तय होता है कि वह हमलावर है या नहीं। भारतीय सभ्यता का दर्जा इसी अर्थ में पश्चिमी सभ्यता से काफी ऊँचा है। भारतीय सभ्यता हमलावर नहीं है। इसमें मित्रता का भाव है,इसके विपरीत पश्चिमी पूंजीवादी सभ्यता हमलावर सभ्यता है। वह युध्द के बिना जिंदा नहीं रह सकती,बर्बर आक्रमण उसकी दैनन्दिन खुराक है।
बड़े पूंजीवादी राष्ट्र अन्य कमजोर देशों पर बर्बर हमले न करें तो पश्चिमी सभ्यता की सांसें बंद हो जाएं ,कारखाने बंद हो जाएं। पश्चिमी सभ्यता के भक्तों को इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि पश्चिम इतना बर्बर, निष्ठुर, निरंकुश ,असहिष्णु, और आक्रामक क्यों है ?
इस्राइल की बर्बरता और युध्दवादी मानसिकता के पीछे आज समूचा पश्चिमी सत्ता तंत्र खड़ा है। इस्राइल को पश्चिमी समाज आधुनिकता का आदर्श मॉडल बताकर पेश करता रहा है,जबकि इस्राइल सबसे ज्यादा बर्बर और हिंसक देश है। इस्राइली आक्रामकता,हिंसाचार,यहूदीवादी विस्तारवाद की चैनलों से गाथाएं गायब हैं। मरने वालों के बारे में कोई विस्तृत रिपोर्ट नहीं आ रही है। यहां तक कि संयुक्तराष्ट्र संघ भी इस्राइल के सामने असहाय है।
मुसलमानों का प्रतिदिन किसी न किसी बहाने कत्ल या जनसंहार दिखाना आम रिवाज बन गया है, इससे मुसलमानों के बारे में खास किस्म की इमेज बन रही है। मुसलमानों को बर्बर, आतंकवादी,हिंसक आदि रूपों में पेश किया जा रहा है। इसके कारण मुसलमानों के प्रति सही और संतुलित ढ़ंग से आम जीवन में बातें करना भी मुश्किल हो गया है।
मिथकशास्त्री एस.कीन ने मध्यपूर्व युध्द में निर्मित किए गए मिथों का खुलासा करते हुए लिखा है,''हथियारों से हत्या करने से पहले सबसे पहले हम मन में लोगों की हत्या करें।चाहे जिस तरह का युध्द हो।शत्रु हमेशा संहारक होता है और हम अच्छे लोगों की तरफ होते हैं। वे बर्बर होते हैं।हम सभ्य होते हैं।वे शैतान होते हैं।टेलीविजन से निरंतर आग के गोले दर्शक को एक ऐसे स्वप्नलोक में ले जाते हैं जहां उसके दिमाग में किसी भी किस्म के विचार नहीं आते। अब शत्रु को नम्बरों में बदल दिया गया था। ’
समाचार चैनलों में मारे गए इस्राइली नागरिकों ,बच्चों के माता-पिता के बयान,फोटो, दुखी चेहरे दिखाई दे जाएंगे ,किन्तु किसी मुसलमान बच्चे के माता-पिता के दुखी चेहरे नजर नहीं आएंगे। गाजा में तो लंबे समय से सिर्फ बच्चों का ही इस्राइल द्वारा कत्ल किया जा रहा है किन्तु किसी भी चैनल ने पीडित माता-पिता के दृश्य नहीं दिखाए, गोया ! मुसलमान बच्चों के माता-पिता नहीं होते !
चैनलों में लेबनान,सीरिया,इण्डोनेशिया, इरान, इराक, सोमालिया, सऊदी अरब, लीबिया, सूडान,अफगानिस्तान,पाकिस्तान आदि के मुसलमानों की कत्लेआम की खबरें आम हो गई हैं। आतंकवाद विरोधी मुहिम के तहत इन देशों के मुस्लिम बाशिंदों को खदेड़ा जा रहा है, हमले ए जा रहे हैं,बदनाम किया जा रहा है,सवाल किया जाना चाहिए कि यदि इन सभी देशों से मुसलमानों को निकाल देगें तो आखिरकार मुसलमान जाएंगे कहां ? क्या सारी दुनिया में मुसलमान सिर्फ शरणार्थी शिविरों में ही रहेंगे ? अथवा मुसलमानों को उनके देश में ही कैद करके रखा जाएगा ?जिससे उन्हें कभी भी कुत्तों की तरह गोलियों से भून दिया जाए,जैसा कि अभी मध्य-पूर्व के देशों में हो रहा है। पश्चिमी सभ्यता के रखवाले अमेरिका-इस्राइल ने मुसलमानों के सामने जनतांत्रिक प्रतिवाद का कोई अवसर ही नहीं छोड़ा है। मुसलमान को प्रतिवाद करना हो तो आतंकवादी बने अथवा अमेरिका के चरणों में पड़ा रहे।
मध्यपूर्व अमेरिका की जो दादागिरी चल रही है उसका गहरा संबंध अमेरिका के सैन्य उद्योग समूह के साथ है।अमेरिका की विदेश नीति का यह उद्योग समूह मूलाधार है। अमेरिका की समूची अर्थव्यवस्था इस समय सैन्य उद्योग,संस्कृति उद्योग और सूचना उद्योग पर टिकी हुई है। ये तीनों उद्योग समूह एक-दूसरे पर निर्भर हैं।एक के बिना दूसरे का विकास संभव नहीं है। हथियार उत्पादन अमेरिकी नीतियों में सबसे प्रमुख क्षेत्र है।हथियार उत्पादन क्षेत्र यदि प्रमुख क्षेत्र होगा तो उसका दूसरा कदम हथियारों का निर्यात करना होगा।अमेरिकी कंपनियों को इसके लिए ग्लोबल रणनीति बनानी होती है।इसका अर्थ यह है कि युध्द का निरंतर बने रहना। युध्द नहीं होंगे तो हथियार नहीं बिकेंगे। हथियार नहीं बिकेंगे तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी।इसका अर्थ यह हुआ कि निररंतर युध्द का बने रहना।
मजेदार बात यह है कि हमारे शांति आंदोलन की मांगों में युध्द बंद करने या अमेरिका की युध्दवादी नीतियों को नंगा करने वाली मांगें तो रहती हैं किंतु सैन्य उद्योग को शांति और विकास के कार्यों में रूपान्तरित करने की मांग शामिल नहीं रहती।यह स्थिति अमेरिका के शांति आंदोलन की भी है।
कायदे से शांति आन्दोलन को युध्द के साथ -साथ सैन्य उद्योग के शांति एवं विकास कार्यों में रूपान्तरण की मांगों को भी अपना एजेण्डा बनाना चाहिए। शांति आंदोलन की मुश्किल यह है कि युध्द के खत्म होते ही वे शांत हो जाते हैं। जबकि सैन्य उद्योग काम करता रहता है।
युध्द को खत्म करने के लिए जरूरी है कि हथियारों के उत्पादन पर रोक लगायी जाए।हम यह चेतना अभी तक पैदा नहीं कर पाए हैं कि जनसंहारक अस्त्रों के निर्माण कार्य में हमारे वैज्ञानिक,रक्षा विशेषज्ञ आदि भाग न लें। हथियारों को बनाने वाले हाथ नहीं होगे तो हथियार भी नहीं बनेंगे। जनसंहारक अस्त्रों के निर्माण की प्रक्रिया से लेकर युध्द के मैदान और युध्द के बाद की स्थितियों तक शांति आंदोलन का दायरा फैला हुआ है।
हमें इस लचर तर्क से बचना चाहिए वैज्ञानिक अस्त्र नहीं बनाएंगे तो खाएंगे क्या ?सैन्य उद्योग समूह पर जो परिवार निर्भर हैं वे क्या खाएंगे ? अमेरिकी कंपनियां इस्राइल को नए अस्त्र-शस्त्र सप्लाई कर रही हैं। अमेरिकी सैन्य उद्योग में काम करने वाले ओवरटाइम काम कर रहे हैं। वे इस्राइल के आर्डर की सप्लाई लाइन चालू रखे हुए हैं।
सैन्य उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी इस बात पर गर्वित हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं। क्या हमारे मजदूर आंदोलन को सैन्य उद्योग में काम करने वाले कर्मचारियों के साथ शांति आंदोलन को जोडऩे के बारे में नहीं सोचना चाहिए ? हमें इस सवाल का भी जबाव खोजना होगा कि आखिरकार अमेरिका के शांति आंदोलन ने सैन्य कर्मचारियों को अपने प्रभाव में अभी तक क्यों नहीं लिया है ?
आज हथियारों की दौड़ धरती तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसने पूरे अंतरिक्ष को भी अपनी जद में ले लिया है।पेंटागन का अब तक का सबसे बड़ा प्रकल्प है प्लेनेट अर्थ ।इसका लक्ष्य है अंतरिक्ष को हथियारों से भर देना। यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि आज अमेरिका अपने देश में शांति के काम में आने वाली कितनी चीजें पैदा कर रहा है ? बाजार में जाने पर बमुश्किल कोई ऐसी चीजें नजर आएं।हथियारों का निर्माण करके अमेरिका बड़े पैमाने जहां युध्द को बनाए रखना चाहता है,वहीं दूसरी ओर अमेरिका युद्ध के बहाने गैस और तेल के भंडारों को अपने कब्जे में लेना चाहता है। यह सिलसिला जारी है।
संदीप पांडेय
2002 में जब मैं मग्सायसाय पुरस्कार लेने मनीला गया तो वहां एक छोटा सा विवाद खड़ा हुआ। फिलीपींस की राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त करने के अगले दिन मुझे मनीला स्थित अमरीकी दूतावास पर अमरीका के इराक पर होने वाले सम्भावित हमले के खिलाफ एक प्रदर्शन में शामिल होना था। तब मग्सायसाय फाउण्डेशन की अध्यक्षा ने मुझे वहां जाने से यह कहकर रोकने की कोशिश की कि मेरे अमरीकी दूतावास पर प्रदर्शन में शामिल होने से फाउण्डेशन की बदनामी होगी। मैंने उन्हें याद दिलाया कि जिन चार कारणों से उन्होंने मुझे मग्सायसाय पुरस्कार दिया था उसमें एक भारत के नाभिकीय परीक्षण के खिलाफ वैश्विक नाभिकीय निशस्त्रीकरण के उद्देश्य से पोकरण से सारनाथ तक निकाली गई पदयात्रा थी। यानी युद्ध के खिलाफ मेरी भूमिका से वे पूर्व-परिचित थीं। मैंने उन्हें बताया कि इत्तेफाक से जिस दिन मुझे पुरस्कार मिला उसी दिन मनीला के विश्ववि़द्यालय में हुए एक शांति सम्मेलन में अमरीकी दूतावास पर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया गया था और मैं इस सम्मेलन में भी आमंत्रित था। मेरे विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के बाद मनीला के एक अखबार ने अपने सम्पादकीय में मुझे यह चुनौती दी कि यदि मैं उतना ही सिद्धांतवादी हूं जितना कि मैं चाहता हूं कि वे मानें तो मैैं भारत लौटने से पहले मग्सायसाय पुरस्कार लौटा कर जाऊं। इससे मेरा काम आसान हो गया। मैंने हवाई अड्डे से पुरस्कार के साथ मिली धनराशि लौटा दी और मग्सायसाय फाउण्डेशन की अध्यक्षा को एक पत्र लिखकर कहा कि फिलहाल मैं पुरस्कार अपने पास रख रहा हूं क्योंकि पुरस्कार फिलीपींस के एक लोकप्रिय भूतपूर्व राष्ट्रपति के नाम पर है और भारत में यह ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को मिल चुका है, जैसे जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे व बाबा आम्टे, जो मेरे आदर्श हैं। उस पत्र में मैंने यह भी लिखा कि जिस दिन उन्हें लगे कि मेरी वजह से मग्सायसाय फाउण्डेशन की ज्यादा बदनामी हो रही है तो मैं पुरस्कार भी लौटा दूंगा।
लेकिन अब मुझे लगता है कि समय आ गया है। मग्सायसाय पुरस्कार रॉकेफेलर फाण्डेशन व मुझे जिस श्रेणी में पुरस्कार मिला वह फोर्ड फाण्डेशन द्वारा प्रायोजित है, जो दोनों अमरीकी संस्थाएं हैं। अमरीका जिस तरह से वर्तमान में फिलीस्तीन के खिलाफ युद्ध में बेशर्मी से खुलकर इजराइल का साथ दे रहा है और अभी भी इजराइल को हथियार बेच रहा है, अब मेरे लिए असहनीय हो गया है कि मैं यह पुरस्कार रखूं। इसलिए मैंने अब मग्सायसाय पुरस्कार भी लौटाने का फैसला लिया है। मैं फिलीपींस के लोगों से माफी चाहता हूं क्योंकि भूतपूर्व राष्ट्रपति रेमन मग्सायसाय का नाम इस पुरस्कार के साथ जुड़ा हुआ है। किंतु मेरा विरोध सिर्फ पुरस्कार के अमरीकी जुड़ाव वाले पक्ष से है।
जैसे में मग्सायसाय पुरस्कार वापस कर रहा हूं तो मुझे लगता है कि मुझे अमरीका से प्राप्त डिग्रियां भी वापस कर देनी चाहिए। मैं न्यू यॉर्क राज्य स्थित सिरैक्यूस विश्वविद्यालय से प्राप्त मैन्यूफैक्चरिंग व कम्प्यूटर अभियांत्रिकी की व कैलिफोकर्निया के विश्वविद्यालय, बर्कले से प्राप्त मेकेनिकल अभियांत्रिकी की डिग्रियां भी वापस करने का निर्णय ले रहा हूं। बल्कि यह मुझे 1991 में बर्कले के परिसर पर ही, जब राष्ट्रपति वरिष्ठ बुश ने इराक पर हमला कर दिया था, युद्ध विरोधी प्रदर्शन में पता चला कि अमरीकी विश्वविद्यालयों, खासकर प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान विभागों, में हथियारों से जुड़े शोध कार्य होते हैं।
युद्ध विरोधी प्रदर्शन में भाग लेने वाले एक इलेक्ट्रिकल अभियांत्रिकी के प्रोफेसर प्रवीण वरैया, जो रक्षा विभाग से शोध हेतु कोई पैसा नहीं लेते थे, से पता चला कि उनका शोध क्षेत्र कंट्रोल सिस्टम्स्, जो मेरा भी शोध क्षेत्र था, का जुड़ाव रक्षा कार्यक्रम से है। यानी अनजाने में मैं अमरीकी युद्ध तंत्र का हिस्सा बन गया था। मेरा अपने शोध क्षेत्र से पूरी तरह से मोहभंग हो गया और जब मैंने भारत लौटकर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर में पढ़ाना शुरू किया तो अपना शोध क्षेत्र बदल लिया।
यहां मैं फिर यह स्पष्ट कर दूं कि मेरा अमरीकी जनता या अमरीका देश से भी कोई विरोध नहीं है। बल्कि मैं समझता हूं कि अमरीका में मानवाधिकारों के उच्च आदर्शों का पालन होता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी यहां उच्च कोटि की है। किंतु इन उच्च आदर्शों का पालन सिर्फ अमरीका के अंदर ही होता है। अमरीका के बाहर, खासकर तीसरी दुनिया के देशों में अमरीका को इनकी कोई चिंता नहीं है। यदि वह न्याय के साथ खड़ा है तो किसी भी युद्ध में उसे उत्पीडि़त के पक्ष में भूमिका लेनी चाहिए। रूस के यूक्रेन पर हमले में उसने सही भूमिका ली है। किंतु न जाने वह क्यों फिलीस्तीनियों के उत्पीडऩ और तबाही की ओर आंख मूंदे हुए है और इजराइल की सेना द्वारा किए जा रहे जघन्य अपराधों को भी नजरअंदाज करने को तैयार है। यदि यह कोई और देश कर रहा होता तो अभी तक अमरीका, जैसा उसने दुनिया के अन्य देशों के साथ मिलकर रंगभेद की नीति लागू करने वाले दक्षिण अफ्रीका के साथ किया था, कठोर प्रतिबंध लगा चुका होता।
मैं यह कड़ा निर्णय इसलिए ले रहा हूं कि मैं मानता हूं कि यह दुनिया की राय के खिलाफ जाकर अमरीका के बढ़ावा देने के कारण ही इजराइल फिलीस्तीनियों के साथ बर्बरता कर रहा है। चाहिए तो यह था कि अमरीका एक तटस्थ भूमिका लेकर इजराइल और फिलीस्तीन के बीच शांति हेतु मध्यस्थता करता, जैसा उसने पहले किया भी हुआ है। एक सम्प्रभु स्वतंत्र फिलीस्तीन, जिसको संयुक्त राष्ट्र संघ एक पूर्ण देश का दर्जा दे, ही इजराइल-फिलीतीन विवाद का हल है। किंतु यह विचित्र बात है कि अमरीका, जिसने अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए, अफगानिस्तान, जिसका क्षेत्रफल फिलीस्तीन से बहुत बड़ा है, को चांदी की थाली में सजाकर तालिबान को सौंप दिया, यह जानते हुए कि वह आम अफगान, खासकर औरतों, की नागरिक स्वतंत्रता को खतरे में डाल रहा है, इजराइल की इस बात को दोहराता है कि हमास एक आतंकवादी संगठन है। वह इस बात को नजरअंदाज करता है कि हमास ने फिलीस्तीन में चुनाव जीत कर गज़ा में सरकार बनाई है जबकि तालिबान ने कोई चुनाव नहीं लड़ा था। मुझे लगता है कि अमरीका की दोगली नीति पर सवाल उठाना चाहिए।’
इमरान कुरैशी
(कल के अंक से आगे)
कुलपतियों की नियुक्ति पर टकराव
इस मुलाकात के बाद शिक्षा विभाग की तरफ से निकले विज्ञापन को वापस ले लिया गया। लेकिन 30 अगस्त को राज्यपाल सचिवालय ने कुलाधिपति की शक्ति और अधिकार के संबंध में एक पत्र जारी किया। इसमें कहा गया कि कुलाधिपति (राज्यपाल) सचिवालय के निर्देश के अलावा किसी अन्य स्तर पर जारी दिशा-निर्देश का पालन नहीं करें। किसी अन्य द्वारा विश्वविद्यालय को निर्देश देना उनकी स्वायत्ता के अनुकूल नहीं है। ये बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 1976 के प्रावधानों का उल्लंघन है।
वरिष्ठ पत्रकार और राजभवन लंबे समय से कवर कर रहे अविनाश कुमार कहते हैं, ‘नीतीश सरकार का राज्यपालों के साथ विवाद तो समय-समय पर हुआ है, लेकिन कोई भी विवाद बहुत ज्यादा तूल नहीं पकड़ता। नीतीश कुमार सामंजस्य बना कर चलते हैं। वैसी स्थितियां नहीं बनतीं जैसे राबड़ी राज में राज्यपाल के साथ विवाद में बन जाती थीं।’
झारखंड में कई बार बनी टकराव की स्थिति
रवि प्रकाश, रांची
झारखंड की मौजूदा हेमंत सोरेन सरकार के चार साल के कार्यकाल में विधानसभा की ओर से बहुमत से पारित कमसे कम आधा दर्जन विधेयक राज्यपाल ने सरकार को लौटा दिए। कई दफा तो इसके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी अनुवादों में मामूली अंतर जैसे कारण भी बताए गए। ज़्यादातर मामलों में विधेयक लौटाते वक्त राज्यपाल ने कोई टिप्पणी नहीं की।
बगैर नोटिंग के लौटाए गए विधेयकों को लेकर सत्तारूढ़ गठबंधन के शीर्ष नेताओं ने पिछले दिनों जब राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन से मिलने का वक्त माँगा, तो राजभवन ने उनके पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। इसके बाद जब इन नेताओं का प्रतिनिधिमंडल राज्यपाल से मिलने राजभवन पहुँचा, तो उन्हें बताया गया कि राज्यपाल राँची में नहीं हैं। तब इन नेताओं ने अपना आपत्ति पत्र राजभवन के मुख्य द्वार पर स्थित राज्यपाल के कार्यालय को सौंपा और वापस लौट गए।
झारखंड के राज्यपाल
इन नेताओं ने वहाँ मौजूद मीडिया से कहा कि झारखंड की राज्यपाल रहीं (अब राष्ट्रपति) द्रौपदी मुर्मू ने राज्यपाल रहते हुए खुद द्वारा लौटाए गए हर विधेयक पर नोटिंग की। इससे सरकार को यह समझने में आसानी हुई कि राज्यपाल को किन बिंदुओं पर आपत्ति है।
इसी तरह झारखंड के राज्यपाल रहे सैयद सिब्ते रजी ने भी अपने कार्यकाल के दौरान नोटिंग के साथ विधेयकों को लौटाया, लेकिन झारखंड के मौजूदा राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन और इनके पूर्ववर्ती रमेश बैस (अब महाराष्ट्र के राज्यपाल) ने अधिकतर विधेयकों को लौटाते वक्त नोटिंग करना तक ज़रूरी नहीं समझा।
इस कारण सरकार और राजभवन के बीच हमेशा टकराव की स्थिति बनी रही। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने स्वयं कई जनसभाओं में राज्यपाल के कार्यकलाप पर टिप्पणी की। राज्यपाल रहे रमेश बैस की सरकार और मुख्यमंत्री से संबंधित टिप्पणियाँ सुर्खय़िों में रहीं। सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं व प्रवक्ताओं ने प्रेस कांफ्रेंस कर राजभवन पर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के आरोप लगाए। तब विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता व प्रवक्ताओं ने राज्यपाल का बचाव किया।
इस दौरान विधानसभा अध्यक्ष रवींद्र नाथ महतो की राजभवन को लेकर की गई टिप्प्णियाँ भी चर्चा में रहीं। विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को बार-बार लौटाए जाने के बाद स्पीकर ने कहा था कि विधानसभा अब अंग्रेज़ी अनुवाद कर अपने विधेयक राजभवन नहीं भेजेगा। अगर राज्यपाल चाहें तो अपने स्तर पर इसका अनुवाद करा लिया करें।
हालाँकि, अबतक राजभवन द्वारा लौटाए गए या वहाँ पेंडिंग पड़े तमाम विधेयक अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ भेजे गए थे। इसके बावजूद कई महत्वपूर्ण विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें मॉब लिंचिंग निवारण विधेयक भी शामिल हैं। इस विधेयक को रमेश बैस ने अपने कार्यकाल के दौरान लौटा दिया था। सरकार अब इसे दोबारा भेजने की तैयारी कर रही है।
राज्यपाल ने मंत्री को किया तलब
यहाँ राज्यपाल रहे महाराष्ट्र के मौजूदा राज्यपाल रमेश बैस ने तो एक दफा झारखंड के कृषि मंत्री बादल पत्रलेख को राजभवन तलब कर एक विधेयक पर उनसे बातचीत की। यह पहला मौका था जब राज्यपाल किसी विधेयक को लेकर मंत्री को राजभवन बुला लें।
अपने कार्यकाल के दौरान रमेश बैस ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरन की विधानसभा सदस्यता को लेकर चुनाव आयोग के एक रहस्यमय पत्र को लेकर भी मीडिया में राजनीतिक टिप्पणियाँ भी कीं। हालाँकि, उस पत्र का मज़मून अभी तक रहस्य बना हुआ है। राजभवन अब उसपर कोई टिप्पणी नहीं करता।
रमेश बैस अपने कार्यकाल के दौरान राँची के एक मल्टीप्लेक्स में 'कश्मीर फाइल्स' देखने गए। इस दौरान मॉल के मालिक कारोबारी विष्णु अग्रवाल के साथ सिनेमा हॉल में बैठी उनकी एक तस्वीर भी मीडिया में चर्चा में रही। उसी विष्णु अग्रवाल को बाद के दिनों में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने मनी लाउंड्रिंग के एक मामले में गिरफ़्तार कर लिया। वे इन दिनों जेल में हैं।
इस बीच राष्ट्रपति ने रमेश बैस को समय से पहले ही यहाँ से हटाकर महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त कर दिया। इसके बाद सीपी राधाकृष्णन झारखंड के राज्यपाल नियुक्त किए गए। लेकिन, नए राज्यपाल भी विधानसभा द्वारा बहुमत से पारित विधेयकों को लौटाने और उन्हें रोके रखने का सिलसिला नहीं तोड़ पाए। अलबत्ता झारखंड के विभिन्न जि़लों के भ्रमण के दौरान नए राज्यपाल द्वारा सिफऱ् केंद्र सरकार की योजनाओं की तारीफ किए जाने को लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा ने राज्यपाल पर टिप्पणियाँ भी कीं। जेएमएम ने कहा कि राज्यपाल को किसी पार्टी के प्रवक्ता की तरह काम नहीं करना चाहिए।
इन विधेयकों में क्या है
राज्यपाल की मंज़ूरी नहीं मिलने के कारण अधर में लटके विधेयकों में से कुछ वैसे भी हैं, जिन्हें लागू कराने का वादा कर झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) सत्ता में आई थी। मॉब लिंचिंग निवारण विधेयक, 1932 के खतियान आधारित डोमिसाइल संबंधित विधेयक और ओबीसी आरक्षण बढ़ाने संबंधित विधेयक ऐसे ही कुछ विधेयक हैं, जो या तो सत्तारूढ़ जेएमएम के घोषणा पत्र में थे, या फिर अपने चुनावी भाषणों में पार्टी नेताओं ने इसका वादा किया था।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की टिप्पणी
ऐसे में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पिछले दिनों की गई यह टिप्पणी काबिल-ए-गौर है। ''झारखंड की जनता ने राज्य में जो सरकार बनाई है, विधेयक उसी सरकार के ज़रिए विधानसभा से पारित कराए गए हैं। ये विधेयक कैसे कानून सम्मत नहीं हो सकते हैं। झारखंड की माँग होती रही, पर इसे बनाने में 40 साल लग गए। झारखंड के मूलवासियों को सत्ता हासिल करने में 20 साल लग गए। झारखंड के साथ हमेशा छल हुआ। मूलवासी अब चुप नहीं बैठेंगे। अपना हक लेकर रहेंगे।''
छत्तीसगढ़ में सरकार बदलने से क्या कम होगा टकराव?
आलोक प्रकाश पुतुल, रायपुर
छत्तीसगढ़ में अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी है, ऐसे में उम्मीद तो यही है कि आने वाले दिनों में राज्य में सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव देखने को नहीं मिलेगा।
लेकिन पिछली सरकार के दौरान दोनों का आपसी विवाद कई बार देखने को मिला। इस तनातनी के चलते ही आरक्षण का क़ानून लागू नहीं हो पाया। किसानों की सुरक्षा से संबंधित विधेयक भी अटका रहा।
गौरतलब है कि तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि और पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित से संबंधित मामलों की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि राज्य का निर्वाचित प्रमुख नहीं होने के नाते, राज्यपाल विधानसभा सत्र की वैधता पर संदेह नहीं कर सकते या सदन द्वारा पारित विधेयकों पर अपने फैसले को अनिश्चित काल तक रोक नहीं सकते।
अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत, जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो वह या तो घोषणा करेगा कि वह विधेयक पर सहमति देता है या सहमति नहीं देता है, या वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है। लेकिन ऐसे विधेयक को अनिश्चितकाल के लिए दबा कर नहीं रखा जा सकता।'
कांग्रेस के आरोप
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के मीडिया प्रमुख सुशील आनंद शुक्ला ने बीबीसी से कहा, ''छत्तीसगढ़ में विधानसभा से पारित अधिकांश विधेयकों को केवल राजनीतिक कारणों से आज तक राज्यपाल ने लटका रखा था।''
2012 में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार ने आरक्षण का दायरा 50 फ़ीसदी से 58 फ़ीसदी कर दिया था। वहीं 2018 में आई भूपेश बघेल की सरकार ने आरक्षण का दायरा बढ़ा कर 82 फ़ीसदी कर दिया। लेकिन छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने भूपेश बघेल सरकार के आरक्षण की व्यवस्था पर रोक लगा दिया।
पिछले साल 19 सितंबर को हाईकोर्ट ने रमन सिंह के शासनकाल में लागू आरक्षण व्यवस्था को 'असंवैधानिक' बताते हुए, इसे भी रद्द कर दिया।
हालत ये हो गई कि छत्तीसगढ़ में आरक्षण का कोई रोस्टर ही लागू ही नहीं रहा। कॉलेजों में प्रवेश परीक्षा अटक गए, नियुक्तियां अटक गईं और पदोन्नति भी।
पिछले साल दिसंबर में छत्तीसगढ़ विधानसभा ने लोक सेवा और प्रवेश के लिए, देश में सबसे ज़्यादा 76 फ़ीसदी आरक्षण का विधेयक पारित किया और उसे हस्ताक्षर के लिए तब की राज्यपाल अनूसुइया उइके को भेज दिया। लेकिन राज्यपाल ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर करने के बजाय राज्य सरकार से आरक्षण के इस दायरे को बढ़ाए जाने को लेकर सवाल-जवाब शुरू कर दिया।
राज्यपाल और मुख्यमंत्री में टकराव
राज्य के मुख्यमंत्री रहे भूपेश बघेल का आरोप है कि राज्यपाल को विधानसभा से पारित क़ानून पर सवाल-जवाब करने का अधिकार नहीं है। या तो वो इस विधेयक पर हस्ताक्षर करें या इस वापस करें। लेकिन अनूसुइया उइके ने इस साल फरवरी तक इस आरक्षण विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं किया। यहां तक कि उनके बाद बनाए गए राज्यपाल विश्वभूषण हरिचंदन ने भी इस पर हस्ताक्षर नहीं किया है।
इसी तरह जब केंद्र सरकार ने तीन नए कृषि क़ानून लाए तो 23 अक्टूबर 2020 को छत्तीसगढ़ सरकार ने कृषि उपज मंडी अधिनियम को संशोधित करते हुए विधेयक पारित किया।
यह विधेयक भले केंद्र के कृषि क़ानून से कोई छेड़छाड़ नहीं कर रहा था लेकिन यह केंद्र के कृषि क़ानूनों को निष्प्रभावी करने वाला विधेयक था। इस विधेयक में मंडी की परिभाषा में डीम्ड मंडी को भी रखा गया था। सरकार ने निजी मंडियों को डीम्ड मंडी घोषित करने का फ़ैसला किया था। यह विधेयक तीन साल से भी अधिक समय से राजभवन में पड़ा रहा।
साल 2020 में राज्य के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय और सुंदरलाल शर्मा विश्वविद्यालय में जब राज्य सरकार की इच्छा के अनुरूप कुलपतियों की नियुक्ति नहीं हो पाई तो राज्य सरकार ने विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक पारित किया।
मार्च 2020 में पारित इस विधेयक के अनुसार, राज्य सरकार जिस नाम की अनुशंसा करेगी, उसे कुलपति नियुक्ति किया जाएगा। इसके अलावा कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम छत्तीसगढ़ के पत्रकार और सांसद चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर रखने का फ़ैसला किया गया था। लेकिन राज्यपाल ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर ही नहीं किया।
उम्मीद है कि अब सत्ता परिवर्तन के बाद इन टकरावों का दौर समाप्त होगा और छत्तीसगढ़ में बरसों से लंबित विधेयकों के दिन फिरेंगे। (bbc.com/hindi)
घनाराम साहू
राजिम धाम के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रतनपुर के कलचुरी सामंत एवं दुर्ग के राजा जगपाल देव का है, जिसने 3 जनवरी सन 1145 माघ शुक्ल अष्टमी दिन बुधवार कलचुरि संवत 896 को भगवान रामचन्द्र का मंदिर बनवा कर लोकार्पित किया था । रतनपुर के कलचुरी राजाओं में 10 वीं सदी के राजा कमल राज (ईसवी सन 1020 से 1045) प्रतापी थे जिसने त्रिपुरी के राजा गांगेय देव के उत्कल विजय अभियान में सहयोग किया था ।
गांगेय देव और कमल राज ने उत्कल के सोमवंशी राजा धर्मरथ को पराजित किया था। इसी युद्ध अभियान में राजा कमल राज को साहिल्ल नामक योद्धा मिला जो युद्ध उपरांत उसके साथ रतनपुर (तुम्मान) आ गया था । साहिल्ल बघेलखंड (मिर्जापुर) के बड़हर नामक स्थान का निवासी था । राजिम धाम से राजा जगपाल देव के शिलालेख के अनुसार वह राजमाल कुल गोत्र का था । उसका एक भाई वासुदेव और तीन पुत्र भायिल, देसल और स्वामिन थे । स्वामिन के पुत्र जयदेव एवं देवसिंह हुए । ठाकुराज्ञी उदया देवी (पति का नाम उल्लेख नहीं है) का पुत्र जगपाल देव हुआ, जिसने जगपालपुर नगर बसाया । इस वंश ने रतनपुर के कलचुरी राजाओं के लिए भट्टविल, विहरा, कोमोमंडल, डंडोर, मायूरिक, सातवंतों, तमनाल, राठ, तरण, तलहारी, सरहरागढ़, मचका, सिहावा, भ्रमरदेश, कांतार, कुसुमभोग, कांदाडोंगर, काकरय को जीता था ।
रतनपुर के राजा रत्नदेव द्वितीय एवं उत्कल के चोडग़ंग राजा अनंतदेव वर्मन के बीच शिवरीनारायण के निकट तलहारी मंडल में हुए युद्ध में जगपाल देव ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया था । युद्ध भूमि में उसका शरीर रक्त बूंदों से सिंदूर के समान लाल हो गया था । उसकी वीरता के कारण वह जगत सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ । राजा रत्नदेव द्वितीय के पुत्र राजा पृथ्वीदेव द्वितीय ने जगपाल देव की वीरता से प्रभावित होकर दुर्ग क्षेत्र के 700 गांवों का स्वामी बना दिया तब जगपाल देव राजा कहलाने लगे । राजा जगपाल देव निसंतान थे इसलिए इनका वंश वृक्ष यहीं समाप्त हो जाता है ।
कुछ इतिहासकारों के मतानुसार साहिल्ल के वंश के राजमाल गोत्र के नाम पर राजमालपुर बसाया गया । कालांतर में यह नाम छोटा होकर राजम और इसका अपभ्रंश होकर राजिम हुआ । इतिहासकार यह भी मानते हैं कि राजा (सामंत) जगपाल देव का शिलालेख जो राजीव लोचन मंदिर के भित्ति में मिला, वह वास्तव में इस मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित रामचंद्र मंदिर का है क्योंकि शिलालेख के अनुसार उसने भगवान रामचन्द्र का मंदिर बनवाया था । एक अन्य ऐतिहासिक प्रसंग के अनुसार अंग्रेज काल में रायपुर के मालगुजार गोविंद लाल बनिया ने सिरपुर से सामग्री लाकर राजिम के मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया था ।
फोटो में दिया गया यह प्रतिमा राजिम के मुख्य मंदिर प्रांगण में स्थापित है जिस पर राजा जगतपाल का नाम पट्टिका भी लगा है लेकिन इतिहासकार इसे गौतम बुद्ध की प्रतिमा बताते हैं ।
इमरान कुरैशी
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों राज्य की विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपालों द्वारा दबाए रखने को भले ही ‘आग से खेलने वाला’ और इसे ‘चिंता का विषय’ बताया हो लेकिन हालत ये है कि कई राज्यों में सरकारों के फैसले पर राज्यपाल अनुमति नहीं देते और वे सालों-साल तक कानून नहीं बन पाते।
ऐसे ही टकरावों पर अलग अलग राज्यों में क्या है स्थिति बता रहे हैं बीबीसी के सहयोगी पत्रकार।
सडक़ पर उतरे केरल के राज्यपाल
ऐसा लगता है कि राज्यों के राज्यपालों के बीच एक अनुचित प्रतिस्पर्धा विकसित हो रही है। एक के बाद एक प्रोटोकॉल उल्लंघन की घटनाएं सामने आ रही हैं।
राज्यपाल ऐसे कदम उठा रहे हैं जो देश ने पहले कभी नहीं देखा है।
एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने प्रोटोकॉल के सभी मानदंडों को तोड़ दिया।
वे कोझिकोड की सडक़ों पर अकेले चले और एक दुकानदार द्वारा पेश किए गए कोझिकोडन हलवे का स्वाद चखा।
सादे कपड़ों में पुलिसकर्मी उन्हें किसी भी अप्रिय घटना से बचाने के लिए उनके साथ चल रहे थे।
कोझिकोड में राज्यपाल का विरोध
ये उस समय हुआ है जब दो दिन पहले स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के कार्यकर्ता ‘गो बैक-गो बैक’ के नारे लगा रहे थे।
उन्होंने बैनर लगा रखे थे, जिन पर लिखा था, ‘मिस्टर चांसलर, आपका यहां स्वागत नहीं है।’
इसके ठीक 12 महीने पहले, उनके समकक्ष तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने कुछ ऐसा किया जो भारतीय विधायिका के इतिहास में किसी दूसरे राज्यपाल ने नहीं किया था।
वह विधानसभा में अपने पारंपरिक संबोधन को बीच में छोडक़र चले गए थे, क्योंकि सत्तारूढ द्रमुक के सदस्यों ने उनके उस भाषण को नहीं पढऩे का विरोध किया, जिसे राज्य कैबिनेट ने संविधान के मुताबिक मंजूरी दी थी।
एक राज्यपाल राज्य के प्रमुख के तौर पर नए साल के पहले दिन जब विधानमंडल की बैठक होती है तो अपने संबोधन में सरकार को ‘मेरी सरकार’ बताता है।
एक राज्यपाल को जैसा कि संविधान इजाजत देता है या जैसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि निश्चित रूप से, मुख्यमंत्री या सरकार की सलाह के मुताबिक काम करना होता है।
तमिलनाडु के राज्यपाल ने तोड़ी परंपरा?
लेकिन राज्यपाल रवि ने विधानसभा के बाहर अपनी सरकार, इस मामले में द्रमुक सरकार की आलोचना कर स्थापिक परंपरा को तोड़ दिया। इसी तरह की प्रतिस्पर्धात्मक भावना से राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान केरल की वामपंथी लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार की आलोचना भी करते रहे हैं।
चेन्नई स्थित राजनीतिक विश्लेषक एन सत्यमूर्ति ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘राजभवन के भीतर राजनीति हमेशा चलती रहती थी, जो पुराने समय के मशहूर ‘आया राम, गया राम’ में परिलक्षित होती है। लेकिन कोई भी राज्यपाल अपनी ही सरकार की आलोचना करने की सीमा तक नहीं गया।’
उन्होंने कहा, ‘वर्तमान राज्यपाल वैचारिक और विवादास्पद मुद्दों पर बोलने लगे हैं।’
पूर्व कुलपति और राजनीतिक टिप्पणीकार प्रोफेसर जे प्रभाष तिरुवनंतपुरम में रहते हैं। उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘एक नागरिक के रूप में, हम राज्यपाल के पद पर बैठे व्यक्ति से कुछ मर्यादा की उम्मीद करते हैं। ऐसी कार्रवाइयों से हो यह रहा है कि विश्वविद्यालयों का नियमित कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अभी 15 विश्वविद्यालयों में से करीब नौ में पूर्णकालिक कुलपति नहीं हैं।’
राज्यपाल रवि और राज्यपाल खान दोनों के मामले में, विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण को लेकर संबंधित राज्य सरकारों के साथ उनका टकराव शुरू हो गया है। राज्यपालों ने कुलाधिपति के रूप में विश्वविद्यालयों के मामलों में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया है। सामान्य परिस्थितियों में कुलाधिपति राज्य सरकारों की सिफारिशों को मंजूरी देते हैं।
उनके कार्यों या निष्क्रियताओं ने संबंधित सरकारों को कुलपतियों की नियुक्तियों में कुलाधिपति की शक्तियों पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने के लिए प्रेरित किया है। राज्यपाल खान की ओर से नौ कुलपतियों से इस्तीफा मांगने के बाद केरल सरकार ने यह कानून पेश किया।
लेकिन दोनों राज्यपालों ने विधानसभाओं की ओर से पारित कानूनों के बारे में कुछ नहीं किया। तमिलनाडु और केरल सरकारों के सुप्रीम कोर्ट जाने के बाद कुछ हलचल हुई। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ को संविधान पढक़र यह कहना पड़ा कि राज्यपालों के पास ‘इसे स्वीकार करने, इसे वापस करने या इसे राष्ट्रपति को भेजने’ के अलावा कोई और विकल्प नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल रवि को मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को चाय पर आमंत्रित करने और मुद्दों पर चर्चा करने के लिए कहा जिसके बाद दोनों की मुलाकात भी हुई। हालांकि इस मुलाकात के बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बॉडी लैंग्वेज़ से ऐसा लग रहा था कि दोनों ही सुलह को लेकर उदासीन हैं।
मुख्यमंत्री और राज्यपाल में जुबानी जंग
राज्यपाल खान के कामकाज और बयानों की वजह से मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के साथ जुबानी जंग छिड़ी हुई है।
राज्यपाल ने एसएफआई को ‘अपराधी’ कहा है। इस पर मुख्यमंत्री ने गंभीर आपत्ति जताई है। उन्होंने कहा है कि उनकी सरकार को केंद्र से उन्हें वापस बुलाने के लिए कहेगी।
प्रोफेसर प्रभाष कहते हैं, ‘लोग सरकार को जिम्मेदार ठहराएंगे, भले ही हर कोई जानता है कि यहां राज्यपाल का एक एजेंडा है।’
सत्यमूर्ति कहते हैं, ‘यहीं तक नहीं है, तेलंगाना की राज्यपाल तमिलसाई सुंदरराजन अपने गृह राज्य के दौरे पर आती हैं। वे एक द्रमुक मंत्री की आलोचना करती हैं। वो यह भूल जाती हैं कि अब वो राज्यपाल हैं। वो किसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पर हमला नहीं कर सकतीं हैं।’
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रोहिंटन नरीमन ने पिछले हफ्ते एशियाटिक सोसाइटी से कहा था कि राज्यपालों का इस तरह का काम राज्य की सभी विधायी गतिविधियों को ठप कर देता है।
कितने विधेयक लंबित हैं पश्चिम बंगाल में
प्रभाकर मणि तिवारी, कोलकाता
पश्चिम बंगाल में राजभवन और राज्य सचिवालय के बीच टकराव का इतिहास यूं तो बहुत लंबा रहा है। लेकिन खासकर तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ के कार्यभार संभालने के बाद जिस तेजी से यह टकराव चरम पर पहुंचा, उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती।
उस दौरान सरकार और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सार्वजनिक हित वाले विधेयकों को मंजूरी नहीं देने का आरोप लगाती रही थी।
इनमें सबसे अहम था जून 2022 में पारित एक विधेयक को लेकर है। इसमें राज्य सरकार की ओर से संचालित विश्वविद्यालयों के चांसलर के रूप में राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को नियुक्त करने का प्रावधान है। लेकिन जगदीप धनखड़ ने महीनों उसे लंबित रखा और आखिर उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने के कारण उनके अपने पद से इस्तीफा देने तक यह जस का तस पड़ा रहा।
धनखड़ की जगह सीवी आनंद बोस के नए राज्यपाल बनने के बाद भी तमाम विधेयकों पर सरकार और राज्यपाल में गतिरोध जारी है। हालांकि राजभवन की ओर से बीते सप्ताह जारी एक बयान में कहा गया है कि राज्यपाल के पास कोई विधेयक लंबित नहीं है। सिवाय उन विधेयकों के जिनके बारे में राज्य सरकार से स्पष्टीकरण की जरूरत है या जो अदालत में विचाराधीन हैं।
राज्यपाल के पास लंबित हैं सात विधेयक
इसमें कहा गया है कि विश्वविद्यालय मामलों से संबंधित सात अन्य विधेयक न्यायालय में विचाराधीन हैं। बयान के मुताबिक, विधानसभा अध्यक्ष की टिप्पणी के बाद राजभवन में एक समीक्षा बैठक आयोजित की गई।
बनर्जी ने कहा था कि 2011 से कुल 22 विधेयक राजभवन में मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने कहा था, ‘2011 से 2016 तक तीन विधेयक, 2016 से 2021 तक चार और 2021 से अब तक 15 विधेयक अनसुलझे हैं। इनमें से छह विधेयक वर्तमान में सीवी आनंद बोस के विचाराधीन हैं।’
इससे पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आरोप लगाया था कि राज्यपाल ने कई विधेयकों को रोक रखा है। उनका आरोप था, राज्यपाल आनंद बोस राज्य प्रशासन को पंगु बनाने का प्रयास कर रहे हैं। मुख्यमंत्री ने कहा था कि इसके खिलाफ जरूरत पड़ी तो वे राजभवन के समक्ष धरने पर बैठेगीं।।
बिहार: राजभवन से सामंजस्य बना लेती है नीतीश सरकार
सीटू तिवारी
बिहार में राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर ने इसी साल फरवरी में पद संभाला था। इसके पांच महीने के भीतर ही राज्य सरकार से राजभवन की तनातनी शुरू हो गई थी। ये तनातनी शिक्षा विभाग से संबंधित फैसलों को लेकर थी। सबसे पहले 25 जुलाई 2023 को राज्यपाल सचिवालय ने एक पत्र जारी किया। इसके मुताबिक राज्य के सभी विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम में सत्र 2023 -24 के लिए च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम और सेमेस्टर सिस्टम लागू होगा।
25 जुलाई को जारी इस आदेश से पहले ही शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक ने राजभवन सचिवालय को पत्र लिखकर चार वर्षीय पाठ्यक्रम पर फिर से विचार करने का अनुरोध किया था। खुद राज्य के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने इस पर एतराज जताते हुए कहा था, ''राज्य के पास संसाधन नहीं हैं। अभी तीन साल का ग्रेजुएशन पांच साल में पूरा हो रहा है, ऐसे में जब चार साल का ग्रेजुएश होगा तो वो सात साल में पूरा होगा।’
राज्यपाल और राज्य सरकार आमने सामने
जुलाई के बाद अगस्त के पहले सप्ताह में राजभवन ने विश्वविद्दालयों में कुलपति की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी किया। इस बीच शिक्षा विभाग ने बाबा साहब भीमराव आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के कुलपति और प्रति कुलपति के वेतन पर रोक लगाते हुए उनके वित्तीय अधिकार पर रोक लगा दी।
राजभवन ने जब इस रोक को हटाने का आदेश दिया तो शिक्षा विभाग के सचिव वैद्यनाथ यादव ने राजभवन को लिखे पत्र में स्पष्ट कहा कि राज्य सरकार विश्वविद्यालयों को सालाना 4000 करोड़ रुपये देती है, ऐसे में शिक्षा विभाग को विश्वविद्यालयों को उनकी जिम्मेदारी बताने और पूछने का पूरा अधिकार है।
राजभवन के कुलपति की नियुक्ति पर निकले विज्ञापन के बाद 22 अगस्त को शिक्षा विभाग ने भी कुलपति की नियुक्ति का विज्ञापन जारी किया। इसके बाद टकराव की स्थिति बढ़ी तो 23 अगस्त को खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजभवन जाकर राज्यपाल से मुलाकात की। नीतीश कुमार ने राजभवन और सरकार की तकरार पर पत्रकारों से कहा था, ‘सब कुछ ठीक-ठाक है और किसी तरह की तकरार नहीं है।’
राजभवन ने भी इस मुलाकात के बाद कहा, ‘इस मुलाकात में उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालयों से संबंधित विषयों पर सम्मानपूर्ण विमर्श किया।’ (bbc.com)
(बाकी कल के अंक में)
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
देश की 54 दवा निर्माता कंपनियों के कफ सिरप के 128 सैंपल्स का गुणवत्ता में खरा नहीं उतरना वास्तव में चिंता का विषय होने के साथ ही किसी जघन्य अपराध से कम नहीं आका जाना चाहिए। मामला सीधे स्वास्थ्य से जुड़ा होने के साथ ही देश की अस्मिता को भी प्रभावित करने वाला है। दरअसल भारतीय दवा निर्माता कंपनियों द्वारा निर्यात किए जाने वाले कफ सिरप की गुणवत्ता को लेकर गाम्बिया में 70 बच्चों और उजबेकिस्तान के 18 बच्चों के कफ सिरप के कारण किडनी पर गंभीर असर होने से मौत होने के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह मुद्दा गंभीरता से उठ गया और ऐसे हालात में विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्लूएसओ ने गंभीर चिंता जताने में कोई देरी नहीं की। लाख सफाई देने के बावजूद इससे ना केवल देश की प्रतिष्ठा पर प्रभाव पड़ा है अपितु भारत के दवा उद्योग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदा होना पड़ा है। हांलाकि इस घटना के बाद भारत सरकार ने 1 जून, 2023 से ही देश से बाहर निर्यात होने वाले कफ सिरप की गुणवत्ता व मानकों पर खरा होने का सरकारी प्रयोगशाला से परीक्षण कराकर विश्लेषण प्रमाण पत्र प्राप्त करना जरुरी कर दिया है।
दरअसल अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय दवा उद्योग का दबदबा होने के साथ ही वैक्सीन निर्माण, गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धात्मक दरों पर उपलब्ध होना बड़ी उपलब्धता रही है। हमारे देश में बनी जेनेरिक दवाओं की तो अमेरिका सहित दुनिया के देशों में जबरदस्त मांग है।
दरअसल देखा जाये तो भारतीय दवा उद्योग की विश्वव्यापी पहचान और धाक है। कोरोना का उदाहरण हमारे सामने हैं जब अमेरिका द्वारा मलेरिया की दवा प्राप्त करने के लिए भारत पर दबाव बनाया गया वहीं दुनिया के देशों को सर्वाधिक कोरोना वैक्सिन उपलब्ध कराने में भारत की भूमिका को समूचे विश्व द्वारा सराहा गया। ऐसे में कफ सिरप की गुणवत्ता को लेकर उठाया गया प्रश्न चिन्ह ना केवल चिंता का प्रश्न है अपितु विश्वसनीयता को भी प्रभावित करता है। दवाओं के निर्यात में भारत की भूमिका को इसी से देखा जा सकता है कि भारत द्वारा वित्तीय वर्ष 2022-23 में 17.6 बिलियन डालर के तो केवल कफ सिरप का निर्यात किया गया। दुनिया के देशों की टीकों की मांग की 50 प्रतिशत पूर्ति हमारे देश द्वारा की जा रही है। अमेरिका में जेनेरिक दवाओं की 50 प्रतिशत मांग को हमारे यहां से किया जा रहा है। इंग्लैण्ड में दवाओं की मांग की 25 प्रतिशत पूर्ति भारत द्वारा की जा रही है। समूचे विश्व में भारतीय दवाओं की मांग है। इसका एक कारण गुणवता है तो दूसरी और तुलनात्मक रुप से सस्ती होना भी है। ऐसे में कफ सिरप के कुछ सैंपलों का गुणवत्ता मानकों पर खरा नहीं उतरने की रिपोर्ट भारत सरकार गंभीर हो गई। पर सवाल यह उठता है कि ऐसे हालात ही क्यों आएं? आखिर निर्यात करने वाली दवा कंपनियों का भी दायित्व होता है। जब कोई वस्तु विशेष में निर्यात की जाती है तो गुणवत्ता मानकों पर खरी हो यह तो सुनिश्चित किया जाना जरुरी हो जाता है। वैसे भी दवा जीवन रक्षक होती है अगर यह जीवन रक्षक दवा ही जीवन लेने का कारण बन जाती है तो यह गंभीर अपराध हो जाता है।
प्राप्त सरकारी आंकड़ों के अनुसार केन्द्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन संस्थान द्वारा विभिन्न कंपनियों के कफ सिरप के ग सैंपल्स का परीक्षण किया गया, इनमें से 54 कंपनियों के 128 सैंपल्स गुणवत्ता मानकों पर खरे नहीं उतरे। अब कहा यह जा रहा है कि केवल 6 प्रतिशत सैंपल्स विफल रहे हैं पर सवाल 6 प्रतिशत का नहीं है। यह सफाई भी नहीं दी जा सकती क्यों कि सैंपल तो एक भी विफल होता है तो वह किसी की जान लेने का कारण बन सकता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही गुजरात के 385 सैंपल्स में से 20 कंपनियों के 51 नमूने खरे नहीं उतरे। इसी तरह से मुंबई के 523 सैंपल में से 10 दवा निर्माता कंपनियों के 18 सैंपल्स विफल रहे। चंडीगढ़ के 284 सैंपल्स में से 10 कंपनियों के 23 और गाजियाबाद के 502 सैंपल्स में से 9 कंपनियों के 29 सैंपल्स गुणवत्ता पर खरे नहीं उतरे।
सवाल यह है कि यह तो गुणवत्ता मानकों की जांच से सामने आया है और यह तो तब है जब दवा निर्माता कंपनियों का अपना परीक्षण का सेटअप होता है। इससे यह भी साफ होता है कि दवा निर्माता कंपनियों की प्रयोगशालाएं गुणवत्ता जांच को लेकर उतनी गंभीर नहीं है जितनी गंभीरता होनी चाहिए। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश में नकली दवाओं का व्यापार भी खूब फल फूल रहा है। सवाल यह भी उठता है कि कफ सिरप की मांग और उपयोग का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सर्दियों में कफ सिरप की मांग बहुत अधिक बढ़ जाती है। वहीं कुछ कफ सिरप का उपयोग तो नशे की मांग को पूरा करने के लिए भी उपयोग की चर्चा भी आम है। केन्द्र सरकार का कहना है कि सरकार द्वारा 125 से अधिक कंपनियों का जोखिम आधारित विश्लेषण किया गया जिसमें से 71 कंपनियों को नोटिस जारी कर स्पष्टीकरण चाहा गया है। 18 कंपनियों को बंद करने के नोटिस दिए गए हैं। इसे सरकार की सकारात्मक पहल माना जा सकता है पर जो कुछ किया जा रहा है वह नाकाफी हैं। सरकार को कड़े कदम उठाने ही होंगे। कंपनियों को बंद करना इसका कोई ईलाज नहीं हो सकता। कल यही किसी दूसरे नाम से कंपनी बनाकर सामने आ जाएंगे। वैसे भी नकली दवा बनाना या गुणवत्ता मानकों में दवाओं का विफल रहना किसी क्रिमिनल अपराध से कमतर नहीं माना जाना चाहिए। ऐसे में कठोर से कठोर सजा के प्रावधान होने के साथ ही ऐसे उदाहरण भी सामने आने चाहिए कि नकली या गुणवत्ता पर खरी नहीं उतरने पर दवा निर्माता को कठोर दंड दिया गया। कपंनियों को भी अपनी प्रयोगशाला को अधिक आधुनिक व इंटरनेशनल मानकों की बनानी होगी ताकि इस तरह की हालात ही ना आयें।
उमंग पोद्दार
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा है कि देश में बहुमत की सरकारें न्यायपालिका पर दबाव बनाती हैं, लेकिन ऐसा वर्षों से होता रहा है।
बीबीसी के साथ विशेष बातचीत में उन्होंने कहा कि 1950 के बाद से ऐसा कई बार हुआ है।
उन्होंने इस दौरान 1975 से 1977 के दौर का भी जि़क्र किया और उस दौरान न्यायपालिका पर सवाल उठाए जाने की भी बात कही।
बोलने की आजादी के बारे में भी जस्टिस कौल ने कहा कि ये एक सामाजिक समस्या है। इस इंटरव्यू के दौरान उन्होंने स्वीकार किया कि समाज में इस तरह की दिक्कतें बढ़ी हैं।
बीबीसी के साथ इंटरव्यू में उन्होंने जजों की नियुक्ति, समलैंगिक विवाह और अनुच्छेद 370 पर आए फैसलों का भी बचाव किया।
न्यायपालिका तब और अब
सवाल - क्या आपको लगता है कि पहले न्यायाधीश जिस तरह के फ़ैसले दे सकते थे, या देते थे, आज के दिन भी वैसे ही निर्णय दे सकते हैं या उस पर कुछ असर पड़ा है?
जस्टिस कौल- ‘देखिए, ये एक प्रोसेस रहा है। अगर आप 1950 से देखेंगे तो ये प्रोसेस रहा है।
साल 1975 से 1977 के दौर में भी एक प्रोसेस रहा है। मैं ये कहूंगा कि हमेशा थोड़ी खींच-तान रहेगी, न्यायपालिका और कार्यपालिका में। वो अच्छा भी है कि थोड़ा सा टर्फ वॉर (खींच-तान) रहे।
न्यायपालिका का काम है, चेक एंड बैलेंस करना। जब हमारे पास इलेक्टोरल सिस्टम ऑफ डेमोक्रेसी है। उसमें जब गठबंधन सरकारें होती हैं तो न्यायपालिका का थोड़ा पुश बैक कम हो जाता है।
जब कोई ज़्यादा बहुमत से आए तो उन्हें लगता है कि हमें पब्लिक मैंडेट (जनता का समर्थन) है। तो वो परसीव (ऐसा लगता है) करते हैं कि न्यायपालिका हमारे काम में दखल क्यों दे रही है तो थोड़ा न्यायपालिका की तरफ पुशबैक ज़्यादा हो जाता है। ये थोड़ा तो खींच-तान रही है और रहेगी।’
सवाल- तो अभी पुश-बैक बढ़ा है?
जस्टिस कौल - ‘जब मेजोरिटी गवर्नमेंट (बहुमत वाली सरकार) होगी तो हमेशा पुश-बैक (दबाव) थोड़ा सा ज़्यादा होगा।’
सवाल - ये पुश-बैक किस तरह बढ़ता है?
जस्टिस कौल- ‘पुश-बैक इस तरह होता है कि एक लाइन है, उसके एक तरफ न्यायपालिका है और दूसरी ओर वो (कार्यपालिका) है।
मेरा मानना है कि जब-जब गठबंधन सरकारें आती हैं तो ये संभव है कि अदालत एक आध कदम उस लाइन के बाहर भी ले जाए। जब मेजोरिटी गवर्नमेंट (बहुमत वाली सरकारें) आती हैं तो वो (कोर्ट) पीछे आते हैं।
वो लार्जली (मोटे तौर पर) इस बात पर पीछे आते हैं कि मेजोरिटी गवर्नमेंट (बहुमत वाली सरकार) मानती है कि जो वो क़ानून ला रही है वो पब्लिक मैंडेट (जनमत) के साथ ला रही है। इसलिए उस पब्लिक मैंडेट (जनमत) का सम्मान करना चाहिए क्योंकि वो एक लोकतंत्र है।
कोर्ट की इसमें दखलअंदाजी कम होनी चाहिए। उसमें जब कोर्ट चैलेंज होता है और उसको हम देखते हैं तो उनको लगता है कि संसद ने तो (कानून) पास कर दिया है, हमारा काम है, कानून बनाना। आप इस चीज में क्यों दखलअंदाजी क्यों कर रहे हैं।
लेकिन कोर्ट की भूमिका का फुल एपरीसिएशन (पूरा महत्व) नहीं है। क्योंकि उसका काम ही है कि किस केस में दखलअंदाजी करना है, देखने के लिए। थोड़ा बहुत मतभेद रहे तो अच्छा ही है क्योंकि ये सिस्टम की वाइब्रेंसी दिखाता है।’
सवाल- आपको लगता है कि भारत में इस समय फ्री स्पीच (अभिव्यक्ति की आजादी) का जो स्टेटस है, आप जबसे जज बने हैं तब से आप इसमें किसी तरह का ट्रेंड देख रहे हैं। आपको लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी कम हुई है?
जस्टिस कौल - मेरा विचार ये है कि जो लिखता है, उसको लिखने दीजिए, जो पेंट कर रहा है, उसे पेंट करने दीजिए। मेरी अपनी सोच रही है कि हिंदुस्तानी सोसाइटी बहुत लिबरल (उदार) रही है। किसी धर्म का कुछ मानना है, किसी दूसरे धर्म का कुछ और मानना है।
अगर इतने डायवर्स देश (विविधताओं से भरे) को एक साथ रखना है और एक साथ रहना है तो एक दूसरे को टॉलरेट (सहना) करना तो सीखना पड़ेगा। मैं एक मज़बूत विश्वास रखता हूँ कि हर आदमी को अपनी जि़ंदगी को अपनी तरह जीने का हक है।
सवाल-क्या आपको लग रहा है कि अभी इस दौर में इस पर असर पड़ा है, जैसे अगर हम देखें तो इंडिया की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स रेटिंग काफी गिर रही है। कितने पत्रकारों के खिलाफ मामले बढ़ रहे हैं, कुछ लिखने के लिए, कुछ करने के लिए?
जस्टिस कौल - देखिए कहीं न कहीं, कुछ दिक्कतें सामने आई हैं। लेकिन मैं किसी पीरियड (समय विशेष) पर इसे फिक्स नहीं करना चाहूंगा।
मैं इसे एक सामाजिक समस्या के रूप में देखता हूँ। अगर आप समाज को देखिए तो कहीं न कहीं हमारी एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता कम हुई है।
और मैं देश की बात नहीं कर रहा हूं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यही समस्या है।
हम मानते हैं कि माई-वे या हाई वे नहीं होना चाहिए। या तो मेरा रास्ता मानो या नहीं। तभी कोई कहता है कि वो भक्त हैं, वो ओपोनेंट हैं।
न्यायपालिका में यौन शोषण के मामले
सवाल- हाल ही में यूपी में एक सिविल जज थीं, उन्होंने चीफ जस्टिस को पत्र लिखा कि उनके जो जिला जज हैं, उन्होंने उनके साथ यौन उत्पीडऩ किया है। उसके बाद उनकी आईसीसी में शिकायत भी बहुत मुश्किल से दर्ज हो सकी। अब वो कह रही थीं कि उन्हें इथूनेशिया करने की इजाजत दे दी जाए क्योंकि उनमें अब जीने की कोई इच्छा नहीं रह गई है। तो ऐसे हमने पहले भी देखा कि जो पहले चीफ़ जस्टिस रह चुके हैं, रंजन गोगोई, उनके खिलाफ भी आरोप आए थे। अब जिला न्यायालय में एक जज हैं उनके खिलाफ आरोप लगाए गए हैं। ऐसे में न्यायपालिका के अंदर से जो यौन उत्पीडऩ की शिकायतें आती हैं, आपको लगता है कि न्यायपालिका उससे निपटने में पूरी तरह से असमर्थ रही है।
जस्टिस कौल- देखिए, भगवान जज को ऊपर से नहीं टपकाते हैं। वे भी हमारी सोसाइटी का हिस्सा हैं। ऐसे में जज से अपेक्षाएं ज़्यादा होती हैं। लेकिन वो एब्सोल्यूट नहीं हो सकतीं। कुछ मामले होंगे, जिनसे निपटा जा सकता है। अब ये एक खास मामला है, जिसकी जानकारी मुझे नहीं हैं।
लेकिन हर चीज में एक आरोप होता है और एक बचाव भी होता है। क्या हम आरोपों को फाइनल मान लें? और दूसरे शख्स को बर्बाद कर दें? बिना ये जांच किए कि उसने कोई गलती की है या नहीं?
मैं इसे एक भावुक प्रतिक्रिया समझूंगा कि मुझे मरने की अनुमति दीजिए। कुछ चि_ी लिखी है तो अटेंड हुई है। चीफ जस्टिस ने देखा है, उसे अटेंड किया है। ये नहीं है कि नजरअंदाज कर दी गई हो।
कभी-कभी एक पक्ष को लगता है कि मेरे तरीके से नहीं हो रहा है।।।है तो एड्रेस होगी। और सही ।।।नहीं है तो ये नहीं हो सकता कि जो नतीजा मुझे चाहिए, वही नतीजा चाहिए। ये किसी भी चीज़ में है।
सवाल- हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में जातिगत प्रतिनिधित्व को आप कैसे देखते हैं। विधि मंत्रालय के मुताबिक़, 5 सालों में हुईं 659 नियुक्तियों में 75त्न लोग सामान्य वर्ग के थे। एससी सिर्फ 3।5त्न और एसटी 1।5त्न और ये स्थिति सुप्रीम कोर्ट में भी रही है। इसकी क्या वजहें हैं?
जस्टिस कौल- न्यायिक नियुक्तियां तीन चरणों में होती हैं। सब-ऑर्डिनेट जजेज़ की जो नियुक्तियां होती हैं, उनमें आरक्षण होता है। उसे अमल में भी लाया जाता है। हाई कोर्ट के एक तिहाई जज उसी में से आते हैं। तो वो एक तिहाई का तो प्रतिनिधित्व हो गया।
हम बात कर रहे हैं वो जो बार (वकालत करने वाले वकीलों का संघ) से आते हैं। अब कई बार सामाजिक उत्थान यहां नहीं उतना हुआ है। तो आपको बार में किस एज में देखना है।आपने देखना है, 45 से 50 साल के उम्र वर्ग की ओर। इसी आठ दस साल के वक़्त में आपको प्रतिनिधित्व देखना होगा।
अगर किसी विशेष समुदाय से वकील देखेंगे, कोई कंशेसन देंगे। चीज़ देखेंगे। लेकिन अगर नहीं है तो जबरदस्ती इस चीज़ को कैसे किया जा सकता है।
महिलाओं की नियुक्तियों की बात करें तो मैं कई बार कहता हूं कि कई पोस्ट्स में महिलाओं की नियुक्तियां 50 फीसद से ज़्यादा हो रही हैं। अब 25 साल पहले महिलाएं नहीं थीं तो आज उन्हें कैसे कंसीडर किया जाएगा। फिर भी उस पहलू को देखा जाता है। कई बार जब सरकार कि दिलचस्पी होती है तो ऐसा नहीं कि वह कास्ट या कम्यूनिटी नहीं देखती है। ऐसे में प्रतिनिधित्व तो है, लेकिन उचित प्रतिनिधित्व में थोड़ा वक््त लगता है।
सवाल - क्या सरकार जजों की नियुक्ति के मामले में कोर्ट के आदेश का पालन नहीं कर रही थी?
जस्टिस कौल - जबसे ये कॉलेजियम सिस्टम आया है तो ये पॉलिटिकल क्लास को लगता था कि नहीं हमारा कुछ रोल होना चाहिए।
एनजेसी को सरकार ने पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया। एक तरफ से वो स्वीकार नहीं कर रहे थे एक तरफ़ से कॉलेजियम अपनी सिफारिश दे रहा था।
सवाल-अभी आपका 5 दिसंबर को जजों की नियुक्ति से जुड़ा हुआ, इसकी अंतिम सुनवाई में आपने कहा था कि कुछ चीजों को बिन कहे छोड़ देना चाहिए। आपका क्या आशय था?
जस्टिस कौल-‘मैंने डेट दी थी, हालाँकि वो मैटर लगा नहीं। कोर्ट की रजिस्ट्री चीफ जस्टिस के अंडर काम करती है। अगर वो नहीं लगाया तो मैं इस चीज़ में ज़्यादा जाऊंगा नहीं। क्योंकि मैं समझता हूं कि ये उनका अधिकार क्षेत्र है। इसलिए मैंने कहा कि मैं इसमें क्या कह सकता हूं।
चीफ जस्टिस के साथ इस विषय पर चर्चा हुई थी लेकिन मैं इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करूंगा।
यह इंटरनल सिस्टम है। हाँ मैंने जिक्र किया था। इस चीज में मैं ज़्यादा कुछ कहना नहीं चाहूँगा। रिटायरमेंट के बाद इस चीज पर मैं रोशनी डालना उचित नहीं समझता हूं।’
और किस किस की लिस्टिंग किस कोर्ट में होनी चाहिए ये चीफ जस्टिस का प्रेरोगेटिव है। चीफ जस्टिस को ट्रस्ट करना होगा इस मामले में।
पहले जिन जजों को इस सिस्टम से दिक्कत थी, जब वो चीफ जस्टिस बने कोई भी इसका कुछ अच्छा नतीजा नहीं निकाल पाए।
आगे कोई चीफ जस्टिस ये देख सकते हैं कि अगर कुछ बेहतर किया जा सके तो।
सवाल- एक तरफ इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे अहम मुद्दे अभी भी अदालत में लंबित हैं, वहीं समलैंगिक विवाह जैसे मुद्दे पर एक साल में फैसला भी आ गया? इसे आप कैसे देखते हैं?
जस्टिस कौल - ‘मेरा यह मानना है संवैधानिक मामलों पर जल्दी फ़ैसले होने चाहिए क्योंकि इनसे बड़े मामलों का समाधान होता है। कहीं न कहीं बात वहीं जाकर अटक जाती है कि चीफ जस्टिस लिस्टिंग करते हैं। एक हद तक उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाता है।’
सेम सेक्स मैरिज, चीफ जस्टिस के अधिकार क्षेत्र में ये एक सामाजिक मुद्दा था। चीफ जस्टिस के विचार में इसे महत्व देना था। रिजल्ट चाहे कुछ और ही निकला हो।
अनुच्छेद 370 पर कोर्ट का रुख
सवाल-अनुच्छेद 370 से जुड़े दो मुद्दे थे-पहला ये कि इसे हटाया जाना क़ानूनी था या नहीं। और दूसरा मुद्दा था कि जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटा जाना सही था या नहीं। दूसरे मुद्दे पर कोर्ट ने कहा कि चूंकि एक सॉलिसिटर जनरल ने आश्वासन दिया है कि राज्य का दर्जा वापस आ जाएगा तो इस पर हमें कोई टिप्पणी देने की ज़रूरत नहीं है। पूर्व न्यायाधीश जस्टिस रोहिंटन नरीमन का कहना था कि न फैसला करना भी अपने आप में एक फैसला करना है।
जस्टिस कौल- बयान सिर्फ सॉलिसिटर जनरल का नहीं था। ये गृह मंत्री की ओर से संसद में दिए गए बयान पर टिका था। अब कोई चीज़ किसी सिद्धांत पर तय हुई है तो उसमें कुछ नहीं होता है, आगे जाकर तो एक एवेन्यू है, इसमें कोई शक नहीं है।
सवाल- ये जो वापस होने वाला बयान है, इसकी कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। दूसरे कानून के जानकारों का भी मानना था कि कोर्ट को एक फैसला देना चाहिए था।
जस्टिस कौल - क़ानून एक ऐसी चीज़ है, जिसमें विचारों की विविधता रहेगी। इसी वजह से वो लोग क्या ठीक समझते हैं और बेंच क्या ठीक समझती है, इसमें फक़ऱ् आ जाता है। लेकिन जो मुद्दा था उसका समाधान दिया गया है।
वो स्टेटमेंट (गवर्नमेंट के वकील ने) अपने आप नहीं दी थी। उनसे पूछा गया उन्होंने इंस्ट्रक्शन लिए और फिर वापस आए। करें न करें लेकिन ये एक बाध्यकारी बयान है। (bbc.com/hindi/)
सनियारा खान
नए साल को दुनिया के सभी मुल्कों में ज़ोर शोर से स्वागत किया जाता है। मूल उद्देश्य शायद एक ही होता है कि पुराने साल की अच्छी बातें याद रखे और नए साल में आगे भी सब कुछ अच्छा होगा....इस विश्वास के साथ खुश हो कर एक दूसरे को गले लगाया जाए। लेकिन साथ में एक और बात सोचना ज़रूरी है कि हम अपनी सहज सरल खुशियों को कहीं शोर और हुड़दंग में गवां तो नहीं बैठते हैं? हालांकि पसंद अपनी अपनी होती है। जैसे कोई लॉन्ग ड्राइव पर जाते हुए लाउड म्यूजिक बजा कर और सुन कर खुश होता है तो कोई खामोशी के साथ खिडक़ी से बाहर का नज़ारा देख कर खुश होता हैं।
तो आइए आज हम बाली में कैसे परंपरागत ढंग से नया साल मनाया जाता है इस बारे में जानते हैं। इस परंपरागत नए साल का उत्सव एक जनवरी को ही मनाया जाना ज़रूरी नहीं है। सभी बाली वासी नया साल को न्येपी के रूप में हिंदू उत्सव मान कर मनाते हैं। इस साल बाली के साका कैलेंडर के हिसाब से 11मार्च को न्येपी मनाना तय है। वैसे भी अभी तक मार्च महीने के ही अलग अलग तारीखों में न्येपी मन रहा है।न्येपी का अर्थ चुप रहना होता है। इसी लिए बाली द्वीप में संपूर्ण मौन व्रत रख कर लोग नए साल को मनाते हैं। न्येपी में खामोश प्रार्थना के साथ खुद को पूरी तरह ईश्वर के साथ जोडऩे की कोशिश की जाती है। इस दिन को मानवता, प्रेम, धैर्य और दया जैसे मूल्यों पर आत्मनिरीक्षण करने का दिन भी कहा जाता है। एक शब्द में कहा जाए तो बाली वासियों के लिए न्येपी एक सार्वजनिक अवकाश है और इस दिन को मौन, उपवास और ध्यान का दिन माना जाता है।चौबीस घंटे के लिए संपूर्ण द्वीप में सभी रौशनी और आवाज़ें बंद कर दी जाती है। किसी भी आयोजन की अनुमति नहीं मिलती है। कोई आनंद नहीं , कोई परिवहन नहीं, कोई रौशनी नहीं और कोई आग भी नही जलनी चाहिए। सभी दुकानें बंद रहती हैं। समुद्र तट और सडक़ों पर न पैदल और न ही गाड़ी में यात्री घूम सकते हैं। रात में स्ट्रीट लाइट ही नहीं बल्कि सभी लाइटें बंद करनी पड़ती है। लोग एक दूसरे के घर नहीं जाते है और आपस में मिलते भी नहीं है। सब को अपने अपने घरों में ही रहना होता है।यहां तक कि फोन करने से भी कोई जवाब नहीं देता है और मेहमानों का स्वागत भी नहीं किया जाता है। इसे कई लोग पागलपन भी समझ सकते है। जो भी हो न्येपी बाली कैलेंडर की सबसे जादुई और अद्भुत तारीख है। यह तारीख बाली द्वीप के अलावा दुनिया में कहीं और नहीं पाई जाती है।न्येपी को एक तरह से आध्यात्मिक सफाई का उत्सव कहा जा सकता है। पिछले साल के कुकर्म और बुराई से द्वीप को पूर्णत शुद्ध करना होता है। यद्यपि बाहरी लोगों के लिए होटल और रेस्टोरेंट खुले रखे जाते हैं... कुछ नियमों को दरकिनार नही किया जा सकता है। इन जगहों पर रौशनी कम की जाती है और दरवाजों और खिड़कियों पर मोटे परदे लगा कर रखे जाते है ताकि बाहर तक रौशनी न पहुंचे। हवाई अड्डा भी बंद रहता है। यहां तक कि राज्य के अधिकृत उपभोक्ता संचार प्रदाता ञ्जद्गद्यद्मशद्वह्यद्गद्य के द्वारा सभी इंटरनेट एक्सेस भी बंद कर दिया जाता है, जबकि निजी स्वामित्व वाली ढ्ढस्क्क चालू रहते हैं। कई होटल्स और रिजॉर्ट्स में भी वाईफाई कवरेज बंद रखा जाता है। सिफऱ् आपातकालीन स्थिति में ही न्येपी नियमों को तोडऩे की अनुमति दी जाती है।
आध्यात्मिक सफाई के अलावा भी न्येपी की एक अच्छाई ये है कि चौबीस घंटे की इतनी सारी पाबंदियों की वजह
से प्रकृति को खुल कर जीने की आज़ादी मिलती है। एक दिन में ही इस द्वीप में बिजली की बहुत ज़्यादा बचत हो जाती है। साथ ही साथ
कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी कम हो जाता है। इन बातों पर ध्यान देने पर ऐसा लगता है कि हर मुल्क को साल में कम से कम एक दिन इसी प्रकार मौन दिवस मनाना चाहिए। कुछ समय के लिए मौन रहना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी हितकारी होता है।
मनीष सिंह
असल में ये राज्यसभा में कांग्रेस के सांसदों की सूची है। सभी बड़े-बड़े नाम हैं, इतने बड़े कि आम आदमी की स्मृति में समा नहीं पा रहे। अर्थात कम ही लोग जाने पहचाने हैं।
किसी पार्टी के एक सदन में 36 सांसद कम नहीं होते। इतने में तो पूरी संसद हिलाई जा सकती है। मगर कांग्रेस राज्यसभाई तारामंडल, कुछ एक्सेप्शन्स के अलावे, जुगनुओं का ऐसा झुंड है, जिससे अपने घर में भी रोशनी नहीं हो सकती। कुछ वकालत की फीस ले रहे हैं, कुछ रिटायरमेंट बेनिफिट ले रहे हैं, कुछ वफादारी बेनिफिट ले रहे हैं, कुछ का पुनर्वास किया गया है, और जो बचे हैं, उनका पता नहीं क्या किया गया।
मैं इनमें से ज्यादातर को नहीं पहचानता, मगर इनके राज्यों के ज्यादातर लोग अवश्य पहचानते होंगे, ये बड़े नेता होंगे। तो क्या ही अच्छा हो कि इन सबसे राज्यसभा खाली करवाकर लोकसभा की टिकटें दे दी जाएँ? उनकी मर्जी की।
लिस्ट में दिग्विजय सिंह दिखते हैं। जबरन भोपाल से उतारा गया, गृह सीट से लड़ते तो बिल्कुल जीत जाते। ऐसे ही चिदम्बरम हैं। वे तमिलनाडु से एक सीट नहीं जीत सकते तो लानत है 3 दशक के करियर पर। अखिलेश सिंह, प्रमोद तिवारी भी इसी कैटेगरी के हैं। इमरान प्रतापगढ़ी भरी जवानी में रिटायरमेंट बेनिफिट ले रहे है। खडग़े, वेणुगोपाल का अपना महत्व है, पर अगर अपनी लोकसभा नहीं जीत सकते तो राज्यसभाई सांसद होने की ख्वाहिश नहीं पालनी चाहिए। मनमोहन सिंह, विवेक तन्खा, तुलसी, अभिषेक मनु का केस समझ से बाहर है। राजीव शुक्ल, मुकुल वासनिक को तो भगवान ने बनाते समय माथे पर खोद दिया - ‘जा, तू आजीवन राज्यसभा का एमपी बनेगा।’ जो बचे, उनका तो नाम खोजने पर गूगल भी सिर खुजाने लगता है।
इनको अपने कॉन्फिडेंस वाले क्षेत्र की लोकसभा टिकट देकर तुरत-फुरत रवाना करना चाहिए। इसके साथ पायलट, गहलोत, भूपेश, कमलनाथ, पृथ्वीराज चौहान जैसे शानपट्टीबाज, इनके मंत्रिमंडलों के सीनियर मिनिस्टर और मुख्यमंत्री पदाकांक्षी भी एक-एक लोकसभा में ठेले जाने चाहिए। आखिर स्टेट का बबा बनना चाहते हो, 8 विधानसभा सीट (1 लोकसभा) ही जीतकर दिखा दो। जब भाजपा केंद्रीय मंत्री को डिमोट कर विधायकी लड़वा सकती है, तो यहाँ तो सांसद होना प्रमोशन होगा।
असल में कोई 300 सीटों में कांग्रेस का महज 15 सांसद होना, बेहद अचरज की बात है। पार्टी नेतृत्व चाहे जित्ता खराब हो, इनकी अपनी स्टैंडिंग क्या है?? अपना क्या नेटवर्क है, जनता में क्या छवि है.. ऐसा क्या है जिसके बूते ये लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, माँगें रखते हैं?? देश की संसद में चोर दरवाजे से घुसे हुए हैं?? जमीन पर उतरें, 40-50 एडिशनल सीटें जीतें। कांग्रेस के फ्यूचर के लिए अपनी स्टैंडिंग और वर्थ साबित करें, या चुपचाप इतिहास के कूड़ेदान में चले जायें।
कांग्रेस राज्यसभा खाली कराकर नए चेहरों को मौका दें। फायरब्रांड लोग, जो बोलने को खड़े हों तो महुआ मोइत्रा या संजय सिंह की तरह सत्ता में सिहरन पैदा कर दें। जमीन पर जाकर उसकी गूंज बनाएं। स्ट्रीट से निकले, आर्थिक अक्षम नेता, कम से कम सांसदी की सैलरी, स्टाफ और आभामंडल पाकर बेफिक्री से जनता में उतर सकेंगे। नई पत्तियां नई डालें उगेगी।
कांग्रेस की राज्यसभा इतिहास का म्यूजियम होने की जगह, अब फ्यूचरिस्टिक होनी चाहिए। ये नए नेताओं को लोकस स्टैंडी देने की, उन्हें खड़ा करने की जगह हो, बुढवों की आरामकुर्सी नहीं। इन कारतूसों को साबित करना चाहिए कि इनमें बारूद बचा है। वरना ये लायबिलिटी है, बेकार और दगे हुए कारतूस हैं। और दगे हुए कारतूस ढोकर युद्ध नहीं जीते जाते।
कनुप्रिया
वक्त की धुरी में देखा जाए तो हर नया दिन नया साल ही है, जो सुबह सूरज उगते ही शुरू हो जाता है। हम हर रोज़ उस नए दिन को जीते हैं। कैलेंडर में बस तारीखें बदलती हैं।
मगर फिर भी गया साल जीवन सफऱ का एक मार्क होता है, मील का पत्थर, हम अपने सफऱ को उन सालों से याद करते हैं।
23 में बहुत कुछ हुआ जीवन में, हर साल ही होता है, मगर गए साल में सीखा क्या?
वही जो सदियों से कहा जाता रहा है, और अब हर बीतते साल पहले से ज़्यादा उस सत्य का आभास होता है।
कि जो है अब है, अभी है, आज है, वही सच है, जो बीत गया वो बीत गया, लौटेगा नहीं, लौट ही नहीं सकता, और जो कल आएगा वो भी आज बनकर ही आएगा। बीते का अनुभव आज साथ रहता है, और आने वाले समय के निर्णय भी आज लिए जाते हैं। इसलिये जो कुछ ज़रूरी है वो आज ही है।
जो आज हैं वो कल साथ होंगे या नहीं पता नहीं, जो नहीं हैं क्या पता कल साथ हों। कुछ निश्चित नहीं। और फिर ख़ुद हम ही कल होंगे या नहीं पता नहीं। कितने ही लोग आज मिलते हैं हँसते हुए, अगले दिन उनकी ख़बर मिलती है। हैरानी होती है कि कल तो यहीं थे, सब कुछ था, परिवार, सम्पत्ति, ख़ुशियाँ, दु:ख, लो अब नहीं रहे। ये कितना अजीब है। एक जीवन जो समूची दुनिया लेकर चलता है, पल भर में ख़त्म। बस याद बाक़ी है। (यूँ मृत्यु भी राहत ही है, अगर मृत्यु न होती तो जीवन का होना व्यर्थ हो जाता, उसका कुछ मतलब ही न रहता।)
तो इस वक़्त अगर हम कुछ कह रहे हैं, कुछ कर रहे हैं, अपने स्वास्थ्य का खय़ाल रख रहे हैं, अपने अपनों का खय़ाल रख रहे हैं, ख़ुश हैं, या रो रहे हैं, प्रेम में हैं या नफऱत में हैं, काम कर रहे हैं या मनोरंजन सब इस वक़्त में हैं, इस वक़्त के बाद वो याद की सूची में दाखि़ल हो जाएगा। और कल सम्भवत: हम समूचे उस सूची में शामिल हो जाएंगे और अगर नहीं भी होंगे तो भी हमें तो पता नहीं चलेगा।
इसलिये ये वक़्त जो हम से होकर गुजर रहा है, यही सच है। इस वक़्त के साथ रहा जाए। ये फिर कभी नहीं आएगा।
ये बात जो हमेशा यूँ ही कही सुनी जाती है , जब इसका ज़बरदस्त अहसास होता है, तो लगता है ये इतनी मामूली भी नहीं।
श्रवण गर्ग
बीते साल को किस एक ख़ास बात के लिए याद रखा जाना चाहिए ? राजनीतिक चेतना के प्रति जानबूझकर उदासीन होते जा रहे मीडिया ने एक ख़ास ख़बर के तौर पर सूचित किया है कि 2023 का साल बॉलीवुड के लिए ज़बरदस्त तरीक़े से भाग्यशाली साबित हुआ है ! एक के बाद एक फि़ल्म ने धुआँधार कमाई के रिकॉर्ड क़ायम किए हैं ! बॉक्स ऑफिस के इतिहास में पहली बार फि़ल्म उद्योग ने किसी एक साल में ग्यारह हज़ार करोड़ से ज़्यादा की कमाई की है। इसमें भी महत्वपूर्ण यह है कि हिंसा के दृश्यों से भरपूर फि़ल्मों को सबसे ज़्यादा पसंद किया गया है ! उपसंहार यह कि 2023 को देश में हिंसा के प्रति बढ़ती मोहब्बत के लिए याद किया जा सकता है। फि़ल्म उद्योग को इसके लिए असली ‘आभार’ किसका मानना चाहिए ?
राज्यसभा में पिछले दिनों चर्चा के दौरान कांग्रेस की एक सदस्य रंजीत रंजन ने अत्यंत भावुक होते हुए कहा था :’ आजकल कुछ अलग तरह की फि़ल्में आ रहीं हैं।’कबीर सिंह’ हो या ‘पुष्पा’ हो ! एक ‘एनिमल’ पिक्चर चल रही है। मैं आपको बता नहीं सकती ज्ज्.मेरी बेटी के साथ बहुत सारी बच्चियां थीं जो कॉलेज में पढ़ती हैं।ज्ज्आधी पिक्चर में उठाकर रोते हुए चली गईं। इतनी हिंसा है उसमें। महिलाओं के प्रति असम्मान को फि़ल्मों के ज़रिए सही ठहराया जा रहा है ।ज्ज्हिंसा के ज़रिए हीरो को ग़लत और नकारात्मक तरीक़े से पेश किया जा रहा है। 11वीं और 12वीं के बच्चे उन्हें अपना आदर्श मानने लगे हैं !’
महिला सांसद ने आगे जो बात कही या सवाल किया वह ज़्यादा महत्व का है। सांसद ने कहा : यही कारण है इस तरह की हिंसा आज समाज में देखने को मिलती है । उन्होंने सवाल यह किया कि :’ सेंसर बोर्ड ऐसी फि़ल्मों को कैसे बढ़ावा दे सकता है ? किस तरह ऐसी फि़ल्में(सेंसर बोर्ड से)पास हो कर आ रही हैं जो समाज के लिए बीमारी हैं ?
सांसद द्वारा किए गए सवाल में ही जवाब भी तलाश किया जा सकता है कि जब सरकार को ही फि़ल्मों में दिखाई जा रही हिंसा से कोई शिकायत नहीं है तो सेंसर बोर्ड को आपत्ति क्यों होना चाहिए ! इसे इस तरह भी पेश किया जा सकता है कि बॉक्स ऑफिस पर फि़ल्मों के लगातार फ्लॉप होने के संताप से जूझ रहे फि़ल्म उद्योग को सत्ता की राजनीति ने सफलता का गुर सिखा दिया है।
जो लोग हुकूमत में हैं वे समाज में बढ़ती हिंसा को लेकर किसी भी सांसद या उसकी बेटी की पीड़ा को सुनने-समझने की क्षमता और क़ाबिलियत खो चुके हैं। वैचारिक अथवा धार्मिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर सेंसर बोर्ड में भर्ती होने वाली प्रतिभाओं से फि़ल्मों में हिंसा के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ फ़ैसले लेकर ताकतवर फि़ल्म उद्योग को नाराज़ करने के साहस की उम्मीद नहीं की जा सकती।
सच्चाई यही है कि वीएफ़एक्स प्रभावों के ज़रिए बॉक्स ऑफिस पर सफलता के लिए प्रदर्शित की जाने वाली नक़ली हिंसा सत्ता की राजनीति में कामयाबी के लिए असली स्वरूप में इस्तेमाल के लिए ज़रूरी हथियार बन चुकी है। इसीलिए फि़ल्मों में प्रदर्शन अथवा राजनीतिक कार्रवाई के लिए इस्तेमाल की जाने वाली हिंसा का शासकों की ओर से आमतौर पर विरोध नहीं किया जाता ! विशेष परिस्थितियों में विरोध उस समय ज़रूर प्रकट होता है जब फि़ल्मी-प्रदर्शन वीइफ़एक्स वाला कृत्रिम नहीं बल्कि सत्य के कऱीब हो; राजनीतिक हिंसा को ‘परज़ानिया’ जैसी किसी साहसिक फि़ल्म अथवा बीबीसी की डॉक्युमेंट्री के माध्यम से नंगा किया जा रहा हो !
फि़ल्मों में प्रदर्शित की जानी वाली अतिरंजित हिंसा और सडक़ों पर व्यक्त होने वाली असली सांप्रदायिक हिंसा से फि़ल्म उद्योग, सेंसर बोर्ड ,राजनीति, धर्म और समाज किसी को कोई परेशानी नहीं है। सत्ताधीशों के लिए जिस तरह से धर्म पैंतीस पार की आबादी को व्यस्त रखने का अचूक मंत्र बन गया है ,फि़ल्मों में हिंसा का प्रदर्शन युवाओं को बेरोजग़ारी की चिंता से मुक्त रखने का तिलस्मी औज़ार साबित हो रहा है।
संसद जैसे मंच पर भी सिफऱ् फि़ल्मों में दिखाई जा रही हिंसा का ही मुद्दा उठाकर महिला सांसद शायद समस्या की असली जड़ पर प्रहार करने से चूक रही हैं ! फि़ल्मों में बढ़ती हिंसा और दर्शकों के बीच उसकी बढ़ती स्वीकार्यता को कथित ‘धर्म संसदों’ में एक क़ौम विशेष के ख़िलाफ़ शस्त्र उठाने के आह्वान, सुरक्षा के लिए तैनात किए गए जवान द्वारा चलती ट्रेन में एक वर्ग विशेष के यात्रियों की ढूँढ-ढूँढकर हत्या करने और सडक़ों पर मॉब लिंचिंग की घटनाओं के साथ जोडक़र नहीं देखा जा रहा है। सवाल यह है कि इन तमाम असली घटनाओं के कि़स्से सुन-पढक़र जब बच्चे-बच्चियाँ विचलित होते हैं कितने सांसद उसे मुद्दा बनाकर हुकूमत को कटघरे में खड़ा करते हैं ?
सत्ता के निहित स्वार्थों द्वारा जब नागरिकों को योजनाबद्ध तरीक़े से हिंसक बनाया जा रहा हो, हिंसा को महिमामंडित करने वाले फि़ल्म उद्योग को भी राजनीतिक दलों का ही एक आनुषंगिक संगठन मानकर चलना पड़ेगा। साल 1944 में रचित महान अंग्रेज उपन्यासकार जॉर्ज ओर्वेल की कालजयी कृति ‘एनिमल फ़ार्म’ का ब्रह्म-सारांश यही है कि ‘सभी जानवर आपस में बराबर हैं पर कुछ जानवर दूसरों से ज़्यादा बराबर हैं !’ वर्तमान की राजनीति शायद इसी मंत्र को संविधान की मूल आत्मा मानती है।
हिंसा के समर्थन से अगर सत्ता में बने रहने के प्रयोग को राजनीति के क्षेत्र में सफलतापूर्वक आज़माया जा सकता है तो उसके इस्तेमाल से बॉक्स ऑफिस पर कामयाब होने वाली फि़ल्मों की क़तारें भी खड़ी की जा सकती हैं ! हो सकता है हिंसा के प्रति बढ़ती मोहब्बत की दृष्टि से राजनीति और फि़ल्म दोनों उद्योगों के लिए 2024 का साल ‘कामयाबी’ के नए कीर्तिमान स्थापित करने वाला साबित हो !
- ध्रुव गुप्त
हर नए साल में लोगों को लगता है कि यह साल देश-दुनिया के लिए कुछ नया, कुछ अलग लेकर आने वाला है। हर साल यह भरम टूट भी जाता है। देश-दुनिया की वर्तमान परिस्थितियां बताती हैं कि आने वाले साल में भी सब कुछ वही रहने वाला है। देश में होगा वही बंटा हुआ समाज, वही रहनुमा, वही विभाजनकारी सोच, वही सामाजिक और आर्थिक विषमताएं, वही असहिष्णुता, वही सियासी ड्रामें और वही भांड मीडिया। देश के बाहर युद्ध, आतंक और विनाश का वही वैश्विक परिदृश्य। ऊपर जानलेवा वायरस के कुछ और नए अवतार। हां, नए साल के स्वागत के बेमतलब हंगामे में देश में असंख्य मुर्गे और बकरे ज़रूर कट जाने वाले हैं। अमीर क्लबों और होटलों में नंगी-अधनंगी लड़कियां नचाई जाएंगी। बेमतलब की आतिशबाजी में हवा में थोड़ा और जहर घुलेगा। चौतरफा शराब की नदियां बहेंगी। जहां दारूबन्दी हैं वहां नकली और जहरीली शराब पीकर कुछ और लोग मरेंगे।
नए साल में कुछ नया तब होगा जब हमारे भीतर कुछ नया घटित होगा। कुछ ऐसा कि हमारे आसपास की दुनिया थोड़ी और मुलायम, थोड़ी और खूबसूरत, थोड़ी और प्रेमिल, थोड़ी और निरापद दिखे। सडक़ों पर मानसिक दरिद्रता के भोंडे प्रदर्शन के बज़ाय आने वाले साल के लिए कुछ सार्थक सोचें और करें। खाए-अघाए लोगों के साथ मस्ती करने की जगह कुछ खुशियां उनके साथ बांटे जिन्हें उनकी वाक़ई ज़रुरत है। थोड़ी मुस्कान उन होंठों पर धरें जो मुस्कुराना भूल गए हैं। जो अपने अरसे से रूठे बैठे हैं, उन्हें मना लें। क्षमा मांग लें उनसे जीवन के किसी मोड़ पर जिनका दिल दुखाया है हमने। बासी पड़ चुके रिश्तों में फिर से ताजगी भरें। राजनीति को ख़ुद पर ऐसा हावी न होने दें कि वह हमारी वैचारिक स्वतंत्रता छीनकर हमें मानसिक तौर पर पंगु बना दे। धर्मों की निजता को सडक़ों पर इस तरह मत उतारें कि वह हमारी उदार सामाजिक संरचना को ही तोड़ डाले। नए साल में एक दूसरे की आस्थाओं और निजता का सम्मान करना सीखें।
राजनीति, धर्म और तमाम विचारधाराएं हमारे लिए बनी हैं, हम उनके लिए नहीं। इनमें से कुछ भी एक इंसानी जान से ज्यादा कीमती नहीं है। इसे समझने और महसूस करने के लिए किसी वैचारिक, सियासी या धार्मिक चश्मे की नहीं, थोड़ी अंतर्दृष्टि और बहुत सारी संवेदनशीलता की दरकार है ! आप सभी मित्रों को नववर्ष की मंगलकामनाएं!
- हेमलता महिश्वर
आज भीमा कोरेगाँव शौर्य दिवस है और इधर हर बार मैं सुधा जी को भी याद करती हूँ।
सुधा भारद्वाज मेरी एक ऐसी मित्र हैं जिनको मैं हमेशा बहुत सम्मान के साथ याद करती हूँ। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात प्रसिद्ध वक़ील, जाने- माने रचनाकार, गांधीवादी कनक तिवारी जी के घर पर हुई थी। उनके घर में बाहरी बड़ा सा कमरा उनका कार्यालय हुआ करता था। वे वहीं एक कुर्सी पर बैठी हुई थीं। कनक तिवारी जी ने हमारा परिचय करवाया था।
हम दोनों ने बातचीत की और वैचारिक तौर पर हमारी काफ़ी सहमति भी बनी। यही वजह थी कि अगली बार जब वो बिलासपुर आईं तो एक रात मेरे घर पर भी रुकीं। जब उन्हें पता चला कि मेरी बेटियां संगीत सीख रही हैं तो उन्होंने भी गोरख पांडे की कविता गाकर सुनाई। हाय.. वह आवाज़ आज भी वहीं अटकी हुई, लहरें ले रही है। क्या आवाज़ थी ... क्या पकड़ थी और क्या तो धैर्य था ... गज़़ब।
तभी उन्होंने बताया था कि वे किस माता-पिता की बेटी हैं। छ्वहृ में कृष्णा भारद्वाज के नाम पर व्याख्यान माला संचालित होती है। अब तो उनके शानदार परिवार और शिक्षा की जानकारी सबको हो चुकी है।
उसी रात उन्होंने एक दिलचस्प वाकय़ा सुनाया। वह यह था कि मज़दूरों की समस्याओं को सुलझाने के लिए उन्हें वकीलों के पास जाना पड़ता था। वकीलों के पास जाने-आने में, उनकी फ़ीस वग़ैरह में, सुनवाई की डेट लेने में और आवश्यकतानुसार दलील न रख पाना में धन और समय दोनों का ही अपव्यय बहुत होता था। मित्रों ने उन्हें सलाह दी कि क्यों न वे ख़ुद ही रुरुक्च कर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में अपनी वकालत शुरू कर दें। इससे वकीलों के पास जाने में जो समय लगता है, मिलने का समय लेना पड़ता है, किसी भी केस को समझाने में जो समय लगता है और इसके अलावा वक़ील का मेहनताना देने में जो पैसा लगता है, इन सबसे उनके वकालत शुरू करने पर राहत मिल जाएगी। कई बार तो कोर्ट जाने पर पता चलता कि आज केस पर बात नहीं हो पाएगी, डेट आगे बढ़ गई है। न्याय कब होगा, यह तो न्याय व्यवस्था पर निर्भर करता है।
सुधाजी को यह सलाह बहुत अच्छी लगी और उन्होने पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में रुरुक्च करने के लिए आवेदन किया। पता चला कि उनका आवेदन स्वीकृत नहीं हो सकता क्योंकि उन्होंने रूस्ष्ट की है।उनके पास स्नातकोत्तर उपाधि है पर स्नातक की उपाधि नहीं है। रुरुक्च में प्रवेश के लिए स्नातक की उपाधि ही चाहिए। सुधाजी ने समझाया कि मैंने एकीकृत पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था। इसमें लगातार पढ़ाई करते रहने पर स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त होती है और स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त होने का मतलब ये भी है कि स्नातक किया जा चुका है। पर व्यवस्था की जो ज़रूरत थी, वह इस बात को स्वीकार ही नहीं कर रही थी कि बग़ैर किसी स्नातक उपाधि के उन्हें स्नातक कैसे स्वीकार किया जा सके, चाहे उनके पास स्नातकोत्तर उपाधि थी। ख़ैर, उन्हें आईआईटी दिल्ली को भी समझाना पड़ा कि स्नातक उपाधि क्यों ज़रूरी है। जहां तक मुझे याद पड़ता है कि उन्हें स्नातक की उपाधि आईआईटी दिल्ली ने दे दी और वे एलएलबी में प्रवेश ले सकीं। कितने रोड़े होते हैं एक अच्छे काम को संपादित करने के लिए!
जब हमारी दोस्ती कुछ अनौपचारिक हो गई तो हम साथ खाना-पीना, सारा कुछ, घर-बाहर करने लगे। एक दिन मैंने अपनी इस्तेमाल की हुई वो साडिय़ाँ बाहर निकाल दी जिन्हें अब मैं नहीं पहन पाती थी। मैंने वो साडिय़ाँ सुधा जी को एक बैग में डालकर दे दी कि वे मज़दूर स्त्रियों के बीच उन्हें बांट देंगी। अगली बार जब वे मेरे घर आयीं तो वे उन्हीं साडिय़ों में से एक साड़ी पहने हुए थी। यह सिफऱ् महसूस सही किया जा सकता है के मुझे उस वक़्त कितनी शर्म आई अपने व्यवहार पर! मतलब मेरे पास शब्द नहीं है यह बताने के लिए कि मैं यह देखकर किस तरह से कट गई थी, यह तक उन्हें बता सकूँ। इतना बड़ा व्यक्तित्व और मेरी पहनकर छोड़ी हुई साड़ी इतनी सहजता से पहन ले, यह मुझे शर्मिंदा कर रहा था। लग रहा था कि मैंने ऐसे साड़ी उन्हें दी ही क्यों? उन्हें तो नई साड़ी दिया जाना चाहिए।
ऐसे ही एक बार मज़दूरों के ही किसी केस के लिए उन्हें दिल्ली आना था और उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने मुझसे पैसे माँगे थे। मैंने तुरंत तो नहीं, दो-चार दिन बाद उन्हें दिए और यह सोचकर दिए कि ये पैसे मुझे वापस नहीं होंगे। पर लगभग एकाध महीने बाद वे घर आयी और उन्होंने मुझे पैसे दे दिए। एक बार फिर उनके का कार्य ने मुझे भी काटकर रख दिया था। पुन: शर्मिंदा हुई मैं। मैंने उनसे कहा भी कि ऐसी ज़रूरतों के लिए आप पैसे लिया करें, वापस न करें। उन्होंने कहा कि आप यहीं हैं। मानकर चलें कि पैसे यहीं हैं। कोई ऐसी ज़रूरत होगी तो आपसे साधिकार ले लेंगे।
जब मैं नौकरी के लिए दिल्ली आने लगी थी वह मुझ पर नाराज़ हुई थी। उन्होंने कहा कि दिल्ली में काम करने वालों की क्या कमी है। यहाँ से अच्छे लोग क्यों जाए? मैंने उन्हें अनसुना कर दिया था। मुझे लगता है कि वे आज तक मुझसे नाराज़ हैं। ऐसे संवेदनशील और कर्मठ लोगों की नाराजग़ी भी बिरले लोगों के हिस्से आती है। सुधाजी, सचमुच आप बहुत बहुत बड़ी हैं।
-प्रमोद बेरिया
मेरे पोते ने पूछा
‘बाबा, अश्लील मतलब ?’
पहले तो मैं समझ नहीं पाया क्या मतलब बताऊँ फिर कहा
‘बेटा यह आदमी के सभ्य होने के साथ-साथ विकसित होता गया है, अन्यथा, लगता है आदिम युग में तो कुछ अश्लील होता नहीं होगा, अगर होता तो सामूहिक रूप से सब नंगे नहीं रहते!
इसका संबंध मनुष्य की कुंठाओं और अहंकार से भी है, क्योंकि मनुष्य के ‘सभ्य’ होने के साथ ही नाना आवरणों का आविष्कार हुआ और निषेध बढ़ते गए,साथ ही संघर्ष और मनमुटाव भी’
पोते को दलील जंच नहीं रही थी,उम्र भी नहीं थी।
‘बेटा, आदमी अपने आप दीवाल बना लेता है जिसके पार जाना दिनोंदिन उसके लिए कठिन होता जाता है क्योंकि वह बिना दरवाजे की दीवाल होती है। प्रकृति के कुछ ऐसे नियम हैं जिसे मंगल ग्रह पर जाने के बावजूद हम नहीं बदल सकते हैं; जैसे आदमी पैदा तो नंगा ही होगा, विज्ञान द्वारा भी संभव नहीं है कि कपड़े पहने हुए पैदा हो, सुबह से आदमी कितनी बार नंगा होता है लेकिन अश्लील की अवधारणा ही नंगेपन से जुड़ी है, अब इस नंगेपन से आदिम युग के नंगेपन को जोड़ोगे तो करीब पचहत्तर प्रतिशत अश्लीलता का मामला सुलझता नजऱ आता है।’
‘अश्लीलता नंगेपन से जुड़ी न हो कर नंगई से जुड़ी है जोकि मनुष्य के आदमजात आवेगों और कुंठाओं से पैदा होकर सहजात लक्षणों वाले एक से लोगों में सामूहिक होती जाती है और तब हमें ऐसी बहुत सी घटनाओं में, प्रवृत्तियाँ में, कलाओं में, समाजों में नजर आने लगती है और हम भी अनचाहे ही उसमें शामिल होते जाते हैं!’
मेरा पोता टुकुर-टुकुर देख रहा था।
-शंभुनाथ
कोलकाता में सात दिवसीय 29वां हिंदी मेला चल रहा है। लगभग 40 सालों से स्त्री विमर्श चल रहा था और पहले से इसपर काफी मंथन है। पर लघु स्तर पर ही सही सिर्फ स्त्री रचनाकारों का यह संभवत: पहला जमावड़ा है जहां मंच पर सिर्फ स्त्री साहित्यकार हैं और वे स्त्री विमर्श के समक्ष नई चुनौतियों पर कुछ सोचना चाहती हैं। यहां कई अन्य लेखिकाओं को होना चाहिए था, पर हिंदी मेला की आर्थिक सीमाओं के कारण ज्यादा लोगों को बुलाना संभव नहीं हुआ। अत: सभी लेखिकाएं इक_ा होकर स्त्री के समक्ष उपस्थित नई चुनौतियों और स्त्री विमर्श के नए मुद्दों पर बात करें, यह एक स्वप्न ही रह गया।
फिलहाल कुछ ये सवाल मेरे मन में हैं-
1) हिंदी में स्त्री विमर्श लंबे समय से है, पर स्त्रियों का कोई बड़ा संगठित आंदोलन नहीं है। जब तक निर्भया कांड जैसी कोई घटना नहीं होती, हिंदी क्षेत्र की स्त्रियां इक_ी होकर अपने मुद्दों कुछ आंदोलनात्मक कर नहीं पातीं।
2) दुनिया में उस रुत्रक्चञ्ज के आंदोलन आज भी हैं, जो विश्व की आबादी के . 01 प्रतिशत भी नहीं है। लेकिन स्त्रियों का वैसा आंदोलन अब नहीं है जो 20 वीं सदी के आरंभिक 6 दशकों तक तीव्र रूप में था।
उनकी वजह से दुनिया के कई पुराने नियम-कानून बदले, संयुक्त राष्ट्र सक्रिय हुआ और इन सबकी आंच भारत में भी आई। क्या मान लिया जाए कि अब पुरुषसत्ता का मामला ठंडे बस्ते में चला गया है या कुछ तात्कालिक गुस्सों और कुछ एक ही जैसे स्टीरियो टाइप उपन्यास तथा कविताएं लिखने तक सीमित है?
3) क्या स्त्री मुक्ति का आंदोलन पिछले करीब 25 सालों में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के बाद अब स्त्री-सशक्तिकरण में सीमित हो गया है, अर्थात पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के भीतर ही स्त्रियों को कुछ ऊंचे पद, कुछ आरक्षण, कुछ पुरष्कार-सम्मान और सेमिनारों, कार्यक्रमों में दो-एक को बुलाकार प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व देकर तृप्त कर देना और इन्हीं से स्त्रियों का तृप्त हो भी जाना?
4) पिछले 10 सालों में स्त्री रचनाकारों के कितने उपन्यास या कितनी कहानियां उस धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वासों को विषय बनाकर लिखी गई हैं जो वस्तुत: स्त्री स्वतंत्रता पर बड़ा खतरा है?
5) पिछले दो दशकों में स्त्री रचनाकारों ने वे कौन से नए प्रश्न उठाए हैं जो पहले के स्त्री साहित्य में नहीं थे, क्या उनके साहित्य की अंतर्वस्तु में वस्तुत: कोई परिवर्तन या विकास आया है?
6) विश्वविद्यालय और कालेजों में वीमेन्स स्टडी सेंटर बने हैं और अब सबसे आसान है स्त्री विमर्श पर पीएचडी की डिग्री पाना। धर्म की तरह बाजार का स्त्री बिंबों का उपयोग करके किसी भी युग से अधिक पुरुषसत्तात्मक विस्तार हुआ है। इन मुद्दों पर स्त्री लेखिकाएं क्या सोचती हैं? क्या इन घटनाओं को स्त्री विमर्श की सफलता के रूप में देखा जाए या एक चक्रव्यूह के रूप में?
ऐसे कई प्रश्न हो सकते हैं। मुख्य बात है स्त्री विमर्श में आए गत्यावरोध को तोडऩा और इसके अति–होमोजीनियस हो चुके रूप के बाहर आना! क्या आधी आबादी स्त्री, दलित, पिछड़ा, आदिवासी विमर्शों के बीच पुल बनाकर प्रतिरोधों के बीच विभाजन दूर कर सकती है?
पर ये काम खुद स्त्रियों द्वारा ही संभव हैं। उनकी आधी आबादी में पूरी आबादी को बदल डालने की असीम संभावनाएं हैं!
-मुकुल सरल
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने सोशल मीडिया पर अपने जातिवादी पोस्ट को डिलीट कर माफ़ी मांगी है और कहा कि उनकी टीम ने भगवत गीता के श्लोक का ग़लत अनुवाद कर दिया। लेकिन मेरा उनसे पूछना है कि फिर सही अनुवाद क्या है। सही अनुवाद पोस्ट कीजिए।
वे ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि इसका सही अनुवाद यही है।
दरअस्ल 26 दिसंबर को हिमंत बिस्व सरमा ने ‘एक्स’ और फेसबुक जैसे अपने सोशल मीडिया हैंडल पर एवी पोस्ट अपलोड किया था और दावा किया था कि यह गीता के 18 वें अध्याय का 44 वां संन्यास योग श्लोक से है।
उस एनीमेटेड वीडियो में कहा गया था, ‘‘कृषि कार्य, गो-पालन एवं वाणिज्य वैश्यों का आदतन एवं स्वाभाविक कर्तव्य है तथा तीन वर्णों-- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना शूद्रों का स्वाभाविक कर्तव्य है।’’
सरमा ने यह भी कहा था, ‘‘भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं ही वैश्यों और शूद्रों के स्वाभाविक कर्तव्यों के प्रकारों की व्याख्या की है।’’
उनके इस पोस्ट से बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया। और अब उन्होंने उसे डिलीट कर कहा कि उनकी टीम सें ग़लत अनुवाद हो गया। ये भी झूठ ही है। गोया उनकी टीम गीता के श्लोकों का अनुवाद करती हो। अरे भाई यही तो गीता के श्लोक का अर्थ है, जिसे उनकी टीम ने कॉपी पेस्ट कर दिया। लेकिन इस बार सरमा जी को लगा अरे इससे तो राजनीतिक नुक़सान हो सकता है तो कहा कि ग़लत अनुवाद हो गया। तो हम उनसे आग्रह करेंगे कि वह सही अनुवाद पोस्ट करें।
जिसके पास भी भगवत गीता हो वो उसे खोलकर पढ़ ले इस श्लोक को जिसकी विवेचना बड़े बड़े विद्वानों ने की है। इसे ही तो हम सदियों से पढ़ते आ रहे हैं, पढ़ाते आ रहे हैं। मनुस्मृति भी यही कहती है। यही तो ब्राह्मणवाद है। लेकिन मुझे हैरत है कि किसी को कोई फक़ऱ् नहीं पड़ता। अब अगर राजनीतिक मजबूरी न हो तो सरमा जी पीछे हटने वाले नहीं थे।
88वें जन्मदिवस, 1 जनवरी पर
-रमेश अनुपम
विनोद कुमार शुक्ल इस 1 जनवरी 2024 को अपने सुदीर्घ जीवन के 87वां वर्ष पूर्ण कर 88वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं इस अर्थ में वे हिंदी के सबसे सम्माननीय बुजुर्ग कवि-लेखक हैं।
विनोद कुमार शुक्ल आज भी जिस तरह से लेखन के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहते हैं, वह काफी कुछ विस्मित करने वाला है। उनके लेखन का क्षेत्र भी इधर विविध और विपुल होता जा रहा है, जिसमें बहुत सारा लेखन बच्चों और किशोरों के लिए भी है।
विनोद कुमार शुक्ल के लगभग दो काव्य संग्रह के लायक कविताएं और कहानियां अभी अप्रकाशित हैं। विनोद कुमार शुक्ल जिस तरह से प्रचुर मात्रा में लिख रहे हैं उससे लगता है कुछ ही दिनों में इसकी संख्या में काफी इजाफा भी संभव है।
विनोद कुमार शुक्ल के पाठकों की संख्या काफी बड़ी है। हिंदी से बाहर भी उन्हें पढऩे और प्यार करने वाले उनके असंख्य पाठक वर्ग है। इसलिए उनके काव्य संग्रह और कहानी संग्रह की सबको आतुरता के साथ प्रतीक्षा है।
‘मैं दुनिया के सारे सन्नाटे को सुनता हूं। रात में जब नींद नहीं आती है तो मैं मुक्तिबोध की तस्वीर के निकट जाकर बैठ जाता हूं और इस तरह मुक्तिबोध को अपने निकट पाता हूं।’ कहने वाले विनोद कुमार शुक्ल अपने जीवन और लेखन में मुक्तिबोध के सान्निध्य में बिताए हुए दिनों को याद कर इन दिनों बेहद भावुक हो उठते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल को गढऩे में जिन पांच विराट चरित्रों की सर्वाधिक उल्लेखनीय भूमिका रही है उनमें उनकी मां श्रीमती रूखमणी देवी, चाचा किशोरी लाल शुक्ल जिन्होंने पिता की असमय मृत्यु के पश्चात पूरे परिवार को आश्रय दिया, विनोद जी की धर्मपत्नी श्रीमती सुधा शुक्ल, हरिशंकर परसाई तथा मुक्तिबोध प्रमुख हैं।
जबलपुर में कृषि महाविद्यालय में अध्ययन के दरम्यान विनोद कुमार शुक्ल को हरिशंकर परसाई का सान्निध्य मिला। विनोद कुमार शुक्ल अक्सर परसाई जी के नेपियर टाउन स्थित उनके घर जाया करते थे।
राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में मुक्तिबोध की नियुक्ति के पश्चात अपने बड़े भाई संतोष शुक्ल जो मुक्तिबोध के छात्र थे, उनके साथ मुक्तिबोध के बसंतपुर निवास में जाकर पहले पहल मिलना विनोद जी को आज रोमांचित करता है कि किस तरह शाम की गहरे धुंधलके में मुक्तिबोध अपने हाथों में कंदील लेकर बाहर निकले थे जिसकी रोशनी पहले आई थी, रोशनी के पीछे-पीछे मुक्तिबोध आए थे, किसी कविता की अपूर्व बिम्ब की तरह।
साहित्य और अपने लेखन को लेकर विनोद कुमार शुक्ल का यह कथन दुनिया के किसी भी बड़े कवि या लेखक के कथन की तरह है, अभी हाल ही में रायपुर के शैलेंद्र नगर स्थित अपने घर में उन्होंने कहा था कि ‘आप जो लिख रहे हैं, वह अपने लिए नहीं लिख रहे हैं। आप जो भी लिख रहे हैं वह सब ओर बिखर जायेगा और बिखरकर सब तक पहुंच जाएगा। मेरा लिखा हुआ अगर बिखर कर सब तक नहीं पहुंचा तो मेरा लिखा हुआ एक पेड़ की तरह हो जायेगा जिससे लोग मेरी छाया में सुस्ता सकें।’
अभी हाल ही में दिसंबर के माहांत में विनोद जी के पास इजरायल से एक मेल आया है जिसमें मरीना रिम्शा ने उनकी तीन कविताओं ’हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’, ‘जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे’ और ’जीने की आदत’ के हिब्रू और अंग्रेजी में अनुवाद करने की इजाजत मांगी है।
मरीना रिम्शा ने विनोद कुमार शुक्ल को भेजे गए अपने मेल में लिखा है कि उनकी इन कविताओं के हिब्रू भाषा में अनुवाद से इजरायल और फिलिस्तीन युद्ध में आहत नागरिकों को राहत मिलेगी।
विनोद कुमार शुक्ल का एक काव्य संग्रह अंग्रेजी में भी आने को है। अमेरिका में अरविंद कृष्ण मल्होत्रा इस कार्य को पूरी गंभीरता और ईमानदारी से सम्पन्न करने में जुटे हुए हैं। अंग्रेजी में अनुदित विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की अनुवाद की किताब भी आगामी फरवरी 2024 में अमेरिका से प्रकाशित होने जा रही है।
विनोद कुमार शुक्ल ने बीते दस पंद्रह वर्षों में बच्चों और किशोरों के लिए ढेर सारा साहित्य लिखा है जो अब तक के प्रचलित और लोकप्रिय बाल साहित्य के खांचे में कहीं फिट नहीं बैठता है। यह हिन्दी का वैसा बाल साहित्य भी नहीं है जो सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत है।
‘नजर लागी राजा’ विनोद कुमार शुक्ल की एक अलक्षित कविता है जिस पर किसी काव्य पारखी, गुणगाहक या समीक्षक की दृष्टि अब तक नहीं गई है। इस कविता से विनोद कुमार शुक्ल का नाम हटा दिया जाए तो पहचान करनी मुश्किल होगी कि यह विनोद कुमार शुक्ल की कोई कविता है। उनकी यह कविता अपनी अंतर्वस्तु, रूप और भाषा सबमें अलग और अनूठी है।
हिंदी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना यह मानते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता काव्य की दृष्टि से एक विलक्षण कविता है। वे यह भी मानते हैं कि ’नजर लागी राजा’ जैसी कविता समकालीन हिंदी कविता में अन्यत्र नहीं है। यह समकालीन हिंदी कविता की उपलब्धि है।
इस कविता का जिक्र करने पर स्वयं विनोद कुमार शुक्ल कुछ कम चकित नहीं होते हैं। उन्हें दुख है कि इस सुंदर कविता पर अब तक किसी की भी दृष्टि नहीं गई है। विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता उनके छठवें और अब तक अंतिम काव्य संग्रह ‘कभी के बाद अभी’ (प्रकाशन वर्ष सन 2012) में संग्रहित है। बहरहाल विनोद कुमार शुक्ल की कविता ‘नजर लागी राजा’ उनके 88 वें जन्मदिवस 1 जनवरी के अवसर पर प्रस्तुत है -
नजर लागी राजा
नजर लागी राजा काले चश्में में
अब तू यह चश्मा उतार दे
मैं बहुत सांवली हूं
काले चश्मे से मैं नहीं दिखूंगी।
राजा! चश्मा उतार दे
और नजर मिला ले
अपने सांवलेपन में मैं अच्छी दिखूं
इसलिए मैं तेज धूप में खड़ी हूं।
काले चश्मे की बदली ने तुम्हारी आंखों को
और मुझे और सांवला ढंाक दिया है
काला चश्मा उतार कर मुझे पूरा उघार दे
और मुझे नजर लगा दे।
सचमुच तू यह चश्मा उतार दे
मैं बहुत सांवली
अंधेरी रात में तुमसे मिलना चाहती हूं
तेरे काले चश्मे से पूर्णिमा का गोरा चन्द्रमा भी
नहीं दिखता होगा
धूप का चश्मा लगाने वाले
चश्मा उतार दे
रात में कहीं धूप होती है?
मुझे और धूप को देखे हुए तुम्हें बहुत
दिन हो गए
मैं बहुत सांवली हूं
काला चश्मा उतार कर केवल मुझे देखोगे
तो लगेगा तुमने काला चश्मा नहीं उतारा।
राजा! प्रेम का संसार बुझ गया
मेरी छाती चकमक पत्थर की तरह कठोर और गोल हैं
तुम्हारे हाथ भी चकमक पत्थर की तरह कठोर हैं
हाथों के आघात से जो चिनगारी पैदा होगी
उसी की यह बुझता संसार प्रतीक्षा कर रहा है
कि जल उठे
और प्रेम की अग्नि को पा सके
परन्तु राजा! मैंने तुम्हारे ह्रदय को पत्थर नहीं कहा।
राजा! तुम्हारा काला चश्मा मैं क्यों चुराऊंगी
क्या तुम इसे पहने सो रहे?
कई रातों की जागी
तुममें जो मेरा मन बसा है
तुम तक मुझे बुलाता है
चलते-चलते तुम्हारी दूरी से थकी
एक दिन तुम्हारे बिछौने पर
तुम्हारे साथ सो जाऊंगी
तुम चश्मा पहने सो रहे होगे
और मैं तुमको चश्मा सहित चुरा लूंगी।
राजा! तेरे काले चश्मे में मेरी नजर लगी
अपनी अनदेखी देह का क्या करूं
मैं कैसे उजागर होऊं
कि केवल तुम मुझे देख सको
या तो चश्मा उतार कर फेंक दो
धूप में खड़ी मैं कोयला
तुम्हारी देह की हवा को छू लेने से
चिनगारी परच
अंगार होकर दहक गई हूं
देखो सूर्य बुझ गया है
और मैं सुलग रही हूं।
चश्मा मत उतारो।
जो गरमी है वह मेरा ताप है
तुम अब चश्मा मत उतारना
मेरे ताप में बहुत तेज धूप
जैसे तुम्हारी धूप में
मेरी धूप निकली है।
राजा! काले चश्मे में मेरी नजर लगी है
पर तुम्हारी धूप और ताप को मैं नहीं सह पाऊंगी
तुम काला चश्मा मुझे दे दो
मैं शृंगार करूंगी
हंसुली, पैरी, मुंदरी, पहनूंगी
स्नो-पाउडर लगाऊंगी
कीमती गहने की तरह काला चश्मा पहनकर
तुमको रिझा लूंगी।
तुम मेरे लिए मड़ई-मेले से
एक काला चश्मा खरीद देना
हम दोनों काला चश्मा लगाये मेला घूमेंगे
फोटो खिंचवायेंगे
परदे के हवाई जहाज के साथ
जिसमें दोनों काला चश्मा लगाये
सूरज तक उड़ेंगे।
दीपक तिरुआ
एक युवा लडक़े और उसकी गर्लफ्रेंड में बहस हो रही है।
मेरे कान में इयरफोन ठुंसा है, इसलिए वे मेरी परवाह नहीं कर रहे। मैं चाहता भी नहीं, इसलिए उधर देख भी नहीं रहा।
उनकी प्राइवेट बातों के बीच पॉलिटिक्स घुस आयी है और मैंने चुपके से इयरफोन पे गाना बंद कर लिया है।
लडक़ा समझा रहा है, ‘डेमोक्रेसी का मतलब है कि अगर चार लोग हैं तो चारों की सुनी जाये। ये नहीं कि तीन आपकी साइड हैं, तो आप चौथे को दबा लो।’
लडक़ी मानने को तैयार नहीं है। ‘डेमोक्रेसी है, तो जो लोग चाहेंगे वही होगा। लोग उन्हें पसंद कर रहे हैं, तभी तो चुन रहे हैं।’
‘लोग गलत भी हो सकते हैं।’ वो कह रहा है।
‘तुम्हारे मन की नहीं होगी तो तुम देश की जनता को गलत कह दोगे?’ वो पूछ रही है। ‘तुम हो कौन? क्या समझते हो अपने आपको?’
‘कबीर सिंह देखी है तूने ? गल्र्स के लिए कैसी फिल्म है?’ लडक़ा पूछ रहा है।
‘अब कबीर सिंह इसमें कहाँ से आ गया ?’
‘बता न कैसी है ?’
‘महा घटिया है।’
‘लेकिन सुपरहिट हुई थी। इट मीन्स लोगों ने बहुत पसंद की थी।’
‘लोग साले बेवकूफ हैं। ऐसी ही चीज़ें पसंद करते हैं।’ लडक़ी कह रही है।
अब लडक़ा हँस रहा है। मुझे हवा में ब्रेकअप की बू आ रही है।
मैंने इयरफोन पे एडवांस में, उनके लिए दु:ख भरा गीत चालू कर लिया है।