विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मेट्रोमेन ई. श्रीधरन को देश में कौन नहीं जानता ? जितने भी पढ़े-लिखे और समझदार लोग हैं, उन्हें पता है कि दिल्ली, कोलकाता और कोंकण में मेट्रो और रेल लाइन का चमत्कार कर दिखानेवाले सज्जन का नाम क्या है। दिल्ली की मेट्रो ऐसी है, जैसी कि दुनिया की कोई भी मेट्रो है। मैंने अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान आदि की मेट्रो-रेलों में कई बार यात्राएं की हैं। बस, जापानी मेट्रो की तेज गति को छोड़ दें तो भारत की मेट्रो शायद दुनिया की सबसे बढ़िया मेट्रो मानी जाएगी। इसका श्रेय उसके चीफ इंजीनियर श्री श्रीधरन को है। अब वे 21 फरवरी के दिन भाजपा में प्रवेश लेंगे। राजनीति में उनका यह प्रवेश उनकी मर्जी से हो रहा है। उन पर किसी का कोई दबाव नहीं है। उन्होंने जब तक सरकारी नौकरी की, तब तक उनका जीवन इतना स्वच्छ रहा है कि उन्हें किसी आरोप से बचने के लिए किसी सत्तारुढ़ पार्टी की शरण में जाने की जरूरत भी नहीं है। फिर भी 88 साल की आयु में वे भाजपा में क्यों शामिल हो रहे हैं ? उनका कहना है कि वे केरल में रहते हैं और वहां की कम्युनिस्ट सरकार ठीक से काम नहीं कर रही है। मई-जून में होनेवाले प्रांतीय चुनाव में वह हारेगी। वे चुनाव भी लड़ेंगे।
श्रीधरनजी से मेरा सवाल यह है कि राजनीति के कीचड़ में कूदकर क्या वे देश का ज्यादा भला कर सकेंगे? उन्होंने जिन प्रदेशों में मेट्रो और रेल बनाई और नाम कमाया, उनमें क्या उस समय भाजपा की सरकारें थीं ? उनके लिए तो सभी पार्टियां बराबर हैं। वे अपने आपको किसी एक पार्टी की जंजीर में क्या जकड़ रहे हैं ? वे तो सबके लिए समान रूप से सम्मानीय हैं। उनका सम्मान देश के किसी भी नेता से कम नहीं है। देश और दुनिया के कई बड़े से बड़े नेताओं को हमने कुर्सी छोड़ते ही इतिहास के कूड़ेदान में पड़े पाया है। श्रीधरनजी— जैसे लोग यदि उनकी श्रेणी में शुमार होने लगें तो हमें अफसोस ही होगा। इससे बड़ा सवाल यह है कि भाजपा को यह कौनसा ताजा बुखार चढ़ा है ? सर्वश्री लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी, शांताकुमार, सुमित्रा महाजन जैसे निष्कलंक और दिग्गज भाजपा नेताअेां को तो आपने घर बिठा दिया है, क्योंकि वे 75 साल से ज्यादा के हैं तो मैं पूछता हूं कि भाई-लोग, आप गणित भूल गए क्या ? क्या 88 का आंकड़ा 75 से कम होता है ? श्रीधरनजी के कंधे पर सवार भाजपा को केरल में वोट तो ज्यादा जरुर मिलेंगे लेकिन उनका कद छोटा हो जाएगा। एक राष्ट्रीय धरोहर, पार्टी-पूंजी बन जाएगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-राकेश दीवान
साल-दर-साल माघ महीने के शुक्लपक्ष की सप्तमी को ‘नर्मदा जयन्ती’ मनाने वालों, आदि-गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित ‘नर्मदा अष्टक’ का दैनिक परायण करने वालों और बात-बात पर ‘नरबदा माई’ की ‘सौं’ खाने वालों को कभी उस जीनदायिनी नदी की दुर्दशा का रत्तीभर भी अहसास हो पाता है जो अब तेजी से अपनी समाप्ति की ओर बढ रही है? क्या वे समझ पाते हैं कि बिजली, सिंचाई और बाढ-नियंत्रण के उन्हीं के कथित सुखों के शिगूफों की खातिर 1312 किलोमीटर लंबी नदी को उन दस विशालकाय तालाबों में तब्दील किया जा रहा है जिनमें से आधे अब तक बनकर तैयार भी हो गए हैं? क्या वे अपने जैसे नर्मदा तट के उन लाखों रहवासियों के बारे में कभी सोच पाते हैं जिन्हें बडे बांधों के नाम पर अपने-अपने घर-बार से जबरन खदेड दिया गया है और जिनके पुनर्वास के बारे में विचार तक करना सरकारें भूल चुकी हैं? क्या उन्हें नर्मदा के उत्तरी तट की 19 और दक्षिणी तट की 22, यानि हिरन, बंजर, बुढनेर, डेब, गोई, कारम, सुक्ता, बारना, बेदा जैसी 41 सहायक नदियों के स्वास्थ्य की कोई चिंता सताती है? ‘नर्मदा जयन्ती’ मनाने वालों की इन अनदेखियों का मतलब आखिर क्या है? क्या यह नदियों के प्रति हमारे पाखंडी नजरिए की ही बानगी नहीं है?
पाखंड का यह परनाला पडौस की पवित्र क्षिप्रा में भी खासा उजागर होता है। बारह साला महाकुंभ से लगाकर हर छठे-चौमासे पडने वाले पर्व-स्नानों में जिस जल को क्षिप्रा का मानकर डुबकी का पुण्य लूटा जाता है वह असल में लाखों रुपयों की बिजली फूंककर, कई किलोमीटर दूर से उठाकर लाया गया नर्मदा का पानी है। इस पानी में और जो भी हो, देव-दानवों की छीना-झपटी में गिरी अमृत की वह बूंद नहीं होगी जो सीधी क्षिप्रा में टपकी थी। पाइप लगाकर नदी जोडने की फर्जी कवायद की मार्फत कभी-कभार क्षिप्रा को सदानीरा बताने के इस पाखंड के बरक्स एक सरल-सा, सामान्य ज्ञान का सवाल उठता है कि देश के चार में से एक महाकुंभ, सिंहस्थ को सदियों से पनाह देने वाली क्षिप्रा में आखिर पानी का यह टोटा क्यों हो गया? और दो-दो सिंहस्थ करवाने वाली धर्म-धुरीण भाजपा की मौजूदा सरकार क्षिप्रा को पुनर्जीवित क्यों नहीं कर सकी? और सबसे जरूरी सवाल कि क्या तट पर बसे और उसे वापरते लाखों-लाख निवासियों का क्षिप्रा के जल के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है?
जानने वाले जानते हैं कि 2004 के सिंहस्थ में टेंकरों से लाए गए नलकूपों के पानी से क्षिप्रा को ‘जलवान’ बनाया गया था। बारह साल बाद 2016 के सिंहस्थ में दुनियाभर में थुक्का-फजीहत झेल रही ‘नदी-जोड परियोजना’ को संकट-मोचक बनाया गया। कहा गया कि क्षिप्रा-नर्मदा के इस जोड से रास्ते के अनेक गांव, शहर ‘तर’ हो जाएंगे और अंतत: सिंहस्थ का पुण्य भी मिलेगा। इस समूची जानकारी में चालाकी से बिजली के उस भारी-भरकम खर्च को छिपा लिया गया जो ‘नीचे’ बसी नर्मदा के पानी को ‘ऊंचाई’ की क्षिप्रा तक पहुंचाने में लगने वाला था। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि दो-दो सिंहस्थ करवाने वाली सरकार समेत किसी तटवासी को क्षिप्रा को साफ, सदानीरा बनाने, बनाए रखने का खयाल क्यों नहीं आता? क्या ऐसा करना कोई बडे ‘रॉकेट साइंस’ का काम है?
सत्ता, सरकार और समाज के पाखंड का यह कारनामा कोविड-19 महामारी ने खुलकर उजागर कर दिया था। इस बीमारी ने और कुछ किया हो, न किया हो, गटर बनती जाती हमारी वे नदियां अचानक साफ-सुथरी दिखाई देने लगीं थीं जिन्हें हम मां-बाप से लगाकर पुण्य-सलिला तक न जाने कितनी तरह के विशेषणों से संबोधित करते, पूजते नहीं थकते। गंगा उनमें से एक हैं जिनके प्रदूषण, गंदगी को साफ करने की सद्इच्छा रखने वालों में राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटलबिहारी बाजपेई, डॉ. मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी जैसे प्रतापी प्रधानमंत्री भी शामिल थे। इन सबने अपने-अपने कार्यकाल में गंगा को साफ बनाए रखने की खातिर प्राधिकरण, विभाग और फिर मंत्रालय बनाकर लाखों-करोड रुपयों का बजट आवंटित किया था। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कई-कई बार गंगा को साफ करने-रखने के लिए तत्कालीन सरकारों को निर्देशित-आदेशित किया और संसद, विधासभाओं ने अपने-अपने तौर-तरीकों से गंगा-माई के डूबते अस्तित्व पर भावुक, निर्णायक बहसें कीं–करवाईं, लेकिन सब जानते हैं कि इस सारी मार-मशक्कत के बावजूद मार्च ‘2020 के अंतिम हफ्ते तक गंगा कतई साफ नहीं हो पाईं थीं।
महामारी से निपटने के लिए लगाए गए ‘लॉकडाउन’ ने ऐसे में भौंचक करते हुए गंगा के अलावा दूसरी कई नदियों को जीने लायक बना दिया था। इनमें से एक गंगा की सहायक और एन देश की राजधानी के बीचम-बीच से गुजरने और उसका मल-मूत्र समेत तरह-तरह का रासायनिक, मेडिकल कचरा धोने वाली, मृत्यु के देवता यम की बहन यमुना हैं। इंसानी हस्तक्षेप के बिना हुई यमुना की सफाई की वजह बताई गई थी - रासायनिक कचरे से लगभग पूरी मुक्ति। नदियों और अन्य जलस्रोतों में यह रासायनिक कचरा कारखानों, अस्पतालों और मशीनी कामकाजों की मार्फत बहता रहा है और चूंकि ‘लॉकडाउन’ में ये सारे प्रतिष्ठान बंद थे, इसलिए गंगा, नर्मदा समेत यमुना प्रदूषण-मुक्त हो गईं थीं। इस सारे धतकरम में इंसानी मल-मूत्र, सीवर लाइनों आदि को ‘पाप’ का भागीदार नहीं माना गया, क्योंकि आखिर ‘लॉकडाउन’ में भी ‘नित्य-क्रियाओं’ से तो मुक्ति नहीं पाई जा सकती। दिल्ली और यमुना की बात करें तो स्पष्ट है, जल-प्रदूषण के लिए छोटे-बडे सैकडों कारखाने जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। जाहिर है, हम बहु-चर्चित, बहु-उद्धृत ‘विकास’ की नींव नदियों की मौत पर रखते रहे हैं।
पिछली सदी में हमारे यहां एक प्रख्यात प्रवासी लेखक हुए हैं - नीरद सी. चौधरी। उन्होंने भारतीय समाज के पाखंड को लेकर विस्तार से लिखा है और अपने लेखन के चलते भारी लानत-मलामत झेली है। नदियों के प्रति हम अपने रोजमर्रा के व्यवहार को देखें तो चौधरी साहब की बात एकदम सटीक बैठती है। एक तरफ तरह-तरह के कर्मकांडों के जरिए भारी जोर-शोर के साथ नदियों की पूजा-आरती की जाती है और ठीक दूसरी तरफ, उन्हीं पूज्य मानी जाने वाली नदियों में हर प्रकार का कूडा-करकट, मल-मूत्र और रासायनिक जहर बेरहमी से बहाया जाता है, उसके आसपास की वन-संपदा और पर्यावरण को नेस्त-नाबूद किया जाता है। कमाल यह है कि जैसे-जैसे विकास की भगदड में इजाफा होता जाता है, वैसे-वैसे नदियों और दूसरे जलस्रोतों में गंदगी उलीचने की रफ्तार भी बढती जाती है।
एक जमाने में नदियों को लेकर समाज में भी चेतना थी। नर्मदा के दक्षिणी तट के होशंगाबाद शहर को ही लें तो विश्वेश्वर प्रसाद दीक्षित उर्फ ‘बिस्सू महराज’ को कोई कैसे भूल सकता है जो शहर के सेठानी घाट की साफ-सफाई के स्व-नियुक्त पालक थे। बाद में नगरपालिका ने उन्हें बाकायदा औपचारिक रूप से यह जिम्मेदारी सौंपी थी, लेकिन उनके रहते किसी की मजाल नहीं थी कि नर्मदाजी में कचरा डाल सके। राधेश्याम लोहिया यानि स्वामीजी वैसे तो बच्चों को तैरना सिखाने, नर्मदाष्टक सिखाने की सामाजिक जिम्मेदारी निभाते थे, लेकिन घाटों की चमाचम सफाई उनकी ही पहल पर की जाती थी। धीरे-धीरे समाज का ऐसा जैविक नेतृत्व समाप्त होता गया और नदियों समेत हमारे दूसरे प्राकृतिक स्रोत बाजार और बर्बादी के हवाले होने लगे। स्थानीय और बेहद छोटे स्तर पर होने वाले ये निजी और सामाजिक प्रयास आम लोगों में नदियों और जलस्रोतों को मान देना और उनके प्रति ठीक व्यवहार करना सिखाते थे। अब, जैसा सब जानते हैं, समूचा संसार बाजार की चपेट में है और नतीजे में नदियां भी पानी का केवल एक स्रोतभर रह गई हैं। ध्यान रखिए, नदियां सिर्फ पानी उपलब्ध करवाने वाली 'टोंटी' भर नहीं हैं। उनके साथ किया जाने वाला सम्मान का हमारा व्यवहार, बदले में हमें उनकी सद्भावना प्राप्त करने की पात्रता देगा, वरना कुछ सालों में हम नदियों को देखने-सुनने के लिए भी तरसते रह जाएंगे।
दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र भारत में कई जनतांत्रिक देशों से प्रेरणा और प्रावधान लेकर रचे शासन में जन अधिकारों का अनंत आकाश बुना तो गया है। अनुभव में लेकिन आया है कि बोलने और प्रतिरोध करने का लोकमत तो क्या सोचने तक की मानसिकता को एक तरह से सत्तानशीन हुक्मनामे के नागपाश में बांध दिया गया है। किसी ने नहीं सोचा होगा कि भारत में जम्हूरियत लागू होकर भी राजशाही से ज्यादा क्रूर तानाशाही के तेवर टर्राने लगेंगे कि हर मनुष्य अभिव्यक्ति को कोलाहल कह दिया जाएगा। जीवन को तानाशाही के तेवरों की मिन्नतें करनी पड़ेंगी, बल्कि देश के क्रमश: बड़े होते जाते जनतांत्रिक हुकूमतशाह के सामने उसी अनुपात में नाक तक रगड़नी पड़ेगी। यह तो आईन बनाने वाले वसीयतकारों ने अपनी मासूमियत के चलते सोचा ही नहीं होगा कि जिन्हें नागरिकों की अस्मिता के रक्षा के लिए मुकर्रर कर रहे हैं, वे जल्लाद की भूमिका चुनकर अपने रचे अहंकारमहल में अट्टहास करते खुद अपने को अमर होने का प्रमाणपत्र जारी करेंगे।
मुख्यतः अमेरिका के फिलाडेल्फिया के घोषणापत्र से मनुष्य को नागरिक बनाते रहने के समीकरण को हल करने के सूत्र लम्बी बहस के बाद आयातित और अंगीकृत किए गए। प्रशासन को विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के त्रिभुज, त्रिदेव, त्रिलोक में प्रशासन प्रबंध को त्रिशंकु बनने से रोकने के लिए कई नसीहतें भी दी गईं। मामला फिर भी तो सिफर होता गया। 137 करोड़ों की नागरिक-यात्रा तेज ढलान पर ही है। आगे घुमावदार अंधा मोड़ है। अगले छोर पर हिन्दू-मुस्लिम नफरत, गरीबों का काॅरपोरेटी-शोषण, संसदीय बहुमत का धनुष टंकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बंधुआ मीडियाकर्मियों का हुजूम, पुलिस, गुंडे, सेना और हर तरह के सत्ताई अत्याचार-कुल की अंधभक्ति की खाई लोकतंत्र के भविष्य का अंत पाने की सुगबुगाहट में है। साफ लिखा है इस देश की सबसे मुकम्मिल, प्रतिनिधिक जनतांत्रिक पोथी में ‘हम भारत के लोगों का ऐलान है कि देश समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, आर्थिक समानता और हर तरह के मतभेद को दरकिनार कर हर मनुष्य की बराबरी के अधिकारों का देश है।'
13 नवम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के मकसद वाला प्रस्ताव रखा। सार्थक आपत्ति डाॅ0 अंबेडकर ने की कि लोकतंत्र और समाजवाद शब्दों को साफ साफ अभिव्यक्त नहीं किया गया है। लोकतंत्र शब्द तो जुड़ा। समाजवाद का तेवर संविधान की इमला में होने के बावजूद देश की आर्थिक हालत, पूंजीवादियों और सामंतवादियों के गठजोड़ की संदिग्ध भूमिका और अंतरराष्ट्रीय व्यापार बाजार में स्वायत्त हैसियत नहीं होने से पंथनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को मुखर नहीं किया गया। 1973 में सुप्रीम कोर्ट में अपने सबसे बड़े मुकदमे केशवानंद भारती में 13 जजों की बेंच ने पत्थर की लकीर उकेर दी कि पंथनिरपेक्षता भारत के संविधान का बुनियादी ढांचा है। उसे संविधान संशोधन के जरिए भी नहीं बदला जा सकता। भारत दुनिया के सामने अपनी पंथनिरपेक्षता का चेहरा उजला कर दिखाता रहता है। इंदिरा गांधी ने तो उसके चार वर्ष बाद पंथनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को संविधान के मुखड़े में जोड़ा। ऊहापोह, मतभेद और प्रयोगमूलक शास्त्रार्थ के चलते अनुच्छेद 39 में साफ लिखा कि देश की प्राकृतिक संपदा का दोहन इस तरह ही होगा कि कुदरती दौलत देश के सभी लोगों के काम आए। कहीं नहीं लिखा कि राष्ट्रीयकरण को नेस्तनाबूद करते सारी दौलत काॅरपोरेटियों को सौंप सकें। अमीरों को देश की संपत्ति का ट्रस्टी कहते हुए भी गांधी ने दो टूक कहा था बड़े उद्योगों और चुनिंदा कार्य व्यापार का राष्ट्रीयकरण किया जाए।
अभिव्यक्ति और आंदोलन आदि की आजादी के अमेरिकी तत्व संविधान की वाचालता में गूंजते हैं। निजाम का लेकिन तंत्र इतना अकड़ गया है कि अनुच्छेद 19 में सरकार के सीमित प्रतिबंधात्मक अधिकारों को भी आकाश समझ कर अपनी हेकड़ी को अनंत कर लिया है। बिल्कुल साफ है कि नागरिकों को हर सरकारी हुक्म बल्कि विधायिका के विधायन के खिलाफ आवाज उठाने और आंदोलन करने का पूरा हक है। सुप्रीम कोर्ट को असाधारण अधिकार हैं कि नुकीले सरकारी तेवरों को जनता की समझ के खिलाफ होने पर भोथरा कर दे। पिछले कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट ने रहस्य की चादर ओढ़ रखी है। उसने अपनी अभिव्यक्ति के जनाभिमुखी चेहरे पर सरकारी नस्ल का नकाब झिलमिला लिया है। सुप्रीम कोर्ट नागरिक आजादी का कैदघर या अनाथालय नहीं उसका गुरुकुल कहा गया है। यह समीकरण उलझ क्यों रहा है?
राज्यों की सीमाओं में घटबढ़ करने का संसद के जरिए केन्द्र को अधिकार है। उसका यह अर्थ नहीं कि प्रभावित प्रदेशों के नागरिकों की आवाज को गूंगा समझ या बना लिया जाए। भारतीय नागरिकता अपनी उदारता के लिए जगत प्रसिद्ध है। नागरिकों में मजहब, जाति, कुल, गोत्र की मानसिकता उन कंकड़ों की तरह है जो अपने चावल के दानों के बीच घुसकर पक जाएं तो दांतों और पेट तक में गड़ते हैं। केन्द्र सरकार को मसलन अमेरिका के भी मुकाबले भारत में ताकतवर बना दिया गया। देश तब भारत-पाक विभाजन के कारण खूंरेजी, हिंसा और बटवारे की आग में राख होने को उद्यत था। फिर भी परन्तुक लगाया कि अभिभावक भूमिका वाला केन्द्र राज्यों के साथ सौतेले पिता की तरह आचरण नहीं करेगा। केन्द्र बाद में करता रहा है। फेडरल नस्ल के देश के प्रदेश केन्द्र के अनुचर नहीं अनुज हैं। कहते हैं बड़े भाई राम ने छोटे भाई के हक में राजगद्दी छोड़ दी। छोटे भाई भरत ने लेकिन खंड़ाऊ राज्य स्थापित किया। बड़ा भाई केन्द्र प्रदेशों का सब कुछ लूट खसोट कर काॅरपोरेटियों को देता चला जा रहा है। भरत भूमिका के प्रदेश भी असहयोग लेकिन असमर्थता के बावजूद बड़े भाई से अधिकारों से खुलासा और बटवारा चाहते हैं।
दुनिया की भी हालत ऐसी है कि प्रकट युद्ध नहीं होने पर भी शांति नहीं है। राज्य और केन्द्र के अधिकारों में पहले ही संविधान ऋषियों ने पुख्ता बटवारा कर दिया है। फिर भी कहीं ज़्यादा अधिकार प्राप्त केन्द्र प्रदेशों के इलाकों में इस तरह घुसता रहता है जैसे गायों के रेवड़ में कोई उन्मत्त सांड़ घुसने की कोशिश करे। संविधान हर नागरिक को व्यापार करने की अनुमति देता है लेकिन मध्यवर्ग, मुफलिसों और गरीबों की सांसों की कीमत पर नहीं। रेलगाड़ी, वायुयान, अस्पताल, स्कूल, काॅलेज, दवाएं, पेट्रोल, डीजल, खाद्य सामग्री सबके बाजार निजी हाथों में सत्तापुरुषों द्वारा दहेज की तरह सौंपे जा रहे हैं। मुनाफाखोरी, जमाखोरी, कालाबाजारी कुछ लोगों के जीवन का मकसद हैं। वह हविश सरकार की गोद में बैठकर आंकड़ों की अंकगणित से चलते चलते बदनाम रिश्तों की बीजगणित में तब्दील हो गई है। दुनिया के सामने भारत का चेहरा विज्ञानसम्मत, प्रोन्नत, आधुनिक लेकिन मर्यादा कुल के देश की तरह हो पाना संभावित और आशान्वित किया गया था। कहां गए वे लोग जिन्होंने अपनी संवैधानिक औलादों पर भरोसा किया था? उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि उनके बाद की नागरिक पीढ़ियां भी नपुंसकता को नए भारत का चरित्र बनाएंगी। इतिहास अलबत्ता कुरबानी और अच्छाई करने वालों का ही यादनामा होता है। अपने पुरखों के रहमोकरम से ग़ाफिल रहकर करोड़ों भारतीय फकत जिंदा रहने भर को जीवन कैसे समझ सकते हैं।
-राकेश दीवान
सत्ता पर चढ़ती-उतरती राजनीतिक जमातों के निस्तेज पड़ते जाने के कारण समाज ने अपने गैर-दलीय समूह गठित कर लिए। ये समूह दलीय राजनीती के चुनाव-केन्द्रित ढांचे से बाहर, आम लोगों के बुनियादी सवालों को लेकर सामने आने लगे। प्रधानमंत्री द्वारा ‘आंदोलनजीवी’ की हैसियत से नवाजे जाने वाले आंदोलनकारी असल में ये ही हैं। ध्यान रखिए, समाज का इन कथित ‘आंदोलनजीवियों’ के बिना नहीं चलता।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संसद में सरकार का पक्ष रखते हुए प्रधानमंत्री ने भले ही ‘आंदोलनजीवी,’ ‘परजीवी’ आदि कहकर आंदोलनकारियों की खिल्ली उड़ाई हो, लेकिन प्रकारांतर से उन्होंने हाल की भारतीय राजनीति और अपनी राजनीतिक बिरादरी की पोल ही खोली है। इससे राज्य और केन्द्र में राजनीति करने वाली मुख्यधारा की उन तमाम राजनीतिक जमातों पर भी सवाल उठ गया है जिनने अस्सी के दशक के बाद समाज को मथने, हलाकान करने वाले मुद्दों को सिरे से अनदेखा छोड़ दिया था।
राष्ट्रीय स्तर पर घटित हाल की घटनाओं को ही लें तो राजनीति के सरोकार साफ हो जाते हैं। अभी पिछले ही हफ्ते उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में आई भीषण बाढ़ और नतीजे में सैकड़ों इंसानों के जीवन समेत उनके घर-बार की बर्बादी हुई है। इस त्रासदी की वजह बताई जा रहीं और उसमें ध्वस्त हो चुकीं नव निर्मित दो जल-विद्युत परियोजनाओं-तपोवन और ऋषिगंगा के औचित्य को लेकर कथित ‘आंदोलनजीवी’ ही आवाज उठाते रहे हैं। इन और हिमालय जैसे ‘बच्चा पहाड़’ में बन रहीं ऐसी ही दर्जनों परियोजनाओं को तत्काल बंद करवाने के लिए देश के एक जाने-माने ‘आंदोलनजीवी’ और वैज्ञानिक, प्रोफेसर जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद ने 112 दिन के अनशन के बाद प्राण त्याग दिए थे। उनके पहले स्वामी निगमानंद और बाद में अनेक संत-महात्माओं ने भी गंगा को अविरल बहने देने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी।
‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ (आईआईटी)-कानपुर के प्राध्यापक, ‘केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ के पहले सदस्य-सचिव, ‘राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय’ के सलाहकार और ‘चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ में प्राध्यापक जैसे जिम्मेदार पदों पर रहे कथित ‘आंदोलनजीवी’ जीडी अग्रवाल उत्तराखंड की 14 नदी-घाटियों में बनी और बन चुकी 220 से अधिक छोटी-बड़ी विनाशकारी जल-विद्युत परियोजनाओं को तत्काल रोकने के लिए प्राणों की आहुति दे रहे थे, उस समय राजनीतिक जमातें क्या कर रही थीं? भरी-पूरी राजनीतिक बिरादरी के मुख्यधारा कुनबे में सिर्फ दो नाम सामने आते हैं-प्रणव मुखर्जी और उमा भारती, जिन्होंने गंगा और उनकी सहायक नदियों को बचाने की अपने स्तर पर कोई पहल की थी।
सन् 2010 में डॉ.मनमोहन सिंह की सरकार में केन्द्रीय जल-संसाधन विभाग संभाल रहे प्रणव मुखर्जी ने जीडी अग्रवाल के उपवास की प्रतिक्रिया-स्वरूप गंगा के एन मुहाने पर बन रही ‘लोहारी-नागपाला’ परियोजना पर ताला जड दिया था। इसी तरह तत्कालीन ‘गंगा संरक्षण’ मंत्री उमा भारती ने अपने मंत्रालय की तरफ से शपथ-पत्र देकर सुप्रीम कोर्ट में गंगा पर बनी या प्रस्तावित जल-विद्युत परियोजनाओं को रोकने की मांग की थी। कमाल यह था कि उमा भारती की पार्टी के ही पर्यावरण मंत्री ने ‘गंगा संरक्षण’ मंत्रालय के ठीक विपरीत बांध परियोजनाओं की तरफदारी की थी।
राजनेताओं के बीच का यह दुराव अभी भी दिखाई दे रहा है। उत्तराखंड की त्रासदी के दौरान वहां की यात्रा कर रहीं उमा भारती का कहना है कि ‘उत्तराखंड के बांधों के बारे में मंत्री रहते हुए मैंने शपथ-पत्र देकर आग्रह किया था कि हिमालय एक बहुत संवेदनशील स्थान है, इसलिए गंगा और उसकी सहायक नदियों पर पॉवर प्रोजेक्ट नहीं बनना चाहिए। ‘लेकिन उन्हीं की पार्टी के केन्द्रीय ‘ऊर्जा मंत्री’ आरके सिंह ने तपोवन त्रासदी का सिर्फ जायजा लेते हुए घोषित कर दिया कि ‘तपोवन परियोजना का काम दुबारा शरू होगा।’ विडंबना यह है कि 85 फीसदी बन चुकी ‘तपोवन’ परियोजना को 2023 में लोकार्पित किया जाना था, लेकिन हाल की त्रासदी ने उसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया है।
समाज की बुनियादी समस्याओं को पीठ दिखाने की राजनेताओं की आदत दिल्ली की चौहद्दी पर जारी किसान आंदोलन में भी दिखाई देती है। करीब तीन महीने से कडक़ती ठंड, बरसात और बिजली-पानी-शौचालय की अनुपस्थिति में धरना देकर बैठे कथित ‘आंदोलनजीवी’ किसानों ने राजनीतिक पार्टियों से जुड़े लोगों को अपने मंचों से कोई यूं ही सेंत-मेंत में दूर नहीं रखा है। इसकी वजहें हैं। अव्वल तो तरह-तरह के डंडों-झंडों वाली राजनीतिक जमातों में मुद्दे पर एकमत नहीं बन पाता और दूसरे, उनकी प्राथमिकता वोट यानि चुनाव यानि सत्ता की सवारी गांठना भर होती है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या किसानों की समस्याएं राजनीतिक जमातों के एजेंडे में पहले नहीं उठीं होतीं?
साठ के दशक में ‘भारी लागत से भारी उत्पादन’ वाली ‘हरित क्रांति’ तब के राजनीतिक नेतृत्व की पहल पर लाई गई थी, लेकिन क्या उसके बाद के राजनेताओं ने ‘हरित क्रांति’ के प्रभावों पर रत्तीभर भी ध्यान दिया? क्या इसी ‘हरित क्रांति’ के बहाने देशभर में बनाए गए बड़े बांधों के प्रभावों, यहां तक कि लाभ-हानि पर भी किसी राजनीतिक फोरम में चर्चा हुई? विशालकाय बांधों और उनकी मार्फत होने वाली ‘असीमित’ सिंचाई ने उत्पादक मिट्टी को बर्बाद कर दिया है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि मिट्टी की उत्पादकता आधी रह गई है, लेकिन क्या किसी राजनीतिक पार्टी ने इसकी गंभीरता को समझकर इस पर चर्चा की?
देश के बीचमबीच बसे शहर भोपाल में 1984 में दुनिया की सर्वाधिक भीषण औद्योगिक त्रासदी हुई थी। इसकी चपेट में आए हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पडी थी और आज भी लाखों भोपाली इसकी भीषणता को भोगते देखे जा सकते हैं। लेकिन बदल-बदलकर सत्ता पर काबिज होने वाली राजनीतिक पार्टियों ने इस मसले को या तो छिपाने की कोशिशें कीं या फिर औने-पौने मुआवजे से निपटा दिया। जिन ‘आंदोलनजीवियों’ ने इस मुद्दे को जिलाए रखा वे हमेशा ही राजनीतिक जमातों के निशाने पर रहे।
हमारे समय का सर्वाधिक विवादास्पद शब्द ‘विकास’ है और इसके प्रभाव में अधिकांश देशवासी कराह रहे हैं, लेकिन इसे लेकर किसी राजनीतिक मंच पर गहराई से विचार-विमर्श नहीं होता। उलटे मौजूदा विकास की अवधारणा को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां एकमत हैं। जल, जंगल, जमीन, पुनर्वास-विस्थापन, कृषि, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे राजनीतिक जमातों की गतिविधियों के बाहर होकर अब कथित ‘आंदोलनजीवियों’ के सरोकारों में शामिल हो गए हैं। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
अस्सी के दशक तक राजनीतिक पार्टियां जमीनी मुद्दों पर सक्रिय रहीं। जमीन, पानी, भूख, मंहगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे राजनीतिक मुद्दे हुआ करते थे और उन्हें लेकर राजनीतिक पार्टियां खासी सक्रिय रहती थीं। धीरे-धीरे संसदीय लोकतंत्र ने राजनीति को चुनाव की चपेट में ले लिया। अब राजनीतिक जमातों का एकमात्र और सर्वाधिक जरूरी काम चुनावों में जीतना हो गया। जाहिर है, चुनाव केन्द्रित राजनीति ने आम लोगों के मुद्दों को राजनीति से दूर कर दिया। अब एक-सी त्रासदियां बार-बार होती हैं, लेकिन किसी राजनीतिक पार्टी को उससे सीखने की जरूरत महसूस नहीं होती। उत्तराखंड में ही करीब सात साल पहले, 2013 में, केदारनाथ में ठीक ऐसी ही त्रासदी घटी थी। कई गैर-दलीय संगठनों, कथित ‘आंदोलनजीवियों,’ स्वतंत्र वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों ने इस पर अपनी रायें दी थीं, लेकिन राज करने वाली राजनीतिक जमातों ने इससे कुछ नहीं सीखा। विकास के नाम पर ठीक केदारनाथ के पहले की हरकतें दुहराई गईं और नतीजे में एक और त्रासदी झेलनी पड़ी।
जाहिर है, सत्ता पर चढ़ती-उतरती राजनीतिक जमातों के निस्तेज पड़ते जाने के कारण समाज ने अपने गैर-दलीय समूह गठित कर लिए। ये समूह दलीय राजनीती के चुनाव-केन्द्रित ढांचे से बाहर, आम लोगों के बुनियादी सवालों को लेकर सामने आने लगे। प्रधानमंत्री द्वारा ‘आंदोलनजीवी’ की हैसियत से नवाजे जाने वाले आंदोलनकारी असल में ये ही हैं। ध्यान रखिए, समाज का इन कथित ‘आंदोलनजीवियों’ के बिना नहीं चलता।
-ध्रुव गुप्त
इसमें दो राय नहीं कि आतंक का कारखाना कहा जाने वाला हमारा पड़ोसी पाकिस्तान खुद भी आतंक का बड़ा भुक्तभोगी रहा है। धार्मिक कट्टरता की बुनियाद पर खड़े इस मुल्क में ऐसा कोई दिन नहीं गुजऱता जब वहां आतंकी हमलों में पांच-दस बेगुनाह नहीं मारे जाते। बावज़ूद इसके भारत-विरोध में अंधे हो चुके उस देश में हालात को बदलने की कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती। वह वैसा देश है जहां आतंकी दहशतगर्दी के पक्ष में खुलेआम सभाएं करते हैं। जहां सेना और सियासत न केवल आतंक का खुला समर्थन करती है, बल्कि आतंकियों को प्रश्रय, प्रशिक्षण और आर्थिक मदद भी मुहैया कराती है। जहां सुविधा के अनुसार आतंकियों का वर्गीकरण होता है - जो पाक का अहित करे वह बुरा आतंकी और जो पड़ोसी भारत सहित दूसरे देशों में अव्यवस्था फैलाए वह अच्छा आतंकी। पाक वह लोकतंत्र है जहां नीति-निर्धारण में आम जनता की कभी कोई भूमिका नहीं रही। वहां की गृह नीति मुल्ले-मौलवी तय करते हैं, अर्थनीति चीन तथा अमेरिका और विदेश नीति सेना तय करती है। आश्चर्य यह है कि उस देश में आम लोगों के बीच से असहमति और प्रतिरोध की कभी कोई गंभीर आवाज़ नहीं उठी। आज हालत यह है कि दुनिया के तमाम देश या तो पाक से नफरत करते हैं या अपने हितों के लिए उसका इस्तेमाल। चीन आज उसके साथ खड़ा ज़रूर दिखता है, लेकिन उसकी दिलचस्पी इस मरते देश की खाल तक नोच लेने भर में है।
दुनिया के इस भूभाग में आतंक की समस्या को अगर सुलझना है तो यह पाकिस्तान और आतंक के भुक्तभोगी उसके हमसाया मुल्क़ों - भारत और अफगानिस्तान के आपसी सहयोग से ही सुलझेगा। दुखद यह है कि ऐसी कोई संभावना दूर तक नजऱ नहीं आती। आज अपने ही अंतर्विरोधों, आतंक और अर्थसंकट की वज़ह से वह देश नष्ट होने के कगार पर खड़ा है। अपने देश की मीडिया के एक बड़े हिस्से में पाक की बर्बादी का जश्न चल रहा है। क्या सचमुच हमें पाकिस्तान की बर्बादी से ख़ुश होना चाहिए ? बिल्कुल नहीं। पाकिस्तान अगर मरेगा तो उसके साथ थोड़ा-थोड़ा भारत भी ज़रूर मरेगा ! आखिर कल तक तो वह हमारे अपने वज़ूद का ही हिस्सा रहा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह ठीक है कि अमेरिका, चीन और कुछ यूरोपीय राष्ट्र आर्थिक क्षेत्र में भारत से आगे हैं, लेकिन इस वक्त दुनिया में किसी एक राष्ट्र का डंका सबसे ज्यादा जोर से बज रहा है तो वह भारत है। दुनिया के 15 देशों में भारतीय मूल के नागरिक या तो वहां के सर्वोच्च पदों पर हैं या उनके बिल्कुल निकट हैं। या तो वे उन देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हैं या सर्वोच्च न्यायाधीश हैं या सर्वोच्च नौकरशाह हैं या उच्चपदस्थ मंत्री आदि हैं। पांच राष्ट्रों के शासनाध्यक्ष भारतीय मूल के हैं। तीन उप-शासनाध्यक्ष, 59 केंद्रीय मंत्री, 76 सांसद और विधायक, 10 राजदूत, 4 सर्वोच्च न्यायाधीश, 4 सर्वोच्च बैंक प्रमुख और दो महावाणिज्य दूत भारतीय मूल के हैं। इनमें दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों को नहीं जोड़ा गया है। यदि उन सबको भी जोड़ लिया जाए तो उक्त 200 की संख्या दुगुनी-तिगुनी हो सकती है। ये सब राष्ट्र भी सदियों से भारत के अंग रहे हैं और भारत उनका अंग रहा है। आप बताएं कि क्या आपके भारत-जैसा कोई अन्य राष्ट्र सारी दुनिया में दिखाई पड़ता है? अब तो संयुक्तराष्ट्र संघ के विभिन्न संगठनों में भी दर्जनों महत्वपूर्ण पदों पर भारतीय लोग विराजमान हैं।
इस समय लगभग साढ़े तीन करोड़ भारतीय मूल के नागरिक दुनिया में दनदना रहे हैं। जिन-जिन देशों में वे गए हैं, वहां उनकी हैसियत क्या है? वे कभी गए थे वहां मजदूरी, शिक्षा और रोजगार वगैरह की तलाश में लेकिन वे अब उन देशों की रीढ़ बन गए हैं। आज यदि ये साढ़े तीन करोड़ भारतीय अचानक भारत लौट आने का फैसला कर लें तो अमेरिका-जैसे कई संपन्न देशों की अर्थ-व्यवस्था घुटनों के बल रेंगने लगेगी। इस समय भारतीय लोग अमेरिका के सबसे संपन्न, सबसे सुशिक्षित और सबसे सुसंस्कृत लोग माने जाते हैं। अमेरिका सहित कई देशों में भारतीय लोग ज्ञान-विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थानों पर प्रतिष्ठित हैं। उनकी जीवन-शैली और संस्कृति वहां किसी योजनाबद्ध प्रचारतंत्र के बिना ही लोकप्रिय होती चली जा रही है। भारत एक अघोषित विश्व-गुरू बन गया है। भारतीयता का प्रचार करने के लिए उसे तोप, तलवार, बंदूक और लालच का सहारा नहीं लेना पड़ रहा है। विदेशों में बसे भारतीय अपने मूल देश की अर्थ-व्यवस्था को मजबूत बनाने में तो भरसक योगदान करते ही हैं, वे लोग भारतीय विदेश नीति के क्षेत्र में भी हमारे बहुत बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। कभी-कभी भारत के आंतरिक मामलों पर उनका बोल पडऩा हमें आपत्तिजनक लग जाता है लेकिन उनके लिए वह स्वाभाविक है। इसका हमें ज्यादा बुरा नहीं मानना चाहिए। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि भारत को ऐसा बनाएं कि यहां से प्रतिभा-पलायन कम से कम हो।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अक्षित संगोमला
विरोध की आवाजों का दमन करने के लिए सरकार की गैर-कानूनी नीतियों को लेकर भी चिंता बढ़ गई है
21 वर्षीय जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ़्तारी में टेक्नोलॉजी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी गूगल की भूमिका को लेकर इंटरनेट पर जमकर चर्चा हो रही है, खासतौर से माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर।
इन चर्चाओं में इस बात को लेकर भी चिंता जाहिर की जा रही है कि सरकार अपने विरोध में उठने वाली आवाजों का दमन करने के लिए गैर-कानूनी तरीके अपना रही है।
रटगर्स विश्वविद्यालय की मीडिया, कल्चर व फेमिनिस्ट स्टडीज की पत्रकार और अध्यक्ष नाओमी क्लेन ने ट्विटर पर लिखा, "दिल्ली पुलिस ने 21 साल की जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार किया कि उसने किसानों का समर्थन करती हुई एक हितकारी टूलकिट में बेहद मामूली बदलाव किए, जिसके लिए पुलिस का अजीब दावा है कि ये किसी गुप्त आतंकी षड़यंत्र का हिस्सा है। संभव है कि दिशा को निशाना बनाने में गूगल ने पुलिस की मदद की होगी।"
इसी ट्वीट के आगे क्लेन ने एएनआई के 15 फरवरी के ट्वीट को कोट किया, जिसमें टूलकिट दस्तावेज से जुड़े दिल्ली पुलिस के सवालों पर गूगल ने जवाब दिए थे।
रवि को दिल्ली पुलिस ने राजद्रोह और आपराधिक षड़यंत्र रचने के आरोप में 13 फरवरी को गिरफ्तार किया था। उन्हें 5 दिन की न्यायिक हिरासत में भेजा गया है।
दिल्ली पुलिस का कहना है की दिशा रवि ने नए कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आंदोलन के बारे में टूलकिट प्लान की, उसमें बदलाव किए और स्वीडन की जलवायु कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के साथ उन्हें शेयर किया।
किसान आंदोलन लगभग तीन महीनों से चल रहा है और इसे हाल ही में गायिका रिहाना और थनबर्ग जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लोगों का समर्थन मिला है।
भारत के कानूनी शोधकर्ता रवि की गिरफ्तारी को लेकर चिंतित हैं, खासतौर से तब जब इस गिरफ्तारी में गूगल और ट्विटर जैसी दिग्गज टेक्नोलॉजी कंपनियां शामिल हैं।
नाम जाहिर न करने की शर्त पर एक कानूनी शोधकर्ता ने बताया कि,"जानकारी का इस तरीके से उपयोग, जहां मध्यस्थ कंपनी (इस मामले में गूगल) से अपने उपयोगकर्ताओं का डाटा शेयर करने को कहा जा सकता है, इसे सूचना व तकनीक कानून के प्रावधानों व आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत नियंत्रित किया जाता है। इनमें से हर एक प्रावधान कानूनी संरक्षण के साथ आते हैं। उदाहरण के तौर पर इसमें डाटा लेने के लिए लिखित में निवेदन देना होता है।"
कठोर शब्द
रवि पर लगाए गए दिल्ली पुलिस के आरोप काफी गंभीर हैं। 4 फरवरी को टूलकिट दस्तावेज का संज्ञान लेते हुए दिल्ली पुलिस ने ट्वीट किया था: "इसका उद्देश्य आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय युद्ध को शुरू करना था।"
4 फरवरी को किसान आंदोलन के समर्थन में ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट करने के बाद दिल्ली पुलिस ने टूलकिट दस्तावेज बनाने वालों के खिलाफ मामला दर्ज किया।
दिशा रवि की गिरफ्तारी के एक दिन बाद, 14 फरवरी को, पुलिस विभाग ने एक ट्वीट करके कहा कि, "रवि ने एक व्हाट्सऐप ग्रुप शुरू किया और टूलकिट दस्तावेज बनाने में सहयोग किया। उन्होंने दस्तावेज बनाने वालों के साथ करीबी से काम किया।"
दिल्ली पुलिस ने यह भी आरोप लगाया कि टूलकिट बनाने वाले लोगों ने "भारत के खिलाफ असंतोष फैलाने के लिए खालिस्तान समर्थक पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन के साथ मिलकर काम किया।"
दिशा ने 14 फरवरी को पटियाला हाउस कोर्ट में दावा किया कि उन्होंने दस्तावेज कि कुछ लाइन में ही बदलाव किया था। इसके जवाब में दिल्ली पुलिस ने कहा कि उन्होंने जो किया, वो एक नहीं कई बार किया गया था।
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शोधकर्ता ने इशारा किया कि ट्विटर और गूगल जैसी ऑनलाइन कंपनियों की जिम्मेदारी है कि वे सिर्फ सूचना के उपयोग के लिए कानूनी अनुरोधों का पालन करें।
"इसका परिणाम यह होना चाहिए कि सरकार द्वारा किए गए ऐसे अनुरोध, जिसमें उपयोगकर्ताओं की सूचना को गैर-कानूनी ढंग से हासिल किया जाना हो, उन्हें यह कंपनियां खुद नकार दें, जैसा कि अमेरिकी सरकार के बारे में स्नोडेन लीक्स ने खुलासा किया था।
शोधकर्ता ने अमेरिका स्थित गैर लाभकारी संस्था इलेक्ट्रॉनिक फ्रीडम फ्रंटियर (ईईएफ) की रिपोर्ट 'हू हैस योर बैक' का उदाहरण दिया। यह संस्था डिजिटल प्राइवेसी, बोलने की आजादी और नवोन्मेष से जुड़े मसलों पर काम करती है।
यह रिपोर्ट यह आकलन करती है कि क्या कंपनियों में ऐसी कोई सार्वजनिक नीति है जिसके तहत सूचना प्राप्त करने के लिए कानूनी अनुरोध किया जाना ज़रूरी है और वे अपने उपयोगकर्ताओं के साथ धोखा नहीं कर रही हैं।
भारतीय सन्दर्भ में भी इन कंपनियों को अनुपालन और सार्वजनिक दायित्व के उसी स्तर का प्रदर्शन करना चाहिए।
हाल ही में ट्विटर की आलोचना की गई थी, जब उसने किसान आंदोलन से जुड़े 500 ट्विटर हैंडल डीएक्टिवेट कर दिए थे।
शोधकर्ता ने ट्विटर जैसे अन्य प्लेटफॉर्म्स को दोष देते हुए कहा कि इन प्लेटफॉर्म्स ने पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और छात्रों की ट्रोलिंग और उत्पीड़न रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए, जिसके चलते लोग खुद ही अपनी सूचना को सेंसर करने लगे हैं।
खतरे में आंदोलन
रवि की गिरफ़्तारी से देश में जलवायु न्याय आंदोलन को भी नुकसान पहुंच सकता है। दिशा रवि, थनबर्ग द्वारा शुरू किए गए वैश्विक जलवायु न्याय आंदोलन फ्राइडे फॉर फ्यूचर, इंडिया के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और उसकी अध्यक्ष भी हैं।
स्वीडन से शुरू हुआ यह आंदोलन 215 देशों के 7800 शहरों में फैल गया है और इससे 1.4 करोड़ लोग जुड़े हैं।
फ्राइडे फॉर फ्यूचर, इंडिया की वेबसाइट के मुताबिक, "मौजूदा जलवायु संकट और पारिस्थितिकी संकट पर ध्यान देने की हमारी मांगों से केंद्रीय और राज्य की सरकारों को अवगत करने के लिए क्लाइमेट स्ट्राइक हमारा शांतिपूर्ण, अहिंसक तरीका है।"
संस्था का दावा है कि दुनियाभर में अब तक 78,000 स्ट्राइक कार्यक्रम आयोजित किए जा चुके हैं। खुद रवि ने भारत में ऐसी कई स्ट्राइक में हिस्सा लिया है और वे अपने गृहनगर बेंगलुरु में अन्य पर्यावरण सम्बन्धी समूहों में भी सक्रिय हैं।
स्थानीय आवाजें
रवि की गिरफ्तारी के खिलाफ मणिपुर से नौ वर्षीया जलवायु कार्यकर्ता लिसीप्रिया कांगुजम ने गहरी आपत्ति दर्ज कराई है। उन्होंने कहा कि रवि की गिरफ़्तारी देश की बच्चियों और महिलाओं की आवाज दबाने की एक कोशिश है। उन्होंने यह भी कहा कि वे पृथ्वी के लिए अपनी लड़ाई से नहीं हटेंगी।
प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (पीटीआई) के मुताबिक, नोएडा स्थित सोशल एक्शन फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट के संस्थापक विक्रांत तोंगड़ ने कहा कि, यह गिरफ़्तारी जलवायु कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ने का काम करेगी।
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संस्था की सचिव कविता कृष्णन ने कहा कि, "हमारा देश फिलहाल लोकतंत्र की तरह काम नहीं कर रहा है। अगर हम विरोध प्रदर्शन को षड़यंत्र रचने की नज़र से देख रहे हैं तो यह लोकतंत्र नहीं है।"
पीटीआई के मुताबिक, कोएलिशन फॉर एनवायरनमेंट जस्टिस इन इंडिया के बैनर तले देश के 50 से भी ज्यादा शिक्षाविदों, कलाकारों और कार्यकर्ताओं ने संयुक्त बयान देते हुए दिशा रवि के समर्थन में आवाज़ उठाई है और उनकी गिरफ्तारी को निराशाजनक, गैर-कानूनी और केंद्र सरकार की तरफ से अनावश्यक प्रतिक्रिया बताया है।
बयान में यह भी कहा गया है कि केंद्र सरकार कि नीतियां विभाजनकारी हैं, जिससे "लोगों का असली मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सके।" (downtoearth.org.in)
रूस में बीते कुछ समय से विरोध प्रदर्शन खूब हो रहे हैं। नावाल्नी तो इन प्रदर्शनों का चेहरा और एक वजह हैं लेकिन देश में बढ़ती गरीबी और आय का संकट भी लोगों को इसके लिए मजबूर कर रही है।
कोरोना वायरस की महामारी शुरू होने के बाद से ही मॉस्को के मार्था एंड मैरी कॉन्वेंट में लोगों की भीड़ बढ़ गई है। सफेद दीवारों वाली इस मोनेस्ट्री में कई समाजसेवी संस्थाओं के केंद्र हैं। ये संस्थाएं दूसरे कार्यक्रमों के अलावा यहां लोगों को मुफ्त में खाने के पैकेट बांटती हैं।
मिलोसेर्डी नाम की संस्था में समाज सेवा करने वाली येलेना तिमोश्चुक बताती हैं, ‘महामारी से पहले हमारे यहां हर रोज 30-40 लोग आते थे। अब 50-60 लोग आने लगे हैं, काम बहुत ज्यादा बढ़ गया है।’ तिमोश्चुक की टेबल पर सूरजमुखी के तेल के ढेर सारे पैकेट रखे हैं।
कतार में खड़े हो कर कूटू, चीनी, चाय और दूसरी चीजें लेने आने वाले लोगों में ज्यादातर रिटायर लोग हैं। हालांकि इनके साथ ही उनमें ऐसे भी लोग शामिल हो रहे हैं जिनकी या तो नौकरी चली गई है या फिर जिनका वेतन काटा गया है।
कोरोना वायरस की महामारी ने रूस की खराब अर्थव्यवस्था का और बुरा हाल कर दिया है। पश्चिमी देशों के प्रतिबंध, तेल की घटती कीमतें और कमजोर कारोबारी निवेश के चलते हालात और बिगड़ते जा रहे हैं। विशेलेषकों का कहना है कि बढ़ती गरीबी, घटती कमाई और महामारी के दौर में पर्याप्त सरकारी सहयोग के अभाव में राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के लिए समर्थन घट रहा है। प्रचंड बहुमत के साथ दो दशकों से रूस की सत्ता पर पुतिन काबिज हैं लेकिन अब उनके विरोधी मजबूत हो रहे हैं।
जेल में बंद पुतिन के प्रमुख विरोध की एक पुकार पर बीते कुछ हफ्तों हजारों की संख्या में लोग रूस में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। सितंबर में होने वाले संसदीय चुनाव से पहले नावाल्नी की टीम और ज्यादा प्रदर्शनों की योजना बना रही है।
रूस में लोगों के पास मौजूद मुद्रा बीते करीब आधे दशक में 3.5 फीसदी सिकुड़ चुकी है। इसी बीच खाने पीने की चीजों के दाम बहुत बढ़ गए हैं। गिरते जीवन स्तर से लोगों के बढ़ते गुस्से को भांप कर बीते दिसंबर में राष्ट्रपति पुतिन ने मंत्रियों को कीमतों की वृद्धि रोकने के लिए आपातकालीन उपाय करने के आदेश दिए। इसके बावजूद जनवरी में चीनी की कीमत एक साल पहले की तुलना में करीब 64 फीसदी ज्यादा थी। 66 साल की सांड्रा ने बताया कि उन्होंने सुपरमार्केट जाना छोड़ दिया है और इसकी बजाय मुफ्त में बंटने वाला खाना लेने समाजसेवी संगठनों के पास जा रही हैं। पेंशन पर गुजारा करने वाली सांड्रा का कहना है, ‘आप कुछ नहीं खरीद सकते। पहले तो मैं चिडिय़ों को भी दाना डाल देती थी लेकिन अब तो अनाज खरीदना भी मुश्किल हो गया है।’
एफबीके ग्रांट थॉर्नटन में स्ट्रैटजिक एनालिसिस के प्रमुख इगोर निकोलायेव कहते हैं, ‘राजनीतिक नतीजों के लिहाज से मौजूदा स्थिति अच्छी नहीं लग रही है। अधिकारियों के लिए जोखिम बढ़ गया है।’ निकोलायेव का कहना है कि बुजुर्ग रूसी खास तौर से बढ़ती (बाकी पेज 8 पर)
कीमतों को लेकर बहुत ‘संवेदनशील’ हैं। इन लोगों ने महंगाई का वो दौर देखा है जिसके बाद 1991 में सोवियत संघ का विघटना हुआ। निकोलायेव मानते हैं कि लोगों की नाराजगी को देखते हुए रूसी सरकार संसदीय चुनावों से पहले कोई नया आर्थिक पैकेज ले कर आ सकती है।
हाल ही में एक स्वतंत्र एजेंसी लेवाडा सेंटर के कराए सर्वे में 43 फीसदी रूसियों ने इस बात से इनकार नहीं किया कि मौजूदा विरोध-प्रदर्शनों को आर्थिक मांगों की वजह से प्रेरणा मिल रही है। इससे पहले यह स्तर 1998 में दिखा था। सर्वे में यह भी पता चला कि जवाब देने वालों में 17 फीसदी लोग खुद प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए तैयार थे।
लेवाडा के उपनिदेशक डेनिस वोल्कोव का कहना है कि हाल में हुए प्रदर्शन ये दिखाते हैं कि अधिकारियों के प्रति लोगों में गुस्सा केवल हाशिए पर खड़े विपक्षियों में ही नहीं बल्कि बहुत सारे प्रदर्शनकारी आर्थिक मुश्किलों की वजह से बाहर आ रहे हैं।
फोब्र्स पत्रिका के रूसी संस्करण में वोल्कोव ने लिखा है, ‘अधिकारियों के पास उन लोगों को देने के लिए कुछ नहीं है जो नीतियों से नाखुश हैं।’ इसके साथ ही उन्होंने रूसी रईसों की बढ़ती संपत्ति और समाज में बढ़ते विभाजन की ओर भी इशारा किया है।
नावाल्नी के समर्थन में होने वाली व्लादीवोस्तोक के पैसिफिक पोर्ट की रैली में शामिल येकातेरिना निकिफोरोवा ने कहा कि देश ठहरा हुआ है। राजनीति शास्त्र की इस छात्रा ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा कि उन्हें किसी तरह के आर्थिक मौके या राजनीतिक विकास नजर नहीं आता। 22 साल के आर्सेनी दमित्रियेव सेंट पीटर्सबर्ग की रैली में शामिल हुए और उनकी भी यही राय है। समाज शास्त्र के इस छात्र ने कहा, ‘आंकड़ों को देख कर मैं समझ गया हूं कि हाथ में आने वाला आय घटती जा रही है और जीवन के स्तर में सुधार नहीं हो रहा है।’ एनआर/आईबी (एएफपी)
-विजय शंकर सिंह
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने 21 वर्षीय जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी का कारण बने ‘टूलकिट’ के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘मैं देख रहा हूं कि हिंसा के संबंध में टूलकिट में कुछ भी नहीं है या लोगों को उकसाने के संबंध में कुछ भी नहीं है। मैं नहीं देख पा रहा कि इस दस्तावेज में क्या देशद्रोह है। कोई प्रदर्शनकारियों के साथ सहमत हो सकता है या नहीं, यह एक अलग मामला है। लेकिन यह कहना कि यह देशद्रोह है, कानून में पूरी तरह से समझ में नहीं आ रहा है।’
न्यायमूर्ति गुप्ता ने 1962 केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले का उल्लेख किया, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ्र की संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखा गया था, और कहा था कि राजद्रोह केवल तभी हो सकता है जब हिंसा के लिए उकसाया गया हो या सार्वजनिक अव्यवस्था हुई हो, जो तात्कालिक मामले में अनुपस्थित थी।
जस्टिस दीपक गुप्त ने कहा,
‘राजद्रोह कानून को साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी शासक, ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा लागू गया था, जो भारत पर शासन करना चाहते थे। उस समय भी, कानून ने देशद्रोह को आजीवन कारावास के साथ दंडनीय एक गंभीर अपराध बना दिया। मैं उम्मीद कर रहा था कि हमारे अनुभवों के साथ जिस तरह बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी को देशद्रोह के आरोप में सलाखों के पीछे भेजा गया था, हम इस कानून को रद्द कर देंगे या कम से कम इस खंड को हल्का कर देंगे। लेकिन दुर्भाग्य से, इस कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है। असहमति पर अंकुश लगाने के लिए देशद्रोही कानून का दुरुपयोग हो रहा है।’
क्या दिशा रवि को न्यायिक हिरासत में भेजने के दौरान न्यायिक विवेक का आवेदन किया गया था ?
इस पर उनका कहना है कि ‘मैंने कई मामलों को देखा है, जहां लगता है कि वह भूल गए हैं कि जेल नहीं जमानत नियम है। इस स्तर पर, वे दस्तावेजों को भी नहीं पढ़ते। वे बस देखते हैं कि पुलिस उनसे क्या मांगती है। मुझे पता है कि इस स्तर पर एक विस्तृत जांच की आवश्यकता नहीं है, लेकिन कम से कम उन्हें अपना विवेक लगाना चाहिए। पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नहीं पढ़ा होगा, लेकिन न्यायाधीश से अपेक्षा की जाती है कि वह कम से कम इसे पढ़ें।’
वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा ने जस्टिस दीपक गुप्त की बातो से सहमति जताते हुए कहा कि,
‘ राजद्रोह का इस्तेमाल टोपी के गिरने पर ही किया जा रहा है।’
मामले की खूबियों में न जाते हुए, लूथरा ने कहा कि बेंगलुरु में मजिस्ट्रेट के सामने पेश ना कर रवि को दिल्ली लाने के साथ-साथ संवैधानिक मापदंडों की जांच करने की आवश्यकता होगी जैसे कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 के तहत वकील तक पहुंच का अधिकार आदि।
सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने कहा कि ‘राज्य असहमति के लिए बहुत असहिष्णु हो गया है।’
विकास सिंह ने आगे कहा, ‘हमारे पास स्वतंत्र भाषण का अधिकार है जिसे सीधे प्रेस को प्रदान नहीं किया जा रहा है जैसा कि अमेरिका में किया गया है। यहां यह केवल भारत के नागरिकों को दिया जाता है। यह कुछ को फिर से रीट्वीट करने के लिए जाता है।’
एक अन्य वरिष्ठ वकील रेबेका एम जॉन ने भी इस पर वजन दिया और टिप्पणी की कि ‘कहानी को तथ्य को अलग करने की आवश्यकता है।
आगे रेबेका जॉन का कहना है, ‘मैं निम्नलिखित कारणों से इस [दिशा रवि की गिरफ्तारी] की आलोचक हूं। मैं सप्ताहांत में गिरफ्तारी और पेश करने का विरोध करती हूं। दिल्ली पुलिस सोमवार की गिरफ्तारी और मंगलवार को पेश करने का इंतजार कर सकती थी। रविवार को एक आरोपी व्यक्ति को पेश करके, आप मूल रूप से यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि उसके कानूनी अधिकारों से छेड़छाड़ की जाए क्योंकि वकीलों के लिए उपस्थित होना बहुत मुश्किल है। अधिकांश वकीलों को यह भी पता नहीं होता कि उनके मुव्वकिल को अदालत में पेश किया जा रहा है।’
रेबेका जॉन ने ‘ चूहे और बिल्ली के खेल’ पर एक प्रकाश डाला, जो दिल्ली पुलिस और बचाव पक्ष के बीच होता है, जिसमें पेश करने से संबंधित समय और स्थान के बारे में भी नहीं बताया जाता है। इसी के चलते, रवि की पसंद का वकील उपस्थित नहीं हो सका और यह उसके अधिकारों का एक गंभीर उल्लंघन था।
वकील डॉ अभिनव चंद्रचूड़, जो पैनल का एक हिस्सा भी थे, ने 1832 से पहले अंग्रेजी कानून के अनुरूप राजद्रोह के अपराध को लाने पर एक बयान दिया जिसमें अपराध को केवल एक साधारण अपराध के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
( यह अंश लाइव लॉ से लिया गया है )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देशद्रोह और अशांति भडक़ाने के आरोप में दिल्ली की पुलिस ने तीन लोगों पर अपना शिकंजा कस लिया है। बेंगलुरु की सामाजिक कार्यकर्ता युवती दिशा रवि को गिरफ्तार कर ही लिया गया है और निकिता जेकब और शांतनु को भी वह जल्दी पकडऩे की फिराक में है। इन तीनों पर आरोप है कि इन्होंने मिलकर षडय़ंत्र किया और भारत में चल रहे किसान आंदोलन को भडक़ाया। इतना ही नहीं, इन्होंने स्वीडी नेता ग्रेटा टुनबर्ग के भारत-विरोधी संदेश को इंटरनेट पर फैलाकर 26 जनवरी के लालकिला झंडाकांड को भी भडक़ाया।
पुलिस ने काफी खोज-पड़ताल करके कहा है कि कनाडा के एक खालिस्तानी संगठन ‘पोइटिक जस्टिस फाउंडेशन’ के साथ मिलकर इन लोगों ने यह भारत-विरोधी षडय़ंत्र किया है। इस आरोप को सिद्ध करने के लिए पुलिस ने इन तीनों के बीच फोन पर हुई बातचीत, पारस्परिक संदेश तथा कई अन्य दस्तावेज खोज लिये हैं। यदि पुलिस के पास ठोस प्रमाण होंगे तो निश्चय ही यह माना जाएगा कि यह अत्यंत आपत्तिजनक और दंडनीय घटना है। अदालत तय करेगी कि इन अपराधियों को कितनी सजा मिलेगी। इसमें तो कुछ समय लगेगा लेकिन इस घटना ने भारत के सत्तारुढ़ और विरोधी दलों के बीच भारत-पाकिस्तान मचा दिया है।
वे एक-दूसरे के खिलाफ इतने कटु और हास्यास्पद बयान जारी कर रहे हैं कि मुझे आश्चर्य होता है। भाजपा के लोग कह रहे हैं कि ये तीनों देशद्रोही हैं। इन्हें कठोरतम सजा मिलनी चाहिए। ये देश के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। इन्हीं की वजह से लाल किले का अपमान हुआ और 500 पुलिसवाले घायल हुए। इधर कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और शिव सेना के नेता इन लोगों के उस काम को बाल-बुद्धि का व्यतिक्रम बता रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा और सरकार अब तानाशाह हो गई है और वह अभिव्यक्ति का गला घोटने पर उतारू हो गई है। पक्ष और विपक्ष की ये दोनों मत अतिवाद के द्योतक हैं। ऐसा लगता है कि उनका लक्ष्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है बल्कि एक-दूसरे की टांग खींचना है। क्या भारत कांच का ढक्कन है, जो इन संदेशों से टूट जाएगा? जहां तक ट्विटर पर उटपटांग संदेशों का सवाल है, उन पर नियंत्रण जरूरी है, जैसे कि यह संदेश कि ‘मोदी किसानों का हत्यारा है’ लेकिन यह भी सत्य है कि इस तरह के मूर्खतापूर्ण संदेश तो अपनी मौत खुद मर जाते हैं। उनके लिए नेता लोग एक-दूसरे के साथ ल_बाजी करें, यह जऱा अटपटा-सा लगता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कल राज्यसभा में साफ शब्दों में कहा है कि सरकार कीमत पर काबू करने के लिए कुछ नहीं कर सकती है, अब एक बार आप पिछली यूपीए सरकार के समय में कच्चे तेल के दामों से आज के दामों की तुलना कीजिए।
आज कच्चा तेल ब्रेंट क्रूड 63.57 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है और दिल्ली में पेट्रोल के रेट 89 रुपये प्रति लीटर है। अब जरा यूपीए के दौर पर नजर डालिए, यूपीए के दूसरे कार्यकाल में 2009 से लेकर मई 2014 तक क्रूड की कीमत 70 से लेकर 110 डॉलर प्रति बैरल तक थी। जबकि इस बीच पेट्रोल की कीमत 55 से 80 रुपये के बीच झूलती रही।
साल 2014 की शुरुआत में ब्रेंट क्रूड ऑयल की कीमत 115 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी तब पेट्रोल की कीमत 82 रु. प्रति लीटर थी और देश में हाहाकार मच गया था।
यानी कच्चे तेल की कीमत तब भी आज से लगभग दुगुनी थी लेकिन इसके बावजूद पेट्रोल की कीमत 82 रु लीटर थी लेकिन जब आज 2014 की तुलना में कच्चे तेल की कीमत लगभग आधी है तो पेट्रोल की कीमत 89 रु लीटर है।
मई 2014 में सत्ता में आने से पहले भाजपा अंतरराष्ट्रीय कीमतों के अनुपात में तेल की कीमतों में हो रही बढ़ोत्तरी को लेकर यूपीए सरकार के खिलाफ सख्त रुख अपनाए हुए थी, मोदी जी लगातार अपनी चुनावी रैली में ईंधन की बढ़ती कीमतों को लेकर यूपीए की कड़ी आलोचना कर रहे थे, बीजेपी के बड़े-बड़े नेता संसद के सामने पेट्रोल-डीजल ओर गैस सिलेंडर की महंगी कीमतों के खिलाफ नाच नाचकर प्रदर्शन करते थे।
मई 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार बनाई कुछ दिनों में फिर कच्चे तेल का बाज़ार पलटने लगा। जनवरी 2016 तक कच्चे तेल के दाम 34 डॉलर प्रति बैरल तक लुढक़ गए। मोदी सरकार ने कच्चे तेल की गिरावट की रैली का खूब फायदा उठाया। इस दौरान, पेट्रोल-डीजल पर 9 बार उत्पाद कर (एक्साईज ड्यूटी) बढ़ाया गया। नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच पेट्रोल पर ये बढ़ोत्तरी 11 रुपये 77 पैसे और डीजल पर 13 रुपये 47 पैसे थे पेट्रोलियम उत्पादों की बिक्री की केंद्र सरकार को मिलने वाला राजस्व लगभग तीन गुना हो गया
जून 2017 में मोदी सरकार ने एक नया फार्मूला लागू किया अब कहा गया कि अंतरराष्ट्रीय तेल की कीमतों में रोज बदलाव के तर्क के आधार पर पेट्रोल-डीजल के दाम बदले जाएंगे।...इससे पहले कच्चे तेल के 15 दिनों के औसत मूल्यों के आधार पर पेट्रोल डीजल के दाम तय किये जाते थे लेकिन इस निर्णय के बाद से यह कहा कि यदि क्रूड गिरेगा तो कीमत घटेगी और बढ़ेगा तो बढ़ेगी!..
लेकिन पिछले 4 सालों का इतिहास गवाह हैं कि देश की जनता को एक बार भी कच्चे तेल की गिरी हुई कीमत से उपलब्ध लाभ लेने नही दिया गया बल्कि हर बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ा कर खजाना भरा गया, कोरोना काल की शुरुआत में तो अंतरराष्ट्रीय मार्केट में कच्चे तेल यानी ब्रेंट क्रूड की कीमत 14।25 डॉलर प्रति बैरल गिर गयी तब भी किसी तरह का लाभ भारत की जनता को नहीं दिया गया। आज भी यदि मोदी जी चाहे तो एक झटके में पेट्रोल डीजल के दाम आधे से भी कम कर सकते है, क्योंकि उन्होंने 2015 से कच्चे तेल की कीमतों में आई कमी से खूब फायदा उठाया है और सरकारी खजाना एक्साइज ड्यूटी बढ़ा बढ़ा कर भरा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के ऐसे अकेले राष्ट्रपति बन गए, जिन पर अमेरिकी संसद ने दो बार महाभियोग का मुकदमा चलाया और वे दोनों बार बरी हो गए। वे ऐसे पहले राष्ट्रपति हैं, जिन पर पद छोडऩे के बाद भी महाभियोग चलाया गया। यदि यह महाभियोग सफल हो जाता तो वे दुबारा चुनाव नहीं लड़ पाते, उनकी पेंशन तथा अन्य सुविधाएं भी बंद हो जातीं लेकिन वे जीत गए अर्थात अमेरिकी संसद में उनके विरोधी डेमोक्रेटस उन्हें हराने लायक वोट नहीं खींच पाए।
यदि अमेरिकन सीनेट के 100 सदस्यों में से दो-तिहाई याने 67 सदस्य उनके विरुद्ध वोट दे देते तो वे हार जाते लेकिन 67 की बजाय 57 वोट ही उनके विरुद्ध पड़े। 10 वोट कम पड़ गए। सीनेट में डेमोक्रेटिक और उनकी रिपब्लिकन पार्टी के 50-50 सदस्य हैं। उनकी पार्टी के सिर्फ 7 सदस्यों ने ही उनके खिलाफ वोट दिए। सीनेट में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के नेता मेककानेल ने भी ट्रंप के पक्ष में वोट दिया लेकिन अपना भाषण उन्होंने ट्रंप के विरुद्ध दिया।
वे शुरु से ही ट्रंप के विरुद्ध बोलते रहे हैं। मेककानेल ने 6 जनवरी को अमेरिकी संसद पर हुए भीड़ के हमले के लिए ट्रंप को ही जिम्मेदार ठहराया।
उन्होंने कहा कि ट्रंप ने ही उस भीड़ को भडक़ाया था, जो संसद भवन में घुसकर तोड़-फोड़ कर रही थी और जिसने उप-राष्ट्रपति पर जानलेवा हमला कर दिया था। यह सब हारे हुए ट्रंप के खिसियाने पर ही हुआ था। मेककॉनेल के इस पैंतरे की खास वजह यह हो सकती है कि वे ट्रंप की जगह लेना चाहते हों। वे ट्रंप के विरुद्ध जरूर बोले लेकिन वे पार्टी की बहुसंख्या का साथ देते रहे। अब ट्रंप ने दुबारा सक्रिय होने की घोषणा कर दी है।
‘अमेरिका महान’ का नारा बुलंद करके वे फिर से राष्ट्रपति बनने की कोशिश करेंगे। यों भी उन्हें साढ़े सात करोड़ वोट मिले थे। दुनिया भर में उनके चरित्र, उनके वाणी-विलास और उनके निजी उन्मुक्त आचरण आदि की चाहे भर्त्सना होती रही हो लेकिन अमेरिका के करोड़ों लोग उन्हें राष्ट्रवाद का प्रबल प्रवक्ता मानते हैं। वे रिपब्लिकन पार्टी को अपने कब्जे में फिर से लेने की पूरी कोशिश करेंगे। अगर रिपब्लिकन पार्टी उनके नेतृत्व को रद्द कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे इसे तोड़ दें या एकदम नई पार्टी खड़ी कर लें।
इसके लिए उनके पास पर्याप्त धन भी है और उनके पर्याप्त अंधभक्त भी हैं। ट्रंप की जीत पर राष्ट्रपति जोजफ बाइडन ने काफी संतुलित प्रक्रिक्रया व्यक्त की है। उन्होंने कहा है कि इस महाभियोग से ट्रंप जरूर बच गए हैं लेकिन इस मुकदमे ने हमें यह चेतावनी दी है कि लोकतंत्र की रक्षा का मामला बहुत नाजुक है।
लापरवाही और असंयम के कारण लोकतंत्र का भीड़तंत्र में बदलना आसान हो जाता है। जो बीत गया सो बीत गया। उन्होंने कहा कि अमेरिका के सामने असली और तात्कालिक चुनौती है। कोरोना-कोविड महामारी। इससे पैदा हुई बेरोजगारी, मृत्युएं और सामाजिक तनाव ! लेकिन बाइडन-प्रशासन को डोनाल्ड ट्रंप का सामना करने की भी पूरी तैयारी करनी पड़ेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
साठ बरस हो गए। यह बात तब से मेरे सीने में दफ्न है। समझ ही नहीं पाता था कि इसे उजागर करूं या नहीं करूं। 1960 में मैं रायपुर के साइंस कॉलेज में बीएससी प्रीवियस का विद्यार्थी था। जनरल नॉलेज की एक प्रतियोगिता के लिए हमीदिया कॉलेज भोपाल से निमंत्रण आया था। प्रिंसिपल ने मुझे और एक मेरे वरिष्ठ मित्र एसजे गाॉटलिब को चुना। वे मुझसे उम्र में 10 साल बड़े थे। बीच में पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने गए थे। वहां से फिर आकर पढ़ने लगे थे। बहरहाल हम भोपाल गए। रुकने का प्रबंध हमीदिया कॉलेज के हॉस्टल में ही था। भोपाल में वह हमारे लिए नई जगह थी। गॉटलिब के एक मित्र डॉ हेनरी बिलासपुर के थे। मेडिकल कॉलेज भोपाल में अंतिम वर्ष के विद्यार्थी थे। वे उनके कमरे में ठहरे और उनके बगल के कमरे में एक सिक्ख वरिष्ठ विद्यार्थी थे। उनके कमरे में मुझे ठहरा दिया गया। हम लगभग दो दिन वहां रहे। इसलिए उस अज्ञात मित्र से मित्रता हो गई।
उसके बाद की गर्मी की छुट्टियों में मैं अपने शहर राजनांदगांव से बिलासपुर, कटनी गाड़ियां बदलता हुआ इलाहाबाद के प्लैटफार्म पर पहुंचा। वहां से मुझे कानपुर जाना था। कानपुर में पांच नंबर गुमटी में मेरी बुआ रहती थीं। मेरे उक्त सिक्ख मित्र की बुआ भी पांच नंबर गुमटी में ही रहती थीं। अजीब संयोग था कि वह मित्र मुझे इलाहाबाद के रेलवे प्लैटफार्म पर मिला। हम दोनों बहुत खुश हो गए और एक लंबी सी सीमेंट की बेंच पर बैठ गए जिस पर करीब चार लोग बैठ सकते थे। लगभग बीच में एक अधेड़ बल्कि बुजुर्ग उम्र के बहुत प्रतिभाशाली देखते कुछ मटमैले भूरे से ढीले ढाले कपड़े पहने एक सज्जन बैठे थे। हल्की सी खिचड़ी हो चली दाढ़ी रही थी, बाल लंबे से। हम दोनों को गाड़ी बदलने के पहले खाना भी खाना था। हम दोनों अपने अपने घरों से पूरी सब्जी लाए थे। मैंने बुजुर्गवार से कहा कि थोड़ा सा खिसक जाए ताकि हम लोग बैठकर खाना खा लें। वे खिसक तो गए। दस मिनट बाद ही उठकर धीरे धीरे चले गए।
मैंने देखा गेट पर टिकट चेकर खड़ा था। उसने उन्हें देखते ही झुककर सलाम किया। लगभग पैर ही छुए। दो मिनट बाद मेरे दिमाग की घंटी बजी। रेलवे टिकट चेकर ने ऐसा क्यों किया। यह कौन है। मैं तेज कदमों से रेलवे टिकट चेकर के पास पहुंचा। ये कौन हैं? उन्होंने कहा पहचाना नहीं। यह तो निराला जी हैं। मैं प्लेटफार्म के बाहर बदहवास भागता हुआ दौड़ा। रिक्शा वालों के पास पहुंचा। वे समझे कि कोई ग्राहक है। मैंने कहा मुझे कही नहीं जाना है। अभी-अभी एक बुजुर्ग से सज्जन काफी तंदुरुस्त से यहां आए थे क्या? रिक्शा वालों ने कहा। हां निराला जी थे और हमारा फलांफलां साथी उनको ले गया है। अब तो मेरे पास कोई चारा नहीं था सिवाय इसके कि अपना सिर धुनूं। बहुत भारी कदमों से लौटा।
वर्षों तक सोचता रहा कि यह बात कैसे उजागर करूं। कितनी सच होगी। उनके विवेक पर कैसे भरोसा करूं। कभी इलाहाबाद आना ठीक से हुआ नहीं। अभी अक्टूबर 2019 में आया। आज रेलवे प्लैटफार्म पर हूं, वाराणसी जाने के लिए। अब प्लैटफॉर्म पहचाना नहीं जा रहा है। सीमेंट की वह बेंच यहां अब नहीं है। सब कुछ आधुनिक हो गया । कुछ अरसा पहले हिंदी के कई विद्वान सूर्यनारायण, बसंत त्रिपाठी, सुबोध शुक्ला वगैरह कॉफी हाउस में मुझसे मिलने आए। उनमें निरालाजी के पौत्र विवेक निराला भी थे। तब मैंने उनसे पूछा कि निराला जी तो शायद 1961 में चले गए। 1960 का जो वाकया मैं बता रहा, उस समय उनकी शारीरिक स्थिति क्या इतनी रही होगी कि वे स्टेशन पर आ जाते। उन्होंने कहा कि हां इतने बीमार नहीं थे और लीडर प्रेस स्टेशन के पास ही होने से आने की पूरी संभावना बनती है। तब मैंने हिम्मत की कि अज्ञात टिकट चेकर पर, अज्ञात रिक्शा वाले मित्रों पर भरोसा करके लिख दूं। तब से लेकर आज तक मैं इतना मूर्ख क्यों रहा? मन में कांटा चुभ रहा है। चुभता रहा। चुभता रहेगा। यह अपराध मुझे सालता रहेगा।
-दयानिधि
अध्ययन से अब यह पुष्टि हुई है कि पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) का एक छोटा भाग तंबाकू के धुएं से आता है, इसलिए हवा तंबाकू के धुएं से भी प्रदूषित होती है।
माल्टा विश्वविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग के डॉ. नोएल एक्विलीना और प्रोफेसर इमैनुएल सिनाग्रा के द्वारा एक अध्ययन किया गया है। यह अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि कई जहरीले घटकों के अलावा एयरबोर्न पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) या कण प्रदूषण भी तंबाकू के धुएं से भी प्रदूषित होते हैं।
इस अध्ययन ने शोधकर्ताओं के 30 वर्षों के इंतजार को खत्म किया। 2016 में दुनिया भर में लगभग 6 ट्रिलियन सिगरेटों का उपयोग किया गया था। दुनिया भर में जाने-अंजाने दूसरों द्वारा किया जाने वाला धूम्रपान (सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस)) अकेले सिगरेट पीने से, लगभग 2.2 करोड़ किलोग्राम निकोटीन और लगभग 13.5 करोड़ किलोग्राम पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) हर साल वायुमंडल में मिलता है।
सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) के उपयोग का पर्यावरणीय परिस्थितियों के तहत और कम सांद्रता में इसका पता लगाया जा सकता है। इस उद्देश्य के लिए, ऐतिहासिक रूप से कई अध्ययनों ने परिवेशी सेकेंड हैंड स्मोक के हवा तक पहुंच को दिखाने के लिए एक सबूत (मार्कर) खोजने की कोशिश की। जो 1991 से मुख्य सबूत के रूप में निकोटीन था।
बाद के अध्ययनों ने पुष्टि की है कि निकोटीन विशेष रूप से गैसीय अवस्था में भी पाया जाता है जबकि सेकेंड हैंड स्मोक के कणों की इस अवस्था के संपर्क को अबतक कम करके आंका गया था। अन्य पदार्थों से अलग-अलग समय पर अन्य सेकेंड हैंड स्मोक घटकों के साथ जुड़ता है। इसकी अलग-अलग सतहों पर सोखने की दर अधिक होती है और जब धूम्रपान अधिक नहीं होता है तो यह सतहों पर से आसानी से कम हो जाता है।
इसका मतलब था कि निकोटीन पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) में सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) के सबूत के रूप में पर्याप्त नहीं था। पिछले 3 दशकों में, इसके 16 अलग-अलग निशानों/मार्करों को जानने की कोशिश की गई और इनका परीक्षण किया गया लेकिन सभी आवश्यक मार्कर विशेषताओं को पूरा करने के तरीके में विफल रहे।
2013 में डिवीजन ऑफ कार्डियोलॉजी, क्लिनिकल फार्माकोलॉजी प्रोग्राम ने पाया कि तंबाकू के पत्तों और तंबाकू के धुएं में ट्राईपीरिडीन एल्कलॉइड पाया जाता है। इसकी स्थिरता कम होने के कारण, यह मुख्य रूप से पार्टिकुलेट मैटर में जो कि सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) और तंबाकू के धुएं में इसका पता लगाया जा सकता है। यह माना गया था कि निकोटेलिन को एसएचएस के लिए किए गए पहले परीक्षण की तुलना में वातावरण में इन कणों के अधिक स्थिर होने की आशंका है। यह अध्ययन एनवायर्नमेंटल इंटरनेशनल नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
परीक्षण के नमूने इन कणों के वायुमंडल में स्थिर रहने के सबसे महत्वपूर्ण तथ्य को उजागर करते हैं, इसलिए इनकी गणना की जा सकती है। विज्ञान संकाय द्वारा इसे 2018 में माल्टा विश्वविद्यालय, सुश्रीडा परिसर में मोबाइल एयर क्वालिटी लेबोरेटरी उपकरण का उपयोग करके एकत्र किया गया है। वायुमंडलीय परिस्थितियों को सत्यापित करने के लिए स्थानीय मौसम संबंधी आंकड़ों के साथ इसको जोड़ा गया। वास्तविक समय में निगरानी किए गए एक समूह का उपयोग किया गया था, जिसके नमूना लेने के दौरान यह फिल्टर पर निकोटेलिन की स्थिरता को प्रभावित कर सकता है।
अध्ययन से पता चला है कि:
सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) में निकोटेलीन को तंबाकू के धुएं से बनने वाले पार्टिकुलेट मैटर पाए गए हैं
यह कम सांद्रता और जनसंख्या घनत्व और तंबाकू के उपयोग के अनुसार अपनी उपस्थिति दिखाता है
एयरबोर्न पार्टिकुलेट मैटर में तंबाकू के धुएं के कण का औसत भार 0.06 फीसदी है।
2010 में, वैश्विक मृत्यु दर के लगभग 1 फीसदी के लिए सेकेंड हैंड स्मोक (एसएचएस) के खतरे को जिम्मेदार ठहराया गया था। 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में श्वसन संबंधी संक्रमण, वयस्कों में इस्केमिक हृदय रोग और वयस्कों और बच्चों में अस्थमा से संकेत मिलता है कि एसएचएस के संपर्क से कई तरह के खतरे हो सकते हैं।
हालांकि एयरबोर्न पीएम आम तौर पर कई प्रदूषकों से भरा होता है जो विभिन्न स्रोतों के कारण उत्परिवर्तन, जीनोटॉक्सिक और कार्सिनोजेनिक (कैंसर फैलाने वाले) हो सकते हैं, अब यह पुष्टि की गई है कि पीएम का एक छोटा भाग विशेष रूप से तंबाकू के धुएं से आता है, इसलिए हवा तंबाकू के धुएं से भी दूषित होती है।
यद्यपि इसका भार तत्काल खतरे के रूप में बहुत कम प्रतीत होता है, इसने वर्तमान में धूम्रपान न किए जाने वाले वातावरण में भी पार्टिकुलेट मैटर में सांस लेने से सेकेंड हैंड स्मोक/ थर्डहैंड स्मोक (टीएचएस) के संभावित पुराने खतरे पर एक नया मानक स्थापित किया है।
इस अध्ययन का महत्व यह है कि इसने पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) में मौजूद शक्तिशाली तम्बाकू से भरे विशिष्ट कार्सिनोजेन (कैंसर फैलाने वाले) पर शोध करने के लिए एक प्रवेश द्वार खोला है। यह फेफड़े के कैंसर को लेकर एक महत्वपूर्ण मार्ग दिखाता हैं। थर्डहैंड स्मोक (टीएचएस) घटक हैं जो तंबाकू के धुएं और इसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों से जुड़े मामलों को सामने लाता है। तम्बाकू के धुएं के संपर्क पर आने के ध्यान देने की आवश्यकता है, जिसमें त्वचा से, हाथ से मुंह में जाने और सहायक कणों को निगलना इनमें सांस लेना शामिल हैं जो सतहों से पुन: उत्सर्जन के बाद बनते हैं। (downtoearth.org.in)
-विवेक मिश्रा
बाढ़ आपदा के कारण सर्वाधिक मृतकों की संख्या गंगा के पहाड़ी और मैदानी राज्यों में है
पर्यावरण की नाजुक जगहें यदा-कदा चेताती रहती हैं। उत्तराखंड में 7 फरवरी, 2021 को चमोली में बिना किसी सूचना के अचानक आई भयावह बाढ़ एक और चेतावनी है। इस त्रासदी ने कई जिंदगियों को मिनटों में खत्म कर दिया। अब तक मिली सूचना के मुताबिक मलबे से अब तक करीब 52 शव निकाले जा चुके हैं जबकि अन्य 154 की तलाश जारी है।
बाढ़ इतनी भयावह है तो इसका इलाज क्यों नहीं? हिमालयी उत्तराखंड की छोटी से छोटी हलचल नीचे मैदानों तक भी आती ही रहती है। लेकिन यदि बीते वर्षों की बाढ़ के कारण खत्म होने वाली जिदंगियों का आकलन करें तो उत्तराखंड का नाम सबसे ऊपर है।
बीते सात दशकों (1953-2017) तक 107,487 लोगों ने बाढ़ के कारण जिंदगियां खो चुके हैं। यह जानकर हैरानी हो सकती है कि बाढ़ मृतकों की करीब एक चौथाई संख्या महज दस (2008-2019) वर्षों की है। करीब 25 हजार लोग 2008 से 2019 तक बाढ़ और वर्षा के दौरान घटने वाली आपदाओं की वजह से मारे गए। इनमें 23,297 मृतक सिर्फ 15 राज्यों से हैं। बाढ़ आपदा के कारण सर्वाधिक मृतकों की संख्या गंगा के पहाड़ी और मैदानी राज्यों में है। वहीं, बाढ़ के भुक्तभोगियों में शीर्ष पर उत्तराखंड है इसके बाद उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार का नाम शामिल है।
बाढ़ के भुक्तभोगियों में उत्तराखंड ही शीर्ष पर क्यों है? इस सवाल पर “गंगा आह्वान” से जुड़ी मलिका भनोट ने डाउन टू अर्थ को बताया कि बाढ़ की विभीषिका का एक बड़ा कारण गंगा में अवरोध है। नदी को रोका जाए तो वह विभीषक बन जाती है। इसके अलावा उत्तराखंड में विकास के कार्यक्रम भी बहुत हद तक बाढ़ की विभीषिका को बढ़ा रहे हैं। 2013 की त्रासदी के बावजूद कदम संभाल कर नहीं रखा जा रहा। चारधाम परियोजना के लिए सड़क चौड़ीकरण में हजारों की संख्या में पेड़ काटे गए। यह पेड़ ही मिट्टी को बांधे रखते हैं। नतीजा है कि आए दिन भूस्खलन होता है। मलबे की अनियंत्रित डंपिंग ने नदियों की व्यवस्था को बिगाड़ दिया है। इसी समय बादल फटने या कम समय में ज्यादा वर्षा का होना आग में घी का काम करता है। उत्तराखंड में इस हलचल का दुष्परिणाम गंगा के मैदानी भागों में भी पड़ता रहता है। हिमालय में फूंक-फूंक कर कदम रखा जाना चाहिए।
वहीं, केंद्रीय जल आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1953 से लेकर 2011 तक के बाढ़ के नुकसान का आकलन यह दर्शाता है कि जिंदगियों के नुकसान के आधार पर सर्वाधिक तबाही वाले वर्षों में 1977 सबसे ऊपर है। 1977 में 11,316 लोगों की मृत्यु बाढ़ की वजह से हुई थी। फिर 1978 में 3,396 लोगों की मृत्यु हुई। 1979 में 3,637 लोगों की मृत्यु बाढ़ में हुई। इसके करीब एक दशक बाद 1988 में बाढ़ ने 4,252 जिंदगियां खत्म कर दी। करीब दो दशक बाद 2007 में 3,389 लोगों की जिदंगी बाढ़ में नेस्तानाबूद हो गई। यह सर्वाधिक मौत वाले वर्षों के आंकड़ों की सूची यही खत्म नहीं होती। बेहद अल्पविराम के बाद 2013 में उत्तराखंड में भीषण बाढ़ आई। इस बाढ़ में सरकारी आंकड़े के मुताबिक 3,547 लोगों की मृत्यु हुई। यह बीते चार दशकों की सबसे भीषण बाढ़ में एक थी। मृत्यु के यह आंकड़े उन मासूम लोगों के हैं जो शासन की अनीतियों के शिकार हुए।
यह डिस्कलेमर भी देना जरूरी है कि मृतकों की गिनती और बाढ़ के नुकसान का कोई आकलन केंद्र सरकार नहीं करती है। केंद्र सरकार का कहना है कि बाढ़ राज्यों का विषय हैं। इसलिए बाढ़ के नुकसान के आकलन की जिम्मेदारी भी राज्यों की है। यह राज्य भी टेढ़ी खीर हैं। जब केंद्रीकरण होता है तब शोर मचता है कि राज्यों की हिस्सेदारी खत्म हो रही है, जब मानवता के काम उनके जिम्मे हैं तो वे गेंद केंद्र के पाले में डाल देती हैं। केंद्र और राज्यों के बीच गेंदों की फेंका-फेंकी का यह काम अनवरत चलता रहता है। गेंदों को एक-दूसरे के पाले में फेंकते रहना अदालतों में राज्य और केंद्र की नुमाइंदगी करने वाले प्रतिनिधि वकीलों की यह एक खास रणनीति भी रही है।
1980 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (आरबीए) की सिफारिशों में नदी के डूब क्षेत्र के अतिक्रमण एक बड़ी चिंता का विषय था। यह चिंता कुछ पन्नों की सिफारिशों में बदल गई और फिर कभी चिंतन का विषय नहीं बनी। पर्यावरण और कानून के जानकार एमसी मेहता ने 1985 में गंगा और उससे जुड़े मामले पर पहली बार शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। डाउन टू अर्थ से बातचीत में एमसी मेहता बताते हैं कि 1985 और उसके बाद 1986-87 में गंगा बेसिन को लेकर बातचीत शुरु हुई थी, इसमें बाढ़ के डूब क्षेत्र और उसके अतिक्रमण को लेकर भी बहस-मुबाहिसे हुए। अदालतों से तो लड़ाई जीत ली है लेकिन जमीनी नतीजा आजतक हासिल नहीं हुआ। सरकारें बदलती रहीं और किसी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई।
डूब क्षेत्र के अतिक्रमण के अलावा एक दूसरा और अहम पहलू बाढ़ को काबू में लाने का है। बाढ़ को काबू में लाने के लिए स्वच्छंद और उन्मुक्त नदियों को ही बांधने की हमेशा जुगत की गई। नदी से उसका घर-आंगन ही छीना गया। मानों सरकारें महाभारत की दुर्योधन हो गई हों और नदियों को उसके पांच ग्राम भी देने को तैयार न हों। इस बीच बहुत से कृष्ण नदियों का संदेशा लेकर सरकारों के पास पहुंचे भी लेकिन दुर्भाग्य यह कि सरकारें नदियों की स्वतंत्रता और उनकी अपनी जमीन देने के बजाए उलटे उन्हें जकड़ने की ही बात पर अमादा रहीं। क्या कृष्ण की भाँति विकराल रूप धरने वाली यह नदियां दुर्योधन रूपी सरकारों को ललकार नहीं रही…जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हां, हां दुर्योधन! बांध मुझे…
तटबंधों और भारी-भरकम बांधों के बारे में बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक और लेखक दिनेश मिश्र डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि 1952 तक देश में कोई भी सरकारी तटबंध नहीं था। उसके बाद 1953 से तटबंध बनने लगे और यह तबसे बन और टूट रहे हैं। बांधों का भी यही हाल है। वे सुख देने के बजाए अनवरत दुख देते जा रहे हैं। कोसी नवनिर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव ने डाउन टू अर्थ से बताया कि नर्मदा से लेकर कोसी तक पुनर्वास को लेकर एक ही लड़ाई चल रही है। सरदार सरोवर डैम के फाटक बंद कर दिए गए हैं, इससे निमाड़ के डूब क्षेत्र में लोगों को जबरदस्त परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। उसी डूब क्षेत्र में दो लोगों की करंट लगने से मौत भी हो गई। बाढ़ के पुनर्वास को लेकर यहां भी काम नहीं किया गया। यह जिम्मेदारी सरकार की है।
विकास के युग में बाढ़ ने भी विकास किया है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने 1980 में देश के 21 जिलों में थी अब यह बढ़कर 39 जिलों में पहुंच गई हैं। करीब चार दशक में एक करोड़ हेक्टेयर अधिक भूमि पर बाढ़ बढ़ गई है।(संबंधित खबर पढ़ने के लिए क्लिक करें)। जलवायु परिरवर्तन की अवधारणा भी तेज हो गई है। असमय और अत्यधिक वर्षा के आंकड़े अब पक्की तरह से यह बता चुके हैं कि नीतियों में हमें भी ध्यान में रखा जाए।
राज्यसभा में 29 अप्रैल, 2015 को दिए गए लिखित जवाब में कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र के यूएनआईएसडीआर के जरिए वैश्विक आकलन रिपोर्ट 2015 में जारी की गई थी। इसमें यह अंदाजा लगाया गया था कि भारत में प्राकृतिक आपदाओं के कारण सालाना औसत 9.8 बिलियन डॉलर (697,338,600,000.00 रुपये) का नुकसान होता है। वहीं, गृह मंत्रालय का कहना था कि देश में 58.6 फीसदी भूभाग भूकंप, 8.5 फीसदी चक्रवात, और 5 फीसदी बाढ़ प्रभावित है।
अंत में यह बताना जरूरी है कि ऐसा भी नहीं है कि सरकारों ने कुछ नहीं किया। सरकारें हर साल एक बड़ा बजट बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाती और जारी करती हैं। 1978 में बाढ़ बचाव के नाम पर केंद्र ने 1727.12 करोड़ रुपये की परियोजना बनाई थी। 2019 में बाढ़ नियंत्रण के लिए केंद्र सरकार का यह बजट आकार लेकर 13238.36 करोड़ रुपये का हो चुका है। यह तय समय पर तैयार हो जाता है और सरकारी जेबों तक पहुंच भी जाता है लेकिन इस बजट का फायदा कभी समय से जनता तक नहीं पहुंचा,
देश की पहली बाढ़ नीति 3 सितंबर, 1954 को बनी थी। करीब 65 बरस गुजर रहे हैं। इस बीच राज ने नदियों से रिश्ता कभी बनाया नहीं और समाज का रिश्ता टूटता चला गया। यह टूटन ही मलबे के जोखिम को बढ़ाने वाला साबित हो सकता है। (downtoearth.org.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रदर्शनों के बारे में जो ताज़ा फैसला किया है, उससे उन याचिकाकर्ताओं को निराशा जरूर हुई होगी, जो विरोध-प्रदर्शन के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। यदि किसी राज्य में जनता को विरोध-प्रदर्शन का अधिकार न हो तो वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। विपक्ष या विरोध तो लोकतंत्र की मोटरकार में ब्रेक की तरह होता है। विरोधरहित लोकतंत्र तो बिना ब्रेक की गाड़ी बन जाता है।
अदालत ने विरोध-प्रदर्शन, धरने, अनशन, जुलूस आदि को भारतीय नागरिकों का मूलभूत अधिकार माना है लेकिन उसने यह भी साफ़-साफ़ कहा है कि उक्त सभी कार्यों से जनता को लंबे समय तक असुविधा होती है तो उन्हें रोकना सरकार का अधिकार है। अदालत की यह बात एकदम सही है, क्योंकि आम जनता का कोई हुक्का-पानी बंद कर दे तो यह भी उसके मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है। यह सरकार का नहीं, जनता का विरोध है।
प्रदर्शनकारी तो सीमित संख्या में होते हैं लेकिन उनके धरनों से असंख्य लोगों की स्वतंत्रता बाधित हो जाती है। लाखों लोगों को लंबे-लंबे रास्तों से गुजरना पड़ता है, धरना-स्थलों के आस-पास के कल-कारखाने बंद हो जाते हैं और सैकड़ों छोटे-व्यापारियों की दुकानें चौपट हो जाती हैं। गंभीर मरीज़ अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देते हैं।
शाहीन बाग और किसानों जैसे धरने यदि हफ्तों तक चलते रहते हैं तो देश को अरबों रु. का नुकसान हो जाता है। रेल रोको अभियान सडक़बंद धरनों से भी ज्यादा दुखदायी सिद्ध होते हैं। ऐसे प्रदर्शनकारी जनता की भी सहानुभूति खो देते हैं। उनसे कोई पूछे कि आप किसका विरोध कर रहे हैं, सरकार का या जनता का ? इस तरह के धरने चलाने के पहले अब पुलिस की अनुमति लेना जरुरी होगी, वरना पुलिस उन्हें हटा देगी। पता नहीं, दिल्ली सीमा पर चल रहे लंबे धरने पर बैठे किसान अब अदालत की सुनेंगे या नहीं। इन धरनों और जुलूसों से एक-दो घंटे के लिए यदि सडक़ें बंद हो जाती हैं और कुछ सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शनकारियों का कब्जा हो जाता है तो कोई बात नहीं लेकिन यदि इन पैंतरों से मानव-अधिकारों का लंबा उल्लंघन होगा तो पुलिस-कार्रवाई न्यायोचित ही कही जाएगी।
पिछले 60-65 वर्षों में मैंने ऐसे धरने, प्रदर्शन, जुलूस और अनशन दर्जनों बार स्वयं आयोजित किए हैं लेकिन इंदौर, दिल्ली, लखनऊ, वाराणसी, भोपाल, नागपुर आदि शहरों की पुलिस ने उन पर कभी भी लाठियां नहीं बरसाईं। महात्मा गांधी ने यही सिखाया है कि हमें अपने प्रदर्शनों को हमेशा अहिंसक और अनुशासित रखना है। उन्होंने चौरीचौरा का आंदोलन बंद क्यों किया था, क्योंकि आंदोलनकारियों ने वहां हत्या और हुड़दंग मचा दिया था।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-एंथनी जर्चर
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ पांच दिनों तक महाभियोग के प्रस्ताव पर सुनवाई करने के बाद आखिरी फैसला आ गया है और उन्हें कैपिटल हिल में हिंसा भड़काने के आरोप से बरी कर दिया गया है. व्यापक स्तर पर इसी तरह के नतीजे का अनुमान भी लगाया जा रहा था.
अमेरिकी इतिहास में अब चार ऐसे राष्ट्रपति हो चुके हैं जिनके ख़िलाफ़ लाए गए महाभियोग पर प्रस्ताव पर सुनवाई हुई है.
महाभियोग के ऊपर यह भले ही सबसे कम दिनों तक चलने वाली कार्यवाही रही लेकिन यह प्रक्रिया अमेरिकी लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाली रही है.
यहाँ पर हम उन कुछ प्रमुख लोगों पर एक नज़र डालने जा रहे हैं जो इस दौरान अमेरिकी इतिहास में उभरकर सामने आए.
डोनाल्ड ट्रंप
डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ दूसरी बार लाए गए महाभियोग प्रस्ताव के नजीते भी वही रहे जो पहली बार के रहे. एक बार फिर अमेरिकी सीनेट में उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया क्योंकि बड़े पैमाने पर रिपब्लिकन उनके साथ बने रहे.
वोटिंग का आखिरी नतीजा 57-43 का रहा. सीनेटरों के 57 वोट उनके ख़िलाफ़ पड़े तो 43 वोट उनके पक्ष में पड़े. इस तरह से जरूरी दो तिहाई बहुमत से 10 वोट उनके ख़िलाफ़ कम रहे और वो दोषी करार नहीं दिए गए.
यह प्राथमिक स्तर पर उनके लिए एक जीत रही. वो अब भी दोबारा अगर लड़ना चाहे तो 2024 में चुनाव लड़ सकते हैं.
उनका आधार अब भी उनके साथ बना हुआ है. संसद के दोनों ही सदनों प्रतिनिधि सभा और सीनेट में ज्यादातर रिपब्लिकन उनके ख़िलाफ़ महाभियोग चलाए जाने के ख़िलाफ़ रहे हैं. जिन रिपब्लिकन ने ऐसा नहीं किया है, उन्हें कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी है.
प्रेस को दिए एक बयान में पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने खुद को बरी किए जाने पर खुशी जाहिर की है और डेमोक्रेट्स की आलोचना की है. उन्होंने कहा है कि उनकी राजनीति अब शुरू हुई है.
हालांकि ट्रंप पूरी तरह से इस सुनवाई से बेदाग निकल गए हो ऐसा भी नहीं है. अभियोजन पक्ष की ओर से जो नए वीडियो पेश किए गए, उसमें ट्रंप के समर्थक 'अमेरिका को फिर से महान' बनाने वाली टोपी और ट्रंप के समर्थन वाले झंडों के साथ कैपिटल हिल में तोड़फोड़ करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं.
ये तस्वीरें हमेशा के लिए अब ट्रंप की छवि के साथ जुड़े चुकी हैं. अब जब कभी भी वो किसी तरह का राजनीतिक नेतृत्व करेंगे तो इस हिंसा की यादें ताज़ा होंगी.
यह भले ही रिपब्लिकन पार्टी के अंदर उनकी स्थिति को कमजोर ना करे लेकिन निष्पक्ष वोटरों और समर्थकों के जेहन से शायद ही ये बाद कभी जाए.
एक साल पहले सिर्फ़ एक रिपब्लिकन सीनेटर ने उनके ख़िलाफ़ वोटिंग की थी. लेकिन इस बार छह और रिपब्लिकन्स ट्रंप की मुखालफत में उनके साथ आ गए हैं. यह कोई इत्तेफाक़ की बात नहीं हैं हालांकि जिन सीनेटरों ने पार्टी से अलग जाकर स्टैंड लिया है, उनमें से सुसान कोलिंस, बेन सैसे और बिल कैसिडी दोबारा से चुन कर आए हैं और उन्हें छह सालों तक अपने वोटरों का सामना करने की नौबत नहीं आएगी.
दो अन्य पेंसिल्वेनिया के पैट टूमी और उत्तरी कैरोलिना के रिचर्ड बर रिटायर हो रहे हैं.
लेकिन इससे कई रिपब्लिकन के लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है क्योंकि इससे रिपब्लिकन पार्टी के प्राथमिक वोटर नाराज़ हो सकते हैं. वे ट्रंप को दोषी साबित करने के लिए किए गए वोट को ट्रंप के ख़िलाफ़ धोखे के तौर पर ले देखेंगे. जो रिपब्लिकन के हिसाब से सुरक्षित माने जाने वाले राज्यों में हैं, उनके ऊपर अपने डेमोक्रेट्स प्रतिद्वंदवियों की तुलना में और दबाव होगा.
फ्लोरिडा, विस्कॉन्सिन और आयोवा जैसे स्विंग स्टेट्स में अगले साल फिर से होने वाले चुनावों में रिपब्लिकन सीनेटर्स को डेमोक्रेट्स उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
उस वक्त कैपिटल हिल में हुई हिंसा और उससे जुड़े वीडियो की बातें किसी के ख्याल में आ सकती हैं.
बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करने वाला है कि ट्रंप आगे क्या करते हैं. क्या वो दोबारा से अमेरिका की राजनीति में पूरी तरह से सक्रिय होते हैं या फिर खुद को प्राइवेट क्लब की ज़िंदगी और गोल्फ कोर्स तक महदूद रखते हैं?
हर रिपब्लिकन सीनेटर का सीनेट में वोट देने का अपना राजनीतिक गुणा-भाग रहा होगा. उन्होंने पार्टी को नाराज़ करने के जोखिम और आम चुनावों में आए फैसले के मद्देनज़र कोई निर्णया लिया होगा. इसमें से खासतौर पर एक सीनेटर का व्यवहार लोगों के नज़र में रहा है.
उनका नाम हैं मिच मैककोनेल. वो सीनेट में अपने दल के नेता है. वो हफ़्तों से 6 जनवरी की घटना को लेकर डोनाल्ड ट्रंप के आलोचक रहे हैं. हालांकि इस बात को लेकर असमंजस बना हुआ था कि वो महाभियोग की सुनवाई के दौरान आखिरकार किस तरफ वोट करेंगे. शनिवार को उन्होंने अपने साथी सीनेटरों को बताया कि वो ट्रंप को बरी करने के पक्ष में वोट करेंगे.
लेकिन जब उन्होंने वाकई में ऐसा ही किया तब बताया कि ऐसा उन्होंने क्यों किया. उन्होंने ट्रंप के व्यवहार की आलोचना की और कहा कि उन्होंने "अपने कर्तव्य का अपमानजनक तरीके से निर्वहन किया है."
मिच मैककोनेल ने कहा, "इसमें कोई शक नहीं कि उस दिन जो घटना हुई, उसके लिए ट्रंप नैतिक रूप से जिम्मेवार हैं."
लेकिन ट्रंप के निर्दोष होने के पक्ष में वोटिंग करने पर उन्होंने कहा कि पूर्व राष्ट्रपति पर महाभियोग की सुनवाई नहीं होनी चाहिए थी. उन्होंने कहा कि अगर इस तरह का मिसाल अपनाया जाता है तब किसी भी आम नागरिक को संसद के द्वारा किसी सार्वजनिक भूमिका के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है.
ट्रंप को लेकर मैककोनेल की आलोचना को खुद को बचाने के एक तरीके के तौर पर देखा जाएगा ना कि किसी सैद्धांतिक रुख के तौर पर. उनके इस कदम से वो पार्टी में बहुमत के खिलाफ जाने से भी बच गए.
यह मिच के लिए भी एक सुरक्षित रास्ता है. अब समय बताएगा कि उनके रिपब्लिकन साथी उनकी आलोचना को लेकर नहीं तो कम से कम सुनवाई से तो संतुष्ट हुए.
डेमोक्रेट्स
अपने करियर के ज्यादातर वक्त में प्रतिनिधि सभा के सदस्य गुमनामी में ही रहते हैं. सदन के 435 सदस्यों में से कुछ को ही राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह से अपनी पहचान बनाने का मौका मिलता है जैसा कि इस बार महाभियोग के प्रस्ताव की सुनवाई के दौरान कुछ सीनेटर्स के साथ देखने को मिला.
पांच दिनों तक चली इस सुनवाई में नौ सदस्यों की एक टीम ने शानदार ढंग से अपनी बात रखी. इस दौरान उन्होंने छह जनवरी के दिन की वीडियोज भी सदन में रखे. उन्होंने इसके लिए मैप का सहारा लेकर भी बताया कि उस दिन भीड़ अमेरिकी नेताओं के कितने करीब पहुँच गई थी. इन नेताओं में उप-राष्ट्रपति माइक पेंस भी शामिल थे.
इस दल का नेतृत्व करने वाले जैमी रैस्किन को सुनवाई की शुरुआत बेहद भावनात्मक संबोधन से करने के लिए याद किया जाएगा. उनका गला इस संबोधन के दौरान उस समय रुंध गया था जब वो कैपिटल हिस से निकलने के बाद अपनी 24 साल की बेटी से हुई बातचीत का प्रसंग सुना रहे थे.
इसके बाद जैसे बाकी के पांच दिनों में उन्होंने अभियोजन पक्ष का नेतृत्व किया वो उनके अमेरिकन यूनिवर्सिटी में संवैधानिक क़ानून के प्रोफेसर होने की पृष्ठभूमि को दर्शाने वाला था.
दूसरी बार संसद में आए जो नगुसे को डेमोक्रेटिक पार्टी की राजनीति में एक उभरते हुए नेता के तौर पर देखा जा रहा है. उन्होंने जिस तरह से अपनी बात रखी है, उसने इस धारणा को देश के सामने और मज़बूत ही किया है.
इस टीम की ओर से सबसे बड़ी सरप्राइज पैकेज स्टैसी प्लास्केट रहीं. वो अमेरिकी वर्जिन आइलैंड से हैं.
एक वोट नहीं देने वाली प्रतिनिधि के तौर पर उनका संसद में प्रभाव भले ही कम है लेकिन उन्होंने पूरी सुनवाई के दौरान यादगार दलीलें दी हैं. डेमोक्रेट्स संसद में उनके इस प्रदर्शन के बाद वर्जिन आइलैंड को राज्य का दर्जा देने को लेकर लामबंद हो सकते हैं.
अभियोजन पक्ष का नेतृत्व करने वालों के ख़िलाफ़ जो एक बात जाती है वो यह था कि वो प्रमाण जुटाने की कोशिश को लेकर अनियमित थे. शानदार शुरुआत करने के बाद ट्रैक से उतर जाने से कइयों को कड़वे अनुभव हुए होंगे.
मौजूदा राष्ट्रपति ने पूर्व राष्ट्रपति के महाभियोग के प्रस्ताव पर सुनवाई को लेकर दूरी बना रखी थी. व्हाइट हाउस के अधिकारियों ने बताया कि वो इस पूरी प्रक्रिया में कोई खास दिलचस्पी नहीं ले रहे थे. पूरी सुनवाई के दौरान वो कोरोना वायरस से जुड़े कार्यक्रमों में व्यस्त रहे.
बाइडन की टिप्पणी सिर्फ़ कैपिटल हिल की हिंसा से जुड़े नए वीडियो पर आई जिसे बार-बार टेलीविजन पर दिखाया जा रहा था. बाइडन प्रशासन का मानना है कि उनकी राजनीति की किस्मत इस बात पर निर्भर करेगी कि वो कितनी कामयाबी से इस महामारी से निपटते हैं.
इसके अलावा वो अर्थव्यवस्था और अमेरिका के दूसरे मुद्दों से कैसे निपटते हैं. ट्रंप के महाभियोग की सुनवाई से उनकी राजनीति पर कोई असर नहीं पड़ने वाला.
इस सुनवाई का जो बाइडन के सदन के एजेंडे पर बहुत कम प्रभाव पड़ा. सीनेट को अपनी सामान्य कार्यवाही सिर्फ़ तीन दिनों तक बंद करनी पड़ी. चैम्बर बाइडन के कोविड राहत कोष को तब तक अनुमति नहीं दे सकता जब तक कि सदन उसे पारित नहीं करता. इस चक्कर में एक हफ्ता गुजर चुका है.
सुनवाई खत्म होने के बाद अब सीनेट बाइडन प्रशासन की नियुक्तियों पर मुहर लगाएगा. इसमें अटॉर्नी जनरल के लिए नामित मेरिक गारलैंड भी शामिल हैं.
बाइडन प्रशासन और उनकी टीम इस प्रगति को लेकर अब खुश होंगे. हालांकि बाइडन के एजेंडे के साथ आगे बढ़ने की क़ीमत ट्रंप पर पूरी तरह से नकेल नहीं कसने को लेकर चुकानी पड़ रही है. उदाहरण के तौर पर बिना गवाहों के जल्दी में की गई सुनवाई की वजह से राजनीतिक क़ीमत चुकानी पड़ सकती है.
आगे की राजनीतिक लड़ाई के लिए बाइडन को एक एकजुट डेमोक्रेटिक पार्टी की जरूरत होगी. लेकिन इस महाभियोग की सुनवाई के बाद पार्टी में दरार पड़ने की शुरुआत हो सकती है.
ब्रुस कैस्टर को डोनाल्ड ट्रंप के क़ानूनी टीम का मुख्य वकील माना जाता है. उन्होंने उस पुरानी कहावत को चरितार्थ किया है कि किसी को परखने के लिए 'बुरे प्रचार जैसा कुछ नहीं होता.'
पूर्व राष्ट्रपति के बचाव की शुरुआत उन्होंने एक लंबे और थकाऊ भाषण से की जिसकी वजह से ही हो सकता है कि लुइसियाना के बिल कैसिडी डेमोक्रेट्स की ओर चले गए.
इसके बाद डोनाल्ड ट्रंप के नाखुश होने की रिपोर्ट्स के बीच कैस्टर पीछे चले गए और उनकी जगह माइकल वान डेर वीन ने ले ली. माइकल ने पूर्व राष्ट्रपति की राजनीति को लेकर अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से अपनी बात रखी. वो महाभियोग के सूत्रधारों का जिक्र करते हुए अक्सर उन पर व्यंग्य करते हुए नज़र आए.
आखिरकार वो सुनवाई को और लंबा खींचने की संभावना को कमजोर करने में कामयाब करते हुए दिखे और इसे जल्द निपटा कर एक संतोषजनक निष्कर्ष पर निकाल लाए.
वकीलों का आखिरकार उनकी जीत और हार से ही मूल्यांकन किया जाता है और इकल वान डेर वीन, कैस्टर और उनके साथी वकील अपने मुवक्किल को बचाने में कामयाब रहे.
वो मानते हैं कि उस दौर में हुए दूसरे युद्ध की तुलना में ये युद्ध सबसे बड़े युद्ध की लिस्ट में शामिल नहीं है लेकिन वो उन्हे यक़ीन है कि कई लोग इस युद्ध को कभी भूल नहीं पाएंगे. (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इंदौर पहले से ही देश का सर्वाधिक स्वच्छ शहर लगातार कई बार घोषित हो चुका है। यहाँ के व्यापारियों ने मिलावटखोरी के विरुद्ध जो शपथनामा भरा है, उसने भी सारे देश को नई दिशा दिखाई है और अब राजनीति की दृष्टि से भी एक और उल्लेखनीय काम यहाँ हो गया है। अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जो सीख कभी गांधीजी, नेहरूजी, लोहियाजी, श्रीपाद डांगेजी, दीनदयाल उपाध्यायजी आदि दिया करते थे, वही सीख मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने अपने भाजपा कार्यकर्ताओं को दी है। वे आजकल अपने कार्यकर्ता शिविर की खातिर उज्जैन और इंदौर में प्रवास कर रहे हैं। चौहान ने अपने मंत्रियों और विधायकों से इस समस्या पर तो खुला विचार-विमर्श किया ही कि वे पिछला चुनाव क्यों हारे लेकिन उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को सफलता, लोकप्रियता और जन-सेवा के जो गुर बताए हैं, वे सिर्फ भाजपा ही नहीं, देश की सभी पार्टियों के लिए अनुकरणीय हैं।
उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया है कि वे जनता से अपना सीधा संपर्क बढ़ाएँ। उन्होंने मंत्रियों और विधायकों से कहा है कि वे अपने निजी सहायकों (पीए आदि) से सतर्क रहें, क्योंकि उनके अहंकार का गुब्बारा उनमें अपने स्वामी से भी ज्यादा फूल जाता है। चाय से ज्यादा गर्म केटली हो जाती है।
याने अपने सहायकों को नेता लोग विनम्रता और ईमानदारी सिखाएं। कई देशी और विदेशी प्रधानमंत्रियों को अपने सहायकों के भ्रष्ट और फूहड़ आचरण के कारण बहुत बुरे दिन देखने पड़े हैं। चौहान ने बिचौलिए और दलालों से भी सावधान रहने के लिए कहा है। आजकल यह ‘लाएसाँ’ नामक बड़ा धंधा बन गया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मंत्रियों से कहा है कि वे भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए प्रति सप्ताह कुछ घंटे सीधे संवाद के लिए निकाला करें। मैं कहता हूँ कि वे आम जनता से भी सीधे उनके दुख-दर्द सुनने का समय क्यों नहीं रोज निकालते ? यदि यही काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करें, चाहे सप्ताह में एक बार ही करें, तो भी देश की जनता बड़ी राहत महसूस करेगी। जरा याद कीजिए, इंदिरा गांधी के ‘जनता दरबारों’ को। वह प्रधानमंत्री का नहीं, जनता का दरबार होता था। ‘जनता के दरबार’ में प्रधानमंत्री खुद पेश होती थीं। यदि मोदी इसे करेंगे तो देश के सभी पार्टियों के मुख्यमंत्री भी यह काम जोर-शोर से करने लगेंगे। भारत का लोकतंत्र बहुत ही स्वस्थ और सबल बनेगा।
नौटंकियों के बिना राजनीति को चलाना बहुत मुश्किल है। वे चलती रहें लेकिन उनके साथ-साथ जनता (और पत्रकारों) के साथ यदि आपका सीधा संवाद नहीं है तो आपकी सरकार कैसे पैंदे में बैठती जा रही है, यह आपको पता ही नहीं चलेगा। सरकारें जो जनहितकारी श्रेष्ठ काम करती हैं, उन पर सीधे जनता की प्रतिक्रिया सुनें तो क्या प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के सीने खुशी से फूलने नहीं लगेंगे ? उनमें विशेष उत्साह जागृत नहीं हो जाएगा ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
किशोर नरेंद्र की रायपुर यात्रा
-रमेश अनुपम
कोतवाली की स्थापना अंग्रेजों द्वारा सन् 1802 में ही हो चुकी थी। यहीं रायपुर कचहरी संचालित होती थी। कानूनी मुकदमेबाजी भी यहीं निपटाए जाते थे। जिसके चलते भूतनाथ डे ने कोतवाली के नजदीक ही घर खरीद लिया था। कचहरी घर से एकदम पास होने के कारण उन्हें आने-जाने में काफी सहूलियत होती थी। इसलिए वे विश्वनाथ दत्त के परिवार के लिए भी पास में ही कोई मकान किराए पर लेना चाहते थे।
भूतनाथ डे और विश्वनाथ दत्त के कारण डे भवन उन दिनों बांग्लाभाषी भद्र लोगों का केंद्र बिंदु बन चुका था। प्राय: सांयकाल होते-होते डे भवन भद्र बंगालियों का अड्डा बन जाता था।
तारादास बंद्योपाध्याय, कैलाशचंद्र बंद्योपाध्याय, बिनोद बिहारी राय चौधुरी, केदारनाथ बागची, पंचानन भट्टाचार्य तथा मन्मथनाथ सेन जैसे भद्र लोग उन दिनों डे भवन में सांयकाल जुटा करते थे।
उन दिनों बीस हजार की आबादी वाले रायपुर शहर में इने-गिने ही बंगाली समाज के लोग हुआ करते थे। जिनमें से तारादास बंद्योपाध्याय, कैलाश चंद्र बंद्योपाध्याय, बिनोद बिहारी राय चौधुरी, केदारनाथ बागची, पंचानन भट्टाचार्य तथा मन्मथनाथ सेन प्रमुख थे।
किशोर नरेंद्र के रायपुर प्रवास के दिनों में तारादास बैनर्जी उनके सबसे घनिष्ठ एवं आत्मीय मित्र हुआ करते थे। तारादास बैनर्जी डॉक्टर यू. डी.बैनर्जी के मंझले भाई थे। नरेंद्र और तारादास एक साथ घूमते, विभिन्न विषयों पर बातचीत करते, दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते थे। दोनों मित्र ज्ञान-विज्ञान के अलावा धर्म तथा दर्शन में भी रुचि रखते थे।
रायपुर आने के पश्चात् नरेंद्र में जिस बदलाव को उनके परिवार के सदस्यों द्वारा लक्ष्य किया गया वह था कोलकाता की तुलना में शारीरिक एवं मानसिक रूप से नरेंद्र का पहले से कहीं अधिक हृष्ट-पुष्ट होना। कहा जाए तो रायपुर की जलवायु और वातावरण सबसे अधिक नरेंद्र को ही रास आया था।
कोलकाता में प्राय: वे उदर रोग से पीडि़त होने के कारण अपने बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। रायपुर आने के कुछ दिनों पश्चात् ही उनका यह रोग दूर हो गया था और वे पूर्णत: रोग मुक्त हो गए थे। यह सब के लिए चकित करने वाला प्रसंग था।
तब रायपुर हर तरह के प्रदूषण से मुक्त हरे-भरे वृक्षों से घिरा हुआ एक सुरम्य शहर हुआ करता था और डे भवन साहित्य एवं संस्कृति का अभिनव केंद्र था।
मस्तिष्क और हृदय के लिए डे भवन उर्वर खाद का कार्य कर रहा था, तो शरीर के लिए रायपुर की उत्तम जलवायु उन दिनों किशोर नरेंद्र के लिए उपयोगी साबित हो रही थी। ये दोनों ही किशोर नरेंद्र के समग्र विकास के लिए बेहद जरूरी संसाधन थे ।
इस तरह रायपुर में रहते-रहते ही किशोर नरेंद्र के भीतर भविष्य के स्वामी विवेकानन्द की रूपरेखा का आविर्भाव होना प्रारंभ हो चुका था।
एक नया और सुवासित पुष्प खिलने के लिए लगभग तैयार हो चुका था, जिसके मधुर सुवास से संपूर्ण विश्वरूपी उपवन सुवासित होने वाला था।
संपूर्ण विश्व को अपनी उज्ज्वल किरणों से आलोकित करने वाले एक नए सूर्य के उदय की पृष्ठभूमि का सूत्रपात भी रायपुर में रहते हुए ही संभव होने लगा था ।
डे भवन में तीन माह बीतते न बीतते विश्वनाथ दत्त के परिवार को वह घर कुछ छोटा प्रतीत होने लगा था। डे भवन के ऊपर के दो कमरों में विश्वनाथ दत्त की भरी पूरी गृहस्थी समा नहीं पा रही थी।
परिवार के पांच लोगों का गुजर-बसर वहां हो पाना मुश्किल जान पड़ रहा था।
घर आने-जाने वालों तथा अड्डेबाजी के लिए भी एक अलग कमरे की व्यवस्था डे भवन में संभव नहीं हो पा रही थी। बंगाल तथा बंगाल से बाहर बसे बंगालियों में अड्डेबाजी की एक खास परम्परा होती है। आपस में मिल बैठकर ‘चा’ के साथ राजनीति, साहित्य, कला तथा संस्कृति पर गंभीर बहसें होती हैं।
इस अड्डेबाजी के बिना बांग्ला भाषियों की कल्पना ही असंभव है।
सो तय हुआ कि विश्वनाथ दत्त और उनके परिवार के लिए कहीं कोई अलग से एक ऐसे मकान की व्यवस्था की जाए जो सर्व सुविधा युक्त भी हो, साथ ही कोतवाली एवं डे भवन से ज्यादा दूर भी न हो।
कोतवाली की स्थापना अंग्रेजों द्वारा सन् 1802 में ही हो चुकी थी। यहीं रायपुर कचहरी संचालित होती थी। कानूनी मुकदमेबाजी भी यहीं निपटाए जाते थे। जिसके चलते भूतनाथ डे ने कोतवाली के नजदीक ही घर खरीद लिया था। कचहरी घर से एकदम पास होने के कारण उन्हें आने-जाने में काफी सहूलियत होती थी। इसलिए वे विश्वनाथ दत्त के परिवार के लिए भी पास में ही कोई मकान किराए पर लेना चाहते थे।
यह सत्य है कि डे भवन में विश्वनाथ दत्त तथा उनका परिवार केवल तीन-चार महीने ही रहा है। अर्थात् किशोर नरेंद्र का डे भवन में प्रवास केवल तीन-चार माह का रहा है।
रायबहादुर भूतनाथ डे की धर्मपत्नी श्रीमती एलोकेसी डे ने पुष्पमाला देवी को दिए गए अपने साक्षात्कार में भी यह स्वीकार किया है कि ‘विश्वनाथ बाबू केवल तीन महीने ही डे भवन में रहे हैं।’ इस तरह यह कहा जाना विश्वनाथ दत्त अपने परिवार सहित डे भवन में छह माह या दो वर्ष तक रहे हैं उचित प्रतीत नहीं होता है।
सत्य यह है कि विश्वनाथ दत्त अपने परिवार के साथ शुरुआती दौर के तीन महीने तक ही डे भवन में निवासरत रहे हैं।
तीन महीने के पश्चात् उन्हें डे भवन छोडक़र एक अन्य मकान को किराए पर लेना पड़ा था। इस मकान को किराए से लेने में भूतनाथ डे की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
(बाकी अगले रविवार)
-कनक तिवारी
चुनावी बांड के मामले में अगर गोगोई आम चुनाव के पहले कोई फैसला करते तो पता नहीं किसकी सरकार बनती। राफेल विमान के मामले में कोई दूसरा फैसला होता तो? सबरीमाला मामले को पांच सदस्यों की संविधान पीठ में भेज दिया। राम मंदिर, बाबरी मस्जिद में एक पक्ष से सबूत मांगे। दूसरे पक्ष को कहा उनकी आस्था का मामला है। चार न्यायाधीशों ने तो उनके खिलाफ प्रेस कॉंफ्रेंस की। वह सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में कभी नहीं हुआ। उसमें भी मामला जस्टिस लोया की हत्या का था।
राज्यसभा सदस्य बन जाने की लालच में जस्टिस गोगोई भूल गए कि कुछ अरसा पहले उन्होंने खुद कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के जज के रिटायर होने के बाद यदि उसे किसी सरकारी मदद से पद लाभ होता है, तो वह तो उसकी न्यायिक स्वतंत्रता पर एक तरह से कलंक होगा। इसी सिलसिले में प्रख्यात अध्येता मधु किश्वर ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी कि यह नियुक्ति अवैध, संवैधानिक और अनैतिक है। उन्होंने कई मुद्दों का स्पर्श किया।
उन्होंने लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 की धारा का उल्लेख करते बताया कि लोकपाल में जो भी सदस्य नियुक्त होंगे (जिनके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज होंगे और सदस्य हाईकोर्ट के वर्तमान जजों में से भी हो सकते हैं। वे सब अधिकतम 70 वर्ष या 65 वर्ष तक जो भी अवधि प्रावधानित है) कार्यरत होंगे। उसके बाद सरकार उन्हें और किसी पद का लाभ नहीं दे सकती। यह इस अधिनियम में प्रावधान है।
तब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को एक असाधारण लाभ कैसे मिल सकता है? वे यह लाभ अपने जीवित रहने तक उठाते रहेंगे क्योंकि संविधान में सद्भावना के कारण संविधान सभा के सदस्यों ने इस तरह की कोई लिखित मुमानियत नहीं की थी। यह अलग बात है कि संविधान सभा की पूरी बहस को पढऩे के बाद साफ साफ नजर आता है कि राष्ट्रपति, सरकार और रंजन गोगोई के विवेक पर निर्भर रहा है कि उन्हें संविधान सभा के पुरखों की मंशाओं का आदर करना चाहिए था।
उनकी भ्रूण हत्या नहीं करनी चाहिए थी। अनुच्छेद 80 (3) कहता है राष्ट्रपति द्वारा खंड (1) के उपखंड (क) के अधीन नाम-निर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे, जिन्हें निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यवहारिक अनुभव है, अर्थात साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा। जस्टिस गोगोई इनमें से किस श्रेणी के लायक हैं, देश इसे पहले नहीं जानता था। इतिहास आगे भी नहीं जानेगा।
यह भी प्रसंगवश है:
सुप्रीम कोर्ट के जजों ने ही परंपरा बनाई कि रिटायर होने के बाद कुछ वर्षों तक (कम से कम 2 वर्षों तक) कोई भी पद सरकार से जुडक़र नहीं लेना चाहिए। वरना अवाम को लगेगा किसी अहसान का बदला चुकाया जा रहा है। लोग पिछले फैसलों की उधेड़बुन में लग जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट में ज्यादा मुकदमे तो सरकार को ही लेकर होते हैं।
12 जनवरी 2018 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कार्यवाही से कथित तौर पर व्यथित होकर सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने साझा प्रेस कॉफ्रेंस की थी। उसमें जस्टिस जे.चेलमेश्वर, मदन बी लोकुर, रंजन गोगोई और कुरियन जोसेफ थे। रंजन गोगोई के राज्यसभा सदस्य बन जाने के कारण मदन लोकुर और जोसेफ कुरियन ने उनके खिलाफ बयान दिए हैं। कुरियन जोसेफ ने कहा है कि गोगोई ने यह पद स्वीकार कर संविधान के बुनियादी ढांचे के साथ छेड़छाड़ की है। उन्होंने अवाम के मन में न्यायपालिका के प्रति एक तरह का अविश्वास पैदा कर दिया है। ऐसा लग रहा था कि उनके किसी कृत्य से खतरा तो है लेकिन यह खतरा इतनी जल्दी आ जाएगा। इस तरह इसकी उम्मीद नहीं थी। कुरियन जोसेफ ने कहा हमने देश के हित में काम करना शुरू कर दिया था। पता नहीं रंजन गोगोई ने ऐसा क्यों किया।
जोसेफ कुरियन ने कहा कभी जस्टिस गोगोई ने नैतिक साहस दिखाया था। अब वह न्यायपालिका की गरिमा के साथ इस तरह समझौता कर चुके हैं। दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह और सेवानिवृत्त हाईकोर्ट जज आरएस सोढ़ी ने भी रंजन गोगोई के कदम की कड़ी आलोचना की है। 12 जनवरी 2018 की संयुक्त प्रेस कॉफ्रेंस के बाद गोगोई ने कहा था कि हम देश की जनता को अपना कर्ज चुका रहे हैं। हैरत की बात है ठीक इसके उलट कदम उठा लिया।
रंजन गोगोई के साथ यह भी तो है कि एक के बाद एक उन्होंने मोदी सरकार को अपने फैसले एक तरह से तोहफे के रूप में भेंट किए। फैसलों की पूरी दुनिया में आलोचना भी हुई है। कई फैसले तो कानूनी मान्यताओं और सिद्धांतों पर भी उतने खरे नहीं उतरते। जज का अलग दृष्टिकोण किसी मुद्दे को या मामले को समझने में हो सकता है लेकिन सैद्धांतिकता के मामले में कोई संशय नहीं होना चाहिए। वैसे भी असम के, एनआरसी के मामले में उन्हें उसी राज्य का होने की वजह से न्याय करने नहीं बैठना चाहिए था। लेकिन वह बैठे रहे और फैसला भी इस तरह से नहीं आया कि जिससे कोई न्याय की समझ को ताजा हवा का झोंका लगा हो या रोशनी मिली हो।
सुप्रीम कोर्ट के जज पद से हटने के बाद सामान्य नागरिक की हैसियत में आ जाते हैं। तब जो अधिकार नागरिक को अनुच्छेद 19 वगैरह में मिले हैं, उनका भरपूर फायदा उठा सकते हैं। साधारण नागरिक की तरह किसी पार्टी के टिकट पर भी चुनाव लड़ सकते हैं। लोकसभा तथा राज्यसभा में पार्टी के कोटे से मंत्री भी बन सकते हैं। कई पूर्व जजों ने ऐसा किया भी है। जस्टिस गोगोई का मामला अलग है। यहां तो सीधे-सीधे प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल ने राष्ट्रपति के जरिए अहसान का बदला चुका दिया है।
चुनावी बांड के मामले में अगर गोगोई आम चुनाव के पहले कोई फैसला करते तो पता नहीं किसकी सरकार बनती। राफेल विमान के मामले में कोई दूसरा फैसला होता तो? सबरीमाला मामले को पांच सदस्यों की संविधान पीठ में भेज दिया। राम मंदिर, बाबरी मस्जिद में एक पक्ष से सबूत मांगे। दूसरे पक्ष को कहा उनकी आस्था का मामला है। चार न्यायाधीशों ने तो उनके खिलाफ प्रेस कॉंफ्रेंस की। वह सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में कभी नहीं हुआ। उसमें भी मामला जस्टिस लोया की हत्या का था।
-प्रकाश दुबे
शुक्रवार 12 फरवरी को दोपहर बाद वेब विमर्श में बाधा पहुंचाने का पुराना तथा परखा हुआ तरीका अपनाया गया। संघर्ष क्षेत्र में समाचार संकलन पर पहली वक्ता मालिनी सुब्रमण्यम अपनी बात शुरू करतीं उससे पहले अजीब आवाजें आनी शुरू हुईं। भोंडे गीत-संगीत के साथ अश्लील मुद्राओं वाली तस्वीर झलकने लगीं। विचार की चाह करने वालों को हमलावर अपने खजाने की अभद्रता परोसने लगे।
एक तरफ नक्सलवाद के नाम पर हिंसा और उसके मुकाबले अतिवादी संगठनों का सफाया करने की आड़ में कुछ स्वार्थी सरकारी महकमों के शोषण की घटनाएं कई दशक से हो रही हैं। टकराव और संघर्ष में फंसे इलाकों की वास्तविकता पर ध्यान केन्द्रित कर लोकतंत्र को मजबूत बनाने के दायित्व से संवाद माध्यम पीछे नहीं हट सकते। छत्तीसगढ़ की जेल में बंद पत्रकार माओवादी होने या उनसे संबंध रखने के नाम पर जेलों में बंद किए गए। आरोप की सत्यता जानने के लिए सरकार और स्वैच्छिक संगठनों के प्रयासों के बीच संपादकों की संस्था ने पहल की। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पत्रकार-प्रताडऩा की छानबीन के लिए एक तथ्यान्वेषण समिति भेजने का निर्णय किया।
चार पांच वर्ष पुरानी बात है। एडिटर्स गिल्ड के तीन सदस्यों की समिति ने जेल में बंद पत्रकारों से मुलाकात करने के साथ ही राजधानी रायपुर और प्रभावित क्षेत्र के अनेक पत्रकार संगठनों, संपादकों आदि से चर्चा की। पुलिस और प्रशासन का पक्ष जाना। समिति ने तत्कालीन मुख्यमंत्री डा रमन सिंह से भी मुलाकात की थी। राजधानी के शहर रायपुर में स्थानीय अखबारों के संपादकों ने शीर्ष अधिकारियों की मौजूदगी में वरिष्ठ नौकरशाहों ने पल्ला झाड़ते हुए कह दिया-गिरफ्तार लोग पत्रकार हैं ही नहीं। स्थानीय संपादकों ने मुख्यमंत्री के समक्ष अफसरों की गलतबयानी का भांडा फोड़ा।
स्पष्ट कहा- वे पत्रकार हैं। हमारे लिए समाचार भेजते हैं। पुलिस का वरिष्ठ अधिकारी पत्रकारों को धमकाता था। उसे शायद फर्जी एनकाउंटर और प्रताडऩा की खबरें भेजने वाले पत्रकारों को दुरुस्त करने के इरादे से ही तैनात किया गया था। इस पुलिस अधिकारी ने जगदलपुर में पत्रकार मालिनी के निवास पर जाकर उत्पात मचाकर परेशान करने के लिए फर्जी पत्रकार बना दिए। उन्हें सरकारी सहायता और मान दिया जाने लगा। परेशान मालिनी को छत्तीसगढ़ छोडऩा पड़ा। तथ्यान्वेषण समिति की जांच रपट सार्वजिनक होते ही गंभीर प्रतिक्रिया हुई। बंदी पत्रकारों को छोडऩा पड़ा। इसके साथ ही अनेक निरपराध आदिवासियों की मुक्ति का रास्ता आसान हुआ। प्रशासन और उनके आका शांत नहीं बैठे।
गिल्ड की तथ्य अन्वेषण रपट सार्वजनिक होने के कुछ दिन बाद कार्यसमिति के सदस्य और फैक्ट फांइंडिंग कमेटी के एक सदस्य विनोद वर्मा को छत्तीसगढ़ पुलिस ने दिल्ली में गिरफ्तार कर लिया। उन पर किसी मंत्री का चरित्र हनन करने की साजिश रचने का आरोप मढ़ा। मुख्यमंत्री तो विधानसभा चुनाव में सत्ता से जाते भये। पत्रकारों को दुरुस्त करने के काम पर लगाया गया पुलिस अधिकारी अभी सेवा में कायम है। मजे कर रहा है।
इस पृष्ठभूमि में डर कर नहीं बैठा जा सकता। संपादकों की संस्था ने फिर एक बार पहल की। महामारी के दौर में सार्वजनिक संवाद और संपर्क संभव नहीं है। इसलिए वेबिनार का सहारा लिया। वर्ष 2020 के अंतिम चरण में उपेक्षित पूर्वोत्तर की स्थिति पर चर्चा से शुरुआत की। पूर्वोत्तर के विशेषज्ञ पत्रकारों ने स्थिति का विश्लेषण किया। प्रयास की सराहना से उत्साह बढ़ा। कल शुक्रवार का विषय माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में पत्रकारिता की समस्या पर केन्द्रित था। गिल्ड के महासचिव संजय कपूर ने आरंभ में ही कहा था कि सीमा पर अपना पराया पहचाना जा सकता है। नक्सली क्षेत्रों में मित्र या शत्रु की पहचान नहीं हो सकती। पत्रकारिता के लिए इस विषम परिस्थिति में हर पल परीक्षा का क्षण है।
मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा आदि राज्यों में माओवादियों का प्रभाव है। कुछ क्षेत्रों में समाचार जुटाना, चुनाव कराना, विकास काम कराना मुश्किल होता है। इस समस्या पर विमर्श होता तो शासन, प्रशासन और पत्रकारिता समेत सबका भला होता। फैसल अनुराग, पी वी कोंडल राव, मिलिंद उमरे, तमेश्वर सिन्हा, पूर्णिमा त्रिपाठी ने इन क्षेत्रों में काम किया है। झारखंड-बिहार में फैसल की बेबाक, निष्पक्ष कलम का लोहा माना जाता है। अनसुनी आवाजें नाम से आरंभ की गई श्रंखला में उपेक्षित क्षेत्रों की स्थिति का विश्लेषण करने से पहले सुनियोजित शोरगुल से किसको परेशानी है? साइबर सेल पता लगा सकता है, यदि उसकी गहराई में जाकर जांच करने में दिलचस्पी हो। पत्रकार और संपादकों के साथ ही पाठक इतना समझ गए कि दो टूक राय देने में अड़ंगे आते हैं। गिल्ड संपादकों का अराजनीतिक संगठन है। इस प्रसंग को लेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर आक्रमण जैसा शोर मचाने का लाभ नहीं है। हाल ही में कुछ संपादक देशद्रोह के अभियुक्त बनाए जा चुके हैं। वैचारिक आयोजन में हुड़दंग मचाकर दखलंदाज क्या साबित करना चाहते थे?
संपादकों के कार्यक्रम को निशाना बनाने की हिमाकत यानी हैकर्स प्रहार पर अनेक जन सहानुभूति जताएंगे। रोने-कलपने जैसी कोई बात नहीं। हैकर्स तो कुछ मंत्रियों और मंत्रालयों तक के खाते हैक कर चुके हैं। संभवत: संचार मंत्री उनके निशाने पर आए थे। ऐसे में विचार का खाता उड़ाने यानी अकाउंट हैक करने या विचार पर अश्लील बमबारी की हरकत नई घटना नहीं है। नई बात यह है कि हुड़दंगिए निडर होकर आपके संवाद उपकरणों पर हमला करते हैं। देश के कानून और संविधान के प्रावधानों पर कुठाराघात करने के लिए अश्लील तस्वीरों का प्रयोग करते हैं। वह भी आदिवासियों के बीच सक्रिय रही महिला वक्ता के मुंह खोलने से भी पहले। अपराध रोकने में शासन की तकनीकी ताकत को अंगूठा दिखा सकते हैं। पिछले अनुभव से वे इस निष्कर्ष तक आसानी से पहुंच चुके हैं कि विचार पर कुठार चला कर बचने के तरीके खुले हैं। कलम, कंप्यूटर और कैमराजीवी पहले भी कीमत चुकाते आए हैं। अक्षर-विश्व में कदम रखते समय चेतावनी दी जाती है-इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। अफसोस उन सबको होगा, उनकी गर्दन लज्जा से झुकेगी जो अभिव्यक्ति की आजादी की कुर्बानी की बदौलत भाग्य विधाता बनते हैं। जो इसे बचाए रखने का वचन देते हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन के साथ लद्दाख में चल रहे सीमा-विवाद का अब हल होता नजर आ रहा है। बस, वह नजर आ रहा है। अभी हम यह नहीं कह सकते कि वह हल हो गया है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि पिछले साल मई में जब चीन के साथ हमारी मुठभेड़ हुई थी, तब टकराव पांच क्षेत्रों में हुआ था। दोनों देशों के बीच की जो वास्तविक नियंत्रण रेखा है, उसके आस-पास के वे चार इलाके ये हैं- (1) गोगरा पोस्ट का पेट्रोलिंग पांइट 17 ए (2) पीपी के पास हॉट स्प्रिंग (3) गलवान घाटी (4) देपसांग प्लेस !
इन पर अभी समझौता होना बाकी है। इन इलाकों में चीनी सैनिकों ने घुसपैठ कर ली थी। भारतीय और चीनी सैनिकों की मुठभेड़ में हमारे 20 जवान शहीद हुए और यह समझा जाता है कि चीनियों के लगभग 50 जवान मारे गए। अब रक्षा मंत्री राजनाथसिंह का संसद में बयान आया है कि चीन ने भारतीय जमीन खाली करना शुरु कर दिया है। यदि राजनाथसिंह की यह बात ठीक है तो मानना पड़ेगा कि नरेंद्र मोदी का यह बयान बिल्कुल गलत था कि चीन के फौजियों ने हमारी एक इंच जमीन पर भी कब्जा नहीं किया है। यदि ऐसा है तो क्या वे अपनी ही जमीन से पीछे हट रहे हैं और उस पर हमारे कब्जे को स्वीकार कर रहे हैं ? अभी तो सिर्फ पेंगांग झील क्षेत्र से दोनों सेनाओं ने पीछे हटने पर हाँ भरी है।
देखें, यह प्रारंभिक पहल भी ठीक से पूरी होती है कि नहीं? वास्तव में ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ (एलएसी) अवास्तविक है। उसे बताने के लिए न तो कोई दीवार खड़ी है, न तार लगे हैं, न कोई खाई है और न ही कोई नदी है। साल मैं सैकड़ों बार दोनों तरफ के सैनिक उसका उल्लंघन जाने-अनजाने करते रहते हैं। फिर भी 1962 के बाद से अब तक उस रेखा पर कभी कोई गंभीर मुठभेड़ नहीं हुई है। यह बात मैं हमेशा पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों और जनरलों को अपनी बातचीत के दौरान बताता रहा हूँ। यह बताकर उनसे मैं कश्मीर पर शांतिपूर्ण वार्ता चलाने की अपील करता रहा हूँ। अब जो भारत-चीन समझौते की शुरूआत हुई है, मुझे विश्वास है कि शेष सभी नुक़्तों पर भी समझौता हो जाएगा, क्योंकि चीन पर अमेरिका के बाइडन-प्रशासन का दबाव बढ़ता जा रहा है और चीनी सरकार पर वे चीनी कंपनियां भी दबाव डाल रही हैं, जो भारत से हर साल करोड़ों-अरबों रुपया कमाती हैं।
आप जऱा गौर करें कि लद्दाख मुठभेड़ पर मोदी ने जब-जब भाषण दिए, उनमें चीन का एक बार भी नाम नहीं लिया। क्या चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग ने मोदी के इस शी-प्रेम पर ध्यान नहीं दिया होगा ? क्या ही अच्छा हो कि दोनों मित्र सीधी बात करें और भारत-चीन संबंधों को पुन: पटरी पर ले आएँ।(अध्यक्ष, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
पिता और पुत्र के बीच होने वाला टकराव लंबे समय से रचनाकारों की दिलचस्पी का विषय रहा है। शेक्सपीयर के नाटकों से लेकर 'मुगल-ए-आज़म' और 'शक्ति' जैसी फिल्में हों, 'गांधी विरुद्ध गांधी' जैसा नाटक हो या तुर्गेनेव का 'पिता और पुत्र' जैसा क्लासिक उपन्यास हो। लोग इसे दो पीढ़ियों के जीवन मूल्यों के बीच टकराव की तरह देखते हैं। इतना लोकप्रिय होने की वजह शायद यह भी है कि ऐसा टकराव हर समय में और आम तौर पर हर परिवार में देखा जाता है। जरूरी नहीं कि इस टकराव में उतनी ही तल्ख़ी हो जैसी हम साहित्यिक रचनाओं या फिल्मों में देखते हैं, मगर हर परिवार में असमति के स्वर उठते ही रहते हैं।
इसकी एक बड़ी वजह जो मुझे समझ में आती है वह यह कि पिता की मौजूदगी में जब बेटा अपनी खुद की पहचान के प्रति सचेत होना आरंभ करता है तो वह अपने अवचेतन में हर उस चीज से बचना चाहता है, जिससे उसकी पहचान को उसके पिता की पहचान से जोड़ा जाए। पिता की पहचान से जोड़ा जाना ही दरअसल उसकी खुद की आइडेंटिटी के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए उसकी स्वतंत्र शख़्सियत हमेशा पिता के साथ असहमतियों पर टिकी होती है। आम तौर पर यह कान्फ्लिक्ट बड़े बेटे और पिता के बीच सबसे पहले आता है। क्योंकि तब तक पिता ने अपनी घरेलू और सामाजिक सत्ता छोड़ी नहीं होती है और बेटे का उस परिधि में प्रवेश हो रहा होता है। पिता का एकाधिकार और वर्चस्व कहीं न कहीं उसकी स्वतंत्र पहचान को बाधित कर रहा होता है।
यहां पिता का पक्ष समझना भी दिलचस्प होगा। पिताओं के बेटे जिस वक्त वयस्क हो रहे होते हैं, पिता को यह समझ में आने लगता है कि उनकी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा हमेशा वैसी नहीं रहने वाली कि वह उनकी ताकत से अपने आपको स्थापित किए रहें। लिहाजा वह कुछ 'टूल्स' और 'पिलर्स' का सहारा लेता है, जिनका निर्माण करना उन्होंने अपनी जवानी के संघर्ष के दिनों में सीखा है। ये 'टूल्स' अक्सर अकाट्य और कठोर सिद्धांतों के रूप में उनके जीवन में प्रवेश लेते हैं। वह अपने चारो तरफ एक सिस्टम एक तंत्र खड़ा करते हैं, जो उनकी चुकती हुई, क्षय की तरफ बढ़ती ऊर्जा को सहारा देते हैं।
किसी भी व्यवस्था, बिजनेस या निजी ज़िंदगी में जब सिस्टम का निर्माण होता है तो काम की प्रक्रिया आसान हो जाती है तथा समय और हालात के थपेड़ों से वह काफी हद तक अप्रभावित भी रहता है, मगर दूसरे स्तर पर यहां भी एक क्षय होना आरंभ हो जाता है। जब सिस्टम अपना लचीलापन खो देता है तो उसमें बदलते समय के अनुरूप खुद को बदलने की क्षमता भी खत्म हो जाती है। कहा जाता है कि अतीत में डॉयनासार पूरी सृष्टि में इतने शक्तिशाली हो गए कि यही उनके विनाश का कारण बन गया। वहीं छोटे सरिसृप या कीड़े-मकोड़े अनुकूलन के जरिए लाखों वर्षों से सरवाइव कर रहे हैं।
किसी काम को पहले से तय किए गए तरीके से ही किया जाएगा यह हर नई पीढ़ी में सबसे ज्यादा चिढ़ पैदा करती है। ऐसे किसी भी सिस्टम का निर्माण उसके वजूद को निरर्थक बता देता है। इसलिए युवा जिद करते हैं, जल्दीबाजी करते हैं और गलतियां करते हैं। वे हर उस काम को अपने तरीके से, अपनी छाप से करना चाहते हैं, जो अब तक किसी और के बताए तरीके से होता आया है। यही उनके भीतर की अपार ऊर्जा को बाहर निकलने का स्वाभाविक मौका देता है। यह इतना स्वाभाविक है कि अगर किसी नई पीढ़ी में बीते के प्रति असंतोष न हो तो हमें यह मानना चाहिए कि उसके विकास में ही कुछ दोष है।
आम तौर पर हमारे समाज में परवरिश की जितनी भी थ्योरी गढ़ी गई है, उसका सार यही होता है कि बच्चों को, युवाओं को, भावी पीढ़ी को उसी तरीके से विकसित करना है, जिसे पिछली पीढ़ियों ने समय की कसौटी पर खरा पाया है। इस तरह की धारणा गढ़ते समय में लोग यह भूल जाते हैं कि इस तरीके में आने वाली पीढ़ी की अपनी पहचान, उसकी खुद की रचनात्मकता के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं गई है। इसीलिए बहुत बार युवा उन मूल्यों के प्रति भी विद्रोह करता है जो वास्तव में अनुकरणीय होते हैं। सत्तर के दशक में युवाओं के बीच पनपा हिप्पी मूवमेंट इसकी दिलचस्प मिसाल है। इस काउंटरकल्चर की जड़ में उपभोक्तावाद, शहरी संस्कृति, बढ़ती औपरिकता का विरोध था मगर कालांतर में यह एक अराजक दर्शन में बदल गया, जिसमें नशीली दवाएं और यौन क्रांति शामिल हो गया।
परंपरा और नवीनता का सतत् सिद्धांत है कि हमेशा पुराने मूल्यों में जो श्रेष्ठ है उसे अगली पीढ़ी स्वीकार करती है और जो मूल्य समय के साथ अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं, उन्हें छोड़ दिया जाता है। मगर यह प्रक्रिया टकराव में ही अपना आकार लेती है। सवाल यह उठता है कि क्या इस टकराव और संघर्ष का कोई विकल्प भी है? मुझे लगता है कि सबसे पहले हमारे समाज में इस टकराव को अस्मिताओं के संघर्ष के रूप में देखना बंद करना चाहिए। पुरानी पीढ़ी यानी पिता को हमेशा यह खतरा महसूस होता है कि अगर उन्होंने नए पनपने का मौका दे दिया, उसे सामाजिक स्वीकृति दे दी तो वे खुद मिट जाएंगे। अपने जीवन के तीस-चालीस सालों में हासिल की गई सत्ता को वह इतनी आसानी से मिटने नहीं देना चाहते।
पुरानी कृषि और जमीन आधारित पारिवारिक व्यवस्था में यह पितृ सत्ता के रूप में दिखता था, वहीं आधुनिक समाज में पिछली पीढ़ी की यह 'जिद' उन्हें अकेलेपन की तरफ धकेल रही है, क्योंकि आधुनिक समाज व्यवस्था जिसमें हर 10 साल में बदल रही टेक्नोलॉजी का वर्चस्व है, युवाओं को ही पूरी अर्थव्यवस्था का केंद्र बना रहे हैं, पुरानी पीढ़ी अपने पुराने मूल्यों के साथ अकेली पड़ गई और हाशिये पर चली गई है। इसलिए यह मान कर चलें कि खासतौर पर भारतीय समाज में अस्मिताओं का यह संघर्ष और गहराने वाला है।
जो समस्या की जड़ है, वो यह है हमारी पूरी समाज व्यवस्था में दो पीढ़ियों के बीच सतत संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। प्राचीन भारतीय समाज जो उपनिषदों तथा पुराणों की कथाओं के माध्यम से हमारे सामने आता है, उसमें भी कठोर पितृसत्तात्मकता होने के बावजूद संवाद के बहुत से मौके खुले होते थे। हमारी युवा पीढ़ी के पास रिसेंट हिस्ट्री यानी कि तात्कालिक इतिहास का कोई एक्सेस नहीं है। हम एक ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं, जिसकी स्मृति बहुत क्षीण है। हम 10 साल से ज्यादा पुरानी बातों को भूलने लगते हैं। हम अपने श्रेष्ठतम प्रयासों, विचारों और व्यक्तियों का कोई आर्काइव नहीं बनाते। अतीत में भारतीय समाज अपने विचारों को एक सनातन शृंखला में बदलने का प्रयास करता था, जिसमें एक पीढ़ी अपने बाद वाली पीढ़ी को अपने मूल्य, विचार और अनुभव उत्तराधिकार में दे जाती थी। यह परंपरा 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक भारतीय परिवारों में चलती रही।
वहीं पश्चिम में विचारों और अनुभवों को एक इंस्टीट्यूशन में बदल दिया गया। यानी कि उसका एक्सेस हर किसी के लिए था। इसलिए वहां पर विचारों को किताबों में, प्रयोगशालाओं में, विश्वविद्यालयों में बदलने की कवायद रही। इसीलिए वहां पर इंटैलेक्चुअल प्रॉपर्टी, पेटेंट और ज्ञान के सार्वजनिकीकरण जैसे मुद्दों पर बहस आरंभ हुई। हमारे समाज का कठोर जाति आधारित ढांचा ऐसा करने से रोकता था। यहां पर एक जाति अपने कारोबारी हुनर को गोपनीय बनाकर रखना चाहती थी, ताकि उसकी अपनी संतानें सुरक्षित रहें। यहां ज्ञान को सबके सीखने के लिए खुला छोड़ने की परंपरा रही ही नहीं।
हमने 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में जब पूरी तरह से ग्लोबल होते संसार से अपना नाता जोड़ लिया है तो हमें भी विचारों के सांस्थानिकरण की तरफ बढ़ना होगा। विचार और अनुभवों को इस तरह संचित करना होगा कि वह किसी कठोर सिस्टम में न बदलें बल्कि वह एक ज्यादा 'मुक्त समाज' में विचार, बहस और आलोचना के लिए उपलब्ध हों। इस तरह विचार, सिद्धांत और अनुभव पुरानी पीढ़ी के लिए 'सुरक्षा कवच' नहीं रहेंगे बल्कि एक सतत् प्रक्रिया का हिस्सा होंगे, हर पुरानी पीढ़ी युवाओं से सीखेगी और अपने अनुभवों को समृद्ध करेगी। युवा पिछले संचित ज्ञान में अपनी मौलिकता को जोड़कर उसे बेहतर बनाने में अपना योगदान देंगे। टकराव तब भी होंगे मगर वह समय का पहिया आगे की तरफ ले जाएंगे। (फेसबुक से)
-सांवर अग्रवाल
‘यह क्या एंटीबायोटिक है?’
पर्चे पर एक अंगुली ठिठकती है, एक प्रश्न दागती है!
‘नहीं, यह एंटीबायोटिक नहीं है।’
‘पर, मेरा बच्चा बिना एंटीबायोटिक के ठीक नहीं होता, बहुत बार आज़माया हुआ है। आप प्लीज लिख ही दीजिये।’
‘ मैं वायरल फीवर के लिये एंटीबायोटिक नहीं लिखता’
‘पर बहुत सारे डॉक्टर्स तो लिखते हैं’
‘मैं नहीं लिखता।’
‘फिर वे क्यों लिखते हैं?’
‘इस प्रश्न का जवाब देने के लिये तो वे ही उपयुक्त हैं’
‘वैसे तो मैं भी ज्यादा दवाइयों के फेवर में नहीं हूँ, पर हमारे फ्लैट के ऊपर एक आंटीजी रहती हैं वे हमेशा कहती हैं कि बच्चाों को जल्दी ठीक करने के लिये एंटीबायोटिक जरूरी होता है।’
‘वो आंटीजी डॉक्टर हैं?’
‘नहीं है, पर बच्चों का काफी अनुभव है उन्हें, प्लीज लिख दीजिये!’
‘मुझे क्षमा करें, मैं नहीं लिख पाऊंगा ’
‘मुझे मेरी किटी पार्टी वाली दोस्तों ने पहले ही आगाह किया था कि आप चाहे जो हो जाए एंटीबायोटिक नहीं लिखेंगे।’
‘मैंने एंटीबायोटिक के खिलाफ कोई जिहाद नहीं छेड़ा हुआ कि जो हो जाए पर एंटीबायोटिक नहीं लिखना है, मैं जो कर रहा हूँ उसकी जवाबदेही है मेरी।’
उसने मेरा पर्चा मेरी टेबल पर छोड़ा और ‘आती हूँ’ कहकर बिना फीस दिये निकल कर चली गई!
मैं ठगा सा देर तक उस पर्चे को घूरता रहा!
याद आया कि आज तो Rational antibiotics पर एक CME में जाना है! फिर स्पीकर का नाम देखा और घर लौट गया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इंदौर के कुछ प्रमुख व्यापारियों ने कल एक ऐसा काम कर दिखाया है, जिसका अनुकरण देश के सभी व्यापारियों को करना चाहिए। इंदौर के नमकीन और मिठाई व्यापारियों ने शपथ ली है कि वे अपने बनाए नमकीनों और मिठाइयों में किसी तरह की मिलावट नहीं करेंगे। वे इनमें कोई ऐसे घी, तेल और मसाले का उपयोग नहीं करेंगे, जो सेहत के लिए नुकसानदेह हो। यह शपथ मुंहजबानी नहीं है। 400 व्यापारी यह शपथ बाकायदा 50 रु. के स्टाम्प पेपर पर नोटरी करवाकर ले रहे हैं। इन व्यापारियों के संगठनों ने घोषणा की है कि जो भी व्यापारी मिलावट करता पाया गया, उसकी सदस्यता ही खत्म नहीं होगी, उसके खिलाफ त्वरित कानूनी कार्रवाई भी होगी। व्यापारियों पर नजर रखने के लिए इन संगठनों ने जांच-दल भी बना लिया है लेकिन मप्र के उच्च न्यायालय ने जिला-प्रशासन को निर्देश दिया है कि किसी व्यापारी के खिलाफ थाने में रपट लिखवाने के पहले उसके माल पर जांचशाला की रपट को आने दिया जाए।
एक-दो व्यापारियों को जल्दबाजी में पकडक़र जेल में डाल दिया गया था। नमकीन और मिठाई का कारोबार इंदौर में कम से कम 800 करोड़ रु. सालाना का है। इंदौर की ये दोनों चीजें सारे भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोकप्रिय हैं। इनमें मिलावट के मामले सामने तो आते हैं लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। महीने में मुश्किल से 8-10 ! लेकिन इन संगठनों का संकल्प है कि देश में इंदौर जैसे स्वच्छता का पर्याय बन गया है, वैसे ही यह खाद्यान्न शुद्धता का पर्याय बन जाए।
इंदौर के व्यापारी लगभग 50 टन तेल रोज वापरते हैं। इनमें से 40 व्यापारी अपने तेल को सिर्फ एक बार ही इस्तेमाल करते हैं। इस्तेमाल किए हुए तेल को वे बायो-डीजल बनाने के लिए बेच देते हैं। यदि सारे देश के व्यापारी इंदौरियों से सीखें तो देश का नक्शा ही बदल जाए। इंदौर के व्यापारियों ने अभी सिर्फ खाद्यान्न की शुद्धता का रास्ता खोला है, यह रास्ता भारत से मिलावट, भ्रष्टाचार और सारे अपराधों को लगभग शून्य कर सकता है। इसने सिद्ध किया है कि कानून से भी बड़ी कोई चीज है तो वह है-आत्म-संकल्प! देश के करोड़ों लोग शराब नहीं पीते, मांस नहीं खाते, व्यभिचार नहीं करते तो क्या यह सब वे कानून के डर से नहीं करते ? नहीं। ऐसा वे अपने संस्कार, अपने संकल्प, अपनी पारिवारिक पंरपरा के कारण करते हैं। यदि देश के नेता और नौकरशाह भी स्वच्छता की ऐसी कोई शपथ ले लें तो इस देश की गरीबी जल्दी ही दूर हो जाएगी, भ्रष्टाचार की जड़ों में म_ा डल जाएगा और भारत महाशक्ति बन जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)