विचार/लेख
-ज़ुबैर अहमद
सोमवार को इस साल का केंद्रीय बजट ऐसे समय में पेश किया जाएगा जब आधिकारिक तौर पर भारत पहली बार आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है.
आकलन है कि वित्त वर्ष 2020-21 का अंत अर्थव्यवस्था के 7.7 प्रतिशत तक सिकुड़ने के साथ पूरा होगा.
हालांकि दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार साल 2021-22 में विकास दर 11 प्रतिशत से अधिक होने की आशा है लेकिन पर्यवेक्षकों ने चेतावनी दी है कि अगर इस बजट में सरकार ने भारी मात्रा में स्पेंडिंग नहीं की तो अर्थव्यवस्था को विकास के पथ पर वापस लाने में दिक़्क़त होगी.
लंबे समय से साल दर साल बजट का विश्लेषण करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रिया रंजन दास, ज़ोर देकर कहते हैं कि ये "समय बड़े फ़ैसलों का है."
बजट की तैयारियाँ जारी हैं. नए आइडिया पर बात हो रही है. सरकारी सूत्रों ने पुष्टि की है कि कोरोना कर पर गंभीरता से विचार हो रहा है और ये "अधिकतम तीन साल" के लिए लगाया जा सकता है. सूत्र कहते हैं, "कॉर्पोरेट क्षेत्र के लिए यह कर टैक्स देने वाले आम लोगों से अधिक हो सकता है."
सरकार के सामने समस्याएँ अनेक
आज़ाद भारत में शायद ही किसी भी वित्त मंत्री को इतनी अधिक और इतनी जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ा होगा जितना निर्मला सीतारमण को सामना करना पड़ रहा है.
उनकी दिक़्क़तों पर ज़रा ग़ौर करें - ताज़ा बजट कोरोना महामारी के कारण पैदा हुई परिस्थिति के बीच तैयार किया जा रहा है. देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति डांवाडोल है. कोरोना के कारण 1.5 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है और एक करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं. सरकार के सामने कमज़ोर सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का पुनर्निर्माण करना है. देश की राजधानी की सीमा पर दो महीनों से किसान कृषि बिल के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं. चीन के साथ सीमा पर तनाव महीनों से जारी है. और सबसे अहम बात यह है कि सरकारी ख़ज़ाने में पैसे नहीं हैं.
निर्मला सीतारमण ने वादा किया है कि इस बार का बजट का सबसे अलग होगा, इस सदी का सबसे बेहतर. लेकिन ये तो 1 फ़रवरी को समझ में आएगा कि उनके दावों में कितना दम है.
लेकिन अर्थशास्त्रियों के बीच इस बात पर आम सहमति है कि बजट कोई जादू की छड़ी नहीं होती है.
मुंबई स्थित चूड़ीवाला सिक्योरिटीज़ के अध्यक्ष आलोक चूड़ीवाला का कहना है कि महामारी के प्रभाव से जूझने के लिए एक बजट पर्याप्त नहीं है.
वो कहते हैं, "किसी भी टूटी हुई अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में एक लंबा समय लगता है, लेकिन अगर हमारा इरादा सही है और हम सही फ़ैसले ले रहे हैं इसका पता एक बजट में चल जाता है."
प्रिया रंजन दास को इस बार के बजट से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं है क्योंकि उनका मानना है कि बजट के बारे में उम्मीदें अधिक है.
वो कहते हैं, "मुझे बहुत उम्मीद नहीं है. मुझे हेडलाइन मैनेजमेंट ज़्यादा दिखाई दे रहा है. सदी के सबसे अच्छे बजट को पेश करने जैसे वित्त मंत्री के बयान हल्के शब्द हैं. मुझे इस सरकार से अर्थव्यवस्था के कुशल प्रबंधन और वर्तमान चुनौतियों में खरा उतरने की उम्मीद नहीं है."
वो कहते हैं कि आम तौर पर बजट जितना ही आर्थिक विकास के बारे में होता है उतना ही केंद्र सरकार की तरफ़ से दिया गया एक सियासी बयान भी होता है. ये भी आम बात है कि हर साल बजट के सारे वादे पूरे नहीं होते.
वो कहते हैं कि "बजट से पहले वित्त मंत्री ने सभी उचित बातें ही कही हैं. उन्होंने कहा है कि उनकी प्राथमिकताएं विकास को पुनर्जीवित करना, महामारी प्रभावित क्षेत्रों में सहायता प्रदान करना और रोज़गार के अवसर पैदा करना हैं."
लेकिन इन इरादों को अमल में लाना कितना मुश्किल होगा? दूसरे शब्दों में, उन्हें बजट के लिए किन प्रमुख चुनौतियों का सामना करना है?
कुछ आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रोज़गार के नए अवसर पैदा करना है. रिकॉर्ड के लिए, साल 2012 में देश में बेरोज़गारी दर दो प्रतिशत थी. आज यह 9.1 प्रतिशत है. बेशक यह समस्या दुनिया भर में है लेकिन कई देशों ने बेरोज़गारी से निपटने के लिए उचित कदम उठाए हैं.
प्रिया रंजन दास कहते हैं कि रिकॉर्ड बेरोज़गारी की समस्या का हल निकालना वित्त मंत्री का सबसे बड़ा सिरदर्द है. वह कहते हैं, "सबसे बड़ी चुनौती ये तथ्य है कि नीति निर्माता बेरोज़गारी को एक बड़ी चुनौती के रूप में मान्यता नहीं देते हैं. ये वर्तमान में रिकॉर्ड स्तर पर है. ये Covid-19 के पहले ही 45 साल के रिकॉर्ड स्तर पर था. और महामारी के बाद और भी बिगड़ गया है."
केंद्र सरकार का तर्क है कि बेरोज़गारी की समस्या वर्षों से जारी है और यह कोई नई बात नहीं है. प्रिया रंजन दास कहते हैं, "इसलिए सरकार इस समस्या का मुक़ाबला करने वाली नहीं है क्योंकि ये इसे गंभीरता से नहीं ले रही है. असली चुनौती तेज़ी से बढ़ती बेरोज़गारी है. हाँ, यह वर्षों से एक समस्या है लेकिन कोविड-19 के कारण ये हमारी सबसे बड़ी समस्या बन गई है."
आलोक चूड़ीवाला भी बेरोज़गारी को एक बहुत ही गंभीर चुनौती मानते हैं. उनके अनुसार लॉकडाउन के दौरान कई लाख मज़दूर अपने घरों को वापिस लौट गए जिनमें से अधिकांश अब भी काम पर वापस नहीं लौटे हैं.
उनका कहना है कि इन मज़दूरों को उनके गाँवों में रोज़गार देना या उनकी शहरों में नौकरियों में वापसी सरकार की एक बड़ी चुनौती होगी.
मंदी से अच्छी गति से कैसे उबरें और आगे बढ़ें
प्रिया रंजन दास कहते हैं कि महामारी से हुए नुक़सान से उबरना और विकास दर को गति देना वित्त मंत्री की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है. रेटिंग एजेंसी क्रिसिल का अनुमान है कि लॉकडाउन और महामारी के कारण भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का चार प्रतिशत खो दिया है.
कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि महामारी से पहले अर्थव्यवस्था जहाँ थी, इसे वहां तक पहुँचने के लिए तीन साल तक निरंतर 8.5 प्रतिशत वृद्धि की ज़रूरत होगी.
आलोक चूड़ीवाला कहते हैं कि वित्त मंत्री के सामने मुख्य चुनौती ये है कि अर्थव्यवस्था को विकास के रास्ते पर फिर से कैसे लाया जाए.
वह कहते हैं, "ऐसा करने के लिए, सरकार को बजट में एक बड़े आर्थिक पैकेज के साथ आने की ज़रूरत है जिससे बड़े पैमाने पर मांग को बढ़ावा मिल सकेगा."
अब तक कोरोना महामारी के असर से लड़ने में सरकार आर्थिक रूप से अनुदार रही है और उसने बेहद सावधान से कदम बढ़ाए हैं. अधिकतर आर्थिक विशेषज्ञों का तर्क है कि मोदी सरकार के लिए राजकोषीय अनुशासन के बारे में बहुत अधिक परवाह किए बिना बड़े पैमाने पर ख़र्च करने की ज़रुरत है.
वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ और पत्रकार आशीष चक्रवर्ती कहते हैं, "ये असाधारण समय हैं और केवल भारत में नहीं बल्कि दुनिया में हर जगह है. सरकार अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की चिंता न करे. बस ख़र्च करें. ग़रीबों और छोटे व्यवसाय वालों के पॉकेट में पैसे आने चाहिए. रेटिंग एजेंसियाँ हमारे वित्तीय अनुशासन पर सवाल उठाएंगी. लेकिन अगले तीन-चार साल तक हमें उन्हें अनदेखा करना चाहिए."
वह कहते हैं, "निर्मला सीतारमण को इस बजट को पहले के सालों से अलग कर के देखना चाहिए. हम 2020 में बहुत हाथ रोक कर ख़र्च कर रहे थे. लेकिन जैसा कि लोगों को डर था इससे मांग को बढ़ाने में मदद नहीं मिली और खपत (consumption) लगातार सुस्त रही है."
जैसा कि वो कहते हैं, "मैं बिना सोचे समझे खर्च की वकालत कतई नहीं कर रहा हूं. मैं स्मार्ट तरीके लेकिन तुरंत ख़र्च करने का बात पर ज़ोर दे रहा हूं ताकि हम मार्केट में मांग उत्पन्न कर सकें, सकारात्मकता फैला सकें और खपत पैदा कर सकें. फिलहाल के लिए ख़र्च करना आर्थिक विकास का प्रमुख चालक होगा."
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल मई में 20 लाख करोड़ रुपये ख़र्च करने की घोषणा की थी और इसे स्टिमुलस पैकेज कहा था. जनधन और दूसरी योजनाओं के तहत सरकार ने हाशिये पर रह रहे ग़रीबों के खातों में कुछ पैसे डाले लेकिन इससे मांग बढ़ने वाली नहीं थी क्योंकि मदद की राशि बहुत कम थी और ये समाज के सभी ग़रीबों को नहीं मिली.
छोटे व्यापारियों को कोई मदद नहीं मिली. बाद में बैंकों में नकदी तो आई लेकिन छोटे व्यापारियों को इतना नुक़सान हुआ था कि वो बैंकों से क़र्ज़ लेने की स्थिति में भी नहीं थे.
इसके अलावा, छोटे और मध्यम व्यवसायों को जो मिला, वह कुछ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तरह, एक बार की नकद सहायता भी नहीं थी, लेकिन सरकारी प्रयासों ने उनके लिए बाज़ार में पर्याप्त तरलता पैदा की.
चक्रवर्ती कहते हैं, "सरकार के पैकेज का फोकस सप्लाई साइड को मज़बूत करना था जो इसने किया भी. लेकिन डिमांड साइड पर ध्यान नहीं दिया गया. और जैसा कि आप देख सकते हैं कि इस तरह के धूमधाम के साथ लॉन्च किए गए आर्थिक पैकेज ने मांग को आगे नहीं बढ़ाया. वित्त मंत्री को मांग को बड़े पैमाने पर बढ़ाने की ज़रुरत है."
दास का तर्क है कि किसी भी नकद पैकेज को रोज़गार से जोड़ा जाना चाहिए. वो कहते हैं, "जैसे कि ग्रामीण इलाकों के ग़रीब मज़दूरों के लिए मनरेगा योजना है जिसके तहत तीन महीने की रोज़गार की गारंटी है."
मूल न्यूनतम सार्वभौमिक आय
प्रिया रंजन दास का कहना है कि सरकार को हिम्मत दिखानी चाहिए और ये मान कर बजट बनाना चाहिए कि विभिन्न-कुशल वाले श्रमिकों के लिए बुनियादी न्यूनतम सार्वभौमिक आय योजना को शुरू करने का ये सबसे अच्छा समय है.
वो कहते हैं, "ये एक साहसिक क़दम ज़रूर होगा लेकिन सही क़दम होगा. बैंक खातों में नकद मदद भेजने की ज़रुरत नहीं है. ये मनरेगा की तरह एक रोज़गार गारंटी योजना से जुड़ा होना चाहिए."
मनरेगा के तहत मज़दूरी के बदले मज़दूरों के खातों में सीधे पैसे जा रहे हैं. वो कहते हैं, "प्रस्तावित योजना कौशल के विभिन्न स्तरों के श्रमिकों और ग्रामीण और शहरी श्रमिकों के लिए होनी चाहिए. और वर्ष में 100 दिनों के लिए रोज़गार की गारंटी हो".
उनका मानना है कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति है तो वित्त मंत्री ऐसा कर सकती हैं.
वो कहते हैं, "देखिये भारत के पास दुनिया के सबसे बड़े गारंटी देने वाले रोज़गार कार्यक्रम मनरेगा को लागू करने और इसे सालों से चलाने का अनुभव है और ये ऐसी योजना है जिसने ग़रीबी रेखा के नीचे से 17 करोड़ लोगों के जीवनस्तर को बेहतर करने योगदान दिया है. हमारे पास तजुर्बा है, हम इस तरह की दूसरी योजना भी शुरू कर सकते हैं."
प्रिया रंजन दास ऐसा नहीं मानते. वो कहते हैं, "सरकार संसाधन जुटा सकती है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कम कीमतों के दौरान भारत सरकार ने चुपचाप अतिरिक्त उत्पाद शुल्क के माध्यम से 20 लाख करोड़ रुपये जुटाए हैं. हमें दिमाग़ लगा कर सोचने की ज़रुरत है. संसाधन जुटाना कई साल पहले एक बड़ी समस्या हुआ करती थी लेकिन अब ऐसा नहीं है."
वो अपने तर्क के पक्ष में कहते हैं, "यदि आप 20 लाख करोड़ रुपये के आत्मनिर्भारता पैकेज (12 मई 2020 को इसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने की थी) को देखें तो आप समझ जाएंगे कि संसाधन समस्या नहीं हैं. यदि आपके पास इच्छाशक्ति है तो आप संसाधन जुटा सकते हैं."
भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार केवी सुब्रमण्यम ने पिछले साल जुलाई में कहा था कि जब कोरोना के टीके उपलब्ध होंगे तो एक भारी स्टिमुलस पैकेज के लिए सही समय होगा. फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (FICCI) द्वारा आयोजित एक वेबिनार में, उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ये 'अगर' का प्रश्न नहीं था, ये 'कब' का सवाल है.
अब भारत में कोरोना का टीका लोगों को दिया जा रहा है और चक्रवर्ती को उम्मीद है कि वित्त मंत्री "एक बड़े पैकेज का एलान कर सकती हैं."
हालांकि आलोक चुड़ीवाला मानते हैं कि नकदी के लिए सरकार के पास सीमित विकल्प हैं.
वो कहते हैं "सरकार के पास नकदी की समस्या है. सरकार को हर क़दम फूंक-फूंक कर आगे बढ़ाना पड़ेगा. आय कर नहीं बढ़ाना चाहिए. शायद कोरोना टैक्स सही होगा क्योंकि हमें अगले कुछ सालों में ढेर सारे पैसे चाहिए."
आम तौर से केंद्र सरकार के पास पैसे कमाने के पांच मुख्य ज़रिए होते हैं - (1) जीएसटी से 18.5 प्रतिशत, (2) कॉर्पोरेट टैक्स से 18.1 प्रतिशत, (3) व्यक्तिगत आयकर से 17 प्रतिशत, (4) एक्साइज़ ड्यूटी से 11 प्रतिशत और (5) सीमा शुल्क से 5.7 प्रतिशत.
पिछले कुछ महीनों में जीएसटी संग्रह में तेज़ी आई है. सरकार को व्यक्तिगत आयकर को बढ़ाने के बजाय और अधिक लोगों से टैक्स वसूली करने की ज़रुरत है.
केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (CBDT) द्वारा जारी किए गए 2018-19 की टैक्स ब्रेकअप पर एक रिपोर्ट के अनुसार 5.78 करोड़ लोगों ने अपना आयकर रिटर्न दाख़िल किये थे जिनमें से लगभग 1.46 करोड़ लोगों ने टैक्स दिए.
लगभग 1 करोड़ लोगों ने 5-10 लाख रुपये के बीच टैक्स दिए और बाक़ी 46 लाख व्यक्तिगत करदाताओं ने 10 लाख रुपये से ऊपर की आय पर टैक्स दिया. लगभग 135 करोड़ लोगों के देश में वास्तव में करों का भुगतान करने वालों की संख्या इतनी नगण्य है.
यदि सरकार कोरोना-टैक्स लगाने का फ़ैसला करती है तो इसका बोझ करदाताओं के इस छोटे समूह पर पड़ेगा.
विनिवेश और निजीकरण लक्ष्य
सरकार के लिए पैसे कमाने के और भी तरीके हैं. अगर निर्मला सीतारमण चाहें तो पब्लिक सर्विस अंडरटेकिंग्स में स्टेक्स बेचकर, एयर इंडिया जैसी कुछ कंपनियों का निजीकरण करके और सरकारी प्राइम प्रॉपर्टीज को नीलाम करके अरबों रुपये हासिल कर सकती हैं. वित्तीय मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि इस बार के बजट में विनिवेश और निजीकरण पर काफ़ी ज़ोर होगा.
लेकिन सरकार इस क्षेत्र में अब तक बहुत कामयाब नहीं रही है. पिछले साल के बजट में सरकार ने विनिवेश और निजीकरण से कमाने का लक्ष्य 215 लाख करोड़ रुपये रखा था लेकिन केवल 30,000 करोड़ रुपये का ही विनिवेश हो सका. महामारी इसका बड़ा कारण था लेकिन इसके पहले वाले सालों में भी सरकार ने अपना लक्ष्य हासिल नहीं किया था. इस साल के बजट में विनिवेश, निजीकरण और सरकारी संपत्तियों की नीलामी के प्रावधान से सरकारी हलकों में उम्मीद पैदा हुई है कि इससे सरकारी ख़ज़ाने में पैसे आएंगे.
वित्त मंत्रालय के एक सूत्र ने हाल ही में बीबीसी को बताया, "विनिवेश पर अधिक ध्यान दिया जाएगा, जिसका पैमाना शायद पहले कभी नहीं देखा गया है".
आलोक चुड़ीवाला इस तथ्य पर अफ़सोस जताते हैं कि मोदी सरकार विनिवेश लक्ष्यों को हासिल करने में अक्सर नाकाम रही है लेकिन इस बार उन्हें यक़ीन है कि ये लक्ष्य पूरा होगा क्योंकि इसे नकदी की ज़रूरत है और इसलिए भी कि ये अधिक राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखा रही है
प्रिया रंजन दास को सरकार में विनिवेश के लिए उच्च लक्ष्य से कोई शिकायत नहीं.
वह कहते हैं, "किसी भी सरकार के तहत विनिवेश लक्ष्य पूरा नहीं किया जाता है. लेकिन उच्च लक्ष्य करने में कोई बुराई नहीं है. यह संसाधन जुटाने का एक तरीका है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण नहीं है."
सरकारी की थिंक टैंक नीति आयोग ने विनिवेश के लिए 50 से अधिक सरकारी कंपनियों के निजीकरण और विनिवेश की सिफ़ारिश की है.
क्या कोरोना टैक्स लगाना एक चुनौती होगी?
आलोक चुड़ीवाला मानते हैं कि पैसे जुटाने के लिए अगर सरकार कोरोना-टैक्स लगाने के बारे में फ़ैसला करती है तो इससे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
प्रिया रंजन दास भी कहते हैं कि वो कोरोना-टैक्स देने से पीछे नहीं हटेंगे. वो कहते हैं, "शिक्षा टैक्स कामयाब रहा है. कोरोना-टैक्स हमारे स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को बेहतर बनाने और टीकाकरण अभियान को आगे बढ़ाने में मदद करेगा. जब आप स्वास्थ्य संकट के बीच होते हैं तो इसके लिए ख़र्च में वृद्धि को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए. मैं कोरोना-टैक्स के पक्ष में हूं."
लेकिन वित्त मंत्रालय ने इस पर अभी निर्णय नहीं लिया है. फ़िलहाल इस पर विचार विमर्श जारी है.
-रजनीश कुमार
नेपाल की राजधानी काठमांडू के कमलपोखरी में सोमवार दोपहर सैकड़ों की संख्या में वृहद नागरिक आंदोलन के लोग जुटे. यहाँ लोगों ने कमलपोखरी तालाब की मिट्टी का तिलक लगाया और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के आवास बालुवाटार की तरफ़ मार्च करने लगे.
सभी प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री ओली के 20 दिसंबर को संसद भंग करने के फ़ैसले का विरोध कर रहे थे. पुलिस ने इन्हें बीच में ही रोकने की कोशिश की, लेकिन प्रदर्शनकारी नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे. पुलिस ने बल का प्रयोग किया और कई लोग ज़ख्मी हो गए.
इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कांतीपुर अख़बार के पूर्व संपादक नारायण वाग्ले को भी पुलिस ने लाठी से मारा. लेकिन वाग्ले ने प्रदर्शनकारियों को वहीं संबोधित करते हुए कहा कि ओली ने संविधान की धज्जियाँ उड़ा दी हैं.
नारायण वाग्ले ने कहा, ''हमलोग शांतिपूर्ण आंदोलन चला रहे थे. पुलिस को इस आंदोलन को लेकर सूचित भी कर दिया था. हम निहत्थे हैं. लेकिन पुलिस ने दमन किया. अब तीसरे जनआंदोलन की शुरुआत हो चुकी है.'' इस आंदोलन में केपी ओली मुर्दाबाद के नारे भी लगे.
इस आंदोलन में शामिल युग पाठक ने कहा कि यहाँ सत्ता पक्ष और विपक्ष अप्रासंगिक हो चुके हैं. उन्होंने कहा कि अब नागरिक आंदोलन से ही उम्मीद बची है.
युग पाठक ने कहा कि जब सरकार मनमानी करती है तो संवैधानिक संस्थाओं से उम्मीद होती है, लेकिन वे भी ख़ामोश हैं. मामला सुप्रीम कोर्ट में है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में भी कछुए की गति से सुनवाई चल रही है. सुप्रीम कोर्ट को तय करना है कि संसद भंग करना संवैधानिक है या नहीं लेकिन अब तक कुछ भी नहीं हो पाया है.
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी दो फाड़ हो गई है. पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल दावा कर रहे हैं कि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की कमान उनके पास है और वर्तमान प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली कह रहे हैं कि पार्टी के अध्यक्ष वो हैं. अब निर्वाचन आयोग को तय करना है कि पार्टी किसकी है. ओली की या प्रचंड की. पार्टी निशान सूर्य किसे मिलेगा? लेकिन निर्वाचन आयोग भी अनिर्णय की स्थिति में है.
जनता की उम्मीदें
नेपाल के राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट और निर्वाचन आयोग से बहुत उम्मीद नहीं है. नेपाल के विदेश मंत्री और पीएम ओली गुट के प्रवक्ता प्रदीप ज्ञवाली से पूछा कि अभी सुप्रीम कोर्ट और निर्वाचन आयोग को निर्णायक भूमिका अदा करनी चाहिए थी लेकिन यहाँ भी चुप्पी है. नेपाल की जनता अब किससे उम्मीद करे?
इस पर प्रदीप ज्ञवाली कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है और उम्मीद है कि अप्रैल में चुनाव से पहले कुछ फ़ैसला आ जाएगा. निर्वाचन आयोग भी चुनाव से पहले कोई फ़ैसला दे देगा. मुझे लगता है कि चुनाव का मार्ग ही प्रशस्त होगा.''
अगर चुनाव होता है, तो नेपाल में दो साल के भीतर फिर से चुनाव होगा. ओली सरकार ने 20 दिसंबर को संसद भंग करने के बाद 30 अप्रैल और 10 मई को चुनाव की घोषणा की है.
नवंबर 2017 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल यानी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी और प्रचंड की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) मिलकर चुनाव लड़ी थी.
फ़रवरी 2018 में ओली पीएम बने और सत्ता में आने के कुछ महीने बाद प्रचंड और ओली की पार्टी ने आपस में विलय कर लिया. विलय के बाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनी. संसद में इनका दो तिहाई बहुमत था. लेकिन ओली और प्रचंड के बीच की यह एकता लंबे समय तक नहीं रही.
जब पार्टी का विलय हुआ था, तो यह बात हुई थी कि ओली ढाई साल प्रधानमंत्री रहेंगे और ढाई साल प्रचंड. लेकिन ढाई साल होने के बाद ओली ने कुर्सी छोड़ने से इनकार कर दिया. इसके बाद से प्रचंड बनाम ओली का खेल शुरू और संसद तक भंग कर दी गई. पिछले रविवार को प्रचंड गुट ने ओली को नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी से निकालने की घोषणा की.
क्या अब प्रतिक्रिया में ओली गुट भी प्रचंड को पार्टी से निकालेगा? इस सवाल के जवाब में प्रदीप ज्ञवाली कहते हैं, ''इसकी ज़रूरत ही नहीं है. पार्टी के पहले अध्यक्ष प्रधानमंत्री ओली हैं और वे जो फ़ैसला लेंगे वही आख़िरी होगा. निर्वाचन आयोग ने भी कह दिया है कि संसद भंग होने के बाद पार्टी के भीतर लिया गया कोई भी फ़ैसला मान्य नहीं होगा. हमें कॉमरेड प्रचंड को निकालने की ज़रूरत नहीं है. पार्टी हमलोग के पास है और इसमें कोई गुट नहीं है.''
जब ढाई-ढाई साल प्रधानमंत्री रहने की बात थी तो ओली ने कुर्सी क्यों नहीं छोड़ी? इस सवाल के जवाब में प्रदीप ज्ञवाली कहते हैं, ''ये सही बात है कि ढाई-ढाई साल प्रधानमंत्री रहने की बात हुई थी. लेकिन पार्टी के भीतर इस बात पर भी सहमति बनी थी कि कोई फ़ैसला करने से पहले संसदीय समिति के भीतर औपचारिक प्रस्ताव लाया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात होने लगी, जबकि इस तरह का प्रस्ताव पहले संसदीय समिति में लाना होता है. ऐसे में अगर उनके पास ज़्यादा संख्या बल भी है तो कोई मायने नहीं रखता.''
प्रचंड और ओली के टकराव से क्या नेपाल के किशोरावस्था वाले लोकतंत्र को नुक़सान नहीं हो रहा? प्रदीप ज्ञवाली कहते हैं, ''मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ. अभी नेपाल के प्रजातंत्र को सहेजने की ज़रूरत है. परिपक्व बनाने की ज़रूरत है, लेकिन सत्ताधारी पार्टी में इस तरह के मतभेद से ऐसा नहीं होगा. एकता बहुत ज़रूरी है. लोगों को यहाँ के प्रजातंत्र से बहुत उम्मीद है और हमें इस इस उम्मीद पर खरा उतरना है.''
ओली के संसद भंग करने के फ़ैसले का नेपाल में चौतरफ़ा विरोध हो रहा है. सारी विपक्षी पार्टियाँ खुलकर विरोध कर रही हैं. पूर्व प्रधानमंत्री और जनता समाज पार्टी के अध्यक्ष बाबूराम भट्टाराई का कहना है कि ओली ने पूरी तरह से असंवैधानिक और फासीवादी फ़ैसला किया है.
बाबूराम भट्टराई ने बीबीसी हिन्दी से कहा कि यह नेपाल के प्रजातंत्र को मिट्टी में मिलाने वाला फ़ैसला है. यहाँ के आम लोग भी ओली के फ़ैसले को तानाशाही फ़ैसला कह रहे हैं.
फिर से आंदोलन की राह पर नेपाल?
प्रदीप ज्ञवाली कहते हैं कि सारी पार्टियाँ इसलिए विरोध कर रही हैं क्योंकि उन्हें विरोध करना है. हालाँकि नेपाल के राजनीतिक विश्लेषक हरि शर्मा कहते हैं कि नेपाल फिर से करवट ले रहा है और एक बार फिर से आंदोलन के ज़रिए सब कुछ सेट करेगा.
वे कहते हैं, ''जिस दिन ओली ने लिपुलेख और कालापानी को लेकर नया नक्शा जारी किया उसी दिन लग गया था कि ये आदमी मोदी सरकार से कुछ सौदा करने वाला है और यही हुआ. अब ये मोदी सरकार के साथ खड़े हैं. जिस तरह से मोदी भारत में संवैधानिक लोकतंत्र को बदले लोकप्रिय लोकतंत्र चला रहे हैं उसी तरह से ओली भी संवैधानिक लोकतंत्र के बदले लोकप्रियतावाद की तरफ़ बढ़ रहे थे. प्रचंड ने रोका तो संवैधानिक लोकतत्र को ख़ारिज कर दिया.''
हरि शर्मा कहते हैं कि ओली अब नेपाल की राजनीति में अप्रासंगिक हो गए हैँ और आने वाले वक़्त में वो भी इस बात को समझ जाएंगे. हरि शर्मा कहते हैं, ''ओली ने भले संप्रभुता के नाम पर लिपुलेख और कालापानी को नक्शे में शामिल किया, लेकिन संप्रभुता केवल ज़मीन से नहीं बल्कि लोगों के मन से होती है. यह भारत से सौदे के लिए क़दम था और अब साफ़ दिखने लगा है.''
नेपाल प्रदर्शन
अखिल नेपाल राष्ट्रीय स्वतंत्र विद्यार्थी यूनियन के नेता रहे गणेश प्रसाद मैनाली कहते हैं कि ओली ने संसद भंग कर संविधान और लोकतंत्र के ख़िलाफ़ काम किया है. मैनाली कहते हैं, ''नेपाल में अभी ग़रीबी और महंगाई को लेकर काम करने की ज़रूरत है लेकिन ये लोग आपस में ही लड़ रहे हैं. इससे केवल कम्युनिस्ट मास बेस में ही निराशा नहीं है, बल्कि आम लोग भी आक्रोशित हैं. यह नेपाल के मज़बूत वामपंथी एकता और लोकतंत्र का बहुत दुखद चैप्टर है.''
त्रिभुवन यूनिवर्सिटी में राजनीतिक शास्त्र के प्रोफ़ेसर हरि रोका कहते हैं कि नेपाल का मौजूदा संविधान फेल हो गया है. हरि रोका के अनुसार, ''इस संविधान से लोकतंत्र नहीं चलेगा. ओली ने जिस तरह से फ़ैसला किया, उसे रोकने के लिए नए संविधान की ज़रूरत है. मौजूदा संसद समावेशी के लिहाज से लाजवाब थी. इसमें मुसलमान, दलित और महिलाओ की मज़बूत भागीदारी थी लेकिन ओली ने चलने नहीं दिया.''
भारत पर उठते सवाल
हरि रोका कहते हैं, "ओली पर भारत की सत्ताधारी पार्टी और वहाँ के अभिजात्य तबके का भी दबाव था. इसके अलावा अमेरिका का भी दबाव था. ओली इसके सामने झुक गए. हालाँकि ओली को झुकने से उन्हें कोई फ़ायदा नहीं मिलने जा रहा. उनकी राजनीति अब ख़त्म हो चुकी है."
"दरअसल, ओली को प्रचंड ठीक से समझ नहीं पाए. उनका आकलन बिल्कुल ग़लत साबित हुआ. अब नेपाल नए आंदोलन की तरफ़ बढ़ रहा है. अब नया नेतृत्व पैदा होगा. प्रचंड, बाबूराम भट्टाराई और माधव कुमार नेपाल के नेतृत्व का वक़्त अब ख़त्म हो चुका है. अब कोई नया नेतृत्व उभरेगा और वही नेपाल को मज़बूत लोकतंत्र की राह पर लाएगा. अब इस सविंधान से काम नहीं चलने वाला है."
ओली
नेपाल में संसद भंग होने से भारत को क्या फ़ायदा होगा? हरि रोका कहते हैं कि वो भारत की बात नहीं कर रहे बल्कि भारत की उस ताक़त की बात कर रहे हैं, जो हिंदू राष्ट्र की बात करता है. रोका कहते हैं, ''भारतीय जनता पार्टी अपने मुल्क को हिंदू राष्ट्र नहीं बना पा रही है, लेकिन नेपाल में ऐसा करना चाहती है और ओली उसी के शिकार हुए हैं.''
हालाँकि बाबूराम भट्टराई इस बात बात से सहमत नहीं हैं कि संविधान फेल हो गया है. उन्होंने बीबसी से कहा कि संविधान का ओली ने उल्लंघन किया है और सुप्रीम कोर्ट की ज़िम्मेदारी है कि जवाबदेही तय करे.
नेपाल में जब भी कोई राजनीतिक अस्थिरता होती है तो भारत का नाम ज़रूर आता है. इस बार भी नेपाल के कई राजनीतिक विश्लेषक भारत पर उंगली उठा रहे हैं. क्या वाक़ई भारत की कोई भूमिका है?
भारत में 1996-97 में नेपाल के राजदूत रहे लोकराज बराल कहते हैं, ''नेपाल में विदेशी हस्तक्षेप ख़ुद से नहीं आता. हम इसे इन्वाइटेड हस्तक्षेप कहते हैं. यानी आमंत्रित हस्तक्षेप. ये आज की बात नहीं है. ऐसा नेहरू के ज़माने से हो रहा है. हर बार यहाँ की राजनीतिक पार्टियाँ अपनी सत्ता बचाने के भारत या चीन का सहारा लेती हैं और कहती हैं कि बाहरी हस्तक्षेप हो रहा है.''
पीएम ओली ने जब लिपुलेख और कालापानी को शामिल करते हुए नेपाल का नया नक्शा जारी किया, तो उन्हें भारत विरोधी के तौर पर भारतीय मीडिया में रेखांकित किया गया. लेकिन संसद भंग किए जाने के बाद नेपाल में कहा जा रहा है कि ओली को भारत की शह मिली हुई है इसलिए अड़े हुए हैं. हालाँकि प्रदीप ज्ञवाली इन बातों को बकवास बताते हैं.
प्रदीप ज्ञवाली पिछले हफ़्ते भारत के तीन दिवसीय दौरे पर आए थे. उन्होंने विदेश मंत्री एस जयशंकर से मुलाक़ात की थी. प्रदीप ज्ञवाली से पूछा कि उनका भारत दौरा कैसा रहा है? ज्ञवाली ने कहा, ''बहुत ही अच्छा रहा. सारे मुद्दों पर बात हुई. सीमा विवाद पर भी बात हुई. पहले भारत इस पर बात करने को तैयार नहीं होता था, लेकिन अब बात कर रहा है. अब वो मान रहा है कि सीमा विवाद है. हालाँकि अब भी दोनों पक्षों के बीच मतभेद हैं.''
प्रदीप ज्ञवाली कहते है कि इस बार भारत का रुख़ सकाराकत्मक रहा है. नेपाल के राजनीतिक हलकों में भारत के वर्तमान विदेश मंत्री एस जयशंकर को लेकर लोग हमलावर रहते हैं. 2015 में जब नेपाल ने अपना नया संविधान बनाया, तो भारत ने मधेसियों को लेकर इस संविधान को नहीं लागू करने का दबाव डाला था.
तब एस जयशंकर विदेश सचिव थे और वही भारत का पक्ष लेकर आए थे. यहाँ के लोग बताते हैं कि जयशंकर ने बहुत ही आक्रोश के साथ इस संविधान को रोकने के लिए कहा था. लेकिन तब नेपाल की सारी पार्टियाँ एकजुट हो गई थीं और भारत की आपत्ति को किनारे रखते हुए वही संविधान लागू किया था. उसके बाद भारत की तरफ़ से अघोषित नाकाबंदी हुई और नेपाल के आम लोगों को भारी मुश्किलों का सामान करना पड़ा था. तब से नेपाल में एक तरह का भारत विरोधी भावना भी बढ़ी है.
लोकराज बराल कहते हैं कि तब एस जयशंकर का तरीक़ा सही नहीं था. उन्हें अपना पक्ष रखना चाहिए था, लेकिन नरम तेवर से. बराल कहते हैं कि नेपाल पहली बार संविधान बना रहा था और भारत को इसका स्वागत करना चाहिए था, क्योंकि संविधान में कमियाँ वक़्त के साथ दूर की जा सकती थीं.
पिछले एक साल में नेपाल के प्रधानमंत्री ओली ने भारत को लेकर कई तीखे बयान दिए और भारत में मुख्यधारा के मीडिया में यह छवि पेश की गई कि ओली चीन परस्त हैं. जब ओली ने संसद भंग किया तो कॉम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना का एक प्रतिनिधिमंडल भी नेपाल आया. इस प्रतिनिधिमंडल के बारे में कहा गया कि वो नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में प्रचंड बनाम ओली के बिखराव को रोकना चाहता था. इस प्रतिनिधिमंडल ने दोनों धड़ों से मुलाक़ात भी की, लेकिन ओली के बारे में कहा गया कि वो नहीं माने.
इसके बाद अचानक से ओली ने एक भारतीय चैनल को इंटरव्यू दिया. यह चैनल उन भारतीय चैनलों में शामिल था, जिसे एक कुछ महीने पहले ही नेपाल बैन किया था. इन चैनलों पर नेपाल में चीन की राजदूत और ओली के हनी ट्रैप की मनगढ़ंत कहानियाँ चलाई जा रही थीं.
नेपाली मीडिया में इस इंटरव्यू को ओली और मोदी की दोस्ती से जोड़ा जाने लगा. चीन के मनाने पर भी ओली के नहीं मानने को भारत की जीत की रूप में देखा जाने लगा.
इसी हफ़्ते ओली पशुपतिनाथ मंदिर में दर्शन करने गए तो नेपाल के पत्रकार कहने लगे कि नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में एक राइट विंग पैदा हो चुका है और ओली उसका नेतृत्व करेंगे.
लेखक और प्रकाशक मणि शर्मा ने ट्वीट कर कहा, ''पशुपतिनाथ मंदिर में ओली के जाकर पूजा करने से साफ़ हो गया है कि नेपाल में धर्मनिरपेक्षता को ख़ारिज करने की पूरी तैयारी हो चुकी है. आने वाले दिनों में ओली अभी और ऐसे क़दम उठाएँगे, जिसे नेपाल को भुगतना होगा.'' (bbc.com)
-Kundan Pandey
केंद्र सरकार ने करीब तीन सालों पहले ग्रामीण कृषि बाजार बनाने की घोषणा की थी। इसके तहत छोटे और मझोले किसानों को अपनी फसल सही दाम में बेचने की सहूलियत मिलने की बात की गई थी। तीन साल हो गए और यह विचार अभी भी कागज तक सीमित है।
पहले दो साल में सरकार को करीब 10,000 कृषि हाट बना लेना था लेकिन अब तक सिर्फ एक राज्य ने ग्राम नाम की इस योजना में दिलचस्पी दिखाई है। कृषि मंत्रालय का कहना है कि अन्य राज्यों को इसके लिए तैयार कराया जा रहा है।
तमाम अध्ययन बताते हैं कि बाजार के सुलभ न होने से किसानों को उनकी फसल का उचित दाम नहीं मिल पाता है। छोटे किसान अपनी फसल बेचने के लिए दूर मंडी तक नहीं जा सकते और स्थानीय स्तर पर उन्हें सस्ते दरों पर ही अपनी उपज बेचनी पड़ती है।
कृषि हाट के दिशानिर्देश भी हाल ही में आए तीन नए कृषि कानून की तरह ही है। इस दिशानिर्देश भी कृषि हाट को कम से कम नियंत्रित करने की बात करता है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर नियंत्रण नहीं रहा तो इससे किसानों को फायदा नहीं मिलेगा।
करीब दो महीने तक राजधानी की सीमा के बाहर हाड़ कंपा देने वाले सर्दी में संघर्ष करने के बाद लाखों किसानों गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली की सीमा में ट्रैक्टर जुलूस के साथ प्रवेश कर पाए। केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों का विरोध का विरोध कर रहे किसानों में से एक की मौत हो गयी और पुलिस के लाठी चार्ज में कई किसान घायल हुए। सौ के करीब किसान पहले ही ठंड की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं। ये किसान सरकार के इस दावे से संतुष्ट नहीं है कि इन कानूनों से उनका भला होगा। इनको सरकार की नियत पर संदेह है। किसानों की आय बढ़ाने के सरकार के पिछले आदेश को देखा जाए तो ये संदेह और पुख्ता होता है।
अपने 2018-19 के बजट भाषण के दौरान, पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने घोषणा की कि सरकार करीब 22,000 मौजूद ग्रामीण हाटों को कृषि हाट के तौर पर विकसित करेगी। इससे छोटे और मझोले किसानों को उनकी फसल का बेहतर दाम मिल सकेगा। इसकी पहली समय-सीमा 31 मार्च 2020 निर्धारित की गई थी। इस समय-सीमा को बीते एक साल होने को जा रहा है और इस मामले में अब तक कुछ भी नहीं हुआ है।
मोंगाबे-हिन्दी द्वारा दायर एक आरटीआई के जवाब में कृषि और किसान कल्याण विभाग ने जनवरी 19 को बताया किया राज्य सरकारों को डीटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) भेजने के लिए तैयार कराया जा रहा है। अभी तक बस एक राज्य (गुजरात) से ही यह रिपोर्ट भेजी गयी है। इस रिपोर्ट को देखा-परखा जा रहा है।
इस योजना के समय-सीमा के बारे में दिशा-निर्देश में लिखा है कि 31 मार्च 2020 तक जो राज्य रिपोर्ट भेजेंगे और अगर उसपर सहमति बन गई तो उन राज्यों को इस योजना के तहत सहायता मिलेगी।
जब आरटीआई आवेदन में समय-सीमा के बारे में पूछा गया तो विभाग ने बताया कि पहले 31 मार्च 2020 थी जिसे कोविड की वजह से एक साल के लिए बढ़ा दिया गया है। सनद रहे कि 24 मार्च 2020 को केंद्र सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा की थी। साल के आखिरी दिन यानी 31 मार्च से महज छः दिन पहले। अगर नई समय-सीमा को भी देखा जाए तो इसे पूरा होने में महज दो महीने बाकी हैं और धरातल पर नतीजा सिफर है।
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि इससे सरकार की गंभीरता का पता चलता है। सरकार कृषि क्षेत्र के लिए आधारभूत संरचना को लेकर कितनी गंभीर है! देश में अभी 7,000 के करीब मंडियाँ हैं और कुल 42,000 की जरूरत बताई जाती है। भारत जैसे देश के लिए इतनी मंडी खड़ा कर देना कोई बड़ी बात नहीं थी पर सरकारों ने जानबूझकर इसपर ध्यान नहीं दिया। अब इसको ढंकने के लिए वर्तमान सरकार ने ग्राम हाट की घोषणा कर दी जिसे ईनाम से जोड़ा जाना था। ईनाम कृषि व्यवसाय का एक अनलाइन प्लेटफॉर्म है।
कृषि क्षेत्र में काम करने वाले पोर्टल असलीभरत.कॉम के संपादक अजीत सिंह कहते हैं कि इससे यही पता चलता है कि सरकार किसानों को सही दाम दिलाने को लेकर कितनी सक्रिय है! सरकार ने तीन साल पहले बड़े वादे किये लेकिन जमीन पर अभी तक कुछ भी नहीं बदला। अब सरकार नए कानून लाकर कॉर्पोरेट को कह रही है कि जाईए बाजार पर कब्जा कर लीजिए।
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बाजार का सुलभ नहीं होना: किसानों की फसल का उचित दाम नहीं मिलने का बड़ा कारण
वर्ष 1995 से 2011 के बीच , करीब तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली। घटती आमदनी और क्लाइमेट चेंज से बढ़ती अनिश्चितता ने किसानों की मुश्किलें बढ़ाईं ही हैं। परिणामस्वरूप अभी भी हर साल, हजारों किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। स्थिति सुधारने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में वादा किया कि सरकार 2022 तक देश के किसानों की आमदनी दोगुनी कर देगी।
कई रपट जिसमें सरकार द्वारा बनाई गई कमिटी की रपट भी शामिल हैं ने इसका अध्ययन किया और बताया कि बाजार का सुलभ नहीं होना छोटे और मझोले किसानों के कम आय का मुख्य कारण है। कमेटी कहती है, “भारत में अधिकतर किसान छोटे और मझोले श्रेणी में आते हैं और औसतन 1.1 हेक्टेयर भूमि पर खेती करते हैं। ऐसे में अच्छी उपज और अच्छे दाम पाना एक चुनौती है।”
दिल्ली स्थिति आजादपुर मंडी में किसान और आढ़तिये रोजमर्रा की गतिविधि में शामिल। तस्वीर: श्रीकांत चौधरी
हाल ही में प्रकाशित एक रपट प्रकाशित हुई जिसमें बिहार, उड़ीसा और पंजाब के कृषि बाजार का अध्ययन किया गया था। इसमें कहा गया था कि खेत की भौगोलिक दूरी से तय होता है कि किसान को उसके फसल का कैसा दाम मिलेगा। जिनके खेत बाजार से बहुत दूर हैं उनके लिए उचित दाम मिलना लगभग नामुमकिन है। अव्वल तो किसान को उसकी फसल का कम दाम मिलता है क्योंकि दूर मंडी में ले जाने का उसका खर्च बढ़ जाता है। मंडी में अपनी फसल नहीं ले जा पाने की सूरत में उनके पास एक ही विकल्प बचता है कि वे किसी को भी अपनी फसल बेचने दें। क्योंकि सुदूर क्षेत्र में फसलों के कई खरीददार आते ही नहीं। इस अध्ययन को पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया ने बीते दिसंबर में प्रकाशित किया था।
नरेंद्र मोदी सरकार ने 2016 में किसानों की आय दोगुनी करने के उद्देश्य से एक कमेटी भी बनायी थी। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश की मंडी व्यवस्था थोक कृषि उपज को ध्यान में रखकर बनाई गईं हैं। ये मंडियां औसतन 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। छोटे और मझोले किसान इन मंडियों तक नहीं पहुंच पाते। ऐसी स्थिति में छोटे किसानों के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता सिवाय इसके कि स्थानीय एजेंट को बेच दें। यह एजेंट अपनी मनमानी दाम पर फसल खरीदता है।
इस मुश्किल से निपटने के लिए कमेटी ने सुझाव दिए कि देश में 30,000 के करीब छोटी-बड़ी मंडी का निर्माण किया जाए। इसमें खुदरा और थोक-दोनों तरह की मंडियां शामिल हों। इसी सुझाव में कमेटी ने कहा था कि देश में कुल 22,000 के करीब ग्रामीण हाट हैं और इन्हें कृषि हाट के तौर पर विकसित किया जाना चाहिए। कमेटी के अनुसार आस-पास के खेतों से इन हाटों की दूरी पांच से छः किलोमीटर की होती है और किसान यहां अपनी उपज आसानी से बेच सकता है।
यह सामाधान बस कागज पर सिमट कर रह गया
केंद्र सरकार ने कमिटी के इस सुझाव को गंभीरता से लिया और देश के पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2018-19 के अपने बजट भाषण में घोषणा की, “ सरकार देश में मौजूदा 22,000 ग्रामीण हाट को ग्रामीण एग्रिकल्चर मार्केट (ग्राम) के तौर पर विकसित करेगी। मनरेगा और अन्य सरकारी योजनाओं की भी मदद ली जाएगी। ये ग्राम हाट ईनाम से भी जोड़े जाएंगे। इससे किसानों को थोक विक्रेताओं और अन्य लोगों को अपनी फसल बेचने में सहूलियत होगी।” इस बाबत पूर्व वित्त मंत्री ने 2,000 करोड़ रुपये के अग्री-मार्केट इन्फ्रस्ट्रक्चर फंड की भी घोषणा कर दी।
इसके बाद कृषि मंत्रालय ने 2018-19 और 2019-20 के लिए दस हजार हाट का लक्ष्य निर्धारित किया। दो साल में दस हजार हाट को कृषि हाट में तब्दील करने के लक्ष्य निर्धारित करने के पीछे यह तर्क दिया गया कि देश में 11,811 हाट पंचायतों के अधीन हैं। इन्हीं हाटों के पुनर्निर्माण में मनरेगा और सरकारी योजनाओं की मदद ली जा सकेगी। इसलिए पहले इन्हीं हाटों को विकसित किया जाएगा। इन 11,811 में से हजार के करीब हाट का कृषि हाट के तौर पर पहले ही विकास किया जा चुका था। पूर्व वित्तमंत्री के घोषणा से पहले।
बाजार में दाम गिरने की वजह से महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के धवलपुरी गांव में किसान ने पत्ते गोभी की फसल चरने के लिए छोड़ दी। तस्वीर: श्रीकांत चौधरी
कृषि मंत्रालय के द्वारा तय किया गया यह लक्ष्य भी कागज तक सीमित होकर रह गया। आरटीआई में मिले जवाब में कहा गया, “ऑपरेशनल दिशा-निर्देश राज्यों को भेजी जा चुकी है और राज्यों को अपना प्रस्ताव भेजने के लिए तैयार किया जा रहा है। ताकि उनको इस स्कीम के तहत मदद की जा सके।”
सावधानी: नियंत्रित बाजार से ही किसानों को मिलेगा फायदा
मोंगाबे-हिन्दी ने जितने विशेषज्ञों से बात की लगभग सभी ने विनियमित मंडी की जरूरत पर बल दिया। ऐसी मंडी जहां सामान्य किसानों की सुरक्षा के मद्देनजर कुछ नियम-कानून हों। खासकर तीन नए कृषि कानूनों और उससे जुड़े विवाद के बाद विशेषज्ञों का यह मानना है कि सरकारी मंडी हो या निजी मंडी पर इसको चलाने के लिए समुचित नियम-कानून होने चाहिए। तभी किसानों का भला होगा।
लेकिन गौर करने की बात यह है कि तीन साल पहले आए इस योजना के दिशा-निर्देश में कृषि हाटों को कम से कम नियंत्रित करने की बात की गई है। इसमें कहा गया है कि राज्य सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि ए ग्राम हाट अनियंत्रित या नॉन-रेगुलटेड एनवायरनमेंट में काम करें।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए प्रोफेसर और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) में कृषि में प्रबंधन केंद्र के पूर्व अध्यक्ष सुखपाल सिंह कहते हैं, “मैं मानता हूं कि नियम-कानून होना बहुत जरूरी है। इससे किसानों के साथ कोई भी मनमानी नहीं कर सकता। एक आदिवासी समाज के बारे में सोचिए जहां साक्षरता का स्तर काफी कम है। अगर कोई वहां जाता है और उनकी फसल खरीदते वक्त कुछ गड़बड़ करता है तो वह किसान भला किसके पास जाएगा। अपनी सुरक्षा कैसे करेगा।”
इस बात को कई तरह से समझाया जा सकता है। छोटे और मझोले किसान मंडी को पूरी छूट होनी चाहिए कि वो कहीं भी अपनी उपज बेच सकें। निजी मंडी हो या कान्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग हो। कहीं भी।
“लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि किसान को न केवल बाजार चाहिए बल्कि ऐसा बाजार चाहिए जहां उसकी फसल का उचित दाम मिल सके। ऐसे बाजार का क्या फायदा जहां फसल की बोली ही नहीं लगे। ऐसे में किसान को कैसे पता चलेगा कि उसके फसल का इससे अधिक दाम भी मिल सकता था! इससे कोई नहीं मना कर सकता कि इन सबके लिए किसानों को मंडी की आवश्यकता है पर इससे अधिक जरूरी है नियम-कानून की जो उनकी फसल का दाम दिला सके। बिहार का उदाहरण देख लीजिए। वहां मंडी है पर नियंत्रित नहीं है। इसलिए वहां किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा,” प्रोफेसर सुखपाल सिंह कहते हैं।
इसी बात को फूड सोवरनिटी अलायंस से जुड़ी जन्तु वैज्ञानिक सागरी आर रामदास जोर देते हुए कहतीं हैं कि बिना नियंत्रण के ये ग्राम हाट किसानों को उनकी फसल का उचित दाम नहीं दिला पाएंगे। ऐसा लग रहा है कि सरकार एक ऐसी जगह बना रही है जहां सारे किसान अपनी उपज लेकर जमा हों ताकि खरीदने वाले को सहूलियत हो सके। खरीददार को एक ही जगह पर सारे किसान मिल जाएंगे और उसे लोगों के पास घूम-घूमकर मोल-भाव नहीं करना पड़ेगा।
उन्होंने एक कानूनी मुश्किल का भी जिक्र किया। नए कृषि कानून हो या ग्राम हाट के दिशा-निर्देश। इनके अनुसार आदिवासी क्षेत्र खासकर अनुसूची पाँच के दायरे में आने वाले क्षेत्र में ग्राम सभा ही सबकुछ तय करती है। ऐसे क्षेत्रों में ये मंडियां कैसे काम करेंगी! ये मंडियां क्या सरकार के बनाये नए कानून से चलेंगी या ग्रामम सभा का इनमें हस्तक्षेप होगा! अगर ग्राम सभा को हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं होगी तो क्या यह पुराने कानून का उल्लंघन नहीं माना जाएगा! क्या इनपर ग्राम सभा अपने नियम थोप सकेगी या सरकार पुराने कानूनों को ताक पर रखना चाहती है! पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम के तहत देश के कई इलाकों को खास प्रावधान के तहत ग्राम सभा को अत्यधिक ताकत दी गयी है। अभी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है, रामदास कहतीं हैं। (hindi.mongabay.com)
दिल्ली में किसान परेड के दौरान हुई अप्रिय घटनाओं ने किसानों को एक कदम पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है. उन्होंने एक फरवरी को संसद तक पदयात्रा करने की योजना को स्थगित कर दिया है और 30 जनवरी को एक दिन के उपवास की घोषणा की है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
संयुक्त किसान मोर्चा ने एक बयान जारी करते हुए एक बार फिर किसान परेड के दौरान तय मार्ग से अलग चले जाने वालों से खुद को अलग किया है, उन्हें कुछ असामाजिक तत्त्व बताया और उन सभी अप्रिय घटनाओं को "सात महीनों से चल रहे एक शांतिपूर्ण आंदोलन को बदनाम करने की साजिश बताया". मोर्चा ने स्पष्ट रूप से कहा कि आंदोलन को हिंसक बनाने के लिए सरकार जिम्मेदार है.
बयान में पंजाबी अभिनेता दीप सिद्धू और किसान मजदूर संघर्ष समिति के नेता सतनाम सिंह पन्नू जैसे लोगों और संगठनों को भी हिंसा का जिम्मेदार बताया गया और सरकार पर इनकी मदद से साजिश रचने का आरोप लगाया गया. हालांकि, इसके साथ ही मोर्चा ने लाल किले और आईटीओ पर हुई घटनाओं की नैतिक जिम्मेदारी भी ली और घोषणा की कि इसी वजह से एक फरवरी को संसद तक पदयात्रा निकालने की योजना को स्थगित किया जा रहा है.
मोर्चा ने यह भी स्पष्ट किया कि आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से जारी रहेगा. दूसरी तरफ दिल्ली पुलिस ने लाल किले और आईटीओ पर हुई हिंसा के संबंध में अपनी कार्रवाई शुरू कर दी है. पुलिस ने 25 एफआईआर दर्ज की हैं और इनमें जिन लोगों के नाम दर्ज किए हैं उनमें पिछले कुछ महीनों से सरकार के साथ बातचीत करने वाले 40 किसान नेताओं में से 37 नेता भी शामिल हैं.
इनमें भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष राकेश टिकैत, पंजाब में बीकेयू के अलग अलग धड़ों के नेता, क्रांतिकारी किसान यूनियन के अध्यक्ष दर्शन पाल, स्वराज पार्टी के अध्यक्ष योगेंद्र यादव और जानी मानी एक्टिविस्ट मेधा पाटकर भी शामिल हैं. दीप सिद्धू और गैंगस्टर से नेता बने लखबीर सिंह सिधाना के खिलाफ भी एक एफआईआर दर्ज की गई है.
एफआईआर में दंगा करने, आपराधिक साजिश, हत्या की कोशिश और चोरी से संबंधित धाराएं लगाई गई हैं. कई किसान नेताओं ने इन आरोपों से इनकार किया है और एफआईआर में उनका नाम दर्ज किए जाने का विरोध किया है, लेकिन दिल्ली पुलिस लोगों को गिरफ्तार करना शुरू कर चुकी है. अभी तक कम से कम 19 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है और 50 और लोगों को हवालात में रखा गया है.
जानकारों का कहना है कि अगले कुछ दिन आंदोलन के भविष्य के लिए नाजुक होंगे. ग्रामीण विषयों की समाचार वेबसाइट रूरलवॉयस के संपादक हरवीर सिंह ने डॉयचे वेले से कहा कि 26 जनवरी की घटनाओं को किसान संगठनों की नाकामी के रूप में देखा जाएगा क्योंकि परेड का आयोजन उन्होंने ही किया था. हरवीर सिंह का यह भी मानना है कि इन घटनाओं से पिछले दो महीनों में बनी आंदोलन की साख पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और इसके लिए किसान संगठन अपनी जवाबदेही से हट नहीं सकते.
पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में छह दशक से ज्यादा समय से रहने वाले चकमा और हाजोंग जनजाति के संगठन राज्य की मतदाता सूची में नाम शामिल नहीं किए जाने के आरोप में आंदोलन की राह पर हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
चकमा और हाजोंग जनजाति के संगठनों का कहना है कि तमाम जरूरी और वैध दस्तावेज जमा करने के बावजूद चुनाव आयोग ने बिना कोई कारण बताए बहुत से लोगों के आवेदनों को खारिज कर दिया है. इन जनजातियों के 18 साल से ज्यादा उम्र के हजारों मतदाता हैं. हाल में एक सरकारी सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि राज्य में इन दोनों जनजातियों के महज 5,097 लोगों को ही मतदान का अधिकार है.
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2015 में इन लोगों को नागरिकता देने का निर्देश दिया था. लेकिन अब तक यह मामला कानूनी दाव-पेंच और लालफीताशाही में उलझा है. चकमा और हाजोंग तबके के लोगों को नागरिकता या जमीन खरीदने का अधिकार नहीं है. राज्य में पेमा खांडू के नेतृत्व वाली सरकार की दलील रही है कि इन शरणार्थियों को नागरिकता देने की स्थिति में स्थानीय जनजातियां अल्पसंख्यक हो जाएंगी.
पुराना है विवाद
अरुणाचल प्रदेश में चकमा और हाजोंग जनजाति के मुद्दे पर विवाद काफी पुराना है. करीब छह साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में इन दोनों जनजातियों के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का निर्देश दिया था. लेकिन उसके बावजूद यह मुद्दा अब तक पूरी तरह सुलझ नहीं सका है. अरुणाचल प्रदेश के स्थानीय संगठन इन जनजातियों को राज्य से खदेड़ने की मांग करते रहे हैं. आखिर यह जनजातियां कहां से आई और इनके मुद्दे पर विवाद क्यों है? इसके लिए कोई छह दशक पीछे जाना होगा.
यह दोनों जनजातियां देश के विभाजन के पहले से चटगांव की पहाड़ियों (अब बांग्लादेश में) रहती थीं. लेकिन 1960 के दशक में इलाके में एक पनबिजली परियोजना के तहत काप्ताई बांध के निर्माण की वजह से जब उनकी जमीन पानी में डूब गई तो उन्होंने पलायन शुरू किया. चकमा जनजाति के लोग बौद्ध हैं जबकि हाजोंग जनजाति हिंदू है. देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में भी उनको धार्मिक आधार पर काफी अत्याचर सहना पड़ा था.
साठ के दशक में चटगांव से भारत आने वालों में से महज दो हजार हाजोंग थे और बाकी चकमा. यह लोग तत्कालीन असम के लुसाई पर्वतीय जिले (जो अब मिजोरम का हिस्सा है) से होकर भारत पहुंचे थे. उनमें से कुछ लोग तो लुसाई हिल्स में पहले से रहने वाले चकमा जनजाति के लोगों के साथ रह गए. लेकिन भारत सरकार ने ज्यादातर शरणार्थियों को अरुणाचल प्रदेश में बसा दिया और इन लोगों को शरणार्थी का दर्जा दिया गया.
शरणार्थियों की तादाद बढ़ी
वर्ष 1972 में भारत और बांग्लादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्रियों के साझा बयान के बाद केंद्र सरकार ने नागरिकता अधिनियम की धारा 5 (आई)(ए) के तहत इन सबको नागरिकता देने का फैसला किया. लेकिन तत्कालीन नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेशन (नेफा) सरकार ने इसका विरोध किया. बाद में यहां बने अरुणाचल प्रदेश की सरकार ने भी यही रवैया जारी रखा. सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के जवाब में राज्य सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि वह बाहरी लोगों को अपने इलाके में बसने की अनुमति नहीं दे सकती. अनुमति देने की स्थिति में राज्य में आबादी का अनुपात प्रभावित होगा और सीमित संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा.
अरुणाचल प्रदेश के इलाके को वर्ष 1972 में केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया था. वर्ष 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के बाद अखिल अरुणाचल प्रदेश छात्र संघ (आप्सू) ने चकमा व हाजोंग समुदाय के लोगों को राज्य में बसाने की कवायद के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया. आप्सू का यह विरोध अब तक जारी है.
इस दौरान शरणार्थियों की तादाद लगातार बढ़ती रही. वर्ष 1964 से 1969 के दौरान राज्य में जहां इन दोनों तबके के 2,748 परिवारों के 14,888 शरणार्थी थे वहीं 1995 में यह तादाद तीन सौ फीसदी से भी ज्यादा बढ़ कर साठ हजार तक पहुंच गई. फिलहाल राज्य में इनकी आबादी करीब एक लाख तक पहुंच गई है.
ताजा विवाद
चकमा और हाजोंग तबके के लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जाने के विरोध में अरुणाचल प्रदेश चकमा स्टूडेंट्स यूनियन समेत कई अन्य संगठनों ने आंदोलन शुरू किया है. राजधानी इटानगर में जारी एक बयान में यूनियन ने कहा है कि हाल में नेशनल वोटर्स डे मनाया गया है. लेकिन अरुणाचल प्रदेश में दशकों से रहने वाले चकमा और हाजोंग तबके के लोगों के लिए यह बेमानी है. हजारों नए वोटरों के आवेदन बिना कोई कारण बताए खारिज कर दिए गए हैं.
चकमा यूथ फेडरेशन के एक नेता आरोप लगाते हैं, "तमाम जरूरी दस्तावेज संलग्न करने के बावजूद चुनाव अधिकारियों ने बिना कोई कारण बताए हजारों आवेदनों को खारिज कर दिया है. हमारे तबके के हजारों युवकों ने 18 साल की उम्र होने के बाद बीते साल नवंबर-दिसंबर के दौरान मतदाता सूची में संशोधन के लिए चलाए गए विशेष अभियान के दौरान आवेदन किया था. इनमें से महज कुछ लोगों के नाम ही शामिल किए गए.'
इन संगठनों ने इस मुद्दे पर चुनाव आयोग के अलावा, प्रधानमंत्री और राज्य सरकार को भी पत्र लिखने का फैसला किया है. इनका आरोप है कि भेदभाव की नीति अपनाते हुए जान-बूझ कर इन दोनों तबके के लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा रहे हैं. (dw.com)
-प्रकाश दुबे
गणतंत्र दिवस पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने आने से मना कर दिया। यह पहला अच्छा काम हुआ। जिस देश ने बरसों गुलाम रखा, उसी देश का मुखिया जनतंत्र पर उपदेशामृत पिलाकर जाता। महात्मा गांधी की जय और गोडसे जिंदाबाद का युगलगान जैसा अजीबोगरीब काकटेल बनता। दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर गलवान और चुस्कू की मौजूदगी दूसरा अच्छा काम है। चीन की गलवान में घुसपैठ के बाद से चीन और घुसपैठ पर अपना मौन व्रत चल रहा है। भारत तिब्बत सीमा पुलिस ने गणतंत्र दिवस पर निगरानी करने श्वान पथक तैनात किया। आइटीबीपी ने दो सौ अधिकारियों और जवानों को चीन की भाषा मैंडरिन में प्रशिक्षित किया गया।काम अनूठा है। एक और बेमिसाल प्रयोग किया। दत्त भगवान के अनुयायी श्वानों का देशी नामकरण किया। इस पुलिस के पास गलवान है। श्योक है। गलवान का नाम याद रहेगा। गलवान पर कब्जे की सच्चाई का पता लगे न लगे, गणतंत्र पर श्वानतंत्र का योगदान इतिहास में दर्ज होगा। आइटीबीपी के मुखिया सुरजीत सिंह देसवाल के पुकारते ही गलवान यानी अर्ध सैनिक बल का जवान-श्वान भागता आएगा। तंत्र को जयहिंद करते समय मशीन के बेशकीमती पुरजों का कल्पनाशील योगदान मत भुला देना।
लोकतंत्र में मिलजुल कर
गणतंत्र-गौरव-गान में सच बयान करने की कमी दूर करना कलम-कंप्यूटर-कैमरा धारी करते हैं। हमने ये किया, तुमने ऐसा नहीं किया। तुमने गड़बड़ी की। हमने घोटाला रोका। आजके सत्ताधारी हर गलत बात के लिए कांग्रेस राज पर ठीकरा फोड़ते हैं। जबकि कांग्रेस नेता फटाक से जवाब देते हैं- काम हमारा। लेबल चिपक जाता है तुम्हारा। गणतंत्र में सत्ताधारी, सत्ता से धकियाये लोग और सत्ता-चाहक की बात बात पर नोंकझोंक की अपनी विशेषता प्रदर्शित होती है। अब कांग्रेस सचमुच भारतीय जनता पार्टी की नकल करने जा रही है। भाजपा ने सत्ता में आते ही गली-मोहल्ले तक में जमीन खरीद कर पार्टी और सहयोगी संगठनों के दफ्तर खड़े किए। दिल्ली में आलीशान महल बनाया। 24, अकबर रोड छिनने की नौबत के बावजूद कांग्रेस दिल्ली में अपना केन्द्रीय कार्यालय नहीं बना पाई। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राजधानी जयपुर में प्रदेश कांग्रेस के लिए जमीन तलाश करा रहे हैं। जिला और मंडल स्तर तक के दफ्तर बनेंगे। इसके लिए राज्य सरकार जमीन आवंटित करेगी। चार बरस पहले वसुंधरा राजे ने यह नुस्खा ईजाद किया। तब प्रतिपक्ष यानी कांग्रेस ने होहल्ला मचाया था।
बोझ बड़ा गणतंत्र का
दुखी नीति आयोग
केन्द्र सरकार बार बार बैठक करने के बावजूद कृषि कानूनों पर समाधान तलाश नहीं कर सकी। पुराना योजना और आज का नीति आयोग दलील देने में सरकार से बढक़र हैं। नीति आयोग ने कृषि बदलाव के लिए मुख्यमंत्रियों की समिति गठित की थी। सितम्बर 2019 में समिति की अंतिम बैठक हुई। आधारभूत ढांचा बदलने की सलाह देना नीति आयोग का काम है। दिलचस्प बात यह है कि नीति आयोग की रपट का अता पता नहीं है। आयोग की अधिशासी परिषद की बैठक में रपट आएगी तब पता लगेगा। बैठक कब होगी? पता नहीं। समिति ने किस किस मुख्यमंत्री से चर्चा की? यह भी पता नहीं। केन्द्र सरकार ने किसानों के समक्ष दावा किया कि समिति ने मुख्यमंत्रियों से चर्चा की थी। पंजाब के मुख्यमंत्री ने दावा किया कि समिति ने इस विषय पर बात ही नहीं की। इस गोरखधंधे में रपट अब तक पहुंच से बाहर है। आयोग के मुख्य कार्यकारी अमिताभ कांत पहले ही फरमा चुके हैं कि कुछ अधिक ही लोकतंत्र भुगत रहा है, भारतवर्ष।
प्यार बांटते चलो
वंदे मातरम की भूमि पर असदुद्दीन ओवैसी के चरण-कमल पड़े। फुरफुरा शरीफ मज़ार में दर्शन के बाद वारिस अब्बास सिद्दीक से मुलाकात की। विधानसभा चुनाव में अब्बास का समर्थन करने का ऐलान किया। परिवार के एक और प्रतिनिधि तोहा सिद्दीक ने ओवैसी को आड़े हाथों लिया। राजनीति कर पुरखों की मजार को अपवित्र करने का आरोप मढ़ा। फुरफुरा में हजरत अबू बकर की मज़ार है, जिन्होंने महिला शिक्षा आरंभ कराई। आवैसी की बदौलत पीर अबू सिद्दीक के वारिस दो खेमों में बंट गए। जहं जंह चरण पड़ें असद के। फुरफुरा श्रद्धालुओं के दो फाड़ होने और वोट बंटवारे की खाई की चौड़ाई पर ममता बनर्जी का भविष्य तय होगा। बिहार के बाद बंगभूमि में भी ओवैसी संकटमोचक बनना चाहते हैं। किसके? धन्य हो। यह भी हम बताएं?
अमर रहे गणतंत्र हमारा। जन गण मन अधिनायक सिर्फ जन, जनता
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका का बाइडन प्रशासन डोनाल्ड ट्रंप की अफगान-नीति पर अब पुनर्विचार करने वाला है। वैसे तो ट्रंप प्रशासन ने पिछले साल फरवरी में तालिबान के साथ जो समझौता किया था, उसकी प्रशंसा सर्वत्र हो रही थी लेकिन उस वक्त भी मेरे जैसे लोगों ने संदेह प्रकट किया था कि इस समझौते का सफल होना कठिन है। लेकिन ट्रंप जैसे उथले आदमी ने यह रट लगा रखी थी कि राष्ट्रपति के चुनाव के पहले ही अमेरिकी फौजियों को अफगानिस्तान से वे वापस बुला लेंगे। उन्होंने इसे अपना चुनावी मुद्दा भी बना लिया था।
]अमेरिकी मतदाता के लिए यह खुशी की बात थी कि अमेरिकी फौजियों के ताबूत काबुल से न्यूयार्क आना बंद हो जाएं। यह भी सही है कि तालिबान ने पिछले एक साल में बहुत कम अमेरिकी ठिकानों को अपना निशाना बनाया और अमेरिकी फौजी नहीं के बराबर मारे गए लेकिन अफगानिस्तान का कौनसा हिस्सा है, जहां तालिबान ने पिछले एक साल में हिंसा नहीं फैलाई ? काबुल, कंधार, हेरात, जलालाबाद, हेलमंद, निमरुज– कौनसा इलाका उन्होंने छोड़ा है।
अब तक वे लगभग एक हजार लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं। उनमें अफगान फौजी और पुलिस तो हैं ही, छात्र, किसान, व्यापारी, नेतागण और सरकारी अफसर भी हैं। अफगानिस्तान के 80 प्रतिशत से ज्यादा इलाकों पर उनका कब्जा है। वे सरकार की तरह लोगों से टैक्स वसूलते हैं, राज करते हैं और काबुल की गनी-सरकार को वे अमेरिका की कठपुतली कहते हैं। गनी सरकार भी मजबूर है। उसे दोहा में हुए समझौते को स्वीकार करना पड़ा। उसे पता है कि अमेरिकी और नाटो फौजी की वापसी के बाद उनकी सरकार का जिंदा रहना मुश्किल है। अफगान फौज में पठानों का वर्चस्व है और तालिबान शुद्ध पठान संगठन है। तालिबान सत्तारुढ़ होने पर इस्लामी राज कायम करना चाहते हैं लेकिन आज उनके कई गुट सक्रिय हैं। इन गुटों में आपसी प्रतिस्पर्धा जोरों पर है। हर गुट दूसरे गुट को नकारता चलता है।
इसीलिए काबुल और वाशिंगटन के बीच कोई समझौता हो जाए, उसे लागू करना कठिन है। इस समय मुझे तो एक ही विकल्प दिखता है। वह यह कि सभी अफगान कबीलों की एक वृहद संसद (लोया जिरगा) बुलाई जाए और वह कोई कामचलाऊ सरकार बना दे और फिर लोकतांत्रिक चुनावों के जरिए काबुल में एक लोकतांत्रिक सरकार बने। इस बीच बाइडन-प्रशासन थोड़ा धैर्य रखे और काबुल से पिंड छुड़ाने की जल्दबाजी न करे। ट्रंप की तरह वह आनन-फानन घोषणाओं से बचे, यह उसके लिए भी हितकर है, अफगानिस्तान और पूरे दक्षिण एशिया के लिए भी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
किसानों ने अहिंसक, शांतिपूर्ण ट्रैक्टर परेड के माध्यम से गणतंत्र दिवस मनाने का निर्णय लिया है। ट्रैक्टर देश के लाखों किसानों के कृषि कार्य का सहायक साधन है, यह इस बात का प्रतीक है कि देश का किसान हर नई टेक्नोलॉजी और हर वैज्ञानिक नवाचार के प्रति उदार सोच रखता है। किंतु जब ट्रैक्टर अहिंसक विरोध प्रदर्शन का प्रतीक चिह्न बनता है तब यह भी समझना आवश्यक है कि किसान ने नई तकनीक को अपनाया है लेकिन इसके साथ जबरन थोपे जाने वाले शोषणमूलक विकास के खतरों से वह पूरी तरह वाकिफ है। यह गाँधी के देश का किसान है। उसने ट्रैक्टर को आधुनिक युग के चरखे में तबदील कर दिया है।
किसानी सृजन का कार्य है, रचने का आनंद और सकारात्मकता उसके साथ जुड़े हुए हैं। इसीलिए जब देश का किसान प्रदर्शन कर रहा है तब उसके विरोध में भी सकारात्मक चिंतन हर बिंदु पर समाविष्ट दिखता है। इस विरोध प्रदर्शन में जाति-धर्म और संप्रदाय की सीमाएं टूटी हैं। मध्यम वर्ग और निर्धन वर्ग के बीच षड्यंत्र पूर्वक जो शत्रुता एवं वैमनस्य पैदा किया गया था इस किसान आंदोलन ने उसे कम किया है और दोनों को यह समझ में आ गया है कि मुनाफे को केंद्र में रखने वाली विकास प्रक्रिया ही दोनों की साझा शत्रु है। यह विरोध प्रदर्शन समाज को एक सूत्र में बांध रहा है। ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष, हिन्दू-मुसलमान जैसे अनेक आरोपित विभेद ध्वस्त हो रहे हैं। राष्ट्रीय एकता का सच्चा स्वरूप सामने आ रहा है। यदि सरकार इस विरोध प्रदर्शन का दमन नहीं करती है, इसके विषय में दुष्प्रचार नहीं करती है तो सत्ता और जनता के बीच की दूरी भी मिट सकती है। किसानों ने अपने इस लंबे आंदोलन में हर बिंदु पर इस बात का ध्यान रखा है कि वे अपना विरोध, अपनी असहमति अपने ही देश की चुनी हुई सरकार के साथ साझा कर रहे हैं। यदि सरकार तिरंगों से सजी इस ट्रैक्टर रैली में दिखाई देने वाले राष्ट्रभक्त अन्नदाताओं के विशाल जन सैलाब के देश प्रेम का सम्मान करती है तो यह सिद्ध हो जाएगा कि देश की आजादी के बाद देश की सत्ता ने विभाजन और दमनकारी ब्रिटिश सोच से छुटकारा पा लिया है और वह हिंदुस्तानियों की अपनी सरकार है। इस सरकार के निर्णयों से देश की जनता असहमत हो सकती है किंतु सरकार और जनता दोनों ही हमारे इस गौरवशाली गणतंत्र की रक्षा और विकास के प्रति प्रतिबद्ध हैं।
अपने विस्तार और पवित्र स्वरूप के कारण यह किसान आंदोलन इतना विराट हो गया है कि सोशल मीडिया पर सक्रिय किसी षड्यंत्रकारी ट्रोल समूह की घटिया साजिशें इसे लांछित-कलंकित करने की जहरीली कोशिशों में बुरी तरह नाकामयाब ही होंगी। सोशल मीडिया पर सक्रिय नफरतजीवियों को ऐसी कोशिशों से परहेज करना चाहिए और भारतीय गणतंत्र की आंतरिक शक्ति, उदारता और विशालता को प्रदर्शित करने वाले इस दृश्य का आनंद लेना चाहिए।
चाहे वे किसानों के समर्थक हों या किसानों के विरोधी उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि किसानों की ट्रेक्टर परेड और गणतंत्र दिवस के पारंपरिक शासकीय आयोजन की तुलना करने की गलती न करें। एक ओर राष्ट्र प्रेम के जज्बे से ओतप्रोत तिरंगे की आन-बान-शान के दीवाने ट्रैक्टरों पर सवार किसान होंगे तो दूसरी ओर देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने वाले टैंकों और युद्धक विमानों पर सवार देश के वीर सपूत होंगे। अगर इन दोनों दृश्यों को परस्पर विरोधी छवियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो यह उसी विभाजन और नफरत के नैरेटिव को बढ़ावा देना होगा जो किसान और जवान को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है। यह दोनों छवियां परस्पर पूरक हैं विरोधी नहीं। देश के किसान और जवान की राष्ट्र भक्ति में कोई अंतर नहीं है। बस दोनों के कार्य क्षेत्र अलग अलग हैं।
इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने बुनियादी समस्याओं को स्पर्श किया है, यही कारण है कि इसे राष्ट्रीय स्वरूप और व्यापकता मिली है। किंतु अभी भी यह कृषि से जुड़े लाखों लोगों का प्रतिनिधि आंदोलन नहीं बन पाया है। देश के लाखों भूमिहीन कृषि मजदूर जिन खेतों पर पीढ़ियों से अपना खून पसीना एक कर अन्न उपजाते रहे हैं उन खेतों का मालिकाना हक उन्हें कैसे मिले यह हमें सोचना होगा। हमारी बहस का मुद्दा यह होना चाहिए कि देश की कृषि में केंद्रीय भूमिका निभाने वाली नारी शक्ति के योगदान को कैसे स्वीकृति और सम्मान मिले? क्या यह आंदोलन- छोटे छोटे कोऑपरेटिव समूह बनाम विशाल कॉरपोरेट कंपनियां- जैसा निर्णायक स्वरूप नहीं ले सकता? क्या यह विमर्श विकेन्द्रित समानता मूलक ग्राम प्रधान अर्थव्यवस्था बनाम केंद्रीकृत नगर प्रधान शोषणमूलक अर्थतंत्र के जरूरी प्रश्न पर केंद्रित नहीं किया जा सकता? हमें हमारी प्राथमिकताओं पर खुलकर चर्चा करनी होगी – हम कृषि को ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार एवं आजीविका प्रदान करने वाला बनाना चाहते हैं या कृषि से रोजगार खत्म करना चाहते हैं, यह हमें तय करना होगा। यदि गणतंत्र दिवस पर किसान नेता मानव केंद्रित विकास के मॉडल पर आधारित वैकल्पिक अर्थव्यवस्था को चर्चा में ला सकें तो देश का शोषित-वंचित-उपेक्षित तबका भी इस आंदोलन से जुड़ जाएगा।
हम इस किसान आंदोलन को समस्या मानकर बड़ी भूल कर रहे हैं। यह आंदोलन समस्या नहीं है बल्कि समस्या के समाधान का एक भाग है।
क्या इस गणतंत्र दिवस का उपयोग किसान नेता षड्यंत्र पूर्वक हाशिए पर धकेल दिए गए गाँधीवाद को पुनः चर्चा में लाने के लिए करेंगे क्योंकि शायद हमें समाधानकारक विकल्प वहीं से मिलेगा। गाँधी जी द्वारा राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के विकेंद्रीकरण और मशीनों के नकार का आग्रह अनायास नहीं था। उनकी यह दृढ़ मान्यता थी कि लोकतंत्र मशीनों यानी कि प्रौद्योगिकी एवं उत्पादन के केंद्रीकृत विशाल संसाधनों यानी कि उद्योग का दास होता है। गांधी जी यह जानते थे कि लोकतंत्र पर अंततः कॉर्पोरेट घरानों और टेक्नोक्रेट्स का नियंत्रण स्थापित हो जाएगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था बिग बिज़नेस हाउसेस के हितों की रक्षा के लिए समर्पित हो जाएगी। गांधी जी का आर्थिक और राजनीतिक दर्शन भी अहिंसा की ही बुनियाद पर टिका हुआ है। मुनाफे और धन पर अनुचित अधिकार जमाने की वृत्ति आर्थिक हिंसा को उत्पन्न करती है। जबकि धार्मिक-सांस्कृतिक तथा वैचारिक-राजनीतिक- सामरिक आधिपत्य हासिल करने की चाह राज्य की हिंसा को जन्म देती है। गांधी राज्य की संगठित शक्ति को भी हिंसा के स्रोत के रूप में परिभाषित करते थे। यही कारण था कि वे शक्तियों के विकेंद्रीकरण के हिमायती थे। व्यक्तिगत स्वातंत्र्य उनके लिए सर्वोपरि था।
गांधीजी ने एक अवसर पर लिखा था- जब भारत स्वावलंबी और स्वाश्रयी बन जाएगा और इस तरह न तो खुद किसी की संपत्ति का लोभ करेगा और ना अपनी संपत्ति का शोषण होने देगा तब वह पश्चिम या पूर्व के किसी भी देश के लिए- उसकी शक्ति कितनी ही प्रबल क्यों न हो- लालच का विषय नहीं रह जाएगा और तब वह खर्चीले अस्त्र शस्त्रों का बोझ उठाए बिना ही खुद को सुरक्षित अनुभव करेगा उसकी यह भीतरी स्वाश्रयी अर्थव्यवस्था बाहरी आक्रमण के खिलाफ सुदृढ़तम ढाल होगी।(यंग इंडिया 2 जुलाई 1931)।
यह कथन हम सबने बार बार पढ़ा है और शायद हममें से बहुत से लोग उपहासपूर्वक मुस्कराए भी होंगे कि गाँधी जी कितने भोले हैं जो यह मानते हैं कि आर्थिक स्वावलंबन देश की रक्षा के लिए सैन्य शक्ति से भी ज्यादा जरूरी है। किंतु गाँधी जी ने नव उपनिवेशवाद के खतरों को बहुत पहले ही भांप लिया था। वे जानते थे कि अब सैन्य संघर्ष का युग बीत गया है। आने वाले समय में साम्राज्यवाद आर्थिक गुलामी का सहारा लेकर अपना राज्य फैलाएगा। जब हम हमारी सरकारों पर कृषि को बाजार के हवाले करने के विश्व व्यापार संगठन के दबाव को देखते हैं तो विश्व के ताकतवर देशों की यह साजिश बड़ी आसानी से समझ में आती है।
यह किसान आंदोलन देश के गणतंत्र का विरोधी नहीं है। यह देश की आजादी को बरकरार रखने की एक जरूरी कोशिश है। देश के किसान और जवान मिलकर देश की स्वतंत्रता, संप्रभुता और स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देश के किसान ‘तंत्र’ को ‘गण’ का महत्व बताने में लगे हैं। यह गणतंत्र दिवस इसीलिए ऐतिहासिक है। यह महज एक तारीख नहीं है बल्कि तारीख बनने का दिन है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसानों के साथ हुई सरकार की पिछली बात से आशा बंधी थी कि दोनों को बीच का रास्ता मिल गया है। डेढ़ साल तक इन कृषि-कानूनों के टलने का अर्थ क्या है ? क्या यह नहीं कि यदि दोनों के बीच सहमति नहीं हुई तो ये कानून हमेशा के लिए टल जाएंगे। सरकार इन्हें थोप नहीं पाएगी। अपनी नाक बचाने का सरकार के पास इससे अच्छा उपाय क्या था ? सरकार ने अपनी गलती स्वीकार कर ली है। लेकिन पिछले दो-तीन माह में सरकार के असली इरादों को लेकर किसानों में इतना शक पैदा हो गया है कि वे इस प्रस्ताव को भी बहुत दूर की कौड़ी मानकर कूड़े में फेंकने को आमादा हो गए हैं। इस बीच किसान नेताओं, मंत्रियों और कृषि-विशेषज्ञों से मेरा संपर्क निरंतर बना हुआ है।
यह बात मैं कई बार लिख चुका हूं कि सरकार राज्यों को छूट की घोषणा क्यों नहीं कर देती ? कृषि राज्य का विषय है। अत: जो राज्य इन कानूनों को मानना चाहें, वे मानें, जो नहीं मानना चाहें, वे न मानें। पंजाब और हरियाणा के किसानों के लिए ये कानून अपने आप खत्म हो जाएंगे। उनकी मांग पूरी हो जाएगी। रही बात शेष राज्यों की तो भाजपा शासित राज्य इन्हें लागू करना चाहें तो कर दें। दो-तीन साल में ही इनकी असलियत पता चल जाएगी। यदि इन राज्यों के किसानों की समृद्धि बढ़ती है तो पंजाब और हरियाणा भी इनका अनुकरण बिना कहे ही करने लगेंगे और यदि भाजपा राज्यों के किसानों को नुकसान हुआ तो केंद्र सरकार इतनी मूर्ख नहीं है कि वह इन्हें जारी रखेगी। जहां तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का सवाल है, उसे कानूनी रुप नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि उससे कम दाम पर खरीदने वाले को सजा होगी तो बेचनेवाले को उससे पहले होगी। क्या असहाय-निरुपाय किसानों को आप थोक में जेल भिजवाना चाहते हैं ?
बेहतर तो यह हो कि 23 की बजाय 50 चीजों पर, फलों और सब्जियों पर भी सरकारी मूल्य घोषित हों, जैसे कि केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने किया है। सरकार और किसानों की संयुक्त समिति के विचार का मुख्य विषय यह होना चाहिए कि भारत के औसत मेहनतकश किसानों को (सिर्फ बड़े ज़मींदारों को नहीं) सम्पन्न और समर्थ कैसे बनाया जाए और उनकी उपज को दुगुनी-चौगुनी करके भारत को विश्व का अन्नदाता कैसे बनाया जाए ? यदि सरकार इस आशय की घोषणा करे तो हो सकता है कि हमारा गणतंत्र दिवस, गनतंत्र दिवस बनने से रुकेगा, वरना मुझे डर है कि 26 जनवरी को अगर बात बिगड़ी तो वह बहुत दूर तलक जाएगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-पुष्यमित्र
बिहार के गांवों में लगातार बढ़ते अपराध के बीच लोग चौकीदारों को ढूंढने लगे हैं, मगर वे दारोगा की घरेलू चाकरी और दूसरे काम-काज में फंसे हुए हैं।
पिछले दिनों बिहार के सुपौल जिले की एक छोटी सी खबर दिखी। कुछ चौकीदारों ने मिलकर मोटरसाइकिल की छीन-झपट करने वाले अपराधियों को गिरफ्तार करवा दिया। खबर बहुत छोटी सी थी, मगर रोचक इस लिहाज से थी कि जहां अब तक अपराध से जुड़े मामलों में सफलता का श्रेय बड़े पुलिस अधिकारियों को दिया जाता है, इस मामले में क्रेडिट चौकीदारों को दिया गया था। खबर में विस्तार से बताया गया कि इस मामले में तफ्तीश और जासूसी के लिए चौकीदारों और दफादारों की ही टीम गठित की गयी थी। इस रिपोर्ट को सुपौल के ही एक मित्र सौरभ मोहन ठाकुर ने मुझे भेजा और कहा कि आप कृपया अपराध नियंत्रण में चौकीदारों की भूमिका पर कुछ लिखिये।
उनकी बात सुनकर किसी के मुंह से सुनी मुझे समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया की वह उक्ति याद आ गयी, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब तक चौकीदार की लाठी मजबूत नहीं होगी, देश में समतामूलक समाज की स्थापना नहीं हो सकती। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा था, क्योंकि सरकारी अमलों में चौकीदार सबसे निचले दर्जे का कर्मचारी माना जाता है। मगर गांवों में अपराध नियंत्रण में अंग्रेजों के जमाने से उसकी बड़ी भूमिका रही है। एक जमाने में जब कानून-व्यवस्था की देखरेख का जिम्मा अंगरेजों ने जमींदारों पर छोड़ दिया था। उसके अमले के सिपाही टैक्स वसूली भी करते थे और अपराध नियंत्रण भी। तब हर गांव में मौजूद चौकीदार गांव में पहरा भी देते थे और अंग्रेजों के लिए खुफियागिरी का भी काम करते थे।
आज जब कोरोना के बाद से लगातार बिहार में अपराध बढ़ रहे हैं। हाई प्रोफाइल मर्डर को छोड़ दिया जाये तो भी गांवों में हाल के महीनों में फिर से वह 15 साल पुराना दौर आता नजर आ रहा है, जब सुनसान राहों पर बाइक रोककर छीना-झपटी होती थी। सूने पड़े घरों में चोरी होती थी और कभी कभी डकैतियां भी हो जाया करती थी। अब एक बार फिर से बिहार के गांवों में य सब धड़ल्ले से होने लगा है। इसके पीछे नोटबंदी और लॉकडाउन की वजह से तेजी से बढ़ी बेरोजगारी और प्रवासी मजदूरों का बेकार होकर गांव लौटना माना जा रहा है। इन दिनों रेप और यौन अपराध भी तेजी से बढ़े हैं। ऐसे में लोगों को लगने लगा है कि गांव में अपराध नियंत्रण की उस पुरानी पद्धति को फिर से लागू करने की जरूरत है, जिसका मुख्य जिम्मा चौकीदारों और दफादारों पर था।
चौकीदार और दफादार तो अभी भी हैं, मगर वे रात में गश्ती नहीं लगाते या अपने बीट के इलाकों से पुलिस के लिए सूचनाएं नहीं जुटाते। जब से उन्हें स्थायी सरकारी कर्मचारी मान लिया गया है, तब से उनकी ड्यूटी थाने में लगने लगी है।
इस बारे में मैंने बिहार राज्य चौकीदार-दफादार पंचायत के सचिव डॉ संत सिंह से बात की तो उन्होंने कहा कि थाना प्रभारी उन्हें डाक, बैंक और कैदी स्काउट की ड्यूटी देने लगे हैं, जो ड्यूटी पहले होमगार्डों को दी जाती थी। और तो और उनसे निजी निवास पर भी घरेलू काम करवाया जाता है। बस वह काम नहीं करवाया जाता है, जो उसकी असल ड्यूटी है। कई दफा कुछ स्मार्ट चौकीदारों को पुलिस कर्मी ट्रकों और सब्जी वालों से पैसे वसूली के काम में लगा देते हैं। हमलोग अपने साथियों को बार-बार समझते हैं लोभ लालच और भ्रष्टाचार के इस फेर में न पड़ें। मगर अब कई लोगों को इसका चस्का लग ही गया है।
चौकीदार मैनुअल कहता है कि हर साठ घरों की निगरानी के लिए एक चौकीदार होना चाहिए। औपनिवेशिक कालीन चौकीदारी व्यवस्था पर गहन शोध करने वाले डॉ अवनींद्र झा ने मिथिला एक खोज नामक पुस्तक में प्रकाशित एक आलेख में लिखा है कि उन्नीसवीं सदी के आखिर में हर 340 लोगों की आबादी पर एक चौकीदार हुआ करता था। आज एक रेवेन्यू गांव पर भी एक चौकीदार नहीं है। संत सिंह से मिली जानकारी के मुताबिक आज चौकीदारों और दफादारों को मिलाकर बमुश्किल 22 हजार लोग पूरे बिहार में कार्यरत हैं। जबकि सृजित पदों की संख्या 29 हजार है।
बिहार में दूसरे विभागों कि रिक्तियों को देखते हुए यह संख्या बहुत अधिक नहीं लगती, मगर मानक के हिसाब से तो यह बहुत कम है। आज राज्य की आबादी 13 करोड़ के पार चली गयी है। उस लिहाज से अमूमन हर छह हजार लोगों और हर एक हजार परिवार पर एक चौकीदार है। बिहार में रेवेन्यू गांवों की कुल संख्या 45067 मानी जाती है। कम से कम हर रेवेन्यू गांव में एक और बड़े गांवों में आबादी के हिसाब से दो या तीन चौकीदार होने ही चाहिए।
सवाल पदों का भी नहीं है। सवाल यह भी है कि आखिर उनसे उनका असली काम क्यों नहीं कराया जा रहा। संत सिंह कहते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 2016 से कहते-कहते थक गये। कम से कम सात आदेश इस बारे में जारी हुए हैं कि चौकीदारों से बैंक ड्यूटी, डाक ड्यूटी या कैदी स्काउट का काम न कराया जाये, उनसे घरेलू काम न लिया जाए। उनसे वही काम कराया जाये जो उनकी असली ड्यूटी है। मगर थानेदार उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
नीतीश कुमार इसलिए भी गांवों में चौकीदारों की ड्यूटी चाहते हैं, ताकि शराबबंदी के उनके ड्रीम प्रोजेक्ट में मदद मिल सके। चौकीदार गांवों में एक्टिव रहेंगे तो वे शराब तस्करी पर भी नजर रखेंगे। शराबबंदी अभियान के तहत शराब मिलने पर थानेदारों के साथ-साथ चौकीदारों पर भी कार्रवाई की घोषणा की गई है। मगर चौकीदार मजबूर हैं, उन्हें उनकी ड्यूटी ही नहीं मिल रही।
यह अपने आप में बड़ा सोचनीय विषय है कि एक राज्य का मुख्यमंत्री जो कभी काफी सक्रिय प्रकाशक माना जाता था, वह थानेदारों को कंविंस नहीं कर पा रहा है कि वे चौकीदारों से उनका असली काम लें। मगर अगर गांव को अपराधीकरण के इस दौर से बचाना है, तो सरकार को इस फैसले को सख्ती से लागू करना ही पड़ेगा।
(यह लेख साप्ताहिक पत्र ‘गणादेश’ से साभार, जो बिहार और झारखंड से प्रकाशित होता है)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के नए राष्ट्रपति जोजफ़ बाइडन ने शपथ लेते ही डोनाल्ड ट्रंप के 17 फैसलों को उलट दिया और बंटे हुए अमेरिकी दिलों को जोडऩे का संकल्प किया। उनके मंत्रिमंडल और प्रशासन में भारतीयों को जितना और जैसा स्थान मिला है, आज तक किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के प्रशासन में नहीं मिला है। कमला हैरिस के तौर पर पहली महिला और भारतीय मूल के पहले व्यक्ति को उप-राष्ट्रपति का स्थान मिला है, यह एतिहासिक घटना है। कमला हैरिस अन्य पूर्व उप-राष्ट्रपतियों के मुकाबले अधिक प्रभावशाली भूमिका निभाएँगी, इसमें जरा भी संदेह नहीं है।
बाइडन-प्रशासन की नीति चीन, रूस, यूरोप और मेक्सिको आदि लातीनी-अमेरिकी देशों के प्रति कैसी होगी, इसका विस्तृत विवेचन अलग से किया जाएगा लेकिन हमारी पहली जिज्ञासा यह है कि भारत के प्रति उसकी नीति कैसी होगी? इसमें शक नहीं कि बाइडन और कमला के लिए अमेरिकी राष्ट्रहित की रक्षा का महत्व सर्वोपरि रहेगा लेकिन इसी आधार पर भारत के साथ अमेरिका के संबंध पहले से भी बेहतर होंगे, इसकी पूरी संभावना है। जब तक चीन के साथ अमेरिका का शीतयुद्ध चलता रहेगा, भारत और अमेरिका प्रशांत महासागर क्षेत्र में मिलकर काम करेंगे लेकिन ट्रंप के विपरीत बाइडन जरा संयम से काम लेंगे। वे भारत को चीन के विरुद्ध उकसाने की कोशिश शायद ही करें।
इसी तरह वे पाकिस्तान के साथ भी नरमी से पेश आएंगे ताकि अफगान-संकट को सुलझाने में वे कामयाब हो सकें। वे ईरान पर से भी ट्रंप के प्रतिबंधों को रद्द करेंगे और ओबामा की तरह बीच का रास्ता निकालेंगे। ईरान से हुए परमाणु समझौते को फिर से जीवित करके बाइडन यूरोपीय देशों की सराहना अर्जित करेंगे और भारत-ईरान संबंधों को भी बढ़ावा मिलेगा। चाहबहार परियोजना और मध्य एशिया तक थल-मार्गों की राह खुलेगी। विश्व-स्वास्थ्य संगठन के बारे में ट्रंप-नीति को उलटने से भारत को विशेष लाभ होगा। वीज़ा नीति के बदलाव से अमेरिका में भारतीयों के रोजगार के मौके बढ़ेंगे।
यह ठीक है कि डेमोक्रेटिक पार्टी मोदी सरकार के कुछ फैसलों का विरोध करती रही, जैसे धारा 370 हटाने, नागरिकता संशोधन और मानव अधिकारों का उल्लंघन आदि मुद्दों पर लेकिन ट्रंप जब आंख मींचकर इनका समर्थन कर रहे थे तो ट्रंप-विरेाधी डेमोक्रेटिक पार्टी इनका विरोध क्यों नहीं करती?
वह मोदी से ज्यादा, ट्रंप का विरोध कर रही थी। यों भी मोदी ने बाइडन-प्रशासन का पहले दिन से ही जैसा भाव-भीना स्वागत किया है, उसका भी असर तो पड़ेगा ही।
(नया इंडिया की अनुमति से)
रेहान फजल
1940 में जब हिटलर के बमवर्षक लंदन पर बम गिरा रहे थे, ब्रिटिश सरकार ने अपने सबसे बड़े दुश्मन सुभाष चंद्र बोस को कलकत्ता की प्रेसिडेंसी जेल में कैद कर रखा था।
अंग्रेज सरकार ने बोस को 2 जुलाई, 1940 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया था। 29 नवंबर, 1940 को सुभाषचंद्र बोस ने जेल में अपनी गिरफ़्तारी के विरोध में भूख हड़ताल शुरू कर दी थी।
एक सप्ताह बाद 5 दिसंबर को गवर्नर जॉन हरबर्ट ने एक एंबुलेंस में बोस को उनके घर भिजवा दिया ताकि अंग्रेज सरकार पर ये आरोप न लगे कि उनकी जेल में बोस की मौत हुई है।
हरबर्ट का इरादा था कि जैसे ही बोस की सेहत में सुधार होगा वो उन्हें फिर से हिरासत में ले लेंगे। बंगाल की सरकार ने न सिर्फ उनके 38/2 एल्गिन रोड के घर के बाहर सादे कपड़ों में पुलिस का कठोर पहरा बैठा दिया था बल्कि ये पता करने के लिए भी अपने कुछ जासूस छोड़ रखे थे कि घर के अंदर क्या हो रहा है?
उनमें से एक जासूस एजेंट 207 ने सरकार को ख़बर दी थी कि सुभाष बोस ने जेल से घर वापस लौटने के बाद जई का दलिया और सब्जियों का सूप पिया था।
उस दिन से ही उनसे मिलने वाले हर शख़्स की गतिविधियों पर नजर रखी जाने लगी थी और बोस के द्वारा भेजे हर खत को डाकघर में ही खोल कर पढ़ा जाने लगा था।
‘आमार एकटा काज कौरते पारबे’
5 दिसंबर की दोपहर को सुभाष ने अपने 20 वर्षीय भतीजे शिशिर के हाथ को कुछ ज़्यादा ही देर तक अपने हाथ में लिया। उस समय सुभाष की दाढ़ी बढ़ी हुई थी और वो अपनी तकिया पर अधलेटे से थे।
सुभाष चंद्र बोस के पौत्र और शिशिर बोस के बेटे सौगत बोस ने मुझे बताया था, ‘सुभाष ने मेरे पिता का हाथ अपने हाथ में लेते हुए उनसे पूछा था ‘आमार एकटा काज कौरते पारबे?’
यानी ‘क्या तुम मेरा एक काम करोगे?’ बिना ये जाने हुए कि काम क्या है शिशिर ने हांमी भर दी थी।
बाद में पता चला कि वो भारत से गुप्त रूप से निकलने में शिशिर की मदद लेना चाहते थे।
योजना बनी की शिशिर अपने चाचा को देर रात अपनी कार में बैठा कर कलकत्ता से दूर एक रेलवे स्टेशन तक ले जाएंगे।
सुभाष और शिशिर ने तय किया कि वो घर के मुख्यद्वार से ही बाहर निकलेंगे। उनके पास दो विकल्प थे। या तो वो अपनी जर्मन वाँडरर कार इस्तेमाल करें या फिर अमेरिकी स्टूडबेकर प्रेसिडेंट का।
अमेरिकी कार बड़ी ज़रूर थी लेकिन उसे आसानी से पहचाना जा सकता था, इसलिए इस यात्रा के लिए वाँडरर कार को चुना गया।
शिशिर कुमार बोस अपनी किताब द ग्रेट एस्केप में लिखते हैं, ‘हमने मध्य कलकत्ता के वैचल मौला डिपार्टमेंट स्टोर में जा कर बोस के भेष बदलने के लिए कुछ ढीली सलवारें और एक फैज टोपी खरीदी। अगले कुछ दिनों में हमने एक सूटकेस, एक अटैची, दो कार्ट्सवूल की कमीजें, टॉयलेट का कुछ सामान, तकिया और कंबल खरीदा। मैं फेल्ट हैट लगाकर एक प्रिटिंग प्रेस गया और वहाँ मैंने सुभाष के लिए विजिटिंग कार्ड छपवाने का ऑर्डर दिया। कार्ड पर लिखा था, मोहम्मद जियाउद्दीन, बीए, एलएलबी, ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर, द एम्पायर ऑफ इंडिया अश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, स्थायी पता, सिविल लाइंस, जबलपुर।’
माँ को भी सुभाष के जाने की हवा नहीं
यात्रा की एक रात पहले शिशिर ने पाया कि जो सूटकेस वो खरीद कर लाए थे वो वाँडरर कार के बूट में समा ही नहीं पा रहा था। इसलिए तय किया गया कि सुभाष का पुराना सूटकेस ही उनके साथ जाएगा।
उस पर लिखे गए उनके नाम एससीबी को मिटा कर उसके स्थान पर चीनी स्याही से एमजेड लिखा गया।
16 जनवरी को कार की सर्विसिंग कराई गई। अंग्रेजों को धोखा देने के लिए सुभाष के निकल भागने की बात बाकी घर वालों, यहाँ तक कि उनकी माँ से भी से छिपाई गई।
जाने से पहले सुभाष ने अपने परिवार के साथ आखिरी बार भोजन किया। उस समय वो सिल्क का कुर्ता और धोती पहने हुए थे। सुभाष को घर से निकलने में थोड़ी देर हो गई क्योंकि घर के बाकी सदस्य अभी जाग रहे थे।
शयनकक्ष की बत्ती जलती छोड़ी गई
सुभाष बोस पर किताब ‘हिज मेजेस्टीज़ अपोनेंट’ लिखने वाले सौगत बोस ने मुझे बताया, ‘रात एक बज कर 35 मिनट के आसपास सुभाष बोस ने मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धारण किया। उन्होंने सोने के रिम का अपना चश्मा पहना जिसको उन्होंने एक दशक पहले पहनना बंद कर दिया था। शिशिर की लाई गई काबुली चप्पल उन्हें रास नहीं आई। इसलिए उन्होंने लंबी यात्रा के लिए फीतेदार चमड़े के जूते पहने। सुभाष कार की पिछली सीट पर जाकर बैठ गए। शिशिर ने वांडरर कार बीएलए 7169 का इंजन स्टार्ट किया और उसे घर के बाहर ले आए। सुभाष के शयनकक्ष की बत्ती अगले एक घंटे के लिए जलती छोड़ दी गई।’
जब सारा कलकत्ता गहरी नींद में था, चाचा और भतीजे ने लोअर सरकुलर रोड, सियालदाह और हैरिसन रोड होते हुए हुगली नदी पर बना हावड़ा पुल पार किया।
दोनों चंद्रनगर से गुजऱे और भोर होते-होते आसनसोल के बाहरी इलाके में पहुंच गए।
सुबह करीब साढ़े आठ बजे शिशिर ने धनबाद के बरारी में अपने भाई अशोक के घर से कुछ सौ मीटर दूर सुभाष को कार से उतारा।
शिशिर कुमार बोस अपनी किताब ‘द ग्रेट एस्केप’ में लिखते हैं, ‘मैं अशोक को बता ही रहा था कि माजरा क्या है कि कुछ दूर पहले उतारे गए इंश्योरेंस एजेंट जियाउद्दीन (दूसरे भेष में सुभाष) ने घर में प्रवेश किया। वो अशोक को बीमा पॉलिसी के बारे में बता ही रहे थे कि उन्होंने कहा कि ये बातचीत हम शाम को करेंगे। नौकरों को आदेश दिए गए कि जियाउद्दीन के आराम के लिए एक कमरे में व्यवस्था की जाए। उनकी उपस्थिति में अशोक ने मेरा जियाउद्दीन से अंग्रेजी में परिचय कराया, जबकि कुछ मिनटों पहले मैंने ही उन्हें अशोक के घर के पास अपनी कार से उतारा था।’
गोमो से कालका मेल पकड़ी
शाम को बातचीत के बाद जिय़ाउद्दीन ने अपने मेज़बान को बताया कि वो गोमो स्टेशन से कालका मेल पकड़ कर अपनी आगे की यात्रा करेंगे।
कालका मेल गोमो स्टेशन पर देर रात आती थी। गोमो स्टेशन पर नींद भरी आँखों वाले एक कुली ने सुभाषचंद्र बोस का सामान उठाया।
शिशिर बोस अपनी किताब में लिखते हैं, ‘मैंने अपने रंगाकाकाबाबू को कुली के पीछे धीमे-धीमे ओवरब्रिज पर चढ़ते देखा। थोड़ी देर बाद वो चलते-चलते अँधेरे में गायब हो गए। कुछ ही मिनटों में कलकत्ता से चली कालका मेल वहाँ पहुँच गई। मैं तब तक स्टेशन के बाहर ही खड़ा था। दो मिनट बाद ही मुझे कालका मेल के आगे बढ़ते पहियों की आवाज़ सुनाई दी।’
सुभाषचंद्र बोस की ट्रेन पहले दिल्ली पहुंची। फिर वहाँ से उन्होंने पेशावर के लिए फ्ऱंटियर मेल पकड़ी।
पेशावर के ताजमहल होटल में सुभाष को ठहराया गया
19 जनवरी की देर शाम जब फ्रंटियर मेल पेशावर के केंटोनमेंट स्टेशन में घुसी तो मियाँ अकबर शाह बाहर निकलने वाले गेट के पास खड़े थे। उन्होंने एक अच्छे व्यक्तित्व वाले मुस्लिम शख्स को गेट से बाहर निकलते देखा।
वो समझ गए कि वो और कोई नहीं दूसरे भेष में सुभाष चंद्र बोस हैं। अकबर शाह उनके पास गए और उनसे एक इंतजार कर रहे ताँगे में बैठने के लिए कहा।
उन्होंने ताँगे वाले को निर्देश दिया कि वो इन साहब को डीन होटल ले चले। फिर वो एक दूसरे ताँगे में बैठे और सुभाष के ताँगे के पीछे चलने लगे।
मियाँ अकबर शाह अपनी किताब ‘नेताजीज़ ग्रेट एस्केप’ में लिखते हैं, ‘मेरे ताँगेवाले ने मुझसे कहा कि आप इतने मजहबी मुस्लिम शख़्स को विधर्मियों के होटल में क्यों ले जा रहे हैं। आप उनको क्यों नहीं ताजमहल होटल ले चलते जहाँ मेहमानों के नमाज पढऩे के लिए जानमाज़ और वजू के लिए पानी भी उपलब्ध कराया जाता है? मुझे भी लगा कि बोस के लिए ताजमहल होटल ज्यादा सुरक्षित जगह हो सकती है क्योंकि डीन होटल में पुलिस के जासूसों के होने की संभावना हो सकती है।’
वे आगे लिखते हैं, ‘लिहाजा बीच में ही दोनों ताँगों के रास्ते बदले गए। ताजमहल होटल का मैनेजर मोहम्मद जियाउद्दीन से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनके लिए फायर प्लेस वाला एक सुंदर कमरा खुलवाया। अगले दिन मैंने सुभाषचंद्र बोस को अपने एक साथी आबाद खाँ के घर पर शिफ्ट कर दिया। वहाँ पर अगले कुछ दिनों में सुभाष बोस ने जियाउद्दीन का भेष त्याग कर एक बहरे पठान का वेष धारण कर लिया। ये इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि सुभाष स्थानीय पश्तो भाषा बोलना नहीं जानते थे।’
अड्डा शरीफ की मजार पर जिय़ारत
सुभाष के पेशावर पहुँचने से पहले ही अकबर ने तय कर लिया था कि फॉरवर्ड ब्लॉक के दो लोग, मोहम्मद शाह और भगतराम तलवार, बोस को भारत की सीमा पार कराएंगे।
भगत राम का नाम बदल कर रहमत ख़ाँ कर दिया गया। तय हुआ कि वो अपने गूँगे बहरे रिश्तेदार जियाउद्दीन को अड्डा शरीफ की मजार ले जाएँगे जहाँ उनके फिर से बोलने और सुनने की दुआ माँगी जाएगी।
26 जनवरी, 1941 की सुबह मोहम्मद जिय़ाउद्दीन और रहमत खाँ एक कार में रवाना हुए। दोपहर तक उन्होंने तब के ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा पार कर ली। वहाँ उन्होंने कार छोड़ उत्तर पश्चिमी सीमाँत के ऊबड़-खाबड़ कबाएली इलाके में पैदल बढऩा शुरू कर दिया।
27-28 जनवरी की आधी रात वो अफग़़ानिस्तान के एक गाँव में पहुँचे।
मियाँ अकबर शाह अपनी किताब में लिखते हैं, 'इन लोगों ने चाय के डिब्बों से भरे एक ट्रक में लिफ़्ट ली और 28 जनवरी की रात जलालाबाद पहुँच गए। अगले दिन उन्होंने जलालाबाद के पास अड्डा शरीफ मजार पर जियारत की। 30 जनवरी को उन्होंने ताँगे से काबुल की तरफ बढऩा शुरू किया। फिर वो एक ट्रक पर बैठ कर बुद खाक के चेक पॉइंट पर पहुँचे। वहाँ से एक अन्य ताँगा कर वो 31 जनवरी, 1941 की सुबह काबुल में दाखिल हुए।’
आनंद बाजार पत्रिका में सुभाष के गायब होने की खबर छपी
इस बीच सुभाष को गोमो छोड़ कर शिशिर 18 जनवरी को कलकत्ता वापस पहुँच गए और अपने पिता के साथ सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक गुरु चितरंजन दास की पोती की शादी में सम्मिलित हुए।
वहाँ जब उनसे लोगों ने सुभाष के स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि उनके चाचा गंभीर रूप से बीमार हैं।
सौगत बोस अपनी किताब ‘हिज मेजेस्टीज अपोनेंट’ में लिखते हैं, ‘इस बीच रोज़ सुभाष बोस के एल्गिन रोड वाले घर के उनके कमरे में खाना पहुँचाया जाता रहा। वो खाना उनके भतीजे और भतीजियाँ खाते रहे ताकि लोगों को आभास मिलता रहे कि सुभाष अभी भी अपने कमरे में हैं। सुभाष ने शिशिर से कहा था कि अगर वो चार या पाँच दिनों तक मेरे भाग निकलने की खबर छिपा गए तो फिर उन्हें कोई नहीं पकड़ सकेगा। 27 जनवरी को एक अदालत में सुभाष के खिलाफ एक मुकदमें की सुनवाई होनी थी। तय किया गया कि उसी दिन अदालत को बताया जाएगा कि सुभाष का घर में कहीं पता नहीं है।’
सुभाष के दो भतीजों ने पुलिस को ख़बर दी कि वो घर से गायब हो गए हैं। ये सुनकर सुभाष की माँ प्रभाबती का रोते-रोते बुरा हाल हो गया। उनको संतुष्ट करने के लिए सुभाष के भाई सरत ने अपने बेटे शिशिर को उसी वाँडरर कार में सुभाष की तलाश के लिए कालीघाट मंदिर भेजा।
27 जनवरी को सुभाष के गायब होने की ख़बर सबसे पहले आनंद बाजार पत्रिका और हिंदुस्तान हेरल्ड में छपी। इसके बाद उसे रॉयटर्स ने उठाया। जहाँ से ये खबर पूरी दुनिया में फैल गई।
ये सुनकर ब्रिटिश खुफिया अधिकारी न सिफऱ् आश्चर्यचकित रह गए बल्कि शर्मिंदा भी हुए।
शिशिर कुमार बोस अपनी किताब ‘रिमेंबरिंग माई फादर’ में लिखते हैं, ‘मैंने और मेरे पिता ने इन अफवाहों को बल दिया कि सुभाष ने संन्यास ले लिया है। जब महात्मा गाँधी ने सुभाष के गायब हो जाने के बारे में टेलिग्राम किया तो मेरे पिता ने तीन शब्द का जवाब दिया, ‘सरकमस्टान्सेज इंडीकेट रिनुनसिएशन’ (हालात संन्यास की तरफ इशारा कर रहे हैं।) लेकिन वो रविंद्रनाथ टैगोर से इस बारे में झूठ नहीं बोल पाए। जब टैगोर का तार उनके पास आया तो उन्होंने जवाब दिया, ‘सुभाष जहाँ कहीँ भी हों, उन्हें आपका आशीर्वाद मिलता रहे।’
वायसराय लिनलिथगो आगबबूला हुए
उधर जब वायसराय लिनलिथगो को सुभाष बोस के भाग निकलने की खबर मिली तो वो बंगाल के गवर्नर जॉन हरबर्ट पर बहुत नाराज हुए।
हरबर्ट ने अपनी सफाई में कहा कि अगर सुभाष के भारत से बाहर निकल जाने की खबर सही है तो हो सकता है कि बाद में हमें इसका फायदा मिले। लेकिन लिनलिथगो इस तर्क से प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने कहा कि इससे ब्रिटिश सरकार की बदनामी हुई है।
कलकत्ता की स्पेशल ब्राँच के डिप्टी कमिश्नर जे वी बी जानव्रिन का विष्लेषण बिल्कुल सटीक था। उन्होंने लिखा ‘हो सकता है कि सुभाष संन्यासी बन गए हों लेकिन उन्होंने ऐसा धार्मिक कारणों से नहीं बल्कि क्राँति की योजना बनाने के लिए किया है।’
सुभाष चंद्र बोस ने जर्मन दूतावास से किया संपर्क
31 जनवरी को पेशावर पहुँचने के बाद रहमत खाँ और उनके गूँगे-बहरे रिश्तेदार जियाउद्दीन, लाहौरी गेट के पास एक सराय में ठहरे। इस बीच रहमत ख़ाँ ने वहाँ के सोवियत दूतावास से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।
जब सुभाष ने खुद जर्मन दूतावास से संपर्क करने का फैसला किया। उनसे मिलने के बाद काबुल दूतावास में जर्मन मिनिस्टर हाँस पिल्गेर ने 5 फरवरी को जर्मन विदेश मंत्री को तार भेज कर कहा, ‘सुभाष से मुलाक़ात के बाद मैंने उन्हें सलाह दी है कि वो भारतीय दोस्तों के बीच बाजार में अपने-आप को छिपाए रखें। मैंने उनकी तरफ से रूसी राजदूत से संपर्क किया है।’
बर्लिन और मास्को से उनके वहाँ से निकलने की सहमति आने तक बोस सीमेंस कंपनी के हेर टॉमस के जरिए जर्मन नेतृत्व के संपर्क में रहे।
इस बीच सराय में सुभाष बोस और रहमत ख़ाँ पर ख़तरा मंडरा रहा था। एक अफगान पुलिस वाले को उन पर शक हो गया था।
उन दोनों ने पहले कुछ रुपये देकर और बाद में सुभाष की सोने की घड़ी देकर उससे अपना पिंड छुड़ाया। ये घड़ी सुभाष को उनके पिता ने उपहार में दी थी।
इटालियन राजनयिक के पासपोर्ट में बोस की तस्वीर
कुछ दिनों बाद सीमेंस के हेर टॉमस के जरिए सुभाष बोस के पास संदेश आया कि अगर वो अपनी अफगानिस्तान से निकल पाने की योजना पर अमल करना चाहते हैं तो उन्हें काबुल में इटली के राजदूत पाइत्रो क्वारोनी से मिलना चाहिए।
22 फरवरी, 1941 की रात को बोस ने इटली के राजदूत से मुलाकात की। इस मुलाकात के 16 दिन बाद 10 मार्च, 1941 को इटालियन राजदूत की रूसी पत्नी सुभाषचंद्र बोस के लिए एक संदेश लेकर आईं जिसमें कहा गया था कि सुभाष दूसरे कपड़ो में एक तस्वीर खिचवाएं।
सौगत बोस अपनी किताब ‘हिज मेजेस्टीज अपोनेंट’ में लिखते हैं, ‘सुभाष की उस तस्वीर को एक इटालियन राजनयिक ओरलांडो मजोटा के पासपोर्ट में उनकी तस्वीर की जगह लगा दिया गया।’
17 मार्च की रात सुभाष को एक इटालियन राजनयिक सिनोर क्रेससिनी के घर शिफ्ट कर दिया गया। सुबह तडक़े वो एक जर्मन इंजीनियर वेंगर और दो अन्य लोगों के साथ कार से रवाना हुए। वो अफगानिस्तान की सीमा पार करते हुए पहले समरकंद पहुँचे और फिर ट्रेन से मास्को के लिए रवाना हुए।
वहाँ से सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी की राजधानी बर्लिन का रुख किया।
टैगोर ने सुभाष बोस पर लिखी एक कहानी
सुभाष बोस के सुरक्षित जर्मनी पहुंच जाने के बाद उनके भाई शरतचंद्र बोस बीमार रविंद्रनाथ टैगोर से मिलने शाँतिनिकेतन गए। वहाँ उन्होंने महान कवि से बोस के अंग्रेजी पहरे से बच निकलने की खबर साझा की।
अगस्त 1941 में अपनी मृत्यु से कुछ पहले लिखी शायद अपनी अंतिम कहानी ‘बदनाम’ में टैगोर ने आजादी की तलाश में निकले एक अकेले पथिक की अफगानिस्तान के बीहड़ रास्तों से गुजरने का बहुत मार्मिक चित्रण खींचा। (bbc.com)
अल्पसंख्यकों के साथ तो भेदभाव होता ही है, खुद अल्पसंख्यक समुदाय में भी मुख्यधारा के बाहर के लोगों के साथ भेदभाव होता है. मुस्लिम समलैंगिक अपने साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं.
डॉयचे वैले पर आकांक्षा सक्सेना का लिखा-
सोशल मीडिया पर एक समलैंगिक मुसलमान समुदाय अपने साथ होने वाले व्यापक भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ सामाजिक चेतना जगा रहा है. और काफी कम समय में यह प्रोजेक्ट दक्षिण एशिया के प्रमुख देशों में समलैंगिक अधिकारों की अभिव्यक्ति की मिसाल बनकर सामने आया है. शहामत उद्दीन मुस्लिम बहुल बांग्लादेश में हाशिए पर रहने वाले समलैंगिक समुदाय का हिस्सा हैं. बांग्लादेश में एलजीबीटी समुदाय के साथ हो रही हिंसा और उत्पीड़न की कई घटनाओं ने शहामत को झकझोर दिया. हाल ही में वे सुरक्षा और बेहतर भविष्य की तलाश के लिए अमेरिका चले गए.
शुलहाज मन्नान की 2016 में हुई हत्या ने उनको सबसे ज्यादा परेशान किया. मन्नान और एक अन्य समलैंगिक कार्यकर्ता, महबूब रब्बी टोनॉय को कुछ चरमपंथियों ने कुल्हाड़ी से मौत के घाट उतार दिया था. बांग्लादेश में अल-कायदा ने इन हत्याओं की जिम्मेदारी ली थी. मन्नान बांग्लादेश की पहली और एकमात्र एलजीबीटी पत्रिका रूपबान के संस्थापक थे. बांग्लादेश के समलैंगिक समुदाय के कई सदस्यों का नाम धार्मिक चरमपंथी समूहों द्वारा अपनी "हिट लिस्ट" में प्रकाशित किया गया था और इस हमले के बाद वे विदेशों में छिपने या भागने के लिए मजबूर हो गए थे. कई कार्यकर्ताओं ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट भी बंद कर दिए. बांग्लादेशी कानून के तहत समलैंगिकता अवैध है.
'द क्वीयर मुस्लिम प्रोजेक्ट'
समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले शुलहाज मन्नान ने शहामत को बहुत प्रेरित किया था. शहामत भी एक ऐसे मंच की तलाश में थे, जहां वह खुद को अभिव्यक्त कर सकें. आखिरकार वे दक्षिण एशिया के मुस्लिम समलैंगिकों के ऑनलाइन समुदाय 'द क्वीयर मुस्लिम प्रोजेक्ट' से जुड़े. शहामत के एक पोस्ट में लिखा गया, "क्वीयर होना एक राजनैतिक उपद्रवी होना है, मैं तुमसे प्यार करता हूं शुलहाज और तुम्हारी वजह से मुझे पता चला है कि ईश्वर ने हमें भूरा, मुसलमान, समलैंगिक, और राजनैतिक उपद्रवी क्यों बनाया? यह प्रोजेक्ट दक्षिण एशिया के समलैंगिक मुसलमानों के बयानों और अभिव्यक्ति को छापने वाली एक ऑनलाइन श्रृंखला है.
रफीउल अलोम रहमान ने 2017 में यह प्रोजेक्ट शुरू किया. रफीउल धर्म और सेक्सुअलिटी के बीच के संबंधों पर पीएचडी कर रहे थे. उन्हें लगा कि भारत में अभिव्यक्ति के लिए एक प्लेटफार्म की सख्त जरूरत है और वह पढाई छोड़कर वापस आ गए. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "मुख्य धारा के इस्लामिक दर्शन में समलैंगिक अधिकारों के बारे में बात करने के लिए बहुत सीमित स्थान है. मैं एक ऐसी जगह चाहता था जहां समलैंगिक मुसलमान एक साथ आ सकें और भरोसे के माहौल में विचारों का आदान-प्रदान कर सकें."
यह स्पेस सोशल मीडिया तक सीमित नहीं है. यहां वर्कशॉप, परामर्श और बैठकें होती हैं जहां समुदाय के सदस्य अपने अनुभव साझा करते हैं. कोरोना महामारी से पहले कुछ वर्कशॉप दिल्ली में होती रहीं हैं, लेकिन अब वे ज्यादातर दुनिया भर से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर होती हैं. रफीउल अलोम रहमान कहते हैं, "यह एक आंखें खोलने वाला अनुभव रहा है. जब हमने लोगों पर हुए शोषण की आश्चर्यजनक और उदास कर देने वाली कहानियों को सुना, तो हमें महसूस हुआ कि मानसिक स्वास्थ्य हमारे समुदाय की जरुरत है."
'मेरी अभिव्यक्ति की जगह'
एक ऐसी ही बैठक ने कबीर (बदला हुआ नाम) का नजरिया बदल दिया. कबीर ने हमें बताया, "समलैंगिकता पाप है, बचपन से यही सुना था. जब मैं मस्जिद में जाता था और अन्य लड़कों की ओर आकर्षित होता था तो मेरे अंदर बहुत अंतरविरोध चलते थे. मुझे बहुत अपराधबोध होता था और मुझे अकेलापन महसूस होता था." उन्होंने कहा कि उनका संघर्ष और अकेलापन उन पर भारी पड़ता था. वह गुमसुम, उदास और अकेले रहने लगे.
कबीर ने डॉयचे वेले से कहा, "मैं रमजान के दौरान मुस्लिम समलैंगिक समुदाय के एक इवेंट में गया था. मैं बहुत घबराया हुआ और डरा हुआ था, लेकिन किसी तरह इसमें शामिल होने की ख्वाहिश मन में थी. वहां जाकर अच्छा लगा, ऐसा लगा कि यह मेरी अभिव्यक्ति की जगह थी." समलैंगिक समुदाय के समर्थन की वजह से ही कबीर ने अपने माता-पिता को अपने समलैंगिक होने की बात बताई. उन्होंने कहा, "जब मैंने अपनी मां को बताया तो मुझे बहुत प्रतिकूल प्रतिक्रिया की आशंका थी. मेरे लिए उन्हें समझाना बहुत मुश्किल था और मैं रो पड़ा. लेकिन मेरी मां ने मुझे सीने से लगाया और अपना लिया. मुझे स्वीकार किए जाने से मैं खुश हूं."
अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक
रफीउल कहते हैं, "हमें सोशल मीडिया पर अभद्र टिप्पणियों के साथ ट्रोल किया जाता है. हाल ही में, एक रूढ़िवादी मुस्लिम समूह ने हमें होमोफोबिक तरीके से सार्वजनिक रूप से अपमानित किया. कुछ लोग हमें धर्म पर लगा काला धब्बा बोलते हैं. यह उन लोगों की सामान्य प्रतिक्रिया है जो हमें समझने के लिए कोई पहल नहीं करते हैं."
मुस्लिम समलैंगिक अल्पसंख्यकों को लेकर अन्य समलैंगिक लोगों में भी वैचारिक मतभेद हैं. रफीउल कहते हैं, "वे कहते हैं कि हम समलैंगिक समुदाय को विभाजित करने की कोशिश कर रहे हैं. कभी-कभी ये टिप्पणियां इस्लाम विरोधी भी होती हैं. हमें बताया जाता है कि इस्लाम एक रुढ़िवादी धर्म है और हम मुस्लिम दक्षिणपंथियों को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं. हमें रूढ़िवादी और उग्रपंथी समझा जाता है."
आशा और उम्मीद
सालेहा अयान सलाम एक ट्रांस महिला हैं और उन्होंने एक खूबसूरत गुलाबी साड़ी में और बिंदी लगाए एक तस्वीर के साथ यह पोस्ट लिखा है. "मैं हथकरघे से बनी इस साड़ी के माध्यम से अपने जेंडर की पहचान और सांस्कृतिक पहचान सबके सामने रखना चाहती हूं." सालेहा कहती हैं, "मुझे उम्मीद है कि मेरे अनुभवों को साझा करने से ट्रांस लोगों और समलैंगिक लोगों के लिए समाज की समझ में बदलाव आएगा."
रफीउल को भी उम्मीद है कि अधिक लोग उन्हें स्वीकार करने में सक्षम होंगे. लेकिन इस जटिल पहचान को उजागर करना एक दोधारी तलवार है. वह कहते हैं, "हमारी बातचीत बड़े पैमाने पर अंग्रेजी में ही हो रही है और शहरों तक सीमित है. हम लोगों को जोखिम में डालना और उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते हैं. कई समलैंगिक लोग हमसे पाकिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया, इराक और बांग्लादेश से जुड़े हैं लेकिन हमें अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है."
(dw.com)
इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में शांति, व्यवस्था और नियमबद्ध आचरण के लिए यह बहुत जरूरी है कि इसके प्रमुख देश लगातार साथ मिलकर काम करें. भारत भी इस बीच बहुपक्षीय और सामरिक सहयोग की कई पहलकदमियों को मूर्त रूप देने में जुटा हुआ है.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र का लिखा-
पिछले कुछ वर्षों में इंडो-पैसिफिक सहयोग के अलावा अमेरिका, भारत, जापान, और आस्ट्रेलिया के बीच के चतुष्कोणीय सहयोग पर काफी प्रगति हुई है. इसके अलावा जापान, अमेरिका और भारत के बीच त्रिकोणीय सहयोग भी बढ़ा है जिसे भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने ‘जय' का नाम दिया है. साथ ही भारत, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया के बीच भी वार्ता और सहयोग के आयामों में बढ़ोत्तरी हुई है. अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच सहयोग तो वर्षों से कायम है, भारत ने भी पिछले समय में अलग अलग देशों के साथ त्रिपक्षीय सहयोग की पहल की है. इसी सिलसिले में नई पहल है, भारत, जापान और फ्रांस के बीच त्रिकोणीय सहयोग की कोशिश. हालांकि अभी तक आधिकारिक स्तर पर कोई बड़ी घोषणा नहीं हुई है लेकिन माना जा रहा है कि जल्द ही इस मिनीलेटरल सहयोग को भी अमली जामा पहना दिया जाएगा.
यह पहल कई मामलों में महत्वपूर्ण है. पहली तो यही कि इन तीनों देशों के लिए इंडो-पैसिफिक महत्वपूर्ण है. दुनिया भर की लगभग दो तिहाई आबादी इसी इलाके में बसी है और दुनिया का आधे से ज्यादा व्यापार भी इसी क्षेत्र से होकर गुजरता है. जाहिर है इन तीनों बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी यह इलाका खासी अहमियत रखता है. भारत, जापान, और फ्रांस तीनों के लिए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र किसी सुदूर क्षेत्र की सामरिक रणनीति का मसला नहीं बल्कि बेहद नजदीक का मामला है.
भारत और जापान पर तो इसका सीधा प्रभाव है ही, दोनों इन सागरों पर बसे हैं. फ्रांस के लिए भी यह कम महत्वपूर्ण नहीं, क्योंकि फ्रांस अधिकृत कई द्वीप इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में आते हैं. फ्रांस से इन द्वीपों की दूरी से फ्रांसीसियों की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है. इसके अलावा, अतीत में फ्रांस के अधीन रहे कुछ देश भी इस इलाके में हैं, जिनके साथ आज फ्रांस के बहुत अच्छे संबंध हैं. इस वजह से भी फ्रांस अपने को इंडो-पैसिफिक से अलग नहीं कर सकता है.
एशिया पैसिफिक में पश्चिमी देशों के हित
आम तौर पर माना जाता है कि फ्रांस यूरोपीय देश है, उसे कहां होगी इंडो-पैसिफिक की फिक्र? लेकिन फ्रांस इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन का पिछले कई वर्षों से डायलॉग पार्टनर रहा है. और इंडियन ओशन नौवहन सिम्पोजियम में तो उसकी सदस्यता एक पूर्वी अफ्रीकी देश के तौर पर है. यही नहीं, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ उसने तमाम संयुक्त सैन्य अभ्यासों में भी नियमित रूप से भाग लिया है. भारत के साथ ‘वरुण' संयुक्त नौसेना अभ्यास इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. यही नहीं, दोनों देशों की थल सेनाओं के बीच ‘शक्ति' नामक संयुक्त युद्धाभ्यास नियमित रूप होता रहा है तो वहीं दोनों देशों की वायुसेनाएं ‘गरुड़' नामक युद्धाभ्यास नियमित रूप से करते रहे हैं. भारत और फ्रांस के बीच 2017 में पास किया गया व्हाइट शिपिंग एग्रीमेंट भी इनके रिश्ते की मजबूतियों का गवाह है. यह समझौता करने वाले देशों की नौसेना को एक दूसरे की सीमा में जहाजों के बारे में सूचना के आदान प्रदान की सुविधा देता है.
भारत और फ्रांस हिंद महासागर में किसी भी तीसरे देश में साथ साथ संयुक्त निवेश की संभावनाओं पर भी काम कर रहे हैं. लेकिन राफेल विमानों और फ्रांस के हाल ही में सिर्फ भारत के लिए हथियार बनाने के सौदे के जिक्र के बिना बात अधूरी सी लगती है. आने वाले समय में इस सहयोग के व्यापक परिणाम सामने आएंगे. जापान और भारत के बीच तो हर स्तर पर सहयोग है ही. इस मिनीलेटरल सहयोग के पीछे एक बड़ी वजह है अमेरिका. कोविड-19 और गिरती अर्थव्यवस्था की मार झेल रहे अमेरिका के लिये इंडो-पैसिफिक पर पूरा ध्यान देना मुश्किल होगा. और इस क्षेत्र की चुनौतियां आए दिन बढ़ती जा रही हैं. हालांकि बीते बहुत सालों में अमेरिका ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई लेकिन बराक ओबामा के कार्यकाल से ही यह लगने लगा था कि अमेरिका के पास खुद की और एशिया प्रशांत या मौजूदा इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के बाहर चलने वाली समस्याएं बहुत ज्यादा बढ़ चली हैं.
चीन बड़ा प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरा
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकार मानते हैं कि शीत युद्ध के बाद जब अमेरिका के पास विचारधारा और सैन्यशक्ति के स्तर पर कोई मुकाबले का विरोधी नहीं रह गया तब उसने दुनिया को अपने ढंग से बदलने की तरफ काम करना शुरू कर दिया. लेकिन दुनिया को बदल देना इतना आसान नहीं. बीसवीं सदी का अंत आते आते अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद और इस्लामिक चरमपंथ ने पूरी दुनिया पर अपना जाल बिछा लिया और 2001 में अमेरिका खुद इसका निशाना बन गया. दुनिया के देशों में पहले हुई आतंकवाद की घटनाओं को समुदायों के 'आत्मनिर्णय' की संज्ञा देने वाले अमेरिका को पता चला कि आतंकवाद कितना खतरनाक है. 2001 में अफगानिस्तान से शुरू हुए सिलसिले ने अमेरिका को अब तक पूरी तरह नहीं छोड़ा है. नतीजतन, हालात ऐसे बन गए हैं कि अमेरिका चाहकर भी उस क्षेत्र से बाहर नहीं निकल सकता.
और जब अमेरिका अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया में उलझा हुआ था तो चीन प्रशांत और हिंद महासागर के इलाके में अपनी ताकत बेतहाशा बढ़ाने में लगा था. चीन ने दक्षिण चीन सागर में अपना कब्जा भी बढाया और इलाके में कृत्रिम द्वीप भी बनाए. फिलीपींस और चीन के बीच झगड़ा हो या वियतनाम चीन के बीच, या फिर इंडोनेशिया के साथ चीन की तकरार, हर बार अमेरिका की कमी महसूस की गयी. दक्षिणपूर्व एशिया और पूर्व एशिया के देशों को लगा कि अगर अमेरिका उन पर और चीन की कारगुजारियों पर ज्यादा ध्यान देता तो अच्छा होता. बराक ओबामा ने भले ही अपने कार्यकाल में एशिया प्रशांत को अपनी विदेश नीति का मुद्दा बनाया, डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका ने चीन पर पैनी नजर रखने की शुरुआत की.
अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों तक उनकी सरकार ने चीन पर दबाव बनाए रखा. लेकिन ओबामा और ट्रंप दोनों के ही कार्यकाल में जोर इस बात पर था कि एशियाई देश अपनी सैन्य और सामरिक जरूरतों को खुद पूरा करें. अमेरिका ने इसकी वजह से भारत की एक्ट ईस्ट नीति और इंडो-पैसिफिक में उसके लिए बड़ी भूमिका का बढ़ चढ़कर समर्थन ही नहीं किया बल्कि खासा योगदान भी दिया. ट्रंप प्रशासन के हाल ही में लीक हुए इंडो-पैसिफिक से जुड़े खुफिया दस्तावेजों से भी यही बात पुष्ट होती है.
भारत, जापान और फ्रांस के बीच अगर एक मिनीलेटरल सहयोग का दौर स्थापित होता है तो सामरिक दृष्टि से यह बेशक एक अच्छा और शायद कारगर कदम होगा. फ्रांस और जापान के साथ आर्थिक मोर्चे पर भी शायद भारत को कुछ और फायदा हो. कुल मिला कर देखें तो यह साफ है कि भारत और फ्रांस त्रिकोणीय सहयोग को संबंधों में मजबूती लाने का बड़ा जरिया मानते हैं. भारत, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के बीच सितंबर 2020 में पहली विदेश सचिव स्तरीय वार्ता हुई थी जिसे हर साल आयोजित करने का निर्णय लिया जा चुका है. भारत, जापान और फ्रांस के बीच त्रिकोणीय सहयोग भी उसी रास्ते जाएगा. पारस्परिक सहयोग की ऐसे पहलकदमियां चीन को इलाके में थोड़ा अलग थलग कर सकती हैं और उसे नियमबद्ध आचरण करने को मजबूर कर सकती हैं. (dw.com)
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
प्रदीप कुमार
ये 1934 का साल था. सुभाष चंद्र बोस उस वक्त ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में थे. उस वक्त तक उनकी पहचान कांग्रेस के योद्धा के तौर पर होने लगी थी.
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जेल में बंद सुभाष चंद्र बोस की तबीयत फरवरी, 1932 में ख़राब होने लगी थी. इसके बाद ब्रिटिश सरकार उनको इलाज के लिए यूरोप भेजने पर मान गई थी, हालांकि इलाज का खर्च उनके परिवार को ही उठाना था.
विएना में इलाज कराने के साथ ही उन्होंने तय किया कि वे यूरोप रह रहे भारतीय छात्रों को आज़ादी की लड़ाई के लिए एकजुट करेंगे. इसी दौरान उन्हें एक यूरोपीय प्रकाशक ने 'द इंडियन स्ट्रगल' किताब लिखने का काम सौंपा, जिसके बाद उन्हें एक सहयोगी की ज़रूरत महसूस हुई, जिसे अंग्रेजी के साथ साथ टाइपिंग भी आती हो.
बोस के दोस्त डॉ. माथुर ने उन्हें दो लोगों का रिफ़रेंस दिया. बोस ने दोनों के बारे में मिली जानकारी के आधार पर बेहतर उम्मीदवार को बुलाया, लेकिन इंटरव्यू के दौरान वे उससे संतुष्ट नहीं हुए. तब दूसरे उम्मीदवार को बुलाया गया.
ये दूसरी उम्मीदवार थीं, 23 साल की एमिली शेंकल. बोस ने इस ख़ूबसूरत ऑस्ट्रियाई युवती को जॉब दे दी. एमिली ने जून, 1934 से सुभाष चंद्र बोस के साथ काम करना शुरू कर दिया.
1934 में सुभाष चंद्र बोस 37 साल के थे और इस मुलाकात से पहले उनका सारा ध्यान अपने देश को अंग्रेजों से आज़ाद करने पर था. लेकिन सुभाष चंद्र बोस को अंदाजा भी नहीं था कि एमिली उनके जीवन में नया तूफ़ान लेकर आ चुकी हैं.
सुभाष के जीवन में प्यार का तूफ़ान
सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई शरत चंद्र बोस के पोते सुगत बोस ने सुभाष चंद्र बोस के जीवन पर 'हिज़ मैजेस्टी अपोनेंट- सुभाष चंद्र बोस एंड इंडियाज स्ट्रगल अगेंस्ट एंपायर' किताब लिखी है. इसमें उन्होंने लिखा है कि एमिली से मुलाकात के बाद सुभाष के जीवन में नाटकीय परिवर्तन आया.
सुगत बोस के मुताबिक इससे पहले सुभाष चंद्र बोस को प्रेम और शादी के कई ऑफ़र मिले थे, लेकिन उन्होंने किसी में दिलचस्पी नहीं ली थी. लेकिन एमिली की ख़ूबसूरती ने सुभाष पर मानो जादू सा कर दिया.
सुभाष चंद्र बोस की हत्या हुई या मृत्यु?
'मैंने नेताजी को बर्मा की सीमा पर छोड़ा था'
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एसीएन नांबियार, हेडी मिलर, अमिय बोस के साथ सुभाष चंद्र बोस एवं एमिली शेंकल
सुगत बोस ने अपनी पुस्तक में एमिली के हवाले से लिखा है, "प्यार की पहल सुभाष चंद्र बोस की ओर से हुई थी और धीरे धीरे हमारे रिश्ते रोमांटिक होते गए. 1934 के मध्य से लेकर मार्च 1936 के बीच ऑस्ट्रिया और चेकेस्लोवाकिया में रहने के दौरान हमारे रिश्ते मधुर होते गए."
26 जनवरी, 1910 को ऑस्ट्रिया के एक कैथोलिक परिवार में जन्मी एमिली के पिता को ये पसंद नहीं था कि उनकी बेटी किसी भारतीय के यहां काम करे लेकिन जब वे लोग सुभाष चंद्र बोस से मिले तो उनके व्यक्तित्व के कायल हुए बिना नहीं रहे.
जाने माने अकादमिक विद्वान रुद्रांशु मुखर्जी ने सुभाष चंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरू की जीवन को तुलनात्मक रूप से पेश करते हुए एक पुस्तक लिखी है- नेहरू एंड बोस, पैरलल लाइव्स.
पेंगुइन इंडिया से प्रकाशित इस पुस्तक में एक चैप्टर है, 'टू वूमेन एंड टू बुक्स'. इसमें बोस और नेहरू के जीवन पर उनकी पत्नियों की भूमिका को रेखांकित किया गया है.
सुभाष का लिखा लव लेटर
मुखर्जी ने इसमें लिखा है, "सुभाष और एमिली ने शुरूआत से ही स्वीकर कर लिया था कि उनका रिश्ता बेहद अलग और मुश्किल रहने वाला है. एक-दूसरे को लिखे खतों में दोनों एक दूसरे के लिए जिस संबोधन का इस्तेमाल करते हैं, उससे ये ज़ाहिर होता है. एमिली उन्हें मिस्टर बोस लिखती हैं, जबकि बोस उन्हें मिस शेंकल या पर्ल शेंकल."
ये हक़ीक़त है कि पहचान छुपा कर रहने की बाध्यता और सैनिक संघर्ष में यूरोपीय देशों से मदद मांगने के लिए भाग दौड़ करने के चलते सुभाष अपने प्यार भरे रिश्ते लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतते होंगे. लेकिन एमिली को लेकर उनके अंदर कैसा भाव था, इसे उस पत्र से समझा जा सकता है, जिसे आप सुभाष चंद्र बोस का लिखा लव लेटर कह सकते हैं.
ये निजी पत्र पहले तो सुभाष चंद्र बोस के एमिली को लिखे पत्र के संग्रह में शामिल नहीं था. इस पत्र को एमिली ने खुद शरत चंद्र बोस के बेटे शिशिर कुमार बोस की पत्नी कृष्णा बोस को सौंपा था. 5 मार्च, 1936 को लिखा ये पत्र इस तरह से शुरू होता है.
सरकारों ने तथ्य और सत्य छिपाकर रखे: चंद्र बोस
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सुभाष चंद्र बोस के एमिली शेंकल को लिखे प्रेम पत्र का हिस्सा
"माय डार्लिंग, समय आने पर हिमपर्वत भी पिघलता है, ऐसा भाव मेरे अंदर अभी है. मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूं, ये बताने के लिए कुछ लिखने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं. जैसा कि हम एक-दूसरे को आपस में कहते हैं, माय डार्लिंग, तुम मेरे दिल की रानी हो. लेकिन क्या तुम मुझसे प्यार करती हो."
इसमें बोस ने आगे लिखा है, "मुझे नहीं मालूम कि भविष्य में क्या होगा. हो सकता है पूरा जीवन जेल में बिताना पड़े, मुझे गोली मार दी जाए या मुझे फांसी पर लटका दिया जाए. हो सकता है मैं तुम्हें कभी देख नहीं पाऊं, हो सकता है कि कभी पत्र नहीं लिख पाऊं- लेकिन भरोसा करो, तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगी, मेरी सोच और मेरे सपनों में रहोगी. अगर हम इस जीवन में नहीं मिले तो अगले जीवन में मैं तुम्हारे साथ रहूंगा."
आत्मा से प्यार का वादा
इस पत्र के अंत में सुभाष ने लिखा है कि मैं तुम्हारे अंदर की औरत को प्यार करता हूं, तुम्हारी आत्मा से प्यार करता हूं, तुम पहली औरत हो जिससे मैंने प्यार किया. पत्र के अंत में सुभाष ने इस पत्र को नष्ट करने का अनुरोध भी किया था, लेकिन एमिली ने इस पत्र को संभाल कर रखा.
'नेताजी के साथ मैंने भी हिटलर से हाथ मिलाया'
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सुभाष चंद्र बोस की पत्नी एमिली शेंकल और बेटी अनीता बोस
जाहिर है एमिली के प्यार में सुभाष चंद्र बोस पूरी तरह गिरफ़्तार हो चुके थे. इस बारे में सुभाष चंद्र बोस के घनिष्ठ मित्र और राजनीतिक सहयोगी एसीएन नांबियार ने सुगत बोस को बताया था, "सुभाष एक आइडिया वाले शख़्स थे. उनका ध्यान केवल भारत को आज़ादी दिलाने पर था. अगर भटकाव की बात करें तो केवल एक मौका आया जब उन्हें एमिली से मोहब्बत हुई. वे उनसे बेहद प्यार करते थे, डूबकर मोहब्बत करने जैसा था उनका प्रेम."
सुभाष की मनोदशा उस दौरान किस तरह की थी, ये अप्रैल या मई, 1937 में एमिली को भेजे एक पत्र से ज़ाहिर होता है, जो उन्होंने कैपिटल अक्षरों में लिखा है.
उन्होंने लिखा था, "पिछले कुछ दिनों से तुम्हें लिखने को सोच रहा था. लेकिन तुम समझ सकती हो कि मेरे लिए तुम्हारे बारे में अपने मनोभावों को लिखना कितना मुश्किल था. मैं तुम्हें केवल ये बताना चाहता हूं कि जैसा मैं पहले था, वैसा ही अब भी हूं."
"एक भी दिन ऐसा नहीं बीता है, जब मैंने तुम्हारे बारे में नहीं सोचा था. तुम हमेशा मेरे साथ हो. मैं किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकता. मैं तुम्हें ये भी नहीं बता सकता कि इन महीनों में मैं कितना दुखी रहा, अकेलापन महसूस किया. केवल एक चीज़ मुझे ख़ुश रख सकती है, लेकिन मैं नहीं जानता कि क्या ये संभव होगा. इसके बाद भी दिन रात मैं इसके बारे में सोच रहा हूं और प्रार्थना करता हूं कि मुझे सही रास्ता दिखाएं."
वो शादी जिसका पता ना चला
इन पत्रों में ज़ाहिर अकुलाहट के चलते ही जब दोनों अगली बार मिले तो सुभाष और एमिली ने आपस में शादी कर ली. ये शादी कहां हुई, इस बारे में एमिली ने कृष्णा बोस को बताया कि 26 दिसंबर, 1937 को, उनकी 27वीं जन्मदिन पर ये शादी आस्ट्रिया के बादगास्तीन में हुई थी, जो उन दोनों का पसंदीदा रिजार्ट हुआ करता था.
हालांकि दोनों ने अपनी शादी को गोपनीय रखने का फ़ैसला किया. कृष्णा बोस के मुताबिक एमिली ने शादी का दिन बताने के अलावा कोई दूसरी जानकारी नहीं शेयर की. हां, अनीता बोस ने उन्हें ये ज़रूर बताया कि उनकी मां ने ये बताया था कि शादी के मौके पर उन्होंने आम भारतीय दुल्हन की तरह माथे पर सिंदूर लगाया था.
ये शादी इतनी गोपनीय थी कि उनके बादगास्तीन रहने के दौरान ही उनके भतीजे अमिय बोस भी उनसे मिलने पहुंचे थे, लेकिन उन्हें एमिली महज अपने चाचा की सहायक भर लगी थीं.
इस शादी को गोपनीय रखने की संभावित वजहों के बारे में रुद्रांशु मुखर्जी ने लिखा है कि बहुत संभव रहा होगा कि सुभाष इसका असर अपने राजनीतिक करियर पर नहीं पड़ने देना चाहते होंगे. किसी विदेशी महिला से शादी की बात आने पर उनकी छवि पर असर पड़ सकता था.
नेहरू या बोस, किससे प्रभावित थे भगत सिंह ?
रुद्रांशु की इस आशंका को इस परिपेक्ष्य में भी देखना चाहिए कि 1938 में सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे. शरत चंद्र बोस के सचिव रहे और अंग्रेजी के प्रख्यात लेखक नीरद सी. चौधरी ने 1989 में दाय हैंड ग्रेट अर्नाक: इंडिया 1921-1951 में लिखा है, "ये उनके निजी ज़िंदगी से जुड़ा हिस्सा था. लेकिन जब मुझे जानकारी मिली तब मुझे झटका लगा."
बहरहाल, तीन बार सासंद रहीं और शरत चंद्र बोस के बेटे शिशिर कुमार बोस की पत्नी कृष्णा बोस ने सुभाष और एमिली की प्रेम कहानी पर 'ए ट्रू लव स्टोरी- एमिली एंड सुभाष' लिखी है, जिसमें सुभाष और शेंकल के बीच के प्रेम संबंधों का दिलचस्प विवरण मिलता है.
सुभाष चंद्र बोस, एमिली को प्यार से बाघिनी कहकर भी बुलाया करते थे. हालांकि इस बात के भी उदाहरण मिलते हैं कि एमिली इंटेलेक्ट के मामले में सुभाष के आस पास नहीं थीं और सुभाष जब तब इसे ज़ाहिर भी कर देते थे.
सुभाष-शेंकल की निशानी
कृष्णा बोस के मुताबिक सुभाष चाहते थे कि एमिली भारत के तब के कुछ समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए विएना से रिपोर्ट लिखने का काम शुरू करें. सुभाष के कहने पर एमिली ने द हिंदु और मॉर्डन रिव्यू के लिए कुछ लेख लिखे थे, लेकिन वो समाचारों के विश्लेषण करने में सहज नहीं थीं, सुभाष कई बार उनसे कहा करते थे, "तुम्हारा लेख ठीक नहीं था, उसे नहीं छापा गया है."
इसकी झलक एक और जगह देखी जा सकती है. 12 अगस्त, 1937 को लिखे एक पत्र में सुभाष एमिली को लिखते हैं, "तुमने भारत के बारे में कुछ किताबें मंगाई हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता है कि इन किताबों को तुम्हें देने का कोई मतलब है. तुम्हारे पास जो किताबें हैं, वो भी तुमने नहीं पढ़ी हैं. "
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"जब तक तुम गंभीर नहीं होगी तब तक पढ़ने में तुम्हारी दिलचस्पी नहीं होगी. विएना में तुम्हारे पास कितने ही विषयों की किताबें जमा हो गई हैं, पर मुझे मालूम है तुमने उन सबको पलटकर नहीं देखा होगा."
बावजूद इसके हक़ीकत यही है कि सुभाष चंद्र बोस और एमिली एक दूसरे से बेपनाह मोहब्बत करते थे. 1934 से 1945 के बीच दोनों का साथ महज 12 साल का रहा और इसमें भी दोनों साथ में तीन साल से भी कम रह पाए.
महज तीन साल तक रहे साथ
इन दोनों की प्रेम की निशानी के तौर 29 नवंबर, 1942 को बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम अनीता रखा गया. इटली के क्रांतिकारी नेता गैरीबाल्डी की ब्राजीली मूल की पत्नी अनीता गैरीबाल्डी के सम्मान में. अनीता अपने पति के साथ कई युद्धों में शामिल हुई थीं और उनकी पहचान बहादुर लड़ाका की रही है.
सुभाष अपनी बेटी को देखने के लिए दिसंबर, 1942 में विएना पहुंचते हैं और इसके बाद अपने भाई शरत चंद्र बोस को बंगाली में लिखे खत में अपनी पत्नी और बेटी की जानकारी देते हैं. इसके बाद सुभाष उस मिशन पर निकल जाते हैं, जहां से वो फिर एमिली और अनीता के पास कभी लौट कर नहीं आए.
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लेकिन एमिली सुभाष चंद्र बोस की यादों के सहारे 1996 तक जीवित रहीं और उन्होंने एक छोटे से तार घर में काम करते हुए सुभाष चंद्र बोस की अंतिम निशानी अपनी बेटी अनीता बोस को पाल पोस कर बड़ा कर जर्मनी का मशहूर अर्थशास्त्री बनाया.
इस मुश्किल सफ़र में उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के परिवार से किसी तरह की मदद लेने से इनकार कर दिया. इतना ही नहीं सुभाष चंद्र बोस ने जिस गोपनीयता के साथ अपने रिश्ते की भनक दुनिया को नहीं लगने दी थी, उसकी मर्यादा को भी पूरी तरह निभाया. (bbc.com)
अमेजॉन प्राइम की वेब सीरीज 'तांडव' को लेकर विवाद अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि अब ‘मिर्जापुर’ पर विवाद खड़ा हो गया है. वेब सीरीज के खिलाफ मिर्जापुर में केस तो दर्ज हुआ ही है, सुप्रीम कोर्ट ने भी नोटिस जारी किया है.
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस मामले की सुनवाई सभी ओटीटी प्लेटफॉर्म की सामग्री पर नियंत्रण की मांग करने वाली याचिकाओं के साथ होगी. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एसए बोबड़े, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी रामा सुब्रमण्यम की बेंच ने यह नोटिस जारी किया है.
वेब सीरीज मिर्जापुर पर आरोप है कि इसके जरिए पूर्वी यूपी के अहम शहर मिर्जापुर की छवि को बदनाम किया जा रहा है. ये भी आरोप लगाया गया है कि एक युवक को इसलिए दूसरे राज्य में नौकरी नहीं मिली क्योंकि वो मिर्जापुर का रहने वाला था और इसके पीछे इस वेब सीरीज के जरिए मिर्जापुर की कथित तौर पर बनाई गई खराब छवि है. मिर्जापुर जिले के रहने वाले अरविंद चतुर्वेदी ने निर्माताओं के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई है.
वेब सीरीज का विरोध करने वालों का कहना है कि सीरीज में मिर्जापुर को गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया है जिससे इस जगह की छवि खराब हुई है और धार्मिक, क्षेत्रीय और सामाजिक भावनाओं को ठेस पहुंचाया गया है. मामले में मिर्जापुर वेब सीरीज से जुड़े रितेश साधवानी, फरहान अख्तर और भौमिक गोडलिया और अमेजन प्राइम पर मुकदमा भी दर्ज किया गया है. वेब सीरीज मिर्जापुर का दूसरा सीजन अक्तूबर में रिलीज हुआ था और उस वक्त भी खूब विवाद हुआ था. सोशल मीडिया पर इसके बायकॉट की मांग भी उठी थी. मिर्जापुर वेब सीरीज का पहला सीजन साल 2018 में रिलीज हुआ था और वह सीरीज भी विवादों से अछूती नहीं थी.
राज्यों की पुलिस में विवाद
इस बीच इस तरह के मुकदमे विभिन्न राज्यों की पुलिस के बीच भी विवाद का कारण बन रही है. 'मिर्जापुर' वेब सीरीज पर दर्ज मामले की जांच करने पहुंची यूपी पुलिस की मुंबई में पुलिसकर्मियों से नोकझोंक हो गई. यूपी पुलिस अभिनेता फरहान अख्तर के घर पूछताछ के लिए पहुंची थी लेकिन मुंबई पुलिस ने उसे ऐसा करने से रोक दिया. नियमों के मुताबिक किसी दूसरे राज्य से आए हुए पुलिसकर्मियों को मुंबई में किसी भी केस की जांच के लिए मुंबई पुलिस के नोडल ऑफिसर की इजाजत लेनी होती है.
गुरुवार सुबह भी यूपी पुलिस के अधिकारी मुंबई के अंधेरी में स्थित डीसीपी क्राइम ब्रांच के दफ्तर पहुंचे लेकिन कथित तौर पर उन्हें मुंबई पुलिस से कोई सहयोग नहीं मिला. इसके बाद मिर्जापुर से आए पुलिस अधिकारी सीधे फरहान अख्तर से पूछताछ करने पहुंच गए लेकिन मुंबई पुलिस ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से संबंधित मामले में भी बिहार और मुंबई पुलिस के बीच विवाद हुआ था.
कुछ अन्य वेब सीरीज पर विवाद
इससे पहले वेब सीरीज तांडव को लेकर भी हंगामा हुआ था और आखिरकार सीरीज निर्माताओं को माफी भी मांगनी पड़ी लेकिन सीरीज के खिलाफ लोगों का गुस्सा अभी भी शांत नहीं हुआ है और लोग इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं. यूपी की राजधानी लखनऊ के हजरतगंज कोतवाली में वेब सीरीज के निर्माता-निर्देशकों समेत पांच लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया गया था. उसके बाद मध्य प्रदेश के जबलपुर में भी केस दर्ज किया गया है.
वहीं शुक्रवार 22 जनवरी को रिलीज हुई फिल्म मैडम चीफ मिनिस्टर को लेकर भी भावनाओं से खिलवाड़ करने जैसे आरोप लगने लगे हैं. आपत्ति जताने वालों का कहना है कि फिल्म में यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री और बीएसपी नेता मायावती की कहानी दिखाई गई है जिसमें कई आपत्तिजनक और गलत बातें हैं. हालांकि फिल्म निर्माताओं का कहना है कि इस फिल्म में किसी एक नेता के जीवन पर आधारित कहानी नहीं है बल्कि फिल्म की कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है.
खास हितों के लिए विरोध
फिल्म जगत से जुड़े लोगों का कहना है कि किसी भी फिल्म पर कथित तौर पर भावनाएं भड़काने के जो आरोप लगते हैं वो कहीं न कहीं कुछ वर्ग विशेष के हितों से प्रभावित होते हैं. फिल्म अभिनेता और थियेटर कलाकार इमरान जाहिद कहते हैं कि कई ऐसी फिल्में हैं जिनमें भगवान का मजाक उड़ाया गया है लेकिन उन फिल्मों की कोई चर्चा नहीं करता है. इमरान जाहिद उदाहरण के लिए फिल्म ‘ओ माई गॉड' का जिक्र करते हैं जिसमें कांजीलाल मेहता भगवान, खुदा और गॉड के अस्तित्व पर ही सवाल उठाते हैं.
फिल्म समीक्षकों का कहना है कि कई बार किसी फिल्म या वेब सीरीज पर विवाद एक व्यावसायिक रणनीति के तहत पैदा किया जाता ताकि उसकी जमकर चर्चा हो और विरोध ही सही, फिल्म खूब देखी जाए. कई फिल्मों के मामले में ऐसा देखा भी गया है. फिल्में औसत दर्जे की ही रहीं, लेकिन विवादों के चलते दर्शकों तक अपनी अच्छी पहुंच बनाने में कामयाब रहीं.
बोलने की आजादी या साजिश
हालांकि विवादों के पीछे साजिश देखने वालों की भी कमी नहीं है. फिल्म निर्देशक कहते हैं कि आपत्तिजनक कंटेंट और दृश्य डालकर जानबूझकर विवाद पैदा किया जाता है और अभिव्यक्ति की आजादी का नाजायज फायदा उठाया जाता है. उनके मुताबिक, फिल्म बनाने वालों को भी इस बारे में सोचना चाहिए.
विवेक अग्निहोत्री कहते हैं, 'बोलने की आजादी ठीक है लेकिन यह तब गलत होता है जब इसका इस्तेमाल किसी देश, समाज, संस्कृति और धर्म या जाति के खिलाफ किया जाता है. मुझे तो लगता है कि यह सब किसी साजिश के तहत हो रहा है. वेब सीरीज के मामले में ओटीटी प्लेटफॉर्म को एक राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है.'
मिर्जापुर वेब सीरीज के दोनों सीजन और तांडव अमेजन प्राइम वीडियो पर ही रिलीज हुए हैं. मिर्जापुर में यूपी के मिर्जापुर जिले की राजनीति में हिंसा के प्रभाव को दिखाया गया है. अभिनेता पंकज त्रिपाठी, अली फजल, दिव्येंदु शर्मा, श्वेता त्रिपाठी ने इसमें अभिनय किया है. जबकि तांडव में हिंदू देवताओं पर कथित आपत्तिजनक टिप्पणियों के खिलाफ ऐतराज जताया गया है. (dw.com)
Vivek Mishra-
वायु प्रदूषण से लड़ने के लिए उद्योगों के जरिए स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल बेहद कारगर रणनीति साबित हो सकती है। हालांकि, दिल्ली-एनसीआर में औद्योगिक ईकाइयों के जरिए बड़े पैमाने पर प्रदूषण के लिए प्रबल तरीके से जिम्मेदार कोयला ईंधन का इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे में बजट-2021 में स्वच्छ ईंधन को यदि बढ़ावा दिया जाता है तो वायु प्रदूषण की लड़ाई न सिर्फ दिल्ली-एनसीआर के लिए बल्कि समूचे देश के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट (सीएसई) ने केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से बजट 2021 में स्वच्छ ईंधन को औद्योगिक इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहन देने के प्रावधान की अपील की है। सीएसई ने अपनी अपील में कहा है कि कोयला के मुकाबले उद्योगों को बिजली और प्राकृतिक गैस को इंसेटिव देकर प्रतिस्पर्धी बनाया जाना चाहिए। इस कदम से न सिर्फ दिल्ली और एनसीआर में बल्कि देशभर में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी।
सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने पत्र में कहा है कि प्राकृतिक गैस पर अभी कर का बोझ काफी अधिक है। मसलन राज्यों में प्राकृतिक गैस की बिक्री और खरीद दोनों बिंदु पर टैक्स लगाया जा रहा है। इसके चलते अंतिम कीमत में 18 फीसदी या उससे अधिक की बढोत्तरी हो रही है। जैसे कोयला (पांच फीसदी) जीएसटी में शामिल है वैसे नैचुरल गैस जीएसटी में शामिल नहीं है। बीते वर्ष कुल पेट्रोलियम उत्पादों में नैचुरल गैस के जरिए टैक्स की हिस्सेदारी का राजस्व गुजरात में करीब-करीब 20 फीसदी और महाराष्ट्र में 7 फीसदी रहा है। ऐसे में प्रमुख औद्योगिक राज्यों में इसे बदलने में कोई बाधा नहीं होना चाहिए, हमारी समझ है कि पांच फीसदी के जीएसटी ( बजाए कि 18 फीसदी के राज्य वैट और अन्य टैक्स) से उद्योगों को नैचुरल गैस 17 फीसदी कम दाम में मिलेगी। उन्होंने कहा कि गैस में उच्च कैलोरी मान होती है और उसकी प्रबंधन लागत कम होती है। कर के बोझ रहित सस्ती प्राकृतिक गैस यह उद्योगों को आकर्षित करेगा और उन्हें ईंधन में कोयले के बजाए नैचुरल गैस के अधिक प्रयोग को प्रोत्साहित करेगा।
सुनीता नारायाण ने कहा कि दूसरी स्वच्छ ईंधन क्रांति संभव है यदि स्वच्छ ईंधनों के कर और कीमतों में सुधार किया जाए। इससे पहले परिवहन क्षेत्र के लिए डीजल को छोड़ा गया था इस बार कोयले को छोड़ने की बारी है। कोयले की कीमत नैचुरल गैस से काफी कम है। नैचुरल गैस पर हाई टैक्स का बोझ है ऐसे में वह कोयले को रिप्लेस नहीं कर सकता।
वहीं, सीएसई के शोधार्थियों ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों के जरिए दिल्ली-एनसीआर में पूर्व के वर्षों में बेहद सक्रिय तरीके से कदम उठाए गए हैं लेकिन स्वच्छ हवा के लिए बेंचमार्क तक पहुंचने के लिए अभी बहुत से कदम उठाए जाने बाकी हैं।
22 जनवरी, 2020 को सीएसई की ओर से वेबिनार का आयोजन किया गया था। वेबिनार में सीएसई की कार्यकारी निदेशक अनुमिता रायचौधरी ने कहा कि यदि समूचे क्षेत्रों में स्वच्छ ईंधन को सस्ती दरों पर उपलब्ध नहीं कराय जाएगा तो स्वच्छ हवा के मानकों तक पहुंचना आसान नहीं होगा। उन्होंने कहा कि वर्ष 2000 के शुरुआती समय दिल्ली की वायु प्रदूषण पर केंद्रित उपायों के चलते डीजल से कंप्रेस्ड नैचुरल गैस (सीएनजी) को परिवहन क्षेत्र में लाया गया था। वहीं, औद्योगिक क्षेत्र और पावर प्लांट में फर्नेस ऑयल और पेटकोक को नैचुरल गैस में बदला गया। दिल्ली के प्रदूषण को कम करने के लिए यह सारे कदम प्राथमिक जिम्मेदार थे।
यह एक अहम सीख के तौर पर है क्योंकि राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम के तहत देश के 122 वायु प्रदूषित शहर स्वच्छ हवा कार्य योजना के जरिए 2024 तक 20 से 30 फीसदी तक पार्टिकुलेट प्रदूषण कम करने का प्रयास हो रहा है। ऐसे में ईंधन की रणनीति एक वैश्विक प्रवृत्ति है। दुनिया के कुछ बहुत ही प्रदूषित हिस्सों में जैसे बीजिंग आदि में कोयला को हटाकर स्वच्छ ईंधन को तरजीह दी गई है ताकि स्वच्छ हवा के मानकों को हासिल किया जा सके।
सीएसई के वेबिनार में ताजा अध्ययन एनालाइजिंग इंडस्ट्रियल फ्यूल पॉलिसी इन दिल्ली एंड एनसीआर स्टेट्स जारी कर कहा गया कि भारत में भी सस्ते दर वाले कोयला के बदले नैचुरल गैस यानी स्वच्छ ईंधन को बढावा देने के लिए प्रयास किए जाने की जररूत है। यह ताजा अध्ययन दिल्ली-एनसीआर के इंडस्ट्री क्लस्टर के ग्राउंड सर्वे पर आधारित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इंडस्ट्री में बड़े पैमाने पर कोयले का इस्तेमाल किया जा रहा है। यहां तक कि दिल्ली में यह अधिसूचित किया जा चुका है कि प्रदूषण फैलाने वाले ईंधनों का इस्तेमाल सभी क्षेत्रों के लिए प्रतिबंधित है। ग्राउंड पर पाया गया कि बमुश्किल ही छोटे और मध्यम स्तरीय यूनिटों में इस अधिसूचना का पालन किया जा रहा है।
अध्ययन के प्रमुख बिंदु
स्वच्छ ईंधन ही छोटे और मध्यम औद्योगिक ईकाइयों के लिए समाधान हैं। दिल्ली-एनसीआर में बड़े भू-भाग पर इनका प्रभुत्व है और इनकी निगरानी काफी कठिन है। यह वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए मानकों का पालन करने में भी सक्षम नहीं है औऱ बड़े स्तर पर कोयले के ईंधन पर आधारित हैं। सस्ता स्वच्छ ईंधन इनके लिए और स्वच्छ हवा के लिए बेहतर विकल्प हो सकता है।
अत्यधिक कीमत के कारण बहुत ही धीमी गति से नैचुरल गैस और बिजली को अपनाया जा रहा है। ऐसे में गैस पहुंचाने के लिए बिछाई गई पाइपलाइन जैसी संरचना के निवेश भी अनुपयोगी साबित हो रही है।
अलवर, भिवाड़ी, सोनीपत, फरीदाबाद, पानीपत, गुरुग्राम और गाजियाबाद के औद्योगिक क्लस्टर में कोयले का बड़े स्तर पर इस्तेमाल हो रहा है। कोयले का 14.1 लाख टन सालाना खपत है जबकि नैचुरल गैस महज 0.22 फीसदी। इस स्थिति को पलटना होगा।
दिल्ली में विस्तृत स्वच्छ ईंधन योजना मौजूद है लेकिन इसे लागू करना एक बड़ी चुनौती है। बड़े पैमाने पर अवैध औद्योगिक ईकाइयां प्रदिषत ईंधनों का इस्तेमाल कर रही हैं।
इलेक्ट्रिसिटी का इस्तेमाल भी बेहद खराब स्थिति में है। क्योंकि योजनाबद्ध तरीके से क्लस्टर में पर्याप्त सप्लाई नहीं है। महंगी भी है।
नीले आसमान और साफ फेफड़ो के लिए कोयले को जलाए जाने से रोकना चाहिए। कोयला जलाए जाने के कारण खतरनाक पार्टिकुलेट मैटर, सल्फर डाई ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे खतरनाक प्रदूषित कण निकलते हैं। स्वच्छ कंबस्टन को इंसेटिव दिए जाने की जररूत है। साथ ही स्वच्छ तरीके से ऊर्जा पैदा किए जाने को भी प्राथमिकता में रखना होगा। बजट 2021 में इन चुनौतियों को शामिल किए जाने की आवश्यकता है।
सीएसई के इंडस्ट्रियल पॉल्यूशन यूनिट के कार्यकम निदेशक निवित कुमार यादव ने कहा कि इंडस्ट्री यह मानती है कि नैचुरल गैस कंबस्टन के लिए ज्यादा प्रभावी, स्वच्छ, कम प्रबंधन लागत वाला और अन्य लागतों जैसे प्रदूषण नियंत्रण आदि के लिए ज्यादा बेहतर और आसान है। हालांकि मौजूदा ईंधन कीमतों के हिसाब से इसे अपनाना बेहद कठिन है। हमने दिल्ली में औद्योगिक क्षेत्रों में कोयले और गैस के इस्तेमाल की तुलना की है। मौजूदा समय में गैस ईंधन का इस्तेमाल उद्योगों को कोयला के मुकाबले एक से तीन गुना ज्यादा लागत में डालता है। ज्यादा कीमत वाले ईंधन की वजह से उद्योग राज्यों और देश में प्रतिस्पर्धा से बाहर हो जाते हैं।
वहीं, सुनीता नारायण ने कहा कि नैचुरल गैस को जीएसटी के पांच फीसदी वाले स्लैब में लाने की जरूरत है। साथ ही उद्योगों को बिजली आपूर्ति की लागत कम करने की जरूरत है। (downtoearth)
उल्फा ने हाल अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग जिले में ऑयल इंडिया लिमिटेड के दो कर्मचारियों का अपहरण किया. संगठन ने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए फिरौती के तौर पर 20 करोड़ रुपये की मांग की है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
पूर्वोत्तर के अपेक्षाकृत शांत समझे जाने वाले राज्य अरुणाचल प्रदेश में यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (उल्फा) के परेश बरुआ वाले स्वाधीन (आई) गुट की ओर से एक तेल कंपनी के दो कर्मचारियों के अपहरण और उनकी रिहाई के बदले 20 करोड़ की फिरौती मांगने की घटना पूर्वोत्तर के लिए खतरे की घंटी है. नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (एनएससीएन), उल्फा के अरविंद राजखोवा गुट और बोडो उग्रवादी संगठनों के साथ जारी शांति प्रक्रिया की वजह से बीते कुछ बरसों से इलाके में उग्रवादी गतिविधियों पर काफी हद तक अंकुश लगा था.
अब इस ताजा घटना ने इलाके में अस्सी और नब्बे के दशक के उस दौर की यादें ताजा कर दी हैं जब पैसों के लिए खासकर चाय बागान मैनेजरों व मालिकों के अलावा तेल व गैस कंपनियों के अधिकारियों का अपहरण रोजमर्रा की घटना बन गई थी. उस समय तमाम निजी और सरकारी कंपनियों के कर्मचारियों में भारी आतंक था. लोग इलाके में नौकरी करना ही नहीं चाहते थे. उस दौर में सैकड़ों कंपनियों ने अपना कारोबार समेट लिया था. अब एक बार फिर इस ताजा घटना से इलाके में खासकर बाहरी लोगों में भारी आतंक फैल गया है.
सरकार की चिंता बढ़ी
उल्फा (आई) ने हाल में अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग जिले में ऑयल इंडिया लिमिटेड के तहत काम करने वाली कंपनी क्विप्पो ऑयल एंड गैस इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के दो कर्मचारियों पीके गोगोई और राम कुमार का अपहरण कर लिया था. अपहरण के कई दिनों बाद संगठन ने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए फिरौती के तौर पर 20 करोड़ रुपये की मांग की है.
इस मामले ने प्रशासन व सरकार की चिंता बढ़ा दी है. राज्य के तिराप, चांगलांग और लांगडिंग जिले लंबे अरसे तक नागा उग्रवाद के शिकार रहे हैं. इन जिलों में कई भूमिगत संगठन सक्रिय हैं. उनकी वजह से आम लोगों का जीना दूभर रहता है. लेकिन इससे पहले अपहरण की घटनाएं नहीं के बराबर होती थीं.
सरकार के लिए चिंता की बात यह है कि पहले उल्फा का परेश बरुआ वाला स्वाधीन गुट इस इलाके में सक्रिय नहीं था. लेकिन मूल संगठन से अलग होने के बाद अब असम-अरुणाचल प्रदेश सीमा पर स्थित घने जंगलों की वजह से यह इलाका उसके लिए काफी मुफीद साबित हो रहा है. असम में सुरक्षा बलों की सक्रियता बढ़ने पर संगठन के सदस्य इसी इलाके में शरण लेते थे. लेकिन अब तक खास कर ऊपरी असम में सक्रिय रहने वाले इस संगठन के अरुणाचल में अपहरण जैसी वारदात में शामिल होना सुरक्षाबलों और सरकार के लिए चिंता का विषय बन गया है.
सुरक्षा एजंसियां इस मामले में स्थानीय लोगों के शामिल होने की संभावना का भी पता लगा रही है. पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम नहीं बताने की शर्त पर कहते हैं, स्थानीय लोगों के समर्थन के बिना उल्फा के लिए आहरण की इस घटना को अंजाम देना संभव नहीं होता.
पुलिस और सुरक्षाबल के जवान बंधकों की रिहाई के लिए बड़े पैमाने पर तलाशी अभियान चला रहे हैं. लेकिन उनको अब तक कामयाबी नहीं मिली है. इसबीच, उल्फा ने दोनों बंधकों का एक वीडियो भी जारी किया है. संगठन ने कहा है कि अगर फिरौती की रकम नहीं मिली तो नतीजे गंभीर होंगे. वीडियो में दोनों बंधकों ने असम और बिहार के मुख्यमंत्रियों से शीघ्र रिहाई के लिए कदम उठाने की अपील की है. उन्होंने अपनी कंपनी से भी उल्फा के साथ बात करने का अनुरोध किया है.
जिन दोनों लोगों का अपहरण किया गया है उनमें से पीके गोगोई असम के शिवसागर जिले के रहने वाले हैं और राजकुमार बिहार के. पुलिस क मुताबिक, उल्फा के पंद्रह उग्रवादियों ने ड्रिलिंग लोकेशन से पैदल ही उनका अपहरण किया था. चांगलांग जिला असम के तिनसुकिया जिले के अलावा म्यांमार की सीमा से जुड़े होने की वजह से बेहद संवेदनशील इलाका है.
उल्फा के कमांड-इन-चीफ परेश बरुआ ने इस सप्ताह असम के एक स्थानीय चैनल के साथ बातचीत में धमकी दी थी कि अगर तेल कंपनी ने उनकी मांग नहीं मानी तो बिहार के राजकुमार को शारीरिक नुकसान पहुंच सकता है, पहला हमला उसी पर किया जाएगा.
शिवसागर में रहने वाले गोगोई के परिजनों ने भी उल्फा से गोगोई को शीघ्र रिहा करने की अपील की है. उनकी पत्नी नमिता गोगोई कहती हैं, "मैं सरकार, तेल कंपनी और अपहरणकर्ताओं से अपने पति को शीघ्र और सुरक्षित रिहा करने की अपील करती हूं.'
सुरक्षा एजंसियों का कहना है कि कोरोना और इसकी वजह से चले लंबे लाकडाउन के दौरान उग्रवादी संगठनों ने चांगलांग जिले में अपना संगठन मजबूत कर लिया है. दिसंबर 2020 में इसी जिले में ईनाओ के पास भी एक ड्रिलिंग लोकेशन से तेल कंपनी के कुछ कर्मचारियों का अपहरण कर लिया गया था. बाद में उनको सुरक्षित रिहा करा लिया गया था.
पुराना है अपहरण का इतिहास
चाय बागानों और सरकारी कंपनियों के अधिकारियों का अपहरण फिरौती में मोटी रकम वसूलना उल्फा की पुरानी कार्यप्रणाली रही है. इसके साथ ही कई चाय बागान और सरकारी कंपनियां इस संगठन को प्रोटेक्शन मनी के तौर पर हर साल करोड़ों रुपये देती थी. उस दौरान टाटा समूह के चाय बागानों के साथ उल्फा की साठ-गांठ के खुलासे ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी सुर्खियां बटोरी थीं. इस मामले में टाटा समूह के कई वरिष्ठ अधिकारियों की गिरफ्तारी भी हुई थी.
अस्सी और नब्बे के दशक में संगठन ने इसी तरीके से करोड़ों की रकम जुटाई थी जिसका इस्तेमाल खासकर चीन से हथियार खरीदने और उल्फा कांडरों की ट्रेनिंग के लिए किया जाता था. फर्क यह था कि उस समय यह संगठन असम में ही सक्रिय था. लेकिन कुछ साल पहले जब उल्फा ने शांति प्रक्रिया में शामिल होने का फैसला किया तो संगठन में नंबर दो रहे परेश बरुआ इसके खिलाफ थे. उन्होंने अध्यक्ष अरविंद राजखोवा से बगावत कर अपना अलग गुट बना लिया जो उल्फा (स्वाधीन) के नाम से जाना गया. यह संगठन पहले भी छिटपुट वारदातें करता रहा है. लेकिन पड़ोसी अरुणाचल में किसी सरकारी कर्मचारी के अपहरण का यह पहला मामला है.
सुरक्षा विशेषज्ञों ने उल्फा की बढ़ी सक्रियता पर गहरी चिंता जताई है. एक विशेषज्ञ ज्योति गोगोई कहते हैं, "उल्फा से अलग होकर अब असम के अलावा पड़ोसी अरुणाचल में परेश बरुआ गुट की बढ़ती सक्रियता सुरक्षा एजंसियों और सरकार के लिए चिंता का विषय है. अपनी प्राकृतिक बसावट और घने जंगलों व म्यांमार से लगती सीमा की वजह से खासकर चांगलांग जिला उग्रवादी संगठनों के लिए काफी मुफीद साबित होता रहा है. अब उल्फा ने अगर वहां अपने कदम जमाए हैं तो बाकी संगठनों के साथ उसकी तालमेल की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. ऐसी स्थिति भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकती है.' उनका कहना है कि केंद्र और राज्य सरकार को सुरक्षा एजंसियों के साथ तालमेल रखते हुए इस खतरे से निपटने के लिए ठोस रणनीति बनानी होगी.
(dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल किसान नेताओं और मंत्रियों के सार्थक संवाद से यह आशा बंधी है कि इस बार का गणतंत्र-दिवस, गनतंत्र दिवस में कदापि नहीं बदलेगा। यों भी हमारे किसानों ने अपने अहिंसक आंदोलन से दुनिया के सामने बेहतरीन मिसाल पेश की है। उन्होंने सरकार से वार्ता के लगभग दर्जन भर दौर चलाकर यह संदेश भी दे दिया है कि वे दुनिया के कूटनीतिज्ञों-जितने समझदार और धैर्यवान हैं।
उन्होंने अपने अनवरत संवाद के दम पर आखिरकार सरकार को झुका ही लिया है। सरकार आखिरकार मान गई है कि वह एक-डेढ़ साल तक इन कृषि-कानूनों को ताक पर रख देगी और एक संयुक्त समिति के तहत इन पर सार्थक विचार-विमर्श करवाएगी। उसने बिना कहे ही यह मान लिया कि उसने सर्वोच्च न्यायालय के कंधे पर से जो छर्रे छोड़े थे, वे फुस्स हो गए हैं। अदालत ने चार विशेषज्ञों की समिति घोषित करके जबर्दस्ती ही अपनी दाल पतली करवाई। अब वह अपनी इज्जत बचाने में जुटी हुई है।
अच्छा हुआ कि सरकार अदालत के भरोसे नहीं रही। अब जो कमेटी बनेगी, वह एकतरफा नहीं होगी। उसमें किसानों की भागीदारी भी बराबरी की होगी। अब संसद भी डटकर बहस करेगी। किसानों को सरकार का यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार लेना चाहिए। सरकार का यह प्रस्ताव अपने आप ही यह सिद्ध कर रहा है कि हमारी सरकार कोई भी बड़ा फैसला लेते वक्त उस पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं करती। न तो मंत्रिमंडल उस पर ठीक से बहस करता है, न संसदीय कमेटी उसकी सांगोपांग चीर-फाड़ करती है और न ही संसद में उस पर जमकर बहस होती है। सरकार सिर्फ नौकरशाहों के इशारे पर थिरकने लगती है।
यह किसान आंदोलन मोदी सरकार के लिए अपने आप में गंभीर सबक है। फिलहाल, सरकार ने जो बीच का रास्ता निकाला है, वह बहुत ही व्यावहारिक है। यदि किसान इसे रद्द करेंगे तो वे अपने आप को काफी मुसीबत में डाल लेंगे। यों भी पिछले 55-56 दिनों में उन्हें पता चल गया है कि सारे विरोधी दलों ने जोर लगा दिया, इसके बाजवूद यह आंदोलन सिर्फ पंजाब और हरयाणा तक ही सीमित रहा है।
किसानों के साथ पूर्ण सहमति रखने वाले लोग भी चाहते हैं कि किसान नेता इस मौके को हाथ से फिसलने न दें। पारस्परिक विचार-विमर्श के बाद जो कानून बनें, वे ऐसे हों, जो भारत को दुनिया का सबसे बड़ा खाद्यान्न-सम्राट बना दें और औसत किसानों की आय भारत के मध्यम-वर्गों के बराबर कर दे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रियंका मंजरी
पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है, इसे फिर से सिद्ध किया है 22 साल की अमांडा ने. जो मेरे लिए आज की प्रेरणा है लॉस एंजिल्स निवासी 22 वर्षीय अमांडा गोर्मन जिन्होंने वाशिंगटन डीसी में राष्ट्रपति जो बाइडन के उद्घाटन पर अपनी कविता 'द हिल वी क्लाइम्ब' पढ़कर अपने दमदार प्रदर्शन से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया और सबसे कम उम्र के 'उद्घाटन कवि' के रूप में इतिहास रचा है. इनकी कविता का सन्देश एकता और एकजुटता है जिसमें इन्होने कहा है कि लोकतंत्र को समय-समय पर देरी हो सकती है पर यह कभी भी स्थायी रूप से पराजित नहीं हो सकता. हम सभी को यह आशा रखनी चाहिए चाहे हम किसी भी देश में हों. एक नया अध्याय लिखने के लिए और खुद को ख़ुशी देने के लिए हमें अमांडा से प्रेरणा लेनी चाहिए। अमांडा बचपन में ठीक तरीके से बोल नहीं पाती थी, लेकिन उन्होंने अपनी इस कमजोरी पर काम किया और शपथ ग्रहण समारोह में परफॉर्म करने वाली सबसे कम उम्र की कवियत्री बन गई. जब भी दिन ढलता है तो क्या हम खुद से सवाल नहीं करते हैं कि हम कभी न मिटने वाली छाया से कहां पर प्रकाश ढूंढ सकते हैं और यदि नहीं करते तो करनी चाहिए ताकि वक़्त के किसी हिस्से में पहुंचकर इतिहास रच सकें? वाकई, "रौशनी हमेशा के लिए है यदि इसे देखने तथा इसे होने के लिए हम पर्याप्त बहादुर हैं,
'There is always light,
if only we’re brave enough to see it.
If only we’re brave enough to be it"
समाज में बदलाव की इस हिस्सेदार को हमारा दिली सलाम है .
Here is the full text of her poem:
“When day comes we ask ourselves, where can we find light in this never-ending shade?
The loss we carry, a sea we must wade.
We’ve braved the belly of the beast
We’ve learned that quiet isn’t always peace.
And the norms and notions of what just is
Isn’t always just-ice
And yet the dawn is ours before we knew it
Somehow we do it
Somehow we’ve weathered and witnessed a nation that isn’t broken
but simply unfinished
We the successors of a country and a time
Where a skinny Black girl, descended from slaves and raised by a single mother can dream of becoming president
Only to find herself reciting for one
And yes we are far from polished, far from pristine
but that doesn’t mean we are striving to form a union that is perfect
We are striving to forge a union with purpose
To compose a country committed to all cultures, colors, characters and conditions of man
And so we lift our gaze not to what stands between us
but what stands before us
We close the divide because we know, to put our future first,
we must first put our differences aside
We lay down our arms, so we can reach out our arms to one another
We seek harm to none and harmony for all
Let the globe, if nothing else, say this is true
That even as we grieved, we grew
That even as we hurt, we hoped
That even as we tired, we tried
That we’ll forever be tied together, victorious
Not because we will never again know defeat
but because we will never again sow division
Scripture tells us to envision that everyone shall sit under their own vine and fig tree
And no one shall make them afraid
If we’re to live up to our own time then victory won’t lie in the blade
But in all the bridges we’ve made
That is the promise to glade
The hill we climb
If only we dare
It’s because being American is more than a pride we inherit,
it’s the past we step into and how we repair it
We’ve seen a force that would shatter our nation rather than share it
Would destroy our country if it meant delaying democracy
And this effort very nearly succeeded
But while democracy can be periodically delayed
it can never be permanently defeated
In this truth, in this faith we trust
For while we have our eyes on the future, history has its eyes on us
This is the era of just redemption
We feared at its inception
We did not feel prepared to be the heirs of such a terrifying hour
but within it we found the power to author a new chapter
To offer hope and laughter to ourselves
So, while once we asked, how could we possibly prevail over catastrophe?
Now we assert, how could catastrophe possibly prevail over us?
We will not march back to what was, but move to what shall be
A country that is bruised but whole, benevolent but bold, fierce and free
We will not be turned around or interrupted by intimidation
because we know our inaction and inertia will be the inheritance of the next generation
Our blunders become their burdens
But one thing is certain
If we merge mercy with might, and might with right, then love becomes our legacy and change our children’s birthright
So let us leave behind a country better than the one we were left with
Every breath from my bronze-pounded chest,
we will raise this wounded world into a wondrous one
We will rise from the gold-limbed hills of the west,
we will rise from the windswept northeast
where our forefathers first realized revolution
We will rise from the lake-rimmed cities of the midwestern states,
we will rise from the sunbaked south
We will rebuild, reconcile and recover and every known nook of our nation and every corner called our country,
our people diverse and beautiful will emerge, battered and beautiful
When day comes we step out of the shade, aflame and unafraid
The new dawn blooms as we free it
For there is always light, if only we’re brave enough to see it
If only we’re brave enough to be it.”
-उमर दराज़ नंगियाना
पाकिस्तान अभी तक उन देशों की सूची में शामिल नहीं हो पाया है, जहां कोविड-19 से बचाव की वैक्सीन आम जनता को दी जानी शुरू कर दी गई है.
पाकिस्तान अपने यहां वैक्सीन का उत्पादन नहीं करता है और सरकार ने अभी तक वैक्सीन ख़रीदने के लिए कोई औपचारिक समझौता नहीं किया है.
हाल ही में पाकिस्तान की ड्रग नियामक एजेंसी, नेशनल ड्रग रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ पाकिस्तान (डीआरएपी) ने आपातकालीन आधार पर पाकिस्तान में दो कंपनियों के टीकों को इस्तेमाल की मंजूरी दी है.
इनमें ब्रिटेन की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा बनाई जाने वाली वो वैक्सीन भी शामिल है, जिसे फार्मास्युटिकल कंपनी 'एस्ट्राज़ेनेका' बना रही है. दूसरी वैक्सीन वो है, जिसे चीनी कंपनी सायनोफार्म ने तैयार की है.
हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है, कि क्या मंज़ूरी के तुरंत बाद यह वैक्सीन पाकिस्तान में उपलब्ध हो पायेगी या नहीं.
याद रहे, कि एस्ट्राज़ेनेका पहले ही ब्रिटेन और भारत सहित कई देशों को बड़ी संख्या में वैक्सीन मुहैया कराने के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर कर चुकी है.
सायनोफार्म की वैक्सीन भी चीन सहित कई देशों में पहले से ही इस्तेमाल हो रही है, और कई अन्य देशों के साथ इनके समझौते हो चुके हैं.
हालांकि, वैक्सीन ख़रीदने के लिए पाकिस्तान का अभी तक दोनों कंपनियों में से किसी के साथ भी औपचारिक द्विपक्षीय समझौता नहीं हो पाया है.
इस बात की पुष्टि करते हुए, स्वास्थ्य मामलों के लिए, प्रधानमंत्री के सलाहकार डॉक्टर फ़ैसल सुल्तान ने, हाल ही में स्थानीय मीडिया को बताया, कि सरकार ने चीन की सायनोफार्म से वैक्सीन की दस लाख डोज़ के लिए "प्री-बुकिंग" की हुई है. यानी औपचारिक रूप से आर्डर देने से पहले इतनी डोज़ सुरक्षित कर ली गई हैं.
अधिकारियों को उम्मीद है, कि पाकिस्तान को मार्च में चीन से वैक्सीन मिल सकती है, हालांकि सरकार ने कोई स्पष्ट तारीख़ नहीं बताई है.
बीबीसी ने इसके बारे में डॉक्टर फ़ैसल सुल्तान से बात करने की कोशिश की और उनसे सवाल भी पूछे, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
इनमें से कुछ सवाल ये थे, कि पाकिस्तान वैक्सीन ख़रीदने के लिए अभी तक इन दोनों कंपनियों के साथ या किसी तीसरी कंपनी के साथ वैक्सीन ख़रीदने के लिए औपचारिक समझौता क्यों नहीं कर पाया है.
क्या पाकिस्तान ने इसके लिए देर कर दी है, क्योंकि दुनिया के कई देश वैक्सीन ख़रीदने के लिए पहले ही समझौते कर चुके हैं? बीबीसी ने इन सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की है.
पाकिस्तान ख़रीददारी का समझौता क्यों नहीं कर सका?
डॉक्टर अता-उर-रहमान नेशनल टास्क फ़ोर्स फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी के अध्यक्ष हैं और पाकिस्तान में कोविड-19 वैक्सीन के परीक्षणों और इसे प्राप्त करने की प्रक्रिया की देखरेख कर रहे हैं.
बीबीसी से बात करते हुए, उन्होंने कहा कि वैक्सीन ख़रीदने के लिए किसी भी कंपनी के साथ समझौता नहीं होने का कारण सरकार की ओर से देरी नहीं है.
"वास्तव में, फिलहाल कोई भी वैक्सीन तैयार करने वाली कंपनी कोई बड़ा ऑर्डर लेने को तैयार नहीं है. हर कंपनी की वैक्सीन तैयार करने की एक अलग क्षमता है और उनके पास पहले से ही बहुत सारे ऑर्डर हैं. इसलिए वो कोई भी औपचारिक समझौता नहीं करना चाहते हैं."
पाकिस्तान अभी तक वैक्सीन की ख़रीददारी का समझौता क्यों नहीं कर पाया?
वैक्सीन प्राप्त करने के लिए पाकिस्तान के पास क्या तरीके हो सकते हैं?
पाकिस्तान के पास सरकारी स्तर पर द्विपक्षीय सरकारी समझौते के अलावा, कोरोना की वैक्सीन प्राप्त करने के दो और तरीके हैं:
इनमें से एक तरीक़ा कोवैक्स है, जो पाकिस्तान की 20 प्रतिशत आबादी के लिए सरकार को वैक्सीन मुहैया कराएगा. कोवैक्स विश्व स्वास्थ्य संगठन, जीएवीआई (ग्लोबल एलायंस फॉर वैक्सीन्स एंड इम्यूनाइजेशन) और सीईपीआई (कोएलेशन फ़ॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशंज़) का गठबंधन है.
कई अन्य विकासशील देशों की तरह, पाकिस्तान ने भी इस पर हस्ताक्षर किए हैं, इसलिए अन्य देशों की तरह कोवैक्स पाकिस्तान को यह वैक्सीन मुफ्त उपलब्ध कराने के लिए बाध्य हैं.
क्या कोवैक्स पाकिस्तान को जल्दी वैक्सीन दे सकता हैं?
इस संबंध में, प्रधानमंत्री के सलाहकार, डॉक्टर फ़ैसल सुल्तान के हवाले से स्थानीय मीडिया में यह बयान सामने आया था, कि पाकिस्तान को कोवैक्स के माध्यम से जल्द ही कुछ हफ्तों में वैक्सीन मिल सकती है.
हालांकि, पंजाब प्रांत के स्वास्थ्य विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बात करते हुए बीबीसी को बताया, कि इस साल अगस्त या सितंबर से पहले, कोवैक्स के माध्यम से पाकिस्तान को कोरोना वैक्सीन मिलना मुश्किल है.
"कोवैक्स अपने प्राथमिकता कार्यक्रम के अनुसार प्रत्येक देश को वैक्सीन उपलब्ध कराएगा. जीएवीआई पाकिस्तान में पहले से ही कई बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण कार्यक्रम चला रहा है. यह संभव है कि कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ वैक्सीन भी इसमें शामिल की जा सकती है."
इस प्रकार, कोवैक्स से मिलने वाली ये वैक्सीन पाकिस्तान की 20 प्रतिशत आबादी के लिए उपलब्ध कराई जाएगी. सवाल यह भी है, कि क्या कोवैक्स से मिलने वाली वैक्सीन पाकिस्तान की ज़रूरतों के लिए पर्याप्त होगी.
पाकिस्तान अभी तक वैक्सीन की ख़रीददारी का समझौता क्यों नहीं कर पाया?
क्या निजी कंपनियां जल्द ही देश में वैक्सीन ला सकती हैं?
सरकारी स्तर पर ख़रीददारी के अलावा पाकिस्तान में वैक्सीन लाने का दूसरा तरीका, वो निजी कंपनियां हैं, जो दवाओं का आयात करके पाकिस्तान में वितरण करती हैं.
हाल ही में पाकिस्तान में कोविड-19 के लिए स्थापित 'नेशनल कमांड एंड ऑप्रेशन सेंटर' के प्रमुख असद उमर ने कहा, कि पाकिस्तान में प्रांतीय सरकारें और निजी कंपनियां डीआरएपी की मंजूरी के साथ कोरोना वैक्सीन ख़रीदने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं.
हालांकि, पंजाब स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी के अनुसार, जल्द ही कोरोना वैक्सीन पाकिस्तान लाना, निजी कंपनियों के लिए भी बहुत मुश्किल होगा.
उन्होंने कहा कि इसका मुख्य कारण ये है कि, "इस समय, वैक्सीन तैयार करने वाली सभी कंपनियों के समझौते, सरकारों के साथ हो रहे हैं और वैक्सीन तैयार करने की उनकी क्षमता ऐसी है कि सरकारों के साथ होने वाले समझौतों को ही पूरा करने में उन्हें महीनों लग जाएंगे."
क्या सरकार चाहेगी कि लोगों को वैक्सीन ख़रीदनी पड़ें?
पंजाब प्रांत के स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी के अनुसार, जब निजी कंपनियां कोई वैक्सीन लाती हैं, तो वे आमतौर पर इसे बाजार में बेचती हैं, जिसके बाद यह मेडिकल स्टोर में उपलब्ध होती है, लेकिन उपभोक्ताओं को वह वैक्सीन ख़रीदनी पड़ेगी.
वो बताते हैं कि मौजूदा स्थिति में, कोई भी सरकार नहीं चाहेगी कि उसके देश में, किसी व्यक्ति को वैक्सीन ख़रीद कर लगवानी पड़े. "इसलिए, निकट भविष्य में काउंटर पर वैक्सीन उपलब्धता की कोई संभावना नहीं है."
इस स्थिति में, केंद्र या प्रांतीय सरकार इन निजी कंपनियों के माध्यम से वैक्सीन ख़रीदने का समझौता कर सकती हैं.
क्या प्रांतीय सरकारों वैक्सीन ख़रीद पाएंगी?
पाकिस्तान में, प्रांतीय सरकारों को अपने तौर पर भी वैक्सीन ख़रीदने की अनुमति दी गई है. हालांकि वर्तमान स्थिति में, इसकी बहुत कम संभावना है.
पंजाब स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी ने बीबीसी को बताया कि एनसीओसी की हालिया घोषणा से पहले, पंजाब सरकार वैक्सीन की ख़रीद और आपूर्ति के लिए केवल केंद्र सरकार पर निर्भर थी.
यही कारण है कि पंजाब सरकार ने अपने तौर पर किसी भी कंपनी के साथ कोई संपर्क स्थापित नहीं किया. उनका कहना था कि, "पंजाब में, सरकार अभी भी वैक्सीन की आपूर्ति के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर करेगी."
याद रहे कि पंजाब जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा प्रांत है और देश का सबसे बड़ा कोरोना टीकाकरण कार्यक्रम पंजाब में ही चलाया जाएगा.
"सिंध ख़ुद ख़रीदना चाहता है लेकिन ..."
सिंध की प्रांतीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर अज़रा पेचीहो ने बीबीसी को बताया, कि उनकी सरकार का इरादा ख़ुद वैक्सीन ख़रीदने का है. उनका कहना था, कि पाकिस्तान पहले से ही अधिकांश अन्य देशों से बहुत पीछे है, जो चिंता का विषय है.
"कई देशों ने वैक्सीन की प्री-बुकिंग भी की हुई है,जिसकी वजह से पाकिस्तान ख़रीदारों की सूची में और नीचे चला गया है."
उन्होंने कहा कि वह जल्द से जल्द वैक्सीन प्राप्त करने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन फिर भी इसके आने में मार्च तक का समय लग सकता है.
सवाल यह है कि डीआरएपी ने केवल दो ही कंपनियों की वैक्सीन की मंज़ूरी दी है. जिनमे से सायनोफ्रार्म की वैक्सीन केवल केंद्रीय सरकार के माध्यम से दी जाएगी, तो सिंध कैसे और किससे यह वैक्सीन हासिल करेगा?
डॉक्टर अज़रा फ़ज़ल पेचीहो ने कहा कि वह "इसके लिए एक निजी कंपनी से वैक्सीन आयात करने के लिए बातचीत कर रही हैं और फिलहाल उनका टारगेट एस्ट्राज़ेनेका की बनाई वैक्सीन पाने का है".
पंजाब कितना तैयार है?
पंजाब प्रांत के प्राथमिक और माध्यमिक स्वास्थ्य विभाग के सचिव मोहम्मद उस्मान यूनुस ने बीबीसी को बताया, कि एनसीओसी की हालिया घोषणा के बाद, प्रांतीय सरकार इस संबंध में उपायों पर विचार कर रही है.
हालांकि, उन्होंने कहा कि इस संबंध में अधिकांश कदम केंद्र के दिशा निर्देश और नीति के अनुसार उठाए जाएंगे. और केंद्र द्वारा लोगों के टीका-करण का जो कार्यक्रम बनाया गया है, उसे पंजाब में भी लागू किया जाएगा. वो कहते हैं "इस तरह के कार्यक्रम के लिए, एक केंद्रीय रणनीति पर काम करना आवश्यक है, ताकि पूरे देश में समान रूप से लोगों को टीका लगाया जा सके."
पाकिस्तान अभी तक वैक्सीन की ख़रीददारी का समझौता क्यों नहीं कर पाया?
"पाकिस्तान की उम्मीदें चीन से हैं"
डॉक्टर अता-उर्रहमान के अनुसार, पाकिस्तान की ज़्यादा उम्मीदें मित्र देश चीन से जुडी हुई हैं. यह आशा की जा रही है, कि सायनोफार्म की वैक्सीन मंज़ूरी के बाद, सरकारी स्तर पर इस्लामाबाद में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के माध्यम से, पाकिस्तान सरकार को उपलब्ध कराई जायेगी.
डॉक्टर अता-उर्रहमान के अनुसार, "एक मित्र देश होने के नाते, पाकिस्तान चीन के लिए उन देशों में से एक है, जहां यह वैक्सीन प्राथमिकता के आधार पर मुहैया कराई जाएगी."
उन्होंने कहा, कि सायनोफार्म 79 प्रतिशत प्रभावी है और पाकिस्तान में अभी भी इसका परीक्षण चल रहा है. उन्होंने कहा कि मंजूरी के बाद, संयुक्त अरब अमीरात, इंडोनेशिया और अन्य देशों में, यह वैक्सीन लोगों को दी जा रही है. और इसके सफल होने के आंकड़े मौजूद हैं.
डॉक्टर अता-उर्रहमान के अनुसार, वैक्सीन की ख़रीददारी सरकार का काम है, इसलिए वे यह नहीं कह सकते हैं, कि सायनोफार्म्स से पाकिस्तान कितनी संख्या में वैक्सीन ख़रीदेगा, और चीनी कंपनी पाकिस्तान को कितनी जल्दी यह वैक्सीन तैयार करके दे सकेगी.
"उम्मीद यही की जा रही है, कि मार्च में सायनोफार्म की वैक्सीन पाकिस्तान को मिल पायेगी."
पाकिस्तान अभी तक वैक्सीन की ख़रीददारी का समझौता क्यों नहीं कर पाया?
एस्ट्राज़ेनेका वैक्सीन की उपलब्धता क्यों मुश्किल है?
पाकिस्तान में ड्रग नियामक संस्था डीआरएपी के अतिरिक्त निदेशक अख्तर अब्बास ख़ान ने बीबीसी को बताया कि सायनोफार्म और एस्ट्राज़ेनेका की इस शर्त पर वैक्सीन के आपातकालीन उपयोग के लिए मंजूरी दी गई थी, कि वो वैक्सीन के संभावित प्रभावों की कड़ी निगरानी करेंगे. जिसकी हर तीन महीने के बाद समीक्षा की जाएगी.
अख्तर अब्बास ख़ान ने कहा कि एस्ट्राज़ेनेका ने एक स्थानीय कंपनी के माध्यम से वैक्सीन की मंज़ूरी के लिए आवेदन किया था और आंकड़े जमा कराये थे. जिन्हें जांच पड़ताल के बाद मंज़ूर किया गया है.
याद रहे कि, एस्ट्राज़ेनेका न केवल ब्रिटेन में बल्कि भारत में भी वैक्सीन तैयार करता है. और दोनों देशों में कोरोना के मरीज़ों की दर दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में बहुत अधिक है.
इस प्रकार, जो वैक्सीन एस्ट्राज़ेनेका बना रही है, इन दोनों देशों ने उस वैक्सीन का एक बड़ा हिस्सा सुरक्षित कर लिया है.
यूरोपीय और अमेरिकी वैक्सीन के पाकिस्तान आने में कितना समय लगेगा?
पंजाब स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी ने बीबीसी को बताया कि चीनी कंपनियों के अलावा, पाकिस्तान के लिए यूरोपीय या अमेरिकी कंपनियों से जल्दी वैक्सीन मिलना मुश्किल दिखाई देता है.
"यह ऐसा ही है जब आप एक नई गाड़ी ख़रीदते हैं, तो इसके लिए आपको छह महीने या आठ महीने इंतजार करना पड़ता है. क्योंकि गाड़ी निर्माता के पास सीमित क्षमता है."
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान को एस्ट्राज़ेनेका और अमेरिकी कंपनियों से वैक्सीन लेने में इतना ही समय लग सकता है.
"उदाहरण के लिए, एस्ट्राज़ेनेका पहले एक अरब से अधिक भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से को वैक्सीन उपलब्ध कराएगी. इसके बाद वह दूसरे देशों के बारे में सोचेगा."
चीन से जल्दी वैक्सीन कैसे मिल सकती है?
चूंकि सायनोफार्म एक चीन की सरकारी कंपनी है, इसलिए दोनों देशों की सरकारों के स्तर पर होने वाले निर्णय के नतीजे में, वह प्राथमिकता के आधार पर पाकिस्तान को वैक्सीन उपलब्ध करा सकती है.
लेकिन यह देखना होगा कि वह पाकिस्तान को कितनी संख्या में कितनी वैक्सीन जल्दी उपलब्ध कराने की क्षमता रखती है.
सायनोफार्म के अलावा, एक अन्य चीनी कंपनी, कैनसायनो बायो भी पाकिस्तान में परीक्षण के तीसरे चरण का संचालन कर रही है. जिसके आंकड़े जल्द ही मंज़ूरी के लिए डीआरएपी के सामने प्रस्तुत किए जाने की संभावना है.
अधिकारियों के अनुसार, इस कंपनी से भी प्राथमिकता के आधार पर पाकिस्तान को वैक्सीन मिलने की उम्मीद है. (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अयोध्या के राम मंदिर और मस्जिद का मामला शांतिपूर्वक हल हो रहा है, यह भारत के हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की उदारता और सहिष्णुता का प्रमाण है। इससे भी बड़ी बात यह है कि कुछ मुसलमान संस्थाएं और सज्जन राम मंदिर निर्माण में उत्साहपूर्वक सहयोग कर रहे हैं।
विजयवाड़ा के ताहिरा ट्रस्ट की संयोजिका जाहरा बेगम ने आजकल एक अभियान चला रखा है, जिसके तहत वह देश के मुसलमान भाइयों से अपील कर रही है कि राम मंदिर के निर्माण में वे कम से कम 10 रु. जरुर दान करें। उनका कहना है कि हम लोग भाग्यशाली हैं कि हम राम के देश में पैदा हुए हैं।
हमारी पीढ़ी का सौभाग्य है कि राम का मंदिर हमारे सामने बन रहा है। राम ने ‘सच्चे धर्म’ को अपने जीवन से हमें साक्षात करके सिखाया है। वे हमारे ही नहीं, सारे विश्व के हैं। ऐसा मानने वाली जाहरा बेगम पहली मुसलमान नहीं हैं। पिछले हजार साल के इतिहास में कई मुसलमान बादशाहों, कवियों, लेखकों और आलिम-फ़ाजिल लोगों ने राम और कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति खुले-आम और जमकर प्रदर्शित की है। बादशाह अकबर ने राम-सिया के सोने और चांदी के तीन सुंदर सिक्के जारी करवाए थे।
बंगाल के हुसैनशाही राज परिवार ने बांग्ला महाभारत तैयार करवाई थी। अकबर ने वाल्मीकी रामायण का फारसी अनुवाद करवाया था और शाहजहां ने उसका फारसी पद्यानुवाद करवाया था। औरंगजेब के भाई दारा शिकोह, अमीर खुसरो, रहीम, रसखान, ताजबीबी, आलम रसलीन, नजीर अकबराबादी, मुसाहिब लखनवी आदि की रचनाएं आप पढ़ें तो राम और कृष्ण के प्रति जो भक्तिभाव इन्होंने दिखाया है, वह अद्वितीय है। यही सच्चा भारतीय मुसलमान होना है। इकबाल ने राम को ‘इमामे-हिंद’ यों ही थोड़े ही कह दिया था।
इस्लाम पर जब भारतीयता का रंग चढ़ता है तो वह भारत के मुसलमान को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मुसलमान बना देता है। इस्लाम की मूल मान्यताओं को मानना एक बात है और अरबों की आंख मींचकर नकल करना दूसरी बात है। भारत में जन्मे ऐसे कई संप्रदाय हैं, जिनमें इस्लामी मूल सिद्धांतों से भी अधिक कट्टरता है लेकिन सर्वधर्म समभाव ही भारत की विशेषता है। यदि ईश्वर एक है तो उसकी संतानों में भेद-भाव कैसे किया जा सकता है ?
यही भाव भारत का भाव है, इसीलिए भारत की पहली मस्जिद सन 629 में केरल के हिंदू राजा चेरामन पेरुमल ने बनवाई थी। त्रिवेंद्रम के राजा ने एक ही भूखंड पर मंदिर, मस्जिद, साइनेगॉग और चर्च बनने दिया। 1898 में (अब बांग्लादेश के) विक्रमगंज की मस्जिद का निर्माण बंगाली हिंदुओं की दान-दक्षिणा से हुआ। आज भी केरल की कुछ मस्जिदों में उनका इमाम ही संस्कृत श्लोक बोलकर बच्चों का ‘विद्यारंभ संस्कार’ करवाता है। क्या ही अच्छा हो कि राम मंदिर के लिए मुसलमान और मस्जिद के लिए हिंदू भी दान करें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
क्या न्याय इतना व्यक्तिनिष्ठ और इतना असहाय हो सकता है कि उसकी समीक्षा और आलोचना करना अनिवार्य बन जाए? कोई एक न्यायाधीश यदि कमजोर मनुष्य सिद्ध हो जाए तो क्या करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाले उसके फैसलों को केवल इस कारण शिरोधार्य करना होगा कि वे एक ऐसे पदाधिकारी द्वारा दिए गए हैं जिसे अकूत शक्तियां प्राप्त हैं और जिसे दैवीय होने की सीमा तक परिपूर्ण मान लिया गया है। क्या न्यायपालिका वस्तुनिष्ठ नियमों और सिद्धांतों से संचालित नहीं हो सकती? क्या न्यायाधीश विशेष की पसंद-नापसंद और उसके वैचारिक पूर्वाग्रहों से अलग हटकर किन्हीं व्यक्ति निरपेक्ष मापदंडों का निर्माण संभव नहीं है जिसके आधार पर न्यायपालिका कार्य कर सके? क्या एक अच्छी न्यायपालिका वही होती है जो सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में आने वाली बाधाओं को दूर कर सरकार को मजबूती प्रदान करे भले ही यह नीतियां कितनी ही अलोकप्रिय और अतार्किक हों? क्या न्यायपालिका प्रशासन का ही एक हिस्सा है जिसकी सोच और कार्यप्रणाली में जनता को अनुशासित, नियंत्रित और दंडित करने का भाव छुपा है? क्या सत्ताधीशों और उच्चाधिकारियों में सामान्य रूप से देखी जाने वाली- स्वयं को विलक्षण, अलौकिक और सत्ता एवं प्रशासन का पर्याय मानने की- प्रवृत्ति का संक्रमण न्यायपालिका में भी फैल गया है? क्या न्यायाधीश ही न्याय है और उसका कथन ही विधि है? क्या हमारी न्याय प्रक्रिया में बहुत कुछ इतना अस्पष्ट और अपरिभाषित है कि इसकी व्याख्या के लिए न्यायाधीश के विवेक पर आश्रित होना ही पड़ेगा? इस प्रकार हम यह स्वीकार लेते हैं कि न्यायाधीश अविवेकी नहीं हो सकता और आजकल अकसर गलत सिद्ध होते हैं।
अब तक न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार या न्यायपालिका की लेट लतीफी या न्यायपालिका में लंबित प्रकरणों की विशाल संख्या अकसर चर्चा का विषय बनती थी और इस पर न्यायविद, पूर्व न्यायाधीश तथा न्यायपालिका से जुड़े अन्य लोग बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखते थे। किंतु न्यायालयों और विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय के हाल के फैसलों के बाद जो मुद्दे आम जनता के जेहन में उठ रहे हैं वे न्यायपालिका की इन परंपरागत समस्याओं से एकदम अलग हैं। अब आम जनता का एक बड़ा भाग कतिपय न्यायाधीशों की सवर्ण मानसिकता, न्यायपालिका में दलितों और अल्पसंख्यकों के गिरते प्रतिनिधित्व तथा इनके साथ भेदभाव, पितृसत्तात्मक सोच से ग्रस्त न्यायाधीशों की टिप्पणियों, कॉरपोरेट घरानों द्वारा न्यायाधीशों को मैनेज करने की कोशिशों तथा आर्थिक-सामाजिक मुद्दों के स्थान पर धार्मिक-सांस्कृतिक मुद्दों को अधिक आवश्यक मानकर उन पर बहुसंख्यक समुदाय की मान्यताओं तथा विश्वासों के अनुरूप फैसले देने की प्रवृत्ति को लेकर आशंकित और चिंतित है।
सुप्रीम कोर्ट और उसके मुख्य न्यायाधीश बार बार नकारात्मक सुर्खियां बटोर रहे हैं। नवीनतम उदाहरण कृषि कानूनों से संबंधित मामले का है। किसान आंदोलन से जुड़े लोगों के अतिरिक्त आम जनता के एक बड़े वर्ग का यह मानना है कि अगर सरकार की मंशा आंदोलन को समाप्त करने अथवा मामले को लंबा खींचकर किसान नेताओं के धैर्य की परीक्षा लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट का उपयोग करने की थी तो सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की यह मंशा पूरी की है और स्वयं को उपयोग होने दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इन तीनों कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है। यदि सुप्रीम कोर्ट इस प्रकार की किसी भी रोक के पीछे यह तर्क देता कि प्रथम दृष्टया ये कृषि कानून संवैधानिक और कानूनी कसौटियों पर खरे नहीं उतरते और जनता के लिए अलाभकारी प्रतीत होते हैं इसलिए इन पर रोक लगाई जाती है तो शायद यह अधिक उचित प्रतीत होता। किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने जो तर्क दिया वह पूर्ववर्ती दृष्टांतों से एकदम अलग था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगाने का निर्णय संभवतः किसानों की आहत भावनाओं पर मरहम लगाने का कार्य करेगा और उन्हें वार्ता में आत्मविश्वास एवं भरोसे के साथ सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करेगा। अनेक विधिवेत्ताओं की राय में यह निर्णय न्यायिक तदर्थवाद की अनुचित प्रवृत्ति का उदाहरण है। कमेटी बनाने का एक कारण माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय ने यह बताया कि वे कृषि और अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ नहीं हैं। यह बिलकुल स्वाभाविक है कि एक विधिवेत्ता इन बातों का विशेषज्ञ नहीं होता किंतु सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में वह इन कृषि कानूनों की संवैधानिकता के विषय में तो निर्णय ले सकता था। जो समिति न्यायालय ने बनाई उसके सारे सदस्य इन कृषि कानूनों के घोषित समर्थक हैं। एक सदस्य तो समिति से इस्तीफा भी दे चुके हैं। इस समिति को कोई विशिष्ट शक्तियां भी प्राप्त नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि किसानों और सरकार के बीच वार्तालाप नहीं चल रहा है। नियमित अंतराल पर सरकार और किसानों के बीच बैठकें हो रही हैं। सरकार का प्रतिनिधित्व कृषि मंत्री समेत अनेक मंत्री और निर्णय लेने में सक्षम अधिकारी कर रहे हैं। किसान न्यायालय के पास नहीं गए हैं न ही उन्होंने इस प्रकार की किसी समिति की मांग ही की है। वे शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन के जरिए सरकार से अपनी मांगें मनवाने की कोशिश कर रहे हैं। फिर इस समिति का उद्देश्य आंदोलन को लंबा खींचकर कमजोर करने की सरकारी इच्छा की पूर्ति के अतिरिक्त यदि कुछ अन्य है तो उसका ज्ञान सर्वोच्च न्यायालय को ही होगा।
अभी कुछ दिन पहले 5 जनवरी 2021 को सर्वोच्च न्यायालय की एक बेंच ने सेंट्रल विस्टा मामले पर अपना निर्णय दिया। फैसले के पोस्टल्यूड में(पैरा 420-422) इस बेंच ने बड़े विस्तार से इस बात की चर्चा की है कि न्यायालय सरकार के पॉलिसी मैटर्स में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। पैरा 420 के प्रारंभ में बेंच यह कहती है- 'इस प्रकरण में हम यह कहने को विवश हैं कि याचिकाकर्ताओं ने अपने उत्साह में हमें ऐसे क्षेत्रों पर विचार करने का आग्रह किया जो किसी संवैधानिक न्यायालय को प्राप्त शक्तियों से एकदम बाहर के हैं।' यह पैरा पॉलिसी के निर्माण और उसके क्रियान्वयन हेतु सरकार को प्राप्त अधिकारों के विषय में है जिसमें बेंच के मतानुसार न्यायालय का हस्तक्षेप उचित नहीं है। पैरा के अंत में बेंच कहती है- 'किंतु यह समझना भी उतना ही आवश्यक है कि न्यायालय संविधान द्वारा तय की गई सीमाओं के भीतर कार्य करते हैं। हमें शासन करने के लिए नहीं कहा जा सकता। क्योंकि हमारे पास इसके लिए साधन या कौशल और विशेषज्ञता का अभाव होता है।“ यही कारण है कि किसान इन जन विरोधी कृषि कानूनों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं गए क्योंकि इनमें बदलाव सरकार के अधिकार क्षेत्र का विषय है।
यह आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि सेंट्रल विस्टा पर फैसला देने वाली त्रिसदस्यीय बेंच और कृषि कानूनों पर निर्णय सुनाने वाली चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली बेंच का दृष्टिकोण सरकारी नीतियों के निर्माण और उनके क्रियान्वयन के संबंध में न्यायपालिका की भूमिका और उसके हस्तक्षेप के बारे में एकदम अलग है। और इस मत भिन्नता के बावजूद इन फैसलों से लाभान्वित होने वाली सरकार ही है।
सर्वोच्च न्यायालय की प्राथमिकताओं के क्रम पर भी सवाल उठने लगे हैं। लोगों के मन में यह धारणा भी बन रही है कि जिन प्रकरणों में सरकार को तत्काल राहत की आवश्यकता होती है उन प्रकरणों पर सुप्रीम कोर्ट त्वरित सुनवाई करता है। जबकि नोटबन्दी, सीएए और अनुच्छेद 370 के कतिपय प्रावधानों को अप्रभावी बनाने संबंधी संविधान संशोधन को लेकर दायर याचिकाओं तथा अनेक बुद्धिजीवियों, पत्रकारों एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ पुलिस और प्रशासन के दमनात्मक व्यवहार को लेकर चल रहे मामलों पर सुप्रीम कोर्ट वह तेजी और तत्परता नहीं दिखाता क्योंकि इन मामलों में उसकी सक्रियता सरकार को असुविधा में डाल सकती है।
अनेक विधि विशेषज्ञ यह भी याद दिलाते हैं कि वर्तमान चीफ जस्टिस उन बेंचों की अगुवाई भी कर रहे थे जो ईडब्लूएस कोटा लॉ और सिटीजनशिप(अमेंडमेंट) एक्ट जैसे विवादित कानूनों से संबंधित मामलों की सुनवाई कर रही थीं और इन दोनों अवसरों पर उन्होंने इन कानूनों की संवैधानिकता के प्रश्न को ही प्रधानता दी थी और इन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। लगभग एक वर्ष पूर्व 9 जनवरी 2020 को चीफ जस्टिस बोबड़े ने सीएए पर एक याचिका की सुनवाई के दौरान प्रीजमशन ऑफ कॉन्स्टिट्यूशनलिटी का हवाला देते हुए कहा- हमारा कार्य कानूनों की वैधता का परीक्षण करना है। उत्कर्ष आनंद जैसे विधिवेत्ता इस बात को लेकर विस्मित हैं कि केवल एक वर्ष बाद ही चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली बेंच शक्तियों के पृथक्करण जैसे स्थापित सिद्धांतों और पुराने न्यायिक दृष्टांतों से भटकती प्रतीत होती है। यह बात ध्यान अवश्य खींचती है कि सीएए के विषय में सर्वोच्च न्यायालय का रुख सरकार के लिए राहत लेकर आया था।
कानून के अनेक जानकर तो इस बात पर भी आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं कि जिस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश गण कृषि और अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ नहीं हैं उसी प्रकार वे पुरातत्व, इतिहास और धर्म दर्शन के भी विशेषज्ञ नहीं थे फिर भी उन्होंने कुछ समय पूर्व राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद में प्रतिदिन सुनवाई कर निर्णय सुनाया था। आम जनता के मन में यह प्रश्न उठा रहा है कि क्या प्रत्येक न्यायाधीश अपनी सुविधानुसार यह तय कर सकता है कि वह किस विषय का विशेषज्ञ है और किसका नहीं।बहरहाल राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद पर दिया गया निर्णय भी सरकार के मनोनुकूल था और सत्ताधारी दल की विचारधारा को पुष्ट करता था।
सर्वोच्च न्यायालय के हाल के इन फैसलों में एकरूपता, निरंतरता और वस्तुनिष्ठता का अभाव दिखता है। समान प्रश्नों पर सर्वोच्च न्यायालय का स्टैंड अलग अलग रहा है। सर्वोच्च न्यायालय का स्टैंड बदलता रहा है किंतु शायद संयोगवश ही हर फैसले का लाभ सरकार को ही मिलता रहा है। जब संयोग लगातार बनने लगते हैं तो फिर संदेह उत्पन्न होता है और यह प्रश्न भी उठता है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में तटस्थता और वस्तुनिष्ठता की कमी है?
प्रिंसिपल ऑफ डिफरेंस को लेकर बहुत चर्चा होती रही है। विधायिका और कार्यपालिका का सम्मान करते हुए न्यायपालिका अनेक मुद्दों पर स्वतंत्र निर्णय देने से बचती रही है। किंतु जब विधायिका एवं कार्यपालिका के फैसलों को संरक्षण देने की यह प्रवृत्ति अतार्किक रूप धारण करने लगती है तब कमिटेड जुडिशरी की चर्चा जोर पकड़ने लगती है। हमारे देश में कमिटेड जुडिशरी की चर्चा श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्व काल में उठी थी और अब मोदी जी के कार्यकाल में जोर पकड़ रही है। जिस आत्ममुग्धता का शिकार होकर श्रीमती गाँधी निरंकुश हो गई थीं और आपातकाल लगाने जैसा निर्णय ले बैठी थीं क्या मोदी जी भी उसी ओर अग्रसर हो रहे हैं, इस प्रश्न पर चर्चा होनी चाहिए। किंतु सर्वाधिक विचारणीय प्रश्न यह है कि जब लोकतांत्रिक प्रणाली को संतुलन प्रदान करने के लिए न्याय पालिका के सर्वश्रेष्ठ की आवश्यकता होती है तब न्याय पालिका अपेक्षित मजबूती क्यों नहीं दिखा पाती।
एक प्रश्न न्यायाधीशों की मानसिकता का भी है। जब चीफ जस्टिस बोबड़े पूछते हैं कि इस विरोध प्रदर्शन में महिलाओं और बुज़ुर्गों को क्यों शामिल किया गया है? तब वे उसी पितृसत्तात्मक सोच से प्रभावित लगते हैं जिसके अनुसार महिलाओं को घर की चहारदीवारी तक सीमित रहना चाहिए और पुरुष को बाहर निकलकर अर्थोपार्जन करना चाहिए। उनके इस कथन से खेती की जमीनी सच्चाइयों के प्रति उनकी अनभिज्ञता का भी पता चलता है क्योंकि भारतीय कृषि में महिलाओं की भूमिका पुरुषों से कहीं अधिक ही होती है।
आदिवासी और दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन रेखांकित करते हैं कि न्यायपालिका के हाल के वर्षों के अनेक फैसले यह संदेह उत्पन्न करते हैं कि या तो आदिवासियों और दलितों का पक्ष माननीय न्यायालय के सम्मुख रखने में सरकार की ओर से कोताही की जा रही है या फिर न्यायपालिका का एक हिस्सा सवर्ण मानसिकता से अभी भी संचालित हो रहा है। सन 2018 में सुप्रीम कोर्ट की 2 जजों की बेंच ने एससी/एसटी प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज एक्ट 1989 के प्रावधानों को कमजोर करने वाला एक फैसला दिया था। फरवरी 2020 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण की मांग कोई बुनियादी अधिकार नहीं है। यदि सेवाओं में प्रतिनिधित्व अपर्याप्त भी है तब भी सरकार आरक्षण देने को बाध्य नहीं की जा सकती। 22 अप्रैल 2020 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आरक्षण की संकल्पना के बारे में विपरीत लगने वाली टिप्पणियां की थीं।
जमीनी स्तर पर आदिवासी अधिकारों के लिए कार्य करने वाले संगठनों का यह अनुभव रहा है कि कॉरपोरेट घराने अपने औद्योगिक साम्राज्य के विस्तार के लिए सुप्रीम कोर्ट का उपयोग करने की कोशिश करते रहे हैं और उन्हें राहत देने वाले निर्णय सुप्रीम कोर्ट से आए भी हैं। कॉर्पोरेट पर्यावरण विदों और टाइगर लॉबी को आदिवासियों के विस्थापन की अपनी कोशिशों में एक बड़ी सफलता तब मिलने वाली थी जब उच्चतम न्यायालय ने 13 फरवरी 2019 को एक आदेश पारित किया जिसमें उसने देश के करीब 21 राज्यों के 11.8 लाख से अधिक आदिवासियों और वनों में रहने वाले अन्य लोगों को वन भूमि से बेदखल करने की बात की थी। दरअसल, ये लोग अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून, 2006 के अधीन वनवासी के रूप में अपने दावे को सिद्ध नहीं कर पाए थे। बाद में जब अनेक संगठनों ने इस आदेश का विरोध किया और स्वयं केंद्र सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के हवाले से यह बताया कि प्रभावित परिवारों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है और करीब 20 लाख आदिवासियों और वन वासियों पर इस आदेश का असर पड़ सकता है तब जाकर केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप किया और सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक लगाई। यह मामला एक वर्ष से चल रहा था और इस पूरी समयावधि में केंद्र सरकार की रहस्यमय चुप्पी भी सवालों के घेरे में रही। वास्तव में कॉरपोरेट समर्थक पर्यावरणविद और संरक्षणवादी वन अधिकार कानून 2006 को भारतीय वन अधिनियम, वाइल्ड लाइफ एक्ट तथा पर्यावरण संबंधी अन्य अनेक कानूनों का उल्लंघन करने वाला और असंवैधानिक बताकर खारिज कराना चाहते हैं।
सोशल मीडिया में एक नई प्रवृत्ति देखने में आई है, वह है न्यायाधीशों को नायक के रूप में महिमामंडित कर उनकी अतिरंजित प्रशंसा की। चाहे वे दीपक मिश्रा हों या फिर रंजन गोगोई हों इन्हें राष्ट्र भक्त और रामभक्त बताते हुए यह रेखांकित किया जा रहा है कि अब न्यायपालिका के शोधन की प्रक्रिया प्रारंभ हो रही है एवं न्यायपालिका वामपंथ और कांग्रेसवाद की गिरफ्त से बाहर निकल रही है जिसके कारण राष्ट्र को मजबूती देने वाले निर्णय लिए जा रहे हैं। कुछ पोस्ट्स ऐसी भी हैं जिनमें न्यायपालिका में आए इस कथित परिवर्तन का श्रेय मोदी सरकार को दिया गया है। हो सकता है कि यह पोस्ट्स सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ बीमार मानसिकता के लोगों के विकृत मस्तिष्क की उपज हों किंतु यह तो सोचना ही होगा कि न्यायपालिका के हाल के क्रिया कलापों में ऐसा क्या है जिसकी बुनियाद पर यह जहरीला और खतरनाक नैरेटिव गढ़ा जा रहा है।
भारतीय न्यायपालिका को बड़ी गहराई से जानने वाली पुरानी पीढ़ी के अनेक वयोवृद्ध प्रतिनिधि अपने समय के न्यायाधीशों की ईमानदारी और विद्वत्ता की चर्चा बड़े गौरव से करते हैं किंतु साथ ही यह कहना भी नहीं भूलते कि नई पीढ़ी में वैसी नैतिक दृढ़ता नहीं है। क्या हमारी न्याय प्रक्रिया को इतना पारदर्शी और वस्तुनिष्ठ नहीं बनाया जा सकता कि उसे किसी न्यायाधीश के दोष और पूर्वाग्रह प्रभावित न कर सकें। यही वह प्रश्न है जिसका समाधान तलाशना होगा।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-गिरीश मालवीय
लोग कहते हैं आप भ्रम फैलाते हो, कहां लिखा है कि कोरोना का वैक्सीन लगवाना अनिवार्य है! मैं कहता हूँ अनिवार्य तो आधार भी नहीं है लेकिन सबने बनवा रखा है कि नहीं ?
कल झारखंड की सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारियों के कोरोना का टीका न लगवाने पर वेतन रोकने की चेतावनी दी गई। वो तो विवाद बढ़ गया इसलिए इस आदेश को वापस लेना पड़ा।
आप देखिएगा जैसे-जैसे समय गुजरता जाएगा वेक्सीनेशन को लेकर दबाव बढ़ाया जाएगा। मीडिया इसमें पूरा सहयोगी बना हुआ है। एक भी पत्रकार फार्मा/वैक्सीन लॉबी के विरुद्ध कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हैं।
कोरोना को लेकर सरकारें संक्रामक रोग का नाम लेकर नागरिक, समाज पर अपना शिकंजा बढ़ाती जा रही है। जापान में कह दिया गया है कि आप यदि संक्रमित हों तो आपको हॉस्पिटल में भर्ती होना अनिवार्य है, आप घर में रह नहीं सकते।
वैक्सीन को ट्रेवल पासपोर्ट के बतौर प्रस्तुत किया जा रहा है। हमारी सुरक्षा के नाम पर हमारी ही घेराबंदी की जा रही है। नवंबर में ही अमेरिका की क्वांटास एयरलाइंस ने कहा था कि वैक्सीन उपलब्ध होने के बाद यात्रियों को वैक्सीन लगवाने का सबूत देना होगा। वैक्सीन प्रमाण पत्र जरूरी होगा। अन्य एयरलाइनों में भी ऐसा हो सकता है।
एयरपोर्ट ओर एयरलाइंस से जुड़ी अंतराष्ट्रीय संस्था आईएटीए ने खुलासा किया कि जल्द ही पूरा उद्योग क्वाण्टास एयरलाइन के नक्शेकदम पर चलेगा। न केवल यात्रियों को टीकाकरण का प्रमाण देने की आवश्यकता होगी, बल्कि उनसे मोबाइल ‘स्वास्थ्य पासपोर्ट’ ऐप डाउनलोड करने और उपयोग करने की अपेक्षा की जाएगी।
हमारे यहाँ भी इसकी औपचारिक शुरुआत तो हो ही चुकी हैं। हमें भी अपने कई पड़ोसी राज्यो में अब भी कई जगहों पर यात्रा करने के लिए कोरोना निगेटिव होने का प्रमाणपत्र लेकर जाना होता है उसी तरह घरेलू या विदेश यात्रा करने के लिए कोरोना की वैक्सीन लगवाना अनिवार्य हो जाएगा। क्योंकि यह ट्रैवल पासपोर्ट की तरह काम करेगा। इसके बगैर आपकी मूवमेंट प्रतिबंधित कर दी जा सकती है।
भारत में जैसे कोविन एप्प की बात की जा रही है ऐसे ही पूरे विश्व में एक मोबाइल एप्लीकेशन होगा। इस एप्लीकेशन में हमारे कोरोना जांच रिपोर्ट की सभी जानकारियां होंगी। हमारी यात्रा के दौरान इसे अनिवार्य कर दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त दफ्तर, मूवी थिएटर, कंसर्ट वेन्यू आदि में भी इसे अनिवार्य कर दिया जाएगा। विदेश यात्रा के लिए भी इसे पासपोर्ट की तरह अनिवार्य कर दिया जाएगा। फिर तो हमें वैक्सीन लगवाना ही होगा ना करने की कोई चॉइस नहीं है। बहुत संभव है कि कुछ दिनों बाद मीडिया में ऐसी माँग उठे कि जिसको कोरोना टीका न लगा हो उसका अस्पतालों में इलाज ही न किया जाए क्योंकि वह व्यक्ति संक्रमण फैला सकता है जिससे हमारे हेल्थ वर्कर्स को खतरा हो सकता है। बहुत संभव है ऐसी ही रणनीति के तहत सबसे पहले हेल्थ वर्कर को ही टीका लगाया जा रहा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान में सिंध की आजादी और अलगाव का आंदोलन फिर तेज हो गया है। जीए सिंध आंदोलन के नेता गुलाम मुर्तज़ा सईद के 117 वें जन्म दिन पर सिंध के कई जिलों में जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों में नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप के पोस्टर भी उछाले गए। जीए सिंध मुत्तहिदा महाज के नेता शफी अहमद बरफत ने कहा है कि सिंध की संस्कृति, इतिहास और परंपरा पाकिस्तान से बिल्कुल अलग है और अभी तक बरकरार है लेकिन इस सिंधी राष्ट्रवाद पर पंजाबी राष्ट्रवाद हावी है। अंग्रेजों ने सिंध को जबरदस्ती पाकिस्तान में मिला लिया और अब पाकिस्तान सिंध के द्वीपों, बंदरगाहों और सामरिक क्षेत्रों को चीन के हवाले करता जा रहा है। सिंधी आंदोलनकारियों का मानना है कि जैसे 1971 में बांग्लादेश आजाद हुआ है, वैसे ही सिंध भी आजाद होकर रहेगा।
भारतीय होने के नाते हम सभी यह सोचते हैं कि पाकिस्तान के टुकड़े हो जाएं तो भारत से ज्यादा खुश कौन होगा ? छोटा और कमजोर पाकिस्तान फिर भारत से भिट्टियाँ लड़ाने से बाज आएगा। इसीलिए भारत के कई नेता पाकिस्तान से सिंध को ही नहीं, पख्तूनिस्तान और बलूचिस्तान को भी तोडक़र अलग राष्ट्र बनाने की वकालत करते हैं। अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री सरकार दाऊद खान तो पख्तून आंदोलन के इतने कट्टर समर्थक थे कि उन्होंने अपने कार्यकाल में तीन बार पाकिस्तान के साथ युद्ध-जैसा ही छेड़ दिया था। सिंधी अलगाव के सबसे बड़े नेता गुलाम मुर्तजा सईद से मेरी कई मुलाकातें हुईं। वे प्रधानमंत्री नरसिंहरावजी के जमाने में भारत भी आए। वे लगभग 20 दिन दिल्ली में रहे। वे देश के कई बड़े नेताओं से मिलते रहे। वे लगभग रोज ही मेरे पीटीआई के दफ्तर आते थे और मेरे साथ लंच लिया करते थे। जी.एम. सईद साहब सिंधियों की दुर्दशा का अत्यधिक मार्मिक चित्रण करते थे। उसके कई तथ्य मेरे अनुभव में भी थे। मैं स्वयं कराची और सिंध के कुछ इलाकों जैसे गढ़ी खुदाबक्स (बेनज़ीर की समाधि) आदि में जाता रहा हूं और सिंधी शोषण का विरोधी हूं लेकिन मैं यह मानता हूं कि यदि दूरदृष्टि से देखा जाए और पूरे दक्षिण एशिया का भला सोचा जाए तो इस विशाल क्षेत्र में किसी भी नए देश का उदय होना लाभदायक नहीं है, चाहे वह सिंध हो, पख्तूनिस्तान हो या कश्मीर हो या नगालैंड हो। इन सब इलाकों में नागरिकों को पूर्ण आजादी और समानता मिलनी चाहिए लेकिन उनका अलगाव उनके अपने लिए भी काफी नुकसानदेह है। बांग्लादेश की तुलना इससे नहीं की जा सकती। दक्षिण एशिया में कई स्वतंत्र राष्ट्रों का खड़ा होना भारत के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)