विचार/लेख
किशोर नरेंद्र की रायपुर यात्रा
-मेश अनुपम
इस तरह पन्द्रह-बीस बैलगाडिय़ों का कारवां पन्द्रह-बीस दिनों की अथक यात्रा के पश्चात् रायपुर पहुंचा। कोतवाली से कालीबाड़ी चौक की ओर जाने वाले मार्ग में स्थित डे भवन में बैलगाडिय़ों का यह कारवां थम गया। भूत नाथ डे के भवन में ही विश्वनाथ दत्त ने भी अपने परिवार के साथ डेरा डाला। डे भवन के ऊपर के दो कमरों में विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी ने अपनी नई गृहस्थी सजाई। नरेंद्र, छोटी बहन जोगेन बाला, छोटे भाई महेंद्र ने अपने इस नए आशियाने में धमाचौकड़ी मचाई।
विश्वनाथ दत्त को छोडक़र सबके लिए रायपुर एक नया शहर था।विशाल कोलकाता की तुलना में छोटा सा और शांत शहर। तब रायपुर शहर केवल बूढ़ा पारा तक ही सिमटा-सिकुड़ा हुआ था। हां तब विशाल सागर सा बूढ़ा तालाब जरूर था। जो रायपुर शहर को एक नई पहचान देता था। जिसकी जलराशि पशु, पक्षी, मनुष्य सबको एक साथ आकर्षित करती थी।
यह उस दौर की कहानी है जब रायपुर चारों ओर से जंगलों से घिरा हुआ था।
रायपुर में कोलकाता के मुकाबले कोई अच्छा स्कूल न होने के कारण किशोर नरेंद्र की शिक्षा- दीक्षा घर पर ही होने लगी।
पिता विश्वनाथ दत्त रोज घर पर ही तीनों बच्चों को पढ़ाया करते थे। विश्वनाथ दत्त से मिलने रायपुर के बंगाली समाज के अनेक भद्र लोक उन दिनों डे भवन आने लगे थे।
घर आने वाले भद्र लोगों के साथ हो रही चर्चाओं में किशोर नरेंद्र भी सम्मिलित हो जाया करते थे।
पिता के साथ होने वाली चर्चाओं को वे ध्यानपूर्वक सुना करते थे और कभी-कभी अपनी जिज्ञासाओं को भी उन सबके समक्ष रखा करते थे। कभी-कभी अपनी किसी अपूर्व निष्पत्तियों से सबको आश्चर्यचकित भी कर दिया करते थे। उन दिनों ऐसे थे किशोर नरेंद्र।
कभी-कभी खाली समय में वे नीचे रहने वाले भूतनाथ डे के घर पर भी पहुंच जाते थे। श्रीमती एलोकेशी डे की गोद से छह माह के छोटे से बच्चे हरिनाथ डे (कालांतर में विश्व के महान जीनियस कहलाने वाले ) को लेकर डे भवन में अपनी छोटी बहन जोगेन बाला के साथ घूमा करते थे।
उन दिनों शाम होते-होते अक्सर डे भवन रायपुर के भद्र बंगालियों का अड्डा बन जाता था। विश्वनाथ दत्त के यहां अक्सर यह भद्र मंडली एकत्र होती थी।
अनेक विषयों पर विचार विमर्श का दौर चलता था। देश-विदेश की अनेक घटनाओं से लेकर धर्म, दर्शन जैसे गूढ़ विषयों पर वाद-विवाद और संवाद का असमाप्त सिलसिला चलता रहता था।
नरेंद्र इन सबको ध्यान से सुनते रहते थे। उन्हें बड़े-बुजुर्गों की यह महफि़ल रास आती थी। वे कभी-कभी श्रोता की भूमिका से अलग हटकर स्वयं भी इस विमर्श में शामिल हो जाते थे।
किशोर नरेंद्र से जुड़ी हुई एक घटना का उल्लेख हिंदी ग्रंथ ‘विवेकानंद चरित’ तथा बांग्ला ग्रंथ ‘जुग नायक विवेकानंद’ ( स्वामी गंभीरानंद ) दोनों ही ग्रंथों में मिलता है।
डे भवन में एक बार विश्वनाथ दत्त के एक साहित्यिक मित्र बांग्ला साहित्य की चर्चा कर रहे थे, तब नरेंद्र ने भी बांग्ला साहित्य के अनेक ग्रंथों की विस्तारपूर्वक चर्चा कर सबको चकित, विस्म्मित कर दिया था। उस समय किसी ने भी यह नहीं सोचा था कि चौदह वर्षीय यह किशोर बांग्ला साहित्य में भी निष्णात और प्रवीण है।
उसी समय नरेंद्र के बांग्ला साहित्य के ज्ञान से चकित होकर विश्वनाथ दत्त के एक मित्र जो बांग्ला साहित्य के विद्वान थे, उन्होंने नरेंद्र से बांग्ला में जो कहा वह इस प्रकार है ‘बाबा एक दिन न एक दिन तोमार नाम आमरा सुनते पारबो’ ( बाबा एक दिन न एक दिन हम लोग तुम्हारा नाम अवश्य सुनेंगे।) अर्थात् एक दिन तुम्हारा नाम पूरे भारत वर्ष में रोशन होगा।
विश्वनाथ दत्त संगीत के अच्छे ज्ञाता भी थे। उनका कंठ भी सुमधुर था, वे मौज में आकर गाने बैठ जाते थे। किशोर नरेंद्र भी अपने पिता के साथ गाने लग जाते थे। वैसे भी प्रत्येक बांग्ला भाषी भद्र समाज की गंभीर रुचि साहित्य और संगीत में न हो यह संभव ही नहीं है।
भूतनाथ डे भी इस संगीत मंडली का पूरा-पूरा आनंद उठाते थे। वे स्वयं भी संगीत और साहित्य के कम बड़े रसिया नहीं थे।
भूतनाथ डे के पास बांग्ला और अंग्रेजी किताबों का अनमोल खजाना भी था, जिसका पूरा आनंद किशोर नरेंद्र उठाते थे।
रायपुर में किशोर नरेंद्र के अपने परिवार के साथ बिताए हुए ये दिन उनके जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अनमोल दिन थे। पिता विश्वनाथ दत्त कभी-कभी फुर्सत में खुद अपने हाथों से खाना बना देते थे। विश्वनाथ दत्त पाक विद्या में पारंगत थे। अपने हाथों से सुस्वादु भोजन बना लेने की कला में माहिर थे। नरेंद्र बहुत ध्यान से अपने पिता को खाना बनाते हुए देखा करते थे और कभी स्वयं भी पिता के साथ हाथ बटाया करते थे। कालांतर में स्वामी विवेकानन्द के रूप में विख्यात होने के पश्चात वे खुद अपने हाथों से सुस्वादु भोजन पका कर अपने शिष्यों को खिलाया करते थे।
स्वामी विवेकानंद के शिष्य उनकी पाक विद्या के कायल थे। यह पाक विद्या रायपुर प्रवास की ही देन थी। (
शेष अगले रविवार)
-प्रकाश दुबे
मध्यप्रदेश नर्मदा और ताप्ती का जल देकर गुजरात का भला करता रहा है। इस बार भोपाल-अहमदाबाद उड़ान शुरू करवाते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मप्र में निवेश बढऩे की उम्मीद जताई। जम्मू-कश्मीर केन्द्रशासित इकाई के उप राज्यपाल ने कल्पनाशीलता में शिवराज को पीछे छोड़ा। लोकसभा चुनाव हारने के कारण प्रधानमंत्री के चहेते मनोज सिन्हा केन्द्रीय मंत्री न बन सके। योगी के हठयोग के कारण गंगा मैया उन्हें उ प्र का मुख्यमंत्री न बना पाईं। काम पूरी लगन के साथ करते हैं। उप राज्यपाल ने गुजरात के जानकारों की टोली को निमंत्रित कर श्रीनगर और जम्मू शहरों को चुस्त दुरुस्त करने के तरीके जाने। साबरमती नदी के किनारों की खूबसूरती से अहमदाबाद स्मार्ट हो गया। जम्मू से बहने वाली तवी को उप राज्यपाल साबरमती की तरह विकसित करना चाहते हैं। साबरमती नदी तट विकास निगम के अध्यक्ष ने नुस्खे बताए। जम्मू तवी को दूसरा साबरमती बनाने में दो कमियां तो रहेंगी। एक तो गांधी का आश्रम। उसकी शायद जरूरत न भी हो। दूसरे नर्मदा-नहर की कृपा से साबरमती सदा सजल रहती है।
खामोश, अदालत जारी है
दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति प्रतिभा सिंह पौन घंटे में मात्र एक मुकद्दमा सुन पाईं। न तो शक्ल दिखी और न आवाज़ साफ आ रही थी। अदालत की प्रस्तुति की अदा आम लोगों से अलग होती है। न्यायाधीश प्रतिभा ने फटकार लगाते हुए कहा-वकील बार बार पूछते हैं, मेरी आवाज़ सुनाई पड़ रही है? प्रधानमंत्री ने कुछ दिन पहले ही सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में विकास और डिजिटल व्यवहार बढऩे पर बधाई दी थी। कवरेज कमी, बातचीत टूटना, सुनाई न देना रोग के लक्षण हैं। बखेड़े की जड़ रंगावली यानी स्पेक्ट्रम है। विधि और संचार दोनों मंत्रालयों के कर्णधार मंत्री रविशंकर प्रसाद और स्पेक्ट्रम खरीदी के खिलाड़ी रोग को बखूबी पहचानते हैं। न तो उनका मुक़द्दमे से ताल्लुक है और न उनसे पंगा लेने का मतलब है। उच्च न्यायालय सीमित आदेश जारी कर रहा है- सीढिय़ां चढ़ते हुए, बगीचे में टहलते हुए जिरह मत करो। ऐसी जगह से वीडियो कांफ्रेंसिग सुनवाई में हिस्सा लो जहां से आवाज़ साफ सुनाई दे। चेहरा भले ही न दिखे।
जल थल दल दल
संसद में आरोप-प्रत्यारोप की बारिश जारी थी। कुछ किलोमीटर की दूरी पर सिंघु बार्डर में किसानों की सभा कुछ देर के लिए रुक गई। नहीं नहीं। बेचारे पुलिस वाले कीलों और अवरोध के पार से सिर्फ तमाशा देख रहे थे। बारिश की मार से तिरपाल फट गया। सभा रोक दी। किसान पानी बाहर निकालने में जुट गए। वातावरण में शांति थी। कीचड़-पानी बाहर निकाला जाता रहा, तब तक आंदोलन समर्थक गायक गीत गाकर हौसला बढ़ाते रहे।26 जनवरी की अव्यवस्था के बाद वापस गए किसान गांवों से लौट आए हैं। पानी और कीचड़ से सने नेताओं ने संबोधन फिर शुरु कर दिया। भाषणों में एक ही बात नई थी-हमारे कुछ साथी जाड़े, बारिश, बीमारी के कारण हमें छोडक़र दूसरी दुनिया में चले गए। हम या तो उनका संकल्प पूरा करेंगे या उनसे जा मिलेंगे। किसी को पूछने की फुर्सत नहीं है कि सडक़ से कीलें उखड़वाने और लाखों की संख्या में पुलिस और अर्ध सैनिक बल तैनात करने का खर्च बजट के किस मद में डाला जाएगा? मोठा भाई जाने और जानें वित्त मंत्री।
हल्दी के घाव
किसान आंदोलन की आंच तेलंगणा तक जा पहुंची। डी अरविंद ने मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की लाडली बेटी कविता को हराकर निजामाबाद से लोकसभा चुनाव जीता। अरविंद के पिता डी श्रीनिवास प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हैं। कविता के मिज़ाज ने अरविंद की जीत को आसान बनाया। दिल्ली की सरहद पर किसानों को कील ठोंक कर रोकने में सरकार सफल रही। सत्ता दल के चमत्कारी नुमाइंदे अरविंद चुनाव क्षेत्र में बुरे फंसे। निजामाबाद जिला हल्दी उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। किसानों ने सांसद को घेरकर हल्दी के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू कराने की मांग की। कृषि कानूनों के समर्थक अरविंद ने गोलमाल जवाब देकर बचना चाहा। सवालों की बौछार नोंकझोक में बदली। नारेबाजी शुरु हो गई। चार घंटे तक किसानों से घिरे अरविंद किसी तरह जुगत भिड़ाकर खिसक पाए। सांसद अधिवेशन में भाग लेने सीधे दिल्ली उड़े। किसानों ने चेतावनी दी-दस दिन में न्यूनतम समर्थन दाम का ऐलान करो वरना इस्तीफा दो। संसद सत्र का अस्सल लाभार्थी कौन है? अंदाज़ विज्ञान का सहारा लेने की जरूरत नहीं है। डी अरविंद हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसानों का चक्काजाम बहुत ही शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो गया और उसमें 26 जनवरी-जैसी कोई घटना नहीं घटी, यह बहुत ही सराहनीय है। उत्तरप्रदेश के किसान नेताओं ने जिस अनुशासन और मर्यादा का पालन किया है, उससे यह भी सिद्ध होता है कि 26 जनवरी को हुई लालकिला- जैसी घटना के लिए किसान लोग नहीं, बल्कि कुछ उदंड और अरराष्ट्रीय तत्व जिम्मेदार हैं। जहां तक वर्तमान किसान-आंदोलन का सवाल है, यह भी मानना पड़ेगा कि उसमें तीन बड़े परिवर्तन हो गए हैं। एक तो यह कि यह किसान आंदोलन अब पंजाब और हरियाणा के हाथ से फिसलकर उत्तरप्रदेश के पश्चिमी हिस्से के जाट नेताओं के हाथ में आ गया है। राकेश टिकैत के आंसुओं ने अपना सिक्का जमा दिया है। दूसरा, इस चक्का-जाम का असर दिल्ली के बाहर नाम-मात्र का हुआ है।
भारत का आदमी इस आंदोलन के प्रति तटस्थ तो है ही, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उ.प्र. के किसानों के अलावा भारत के सामान्य और छोटे किसानों के बीच यह अभी तक नहीं फैला है। तीसरा, इस किसान आंदोलन में अब राजनीति पूरी तरह से पसर गई है। चक्का जाम में तो कई छुट-पुट विपक्षी नेता खुले-आम शामिल हुए हैं और दिल्ली के अलावा जहां भी प्रदर्शन आदि हुए हैं, वे विपक्षी दलों द्वारा प्रायोजित हुए हैं। हमारे अधमरे विपक्षी दलों को अपनी कुंद बंदूकों के लिए किसानों के कंधे मुफ्त में मिल गए हैं। किसानों के पक्ष में जो भाषण संसद में और टीवी पर सुने गए या अखबारों में पढ़े गए, उनसे यह मालूम नहीं पड़ता कि उनके तर्क क्या हैं ? वे अपनी बात तर्कसम्मत ढंग से अभी तक प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने संसद में यह लगभग ठीक ही कहा है कि उन तीनों कृषि कानूनों में काला क्या है, यह अभी तक कोई नहीं बता सका है। जैसे सरकार अभी तक किसानों को तर्कपूर्ण ढंग से इन कानूनों के फायदे नहीं समझा सकी है, वैसे ही किसान भी इसके नुकसान आम जनता को नहीं समझा सके हैं। दूसरे शब्दों में आजकल सरकार और किसानों की यह फर्जी मुठभेड़ चलती चली जा रही है। यदि इसमें कोई बड़ी हिंसा और प्रतिहिंसा हो गई तो देश का बहुत गहरा नुकसान हो जाएगा। इस फर्जी मुठभेड़ को रोकने का सबसे आसान तरीका मैं कई बार सुझा चुका हूं। केंद्र सरकार इन कानूनों को मानने या न मानने की छूट राज्यों को क्यों नहीं दे देती ? पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उप्र के मालदार किसानों की मांग पूरी हो जाएगी। उनके लिए तो ये तीनों कानून खत्म हो जाएंगे। वे किसानों के लिए बने हैं या गुजराती धन्ना-सेठों के लिए, इसका पता अगले दो-तीन साल में अन्य राज्यों से मिल जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्राण चड्ढा
कभी घड़ियाल कम थे अब चंबल में मगर-घड़ियाल है लेकिन नदी में रेत बजरी का जिस पैमाने में मशीनी उत्खनन हो रहा है वह चिन्तनीय है। कोई चालीस साल हुए मध्यप्रदेश के सीएम अर्जुन सिंह ने एक सम्भाग के पत्रकारों को दूसरे सम्भाग भेजा जाता था ताकि सम्पूर्ण मप्र की समस्याओं और संस्कृति से पत्रकार वाफिक हो सकें। इस योजना के तहत छतीसग़ढ़ के पत्रकारों को चंबल सम्भाग भेजा गया। इसमें छतीसग़ढ़ के पत्रकारों के जत्थे में रायपुर के सुनील कुमार, देशबंधु रायपुर, बिलासपुर से लोकस्वर से मैँ और बिलासपुर टाइम्स से राजू तिवारी भी शामिल थे। लंबे समय के दौरान बाकी पत्रकारों के नाम विस्मृत हो गए हैं। पर बहुत कुछ याद है,जिसपर समय की गर्त पड़ गई थी पर जब इस माह चंबल नदी को देखने का अवसर उसी जगह पर मिला तो अतीत की बाते याद आ गई।
जगह है मुरैना और धौलपुर को जोड़ने वाला विशाल पुल, यह तब कुछ बचे घड़ियालों को बचाने के लिए परियोजना की शुरुवात हुई थी।उनके अंडों को चुनकर लाया जाता उंनको 'इनक्यूबेटर'में हैच किया जाता और बेबी घड़ियालों को कुछ बड़ा होने पर चम्बल नदी में छोड़ा जाता। यह के बड़ी लगन और मेहनत से घड़ियाल बचने टीम वर्क को देखा और समझ गया। छतीसग़ढ़ से जनसम्पर्क अधिकारी श्री वर्मा हमे लेकर गए थे और व्यास जी हमारी जिज्ञासा दूर करते। घड़ियाल परियोजना में आज भी जारी है।
हम पत्रकारों का दल मुरैना के रेस्ट हाउस में रुका था । सन 1980 के आसपास की बात है। तब इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार अश्वनी शिरीन ने चम्बल पर धौलपुर से औरत खरीदी साबित कर दिया कि धौलपुर में यह सब होता है। अश्वनी उसे मोल ले कर मुरैना में इस रेस्ट हाउस में कुछ समय रुके थे। बाद इस घटना पर 'कमला' नाम की फ़िल्म बनी थी। नायक से मार्क जुबेर।
मुरैना में हम पत्रकारों से मिलने कलेक्टर संदीप खन्ना आये। उन्होंने पूछे सवालों का जवाब दिया,इस इलाके में गन कल्चर है, पहली पसन्द गन है। गन मिली तो सम्पति भैस खरीद लेते हैं, फिर विवाह कर लेते हैं।
चम्बल के मुरैना और धौलपुर के बीच पुल में चम्बल प्रदूषण का तब नमोनिशान नहीं था। और न ही रेत बजरी उत्खनन का आज जैसा आलम कभी बनेगा, यह सोच भी ना था। चम्बल के बेटे बागी बन बीहड़ में कूद जाते। मोहर सिंह, मलकाम सिंह, मुस्तकीम, सबके किस्से रविवार में पढ़े जाते।
पर आज माँ चम्बल की दशा ठीक नहीं। घड़ियाल और मगर मुरैना से धौलपुर जाते वक्त लेफ्ट में है और राइट साइड में रेत उत्खन की कोई परियोजना चल रही हो। विशाल मशीनों से उत्खनन और ट्रैक्टरों से बड़ी मात्रा में परिवहन में करते हैं। हां नदी धौलपुर की तरफ और रेत बजरी खनन. पश्चिम की की तरफ चम्बल सफारी।
चम्बल के पानी की राजस्थान में भारतपुर में केवलादेव नेशनल पार्क को भी सप्लाई होती है। यह विश्व धरोहर है जहां वन्य जीवों और प्रवासी परिंदों की हर साल बहुत बड़ी संख्या में शीतकाल व्यतीत कर आते हैं। भरतपुर में भी चम्बल का पानी नागरिकों तक पेयजल के रूप में पहुंचता है। चंबल नदी में हो रहे उत्खनन की खबरें प्रिंट मीडिया की सुर्खियां बनती है। किंतु यह उत्खनन नहीं थम रहा। जिसका बुरा असर नदी कि सेहत पर पड़ना तय है। एक अर्जुन सिंह की सरकार ने चम्बल में लुप्त होते घड़ियाल की वापसी में योगदान दिया दूसरी तरफ शिवराज सिंह की मौजूदा सरकार चम्बल नदी में हो रहे खिलवाड़ को रोक नही पा रही है।
हम गणतंत्र भारत के लेखक, आर्टिस्ट और विभिन्न कलाओं से जुड़े लोग पिछले दिनों हुईं घटनाओं से अत्यंत क्षुब्ध हैं। भारत देश कभी विश्व में इसीलिए विश्व गुरु माना गया था क्योंकि यहाँ शास्त्रार्थ की परंपरा थी, अपने प्रतिद्वंद्वी को हमेशा रचनात्मक उत्कर्ष का प्रतीक माना गया था। किंतु इधर कुछ समय से देश में जो वातावरण बन रहा है वह कतई लोकतांत्रिक नहीं है।
हम चाहते हैं कि कृषि कानूनों की गुणवत्ता पर दोबारा निर्मम विचार हो। किसानों की बात ससम्मान सुनी जाए और कानूनों को रद्द किया जाए। हम इस समय साधारण किसानों की दुर्दशा पर आप सबका ध्यान खींचना चाहते हैं, जो पिछले 2 महीने से दिल्ली के भिन्न बार्डरों पर कडक़ ठंड में बैठे हैं। प्राय: हर दिन उनके ट्राली-आश्रयों से 2 किसान लाशें निकली हैं। ये लाशें संवैधानिक रूप से शांतिपूर्ण अनशन कर रहे हमारे अपने लोगों की हैं, जिनके लिए शोक-संवेदना का एक भी शब्द किसी सरकारी पक्ष से नहीं आया है।
लोकतंत्र में सरकार के बनाये कानूनों को अस्वीकार करने का अधिकार हमारा संविधान देता है, और उसके विरुद्ध शांतिपूर्ण अनशन का भी। अनशन के लिए बैठना साधारण जन का मौलिक अधिकार है ।
आज हमारी युवा बेटियां, छात्राएं, बड़ी संख्या में इन मोर्चों में बैठी हुई हैं। इनमें से कई गंदगी से होने वाले मूत्र रोगों से ग्रसित होने के बाद भी आंदोलन में बने रहने के लिए प्रतिबद्ध हैं। ऐसे समाचार पिछले दिनों मीडिया ने दिखाए हैं।
ऐसे असहनीय वातावरण में हम संवेदनशील सर्जक किस तरह सुकून से बैठ सकते हैं। प्रतिरोध की जमीन हमारी रचनात्मकता से कैसे वंचित रह सकती है। मानव गरिमा के इस यज्ञ में हम कलाकार, बौद्धिक इस सत्याग्रह में खुद को समर्पित करते सरकार से अनुरोध करते हैं कि वह हठ त्यागे व अपने देशवासियों की पीड़ा समझे।
हम यह रेखांकित करना चाहते हैं कि ये अनशन न सरकार, न किसी पार्टी के विरुद्ध है। ये केवल उन कानूनों के विरुद्ध है, जिन्हें किसानों का एक बड़ा समुदाय आमान्य करता है। ऐसी विकट स्थिति में हमारी मांग है कि सरकार अपना मानवीय पक्ष सामने लाए।
जय हिंद।
हम हैं इस देश के नागरिक-
प्रयाग शुक्ल, रमेशचंद्र शाह, गिरधर राठी, उषाकिरण खान, ममता कालिया, गगन गिल, शैल मायाराम, पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रेरणा श्रीमाली, लीलाधर मंडलोई, कुमार अंबुज, ओम थानवी, सारा राय, कृष्ण मोहन झा, दीपक शर्मा, कनुप्रिया, आशुतोष भारद्वाज, कृष्ण कल्पित, विनोद भारद्वाज, विकास कुमार झा, रुस्तम सिंह, तेजी ग्रोवर, प्रतिभा राय, अनिरुद्ध उमट, आशुतोष दुबे, चरण सिंह पथिक, गोपाल माथुर, रामकुमार तिवारी, ब्रजरतन जोशी, मनीष पुष्कले, सुमन केशरी, गीता श्री, ईशमधु तलवार, सत्यनारायण, तसनीम, महेंद्र गगन, अविनाश मिश्र, लक्ष्मी शर्मा, नन्द भारद्वाज, विनोद पदरज, मोहन कुमार डहेरिया, अरुण देव, अजंता देव, सीमांत सोहेल, रोहिणी अग्रवाल, रासबिहारी गौड़, मायामृग, दीपचंद साँखला, अनुपमा श्रीनिवासन, प्रेमचंद गांधी, देवयानी भारद्वाज, माधव राठौड़, रूपा सिंह, पीयूष दइया, शम्पा शाह, स्मिता सिंह, मुकेश कुमार, प्रदीप कुमार, के लारी, विपिन चौधरी,अरुण माहेश्वरी, सरला माहेश्वरी, कनक तिवारी, मणि माला, मनमोहन शर्मा, रंजना अरगड़े, सुधेंदु पटेल, रविन्द्र व्यास, दयानन्द शर्मा, रश्मि भारद्वाज, सुशीला पुरी, संतोष अर्श, संदीप नाईक, देवप्रिय अवस्थी, राजीव कुमार शुक्ल,राजेश श्रीवास्तव, अशोक मिश्र।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जब मैंने अखबारों में पढ़ा कि गोरखपुर के चौरीचौरा कांड का शताब्दि समारोह मनाया जाएगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसका उदघाटन करेंगे तो मेरा मन कौतूहल से भर गया। मैंने सोचा कि 4 फरवरी 1922 याने ठीक सौ साल पहले चौरीचौरा नामक गांव की भयंकर दुर्घटना का मोदी हवाला देंगे और किसानों से वे कहेंगे कि जैसे गांधीजी ने उस घटना के कारण अपना असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया था, वैसे ही किसान भी अपना आंदोलन खत्म करें, क्योंकि लाल किले पर सांप्रदायिक झंडा फहराने की घटना से सारा देश मर्माहत हुआ है। लेकिन हुआ कुछ उल्टा ही।
मोदी ने उन प्रदर्शनकारियों की तारीफ के पुल बांधे, जिन्होंने 22 भारतीय पुलिसवालों को जिंदा जलाकर मार डाला था। इस जघन्य अपराध के कारण उन्नीस आदमियों को फांसी हुई थी और लगभग 100 लोगों को उम्र-कैद। गांधीजी ने इस भीड़ की हिंसा की कड़ी निंदा की थी लेकिन मोदी ने इन्हीं लोगों की याद में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए शताब्दि-समारोह की शुरुआत कर दी।
अपने पूरे भाषण में मोदी ने गांधीजी का एक बार नाम तक नहीं लिया। गोरखपुर के महंत और उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी मोदी को सावधान करने की बजाय उस समारोह को उ.प्र. के सभी जिलों में मनाने की घोषणा कर दी।
मुझे आश्चर्य है कि इस गांधी-विरोधी और बदनाम-कार्य को उत्सव का रुप देने की सलाह किस नौकरशाह या किस अति उत्साही कार्यकर्त्ता ने इन नेताओं को दे दी ? क्या इस समारोह का संदेश देश भर में यह नहीं जाएगा कि किसी को भी जिंदा जला देना ठीक है ? मोदी सरकार इसे गलत नहीं समझती है। चौरीचौरा में तो 22 पुलिसवालों को जिंदा जलाया गया था याने अब खिसियाए हुए किसान यदि ऐसी कोई नृशंस दुर्घटना कर डालें तो क्या वह भी सराहनीय होगी? यदि लालकिले पर किसी नासमझ लडक़े ने तिरंगे की बजाय कोई और झंडा फहरा दिया तो यह क्या कोई गंभीर मामला ही नहीं है?
किसान आंदोलन को ठंडा करने के लिए कुछ नौटंकियां हमारी सरकार रचाए, यह स्वाभाविक ही है लेकिन साल भर चलने वाली यह नौटंकी हमारी संकटग्रस्त वर्तमान अर्थ-व्यवस्था पर करोड़ों रु. का बोझ बढ़ा देगी और भाजपाई सरकारों को बदनाम भी कर देगी। यह ठीक है कि हमारे ज्यादातर नेताओं को पढऩे-लिखने का समय नहीं होता और उनसे इतिहासविज्ञ होने की आशा भी नहीं की जा सकती लेकिन उनसे यह अपेक्षा तो अवश्य की जाती है कि इस तरह की नौटंकियों का जब भी कोई प्रस्ताव उनके सामने लाया जाए तो वे विद्वानों और विशेषज्ञों से विनम्रतापूर्वक सलाह जरुर करें ताकि वे इतिहास के पटल पर शीर्षासन की मुद्रा में दिखाई न पड़ें। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ध्रुव गुप्त
हिंदी कविता और हिंदी सिनेमा में भी देशप्रेम, भाईचारे और मानवीय मूल्यों का अलख जगाने वाले गीतकारों में कवि प्रदीप उर्फ़ रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी का बहुत ख़ास मुक़ाम रहा है। वे अपने दौर में हिंदी कविता के एक अलग-से शख्सियत रहे। तत्कालीन कवि सम्मेलनों का उन्हें ज़रूरी हिस्सा माना जाता था। उनकी जनप्रियता ने सिनेमा के लोगों का ध्यान उनकी तरफ खींचा। सिनेमा में उनकी पहचान बनी 1943 की फिल्म 'किसमत' के गीत 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है' से। इस गीत के लिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया था जिसकी वज़ह से प्रदीप को अरसे तक भूमिगत रहना पड़ा था। उसके बाद के पांच दशकों में प्रदीप ने इकहतर फिल्मों के लिए सैकड़ों गीत लिखे। उनके लिखे कुछ बेहद लोकप्रिय गीत हैं - चल चल रे नौजवान, हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल, आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की, देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, बिगुल बज रहा आज़ादी का, आज के इस इंसान को ये क्या हो गया, ऊपर गगन विशाल, चलो चलें मां सपनों के गांव में, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला, अंधेरे में जो बैठे हैं ज़रा उनपर नज़र डालो, दूसरों का दुखड़ा दूर करने वाले, इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा, सूरज रे जलते रहना, मुखड़ा देख ले प्राणी जरा दर्पण में, पिंजरे के पंछी रे तेरा दरद न जाने कोय। अपने अलग मिजाज और अंदाज़ की वजह से शैलेंद्र, हसरत, शकील बदायूंनी, राजेन्द्र कृष्ण, साहिर, मजरूह, कैफ़ी आज़मी, एस एच बिहारी जैसे उस दौर के प्रमुख गीतकारों के बीच भी उनकी एक सम्माननीय जगह बनी रही। अपने लिखे दर्जनों गीत उन्होंने खुद गाए भी थे। गायिकी का उनका अंदाज़ भी सबसे जुदा था। उनके लिख़े और लता जी के गाए गैरफिल्मी गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी' को राष्ट्र गीत जैसी मक़बूलियत हासिल है। सिनेमा में अप्रतिम योगदान के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1998 में उन्हें सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान 'दादासाहब फाल्के अवार्ड' से नवाज़ा था।
स्व. प्रदीप की जयंती (6 फरवरी) पर उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में लोकतंत्र की हालत क्या है, इस मुद्दे पर हमारे देश में और दुनिया में आजकल बहस तेज हो गई है। इस बहस को धार दे दी है, किसान आंदोलन ने। इसके पहले नागरिकता कानून, धारा 370, मनमानी हत्याएँ और अल्पसंख्यकों में भय-व्याप्ति आदि मामलों को लेकर भारत के बारे में यह कहा जाने लगा था कि यहाँ लोकतंत्र का दम घोटा जा रहा है। इन मामलों के अलावा सत्तारुढ़ दल में भाई-भाई राज के उदय पर भी उंगली उठाई जा रही थी। किसान आंदोलन के बारे में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो, प्रसिद्ध पॉप आइकन रिहाना, पर्यावरण प्रवक्ता ग्रेटा टुनबर्ग और अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस के बयानों पर हमारे विदेश मंत्रालय ने आपत्ति की है। बाइडन-प्रशासन ने भी इसी मुद्दे पर आज टिप्पणी की है लेकिन वह रामाय स्वस्ति, रावणाय स्वस्ति– जैसी है।
इन सब टिप्पणियों से भी ज्यादा गंभीर खबर यह है कि लंदन की विश्व प्रसिद्ध ‘इकनोमिस्ट इंटेलीजेंस युनिट’ ने अपने ताजा सर्वेक्षण में निष्कर्ष निकाला है कि भारत का लोकतंत्र नीचे की तरफ लुढ़क रहा है और यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात हो रहा है। उसने अपने आँकड़ों के आधार पर कहा है कि 2014 में लोकतांत्रिक पैमाने में भारत का स्थान 27 वाँ था लेकिन मोदी-राज में वह फिसलकर 53 वें पर आ गया है। दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र उन 52 देशों की भीड़ में शामिल हो गया है, जो ‘लंगड़े लोकतंत्र’ कहलाते हैं। इस तरह के देशों में अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और ब्राजील जैसे देश भी शामिल हैं। इन चार प्रमुख देशों की कतार में खुद को खड़ा देखकर भारत संतोष जरुर कर सकता है लेकिन हमें सोचना चाहिए कि क्या वाकई हम भारत को स्वस्थ और सबल लोकतंत्र बना पाए हैं ? वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र तो अपने आप बन गया है, अपने जनसंख्या-विस्फोट की वजह से लेकिन उसे दुनिया का सबसे बढ़िया लोकतंत्र बनाने के लिए हम क्या कर रहे हैं ?
सबसे पहली बात तो यह कि भारत को अपना मनोबल हर हाल में ऊँचा रखना चाहिए। जिस देश ने इंदिरा गांधी–जैसी महाप्रतापी प्रधानमंत्री को कुर्सी से उतारकर चटाई पर बिठा दिया, उसकी तुलना आइसलैंड, नार्वे और न्यूजीलैंड जैसे ‘आदर्श लोकतंत्रों’ से करना उचित नहीं हैं। इनमें से ज्यादातर भारत के एक प्रांत के बराबर भी नहीं हैं और भारत-जैसी विविधता तो उनके लिए अकल्पनीय है। वे भारत–जैसे विदेशी आक्रमणों और सुदीर्घ गुलामी के शिकार भी नहीं रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र कुछ अर्थों में लंगड़ा जरुर है लेकिन आज भी वह काफी तेजी से दौड़ रहा है। हमारे राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र शून्य है लेकिन न्यायपालिका, संसद और खबरपालिका पर कोई अंकुश नहीं है। यदि इनमें से कोई डरपोक, निस्तेज, स्वार्थी और मंदबुद्धि है तो यह उसका अपना दोष है। व्यवस्था अभी तक तो पूरी तरह से लंगड़ी नहीं हुई है। (नया इंडिया की अनुमति से
-By Justice Markandey Katju
Many people, including the Indian External Affairs Ministry, have criticised the famous singer Rihanna for having supported the Indian farmers, saying it is the internal affair of India.
But by that logic, no one outside Germany should have criticised the persecution of the Jews in Germany during the Nazi era.
By that logic no one outside Pakistan should criticise the persecution of Ahmadis, Hindus, Sikhs, and Christians in Pakistan.
By that logic no one outside India should criticise the lynching and other atrocities on Muslims in India, or the massacre of Sikhs in 1984.
By that logic nobody outside America should criticise racialism in several parts of America and bad treatment of blacks.
By that logic no one outside China should criticise the persecution of the Uighur Muslim minority in China.
By that logic no one outside South Africa should have condemned apartheid and denial of the right to vote to blacks in South Africa when apartheid was prevailing.
By that logic no one outside Burma should have criticised the persecution of Rohingyas in Burma.
After all, these were all internal affairs of those countries.
-ईश्वर सिंह दोस्त
कुल मिलाकर भाजपा ने खुद को बंगाल में इतना मजबूत तो कर ही लिया है कि वह रस्साकशी का एक छोर बन सके। वहीं अगर माकपा एक बारगी खुद को यह समझा ले कि वह बंगाल में कभी सत्ता में थी ही नहीं, और वह एक ताजा शुरूआत कर रही है, तो उसके लिए राह आज भी कहीं ज्यादा आसान होगी।
बंगाल चुनाव अगर भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनने के रास्ते में एक और पड़ाव पार करना है तो तृणमूल कांग्रेस के लिए यह करो या मरो का सवाल है। क्योंकि बंगाल का चुनावी अतीत यही बताता है कि जो सत्तारूढ़ पार्टी हारती है उसके इतिहास बनने की संभावना ज्यादा रहती है। वहीं माकपा इस चुनाव को बंगाल में अपने पुनर्जीवन का अंतिम मौका मान कर चल रही है।
देश के उदारवादी- सेकुलर विमर्श के लिए भी यह करो या मरो वाला चुनाव है। भाजपा का बिहार में आना सेकुलरवाद के लिए इतना बड़ा झटका नहीं था, जितना बंगाल में आना होगा। बंगाल का महत्त्व त्रिपुरा से कई सौ गुना ज्यादा है। बंगाल भले ही एक छोटा राज्य हो, मगर भारत के वैचारिक विमर्श में उसकी जगह कई गुनी बड़ी है। भाजपा की रीति-नीति बंगाल की सांस्कृतिक विरासत का प्रतिलोम मानी जाती रही है। इसे जीतना उसे अभूतपूर्व आत्मविश्वास देगा। बंगाल में भाजपा के झंडे का फहरना भारत के हिंदू राज्य होने का मार्ग आसान कर देगा।
दीपंकर भट्टाचार्य वाली भाकपा माले से लेकर बहुत से वामपंथी बुद्धिजीवी तक तीसरी ताकत के रूप में उभरने के माकपा-कांग्रेस के अरमानों और दावों पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि क्या यह राज्य को थाली में रखकर भाजपा को देने के बराबर नहीं होगा। बंगाल के भीतर भी वाम व उदारवादी बुद्धिजीवियों में बड़ी बेचैनी है। वहीं माकपा के लिए भी बंगाल में यह जीवन-मरण का सवाल है।
जाहिर है कि अलग-अलग दलों और वैचारिक खेमों के लिए बंगाल में दांव काफी बड़ा है। फिलहाल दिखाई यही दे रहा है कि टक्कर टीएमसी और भाजपा के बीच हो रही है। अगर कोई बड़ा उलटफेर नहीं होता है तो सरकार ममता की ही बनेगी और भाजपा दूसरे नंबर पर रहेगी।
यह मानने की सबसे बड़ी वजह यह है कि भाजपा ने 2019 में केंद्र के चुनाव में जो प्रदर्शन किया, उसके पहले और बाद के हर विधानसभाई चुनाव में उसका वोट प्रतिशत दस से सत्रह प्रतिशत तक नीचे आया है। बंगाल में कुछ अलग होगा, यह सोचने की अब तक कोई वजह पैदा नहीं हुई है। 2016 के पिछले विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनावों की तुलना करें तो पता चलता है कि टीएमसी ने अपना वोट प्रतिशत बरकरार रखा था। सिर्फ एक प्रतिशत बदलकर यह पैंतालीस से चवालीस प्रतिशत हो गया था। वहीं भाजपा के वोट ने 11 प्रतिशत से 41 प्रतिशत की छलांग लगाई थी। इसका नुकसान वाम मोर्चे व कांग्रेस को हुआ। वाम का वोट 27.3 से घटकर 7 प्रतिशत पर और कांग्रेस का 12.3 से 6 प्रतिशत पर आ गया। वाम व कांगेस को 27 प्रतिशत नुकसान और भाजपा को 30 प्रतिशत फायदा हुआ। भाजपा की उम्मीदें इसी प्रदर्शन पर कायम हैं। मगर लगता यह है कि भाजपा का वोट फिर कम होगा और वाम व कांग्रेस का कुछ बढ़ेगा। यह परिवर्तन छह से पंद्रह प्रतिशत तक हो सकता है। इसीलिए भाजपा की कोशिश ध्रुवीकरण की है, ताकि वोट उसके व टीएमसी के बीच ही बंटें। मगर एंटी-इंकमबेंसी की बातों के बावजूद टीएमसी का जनाधार खिसकता नहीं दिख रहा है।
बंगाल में सांप्रदायिक और सेकुलर दोनों धाराएं मौजूद रही हैं। सांप्रदायिक सतह के नीचे और सेकुलर सतह के ऊपर। मगर बंगाली राष्ट्रवाद की धारा भी मौजूद रही है, जो बंगाली संस्कृति की विशिष्टता व गौरव के आख्यान में अभिव्यक्ति पाती रही है। जब देश भर में केंद्रीकरण के विरूद्ध संघीय या क्षेत्रीय भावनाएं भी उभार पर हैं, तब खास तौर पर विधानसभा के चुनाव में बंगाली मतदाता बंगाल की पार्टी टीएमसी के ऊपर हिंदी इलाके की पार्टी भाजपा को तरजीह देगा, इसकी वजह नजर नहीं आती। भाजपा जाने अनजाने बंगाली गौरव के मामले में एक के बाद एक गलती भी करती जा रही है।
भाजपा की उम्मीदें तीन और कारकों पर टिकी हैं। एक है औवेसी और उनके मददगार। ये सिर्फ ममता के वोट काट कर ही नहीं बल्कि बिहार की तर्ज पर मुसलिम लामबंदी का हौवा खड़ा कर हिंदू ध्रुवीकरण करने में भी मददगार हो सकते हैं। दिलचस्प बात है कि जो सेकुलर पार्टियां भाजपा के लिए सूडो-सेकुलर थी, वे ही अब औवैसी के लिए भी सूडो-सेकुलर हैं। भाजपा के वोट तो लोकसभा की तुलना में कम होंगे ही, अगर ममता के वोट भी कम होते हैं तो भाजपा की बात बन सकती है।
भाजपा के जीतने की दूसरी वजह वाम-कांग्रेस गठजोड़ को तीसरी ताकत के रूप में तरजीह मिलना हो सकती है। मगर माकपा की तमाम नेकनीयती के बावजूद इसकी सूरत नजर नहीं आती। बंगाल की राजनीति की एक और विचित्र खासियत है वर्चस्व की राजनीति, जिसका चेहरा शहरों में तो मतदाता की सहमति हासिल करने का रहता है, मगर गाँवों में यह सहमति के वर्चस्व और चौधराहट, दोनों का रूप भी ले लेता है। माकपा ने निश्चित ही एक दशक पहले जमीन गंवाने की शुरुआत अपनी किसान समर्थक छवि की वैधता को न संभाल पाने से की थी। मगर बाद में इसे जिस बात से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ, वह है गांवों में नागरिक समाज या कानून की निष्पक्षता का वाम शासन में भी मजबूत नहीं हो पाना।
हम याद कर सकते हैं कि इसी रवायत के चलते ही सत्ता परिवर्तन की बेला में वाम दलों से टीएमसी में जाने वालों की भीड़ खड़ी हो गई थी। टीएमसी ने इसके बाद गांवों में जैसी जोर-जबरदस्ती की और चौधराहट कायम की, उससे यह और बढ़ी। माकपा कार्यकर्ताओं पर कई जगह हमले हुए। हालत यहाँ तक आ गई कि माकपा कार्यकर्ता को अपना बचाव करना है तो या तो वह टीएमसी में जाए या मार खाते हुए संघर्ष के लिए तैयार रहे। इसी मुकाम पर 2014 के बाद भाजपा ने खुद को केंद्र सरकार की सरपरस्ती में दमखम के साथ पेश किया और गांवों के कई वाम समर्थक बचने के लिए भाजपा में भी गए।
यह भाजपा के लिए तीसरी उम्मीद है कि जैसे लोग पहले वाम से टीएमसी की तरफ गए थे, अब टीएमसी से भाजपा की तरफ आएंगे। बंगाल में यह होना आश्चर्यजनक नहीं होगा। मगर अभी लोग अपने आप नहीं जा रहे हैं, सौदेबाजी की भूमिका है। अभी तक टीएमसी के सत्रह विधायकों, एक सांसद और कांग्रेस के एक, माकपा के एक और भाकपा के एक विधायक का ‘ट्रांजेक्शन’ नक्की हो चुका है, निश्चित ही कुछ और पाइपलाइन में आ गए होंगे। मगर जनता के बड़े हिस्से में ममता की वैधता या कहें गांवों का ममता-सिस्टम अब तक दरका नहीं दिखता है। अगर जनता ममता के साथ रही तो ये दलबदलू नेता प्रभावहीन हो जाएंगे।
वहीं एक चौथा सवाल भी है। यह कि किसान आंदोलन का बंगाल के जनमानस पर क्या असर पड़ेगा? किसान बंगाल की राजनीति के केंद्र में रहा है। यह सही है कि पुराने किसान ध्रुवीकरण के बरक्स सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी मैदान में उतारा जा चुका है। मगर भाजपा की सफलता इस बात पर भी निर्भर होगी कि बंगाल में किसान विमर्श व किसान मानस कितना कमजोर पड़ता है। भाजपा की खूबी यह है कि वह अपना वर्ग चरित्र छिपाने का कोई प्रयास नहीं करती। मगर बंगाल में पुरानी वर्ग चेतना मद्धिम पड़ चुकी है।
फिर भी किसान चेतना अब तक बंगाली चित्त में फंसी हुई है। टीएमसी अगर बंगाली गौरव और किसान चेतना को आपस में प्रभावी ढंग से बुन पाई तो यह विमर्श सतह पर उतना मजबूत न दिखते हुए भी निर्णायक हो सकता है।
कुल मिलाकर भाजपा ने खुद को बंगाल में इतना मजबूत तो कर ही लिया है कि वह रस्साकशी का एक छोर बन सके। वहीं अगर माकपा एक बारगी खुद को यह समझा ले कि वह बंगाल में कभी सत्ता में थी ही नहीं, और वह एक ताजा शुरूआत कर रही है, तो उसके लिए राह आज भी कहीं ज्यादा आसान होगी। चौंतीस सालों की सत्ता को गंवा बैठने और फिर टीएमसी की दबंगई से अपने कार्यकर्ताओं को न बचा पाने का अपमान वर्तमान को देखने में बाधा भी बनता है। माकपा इकाइयां कितनी भी ईमानदारी से फिर से जमीन की राजनीति की कोशिश करें, उन पर चौंतीस सालों के शासन का ताना और बोझ रहता ही है।
-रति सक्सेना
क्या अगला युद्ध पानी के लिए होगा, अन्दाजा तो यही लग रहा है, जिस तरह से पानी की खपत बढ़ती जा रही है, और पानी का स्तर कम होता जा रहा है। खासतौर से मुझ जैसे को लगता है, जिसका बचपन राजस्थान के उन इलाकों से गुजरा, जहां पानी के नाम पर रेत थीं, बीकानेर आदि में आस पास को पानी से जूझते हुए देखा है, मां कहा करती थी कि जब वे जयपुर ब्याह के आईं थी तो घरों में नल नहीं थे, भिश्ती नहाने धोने का पानी मशक में भर कर रोजाना के हिसाब से पहुंचाता था, और खाने पकाने के लिए दो बाल्टी पानी महरी लाया करतीं थीं, मां भोपाल की थीं, जहां का ताल मशहूर है,फिर भी वे जल्द ही पानी को बचाना सीख गईं थीं।
घर पखारते वक्त, कपड़े धोते वक्त कितना कम पानी उपयोग में लाया जाता था , आज तो उसकी कल्पना करना ही मुश्किल है। फिर जयपुर में घरों घर नल आये, लेकिन मोटरे नहीं लगीं थी, तो समय पर पानी भरना सहेजना जरूरी था। पानी को ऐसे सहेजा जाता था जैसे कि जिन्दगी को बचाया जा रहा हो।
राजस्थान के शहर- शहर भटकते हुए हमने पानी के भी सभी रंग देखे। लेकिन जब केरल आई तो पानी बहुतायत से था, आसमान में भी और नलों में भी,फिर भी पानी बहाते मन कसकता था। जब मेरी बाहरी दुनिया खुली तो मुझे पर अक्सर ताना दिया गया कि राजस्थान में तो सारे अनपढ़ ही हैं, और मैं कहती कि मेरी मां तक पढ़ी-लिखी हैं, तो वे आंकड़े दिखाते। तब मेरा यही सवाल होता कि यदि तुम्हें रोजाना दस मील दूर से पानी भर कर लाना पड़े तो तुम पढ़ोगे या पानी लाओगे, यही नहीं पानी की कमी के कारण जब बच्चों तक को रात- रात जग कर खेतों में पम्प चलाना पड़े तो तुम स्कूल में सोओगे ही ना?
लेकिन अहंकार बहुत बुरा होता है, मुझे याद है कि एक बार त्रिवेन्द्रम में बड़ी पाइप लाइन टूट गई।
शहर में दो दिन तक पानी नहीं था, लेकिन सरकार टेंकर भेज रही थी, जहां से साझा पानी भरना होता था। उन दो दिनों में ही अखबार में खबर आई कि पानी न होने के कारण पति पत्नी में तकरार हुई, दोनों नौकरी शुदा थे, लड़ाई इतनी बढ़ी कि पत्नी ने फांसी लगा ली।
घटना दुखद थी, लेकिन मैंने पूछा, भई दो दिन भी पानी की कमी को नहीं सह पाये, हमारे यहां तो कुछ गांवों के बच्चों ने बरसात के दर्शन भी नहीं किए।
आज केरल में पानी की स्थति बहुत अजीब है, जहां मैं रहती हूँ , उस इलाके में बहुत कम समय के लिए पानी आता है, वह तो नई प्रणाली के तहत टंकिया लग गईं, मोटर लगा दी गईं। वहीं पूरे तीन सालों से लगातार बाढ़ आ रही है वह भी केरल के लगभग साठ प्रतिशत इलाकों में। यानी कि पानी की संयोजना ही खतरनाक हो रही है। यह अजीब स्थिति है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
क्या कभी कोई कल्पना कर सकता था कि मास्को से व्लादिवस्तोक तक दर्जनों शहरों में हजारों लोग सडक़ों पर उतर आएंगे और ‘पुतिन तुम हत्यारे हो’, ऐसे नारे लगाएंगे? लेकिन आजकल पूरा रूस जन-प्रदर्शनों से खदबदा रहा है। नर-नारी और बच्चे-बूढ़े भयंकर ठंड की परवाह किए बिना रूस की सडक़ों पर डंडे खा रहे हैं और गिरफ्तारियाँ दे रहे हैं। व्लादिमीर पुतिन के एक छत्र राज्य में यह सब क्यों हो रहा है ? यह हो रहा है, एलेक्सेइ नवाल्नी के नेतृत्व में। नवाल्नी कौन है ? यह 46 साल का चिर-युवा है, जिसने सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ देश व्यापी अभियान चला रखा है और जिसे अगस्त 2020 में जहर देकर मारने की कोशिश की गई थी।
नवाल्नी यों तो 2008 से ही कई सरकारी कंपनियों और नेताओं के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए रूस में प्रसिद्ध हो गए थे लेकिन पिछले दिनों जब एक हवाई यात्रा के दौरान वे अचानक बेहोश हो गए तो उन्हें इलाज के लिए जर्मनी ले जाया गया। जर्मन डाक्टरों ने सिद्ध किया कि उन्हें जहर दिया गया था। इसी तरह का ‘नोविचेक’ नामक जहर रूसी जासूस सर्गेइ स्कृपाल को भी देकर मारा गया था।
यूरोपीय संघ ने नवाल्नी के मामले में कई रूसी संस्थाओं पर प्रतिबंध भी लगा दिए हैं। वैसे नवाल्नी को कोई प्रभावशाली नेता नहीं माना जाता था लेकिन उसके उग्र राष्ट्रवादी तेवरों और भ्रष्टाचार-विरोध के कारण रूसी नौजवान उसके तरफ आकर्षित होने लगे थे। 2011 के चुनावों में उसका असर भी दिखाई पडऩे लगा। पुतिन की ‘यूनाइटेड रशिया’ पार्टी को वह ‘गुंडों और चोरों का अड्डा’ कहने लगा।
उसे दो-तीन बार जेल भी हुई लेकिन वह डरा नहीं। अब उसने पुतिन के भ्रष्टाचार पर सीधा आक्रमण शुरु कर दिया है। अब पुतिन की तरह उसे भी सारी दुनिया जानने लगी है। जर्मनी से इलाज करवाकर लौटने पर उसे दुबारा जेल में डाल दिया गया है।
नवाल्नी की रिहाई के लिए हजारों प्रदर्शनकारी गिरफ्तारियां दे रहे हैं। ‘ब्लेक सी’ पर अरबों रु. से बने महल को पुतिन का बताया जा रहा है। इन आरोपों को पुतिन बराबर रद्द करते आ रहे हैं और कह रहे हैं कि वे रूस में शांति और व्यवस्था बनाए रखने में कोई कसर नहीं रखेंगे। पश्चिमी राष्ट्र रूस की इस मुसीबत का मजा ले रहे हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-मैथ्यू हिल, डेविल कैंपेनेल और जोएल गुंटर
चीनी प्रशासन की ओर देश में वीगर मुसलमानों के लिए बनाए गए 'री-एजुकेशन' कैंपों में महिलाओं के साथ पूरी योजना के साथ रेप किया जा रहा है. उन्हें यौन प्रताड़ना का शिकार बनाया जा रहा है और भीषण यातनाएं दी जा रही हैं. बीबीसी की पड़ताल में ये नई बातें सामने आई हैं. बलात्कार, यातनाओं और बुरी तरह प्रताड़ित करने के ये वाकये आपको विचलित कर देंगे.
वे लोग (पुरुष) हमेशा मास्क पहने रहते थे. कोरोना का डर हो न हो, वे हमेशा मास्क पहने ही दिखते थे. वे सूट पहने दिखते थे. वे पुलिस की वर्दी में नहीं होते थे.
आधी रात के बाद किसी भी वक्त वे सेल में आ जाते और कुछ औरतों को उठा ले जाते थे. ये लोग उन्हें कॉरिडोर से घसीटते हुए 'ब्लैक रूम' में ले जाते थे. वहां कोई सर्विलांस कैमरा नहीं होता था.
जियावुदुन ने बताया,"कई रातों को यहां से इसी तरह महिलाओं को उठाकर ले जाया गया."
वह कहती हैं, "शायद ही मैं अपनी ज़िंदगी के इन डरावने हादसों को भूल पाऊंगी. अब तो मुंह से इन घटनाओं के बारे में एक शब्द नहीं निकालना चाहती. मेरे लिए इनका ज़िक्र तक करना मुश्किल है."
दस लाख महिला-पुरुषों को क़ैद रखने वाले कैंप
तुरुसुने जियावुदुन वीगर मुसलमानों को कैद कर रखने के लिए बनाए गए विशाल शिविरों के गुप्त नेटवर्कों में नौ महीने रह चुकी हैं. ये कैंप शिनजियांग प्रांत में बनाए गए हैं. स्वतंत्र आकलनों के मुताबिक़, चीन सरकार की ओर बनाए गए बड़े इलाकों में फैले इन शिविरों में दस लाख से अधिक महिला-पुरुषों को कैद कर रख गया है. चीन का कहना है कि ये शिविर वीगर लोगों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को दोबारा शिक्षित करने यानी 'री-एजुकेट' करने के लिए बनाए गए हैं.
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि चीन की सरकार ने धीरे-धीरे वीगर लोगों की धार्मिक और दूसरी आज़ादियां छीन ली हैं. अब उन पर सामूहिक रूप से निगरानी रखी जाती है. उन्हें हिरासत में ले लिया जाता है. उनके विचार बदलने की कोशिश की जाती और यहां तक कि उनकी जबरदस्ती नसबंदी भी कर दी जाती है.
वीगर लोगों के ख़िलाफ़ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने यह अभियान शुरू किया था. 2014 में शिनजियांग में वीगर अलगाववादियों की ओर से चरमपंथी हमले हुए थे. न्यूयॉर्क टाइम्स की ओर से लीक किए दस्तावेज़ों से ज़ाहिर होता है कि इसके बाद ही उन्होंने अधिकारियों को बिल्कुल भी 'दया न दिखाने' का निर्देश दिया था.
पिछले महीने अमेरिकी सरकार ने कहा था चीन की कार्रवाई नरसंहार की तरह है. जबकि चीन का कहना है कि उसके ऊपर लोगों को सामूहिक रूप से कैंपों में बंद रखने और ज़बरदस्ती नसंबदी करने के लगाए जा रहे आरोप बिल्कुल झूठे और बकवास हैं.
तुरुसुने जियावुदुन
कैंप में महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार के आरोप
इन कैंपों के अंदर जो रहा है उनका सीधा आंखों देखा ब्योरा तो बहुत कम है लेकिन यहां रखे गए कई लोगों और एक सुरक्षा गार्ड ने बीबीसी को बताया कि यहां व्यवस्थित तरीकों से महिलाओं के साथ रेप हो रहे हैं. वे यौन प्रताड़नाओं की शिकार बनाई जा रही हैं. उन्हें यातनाएं दी जा रही हैं.
इसी तरह के एक कैंप से रिहा होने के बाद तुरुसुने जियावुदुन शिनजियांग से भागकर अमेरिका पहुंच गईं. उन्होंने कहा कि महिलाओं को 'हर रात' सेल से उठा लिया जाता था. इसके बाद उनके साथ मास्क पहना कोई आदमी बलात्कार करता था. महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार भी होता था. खुद जियावुदुन के साथ यह सब हुआ. जियावुदुन ने कहा कि उन्हें प्रताड़ित किया गया. उनके साथ तीन बार सामूहिक बलात्कार हुआ. हर बार दो या तीन पुरुषों ने उनके साथ बलात्कार किया.
जियावुदुन इसके पहले भी मीडिया को यह बता चुकी हैं. लेकिन इस तरह के ब्योरे उन्होंने कज़ाकिस्तान से दिए थे. हर वक़्त वापस चीन भेज दिए जाने के डर के बीच वह कज़ाकिस्तान में रह रही थीं. उन्होंने कहा कि अगर उन्होंने इन कैंपों में यौन प्रताड़नाओं, यातनाओं और बलात्कार का ज़्यादा ज़िक्र किया होता तो शिनजियांग लौटने पर उन्हें और ज़्यादा यातनाएं मिलतीं. उन्हें यह सब कहते हुए शर्म आ रही थी.
जियावुदुन जो कह रही हैं, उसकी पूरी तरह जांच करना तो मुश्किल है क्योंकि चीन में रिपोर्टरों पर भारी पाबंदी है. हालांकि उन्होंने बीबीसी को जो यात्रा दस्तावेज और इमिग्रेशन रिकॉर्ड मुहैया कराए हैं उनसे उनके ब्योरे की टाइमलाइन मिलाई गई है. उन्होंने शिनजुआन काउंटी ( वीगर में इसे कुनेस काउंटी कहा जाता है) में इन शिविरों के जो ब्योरे दिए हैं वे उन सेटेलाइट तस्वीरों से मेल खाते हैं, जिनका बीबीसी ने विश्लेषण किया है. जियावुदुन ने कैंप के अंदर की ज़िंदगी और वहां यातनाओं, प्रताड़नाओं के जो ब्योरे दिए हैं वे दूसरे कैदियों के ब्योरे से मिलते हैं.
बीबीसी को 2017 और 2018 के कुनेस काउंटी की न्याय व्यवस्था से जुड़े कुछ आंतरिक दस्तावेज मिले थे. बीबीसी को ये दस्तावेज एद्रियन जेंज ने मुहैया कराए थे, जो शिनजियांग में चीन की नीतियों के बड़े विशेषज्ञ हैं. इन दस्तावेजों में कुछ 'प्रमुख समूहों' को 'शिक्षा के ज़रिये बदलने' की विस्तृत योजनाओं और इन पर आने वाले ख़र्च का ज़िक्र है. चीन में वीगरों के विचारों को बदलने के लिए प्रमुख समूहों' को 'शिक्षा के ज़रिये बदलने' जैसे जुमलों का इस्तेमाल किया जाता है. चीन प्रशासन के मुताबिक़, इसका मतलब "वीगरों के ब्रेन वॉश, हृदय-परिवर्तन, न्याय परायणता को मज़बूत करने और बुराइयों को हटाने' की प्रक्रिया से है."
बीबीसी ने चीन के इन शिविरों में 18 महीने तक रही एक कजाख महिला से बात की थी. उन्होंने कहा था कि उन्हें वीगर महिलाओं के कपड़े उतारने और उन्हें हथकड़ी लगाने के लिए बाध्य किया गया. उस दौरान वहां चीनी पुरुष थे. इसके बाद उन्हें कमरों को साफ़ करना पड़ा था.
गुलरिजा औलखान नाम की इस महिला ने कहा, "मेरा काम उनके कमर से ऊपर के कपड़ों को उतारने और उन्हें हथकड़ी लगाने का था ताकि वह हिल-डुल न सकें. उन्होंने यह बताने कि लिए अपनी कलाइयों को सिर के पीछे किया. महिलाओं के कपड़े उतारने के मामलों की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा, "मैं उन्हें कमरे में छोड़ कर निकल आती थीं, इसके बाद एक आदमी वहां आता था. फिर बाहर से कुछ लोग या पुलिसकर्मी आते थे. मैं चुपचाप दरवाजे पर बैठी रहती थी. जब कमरे में घुसे लोग चले जाते थे तो महिलाओं को नहलाने के लिए ले जाती थी."
उन्होंने कहा "वहां आने वाले चीनी पुरुष उन महिला कैदियों में से सबसे युवा और सुंदर महिलाओं को पेश करने के लिए पैसे देते थे."
इन शिविरों में रहने वाले कुछ कैदियों ने भी बताया था कि उन्हें भी इन सुरक्षा-गार्ड्स की मदद के लिए बाध्य किया गया. ऐसा न करने पर सज़ा की धमकी दी जाती थी. औलखान ने कहा कि वह लाचार थीं. न वह विरोध करती सकती थीं और न इन मामलों में दख़ल देने की ताक़त उनके पास थी.
उनसे पूछा गया कि क्या वहां व्यवस्थित ढंग से रेप करने का सिस्टम था? उन्होंने कहा, हां, रेप होता था.
उन्होंने कहा, "उन लोगों ने मुझे कमरे में जाने के लिए मजबूर किया. उन्होंने मुझे उन महिलाओं के कपड़े उतारने को बाध्य किया और उनके हाथ बांधने को कहा. इसके बाद मुझे कमरे से जाने के लिए कहा गया. "
जियावुदुन ने बताया कि कुछ महिलाओं को सेल से रात को कहीं और ले जाया गया और फिर वे लौट कर नहीं आईं. जिन महिलाओं की सेल में वापसी हुई थी, उन्हें कहा गया था कि उनके साथ जो हुआ वो किसी को न बताएं.
उन्होंने कहा, किसी को यह बताने की इजाज़त नहीं थी कि उनके साथ क्या हुआ. आप सिर्फ़ वहां चुपचाप पड़े रह सकते थे. यह सब वहां हर शख़्स की आत्मा को कुचलने के लिए किया जा रहा था.
बीबीसी की रिपोर्ट अब तक का सबसे खौफ़नाक सबूत
जेंज ने बीबीसी की इस रिपोर्ट के लिए जुटाए गए सुबूतों को अब तक का सबसे ख़ौफ़नाक सुबूत बताया है. उन्होंने कहा कि वीगरों पर जब से अत्याचार शुरू हुए हैं तब से अब तक के ये सबसे भयावह सुबूत हैं.
जेंज ने कहा, "इन सबूतों से यह साफ़ हो गया है हम सब अब तक सबसे ख़ौफ़नाक यातनाओं के बारे में सुनते आए हैं, वो सही हैं. अब महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन दुर्व्यवहार और यातनाओं के आधिकारिक और विस्तृत सुबूत मिल चुके हैं. हम जो सोचते थे उससे भी भयावह अत्याचार हुए हैं."
वीगर लोग ज़्यादातर मुस्लिम तुर्की अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं. उत्तर-पश्चिम चीन के शिनजियांग प्रांत में उनकी आबादी एक करोड़ दस लाख है. कज़ाकिस्तान से लगे इस इलाक़े में जातीय कजाख लोग भी रहते हैं. 42 साल की जियावुदुन वीगर हैं. उनके पति कजाख हैं.
जियावुदुन कज़ाकिस्तान में पांच साल रहने के दौरान 2016 के आख़िर में पति के साथ शिनजियांग लौटी थीं. यहां पहुंचने पर उनसे पूछताछ की गई. दोनों के पासपोर्ट ज़ब्त कर लिए गए. कुछ महीनों के बाद पुलिस ने उन्हें एक मीटिंग में आने को कहा. वहां और भी वीगर और कजाख लोगों को बुलाया गया था. इन सभी लोगों लेकर जाकर बंद कर दिया गया.
पहले डिटेंशन सेंटर में उनकी ज़िंदगी थोड़ी आसान थी. खाना अच्छा मिलता था और फ़ोन की भी सुविधा थी. लेकिन एक महीने बाद उन्हें पेट में अल्सर हो गया. इसके बाद उन्हें छोड़ दिया गया. उनके पति का पासपोर्ट लौटा दिया और वे काम करने कज़ाकिस्तान लौट गए. लेकिन अधिकारियों ने जियावुदुन को शिनजियांग में ही रोके रखा.
रिपोर्टों के मुताबिक़, लोग इन सबके ख़िलाफ़ ज़्यादा न बोलें इसलिए उन्हें रोके रखा जाता है. उनके रिश्तेदारों को एक ख़ास किस्म की ट्रेनिंग से गुज़ारा जाता है. 9 मार्च 2018 जियावुदुन को स्थानीय पुलिस थाने में रिपोर्ट करने को कहा गया. उस दौरान उनके पति कज़ाकिस्तान में ही थे. जियावुदुन ने कहा कि उन्हें 'और एजुकेशन' की जरूरत है.
जियावुदुन ने इस जगह की शिनाख्त की है. यहीं पर उन्हें रखा गया था. इसे एक स्कूल के तौर पर दिखाया गया है.
री-एजुकेशन के नाम पर यातनाओं का सिलसिला
जियावुदुन के मुताबिक़, उन्हें फिर उसी जगह भेज दिया गया है, जहां पहले कैद कर रखा गया था यानी कुनेस काउंटी में. लेकिन उस जगह को अब काफी बदल दिया गया था. इलाक़े को काफी बढ़ा दिया गया था. इस जगह पर बसों की लाइनें लगी थीं और इनसे लगातार हिरासत में लिए गए लोगों को उतारा जा रहा था.
महिलाओं से उनके गहने उतरवा कर रख लिए जा रहे थे. जियावुदुन के कान की बालियां खींच कर निकाल ली गई थीं. उनके कान से खून बहने लगा. उन्हें वहां से लेकर जा कर एक कमरे में ठूंस दिया गया,जहां पहले से ही कुछ महिलाएं कैद थीं. इनमें एक बुजुर्ग महिला थीं. जियावुदुन की बाद में उनसे दोस्ती हो गई.
कैंप के सुरक्षा गार्ड्स ने उस महिला के सिर पर बंधे कपड़े को खींच कर निकाल दिया. महिला ने लंबी ड्रेस पहन रखी थी और चीनी सुरक्षा गार्ड उन पर चिल्ला रहे थे. लंबी ड्रेस पहनना वहां धार्मिक रीति-रिवाज का हिस्सा है. लेकिन उस साल वीगरों को उसके लिए गिरफ़्तार किया जा रहा था. चीन सरकार की नज़र में यह अपराध था.
जियावुदुन ने कहा कि उस बुजुर्ग महिला के सारे कपड़े उतरवा दिए गए. उनके शरीर पर सिर्फ इनरवेयर रह गए थे. उन्होंने अपने हाथ से अपने शरीर को ढकने की कोशिश की.
"उन लोगों की यह हरकत देखकर मैं खूब रोई. उन बुजुर्ग महिला के तो आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. "
महिलाओं से कहा गया कि वे अपने जूते और बटन और इलास्टिक लगे सभी कपड़े सौंप दें. इसके बाद उन्हें उन्हें अलग-अलग ब्लॉक में बने सेल में ले जाया गया. किसी भी छोटे चीनी इलाक़े में ऐसी बिल्डिंग की कतार आपको दिख जाएगी.
पहले एक दो महीने कुछ नहीं हुआ. उन्हें सेल में चीन के प्रोपेगैंडा कार्यक्रम देखने को बाध्य किया जाता था. उनके बाल जबरदस्ती काट कर छोटे कर दिए गए थे.
फिर एक दिन पुलिस ने जियावुदुन से उनके पति के बारे में पूछना शुरू कर दिया. पुलिस वालों ने उन्हें ज़मीन पर गिरा दिया. विरोध करने पर उनके पेट पर लात मारी गई.
जियावुदुन ने बताया, "पुलिस वालों के जूते बेहद भारी और कड़े थे. इसलिए शुरू-शुरू में मुझे लगा कि वह किसी दूसरी भारी चीज़ से मुझे मार रहे हैं. लेकिन बाद में पता चला कि वह मेरे पेट को कुचलने की कोशिश कर रहे हैं. मैं लगभग बेहोश हो गई. ऐसा लगा रहा था मेरे अंदर से कोई गर्म लहर गुज़र गई होगी."
कैंप के एक डॉक्टर ने कहा कि हो सकता है मेरे शरीर के अंदर खून का थक्का जमा हो गया हो गया. जब मेरी कोठरी में मेरे साथ रहने वाली महिला ने बताया कि मुझे रक्तस्राव हो रहा है तो जवाब मिला यह सामान्य बात है. महिलाओं को तो रक्तस्राव तो होता ही है.
जियावुदुन के मुताबिक़, हर सेल में 14 महिलाओं को रखा जाता था. दो मंजिला बिस्तर थे. खिड़कियों पर छड़ें लगाई गई थीं. और ज़मीन में गड्ढे वाला एक शौचालय था. जब पहली बार उन्होंने एक महिला को बाहर ले जाते देखा तो समझ नहीं पाई कि क्या हो रहा है. उन्हें लगा कि उन महिलाओं को वहां से हटा कर कहीं और कैद में रखने के लिए ले जाया जा रहा है.
फिर 2018 को मई में किसी समय (जियावुदुन का कहना था तारीख़ ठीक से याद नहीं, क्योंकि क़ैद में तारीख़ का पता नहीं चलता) जियावुदुन और उनके सेल में रहने वाली 20-25 साल की महिला को बाहर ले जाया गया. उन्हें पहले मास्क पहने एक चीनी पुरुष के सामने पेश किया गया. उनके साथ रहने वाली महिला को दूसरे कमरे में ले जाया गया.
"जैसे ही वह अंदर गई वहां से चिल्लाने की आवाज़ आने लगी. मैं बता नहीं सकती आपको क्या कहूं. मैंने सोचा कि वे लोग उसे यातना दे रहे हैं. लेकिन यह नहीं सोचा था कि वे उस महिला के साथ बलात्कार कर रहे हैं."
जो महिला जियावुदुन को सेल से यहां लाई थी, उसने चीनी पुरुषों को उसके रक्तस्राव के बारे में बताया. लेकिन वो लोग महिला को गाली देने लगे. मास्क पहले चीनी आदमी ने मुझे डार्क रूम में भेजने के लिए कहा.
"महिला मुझे अगले कमरे में ले गई. वह लड़की भी वहीं थी. उनके हाथ में एक बिजली की छड़ी थी. मुझे नहीं पता था कि क्या चीज़ थी लेकिन उन्होंने इसे मेरे जननांग में घुसेड़ दिया. इसमें करंट था."
जो महिला मुझे यहां पकड़ कर ले आई थी, उसने जब कहा कि मेरी हालत खराब हो रही है और मुझे मेडिकल मदद की ज़रूरत है, तब जाकर उस रात डार्क रूम में मेरी यातनाओं को सिलसिला खत्म हुआ. मुझे मेरे सेल में ले जाया गया. लगभग एक घंटे के बाद मेरे साथ की लड़की को भी ले आया गया.
वो लड़की पूरी तरह बदल गई थी. वह किसी से बात नहीं कर रही थी. वह चुपचाप बैठ कर शून्य में देखा करती थी. जियावुदुन ने कहा, "वहां कई ऐसे लोग थे जो अपना दिमागी संतुलन खो बैठे थे."
सबक याद न करने पर खाना बंद
इन कैंपों में बने सेल के अलावा एक और अहम चीज़ थी. और वह थे उनके क्लासरूम. यहां शिक्षकों को इन कैदियों को 'री-एजुकेट' करने के लिए नियुक्त किया गया था. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह वीगर और दूसरे अल्पंख्यक लोगों की संस्कृति, भाषा और धर्म छीन लेने और उन्हें मुख्यधारा की चीनी संस्कृति में दक्ष करने की प्रक्रिया है.
शिनजियांग में रहने वाली उज़बेक महिला केलबिनुर सादिक चीनी भाषाओं की उन टीचरों में शामिल हैं जिन्हें ज़बरदस्ती इन कैदियों को पढ़ाने के लिए लाया गया था. लेकिन सादिक भाग गईं और सार्वजनिक तौर पर यहां के अनुभवों को बारे में बताने लगीं.
सादिक ने बीबीसी को बताया कि इन कैंपों पर काफी कड़ा नियंत्रण रहता है. वह रेप के बारे में सुन रही थीं. उन्हें रेप की अफ़वाह और चिह्न दिखे थे.
एक दिन सादिक नज़र बचा कर वहां एक चीनी महिला पुलिसकर्मी के पास पहुंच गईं. सादिक ने पूछा, "मैं यहां रेप के भयावह मामलों के बारे में सुन रही हूं. तुम्हें इसके बारे में कुछ पता है? उस महिला कर्मचारी ने कहा कि वह लंच के वक़्त बताएगी."
सादिक ने बताया, "फिर मैं कैंप के आंगन में चली गई. वहां बहुत ज्यादा कैमरे नहीं लगे थे. उस महिला पुलिसकर्मी ने बताया, "वहां रेप रूटीन बन गया है. रेप नहीं गैंगरेप होता है. चीनी पुलिस वाले न सिर्फ़ उन महिलाओं का रेप करते है बल्कि बिजली का करंट भी देते थे. उन पर भयावह अत्याचार हो रहे हैं."
सेटेलाइट तस्वीरों में शिनजियांग के नज़दीक दबानचेंग में तेज़ी से एक बड़े कैंप का निर्माण होते हुए दिख रहा है.
वीगर ह्यूमन राइट्स प्रोजेक्ट को सादिक ने बताया था कि उन्होंने बिजली के करंट वाली छड़ी के बारे में सुना है. महिलाओं को यातनाएं देने के लिए यह छड़ी उनके जननांगों में घुसेड़ दिया जाता है. यह बात जियावुदुन के बयानों से मिलती है. उन्होंने बिजली के करंट वाली छड़ी के इस्तेमाल की बात बताई थी.
सादिक ने कहा, "महिलाओं की चीख से पूरी बिल्डिंग गूंजती रहती थी, लंच और कभी-कभी मैं जब क्लास में होती थी तब भी ये चीखें सुनाई पड़ती थीं."
कैंप में काम करने लिए मजबूर की गईं एक और महिला टीचर सायरागुल सॉतबे ने बीबीसी से कहा, रेप तो आम हो गया था. गार्ड जिन लड़कियों और महिलाओं को अपने साथ ले जाना चाहते थे, उठाकर ले जाते थे."
सॉतबे कहती हैं कि कैंप में एक 20-21 साल की महिला का सबके सामने गैंगरेप होते उन्होंने ख़ुद देखा था. लगभग 100 क़ैदियों के सामने यह ख़ौफ़नाक हादसा हुआ था. उस महिला से सबके सामने गलती मानने को कहा गया.
सॉतबे ने बताया, "गलती मान लेने के बाद पुलिसवालों ने सबके सामने बारी-बारी से उसका रेप किया. जब वो ये सब कर रहे थे तो हर किसी को यह देखने के लिए बाध्य किया गया. जिसने भी विरोध किया, उसकी कलाइयां बांध दी गईं. आंखों पर पट्टी डाल दी गई. दूसरी ओर देखने के लिए कहा गया और सज़ा देने के लिए ले जाया गया. यह बेहद भयावह था. मुझे लगा मैं मर जाऊंगी. वास्तव में तो मर ही चुकी थी."
नसबंदी, टीके और बेहोश करने वाली दवाएं
उधर, कुनेस के कैंप में जियावुदुन को रहते हुए पहले हफ़्तों और फिर महीनों होने लगे. यहां रहने वाले क़ैदियों के बाल काट कर छोटे कर दिए गए थे. उन्हें क्लास में जाना पड़ता था. मेडिकल टेस्ट कराना पड़ता. इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता था कि ये टेस्ट क्यों कराए जा रहे हैं. हर 15 दिन पर ज़बरदस्ती गोलियां खिला दी जाती थीं. टीका लगवाना पड़ता था, जिससे बेहोशी छा जाती थी और शरीर के अंग सुन्न पड़ जाते थे.
महिलाओं को ज़बरदस्ती आईयूडी (गर्भनिरोधक उपकरण) लगा दी जाती था या फिर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी. एक 20 साल की महिला के साथ भी ऐसा ही हुआ. हमने उसकी ओर से दया की भीख मांगी."
एसोसिएटेड प्रेस की खोजी रिपोर्ट के मुताबिक, शिनजियांग में बड़े पैमाने पर लोगों की नसबंदी की जा रही है. लेकिन चीन की सरकार ने बीबीसी से कहा कि ये सरासर बेबुनियाद आरोप हैं.
लोगों को जबरदस्ती दवा देने, नसबंदी करने और टीका लगाने के अलावा जियावुदुन के कैंप में कैदियों से घंटों देशभक्ति गीत गवाए जाते थे. राष्ट्रपति शी जिनपिंग से जुड़े देशभक्ति टीवी कार्यक्रम देखने को बाध्य किया जाता था.
जियावुदुन ने कहा,"हम कैंप के बाहर की दुनिया के बारे में सोचना भूल चुके थे. मुझे पता नहीं कि उन्होंने हमारा ब्रेनवॉश किया या फिर यह टीकों और दवाओं का असर था. भरपेट खाने के अलावा हम कुछ सोच ही नहीं पाते थे. हमें इतना कम खाना मिलता था कि हम पूरा खाना खाने के बारे में ही सोचते रहते थे."
इन शिविरों में काम कर चुके एक गार्ड ने बीबीसी से एक वीडियो लिंक पर बात करते हुए बताया, "क़ैदियों का खाना रोक दिया जाता था. अगर क़ैदी किताबों का पूरा पाठ याद नहीं कर पाते या शी जिनपिंग की किताबों के सबक जस का तस नहीं सुना पाते तो उन्हें भूखा रखा जाता था."
यह गार्ड अब चीन से बाहर किसी और देश में रहता है.
जब कैदी टेस्ट में फेल हो जाते थे तो उन्हें अलग-अलग रंग के कपड़े पहनने को बाध्य किया जाता था. कपड़ों के रंग इस आधार पर बदले जाते थे कि आप कितनी बार फेल हुए हैं. एक बार फेल होने पर एक रंग और दो या तीसरी बार फेल होने पर दूसरे रंगों के कपड़े पहनने को दिए जाते थे. इसी आधार पर सज़ा का लेवल भी तय था. इसमें खाना रोकने से लेकर पिटाई तक शामिल थी.
गार्ड ने कहा,"मैं इन शिविरों में अंदर तक गया हूं. मैं पकड़े गए लोगों को यहां पहुंचा चुका हूं. अपनी आंखों से मैंने उन बीमार और दुखी लोगों को देखा है. निश्चित तौर पर उन्हें अलग-अलग यातनाओं से गुज़रना पड़ा होगा. मैं यह पक्के तौर पर कह सकता हूं."
तुरुसुने जियावुदुन
गार्ड के इस बयान की अलग से स्वतंत्र रूप से जांच तो संभव नहीं है लेकिन उसने कुछ ऐसे दस्तावेज मुहैया कराए जिनसे यह लगता है कि वह इन शिविरों में उस दौरान काम करता रहा था. उसने नाम न जाहिर होने की शर्त पर बीबीसी से यह बात की थी.
गार्ड ने कहा कि उसे सेल वाले इलाकों में होने वाले बलात्कारों के बारे में कुछ भी पता नहीं है. उससे पूछा गया कि क्या कैंप में कैदियों को बिजली का करंट दिया जाता था. इस पर उसने कहा, हां ऐसा होता था. करंट लगे औजारों का इस्तेमाल वे करते थे.
यातनाओं के बाद कैदियों को अलग-अलग 'अपराधों' में गलती कबूलने कहा जाता था. गार्ड ने कहा, "उनसे जो कबूलनामा लिया जाता वे मेरे दिल में हैं."
कैदियों वाले इन शिविरों में हर जगह शी जिनपिंग थे. उनकी तस्वीरें, नारों से ये पटे हुए थे. 'री-एजुकेशन' प्रोग्राम के वे केंद्र में थे. चीन में काम कर चुके ब्रिटिश राजनयिक और अब रॉयल यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूट के सीनियर एसोसिएट फेलो चार्ल्स पार्टन का कहना है कि वीगर लोगों के ख़िलाफ़ इस नीति का यह ढांचा बनाने वाले जिनपिंग ही हैं.
पार्टन कहते हैं, "इसके केंद्र में राष्ट्रपति ही हैं. यह नीति ऊपर से बनी हुई है. इसमें कोई शक नहीं कि यह शी जिनपिंग की ही नीति है. ऐसा नहीं है कि शी या पार्टी के उच्च अधिकारियों ने रेप या यातनाओं को मंजूरी दी है लेकिन निश्चित तौर पर उन्हें इन चीजों के बारे में पता होगा."
पार्टन कहते हैं, "मुझे लगता है टॉप लेवल पर वे इन चीज़ों के प्रति आंख मूंद लेना ही सही समझते हैं. चूंकि पार्टी लाइन कहती है कि इस नीति को बेहद कड़ाई से लागू किया जाए, लिहाजा ऐसा ही हो रहा है. इस नीति का पालन करने में कोई संयम नहीं बरता जा रहा है. मुझे नहीं लगता कि इस तरह की यातनाएं रोकने के निर्देश दिए जाएंगे."
हर किसी को ख़त्म कर देने की साज़िश
जियावुदुन का भी कहना है कि ज़ुल्म ढाने वालों ने इसे बंद नहीं किया है. वह कहती हैं, वे न सिर्फ़ रेप करते हैं बल्कि महिलाओं के शरीर को जहां-तहां काट खाते हैं मानों वो आदमी न होकर जानवर हों. यह कहते-कहते जियावुदुन की आंखों से आंसू बहने लगते हैं. टिशु पेपर से आंख पोंछते हुए उन्होंने खुद को शांत करने के लिए कुछ देर रुकना पड़ता है.
वह कहती हैं, उन्होंने हमारे शरीर के किसी हिस्से को नहीं छोड़ा. हर जगह काट खाया और अब इन भयावह चिह्नों को देख कर नफरत होती है.
"मेरे साथ ऐसा तीन बार हुआ. ऐसा नहीं कि एक आदमी ने ये सब किया. मेरे साथ हमेशा दो या तीन आदमियों ने ऐसा किया.
जियावुदुन ने बताया, "सेल में मेरे नज़दीक सोई एक महिला ने मुझे बताया उसे ज्यादा बच्चा पैदा करने के जुर्म में यहां लाया गया है. वह अचानक तीन दिन के लिए गायब हो गई. जब वह लौटी तो उसके सारे शरीर में निशान बने हुए थे."
उसकी मुंह से आवाज़ नहीं निकल रही थी. मेरी गर्दन में बांह डाल कर वह लगातार सिसकती रही. वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी.
शिविर में रेप और यातनाओं के इन आरोपों पर पूछने पर चीन सरकार ने बीबीसी के सवालों का सीधा जवाब नहीं दिया. इसके बजाय एक महिला प्रवक्ता ने बयान जारी कर कहा कि शिनजियांग में जो कैंप हैं, वे कैदियों को बंद करने की जगह नहीं है. ये 'वोकेशनल और ट्रेनिंग सेंटर' हैं.
प्रवक्ता ने कहा, चीन की सरकार अन्य नागरिकों की तरह ही जातीय अल्पसंख्यकों लोगों के अधिकारों और हितों को पूरा संरक्षण देती है. सरकार महिलाओं के अधिकारों की रक्षा को काफी अहमियत देती है."
जियावुदुन को 2018 के दिसंबर महीने में छोड़ दिया गया. उन्हें उन लोगों के साथ छोड़ा गया जिनके पति या पत्नी या फिर रिश्तेदार कज़ाकिस्तान में थे. जियावुदुन सरकार की नीति में इस बदलाव को अभी तक समझ नहीं पाई हैं.
जियावुदुन वाशिंगटन डीसी से थोड़ी दूर पर स्थित एक उपनगरीय इलाके में रहती हैं. उनकी मकान मालिक वीगर समुदाय की ही हैं.
सरकार ने उनका पासपोर्ट लौटा दिया. फिर वह कज़ाकिस्तान भाग गईं और फिर वहां से वीगर ह्यूमन राइट्स प्रोजेक्ट के सहयोग से अमेरिका चली गईं. वहां रहने के लिए आवेदन कर रही हैं.
वह वाशिंगटन डीसी से थोड़ी दूर पर स्थित एक उपनगरीय इलाक़े में रहती हैं. उनकी मकान मालिक वीगर समुदाय की ही हैं. दोनों महिलाएं साथ में खाना बनाती हैं और घर के बाहर की गलियों का चक्कर लगाती हैं. ज़िंदगी धीमी चल रही है.
जियावुदुन अपने घर में धीमा रोशनी रखती हैं क्योंकि कैंप में काफी चमकदार बल्ब लगे थे. अमेरिका पहुंचने के एक सप्ताह बाद उन्हें सर्जरी करानी पड़ी. उनका गर्भाशय हटा दिया गया है. उनके गर्भाशय को कुचल दिया गया था. वह कहती हैं, "मैं अब मां नहीं बन पाऊंगी." वह चाहती हैं उनके पति भी उनके साथ अमेरिका आ जाएं. अभी वह कज़ाकिस्तान में ही हैं."
कैंप से रिहा होने के बाद जियावुदुन कुछ वक्त तक शिनजियांग में ही थीं. वह लोगों को इस पूरे सिस्टम में फंसते और कैंप से रिहा होते देखती रहीं. उन्होंने देखा कि उनके समुदाय के लोगों पर इस नीति का कैसा असर पड़ रहा है. एक स्वतंत्र रिसर्च में कहा गया है चीन सरकार की इस नीति से पिछले कुछ वर्षों के दौरान शिनजियांग में जन्म दर घट गई है. विश्लेषकों ने इसे 'आबादी का कत्लेआम' करार दिया है.
जियावुदुन कहती हैं कि बहुत से लोग और महिलाएं यातनाओं, प्रताड़नाओं से तंग आकर शराब पीने के आदी हो चुकी हैं.
उन्होंने अपने सेल में रहने वाली एक कैदी को सड़क पर पड़े देखा. वह वही युवा महिला थी जिसे उनके सेल से ले जाया गया था. उसी महिला की चीख उन्हें वहां सुनाई दी थी. महिला नशे की आदी हो चुकी थी. उसका सिर्फ़ शारीरिक वजूद बचा हुआ. वैसे तो वह मर ही चुकी है. बलात्कार ने उसे खत्म कर दिया है.
जियावुदुन कहती हैं, "कहा जाता है कि लोग कैंप से रिहा हो रहे हैं. लेकिन मेरी नज़र में कैंप से निकलने वाले तो पूरी तरह ख़त्म हो चुके हैं."
वह कहती हैं, "यह सब एक सुनियोजित साज़िश है. निगरानी, कैद, कैंप में सरकारी विचारों की घुट्टी पिलाना, अमानवीय बर्ताव, नसबंदी और रेप. सब कुछ योजना बना कर होता है. इन सबका एक ही मकसद है- एक-एक को बरबाद कर दो. और हर किसी को उनके इस मकसद के बारे में पता है." (bbc.com)
-रिचर्ड महापात्रा
देश में प्रतिदिन 2,000 किसान खेती छोड़ रहे हैं, कृषि परिवारों के युवाओं का भी इस प्राथमिक व्यवसाय से मोहभंग हो गया है। इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि शायद अगली पीढ़ी में कोई किसान नहीं बचेगा
महामारी के दौरान कृषि एकमात्र ऐसा क्षेत्र रहा, जिसने वृद्धि दर्ज की है। भारत ने खरीफ सीजन में बंपर फसल भी दर्ज की। वहीं, इस बीच देश अपने ही प्रमुख किसानों के विरोध प्रदर्शनों का भी साक्षी बन रहा है। प्रदर्शन करने वाले इन अहम किसानों की मांग क्या है? वे सिर्फ उनकी उपज के लिए न्यूनतम मूल्य का आश्वासन चाहते हैं। यकीनन, हाल के इतिहास में पहली बार हम खेत, खेती और किसानों पर एक राष्ट्रीय बहस का विषय अनुभव कर रहे हैं। यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि देश में हर चौथा मतदाता एक किसान है, जो आर्थिक पतन के कारण संकटग्रस्त किसान बन चुका है।
इसमें कोई संदेह नहीं बचा है कि भारत की कृषि को दोबारा जीवित करना देश का सबसे प्रमुख एजेंडा है। लेकिन जैसे ही हम इस क्षेत्र के बारे में ज्यादा बातचीत करते हैं, हम इसमें और अधिक बीमारियों की तलाश कर लेते हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो अब हमें परेशान करता है, वह यह है कि आखिर कौन इस प्राथमिक आजीविका वाली गतिविधि को आगे बढ़ाएगा? देश में शायद अगली पीढ़ी में कोई किसान नहीं बचा होगा। जनगणना 2011 के अनुसार देश में हर दिन 2,000 किसान खेती छोड़ देते हैं। वहीं, कृषक समुदायों के बीच के युवा शायद ही कृषि में रुचि रखते हैं। यहां तक कि कृषि विश्वविद्यालयों से स्नातक करने वाले अधिकांश छात्र अन्य व्यवसायों में चले जाते हैं। इसे “भारतीय कृषि के समृद्ध दिमागों का पलायन” (एग्रो ब्रेन ड्रेन) कहा जाता है।
जब कृषि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है तो इसका काला साया खेत और गैर-कृषि कार्यबल दोनों पर पड़ रहा है। दिल्ली की एक बिजनेस इन्फॉर्मेशन कंपनी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2018-19 में कृषि में सकल मूल्य बीते 14 वर्षों में सबसे कम है जबकि कोविड-19 महामारी इस स्थिति को और गंभीर बनाने जा रही है।
मसलन, वर्ष 2018-19 में अनुमानित 91 लाख नौकरियां ग्रामीण भारत में और 18 लाख नौकरियां शहरी भारत में खत्म हो गईं। रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण भारत देश की कुल आबादी का दो-तिहाई है लेकिन इसमें 84 फीसदी की नौकरी छूट गई है। इससे पहले नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की उजागर हुई पीरियडिक लेबर फोर्स सर्वे 2017-18 की रिपोर्ट में बताया गया था कि 2011-12 और 2017-18 के बीच 3 करोड़ कृषि मजदूरों सहित कुछ 3.4 करोड़ अनौपचारिक मजदूरों ने ग्रामीण इलाकों में नौकरियां खो दीं। यह कृषि कार्यबल में 40 फीसदी की गिरावट थी।
भारत मुख्य रूप से ग्रामीण से शहरी अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है। इससे लोगों के व्यवसाय और आकांक्षाओं में भी बदलाव आता है। तात्कालिक चिंता यह है कि क्या भारत की खेती-किसानी से जुड़ी आबादी पहले की तरह डटी रहेगी या यह गैर-कृषि व्यवसायों में स्थानांतरित हो जाएगी। दूसरा बड़ा सवाल यह है कि क्या कृषि अपने किसानों-मजदूरों के अस्तित्व के लिए पर्याप्त आकर्षक होने के कारण जीवित रहेगी? बहुत कुछ ग्रामीण-शहरी स्थिति पर निर्भर होगा।
जनगणना की परिभाषा के मुताबिक, एक बस्ती को तब शहरी (नगरपालिका, निगम, छावनी बोर्ड और एक अधिसूचित नगर क्षेत्र समिति को छोड़कर) घोषित किया जाता है जब उसकी न्यूनतम आबादी 5,000 हो और कम से कम 75 फीसदी कामकाजी पुरुष आबादी गैर-कृषि कार्यों में लगी हुई हो। साथ ही जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी हो। ऐसी बस्तियों को सेंसस टाउन भी कहा जाता है। 2001 और 2011 की जनगणना के बीच ऐसे सेंसस टाउन की संख्या 1,362 से बढ़कर 3,894 हुई है। यह इंगित करता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोग खेती छोड़ रहे हैं या गैर-कृषि आजीविका में शामिल हो रहे हैं।
इतिहास में पहली बार हुआ कि 2011 की जनगणना के दौरान ग्रामीण भारत की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट दर्ज की गई है। ऐसे संकेत मिलते हैं कि कई ग्रामीण बेरोजगार होने की दशा में और छोटी भूमि होने के बावजूद खेती नहीं कर रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है कि भारत एक बड़े बदलाव की कगार पर है। यदि आर्थिक पहलू और रोजगार के नजरिए से देखें तो ग्रामीण भारत अब कृषि प्रधान नहीं है। नीति आयोग के लिए एक शोध पत्र में अर्थशास्त्री रमेश चंद (सरकारी थिंक टैंक के सदस्य) ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन का विश्लेषण किया है। उन्होंने अपने निष्कर्ष में कहा कि वर्ष 2004-05 के बाद से भारत एक गैर-कृषि अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया है।
किसान खेती छोड़ रहे हैं और गैर-कृषि नौकरियों में शामिल हो रहे हैं। यह एक आर्थिक निर्णय है जो उन्होंने लिया है क्योंकि वे बाद वाले विकल्प से अधिक कमाते हैं। एक किसान की आय एक गैर-किसान के पांचवें हिस्से के आसपास है। यह संरचनात्मक परिवर्तन 1991-92 में आर्थिक सुधारों के बाद आया। चंद के शोध से पता चलता है कि 1993-94 और 2004-05 के बीच कृषि क्षेत्र में वृद्धि 1.87 प्रतिशत तक घट गई जबकि गैर-कृषि अर्थव्यवस्था में विकास दर 7.93 प्रतिशत तक बढ़ गई। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान में भारी गिरावट के साथ आया।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 1993-1994 में जहां 57 फीसदी था, वहीं 2004-05 में यह 39 प्रतिशत ही बचा। कृषि आय की तुलना में अन्य आय तेजी से बढ़ रही है। कृषि और गैर-कृषि आय के बीच का अंतर 1980 के मध्य में 1:3 के अनुपात से बढ़कर 2011-12 में 1: 3.12 हो गया है। 2004-05 तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि से अधिक गैर-कृषि बन गई। यह चलन अब भी जारी है।
दशकों से ज्यादातर सरकारी नीतियां खेती छोड़ने वाले लोगों को गैर-कृषि क्षेत्रों में खपाने पर केंद्रित हैं। समकालीन नीतिगत ध्यान इन क्षेत्रों में बेरोजगारी से निपटने के लिए है और उन लोगों के लिए आजीविका सुनिश्चित करने के लिए है जो कृषि में जीवित रहने में सक्षम नहीं हैं। उदाहरण के लिए ग्रामीण भारत में गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों के सृजन में निर्माण क्षेत्र की वर्ष 2004-05 और 2011-12 के बीच हिस्सेदारी 74 फीसदी थी। बुनियादी ढांचे में निवेश पर सरकार की राजनीतिक समझ इसलिए विकसित हुई है क्योंकि यह वो क्षेत्र है जो ग्रामीण काम करने वालों को जगह देता है। लेकिन यहां एक समस्या है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव के बावजूद गैर-कृषि क्षेत्र नौकरी चाहने वालों को खपाने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि वे आवश्यक दर पर रोजगार पैदा करने में सक्षम नहीं हैं। मिसाल के तौर पर सुधार के पहले चरण के दौरान ग्रामीण रोजगार में 2.16 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई थी। उच्च आर्थिक वृद्धि के बावजूद सुधार के बाद के चरण में इसमें गिरावट हो गई। इसलिए सरकार का 5 खरब डॉलर अर्थव्यवस्था का मुख्य लक्ष्य भले ही हासिल हो जाए लेकिन यह उन क्षेत्रों में नौकरियों का सृजन नहीं करेगा जहां आवश्यकता है।
मौटे तौर पर यह एक बिना नौकरियों का विकास होगा और एक संकट के रूप में सामने आएगा। ऐसे में सवाल उठता है कि खेती छोड़ने वाले वे लोग कहां खपाए जाएंगे जो वर्तमान में बड़ी संख्या में या तो बेरोजगार हैं या फिर आधे-अधूरे रोजगार में लगे हैं। वे यह जानते हुए भी कृषि से चिपके रहते हैं कि यह लाभकारी नहीं है। लेकिन कोई कब तक नुकसान उठाने वाली आजीविका के भरोसे रह सकता है? सरकार की रणनीति है कि ऐसी ग्रामीण आबादी जो रोजगार की मांग करती है, उसे गैर-कृषि क्षेत्र में स्थानांतरित किया जाए। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के आंकड़ों से पता चलता है कि 2004-05 और 2011-12 के दौरान लगभग 3.4 करोड़ किसान कृषि से बाहर चले गए। खेती छोड़ने की वार्षिक दर 2.04 प्रतिशत है। नीति आयोग के अनुमान के अनुसार, यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो 2022 यानी जिस वर्ष तक आय दोगुनी करनी है, उस वर्ष तक कुल कार्यबल में किसानों की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत तक होगी।
भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में किसानों की घटती आबादी और कृषि स्रोतों से कम होती आय को लेकर इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट की ओर से हाल ही में जारी “द 2019 रूरल डेवलपमेंट रिपोर्ट” में ग्रामीण युवाओं के बीच बेरोजगारी को लेकर एक नया आयाम जोड़ा गया है। रिपोर्ट में आबादी की प्रवृत्तियों की गणना के कई अध्ययनों को शामिल किया है, साथ ही वैश्विक स्तर पर ग्रामीण युवाओं के आर्थिक भविष्य की भी बात की गई है। रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि ग्रामीण युवाओं की आबादी पूरी दुनिया में बढ़ रही है। खासतौर से एशिया और अफ्रीका के विकासशील और विकसित होने की दहलीज पर खड़े देशों में ऐसा दिख रहा है। वहीं, ग्रामीण युवा आबादी में यह वृद्धि ऐसे समय में आई है, जब इन क्षेत्रों में न तो प्रभावशाली आर्थिक विकास हुआ है और न ही आजीविका के विविध साधन हैं। अब प्रश्न उठता है कि इन्हें कहां रोजगार मिलेगा? इस पर विचार करें। करीब तीन-चौथाई ग्रामीण युवा उन देशों में रहते हैं, जहां कृषि मूल्य-संवर्धन सबसे कम है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है, “युवा लोगों के पास इन देशों में कृषि गतिविधियों में संलग्न होकर गरीबी से बचने का काफी कठिन समय है। अधिकांश बेहतर जीवन यापन करने के लिए अन्य क्षेत्रों में जाएंगे। यही प्रवृत्ति भारत में भी देखी गई है।” देश में ग्रामीण युवा बेरोजगारों का एक बड़ा प्रतिशत उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में पाया जाता है। मुख्य रूप से कृषि से जुड़े राज्यों में युवा आबादी बहुत बड़ी है जो खेती की तुलना में वैकल्पिक आजीविका स्रोतों की तलाश में है। अफ्रीकी देशों की तुलना में भारत में गैर कृषि रोजगार का स्तर काफी ऊंचा है। ठीक इसी समय पर अध्ययन में तर्क दिया गया है कि कृषि क्षेत्र में नए कार्यबल को जगह देने की भरपूर क्षमता है। करीब 67 फीसदी ग्रामीण युवा आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां कृषि की संभावनाएं हैं।
इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलमेंट (आईएफएडी) के अध्यक्ष गिलबर्ड एफ होंगबो ने कहा कि यदि हम इस पर कार्रवाई करने में विफल होते हैं तो यह बिना आशा और दिशा के मौजूद युवा आबादी को एक गुमराह पीढ़ी तैयार करने का जोखिम पैदा करती है। इसलिए कृषि की संभावना ग्रामीण युवाओं के लिए खेती को एक व्यवसाय के रूप में लेने के लिए विवश करने वाला कारक नहीं बची है। वे न तो अच्छी फसल पाते हैं और न ही कीमतें जो उनके खेती से मुंह मोड़ने का मुख्य कारण है। (downtoearth.org.in/hindistory)
-संध्या झा
कोदो, जिसे अंग्रेजी में कोदो मिलेट या काउ ग्रास के नाम से जाना जाता है, में कई औषधीय गुण हैं
आपने अक्सर बुजुर्गो को कहते सुना होगा – “नहाए के बाल और खाए के गाल अलग नजर आ जाते हैं। कहने को ये बहुत साधारण सी बात है, लेकिन इसके मायने बहुत गहरे हैं”। जैसा आपका खान-पान होता है चेहरे पर चमक भी वैसी ही होती है।
हमारी सेहत एक तरह का इनवेस्टमेंट (निवेश) है। जैसा निवेश करेंगे, रिटर्न भी वैसा ही मिलेगा। यानी जितना अच्छा खाना खाएंगे, सेहत उतनी ही अच्छी रहेगी। अच्छे खाने से मतलब संतुलित आहार से है। यानी आपके खाने में वो तमाम ज़रूरी पोषक तत्व होना लाज़मी हैं, जिसकी आपके शरीर को ज़रूरत है।
अफसोस की बात है कि ज़्यादातर लोग चटर-पटर, तला-भुना तो खूब खाते हैं, परंतु संतुलित आहार नहीं लेते। इसकी भी कई वजह हैं। पहली वजह तो यही है कि हम हर समय दौड़ते-भागते रहते हैं।हमारे पास हरेक काम करने का समय होता है, लेकिन, सुकून से खाना खाने का टाइम बिल्कुल नहीं होता।
लिहाजा जो मिलता है, आनन-फानन में वही खा कर सिर्फ पेट भर लेते हैं। कई लोगों को ये पता ही नहीं होता कि उन्हें कौन सी चीज़ खाने से कौन सा पोषक तत्व मिल सकता है। हम सभी खुद को कैसे तंदुरुस्त और सेहतमंद रखें, इसके लिए कई तरह की रिसर्च की जा रही हैं।
वैज्ञानिकों ने ऐसी सौ चीजों की लिस्ट बनाई है, जिन्हें खान-पान का हिस्सा बनाकर हम अपने शरीर को सभी ज़रूरी पोषक तत्व दे सकते हैं। इसी क्रम में चलिए, कोदो मिलेट से आपको रूबरू कराते हैं।
कोदो, जिसे अंग्रेजी में कोदो मिलेट या काउ ग्रास के नाम से जाना जाता है। कोदो के दानों को मिलेट के रूप में खाया जाता है और कोदो का वानस्पतिक नाम पास्पलम स्कोर्बीकुलातम हैं। कोदो औषधीय महत्व की फसल है। इसे शुगर फ्री चावल के नाम से ही पहचान मिली है। यह मधुमेह के रोगियों के लिए उपयुक्त आहार है।
स्वास्थ्य और खाद्य पदार्थों के विशेषज्ञ, वन्य आधारित खेती के जनक मिलेट मेन ऑफ़ इंडिया के नाम से जाने जाते हैं खादर वली। वली बताते हैं, “मिलेट स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए वरदान हैं, जिनके माध्यम से आधुनिक जीवन शैली की बीमारियों (मधुमेह, रक्तचाप, थायराइड, मोटापा, गठिया, एनीमिया और 14 प्रकार के कैंसर) को ठीक किये जा सकते हैं”।
वर्ष 2009 में जर्नल ऑफ एथनोफार्माकोलोजी में प्रकाशित एक शोध कोदो को मधुमेह के रोगियों के लिए स्वास्थ्यवर्धक पाता है। वहीं, वर्ष 2005 में फूड केमिस्ट्री नामक जर्नल में प्रकाशित शोध के अनुसार कोदो में फाइबर काफी अधिक मात्रा में पाए जाते हैं, जो लोगों को मोटापे से बचाता है।
वर्ष 2014 में प्रकाशित पुस्तक हीलिंग ट्रडिशंस ऑफ द नॉर्थवेस्टर्न हिमालयाज के अनुसार कोदो बुरे कोलेस्ट्रोल घटाने में भी मददगार साबित होता है।
कोदो क्या है?
कोदो का पौधा धान के पौधे जैसा ही होता है, लेकिन खास बात यह है कि इसकी खेती में धान से बहुत कम पानी की जरूरत होती है। लोग कोदो के बारे में इतना ही जानते हैं, लेकिन कोदो का पौधा 60-90 सेमी तक ऊंचा व सीधा होता है।
इसके बीज चमकीले, गहरे बैंगनी रंग के, छोटे, सफेद, गोल सरसों के समान होते हैं। इसका रंग श्यामला होता है। कोरोना काल ने लोगों के खानपान की आदत को भी बदला है और अब स्वाद के साथ लोग सेहत पर भी ध्यान दे रहे हैं।
प्राचीन इतिहास
खाद्यान्न फसलों में कोदों (पेस्पैलम स्कोर्बिकुलेटम) भारत का एक प्राचीन अन्न है, जिसे ऋषि अन्न का दर्जा प्राप्त है । ऐसा माना जाता है कि जब महर्षि विश्वामित्र जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो सबसे पहले उन्होंने कोदों अन्न की उत्पत्ति की थी।
यह एक जल्दी पकने वाली सबसे अधिक सूखा अवरोधी आदिवासी प्रिय फसल है। यह गरीबों की फसल मानी जाती है, क्योंकि इसकी खेती अनउपजाऊ भूमियों में बगैर खाद-पानी के की जाती है।
एक अनुमान के मुताबिक 3,000 साल पहले इसे भारत लाया गया। दक्षिणी भारत में, इसे कोद्रा कहा जाता है और साल में एक बार उगाया जाता है। यह पश्चिमी अफ्रीका के जंगलों में एक बारहमासी फसल के रूप में उगता है और वहां इसे अकाल भोजन के रूप में जाना जाता है। अकसर यह धान के खेतों में घास के समान उग जाता है।
कहां पाया जाता है?
भारत में कोदो पैदा करने वाले राज्य महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक, तमिलनाडु के कुछ भाग, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ पश्चिम बंगाल के कुछ भाग, बिहार, गुजरात एंव उत्तर प्रदेश है। और यह भारत के अलावा मुख्य रूप से फिलिपींस, वियतनाम, मलेशिया, थाईलैंड और दक्षिण अफ्रीका में उगाया जाता है। दक्कन के पठारी क्षेत्र को छोड़कर भारत के अन्य हिस्सों में इसे बहुत ही छोटे रकबे में उगाया जाता है।
औषधीय गुण
एंटी मधुमेह
कोदो के नियमित सेवन से ब्लड में उपस्थित ग्लूकोस के स्तर को कम किया जा सकता हैं, क्योंकि कोदो में मधुमेह विरोधी कंपाउंड क्वेरसेटिन, फेरुलिक एसिड, पी-हाइड्रॉक्सीबेन्जोइक एसिड, वैनिलिक एसिड और सीरिंजिक एसिड पाया जाता हैं।
एंटीऑक्सिडेंट और एंटी-माइक्रोबियल गतिविधि
कोदो में पॉलीफेनोल और एंटीऑक्सिडेंट गुण होते हैं। पॉलीफेनॉल्स मानव शरीर में पाए जाने वाले बैक्टीरिया जैसे स्टैफिलोकोकस ऑरियस, ल्यूकोनोस्ट ल्यूकोनोस्टोक मेसेन्टेरोइड्स, बेसिलस सेरेस और एंटरोकोकस फेसेलिस के खिलाफ लड़ने में सहायक होता हैं।
मोटापा विरोधी
कोदो में उच्च में फाइबर है जिससे यह वजन को बढ़ने से रोकता है। यह कोलेस्ट्रॉल और ट्राइग्लिसराइड के स्तर में वृद्धि को रोकने में भी मदद करता है और वजन का प्रबंधन करने और वजन घटाने को बढ़ावा देता है।
कोलेस्ट्रॉल और उच्च रक्तचाप विरोधी
हृदय रोग के लक्षण, उच्च रक्तचाप और उच्च कोलेस्ट्रॉल के स्तर से पीड़ित महिलाओं के लिए कोदो बहुत फायदेमंद है। (downtoearth.org.in)
-भोपाल से शुरैह नियाजी, मेरठ से अजय चौहान
कभी हिंदी-उर्दू मुशायरों की शान रहे मशहूर शायर बशीर बद्र आजकल भोपाल के अपने घर में गुमसुम ही रहते हैं. वैसे तो उनकी उम्र 85 साल की है, लेकिन याददाश्त के साथ नहीं देने की वजह से उनकी सक्रियता कम हो गई.
पुरानी बातें उनके जेहन से जा चुकी हैं. लेकिन इंसानियत और भाईचारे में विश्वास रखने वाला हर कोई उनके लिखे एक शेर को शायद ही कभी भूल सकता है.
उनका लिखा ये शेर है, "लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में."
दो पंक्तियों के शेर में वो सब है, जो हिंसा पर उतारू सांप्रदायिक भीड़ से जान बचाने वाला आदमी अपनी पूरी उम्र सोचता रहता है. बशीर बद्र भी यही सोचते रहे, वे जब तक अपने पूरे होशो हवास में रहे, उनकी आंखों के सामने वह मंज़र रह रहकर कौंधता ही रहा.
उन्होंने यह शेर तब लिखा था, जब 1987 के मेरठ में सांप्रदायिक दंगों के दौरान उनके घर को आग लगा दिया गया था. इन दंगों ने बशीर साहब को उस वक़्त तोड़ कर रख दिया. यह ऐसा वाक़या था, जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा नहीं था.
हालाँकि इस हादसे के उलट, दूसरी ओर इंसानी भाईचारे की मिसाल भी देखने को मिली, जब बशीर बद्र के घर और उनके परिवार को बचाने के लिए उनके पड़ोसी सामने आए.
त्यागी-तनेजा बने मिसाल
बशीर बद्र उस वक्त मेरठ कॉलेज में पढ़ाते थे और उनका परिवार मेरठ के शास्त्रीनगर इलाक़े में विकास कॉलोनी के मकान संख्या डी- 120 में रहता था. उनके पड़ोस में रहने वाले अनिल त्यागी बताते हैं, "पूरे शहर में दंगे हो रहे थे. लोग एक दूसरे की जान के प्यासे थे."
मेरठ में अप्रैल, 1987 से ही दंगे शुरू हो गए थे, जो तीन महीने तक चलते रहे और इसमें 100 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. हिंसा की शुरुआत होते ही बशीर बद्र अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ चले गए थे. लेकिन घर में उनका छोटा बेटा था.
AJAY CHAUHAN
उस वाक़ये को याद करते हुए अनिल त्यागी बताते हैं, "घटना के दिन सुबह के समय अचानक कॉलोनी के दक्षिण छोर से कुछ अनाज लोगों की भीड़ घुस आई, सुबह का समय था, अधिकतर लोग अपने घरों के अंदर थे. कालोनी में घुसे उपद्रवियों ने बशीर बद्र के मकान पर हमला बोल दिया. गनीमत ये रही कि उस समय मकान में कोई नहीं था."
"बशीर बद्र अपने परिवार के साथ दंगे के दौरान तनाव के माहौल को देखकर पहले ही अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ चले गए थे, घर पर उनका छोटा बेटा था, जिसे कालोनी में सब लोग बीनू के नाम से बुलाते थे. बीनू उस समय घर के बाहर पार्क में था, तभी भीड़ ने उनके घर पर हमला बोला दिया."
अनिल त्यागी के मुताबिक, "घर के अंदर जमकर तोड़फोड़ की गई, आगजनी की गई, कछ लोग उनका सामान भी लूट कर ले जाने लगे. इसी दौरान कॉलोनी के लोग इकट्ठा हो गए और बशीर बद्र के घर को बचाने के लिए उन उपद्रवियों से भिड़ गए. मैंने कई लोगों का सामना किया. कॉलोनी में जिन लोगों के पास लाइसेंसी बंदूक थी, उन्होंने फ़ायरिंग कर उपद्रवियों को वहाँ से भगाया. लेकिन तब तक काफ़ी नुक़सान घर को हो चुका था."
अनिल त्यागी ने बताया, "तनाव के माहौल को देखते हुए हमने बशीर साहब के बेटे बीनू को अपने घर में पनाह दे रखी थी. रात में वह हमारे घर में ही ऊपर की ओर बने कमरे में सोता था. जिस सुबह उनके घर पर हमला हुआ, उस पहली रात भी वह हमारे ही घर में सोया था."
कालोनी में रह रहे सुनील तनेजा ने बताया कि कॉलोनी के लोगों को इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं था कि उपद्रवी उनकी कॉलोनी में आकर हमला कर सकते हैं.
VANI PRAKASHAN
वे बताते हैं, "हमने बशीर बद्र के परिवार को सुरक्षित रखने का प्रयास किया था. उपद्रवियों को कॉलोनी से भगाने के लिए आमने-सामने की लड़ाई लड़ी थी. बाद में जब शहर के हालात सामान्य हुए, तब बशीर बद्र का परिवार वापस आया. कुछ समय तो वह यहाँ रहा, लेकिन इस घटना के एक साल बाद वर्ष 1988 में वे इस घर को बेचकर भोपाल चले गए."
इस घटना के बारे में बशीर बद्र इन दिनों कुछ बताने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन उनकी पत्नी राहत बद्र ने बीबीसी को बताया कि 1987 के दंगे में उनके घर परिवार की सुरक्षा करने के लिए उनके हिंदू पड़ोसी ही सामने आए थे.
राहत बद्र ने बीबीसी हिंदी से बताया, "बद्र साहब की याददाश्त जब ठीक थी, तब वे कई बार उस वाक़ये को याद करते थे. समाज में जब भी कहीं तनाव की बात आती, तो वे हमें बताते थे कि कैसे त्यागी और तनेजा परिवार ने हमलोगों की मदद की थी. अनिल त्यागी, सुनील तनेजा और दूसरे लोगों का ज़िक्र करते थे."
हालाँकि परिवार की सुरक्षा को देखते हुए बशीर बद्र ने अपना मेरठ का मकान दंगों के एक साल बाद ही बेच दिया था, जो उसके बाद भी बिकते हुए तीसरे-चौथे मालिक के पास पहुँच चुका है.
बशीर बद्र भले ही मेरठ से भोपाल चले गए हों, लेकिन उनके दिल में हिंसा की वो याद बनी रही.
दूसरी तरफ़ हिंसा के समय 22-23 साल के जवान रहे अजय त्यागी और सुनील तनेजा की उम्र अब 56-57 साल की होने जा रही है. इन लोगों में आज भी बशीर बद्र के मेरठ छोड़कर भोपाल में बस जाने की कसक दिखती है.
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सुनील तनेजा का कहना है कि कुछ लोग नहीं चाहते कि लोग अमन चैन से साथ साथ रहे, ये ऐसे कुछ लोग ही अपने स्वार्थ के लिए एक दूसरे से लड़ाते हैं. लेकिन आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो धर्म और जाति का भेदभाव भुलाकर एक दूसरे के सुख-दुख में साथ खड़े रहते हैं.
इंडिया टुडे की एक विशेष रिपोर्ट के मुताबिक़ मेरठ में तीन महीने तक चले दंगे में कम से कम 150 लोगों की मौत हुई थी और एक हज़ार से ज़्यादा लोग घायल हुए थे.
उस वक्त उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का शासन था और वीर बहादुर सिंह राज्य के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. मेरठ की सांप्रदायिक हिंसा में ही हाशिमपुरा में हुए नरसंहार का ज़िक्र भी होता है, जिसमें पुलिस और पीएसी की जवानों पर 42 मुस्लिम युवाओं की हत्या का आरोप लगा था.
हालाँकि सबूतों के अभाव में अदालत ने इस मामले में सभी 16 अभियुक्त पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया था.
बशीर बद्र की पीएचडी
वैसे बशीर बद्र को इस महीने के शुरु में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने पीएचडी की उपाधि दी है. यह डिग्री उन्हें पीएचडी करने के लगभग 46 साल बाद दी गई है. बशीर बद्र ने 1973 में पीएचडी कर ली थी. लेकिन थीसिस जमा करने के बाद अपनी व्यस्तता की वजह से वो उसे कभी ले ही नहीं पाए.
लेकिन उनकी पत्नी डॉ. राहत बद्र और बेटे तैयब बद्र ने इसके लिए काफ़ी कोशिश की, जिसके बाद उन्हें इस महीने डिग्री मिल गई. बशीर बद्र की पीएचडी का विषय था 'आज़ादी के बाद की ग़ज़ल का तनकीदी मुताला.'
बशीर बद्र स्वास्थ्य वजहों से बीते 15 सालों से मुशायरों में शिरकत नहीं कर पाए हैं, लेकिन इसके बावजूद आज भी अगर उनका शेर उनके बेटे पढ़ते हैं, तो उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है और कई बार तो वो ख़ुद उसे मुकम्मल कर देते हैं. (bbc.com)
-रुचिर गर्ग
मीना हैरिस ने भी किसानों के आंदोलन का समर्थन किया है और इसे दबाने की सरकार की साजिशों के खिलाफ गुस्सा ज़ाहिर किया है. मीना हैरिस वही अपनी कमला हैरिस की भांजी !
विश्व गुरु दुनिया में बहुत बदनाम हो रहे हैं ! दुनिया अब वो वाली नहीं रही भाई।
मीना हैरिस ने ही यह भी लिखा है कि फ़ासिज़्म कहीं भी हो वो लोकतंत्र के लिए हर जगह खतरा है! दुनिया इस खतरे की पदचाप सुन रही है।
दुनिया सिर्फ जनविरोधी सत्ताधीशों की नहीं है,दुनिया जनहितैषी लोगों से भरी पड़ी है।
दुनिया में लोकतंत्र के हिमायती जिस तादाद में है ना उसका अंदाज़ दरअसल कुंए के मेंढकों को है नहीं।
ये दुनिया को अर्नब गोस्वामियों की नज़र से ही पहचानते हैं।
इन्हें पॉप सिंगर रिहाना या पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग की आवाज़ की ताकत का अनुमान नहीं है।
दुनिया ऐसे संगीतकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, कवियों, चित्रकारों, जनहितैषी शासकों, राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों, पत्रकारों से भरी पड़ी है।
दुनिया भक्ति में लीन नहीं है।
दुनिया पढ़ रही है, जान रही है, लड़ रही है ...और रच रही है!
यहां मुंह बंद करोगे, इंटरनेट बन्द करोगे तो आवाज़ दुनिया के किसी और कोने से उठेगी, किसान की छाती पर यहां कीलें ठोकोगे तो दर्द दुनिया के किसी और कोने में होगा, रक्त किसी और कोने में निकलेगा और चीख किसी और कोने से सुनाई देगी !
विश्व गुरू जी दुनिया ट्रंप के साथ खत्म नहीं हो गई है ! दुनिया तो तब भी लड़ रही थी,रच रही थी जब इंटरनेट नहीं था।
1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने कुचल तो दिया था क्योंकि क्रांतिकारियों की मामूली तलवारों का मुकाबला अंग्रेजों की तोप से था लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ इस महान विद्रोह ने आज़ादी की जो चेतना पैदा की थी उस इतिहास को ज़रूर जान लेना चाहिए।
प्रबंधन में गहरी आस्था रखने वाले हे गुरुओं संघर्ष को कुचलने के जतन ज़रूर प्रबंधन का कौशल हो सकते हैं लेकिन संघर्ष तो दिलों से, विचारों से और इरादों से होता है।
लोकतंत्र ज़िद से नहीं चलता, ज़िद तो फ़ासिस्टों की पहचान है !
म्यांमार की सर्वोच्च नेता रहीं आंग सान सू ची
म्यांमार की सेना ने सोमवार सुबह देश की सर्वोच्च नेता आंग सान सू ची समेत उनकी सरकार के बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करके तख़्तापलट कर दिया है.
म्यांमार की राजधानी नेपिडॉ और यंगून में सड़कों पर सैनिक तैनात हैं. कई अंतरराष्ट्रीय टीवी चैनलों का प्रसारण प्रभावित हुआ है और माहौल में एक तरह की अनिश्चतता का माहौल है.
इसी बीच अमेरिका, ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र की ओर से म्यांमार की सेना की निंदा की गई है.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने ट्वीट करके कहा है, "मैं म्यांमार में तख़्तापलट और आंग सान सू ची समेत आम नागरिकों की गिरफ़्तारी की निंदा करता हूं. लोगों के मत का सम्मान किया जाना चाहिए और आम लोगों के नेताओं को रिहा किया जाना चाहिए."
वहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने म्यांमार पर नए प्रतिबंध लगाने की धमकी दी है.
लेकिन जहां एक ओर वैश्विक शक्तियां म्यांमार सेना पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दे रही हैं. वहीं, भारत की ओर से इस घटना पर काफ़ी सधी हुई टिप्पणी की गई है.
भारत सरकार की ओर से इस घटनाक्रम पर बेहद सधे शब्दों में बयान जारी किया है जिसमें सेना की निंदा नहीं की गई है. भारत के विदेश मंत्रालय ने म्यांमार की स्थिति पर 'गहरी चिंता' जताते हुए कहा है कि वो 'स्थिति पर नज़र रख रहा है'.
विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में कहा है कि "म्यांमार का घटनाक्रम चिंताजनक है. म्यांमार में लोकतांत्रिक परिवर्तन की प्रक्रिया में भारत ने हमेशा अपना समर्थन दिया है. हमारा मानना है कि क़ानून का शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बरकरार रखना चाहिए. हम स्थिति पर नज़र रख रहे हैं."
सोमवार सुबह तख़्तापलट की ख़बरें आने के बाद से एक सवाल खड़ा हुआ है कि दक्षिण एशिया में हुए इस घटनाक्रम का भारत पर क्या असर पड़ेगा.
बीबीसी संवाददाता सारिका सिंह ने म्यांमार में भारत के राजदूत रहे जी. पार्थसारथी से बात करके इस विषय को समझने की कोशिश की है.
लोकतांत्रिक मूल्यों से ज़्यादा अहम सुरक्षा?
जी. पार्थसारथी मानते हैं कि म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार से लेकर सेना तक सभी भारत से अच्छे रिश्ते रखना चाहते हैं.
वे कहते हैं, "भारत और म्यांमार के बीच 1,640 किलोमीटर की सीमा है. इस सीमा पर ऐसे कई कबाइली समूह हैं जो कि अलगाववादी हैं. ये म्यांमार की सरकार और भारत सरकार के ख़िलाफ़ रहते हैं. इनमें से कुछ गुटों को चीन का समर्थन भी है."
"क्योंकि भौगोलिक स्तर पर यहां एक त्रिकोण बनता है, भारत, म्यांमार और चीन का. अराकन सेना, काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी समेत 26 ऐसे और गुट हैं जो यहां लोगों को परेशान करते हैं. ये अलगाववादी गुटों से मिलते-जुलते गुट हैं. चीन इन गुटों को प्रोत्साहन देता है. ऐसे में वहां चाहें सैनिक सरकार हो या चुनी हुई सरकार हो, उसके साथ हमारे रिश्ते ठीक रहते हैं. हम म्यांमार के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देते हैं."
"चीन चाहता है कि वहां एक सरकार हो जो कि उसके राष्ट्रहितों को देखे, वह चाहता है कि उसे म्यांमार के पास बंगाल की खाड़ी तक हमारी सागरीय सीमा तक आने दिया जाए."
"हम आंग सान सू ची का समर्थन करते हैं. लेकिन इससे पहले हमारे अपने राष्ट्रीय हित हैं जो कि हमारे लिए ज़रूरी हैं. हमारे अंतरराष्ट्रीय हित इसमें है कि इन अलगाववादी समूहों को खुली छूट न दी जाए. क्योंकि इसका हमारी सीमा पर असर पड़ेगा. ऐसे में दिल्ली में कोई भी सरकार हो, वह उनके अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देती है. लेकिन जब कभी निजी तौर पर बातचीत होती है तब हम ज़रूर कहते हैं कि यह उनके ही राष्ट्रीय हित में होगा अगर उनके यहां लोकतांत्रिक सरकार आए."
चीन के तरफ़ झुकाव का ख़तरा
भारत की तरह चीन की ओर से भी इस तख़्तापलट को लेकर आक्रामक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है.
जी. पार्थसारथी बताते हैं, "चीन चाहता है कि वहां एक ऐसी सरकार हो जो कि उसके राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखे. चीन एक सैन्य सरकार चाहता है. चीन चाहता है कि वह म्यांमार के रास्ते से बंगाल की खाड़ी तक पहुंचे. ऐसे में हमें इन चीजों का ध्यान रखना चाहिए और हम ध्यान रखते भी हैं. हमारे रिश्ते म्यांमार के साथ बहुत अच्छे रहे हैं."
Myanmar-Map social media
"इतने अच्छे हैं कि हमने उनकी नौसेना को एक पनडुब्बी भी दी है. जब ज़रूरी पड़ती है तब सैन्य सहायता भी दी है. हमारे लिए उनकी एकता सर्वप्रथम है."
पार्थसारथी मानते हैं कि सू ची के प्रति भारत सरकार अपना समर्थन बनाए रखेगी लेकिन म्यांमार के साथ रिश्ते ख़राब करने के बारे में वो नहीं सोचेगी.
वे कहते हैं, "जब मैं राजदूत था तब हमने सैन्य प्रतिनिधियों से बात करके सू ची की रिहाई को लेकर कई बार बात की. लेकिन हम इन बातों को सार्वजनिक नहीं बनाते हैं. हम नहीं चाहते हैं कि किसी भी सरकार के साथ वहां हमारे संबंध बिगड़े हुए रहें. क्योंकि हमारे राष्ट्रीय हित एक दूसरे से मिलते हैं."
अंतरराष्ट्रीय मामलों को कवर करने वाली वरिष्ठ पत्रकार सुहासिनी हैदर ने द हिंदू में इस मुद्दे पर प्रकाशित एक लेख में बताया है कि अगर भारत की ओर से भी वैसा ही रिएक्शन आता है जैसा कि अमेरिकी सरकार ने दिया है तो इससे म्यांमार सेना के चीन की तरफ झुकने का ख़तरा पैदा हो जाता है.
अपने लेख में वह लिखती हैं कि रणनीतिक चिंताओं से आगे बढ़कर भारत म्यांमार के साथ मिलकर विकास के कार्यों से जुड़ी कई परियोजनाओं पर काम कर रहा है. इनमें इंडिया म्यांमार थाइलैंड ट्राइलैटरल हाइवे और कालादन मल्टीमॉडल ट्रांज़िट ट्रांसपोर्ट नेटवर्क के साथ-साथ सिट्वे डीप वॉटर पोर्ट पर विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने की कार्ययोजना शामिल है. (bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के पड़ौसी देश म्यांमार (बर्मा या ब्रह्मदेश) में आज सुबह-सुबह तख्ता-पलट हो गया। उसके राष्ट्रपति बिन मिन्त और सर्वोच्च नेता श्रीमती आंग सान सू की को नजरबंद कर दिया गया है और फौज ने देश पर कब्जा कर लिया है। यह फौजी तख्ता-पलट सुबह-सुबह हुआ है जबकि अन्य देशों में यह प्राय: रात को होता है। म्यांमार की फौज ने यह तख्ता इतनी आसानी से इसीलिए पलट दिया है कि वह पहले से ही सत्ता के तख्त के नीचे घुसी हुई थी।
2008 में उसने जो संविधान बनाया था, उसके अनुसार संसद के 25 प्रतिशत सदस्य फौजी होने अनिवार्य थे और कोई चुनी हुई लोकप्रिय सरकार भी बने तो भी उसके गृह, रक्षा और सीमा-इन तीनों मंत्रालयों का फौज के पास रखा जाना अनिवार्य था। 20 साल के फौजी राज्य के बावजूद जब 2011 में चुनाव हुए तो सू की की पार्टी ‘नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी’ को स्पष्ट बहुमत मिला और उसने सरकार बना ली।
फौज की अड़ंगेबाजी के बावजूद सू की की पार्टी ने सरकार चला ली लेकिन फौज ने सू की पर ऐसे प्रतिबंध लगा दिए कि सरकार में वह कोई औपचारिक पद नहीं ले सकीं लेकिन उनकी पार्टी फौजी संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग करती रही। नवंबर 2020 में जो संसद के चुनाव हुए तो उनकी पार्टी ने 440 में से 315 सीटें 80 प्रतिशत वोटों के आधार पर जीत लीं। फौज समर्थक पार्टी और नेतागण देखते रह गए। अब 1 फरवरी को जबकि नई संसद को समवेत होना था, सुबह-सुबह फौज ने तख्ता-पलट कर दिया। कई मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और मुखर नेताओं को भी उसने पकडक़र अंदर कर दिया है। यह आपातकाल उसने अभी अगले एक साल के लिए घोषित किया है। उसका आंरोप है कि नवंबर 2020 के संसदीय चुनाव में भयंकर धांधली हुई है। लगभग एक करोड़ फर्जी वोट डाले गए हैं। म्यांमार के चुनाव आयोग ने इस आरोप को एकदम रद्द किया है और कहा है कि चुनाव बिल्कुल साफ-सुथरा हुआ है। अभी तक फौज के विरुद्ध कोई बड़े प्रदर्शन आदि नहीं हुए हैं लेकिन दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने इस फौजी तख्ता-पलट की कड़ी भत्र्सना की है और फौज से कहा है कि वह तुरंत लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल करे, वरना उसे इसके नतीजे भुगतने होंगे। भारत ने भी दबी जुबान से लोकतंत्र की हिमायत की है लेकिन चीन साफ़-साफ़ बचकर निकल गया है। वह एकदम तटस्थ है। उसने बर्मी फौज के साथ लंबे समय से गहरी सांठ-गांठ कर रखी है। बर्मा 1937 तक भारत का ही एक प्रांत था। भारत सरकार का विशेष दायित्व है कि वह म्यांमार के लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी हो।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं) (नया इंडिया की अनुमति से)
-पुष्य मित्र
अभी जो नये कानून को लेकर विरोध है, वह एक क्षणिक मसला नहीं है। यह उस बड़ी लड़ाई का हिस्सा है, जो वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ की वैश्विक नीतियों के खिलाफ है। वे नीतियां जो दुनिया की हर सरकार की लोक कल्याणकारी नीतियों को खत्म कर देना चाहती है। जो मानती है कि दुनिया में बेहतरी सिर्फ पूंजीवाद और कारपोरेट के विकास से ही हो सकती है।
वे नीतियां जो गरीबों की मदद के लिए खर्च होने पर एक-एक पैसे पर रोक लगाना चाहती है। जो चाहती है कि सरकारें सिर्फ ऐसी नीतियां बनायें, जिससे कारपोरेट को अपना व्यापार तेजी से बढ़ाने में मदद मिले। वे नीतियां जो हर सरकारी सेवा की पूरी कीमत उस देश के गरीब नागरिकों से वसूलना चाहती है। जो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के बुनियादी सवालों को सरकार से लेकर कारपोरेट को सौंपना चाहती हैं। और इसे रिफार्म का नाम देती है।
यह सिर्फ इन तीन कानूनों का सवाल नहीं है, जो खेतिहार किसानों के नाम पर बड़ी कंपनियों के हित में बने हैं। यह सवाल उन तमाम नीतियों, कानूनों और फैसलों के लिए है, जो सरकारी कंपनियों को कमजोर करके उसे कारपोरेट को औने-पौने दाम पर सुपुर्द कर रही हैं। जो कालेजों की फीस बढ़ा रही है, रेल को गरीबों की सवारी के बदले पैसे वालों की सवारी बनाने पर तुली है। जो बीएसएनएल की कमाई को जिओ को और ओएनजीसी के बदले रिलायंस को देश के संसाधनों को सौंप रही है। जो सरकारी अस्पतालों के बदले अपोलो और मैक्स जैसे कारपोरेट अस्पतालों के आगे बढऩे के पक्ष में नीतियां बना रही हैं।
हमारा विरोध उन नीतियों से भी है जो ऑटोमेशन को बढ़ावा देती है और सरकारी पदों पर भर्ती नहीं करना चाहती। जो कारपोरेट और उद्योगों के हित में मजदूरों को 8 के बदले 12 घंटे तक काम करने के लिए विवश करना चाहती है। जो आंगनबाड़ी और राशन की दुकानों को बंद कराना चाहती है, जबकि देश के करोड़ों बच्चे कुपोषण और एनीमिया से ग्रस्त हैं।
यह सिर्फ भारत में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हो रहा है और ऐसा नहीं कि भारत में यह सिर्फ इसी सरकार के समय में हो रहा है, पिछले दो दशकों से यह लगातार हो रहा है। हां, यह जरूर सच है कि अब तक चोरी-छिपे और शर्मिंदगी के साथ होता था। अब पूरी बेशर्मी के साथ देश के संसाधनों को बेचा जा रहा है। पहली दफा कोई सरकार कह रही है कि मेरे खून में व्यापार है। सरकार सभी भारतीय कंपनियों को बेचने की प्लानिंग कर रही है। कालेजों की फीस, रेल का किराया, अस्पतालों का खर्च सब बेशर्मी के साथ बढ़ाया जा रहा है।
मजदूरों की मुसीबतें बढ़ रही हैं। छोटे व्यापारियों को परेशान किया जा रहा है। सरकारी स्कूलों और अस्पतालों को बंद करने की योजनाएं बोर्ड पर हैं। पेट्रोल के दाम बढ़ाये जा रहे हैं। गरीबों को दी जाने वाली हर तरह की सब्सिडी खत्म की जा रही है।
किसानों पर जो हमला हुआ है, वह इसी की एक कड़ी है। लक्ष्य है कृषि क्षेत्र का जो थोड़ा बहुत मुनाफा है, उसे छीन कर कारपोरेट को सौंपना। बड़ी कंपनियों को अपने हिसाब से खेती करवाने की छूट देना। उन्हीं सस्ती कीमत पर किसानों की फसल खरीद लेने की रियायत देना और वे जितना चाहें उतना माल समेट कर स्टोर कर लेने की इजाजत देना। यह सब उसी कड़ी का हिस्सा है।
यह एक अमूर्त किस्म का हमला है, जिसे देश की बड़ी आबादी समझ नहीं पा रही। उसे अंदाजा नहीं है कि आखिरकार इन सबका नुकसान उन्हें ही झेलना है। उनके ही बच्चों को ऊंची फीस चुकानी है और 8 के बदले 12 घंटे की नौकरी करनी है। अस्पतालों का लाखों का बिल भरना है। महंगे खाने के सामान को खरीदने के लिए मजबूर होना है। कुपोषित और एनीमिक होकर जीना है। अब रेल यात्रा स्वप्न होने जा रही है। यह सब गरीबों और मध्यम वर्ग को झेलना है। मगर उन्हें हिंदुत्व का अफीम थमा दिया गया है और वे उसे ही चाट कर मग्न है।
इस सरकार की यही सफलता है कि वह आहिस्ता-आहिस्ता लोगों का गला भी रेत रही है और लोग मगन भी हैं। उसका जयकारा भी लगा रहे हैं। कारपोरेट को ऐसा एजेंट फिर कहां मिलेगा।
मगर जो यह सब होता हुआ देख रहे हैं, वह कैसे चुप हो सकते हैं। इसलिए लड़ रहे हैं।
कबीर दास कह गये हैं-
सुखिया सब संसार है, खाये और सोये।
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये।
-नम्रता जोशी
उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ को अगर कोई सामान्य परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश के ही एक मल्टीप्लेक्स में देखे, जैसा कि मैं देख रही थी, तो शायद एक समानांतर नैरेटिव को बुन डाले।
वैश्विक कोरोना महामारी और उसके कारण लगने वाले लॉकडाउन ने हमें कई तरह से प्रभावित किया है जिनमें से एक है तारीखों को लेकर हमारे दिमाग में अत्याधिक सजगता का होना। मार्च, 2020 में मेरे लिए जो अत्यधिक महत्वपूर्ण तारीख थी, वह थी शुक्रवार 13 मार्च, 2020। सन 2020 में वह अंतिम दिन था जब मैं किसी मल्टीप्लेक्स में गई थी। मैं उस दिन होमी अदजानिया की फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ देखने गई थी। और मेरे जहन में कहीं कोई ख्याल भी नहीं था कि अति प्रतिभावान कलाकार इरफान खान की यह वह अंतिम फिल्म होगी जिसे मैं बड़े पर्दे पर देखूंगी और इसके बाद मेरे आगे एक सूखा बंजर महीना होगा जब मुझे थिएटर के इस अंधियारे में मद्धिम और तेज होती रोशनी में पर्दे पर चलते-फिरते चित्रों को समोसे और कॉफी के साथ आनंद लेते हुए दोबारा देखने का मौका नहीं मिलेगा।
मुझे याद भी नहीं पड़ रहा है कि अतीत में मैं कभी सिनेमाघर से एक लंबे समय तक दूर रहने के लिए इस तरह से बाध्य हुई थी। जब फिल्में मेरे लिए बतौर पत्रकार और एक समालोचक के, रोटी कमाने का जरिया बनी, उससे भी पहले से हर हफ्ते में एक फिल्म तो तय ही थी। फिल्मों से मेरे संबंधों के बीच में कभी बोर्ड परीक्षाओं जैसी महत्वपूर्ण और डरावनी चीज भी नहीं आ सकी। यहां तक कि स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म की बढ़ती पकड़ भी मुझे बड़े पर्दे के प्रति मेरी प्रतिबद्धता से डिगा नहीं सकी।
लेकिन जैसे-जैसे जुदाई के महीने बढ़ने लगे, वैसे-वैसे पर्दे की गैरमौजूदगी और खालीपन को भरने की कोशिशें बढ़ने लगीं। जिंदगी ने ओटीटी की पूर्वानुमानित दिशा की ओर रुख किया। अगर ‘गु लाबो-सिताबो’ और ‘शकुंतला देवी’ फिल्मों ने ओटीटी को अपना घर बनाने का निश्चय किया तो मुझे भी उनका दरवाजा खटखटाना ही था। सितंबर में कहीं जब टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह ऑनलाइन चल रहा था तो शिफ्ट 72 नाम के एक नए जीव ने मुझे अपनी तरफ आकर्षित किया। ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग फ्लेटफॉर्म ने मुझे अपनी गिरफ्त में धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (डीआईएफएफ) के प्रथम ऑनलाइन संस्करण के बादसे जकड़े रखा। अचानक से मुझे फिल्मों की यादों ने सताना बंदकर दिया।
मैंने हाल में ही वर्जुअल माध्यम से फिल्मों को देखने का और मार्केट में सबसे मिलने-जुलने का इतना असल जैसा अनुभव किया जैसा कि एनएफडीसी फिल्म बाजार में संभव होता। और जब इन गतिविधियों का समय समाप्त होने लगता है तो मैं सन डांस फिल्म समारोह में उपस्थित होने के लिए तैयार हो जाती हूं। यह फिल्म समारोह वादा करता है कि वह हमारे निजी स्क्रीन पर सामुदायिक रूप से देखने के अनुभव को दोबारा पैदा कर देगा, चाहे हम उन्हें दुनिया अलग-अलग कोनों से अलग- अलग समय पर देख रहे हों।
सुनने में चाहे यह बहुत खराब लगे लेकिन फिल्मों से हमारे प्रेम में वैश्विक महामारी आड़े नहीं आई। बेशक हम अपनी रोज की जगहों पर रोज के तरीकों से नहीं मिल सके लेकिन हमारी मुलाकात और बहुत सी जगहों पर होती रही, जैसे कि– विमियो, सिनानडो, फेस्टिवल स्कोप...। हां, यह इतना रोचक नहीं है जितना कि बाहर जाना, सफर करना, फिल्मों को ढूंढना होता है। लेकिन अगर सारी दुनिया की फिल्में स्वयं ही सारे जहान से चलकर आपके लिविंग रूम में आ जाएं तो कौन शिकायत करेगा।
इस दौरान हाल के व्यक्तिगत इतिहास में फिल्मों को लेकर कोई बड़ी घटना ऐसे सरकती रही जैसे कोई धागा हो। करीब- करीब नौ माह बाद मैंने 10 दिसंबर, 2020 को बड़े पर्दे पर एक फिल्म देखी- दीपा मेहता की ‘फनी बॉय’। यह मैंने ओपन एयर स्क्रीनिंग में सोशल डिस्टेन्सिंग के सारे नियमों का पालन करते हुए देखी। 20 दिसंबर, 2020 को मैंने डरते-डरते मल्टीप्लेक्स में कदम रखा लेकिन किसी फिल्म को देखने के लिए नहीं बल्कि सरमद की फिल्म ‘जिंदगी तमाशा’ पर हुए एक पैनल डिस्कशन में हिस्सा लेने के लिए। इस फिल्म को पाकिस्तान की ओर से ऑस्कर के लिए आधिकारिक तौर पर भेजा गया था। और फिर अचानक से शुक्रवार 22 जनवरी, 2021 को, यानी पूरे दस माह नौ दिन बाद, मैंने घर के पास के ही एक मल्टीप्लेक्स में सुभाष कपूर की फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ देखने का मन बनाया। ऐसा नहीं था कि मैं इस फिल्म को देखने के लिए मरी जा रही थी लेकिन उस समय मैंने ऐसा महसूस किया कि कुछ सीमाओं को लांघने की जरूरत होती है और कुछ बाधाओं पर– चाहे शारीरिक हों या मानसिक– विजय पाना आवश्यक होता है। यह पूर्णरूप से मेरा व्यक्तिगत निर्णय था और यह कदम मैंने सामान्य जीवन की ओर बहुत सतर्कता के साथ मास्क और सेनिटाइजर से लैस होकर उठाया था। यह एक ऐसा निर्णय जो शायद कोई और लेना पसंदन करे। यहां तक कि मैं भी शायद थोड़े समय के लिए दोबारा ऐसा फैसला न लूं। इन दिनों हम सभी के लिए दिमाग एक ऐसी उलझन बन गया है जिसके लिए फिल्में महत्वपूर्ण हैं भी और नहीं भी।
एक बिल्कुल चकाचक चमकती लेकिन खाली लॉबी, सुनसान पड़े स्नैक्स काउंटर, जोश से खाली द्वारपाल और दर्शकों में अपने सिवाय दो और लोग। यह वैश्विक महामारी का एक और नजारा था जो भविष्य की सूचना दे रहा था। सेनिटाइजर के लगातार छिड़काव के बीच सुनीता तोमर जो स्क्रीन पर भारत की तरफ से तंबाकू विरोधी अभियान का चेहरा हैं, से स्क्रीन पर दोबारा मुलाकात एक अजीब तरह से आश्वस्त करती है जबकि हमें पता है कि वह 2015 में गुजर चुकी हैं।
उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ को अगर कोई सामान्य परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश के ही एक मल्टीप्लेक्स में देखे, जैसा कि मैं देख रही थी, तो शायद एक समानांतर नैरेटिव को बुन डाले, विशेषकर तब जब इसका मुख्य किरदार उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती से प्रेरित हो। छोटे बालों वाली और चतुराई से खेल खेलने वाली ऋचा चड्ढा को क्या अपने होम ग्राउंड में स्वीकृति के स्वर सुनाई देते या विरोधके नारे? इस फिल्म में शायद वह एक अकेला महत्वपूर्ण क्षण है जब राज्य के दो पीड़ित समुदाय– दलित और मुस्लिम– स्टेज पर एक-दूसरे के साथ हाथ मिलाते हैं। इस क्षण को लेकर जनता से कैसी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़तीं?
यह फिल्म जब जाहिर तौर पर जाति विभाजनों के मुद्दे पर बुरी तरह लड़खड़ा रही थी और धर्म तथा जेंडर की राजनीति पर बहुत ही खराब मिले-जुले से संदेश दे रही थी, तब मैं हालात को लेकर केवल अंदाजा लगा सकती थी कि किस तरह से जाति, धर्म और जेंडर का मुखौटा लगाकर राजनीतिक ताकत के भूखे लोग उसे पाने के लिए कैसे-कैसे खेल खेलते हैं। वैसे, इस फिल्म ने हमें इसकी मात्र सतही तस्वीर दिखाई है। क्या यह हमने बहुत बार पहले नहीं देखा है? (navjivanindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आज दो बादल छाए हुए लगते हैं। एक तो सरकारों का बनाया हुआ और दूसरा अदालत का! उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की पुलिस ने उन छह पत्रकारों के खिलाफ रपट लिख ली है, जिन पर देशद्रोह, सांप्रदायिकता, आपसी वैमनस्य और अशांति भडक़ाने के आरोप हैं। इन आरोपों का कारण क्या है ? कारण है, 26 जनवरी के दिन उनकी टिप्पणियाँ, टीवी के पर्दों पर या ट्विटर पर! इन पत्रकारों पर आरोप है कि इन्होंने दिल्ली पुलिस पर दोष मढ़ दिया कि उसने एक किसान की गोली मारकर हत्या कर दी जबकि वह ट्रेक्टर लुढक़ने के कारण मरा था। लेकिन आरोप लगानेवाले यह क्यों भूल गए कि उन्हें जैसे ही मालूम पड़ा कि वह किसान ट्रैक्टर लुढक़ने की वजह से मरा है, पत्रकारों ने अपने बयान को सुधार लिया। इसी प्रकार उन पर यह आरोप लगाना उचित नहीं है कि उन्हीं के उक्त दुष्प्रचार के कारण भडक़े हुए किसान लाल किले पर चढ़ गए और उन्होंने अपना झंडा वहाँ फहरा दिया। पत्रकारों की टिप्पणियों के पहले ही किसान लाल किले पर पहुँच चुके थे। जऱा यह भी सोचिए कि इतना बड़ा दुस्साहसपूर्ण षडय़ंत्र क्या इतने आनन-फानन रचा जा सकता है?
जिन पत्रकारों के विरुद्ध पुलिस ने रपट लिखवाई है, उन्हें देशद्रोही या विघटनकारी आदि कहना तो एक फूहड़ मज़ाक है। उनमें से कई तो अत्यंत प्रतिष्ठित और प्रामाणिक हैं, हमारे नेताओं से भी कहीं ज्यादा। इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय का उसके फैसलों से कुछ असहमत होनेवाले और कुछ व्यंग्यकारों से नाराज़ होना भी मुझे ठीक नहीं लगता। हमारे न्यायाधीशों की बुद्धिमत्ता और निष्पक्षता विलक्षण और अत्यंत आदरणीय है लेकिन उनके फैसले एकदम सही हों, यह जरुरी नहीं हैं। यदि ऐसा ही होता तो ऊँची अदालतें अपनी नीची अदालतों के कई फैसलों को रद्द क्यों करती हैं और सर्वोच्च न्यायालय अपने ही फैसलों पर पुनर्विचार क्यों करता है ? कई फैसलों को देखकर मुझे खुद लगता रहा है कि हमारे जज अंग्रेज का बनाया मूल कानून तो बहुत अच्छा जानते हैं लेकिन भारत में न्याय क्या होता है, यह गांव का एक बेपढ़ा-लिखा सरपंच ज्यादा अच्छा बता देता है। इसके अलावा हमारे न्यायाधीशों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उनके हर फैसले को सरकार और जनता सदा सिर झुकाकर स्वीकार करती है। वह अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूज़वेल्ट (1933-45) की तरह अपनी सुप्रीम कोर्ट को यह नहीं कहती कि यह आपका फैसला है, अब आप ही इसे लागू करें। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश में अराजकता फैलाने और अदालत का अपमान करने की आजादी दे देनी चाहिए। हमारी अदालतों और नेताओं को कबीर के इस दोहे को हीरे के हार में जड़ाकर अपने गले में लटकाए रखना चाहिए:-
निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
कल एक महत्वपूर्ण खबर दब गई... दरअसल कल मध्यप्रदेश की बालाघाट पुलिस ने बूचडख़ाने में ले जाने के लिए गाय-बैलों की तस्करी कर रहे कुछ लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया विवेचना में पता लगा कि इनमें बीजेपी की छात्र इकाई भारतीय जनता युवा मोर्चा (क्चछ्वङ्घरू) के स्थानीय नेता भी शामिल हैं।
मामले की जाँच कर रहे पुलिस अधिकारी ने कहा, कि ‘मुख्य आरोपी मनोज और अरविंद गायों और अन्य जानवरों की मौबाजार (बालाघाट में पशुबाजार) से खरीदी करते थे। बाद में ये चरवाहों की मदद से मवेशियों को महाराष्ट्र सीमा पर मौजूद बोदालकासा गांव में ले जाते थे। यहां से एक व्यापारी पशुओं को महाराष्ट्र के बूचडख़ानों में भेजता था।’
बालाघाट पुलिस के एसपी अभिषेक तिवारी ने कहा, ‘हम मामले की जांच कर रहे हैं। यह गायों की तस्करी का संगठित गिरोह है। पुलिस आरोपियों को पकडऩे की कोशिश में है।’ मनोज परधी भाजयुमो का एक महासचिव बताया जाता है।
शायद आपको याद हो कि मशहूर पत्रकार निरंजन टाकले ने लगभग दो साल पहले अनेक पत्रकारों के सामने अपने एक उद्बोधन में यह खुलासा किया था कि संघ से जुड़े बजरंग दल के लोगों द्वारा चलाया गया जबरन वसूली नेटवर्क पशु व्यापारियों से पैसे कैसे वसूलता है !
इस सच्चाई का पता लगाने के लिए, उन्होंने खुद को लगभग 3 महीने तक रफीक कुरैशी नाम के एक मुस्लिम पशु व्यापारी के रूप में पेश किया .....ओर स्वंय इस नेटवर्क का हिस्सा बनकर राजस्थान और गुजरात के जानवर मंडी से मवेशियों को लाने ले जाने में शामिल रहे।
इस तीन महीनों के दौरान उन्होंने यह देखा कि बजरंग दल ट्रकों को रोककर जबरन वसूली में लगा है। अगर गाय का ट्रक लेकर पार करना है, तो साढ़े चौदह हजार से पंद्रह हजार तक देना होता है। भैंस का ट्रक पार करने के लिए साढ़े छह हजार और पारों के लिए पांच हजार तक की रकम देनी पड़ती है।।
निरंजन टाकले ने यह भी खुलासा किया कि जैसे बजरंग दल के नेता और उनके लोग अपनी इस उगाही को कायम रखने के लिए बीच-बीच में किसी को भी मार देते हैं, ताकि इस व्यापार पर उनका कब्जा बना रहे लोगों में डर बना रहे और उनका कारोबार चलता रहे।
यह है इन तथाकथित गौसेवकों की सच्चाई.....
-रमेश अनुपम
पूरे रास्ते वृक्षों की अटूट श्रृंखला, जंगली बेल और लताएं, भांति-भांति के विहंगमों का अविरल कलरव, निर्जन पथ, बैलों की गले में बंधी हुई घंटियों की सुमधुर ध्वनि, बाहें पसारे विशाल पर्वत श्रेणियां, अनंत निरभ्र आकाश और हरीतिमा की चादर ओढ़े शस्य श्यामला धरती किसी भी मनुष्य के ह्रदय के तारों को झंकृत कर सकती थी। किशोर नरेन्द्र भी अपने ह्रदय में कुछ ऐसा ही अनुभव कर रहे थे। नरेन्द्र के ह्रदय के तार भी प्रकृति की सुषमा को देखकर झंकृत हो उठे थे।
रायपुर में नरेन्द्रनाथ दत्त ( स्वामी विवेकानंद) की रायपुर यात्रा की चर्चा से पहले रायपुर नगर की भी थोड़ी चर्चा कर लेना मुनासिब होगा। रायपुर एक प्राचीन नगर है। ‘ The Imperial Gazetteer of India vol-XXI ( New Ed, 1908 ) P.60 में उल्लेखित कथन पर विश्वास करें तो रायपुर नगर का अस्तित्व नवमीं शताब्दी से है। अर्थात् आज से ग्यारह सौ वर्ष पहले से रायपुर एक नगर के रूप में अपनी पहचान बना चुका था। लेकिन तब वह रायपुर के नाम से नहीं किसी और नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में इस शहर का नाम रायपुर रखा गया।
अंग्रेज विद्वान D.R Leckie द्वारा सन् 1790 में लिखित सुप्रसिध्द ग्रथ 'Journal of a route to Nagpur by way of Cuttac , Burrasamber and Southern Burjare Ghaut in the year 1790’ (1880 ) श्च.180 के पृष्ठ का अवलोकन करें तो उस समय रायपुर प्राचीन नगर होने के साथ-साथ संपन्न तथा व्यावसायिक केन्द्र के रूप में संपूर्ण मध्य भारत में प्रसिध्द हो चुका था। अनेक विदेशी विद्वानों ने भी अपने-अपने ग्रंथ में इस प्राचीन नगर के वैभव का अपने-अपने तरीके से वर्णन किया है। 'Madhya Pradesh District Gazetteer : Raipur’ ( Bhopal, 1978 ) P.397
छत्तीसगढ़ पूर्व में हैहयवंशी कल्चुरी राजाओं के अधीन रहा है। सन् 1758 में कल्चुरी राजाओं को पराजित कर मराठा शासकों द्वारा छत्तीसगढ़ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया गया। सन् 1817-19 में इतिहास ने पुन: एक बार करवट ली जिसके चलते मराठों को परास्त कर अंग्रेजों ने छत्तीसगढ़ को अपने आधिपत्य में ले लिया।
कैप्टन एडमंड सन् 1818 में छत्तीसगढ़ के प्रथम अधीक्षक नियुक्त किए गए। उनके निधन के उपरांत उनके स्थान पर कैप्टन एगेन्यु छत्तीसगढ़ के अधीक्षक बनाए गए। कैप्टन एगेन्यु ने सन् 1824-25 के मध्य रतनपुर के स्थान पर रायपुर को अपना हेडक्वार्टर बनाया। एगेन्यु ने जयपुर की तरह ही रायपुर को भी सुव्यवस्थित एवं सुंदर बनाने का कार्य किया।
उस समय रायपुर घने जंगलों से आच्छादित एक ऐसा दुर्गम नगर माना जाता था जहां जाने के लिए अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी के मन में भय का संचार होता था। सन् 1861 में Central का पुर्नगठन किया गया। सन् 1862 में Central Provinces के नए चीफ कमिश्नर U Sir Richard Temple का रायपुर आगमन हुआ। सन् 1870 तक रायपुर शहर की पहचान छत्तीसगढ़ सहित समग्र मध्य देश में एक प्रमुख शहर के रूप में होने लगी।
सन् 1877 तक रायपुर आने-जाने के लिए कोई सुविधाजनक मार्ग नहीं था, न हीं सडक़ मार्ग और न ही रेल मार्ग। उस समय कोलकाता से आने वाले यात्री इलाहाबाद, जबलपुर होते हुए नागपुर पहुंचते थे फिर नागपुर से बैलगाडिय़ों से उन्हें रायपुर तक की यात्रा करनी पड़ती थी।
इस यात्रा में कई दिन लग जाते थे। नागपुर से रायपुर तक की यात्रा उस समय 183 मील की होती थी। नागपुर से भंडारा तक 40 मील का रास्ता पक्का रास्ता था। भंडारा से रायपुर तक की यात्रा जो लगभग 143 मील का रास्ता था, कच्चे मार्ग से करना पड़ता था। भंडारा के पास बहने वाली नदी वेनगंगा पर उस समय तक अंग्रेजों द्वारा पुल का निर्माण किया जा चुका था।
हमारे इस प्रथम कड़ी के नायक, महानायक, उन्नीसवीं शताब्दी के भारत के तेजस्वी सूर्य स्वामी विवेकानंद अर्थात् किशोर नरेन्द्रनाथ दत्त का आगमन भी इन्हीं दिनों रायपुर में संभव हुआ। सन् 1877 में चौदह वर्षीय किशोर नरेन्द्र अपने पिता विश्वनाथ दत्त, मां श्रीमती भुवनेश्वरी देवी, दस वर्षीया छोटी बहन जोगेन बाला तथा आठ वर्षीय भाई महेन्द्रनाथ दत्त के साथ पहली बार ट्रेन से इलाहाबाद, जबलपुर होते हुए नागपुर आए। नागपुर से बैलगाडिय़ों में बैठकर नरेन्द्रनाथ दत्त अपने पूरे परिवार के साथ अनेक दिनों की यात्राएं कर रायपुर पहुंचे थे।
एक अन्य बैलगाड़ी पर रायपुर के सुप्रसिध्द वकील तथा विश्वनाथ दत्त के मित्र भूतनाथ डे, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती एलोकेसी डे तथा उनका छ: माह का पुत्र हरिनाथ डे, जो कालांतर में विश्व के महानतम जीनियस के रूप में विख्यात हुए सवार थे। अन्य बैलगाडिय़ों पर खाने-पीने का सामान, नौकर-चाकर तथा रसोइया सवार थे। जंगली जानवरों से सुरक्षा और चोर लुटेरों के डर से एक बंदूकधारी सिपाही भी सुरक्षा के लिए उनके साथ था। इस तरह वे दस-पंद्रह बैलगाडिय़ों के कारवां के साथ नागपुर से रायपुर के लिए निकल पड़े।
बैलगाडिय़ों का यह कारवां शाम ढलते-ढलते किसी पूर्व निर्धारित गांव में थम जाता। वहां रसोइया भोजन बनाते, सब लोग भोजन कर उसी गांव में विश्राम करते, तत्पश्चात् सुबह स्नान आदि के पश्चात् पुन: यात्रा प्रारंभ हो जाती। दोपहर में फिर किसी गांव में रूककर भोजन और विश्राम के पश्चात् यह कारवां आगे की यात्रा में निकल पड़ता और सूर्यास्त होने के पश्चात् फिर किसी गांव में ठहर जाता।
कोलकाता के मेट्रोपोलिटन स्कूल के तीसरी कक्षा में पढऩे वाले छात्र नरेन्द्र के लिए जो उस समय उदर रोग से पीडि़त थे और जिसका ज्यादातर वक्त बिस्तर पर लेटे हुए बीत जाता था, यह यात्रा एक अलौकिक अनुभव से भरी हुई यात्रा सिद्ध हुई। 14 वर्षीय नरेन्द्र अपने पिता, मां, भाई-बहन के साथ पहली बार इतनी लम्बी यात्रा पर निकले थे।
पूरे रास्ते वृक्षों की अटूट श्रृंखला, जंगली बेल और लताएं, भांति-भांति के विहंगमों का अविरल कलरव, निर्जन पथ, बैलों की गले में बंधी हुई घंटियों की सुमधुर ध्वनि, बाहें पसारे विशाल पर्वत श्रेणियां, अनंत निरभ्र आकाश और हरीतिमा की चादर ओढ़े शस्य श्यामला धरती किसी भी मनुष्य के ह्रदय के तारों को झंकृत कर सकती थी। किशोर नरेन्द्र भी अपने ह्रदय में कुछ ऐसा ही अनुभव कर रहे थे। नरेन्द्र के ह्रदय के तार भी प्रकृति की सुषमा को देखकर झंकृत हो उठे थे।
(अगली किस्त कल)
-सुशोभित
गांधीजी के निजी सचिव प्यारेलाल ने लिखा है- 30 जनवरी को जब गांधीजी की हत्या हुई तो खबर सुनते ही नेहरू और पटेल दौड़े चले आए। नेहरूजी गांधीजी की चादर में मुंह छुपाकर बच्चों की तरह रोने लगे। सरदार पटेल, जो अभी चंद मिनटों पहले तक गांधीजी से बतिया रहे थे, पत्थर की मूरत की तरह अडोल बैठे रहे।
लॉर्ड माउंटबेटन पहुंचे। उन्होंने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से कहा, ‘गांधीजी ने अपनी अंतिम बातचीत में मुझसे कहा था, जवाहर और सरदार को समझाइयेगा कि उन दोनों की दोस्ती आज देश के लिए सबसे ज़रूरी है। वो तो अब मेरी सुनते नहीं, शायद आपका कहा मान लें।’ यह सुनते ही नेहरू और पटेल एक-दूसरे के गले से लिपटकर रो पड़े। कुछ समय बाद किसी ने कहा-‘प्रधानमंत्री जी, हमें अंतिम यात्रा की तैयारियां करना है। कार्यक्रम कैसे होगा, आप निर्देश दें।’
नेहरूजी ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। फिर किंचित प्रकृतिस्थ हुए तो चंद पल सोचकर बोले-‘जरा रुको, बापू से पूछकर आता हूं!’ और फिर, भूल से यह क्या कह गए, सोचते ही अवाक हो गए।
प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक ‘पूर्णाहुति’ के दूसरे खण्ड में इसका वृत्तांत देते हुए लिखा है-‘बीते तीस-पैंतीस सालों में हम सब अपनी तमाम दुविधाओं और समस्याओं और प्रश्नों को बापू के पास ले जाने के इतने आदी हो चुके थे कि हम भूल ही गए कि अब ऐसा कभी हो नहीं सकेगा।’
उस रात राष्ट्र के नाम अपने संदेश में नेहरूजी ने रूंधे गले से ठीक ही कहा था- ‘हमारे जीवन से रौशनी चली गई!’