विचार/लेख
विकास कुमार झा
आज इमरोज साहिब नहीं रहे। बंबई में 97 वर्ष की उम्र में वे चल बसे। वे एक बेहतरीन चित्रकार थे, पर उन्हें पंजाबी की प्रसिद्ध लेखिका स्व.अमृता प्रीतम के ‘प्रेम सहयात्री’ के रूप में युगों तक याद किया जाएगा। आज अचानक जब उनके गुजर जाने की खबर पढी, तो वर्ष 2009 के अप्रैल महीने में दिल्ली के हौज खास स्थित अमृता प्रीतम के आवास पर उनके संग देर तक हुई अंतरंग मुलाकात की याद बरबस हो आई। वह एक ऐसी शाम थी, जब इमरोज साहिब और हमारे बीच अमृता जी की लगातार अदृश्य उपस्थिति थी। इमरोज बड़े भरोसे से कहते रहे कि अमृता यहीं है। वह हमारी बातचीत चुप मुस्कराहट के साथ अभी सुन रही है। बातचीत के दौरान इमरोज साहिब उठकर रसोईघर में गए और तीन कप चाय बनाकर ले आए। उनके डाइनिंग रूम में हम बैठे थे, बस दो। मैंने थोड़ी हैरानी से पूछा, ‘यह तीसरी चाय?’
‘यह अमृता की चाय है!’ इमरोज साहिब ने बहुत इत्मीनान से मुस्कुराते हुए कहा, ‘वह हर पल यहीं है। मैंने कहा न आपको।’
इमरोज की आस्था के प्रतिवाद का कोई मतलब नहीं था। मैंने बात आगे बढ़ाई।
देश विभाजन के बाद पाकिस्तान में चले गए पंजाब के मूल निवासी इंदरजीत ने अमृता के कहने पर अपना नाम बदलकर ‘इमरोज’ कर लिया था। इमरोज फारसी शब्द है, जिसका अर्थ होता है- आज! इमरोज के लिए अमृता हमेशा ‘आज’ थीं। हौजखास के ‘के-25’ स्थित अमृता के उस उद्यानपूर्ण घर में वे पल-पल अमृता की सांस को अपने इर्द-गिर्द महसूस करते थे।हालांकि, 31 अक्टूबर, 2005 को ही अमृता चल बसी थीं, पर इमरोज सदैव अमृतामय थे। उन्होंने बिहंस कर कहा, ‘पचास वर्षों के साथ में हम दोनों ने कभी एक-दूसरे से यह नहीं कहा, ‘आइ लव यू!’ उन्होंने अपनी एक नज्म याद की, ‘सिर्फ प्यार ही अपनी किस्मत आप लिखता है। और सबकी किस्मत कोई और लिखता है।’
उन्होंने अमृता जी के कमरे की तरफ देखते हुए कहा, ‘यह देखिये अमृता अपने कमरे में अभी चली गई। उसे रात में लिखने की आदत है। आधी रात में उसे चाय की जरूरत होती है। मैं दबे पांव उठ चाय बनाकर उसे दे आता हूं। अमृता को मालूम है कि आधी रात को उसके कमरे में चाय आएगी।’
अप्रैल की उस शाम इमरोज ने फिर याद किया, ‘अमृता से ताल्लुक के शुरूआती दिनों में बंबई में मुझे एक नौकरी मिली। बहाली की वह चि_ी मैंने अमृता को पढाई। अमृता भावुक हो उठीं,बोलीं, ‘ठीक है तू चला जा। पर जाने के पहले का अपना यह तीन दिन मुझे दे दे।’ बहरहाल, उन तीन दिनों की दोपहरी में हम लगातार दिल्ली के एक पार्क में जाते रहे। दोपहरी में पूरे पार्क में सन्नाटा रहता था। उस सन्नाटे में एक खिले हुए अमलतास पेड़ के नीचे हम घंटों खामोश लेटे रहते थे। पीले फूलों से हमारा बदन ढक जाता था। तीन दिन गुजरने के बाद अमृता ने मुझ से कहा, ‘अब तू जा!’ पर मैं समझ सकता था कि अमृता की मानसिक स्थिति क्या है।
अमृता की बात रखने के लिए मैं बंबई तो चला गया लेकिन तीन दिनों बाद ही हमेशा के लिए अमृता के पास दिल्ली लौट कर आ गया।’
बहरहाल, अमृता ने इमरोज के लिए जो एहसास ताउम्र जिया, उसे इमरोज ने आखिरी सांस तक निभाया। अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में इमरोज को संबोधित करते हुए अमृता ने लिखा था, ‘परफेक्शन जैसा शब्द तेरे साथ नहीं जोडूंगी। यह एक ठंडी और ठोस-सी वस्तु का आभास देता है और यह आभास भी कि उसमें से न कुछ घटाया जा सकता है, न बढ़ाया जा सकता है। पर तू एक विकास है, जिससे नित्य कुछ झड़ता है और जिस पर नित्य कुछ उगता है। परफेक्शन शब्द एक गिरजाघर की दीवार पर लगे हुए ईसा के चित्र के समान है-जिसके आगे खड़े होने से बात ठहर जाती है। पर तुझसे बात करने से बात चलती है। एक सहजता के साथ जैसे एक सांस में से दूसरी सांस निकलती है। तू जीती हुई हड्डियों का ईसा है।’
अमृता जी के गुजरने के अठारह साल बाद आज दुनिया से रुखसत होने के ऐन पहले तक अपने प्रेम में नित-नित उदित और मुदित थे इमरोज! (फेसबुक पोस्ट)
सिद्धार्थ ताबिश
चावल, गेहूं और गन्ना उगाने को लोग उपलब्धि बता रहे हैं।। और किसानों की जय जयकार कर रहे हैं।। जबकि ये न तो कोई पुण्य का काम है, न ही प्रकृति को बचाने का, न ही मिट्टी को संरक्षित करने का।। ये पूरी तरह से व्यवसाय है।। वैसा ही व्यवसाय जैसे कोई भी शहर या किसी अन्य क्षेत्र का व्यक्ति करता है। किसानी भी उतना ही इज्ज़तदार पेशा है जितना कोई अन्य।। जैसे कसाई अपनी आजीविका के लिए पशुओं को काटता है वैसे ही किसान अपनी जीविका के लिए अन्न बोता है।। जब कोई भी व्यक्ति अपने स्वयं के खाने के लिए मुर्गा या मछली काटता है तो वो कसाई नहीं बन जाता है वैसे ही कोई भी व्यक्ति जो स्वयं के खाने के सब्ज़ी या अन्न बोता है तो वो किसान नहीं कहलाता है।। किसानी एक पेशा है, कोई दैवीय या पुण्य काम नहीं।। मेरा लक्ष्य या ज़ोर प्रत्येक व्यक्ति के स्वयं के लिए सब्ज़ी या अन्न बोने पर है।। मैं कमर्शियल किसानी के महिमामंडन के पक्ष में नहीं हूं।
आप उत्तर प्रदेश के हों या किसी अन्य प्रदेश के, अगर आप खेत रखे बैठे हैं और उसमें गन्ना, गेहूं, चावल और बाकी अन्न ही ही उगाते हैं तो आप महापुरुष या अन्नदाता नहीं बन जाते हैं मेरे लिए।। आप व्यवसाई हैं और आप गन्ना बोने के लिए जितनी भी मेहनत करते हैं वो अपने व्यवसाय के लिए करते हैं, कोई मानवतावादी कार्य आप नहीं कर रहे हैं।। आप की मेरे नजऱ में उतनी ही इज़्ज़त है जितनी शहर में बैठे किसी हलवाई, पंसारी, परचून वाले या गोलगप्पे वाले की।। हलवाई की मिठाई अगर बीमारी और परेशानी का कारण है तो अपना गन्ना उस बीमारी का मूल है। मगर लोग मिठाई वालों को कोसते हैं गन्ना बोने वालों को अन्नदाता बोलते हैं।। ये बेवकूफी हमारी नियति है।
मेरे लिए महापुरुष वो हैं जो प्रकृति और उसके साथ एकरूपता की बात करते हैं और उस विषय पर काम करते हैं। (बाकी पेज 8 पर)
जो ये समझते हैं कि अत्यधिक किसानी और अन्न बुवाई ने मिट्टी की जान को ख़त्म कर दिया है और ये दिल्ली और मुंबई के प्रदूषण से पांच सौ गुनी अधिक बड़ी समस्या है जो आने वाले समय में हमारी नस्लों के लिए काल बनेगी।। इसलिए व्यावसायिक किसानी मेरे लिए अब एक दुस्वप्न है
मैं ये कामना करता हूं कि अब शहरों के लोग गावों में ज़मीनें खरीदें और स्वयं के लिए सब्जिय़ां और बाकी चीज़ उगना शुरू करें ताकि व्यावसायिक किसानी पर लगाम लगाया जा सके।। हर व्यक्ति स्वयं का अन्नदाता बने और कमर्शियल अन्नदाताओं की महिमा बंद करे।। शहर के पढ़े लिखे और समझदार लोग यदि ज़मीनों पर काम करना शुरू करेंगे तो खेती के उन्नत और प्राकृतिक तरीके पर काम करेंगे।। वो फल सब्जियां और प्राकृतिक संतुलन को प्राथमिकता देंगे और वो ये सुनिश्चित करेंगे कि मीलों में फैले गेहूं और धान के खेत बिना फलदार वृक्षों और पेड़ों के प्रकृति को बुरी तरह से असंतुलित कर रहे हैं।। पढ़े लिखे लोग इसे संतुलित करें और कमर्शियल अन्नदाताओं से धरती, मिट्टी और खेतों की कमान अपने हाथों में ले लें।
ध्रुव गुप्त
भारतीय सिनेमा के महानतम संगीतकारों में एक नौशाद को सिनेमाई संगीत में भारतीय शास्त्रीय संगीत के सुर और रस घोलने के लिए बड़े एहतराम के साथ याद किया जाता है। हिंदी सिनेमा के सबसे ज्यादा मधुर और कालजयी गीत उनके ही दिए हुए हैं। ऐसे गीत जो सुकून देते हैं और इस अहसास को गहरा करते हैं कि जीवन में अभी बहुत कुछ सुंदर, शांत और कोमल बचा हुआ है।
लखनऊ के अकबरी गेट के कांधारी बाज़ार की गलियों से शुरू होकर 1940 में मुंबई पहुंचा उनका संगीत का सफर 1944 की फिल्म ‘रतन’ से उरूज़ पर पहुंचा था। उसके बाद जो हुआ वह आज इतिहास है। अपने छह दशक लंबे कैरियर में उन्होंने जिन धुनों की रचना की वे आज हमारी सांगीतिक विरासत का अनमोल हिस्सा हैं। नौशाद को संगीत की बारीकियों की ही नहीं, संगीत की नई प्रतिभाओं की भी पहचान थी।
मोहम्मद रफ़ी और सुरैया जैसे महान फनकारों को सामने लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। अमीरबाई कर्नाटकी, निर्मलादेवी, उमा देवी उर्फ टुनटुन को गायन के क्षेत्र में उन्होंने ही उतारा था। नौशाद ही थे जिन्होंने उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, उस्ताद अमीर खां और डीवी पलुस्कर जैसी शास्त्रीय संगीत की महान विभूतियों से भी उनकी अनिच्छा के बावजूद अपनी फिल्मों में गीत गवा लिए। उस दौर में जब राज कपूर के लिए मुकेश और दिलीप कुमार के लिए रफी की आवाज रूढ़ हो चली थी, नौशाद ने फिल्म ‘अंदाज’ में दिलीप कुमार के लिए मुकेश और राज कपूर के लिए रफ़ी की आवाज का पहली बार उपयोग कर सबको चौंका दिया था।
बहुत कम लोगों को पता है कि नौशाद एक अज़ीम शायर भी थे जिनका दीवान 'आठवां सुर' के नाम से प्रकाशित हुआ था। संगीतकार नौशाद ने शायर नौशाद को पृष्ठभूमि में ढकेल रखा है। आज मरहूम नौशाद को उनके जन्मदिन पर खिराज, उन्हीं की एक गज़़ल के चंद अशआर के साथ !
आबादियों में दश्त का मंजऱ भी आएगा
गुजऱोगे शहर से तो मिरा घर भी आएगा
अच्छी नहीं नज़ाकत-ए-एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा
सैराब हो के शाद न हों रह-रवान-ए-शौक़
रस्ते में तिश्नगी का समंदर भी आएगा
बैठा हूं कब से कूचा-ए-क़ातिल में सर-निगूं
क़ातिल के हाथ में कभी खंजऱ भी आएगा
रणजित मेश्राम
शीर्षक पढक़र किसी को भी अचंभा होगा। जैसे मुझे लिखते हुए हो रहा है! पर, ऐसे ग्रहण न करें। समकालीन और वैश्विक। केवल इतना ही संबंध है इसका संदर्भ भी।
1889 में अडोल्फ हिटलर, 1891 को भीमराव अम्बेडकर और 1893 को माओ त्से तुंग इन तीनों महाचर्चित लोगों का दो-दो वर्ष के अंतराल में जन्म हुआ। तीनों के अलग-अलग देश। अलग पृष्ठभूमि। विविधतापूर्ण अवरोध। तब भी, ये तीनों अपने-अपने देश में लोक नेता सिद्ध हुए।
इनमें से दो लोगों को राष्ट्रप्रमुख होने का अवसर मिला। तीसरे ने भी प्रयास किया पर असफल रहे। वे दोनों मृत्युपर्यंत राजनीतिक सत्ता में रहे। तीनों में से एक ने देश बनाया, एक ने देश को डुबाया और एक ने देश को दिशा दी।
तीनों के जीवन में पिता की भूमिका महत्वपूर्ण थी। पिता के मामले में आम्बेडकर धनी सिद्ध हुए। आम्बेडकर की प्रगतिशील नींव बनाने का काम पिता ने किया। इस मामले में हिटलर और माओ वंचित रहे।
दोनों के पिता बहुत अत्याचारी थे। चड्डी गीली होने तक मारते थे। पिता के कारण दोनों का बचपन नष्ट हुआ। तीनों की माँएँ ममत्व भरी थीं। बच्चों पर मां के प्राण न्योछावर होते। माओ की मां बौद्ध स्त्री थी।
हिटलर एक चित्रकार था तो माओ कवि। आम्बेडकर संगीत पारखी थे। तीनों का ही जन नेतृत्व से उदय हुआ। तीनों में हिटलर कुशल वक्ता थे। उनकी देह भाषा और संवाद शैली लोगों को घंटों-घंटों तक बांधकर रखती थी। द्वेष निर्मित करने में उसकी सानी न थी। वही लोगों को समझ आती और लोगों में आग पैदा करती। हाईल हिटलर .. हाईल हिटलर का उद्घोष लोगों में व्याप जाता।
अम्बेडकर और माओ के आंदोलन के पीछे विचारधारा थी। वह केवल राज्य क्रांति का आह्वान मात्र नहीं था। दासता के विरूद्ध स्वतंत्रता थी। बस, दोनों के विचार सूत्र में बहुत अंतर था।
हिटलर के पिता कस्टम में अधिकारी थे तो माओ के पिता किसान। आम्बेडकर के पिता सेना में सूबेदार थे। तीनों के जीवन में नगरीय संस्कृति बाद में आई। उनके जन्म गांव का नाम हिटलर (ब्रानाऊ), माओ (चांगशा) व आंबेडकर (महू) है।
तीनों में माओ ने अधिक उम्र पाई। वे 83 वर्ष तो हिटलर 56 वर्ष और अम्बेडकर 65 वर्ष तक जीवित रहे। हिटलर को ‘फ्युरर’, माओ को ‘चेयरमैन माओ’ व अम्बेडकर को ‘बाबासाहेब’ की उपाधि लोगों ने दी। तीनों का मृत्यु दिवस बताया जाए तो हिटलर की 30 अप्रैल 1945, माओ की 9 सितम्बर 1976 और अम्बेडकर की 6 दिसम्बर 1956 है।
1933 में हिटलर जर्मनी का चांसलर हुआ। फिर उसने विश्व को बरगलाया। दूसरे भयंकर विश्व युद्ध का जनक बना। उसी में डूब गया। अवध्य ‘अजेय ‘अशरण’ गप्प सिद्ध हुई। सत्ता के बल पर क्रूरता की प्रतिमा निर्मित करनेवाला लोगों की भत्र्सना के समक्ष आत्महत्या करने का बाध्य हुआ। एक झटके में। वहीं विश्व में अपनी खलनायक की अमिट छाप छोड़ गया।
1934 में माओ ने लॉंग मार्च निकाला। उसके साथ एक लाख लोग थे। 1935 में चीनी साम्यवाद नामक राजनीतिक दल का प्रमुख हुआ। माओ का आग्रह था कि किसान को ही विचारों के केंद्र में होना चाहिए। उसने माक्र्सवाद को चीनी स्वरूप प्रदान किया। ‘क्रांति बंदूक की नोक से ही आती है’ यह उसका प्रिय सत्तात्मक विचार सूत्र था। सांस्कृतिक क्रांति के लिए उसने स्वयं को प्रतिबद्ध कर रखा था। उनकी उपलब्धियाँ इस तथ्य से उजागर होती है कि उन्होंने चीन को एक महाशक्ति बना दिया।
1936 में अम्बेडकर ने स्वतंत्र मजदूर दल की स्थापना की थी। वह अपने समय का अपने लक्ष्य को प्राप्त करने वाला राजनीतिक दल था। राजनीतिक दृष्टि से सफल भी हुआ था। 1937 के चुनाव में इस दल के आम्बेडकर समेत चौदह लोग चुने गए थे। ये चौदह लोग सम्मिलित समाज से थे। आगे चलकर विलक्षण घटनाक्रमों के कारण अम्बेडकर को बाध्य होना पड़ा कि वे यह दल विलोपित करें। बाद में 1942 को आम्बेडकर ने शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन नामक नए राजनीतिक दल की स्थापना की। उन्होंने स्वतंत्रता के तीन माह पहले संविधान सभा में राज्य समाजवाद के जो राजनीतिक सूत्र दिए थे, वे बेहद महत्वपूर्ण थे। वे नीतिपूर्ण जीवन और सामाजिक-आर्थिक समता की महत्ता से अपार प्रेम करते थे। वे मानते थे कि धर्म हो या सत्ता, वह मनुष्य के लिए है।
ऐसी थी तीनों की यात्रा। तीनों में से एक को उसके देश के बाहर भुला दिया गया है। और दो अपने-अपने देश में स्मृतियों के चरम पर हैं।
और यह चरम रोज दर रोज बढ़ता चला जा रहा है। अनुवाद-हेमलता महिश्वर
-सच्चिदानंद जोशी
रोज की तरह आज भी जब मैं अपनी साइकिल लेकर कॉलोनी की सडक़ का चक्कर लगाने निकला तो मन में ख्याल आया कि क्यों न आज सीधी तरफ से चक्कर लगाया जाए। सीधा यानी क्लॉक वाइस। रोज मैं साइकिल से कॉलोनी की घुमावदार सडक़ के तीन-चार चक्कर लगाता हूं। घर से निकलते ही बाईं तरफ को साइकिल मोड़ लेता हूं और फिर बाईं ओर से ही चक्कर लगा लेता हूं यानी एंटी क्लॉक वाइस। मेरा ये बताने का उद्देश्य कतई नहीं कि आप मुझे फिटनेस फ्रीक समझें। फिर भी अगर आप ऐसा समझ लेंगे तो मैं तो ऐसा चाहता ही हूं।
आज जब साइकिल दाहिनी ओर मोड़ी और सडक़ पर घूमने लगा तो ऐसा लगने लगा मानो किसी दूसरी जगह आ गया हूं। कॉलोनी वही, रास्ता वही, साइकिल भी वही, आने-जाने वाले भी ज्यादातर वही और साइकिल चलाने वाला मैं भी वही। लेकिन ऐसा लगा कि किसी नई जगह पर आ गया हूं। जहां मुझे रोज ढलान मिलती थी वहां चढ़ाई आ गई। जहां चढ़ाई थी वहां साइकिल सरपट दौडऩे लगी। जहां गड्ढे थे वहां सडक़ चिकनी थी और जहां सडक़ ठीक ठाक थी वहां गड्ढे हो रहे थे। ये भी समझ में आया कि बाई ओर से घूमने में सभी मोड़ आसान थे और अब हर बार मुडऩे के पहले दो-तीन बार पीछे देखना पड़ रहा है। रोज जिन लोगों के चेहरे देख-देखकर ऊब गया था आज उनकी पीठें ही नजर आ रही थीं। सबसे मजेदार बात तो ये कि अब तक रोज जिन लोगों की पीठ ही देखता था आज उनके चेहरे नजर आ रहे थे। ये बात और है कि कुछ चेहरे देखकर लगा कि अब तक जो भ्रम बना हुआ था वही अच्छा था। हो सकता है कि बहुतों को मेरे चेहरे के दीदार भी पहली बार ही हुए हों और वे भी मेरी ही तरह भ्रम निराश की स्थिति में हों। जो लोग रोज सुबह सैर पर उसी रास्ते जाते हैं वे इस बात को अच्छी तरह समझ जाएंगे।
हम अपनी रोज की जिंदगी में अपनी ही बनाई आदतों के इतने गुलाम हो जाते हैं कि उसमें जरा भी बदल हो जाए तो हम अस्वस्थ हो जाते हैं। हम कहते जरूर हैं कि हम रूटीन से ऊब गए हैं और हमें चेंज चाहिए लेकिन सही सुकून हमें रूटीन में ही मिलता है। रूटीन और चेंज की परिभाषाएं गढ़ते-गढ़ते ही जिंदगी बीत जाती है उस पर अमल करने का या तो मौका नहीं मिलता या हौसला नहीं होता।
हमारे पड़ोसी ने रोज की चिक चिक से झुंझलाकर चेंज के लिए शिमला जाने का प्रोग्राम बनाया। इतनी सर्दी में शिमला? ‘मैंने पूछा तो मुस्कुराकर बोले’ वही तो मजा है। गर्मी में तो सभी जाते हैं। हम सर्दियों में जाएंगे और अकेले बड़े सुकून से शिमला का आनंद लेंगे।’
कुछ दिन बीत जाने के बाद सोचा उनकी शिमला यात्रा का हाल तो जान लें। ‘कैसी रही ट्रिप और कैसा रहा आपका चेंज’ मैंने पूछा तो वे एकदम फट पड़े ‘क्या खाक चेंज होगा। ऐसा लगा मानो कनॉट प्लेस में ही घूम रहे हैं। इतनी भीड़ कि पूछो मत। काहे का सुकून और काहे की शांति।’
‘तो फिर अब आपके चेंज का क्या होगा।’ मैने मासूमियत से पूछा।
‘अब चार दिन छुट्टी लेकर घर ही बैठूंगा। जो चाहे खाऊंगा, जैसा चाहे पहनूंगा, किताबें पढ़ूंगा, संगीत सुनूंगा और बस इतना ही करूंगा। इससे अच्छा चेंज और क्या होगा।’
समझ में आ गया कि चेंज के लिए कहीं जाना और बड़े कार्यक्रम बनाना जरूरी नहीं है। अपनी ही बनाई आदतों से छुटकारा पाने की कोशिश करें तो छोटी-छोटी चीजें भी चेंज ला सकती हैं।
इसलिए ट्रेनिंग प्रोग्राम में अक्सर प्रतिभागियों से रोज अपनी जगह बदलकर बैठने का आग्रह होता है। आग्रह ये भी होता है कि कल जिसके साथ बैठे थे आज उसके साथ न बैठें। इसमें जड़ता नहीं आती और चेंज की मनोवृत्ति बनी रहती है।
जिन लोगों ने कक्षा में शैतानी की है और जगह बदलकर बैठने की सजा अपनी टीचर या मास्टर साहब (अपने तो भैय्या वही थे) से पाई है उन्हें अनुभव होगा कि जब टीचर आपकी सीट बदल देते हैं तो आपको कैसा लगता है नई सीट पर बैठ कर, ‘अरे ये कैसा अजीब दिख रहा है। इस मोहल्ले में तो पंखे की हवा भी नहीं आती। साथ बैठा लडक़ा कितनी बांस मार रहा है। इधर कैसे बोर्ड ठीक से दिखता नहीं’, जैसे अनेकों विचार मन में आते हैं। आपकी कक्षा वही है लेकिन आपकी सीट बदलने से आपको लगता है कि आप एक नई कक्षा में आ गए हैं।
ये प्रयोग आप आज भी कर सकते हैं, इसके लिए सजा देने वाले टीचर की जरूरत नहीं है। आप डायनिंग टेबल पर अपनी रोज बैठने वाली जगह बदलकर ही देख लें, खाने को देखने की आपकी दृष्टि बदल जाएगी, स्वाद बदल जाएगा, शायद आप रोज से कुछ ज्यादा खाना खा लें।
कुछ नया या अलग करने के लिए हर बार कुछ बड़ा या खर्चीला करने की जरूरत नहीं है थोड़ा बदलाव भी आपको बदलाव का आनंद दे सकता है। अब ये भी तो एक बदलाव ही है कि रोज की तरह मोबाइल उठाकर उस पर व्हाट्सएप के फॉरवर्डेड मैसेज या फेसबुक पर रील देखने की बजाय आप यह रचना पढ़ रहे हैं। इससे भी ज्यादा घटनापूर्ण बदलाव चाहिए तो रोज की सैर का समय बदलकर थोड़ा पहले या थोड़ा बाद के समय में चले जाइए। आपको सब कुछ बदला हुआ लगेगा। लोग बदले हुए मिलेंगे, माहौल बदला हुआ मिलेगा, लगेगा कि आप एक नई जगह में घूम रहे हैं। इतना भी नही करना है तो पतलून, सलवार, पायजामा, या प्लाजो के जिस पायचे में रोज पहले पैर डालते हैं, आज उसके उलट दूसरे पायचे में डालकर देखिए आपको बदलाव की एक अलग ही अनुभूति होगी और साथ ही आदत की गुलामी से मुक्ति का सुखद अहसास भी।
-एनपी उल्लेख
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधानमंत्री रहे. 1996 में पहली बार वो मात्र 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री रहे.
वो दूसरी बार 1998 में प्रधानमंत्री बने मगर वो सरकार भी 13 महीने चली. तीसरी बार वो 1999 से 2004 तक प्रधानमंत्री रहे.
उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था. उनका निधन 16 अगस्त 2018 को हुआ.
अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में लोग कहते हैं कि वो बहुत अच्छे आदमी थे, मगर ग़लत पार्टी में थे. पर, ऐसा नहीं है.
रॉबिन जेफ़्री जैसे विद्वानों और स्वतंत्र राजनैतिक विश्लेषकों ने ही नहीं, सियासत में वाजपेयी के समकालीन भी उनके बारे में यही राय रखते हैं.
वो 1960 के दशक के वाजपेयी को याद कर के कहते हैं कि उस दौर में वाजपेयी भी तेज़-तर्रार हिंदुत्ववादी नेता हुआ करते थे. वाजपेयी उस दौर में कई बार मुसलमानों के ख़िलाफ़ तीखे बयान दिया करते थे.
राष्ट्रवाद
अटल बिहारी वाजपेयी वो शख़्सियत थे, जिनकी तरबीयत आरएसएस की पाठशाला और उससे भी पहले आर्य समाज जैसे संगठनों मे हुई थी.
उग्र राष्ट्रवाद की बेझिझक नुमाइश की अपनी आदत को वाजपेयी ने कभी नहीं छोड़ा.
हालांकि, अटल, जैसे-जैसे दिल्ली और भारतीय संसद की राजनीति में मंझते गए, वैसे-वैसे उन्होंने अपनी उग्र राष्ट्रवादी छवि को ढंकने-दबने दिया.
हमें याद रखना चाहिए कि जितना कोई सियासी शख़्सियत संसद पर असर डालती है, संसद उससे कहीं ज़्यादा असरदार रोल किसी राजनेता का किरदार गढ़ने में अदा करती है.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पहले ग़ैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया था. आज जो 'लुटिएंस ज़ोन' वाली दिल्ली सियासी गाली बन गई है, वाजपेयी उसी की उपज थे.
उन्होंने एक सांसद के तौर पर 1957 से लेकर 2004 तक लुटिएंस ज़ोन वाला सियासी जीवन ही जिया.
हां, इस दौरान वो 1962 और 1984 में दो बार चुनाव हारे भी थे. लेकिन, तब भी वाजपेयी, राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंच गए थे.
युवा अटल
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेहद पकी हुई उम्र यानी 63 बरस की अवस्था में दिल्ली की संसदीय राजनीति में दाख़िल हुए.
मोदी के मुक़ाबले, अटल बिहारी वाजपेयी तो उम्र के तीसरे दशक के दौरान ही राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र यानी दिल्ली पहुंच गए थे.
जहां मोदी अपने सियासी करियर के एक बड़े हिस्से में राज्य स्तरीय नेता रहे थे और उन्होंने क़रीब 13 साल राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर बिताए.
वहीं, वाजपेयी युवावस्था में ही दिल्ली की दिलकश बौद्धिक और कुलीन लोगों की मंडली का हिस्सा बन गए थे.
अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार 1953 में लोकसभा का उप-चुनाव लड़ा था. मगर, उस चुनाव में अटल हार गए थे. चार साल बाद हुए 1957 के आम चुनावों में वाजपेयी ने तीन सीटों-बलरामपुर, मथुरा और लखनऊ से क़िस्मत आज़माई थी.
मोदी और वाजपेयी की तुलना करें, तो, दोनों ने शुरुआती जीवन में आरएसएस की शाखाओं में उसकी विचारधारा की तालीम पायी थी.
मोदी के पिता चाय बेचते थे, तो, वाजपेयी के पिता प्राइमरी स्कूल मास्टर थे. दोनों ही नेताओं ने सियासत में अपनी जगह, शानदार भाषण कला की वजह से बनाई.
हालांकि मोदी और वाजपेयी के बोलने का अंदाज़ अलहदा है, मगर दोनों ने मुस्लिमों के ख़िलाफ़ सख़्त रवैये से अपनी सियासी ज़मीन तैयार की.
वाजपेयी ने अलग ही दौर में राजनीति की शुरुआत की थी. ये भारत के इतिहास में शानदार संसदीय परंपरा वाला दौर था.
मोदी और वाजपेयी- समान विचारधारा, अलग रवैया
उस दौर की संसदीय राजनीति के ज़्यादातर किरदार बेहद उदारवादी थे.
देश में क़ानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था यानी संसद ने वाजपेयी को उनके सियासी करियर के शुरुआती दिनों में ही अपनी पार्टी की कमजोरियों को समझने और उनसे पार पाने का मंच मुहैया कराया था.
हक़ीक़त ये है कि वाजपेयी अपने छात्र जीवन में वामपंथ की तरफ़ भी आकर्षित हुए थे. पिछली सदी के पांचवें दशक तक तो साम्यवाद विश्व की प्रमुख सियासी विचारधाराओं मे से एक था.
1945 में हिटलर की अगुवाई वाले जर्मनी की विश्व युद्ध में हार के बाद दुनिया के बहुत से युवा साम्यवाद से बेहद प्रभावित हुए थे. यही वजह है कि वाजपेयी भी बदलाव के लिए ज़हनी तौर पर तैयार थे.
संसद के कद्दावर नेताओं के खुले मिज़ाज ने वाजपेयी पर भी गहरा असर डाला. फिर, देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अपने कट्टर विरोधियों, जिनमें वाजपेयी भी थे, के प्रति सहिष्णु और दयालु भाव ने भी वाजपेयी पर गहरा असर डाला.
यही वजह रही कि संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले एक कट्टर युवा नेता वाजपेयी सहिष्णु राजनीति के पथ पर आगे बढ़े.
उदारवादी भी थे, तो हिंदुत्ववादी भी
अटल बिहारी वाजपेयी बहुत जल्द एक साथ दो नावों पर सवार होने की राजनीति करने लगे थे. एक तरफ़ तो वो नेहरू के उदारवाद के हामी थे, वहीं दूसरी तरफ़ वो आरएसएस की हिंदुत्ववादी सियासत के अलंबरदार भी थे.
अब हमें ये नहीं पता कि उन्होंने ऐसा केवल सियासी फ़ायदे के लिए किया या इसकी कोई और वजह थी. वो दौर कांग्रेस के सियासी दबदबे का था.
ऐसे में शायद वाजपेयी को यही तरीक़ा ठीक लगा, जिसके ज़रिए वो संघ की विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ न रखने वालों को अपने पाले में ला सकें.
लेकिन, वाजपेयी की इस कोशिश का नतीजा ये हुआ कि दक्षिणपंथी राजनीति, भारतीयों के एक बड़े तबके को रास आने लगी.
वाजपेयी को इस बात का श्रेय ज़रूर दिया जाना चाहिए कि वो राजनीति में हर तरह के प्रयोग के लिए तैयार थे.
उन्होंने भारतीय राजनीति में उग्र राष्ट्रवाद की भी वक़ालत की. और बीजेपी को कांग्रेस के लोकतांत्रिक विकल्प के तौर पर भी पेश किया.1
979 में वाजपेयी ने एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने हिंदुत्व की जगह भारतीयता के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया. भारतीयता वो छतरी थी, जिसके साये तले अलग-अलग धर्मों के लोग आ सकते थे और एक नए राजनीतिक प्रयोग को समर्थन दे सकते थे.
उस वक़्त भी संघ को पता था कि वाजपेयी के चेहरे की कितनी अहमियत है. या फिर जैसा कि आरएसएस विचारक गोविंदाचार्य ने बाद के दिनों में कहा था कि वाजपेयी मुखौटा हैं.
संघ परिवार को उन जैसे मुखौटे की सख़्त तलब थी, ताकि वो एक हिंदूवादी राष्ट्रवादी पार्टी के अगुवा बनें. क्योंकि उस वक़्त बीजेपी की स्वीकार्यता, आज के मुक़ाबले बहुत कम थी.
कई बार भड़काऊ भाषण दिए
बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जो ये कहते हैं कि वाजपेयी, ता-उम्र संघ की कट्टर राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति समर्पित रहे. वो बहुत शातिराना तरीक़े से राम मंदिर के लिए हो रहे आंदोलन से ख़ुद को अलग किए रहे.
बाद में, 2002 में जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब गुजरात में दंगे हुए.
कुछ इतिहासकार ये मानते हैं कि वाजपेयी कट्टर हिंदुत्व को लेकर आलोचना से इसलिए बच गए, क्योंकि तमाम सियासी दलों में उनके दोस्त थे.
वो समाज के ऊपरी तबके से आते थे. ऊंची जाति का होना वाजपेयी के लिए निंदा से बचाने वाला कवच बन गया.
ये हक़ीक़त है कि वाजपेयी ने कट्टर हिंदुत्व के सियासी मैदान में भी सैर की. पर, पहले जनसंघ और बाद में बीजेपी में वाजपेयी, हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन के उदारवादी चेहरे भी बने रहे.
ये कहा जाता है कि वाजपेयी ने 1983 में असम के नेल्ली में दंगों से ठीक पहले 'बाहरी' लोगों के बारे में बेहद भड़काऊ भाषण दिया था.
इसके लिए अटल को 1990 के दशक में भी लोकसभा में सियासी हमले झेलने पड़े थे. इससे बहुत पहले 14 मई 1970 को वाजपेयी को लोकसभा में उस वक़्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ तीखे बयानों को लेकर, चुनौती दी थी.
उस साल भिवंडी में दंगों के बाद वाजपेयी ने संसद में कहा था कि मुसलमान दिनों-दिन सांप्रदायिक होते जा रहे हैं. इसका नतीजा ये हो रहा है कि हिंदू भी मुसलमानों के आक्रामक रवैये का जवाब उग्र तरीक़े से दे रहे हैं.
इंदिरा गांधी ने ये कह कर वाजपेयी का विरोध किया था कि दंगों के पीछे जनसंघ और आरएसएस का हाथ है, जिनकी वजह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है.
इंदिरा गांधी ने पीठासीन अधिकारी से ये भी अपील की थी कि वाजपेयी के संसद में दिए गए बयान को सदन की कार्यवाही से न निकाल जाए, क्योंकि उनके बयान से 'उग्र फ़ासीवादी सोच' उजागर हुई है.
इंदिरा गांधी ने ये भी कहा था कि उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि वाजपेयी की सियासी हक़ीक़त उजागर हो गई है.
जब कहा 'ज़मीन को समतल किया जाना ज़रूरी है'
इसके बाद 5 दिसंबर 1992 को वाजपेयी लखनऊ के अमीनाबाद में आरएसएस के कारसेवकों मिले थे.
उन्होंने कारसेवकों की उत्साही भीड़ को संबोधित करते हुए चुटीले अंदाज़ में कहा था कि अयोध्या में पूजा-पाठ के लिए 'ज़मीन को समतल किया जाना ज़रूरी है.'
इससे साफ़ है कि वो अलग-अलग तबके के लोगों से अलग-अलग तरह से बातें करते थे. इससे उनकी शातिराना सियासत भी उजागर होती है और किसी से टकराव न चाहने की आदत का भी पता चलता है.
उस दिन भाषण देने के बाद वो लखनऊ से रवाना हो गए थे और अयोध्या नहीं गए थे. बाद में यानी 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा ढहा दिया गया था.
उनके लखनऊ से लौट आने को सियासी विरोधी एक शातिर चाल मानते हैं, ताकि उनकी मध्यमार्गी छवि बनी रहे.
वाजपेयी की नरमपंथी छवि संघ के बहुत काम आई. विवादित ढांचा ढहाने के बाद जब बीजेपी के सभी बड़े नेता गिरफ़्तार हो गए थे और कई राज्यों में पार्टी की सरकारें बर्ख़ास्त कर दी गई थीं, तब वाजपेयी ने पार्टी के लिए मसीहा का रोल निभाया था.
अटल की अगुवाई में पार्टी ने बाद के दिनों में 'लोकतंत्र की हत्या' के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी.
हालांकि अपने करियर के आख़िरी दिनों में वाजपेयी को अपनी पार्टी के भीतर से ही चुनौतियां मिलने लगी थी. पार्टी के युवा नेता, वाजपेयी के आदर्श रहे नेहरू को हौव्वा बताने लगे थे.
बना लिया था मोदी को हटाने का मन
2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगों के बाद, वाजपेयी ने अप्रैल 2002 में गोवा में पार्टी की बैठक में ख़्वाहिश जताई थी कि मोदी मुख्यमंत्री का पद छोड़ दें. लेकिन, आडवाणी, मोदी और दूसरे नेताओ ने वाजपेयी की कोशिशों को नाकाम कर दिया था.
बीजेपी की बैठक की शुरुआत होते ही मोदी ने बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में इस्तीफ़ा देने का इरादा ज़ाहिर किया. लेकिन, बैठक के प्रतिभागियों ने मोदी के इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया.
वाजपेयी ने दिल्ली से गोवा जाते हुए विमान में ही मोदी को हटाने का मन बना लिया था, ताकि गठबंधन के अपने सहयोगियों की नाराज़गी दूर कर सकें और अपनी उदारवादी छवि को भी बचा लें.
लेकिन, पार्टी की बैठक में मोदी के समर्थन का माहौल देखकर उन्होंने अपने इरादे को दफ़्न कर दिया.
यहां तक कि आक्रामक पार्टी सहयोगियों को ख़ुश करने के लिए वाजपेयी ने उस बैठक के आख़िरी दिन मुसलमानों को काफ़ी बुरा-भला कहा और आरोप लगाया कि मुसलमान दूसरे समुदाय के लोगों के साथ नहीं रह सकते.
इसके बावजूद लोगों के बीच कवि हृदय वाजपेयी कि छवि वैसी ही बनी रही. पूर्व और मौजूदा कट्टर हिंदूवादी नेताओ के उलट, वाजपेयी ऐसे प्रधानमंत्री बन गए, जिन्हें जनता के एक बड़े तबके का प्यार और सम्मान मिला.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वाजपेयी राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी थे. उनहोंने राजनीति में मोहब्बत और जज़्बातों की अहमियत का अंदाज़ा था और वो वक़्त पड़ने पर इनका बख़ूबी मुजाहिरा भी करते थे.
भाषण कला के कारण मिला प्यार
वाजपेयी की भाषण कला की वजह से ही कश्मीर में बहुत से लोग उन्हें सूफ़ी संत कहते थे. उन्होंने जनता से एक राब्ता क़ायम कर लिया था.
इसकी बड़ी वजह ये थी कि उन्होंने उस आंदोलन की स्वीकार्यता बढ़ाई, जिस विचारधारा में वो ख़ुद पले-बढ़े थे. लेकिन अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए वाजपेयी ने अपने सियासी विरोधियों के नुस्खों पर अमल किया.
इसमें अचरज नहीं होना चाहिए कि वाजपेयी को उन के कट्टर वैचारिक विरोधियों से भी तारीफ़ मिली. वाजपेयी के मुरीदों में कम्युनिस्ट भी शामिल थे और सीएन अन्नादुरै जैसे कद्दावर तमिल नेता भी.
1965 में जब भाषा के सवाल पर संसद में बहस चल रही थी, तो अन्ना ने कहा था कि, "हिंदी को लेकर हमारा विरोध क्यों है? मैं इसे साफ़ शब्दों में बयां करना चाहता हूं. हम किसी भी भाषा के ख़िलाफ़ नहीं हैं. ख़ास तौर से जब मैं अपने दोस्त श्रीमान वाजपेयी को बोलते हुए सुनता हूं तो मुझे लगता है कि हिंदी तो बहुत मीठी ज़बान है."
लेकिन, अब जबकि लोकसभा में अपने बहुमत की वजह से बीजेपी बहुत आक्रामक हो उठी है और नए-नए इलाक़ों में विस्तार कर रही है, तो वाजपेयी एक राष्ट्रीय प्रतीक बन गए हैं. जबकि वाजपेयी ब्रांड राजनीति को उनकी पार्टी की नई पीढ़ी ने तिलांजलि दे दी है.
एक और मोर्चे ऐसा है जिसमें वाजपेयी की उपलब्धियों का कोई मुक़ाबला नहीं. प्रधानमंत्री मोदी अक्सर कहते रहते हैं कि पुराने दौर में पश्चिमी देश भारत से संबंध को लेकर हिचकिचाहट रखते थे, जो अब बीते दौर की बात हो चुकी है.
हक़ीक़त ये है कि, पश्चिमी देशों की ये हिचकिचाहट उस वक़्त दूर होनी शुरू हुई थी, जब वाजपेयी सत्ता में थे.
उन्होंने आर्थिक उदारीकरण को दोबारा रफ़्तार दी थी. वाजपेयी देश में मोबाइल क्रांति के जन्मदाता थे. उन्होंने पाकिस्तान और दूसरे देशों से संबंध बेहतर करने के लिए लगातार कोशिशें कीं.
लेकिन, पीएम के तौर पर उनकी सब से बड़ी उपलब्धि रही, देश में बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे के विकास से राष्ट्र का पुनर्निर्माण.
शायद ये वाजपेयी की अच्छी क़िस्मत ही थी कि वो सही वक़्त पर सही जगह पर थे. वो ख़ुशक़िस्मत थे क्योंकि उन्होंने पूर्णायु पायी.
देश की जनता का एक बड़ा तबका वाजपेयी के आख़िरी दिनों तक उनका मुरीद रहा.
आज जबकि वाजपेयी के सियासी वारिसों की कथनी और करनी उनसे बिल्कुल अलग दिखती है, तो वाजपेयी का आभामंडल और भी बढ़ गया है. (bbc.com/hindi)
-कनुप्रिया
सुबह-सुबह उदयपुर के सफर को निकली तो एक आवाज़ कानों में पड़ी कहीं से, भीमसेन जोशी और लता मंगेशकर का भजन ‘बाजे रे मुरलिया’, दोनों प्रिय गायक, प्रिय आवाजें, मन बंध गया, फिर तो रास्ता इन्हें सुनते निकलना ही था।
भजनों का उद्देश्य जरूर इंसान के भीतर संसार की निस्सारता का भाव जागृत करना रहा होगा, ईश्वर और उसके नाम तो उसके अवलम्ब हैं, साधन हैं, साध्य नहीं। और यह भाव जगने के लिये नास्तिक और आस्तिक के खाँचे में बंटना जरूरी नहीं।
लाउडस्पीकर पर फिल्मी गानों की धुन और सतही शब्दों के साथ बजते भजन वह भाव नहीं जगाते। ऐसा लगता है मानो ख़ुद को बड़ा धार्मिक साबित करने की होड़ चल रही हो। शोर में शांति का भाव कैसे हो सकता है।
इसलिये बाइको और गाडिय़ों पर केसरिया झंडी लगाए जय श्री राम उद्घोष करते लोग हिंदू तो हो सकते हैं मगर आस्तिक नहीं। वो सत्ता के समर्थक और वाहक तो हो सकते हैं मगर ईश्वर भक्त नहीं।
तुलसीदास जी ने कहा भय बिन प्रीत न होई, वही भय प्रीत करवा रहा है, वरना जिसका यकीन सचमुच ईश्वर में हो उसे भय कैसा।
कभी कभी लगता जो राम सच मे लोगों के रास्ते मे आकर खड़े हो जाएँ और कहें कि मुझे ऐसे मंदिर नहीं चाहिए जो मेरे नहीं किसी सत्ता के गर्भ गृह हों, तो उन्हें भी रास्ते से हटा दिया जाए कि हमे आपकी नहीं महज आपके नाम की ज़रूरत है, कृपया यहाँ से प्रस्थान कीजिये।
मुझे वह नास्तिक कई गुना किसी सतगुणी ईश्वरीय प्रतीक के नज़दीक लगता है जो उसमें यक़ीन न करते हुए भी प्रकृति, पर्यावरण, व जीवों को बचाने निकल पड़ता है, बजाय मंदिर में खड़े उस धार्मिक के जिसका मन उस वक्त भी आने लालच और स्वार्थ की सिद्धि पूर्ति में ही लगा हो, जिन्हें अपनी तीर्थयात्राओं के लिये हिमालय नष्ट किये जाने से भी गुरेज नहीं, उन्हें ईश्वर की यात्रा इतनी सुगम चाहिये कि वो उसके लिये तनिक कष्ट तक नहीं उठाना चाहते।
कहते हैं, भगवान भाव में बसते हैं, मैं अक्सर धार्मिक लोगों के समूहों से डर जाती हूँ, उनके भीतर धार्मिक होने का अहंकार ईश्वर के कद से भी बड़ा नजऱ आता है, वो इस अहंकार की ख़ातिर किसी को भी नष्ट करने से पीछे नहीं हटते।
इसलिये मैं नास्तिक आस्तिक के झगड़े में पड़ती ही नहीं क्योंकि मेरा मानना है कि इस दुनिया में एक भी व्यक्ति आस्तिक नहीं, एक भी नहीं, अगर लोगों को सच मे ईश्वर के होने पर यकीन होता तो किसी आडंबर और पाखंड की ज़रूरत ही नहीं होती और कम से कम वो उसके नाम पर एक दूसरे का गला तो नहीं ही काटते।
इन दिनों रूस में एक सीरीज बड़ी लोकप्रिय है. इसकी कहानी किशोरों के एक गैंग पर आधारित है, जो अपने अस्तित्व, पैसा और प्यार के लिए जूझ रहे हैं. कथानक दिखाता है कि इस दौरान उनके साथ कैसी त्रासदियां हुईं.
डॉयचे वैले पर स्वाति मिश्रा का लिखा-
"द बॉइज वर्ड: ब्लड ऑन दी अस्फाल्ट" की कहानी रूस के कजान शहर में सक्रिय खूंखार गिरोहों को दिखाती है. 1980 के जिस दौर को कथानक का केंद्र बनाया गया है, तब तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव के सुधारों के बाद सोवियत संघ विघटन की ओर बढ़ रहा है. इस दशक में रूस के स्ट्रीट गैंग्स काफी कुख्यात थे और कजान की हालत भी ऐसी ही थी.
कजान फेनॉमनन
वोल्गा नदी के किनारे बसा कजान, दक्षिण-पश्चिमी रूस के "रिपब्लिक ऑफ ततरस्तान" की राजधानी है. यह एक प्राचीन शहर है. 1980 के दशक में सोवियत संघ के कई शहरों में नाबालिग आपराधिक गिरोहों का बोलबाला था. इनमें से ही एक था कजान.
इस समस्या की पृष्ठभूमि 1965 के आर्थिक सुधारों से जुड़ी थी, जब कारोबारी उपक्रमों को थोड़ी आजादी दी गई. इसके बाद कई लोग अवैध तौर पर सामान बनाने और बेचने लगे. इसमें मुनाफा काफी ज्यादा था. इन सामानों को बेचने के लिए गैरकानूनी दुकानें खुलने लगीं, जहां काम करने वालों का अलग समूह बनने लगा. ऐसे काम को चलाने के लिए भ्रष्टाचार, जुगाड़ और अपराध सबका सहारा लिया जाता था. ऐसी गतिविधियों के लिए शारीरिक तौर पर मजबूत युवाओं की जरूरत थी, जिसने गिरोहों को जन्म दिया. नाबालिगों के गिरोह बनने लगे.
कजान में ये स्थिति इतनी गंभीर थी कि इसके लिए "काजन फेनॉमनन" का एक खास टर्म इस्तेमाल होने लगा. ये गिरोह हथियारबंद लूट, रंगदारी, वसूली, मारपीट और यहां तक कि हत्या जैसे अपराधों को अंजाम देते थे.
संगठित अपराध की ओर मुड़े किशोर
"द यूरोगैंग्स पैराडॉक्स" नाम की किताब में "तयाप-लयाप" नाम के एक गिरोह का जिक्र है. ये पहला गैंग था, जिसकी आपराधिक गतिविधियां कजान पुलिस में दर्ज हुईं. ये गिरोह जिस इलाके में विकसित हुआ, वहां ज्यादातर वर्किंग क्लास की बसाहट थी. इसका सरगना सर्गेई एंतीपोव शुरुआत में बॉक्सिंग क्लब चलाता था.
इलाके के युवा और किशोर उम्र के लड़के इससे जुड़ने लगे. धीरे-धीरे वो आपराधिक गतिवधियों में शामिल होते गए और गिरोह बना लिया. ताकत और दबदबा बढ़ने पर ये गिरोह नए इलाकों में फैलने लगा, उन्हें अपना इलाका बताने लगा. फिर इसकी देखादेखी और जवाब में कई और संगठित गिरोह बनने लगे. शहर इन गिरोहों के बीच बंट गया.
"ब्लड ऑन दी अस्फाल्ट" में ऐसे ही किशोरों और उनके गिरोह की कहानी है. उस वक्त जब विघटन की ओर बढ़ रहे सोवियत में समाज और व्यवस्था के स्तर पर बड़े बदलाव हो रहे थे, तब इसके साथ ही किशोरों की जानी-समझी दुनिया जैसे सिर के बल पलट रही थी. ऐसे में वो गिरोहों की ओर मुड़े, जिसके माहौल में उन्हें ना केवल एक किस्म के परिवार की भावना मिली, बल्कि उन्हें सुरक्षा, पैसा, रोमांच भी मिल रहा था. हालांकि यह दुनिया बहुत हिंसक और खतरनाक भी थी.
सीरीज में तीन मुख्य किरदार हैं- आंद्रेई, मरात और वोवा. वो बेहद हिंसक स्थितियों में घिरे हैं. हत्या, बलात्कार, खुदकुशी, सनक और सबसे बढ़कर खुद अपनी वजह से उनके सपने चिथड़े-चिथड़े हो गए. सीरीज में हिंसा सभी मुख्य किरदारों की तबाही का कारण बनती है.
इसका स्क्रीनप्ले लिखने वाले आंद्रेई जोलोतारेव ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहा, "मेरे लिए यह बदले और मुक्ति की एक कहानी है, जो दिखाती है कि बुरा करने पर कैसे हमेशा बुराई ही मिलती है."
जोलोतारेव का जन्म 1982 में हुआ था. उन्हें याद है कि 1990 के दशक की शुरुआत के समय जब अपराध की लहर थी, उस दौर में उनके घर के पास का कब्रिस्तान क्राइम का गढ़ बन गया था. शीत युद्ध की समाप्ति एक ओर जहां लोकतंत्र और आर्थिक तरक्की की उम्मीद लाई, वहीं रूस की एक बड़ी आबादी गरीबी, भ्रष्टाचार और हिंसा से जूझ रही थी.
रूस और यूक्रेन दोनों में लोकप्रिय
यह रूस की सबसे लोकप्रिय सीरीज बन गई है. हालांकि कई अधिकारी इसे प्रतिबंधित किए जाने की मांग कर रहे हैं. उनके मुताबिक, सीरीज में आपराधिक गिरोहों का महिमामंडन किया गया है और रूस के युवा इससे प्रभावित हो सकते हैं.
ततरस्तान के प्रमुख रुस्तम मिन्नीखानोव ने भी इस सीरीज पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग की है. उनका कहना है कि सीरीज में गिरोहों को रोमांटिसाइज किया गया है और यह गिरोहों के खतरनाक अतीत को फिर से उकसावा दे सकता है. मिन्नीखानेव ने कहा कि वह क्रेमलिन से इसे ब्लॉक करने को कहेंगे.
दिलचस्प पहलू यह है कि एक ओर जहां रूसी प्रशासन के कई लोग सीरीज पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग कर रहे हैं, वहीं कथित तौर पर खुद रूस के पब्लिक ऑर्गनाइजर इंटरनेट डिवेलपमेंट इंस्टिट्यूट ने इसकी फंडिंग की है. हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि इस सीरीज को यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले कमीशन किया गया था.
दिलचस्प यह भी है कि रूस के साथ-साथ यह सीरीज यूक्रेन में भी काफी लोकप्रिय है. खबरों के मुताबिक, यूक्रेन में भी अधिकारी इस सीरीज को बैन करना चाहते हैं. उन्हें चिंता है कि यह सीरीज रूसी दुष्प्रचार तंत्र का काम कर रही है.
हाल ही में यूक्रेन के संस्कृति मंत्री ने बिना नाम लिए लोगों से "हिंसा को बढ़ावा दे रही रूसियों द्वारा बनाई गई सीरीज," ना देखने की अपील की. रिपोर्ट्स के मुताबिक, ज्यादातर स्ट्रीमिंग पाइरेट प्लेटफॉर्म्स से होने के कारण इसके देखने-दिखाने पर नियंत्रण करना मुश्किल हो रहा है. (dw.com)
- चैतन्य नागर
विपश्यना शब्द संस्कृत का है और इसे पाली में विपस्सना कहते हैं। इसकी उत्पत्ति गौतम बुद्ध की एक देशना में ही ढूँढी गई है। एक युवक बुद्ध के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ और उसने उनसे पूछा- ‘आप मनुष्य हैं या देवता?’ बुद्ध ने जवाब दिया- ‘मैं सजग हूँ’। युवक ने पूछा कि इसका अर्थ क्या हुआ। इस पर बुद्ध ने कहा: ‘मैं जब दाहिने देखता हूँ तो मैं सजग रहता हूँ कि मैं दाहिने देख रहा हूँ; मैं जब बाएं देखता हूँ, तो सजग रहता हूँ कि मैं बाएं देख रहा हूँ’। इसके अर्थ को समझने की कोशिश करें तो यही समझ में आता है कि बुद्ध मन और देह की हर गतिविधि के प्रति सजग रहने की सलाह देते हैं। विपश्यना का अर्थ गहराई से देखना भी होता है। किसी भी शारीरिक या मानसिक हरकत तो देखना हो तो पूरी गहराई के साथ देखना। वह जैसी हैं, वैसी ही उसे देखना। यथा भूतं, जस का तस।
देश की कई हिस्सों में हज़ारों की संख्या में विपश्यना केंद्र खुले हुए हैं। ख़ास कर उन जगहों पर जहाँ विदेशी पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं। इस देश में वे गहरी आध्यात्मिकता की खोज में आते हैं, पर बदले में उन्हें क्या मिलता है, ये तो वही बता सकते हैं!
पूंजीवादी अक्सर ध्यान और विपश्यना जैसी विधियों का उपयोग करते हैं। इन विधियों के बारे में यह प्रचलित है कि इन्हें अपनाने से लोगों की एकाग्रता बढ़ती है, मन इधर उधर नहीं भटकता, लोग जम कर काम करते हैं। नियोक्ताओं को और क्या चाहिए! कर्मचारी मन लगाकर काम करें, ध्यान वगैरह करके अपनी मानसिक और आध्यात्मिक सेहत बनायें और उनका कारोबार बढ़ता रहे।
राजनीति में भी विपश्यना के कई लाभ हैं। आप गहराई तक देखना सीखते हैं। तो इसका उपयोग आप अपने मन की गहराइयों तक उतरने में भी कर सकते हैं और अपने विरोधियों के मन में भी। अक्सर नेता इस विधि का उपयोग अपने विरोधियों के मन की गहराइयों तक उतरने के लिए करते हैं। वे क्या सोच रहे हैं, उनकी अगली चाल कैसी होगी, वगैरह। कुछ नेता संकट की घड़ी में ऐसा एलान कर देते हैं कि वे विपश्यना के लिए जा रहे हैं। यदि आप विपक्ष में हैं और सत्तारूढ़ दल या सरकारी एजेंसियां आपको दबोचने के लिए तैयार हैं, तो ऐसे में उन्हें थोडा समय भी मिल जाता है अपनी अगली योजना बनाने का। भारत में धर्म निरपेक्षता हमेशा से पॉपुलर और फैशन में रही है। अब ऐसे नेता तो हैं नहीं जो खुले आम केदारनाथ या काशी विश्वनाथ मंदिर चले जाएँ और उन्हें अपने धर्मनिरपेक्ष न होने की परवाह ही न रहे। वर्त्तमान प्रधान मंत्री ने माहौल ही कुछ ऐसा बना दिया है कि नेताओं को खुल कर मजारों पर या मस्जिदों में जाने से पहले भी चार बार सोचना पड़ता है। सॉफ्ट हिंदुत्व के फायदों पर थोडा विचार करना पड़ता है। ऐसे में भी विपश्यना जैसे बौद्ध तरीके राजनीतिक दृष्टि से भी फायदेमंद होते हैं। धर्मनिरपेक्षता का सवाल सिर्फ दो धर्मों को लेकर ही उठता है। बौद्ध धर्म इसकी माया से दूर है।
सवाल यह उठता है कि अरविंद केजरीवाल विपश्यना के लिए बार-बार क्यों जाता है? इस महीने के आखिर में वह फिर से दस दिनों की विपश्यना के लिए जायेंगे। विपश्यना की विधि तो अहंकार के नाश के लिए बनी है। जब आप वर्त्तमान क्षण में रहते हैं, जैसा कि विपश्यना सिखाती है, तब उन क्षणों में आप अहंकार से मुक्त रहते हैं। पर राजनेता तो हमेशा भविष्य की योजना बनाता है। अतीत की गलतियों पर कराहता रहता है। उसे विपश्यना किस काम आती है? एक तरफ स्व से, अहम् वृत्तियों से मुक्ति की बात है, और दूसरी तरफ सियासत का अर्थ ही है आत्मविस्तार। आज दिल्ली, कल पंजाब, फिर गुजरात और फिर हरियाणा और फिर समूचा देश। मतलब आत्म-विस्तार की सीमा कहीं समाप्त नहीं होती राजनीति में। और ध्यान जैसी विधियाँ इंसान को शांत कर देती हैं, वह कम बोलता है, मीठा और सच बोलता है। जरूरत पडऩे पर ही बोलता है। राजनीति में तो जो जितना अधिक बोले, उतना ही बड़ा समझा जाता है। सच बोलना राजनेताओं के करियर के लिए खतरनाक होता है। सच के जाल में फंसने का डर होता है। झूठ का मार्ग सियासत में आसान होता है। सरल और सहज होता है।
एक है मुक्ति का मार्ग, और दूसरा, सांसारिक बंधनों की राह। बुद्ध ने राजनीति छोडी और तब उन्हें विपश्यना जैसे अद्भुत विधि का महत्त्व समझ में आया। महल में बैठे रहते तो कहाँ से ऐसी गहरी बातें उनके मन में आतीं। राजनेता और अपने महल की मरम्मत, उसे नया और खूबसूरत बनाने की फिक्र में ही लगा रहता है। कई तरह से देखें तो विपश्यना, ध्यान और राजनीति किसी मोड़ पर मिलते नहीं। दोनों का मार्ग ही अलग है। प्रारंभिक बिंदु भी अलग है, और गंतव्य भी अलग है। किसी नेता का विपश्यना के लिए जाना वैसा ही है जैसे कि किसी शंकराचार्य या किसी लामा का बीच-बीच में राजनीति में आ जाना और चुनाव लडऩा।
यह भी सवाल उठता है कि झूठ, फरेब और अशांति की दुनिया को बीच बीच में छोड़ कर निर्वाण के मार्ग पर, साल के आखिर में एक हफ्ते के लिए जाने की क्या जरूरत पड़ती होगी। क्या विपश्यना का कोई सियासती पहलू भी है जहाँ ख़ास कर सियासती खेल के गुर सिखाये जाते हैं? इस बात की थोड़ी तहकीकात करनी चाहिए। विपश्यना प्रेमी नेता अरविंद केजरीवाल ने 2014 में कहा था कि राजनीति से संन्यास लेने के बाद वे अपना जीवन विपश्यना के लिए समर्पित कर देंगे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि निकट भविष्य में राजनीति को अलविदा कहने का उनका कोई इरादा नहीं। तो क्या कोई अचानक सुबह उठता है और निर्वानोंमुख हो जाता है। इस दिशा में जाने के कुछ लक्षण तो पहले से आपके बर्ताव, वाणी आदि में परिलक्षित होने चाहिए न? बरसों तक वादाखिलाफी, रायता फैलाने और बेतुकी बातें करने के बाद क्या कोई अचानक संबोधि का पात्र बन जाता है और अपना जीवन विपश्यना को समर्पित कर देता है? इसमें गहरा संदेह है।
शांति की खोज में वही रहता है जो अशांत हो। ध्यान की पनाह वही लेता है जो बेचैन हो। यदि बुद्ध से केजरीवाल मिलते तो बुद्ध शायद यही कहते- ‘शांति न ढूँढो। अशांति का कारण ढूँढो। विपश्यना से शांति नहीं मिलती। जब मन शांत होता है तो विपश्यना अपने आप घट जाती है’।
- प्रेमकुमार मणि
हिंदी समाज की हालत यह है कि यहाँ साहित्य पर कम, पुरस्कारों पर अधिक चर्चा होती है। आज भी हिंदी समाज एक अनपढ़, संस्कृतिहीन और मोटे तौर पर जाहिल समाज है। 1935 में गांधीजी जब हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर सम्मेलन को सम्बोधित कर रहे थे,तब उन्होंने हिंदी वालों से पूछा था कि आपके बीच कोई रवीन्द्रनाथ टैगोर, जगदीश चंद्र बसु और प्रफुल्लचंद्र राय क्यों नहीं है? हिंदी वालों के पास कोई जवाब नहीं था। गांधी जी का वह सवाल बहुत हद तक आज भी प्रासंगिक कहा जा सकता है।
गांधीजी के तीन नामों पर गौर कीजिए। इन में एक लेखक और दो वैज्ञानिक हैं। कैसा लेखक? तो रवीन्द्रनाथ जैसा दृष्टि सम्पन्न। वैज्ञानिक तो अपनी जगह थे ही। इस अनुपात में गांधी क्यों हिंदी समाज को देखना चाहते थे। यह शायद उनका मिजाज था। यही कारण था कि आज़ाद देश के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जवाहरलाल का चुनाव किया, जो उनके विचारों से अनेक मामलों में असहमत थे। लेकिन गांधी जानते थे कि भारतीय समाज को आज नेहरू जैसी विवेक-दृष्टि चाहिए। नेहरू लगातार वैज्ञानिक चेतना ( साइंटिफिक टेम्पर ) की वकालत कर रहे थे। अर्द्धसामन्ती और रामनामी- मुल्लावादी धार्मिकता में लिथड़े पिछड़े समाज को एक जबरदस्त वैज्ञानिक थेरेपी की जरूरत थी। गाय, गंगा और गीता-कुरान से घिरे हिंदीभाषी समाज को एक सम्यक वैचारिक आवेग ही आधुनिक बना सकता था।
लेकिन गांधी- नेहरू की चिंता पर हिंदीभाषी समाज ने कभी ध्यान नहीं दिया। यह समाज आत्मावलोकन करना नहीं जानता। विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण यहाँ कम ही होता है। हाँ, संश्लेषण यानि जोड़-तोड़ में हिन्दी के लोग माहिर होते हैं। भेडिय़ाधसान प्रवृति भी बहुत गहरी है। प्रेमचंद, पंत,निराला को घेर कर आज तक लोग बैठे हैं। बंगला में रवीन्द्र या शरत की कोई परंपरा नहीं है। हिंदी साहित्य के अभ्यर्थी, परम्पराएं अथवा डगर बनाने में दक्ष हैं। तुलसी, कबीर ,प्रेमचंद, निराला सबकी परंपरा है। बंगला और मराठी भाषी बौद्धिक ऐसी परम्पराओं को निरंतर तोड़ते हैं और नए का संधान करते हैं। हिंदी में हर किसी का एक टीला या वेदी बनाते हैं और लोग उसे पूजते रहते हैं। यही हमारा जातीय संस्कार है।
इधर कुछ वर्षों से देख रहा हूँ, पुरस्कार, विशेष कर अकादमी पुरस्कार, हर बार बहस का विषय बन जाता है। मोदी राज आते ही रमेश चन्द्र शाह को जब पुरस्कृत किया गया, तब एक नए मिजाज को लक्षित किया गया। दो वर्ष पहले दयाशंकर सिन्हा को जब उनके नाटक पर मिला तब कहा गया यह उन्हें उनकी संघ से निकटता के कारण मिला। पिछले वर्ष कवि बद्रीनारायण को जब पुरस्कार मिला तब भी कुछ इसी तरह की बात कही गई। इस बार यह पुरस्कार नक्सलबाड़ी से प्रभावित कथाकार संजीव को दिया गया है। अब लोग चुप हैं। एक बेहूदा धड़ा इन्हे उनकी जाति से जोड़ कर देख रहा है कि लेखक पिछड़ी जाति से हैं। यह तो पतन की पराकाष्ठा और संजीव का अपमान है। संजीव की उम्र 75 से अधिक होगी। उन्हें बीस साल पहले भी यह पुरस्कार मिल सकता था। उन्हें पुरस्कृत कर अकादमी ने अपना ही कद ऊँचा किया है। संजीव पर पिछले दिनों चर्चा के दौरान एक इंटरव्यू में मैंने कहा था कि उन्हें मैं बड़ा कथाकार तो नहीं मानता,लेकिन वह प्रयोगधर्मी और खूब परिश्रमी लेखक जरूर हैं। संजीव ने उपन्यासों की भरमार उस दौर में लगाई जब इस क्षेत्र में सन्नाटा था।
गिने-चुने लेखक उपन्यास लिख रहे थे। उनसे कमतर लेखकों को यह अकादमी पुरस्कार पहले मिल चुका है। इसलिए उनके चयन को जाति और राजनीति से जोड़ कर देखना शरारत के सिवा और कुछ नहीं है। एक सज्जन ने तो यहाँ तक लिखा कि पहली बार अकादमी ने ओबीसी लेखक को पुरस्कृत किया है। यदि ऐसा है तो क्या यह माना जाय कि मोदी सरकार का संस्कृति मंत्रालय साहित्य में सामाजिकन्याय का परचम गाड़ रहा है। और यह सब आसन्न चुनाव के मद्देनजर किया गया है? तो क्या संजीव बीजेपी की चुनावी खुराक है?इस तरह से चीजों को देखना निन्दनीय होना चाहिए।
भारत में साहित्य अकादमी की स्थापना के पीछे जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आज़ाद के सपने थे। स्वतंत्रता के पहले से ही इसकी रूपरेखा बनाई जा रही थी। 1952 में इस सम्बन्ध में भारत सरकार का संकल्प जारी हुआ। इस नवस्वतंत्र राष्ट्र की विभिन्न भाषाओं की साहित्यिक गतिविधियों को एक स्वरूप देने के लिए इस संस्था की स्थापना हुई थी। इसके आरंभिक अध्यक्षों में जवाहरलाल नेहरू, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, ज़ाकिर हुसैन और सुनीति कुमार चाटुर्ज्या जैसे दिग्गज रहे। पहली बार पुरस्कारों की घोषणा 1955 में की गई। हिंदी में उस वर्ष माखनलाल चतुर्वेदी के काव्य-संकलन ‘हिमतरंगिणी ’ को पुरस्कृत किया गया था। नेहरू जी के कार्यकाल में वासुदेवशरण अग्रवाल, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, रामधारी सिंह दिनकर और सुमित्रानंदन पंत को सम्मानित किया गया। सुना था 1957 और 1958 की पुस्तकों के चुनाव में स्वयं नेहरू ने पहल की थी। नरेन्द्र देव की पुस्तक ' बौद्ध धर्मदर्शन ' और राहुल की इतिहास संबंधी किताब ' मध्य एशिया का इतिहास ' का चुनाव स्वयं नेहरू जी किया था। ये किताबें शायद सूचीबद्ध भी नहीं थीं।
हिंदी मामलों में पुरस्कारों की गिरावट 1970 के बाद होने लगी। इस बीच इस संस्था पर वाम प्रभाव हावी हुआ। अज्ञेय को 1964 में ही पुरस्कार न मिल गया होता तो 1970 के बाद के दौर में शायद नहीं मिलता। क्योंकि धर्मवीर भारती को पूरी कोशिश करके मिलने से रोक दिया गया। यह आश्चर्य ही है कि मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, रामबृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वरनाथ रेणु, मुक्तिबोध, मोहन राकेश, रांगेय राघव, राजेंद्र यादव, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, राही मासूम रजा, ज्ञानरंजन, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, शेखर जोशी, विजय देवनारायण साही, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, हिमांशु श्रीवास्तव, मुद्राराक्षस, तुलसीराम, ओमप्रकाश वाल्मीकि, ममता कालिया,अब्दुल बिस्मिल्लाह और आलोक धन्वा जैसे चर्चित रचनाकारों को यह पुरस्कार नहीं मिला। दर्शन, इतिहास, विज्ञान, विचार जैसे विषयों पर लिखे गए पुस्तकों का कभी कोई चयन नहीं हुआ।
कालिदास पर केंद्रित महत्वपूर्ण पुस्तक भगवतशरण उपाध्याय ने लिखी और इसी तरह इतिहासकार रामशरण शर्मा ने 'आर्य संस्कृति की खोज ' शीर्षक पुस्तक मूलरूप से हिंदी में लिखी। फादर कामिल बुल्के ने रामकथा पर मूल हिन्दी में किताब लिखी। इन्हें पुरस्कृत कर इन विषयों में लेखन को प्रोत्साहित किया जा सकता था। लेकिन हिंदी की गालबजाउ संस्कृति को कविता-कहानी-उपन्यास से इतर कुछ दीखता ही नहीं। आज कोई नेहरू नहीं हैं कि इस मामले में हस्तक्षेप करें।
हिन्दी भाषी समाज और हिन्दी लेखक आत्मालोचन करें कि उनमें कितनी कमियां हैं। यह प्रवृति उन्हें चेतना सम्पन्न करेगी और वे अपने तंग नजरिए से बाहर आ सकेंगे। इसके बाद ही वे सुन्दर का संधान कर पाएंगे।
-शुमाइला जाफरी
गुरुवार को इस्लामाबाद हाई कोर्ट ने तोशाखाना मामले में दोषी कऱार दिए गए इमरान ख़ान की सज़ा को निलंबित करने की याचिका को रद्द कर दिया। इसी के साथ पाकिस्तान-तहरीक़-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के संस्थापक और पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की आगामी 8 फऱवरी को हो रहे चुनावों में दावेदारी पेश करनी की उम्मीदें भी टूट गईं। उनकी पार्टी पीटीआई को उम्मीद थी कि इमरान ख़ान जेल में होने के बावजूद चुनाव लड़ पाएंगे। हालांकि, अदालत के इस आदेश से अब इमरान ख़ान के चुनाव में उतरने की संभावनाओं को बड़ा झटका लगा है।
शुक्रवार को साइफऱ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इमरान ख़ान और शाह महमूद क़ुरैशी को ज़मानत दे दी है। हालांकि इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ कुछ और मामले कोर्ट में होने के कारण वो रिहा नहीं हो पाएंगे। दूसरी तरफ शुक्रवार को पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने आगामी चुनावों के लिए पार्टी के चुनाव चिह्न के इस्तेमाल से जुड़ी याचिका को भी खारिज कर दिया है। इसके बाद इमरान ख़ान और उनकी पार्टी की मुश्किलें बढ़ गई हैं।
दूसरे मामलों को लेकर पार्टी अब सुप्रीम कोर्ट में है और उसका कहना है कि चुनाव बराबरी का होना चाहिए। इस्लामाबाद हाई कोर्ट के आदेश को भी सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी गई है। लेकिन पाकिस्तान के विश्लेषक मानते हैं कि इमरान ख़ान के चुनाव में खड़े होने की संभावनाएं अब लगभग ख़ारिज हो गई हैं।
पाकिस्तान के क़ानून के तहत, जेल में क़ैद राजनेता तब तक ही चुनाव लड़ सकते हैं जब तक वो किसी अपराध के दोषी ना कऱार दिए गए हों। इमरान ख़ान को ट्रायल कोर्ट ने 5 अगस्त को तोशाखाना मामले में दोषी कऱार दिया गया था। उन्हें तीन साल क़ैद की सज़ा दी गई है। इसी के नतीजे में, संसद की उनकी सदस्यता ख़त्म हो गई है और उन पर चुनाव लडऩे पर रोक है। हालांकि इस सज़ा के ऐलान के कुछ सप्ताह बाद ही पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने इस्लामाबाद हाई कोर्ट में सज़ा को चुनौती दे दी थी। हालांकि, उन्हें दी गई सज़ा बरकऱार रही।
उम्मीद टूटी पर सुप्रीम कोर्ट का रास्ता है
चुनावों से कुछ ही सप्ताह पहले, पीटीआई ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया और अदालत से उनके दोष को निलंबित कराने की कोशिश की ताकि इमरान ख़ान चुनाव लड़ सकें। लेकिन पार्टी की इस याचिका को भी ख़ारिज कर दिया गया है।
ख़ान के अधिवक्ता और प्रवक्ता नईम हैदर पंजुठा ने सोशल मीडिया पर बताया, ‘तोशाखाना मामले में अदालत के आदेश को रद्द कराने की इमरान ख़ान की याचिका को रद्द कर दिया है, ऐसे में उन्हें अयोग्य कऱार दिया जाना बरकऱार रहेगा।’
एक अन्य पोस्ट में नईम हैदर ने कहा पीटीआई ने हाई कोर्ट के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। इसी सप्ताह पीटीआई ने कहा था कि इमरान ख़ान लाहौर, इस्लामाबाद और मियांवाली की तीन नेशनल असेंबली सीटों से चुनाव लडऩे की योजना बना रहे हैं। पाकिस्तान में राजनेता आमतौर पर एक से अधिक सीटों से अधिक से चुनाव लड़ते हैं ताकि उनकी जीत की संभावना बढ़ जाए। लेकिन इस्लामाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद पीटीआई की ये सभी उम्मीदें टूट गई हैं।
तोशाखाना मामला
पीटीआई के नेता और अधिवक्ता सरदार लतीफ़ खोसा का कहना है कि पीटीआई ने अपना होमवर्क कर लिया है और उसके पास वैकल्पिक क़दम तैयार हैं। उन्होंने कहा, ‘दुर्भाग्य से, ये सभी उसी पुरानी किताब से हैं। ये वही पुरानी पटकथा है। यही माइनस वन फॉर्मूला पाकिस्तान पीपुल्ज़ पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ पर लागू किया गया और बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ़ को राजनीति और सत्ता से दूर रखा गया।’ ‘लेकिन इसने हमेशा बैकफ़ायर (उल्टा नुक़सान) ही किया है। अब इमरान ख़ान की बारी है। इस प्रक्रिया में उनके मूल अधिकारों का खुला उल्लंघन हो रहा है। हम ये उम्मीद करते हैं कि इस्लामाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट रद्द कर देगा।’ एकजुट हो रहे हैं बलूचिस्तान की आज़ादी के लिए लड़ रहे संगठन, पाकिस्तान के लिए कितना ख़तरा?
पीटीआई पर असर
हालांकि, अधिकतर विश्लेषक इतने सकारात्मक नहीं हैं। राजनीतिक टिप्पणीकार सुहैल वडाइच मानते हैं कि आगामी चुनावों में इमरान ख़ान संसद के बाहर ही रहेंगे। वडाइच कहते हैं, ‘ये आदर्श स्थिति नहीं है। ये ऐसा परिदृश्य नहीं है जब सभी राजनीतिक दलों को आम चुनावों में हिस्सा लेने के लिए समान अवसर मिलें। पीटीआई को पहले ही अलग कर दिया गया है और उसके सामने बहुत सी चुनौतियां हैं।’
‘एक राजनीतिक दल के रूप में पीटीआई का भविष्य ही स्पष्ट नहीं है। अधिकतर शीर्ष नेताओं को मजबूर करके पार्टी छुड़वा दी गई है। जो बचे हैं वो गिरफ़्तारियों से भाग रहे हैं। लेकिन मुझे ये भी लगता है कि चुनाव एक बहुत बड़ा मौक़ा है और अभी भी पीटीआई संसद में कुछ सीटें जीत सकती है।’
‘इमरान ख़ान और दूसरे बड़े नेताओं की ग़ैर मौजूदगी का असर पार्टी के प्रदर्शन पर ज़रूर पड़ेगा, लेकिन मेरा मानना है कि पार्टी को अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करनी चाहिए और समय के बदलने का इंतज़ार करना चाहिए।’ लेकिन ज़मीनी स्तर पर ये सकारात्मक सोच बनाये रखना पीटीआई के लिए काफ़ी जटिल और मुश्किल है। पीटीआई का टिकट लेने वाले की नेताओं का आरोप है कि उन्हें पर्चा भरने से ही रोका जा रहा है।
पीटीआई के शोएब शाहीन ने मीडिया से कहा, ‘हमें पंजाब प्रांत से सैकड़ों शिकायतें मिलीं हैं कि पुलिस और ख़ुफिय़ा एजेंसियां हमारे उम्मीदवारों को पर्चा भरने से रोकने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही है। लोगों को अग़वा किया गया है, गिरफ़्तार किया गया है और उनके नॉमिनेशन के पेपर तक छीन लिए गए हैं।’
सुप्रीम कोर्ट ने पीटीआई की बराबरी का अवसर मांगने की याचिका पर सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग से कहा है कि इस बारे में पीटीआई की समस्याओं का हल किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पीटीआई इस संबंध में चुनाव आयुक्त से मिल सकती है।
प्रचार अभियान से लेकर चुनाव चिह्न तक पर संकट
चुनाव अभियान और मीडिया से जुड़े प्रतिबंधों की वजह से पीटीआई अपनी आवाज़ उठाने और चिंताएं ज़ाहिर करने के लिए पूरी तरह से सोशल मीडिया पर निर्भर है। लेकिन कुछ दिन पहले ही, जब पीटीआई ने अपना पहला ऑनलाइन जलसा करने की कोशिश की, तो इंटरनेट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा।
पीटीआई ने आर्टिफ़ीशियल इंटेलिजेंस के ज़रिए अपने नेता इमरान ख़ान का एक वीडियो संदेश भी तैयार किया है। इमरान ख़ान 5 अगस्त को गिरफ़्तारी के बाद से जेल में बंद हैं और उनकी मतदाताओं और समर्थकों तक कोई पहुंच नहीं है। इस एआई संदेश में, इमरान ख़ान ने अपने समर्थकों से अपील की है कि अगर वो हालात बदलना चाहते हैं तो मतदान ज़रूर करें। लेकिन इस रचनात्मकता के बावजूद इमरान ख़ान की मौजूदगी की कमी को पूरा नहीं किया जा सकता है।
विश्लेषक मुजीब उर्रहमान शमी कहते हैं कि ये पीटीआई के लिए एक बहुत बड़ी बाधा है और इससे पूरी चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर सवाल हैं। शुक्रवार को पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने पीटीआई के संगठनात्मक चुनाव और 8 फरवरी को होने वाले चुनावों में पीटीआई के चुनाव चिह्न 'क्रिकेट के बल्ले' के इस्तेमाल की याचिका को खारिज कर दिया है।
मुजीब उर्रहमान शमी कहते हैं, ‘बल्ले को चुनाव निशान के रूप में नामंज़ूर करने के पीटीआई के लिए गंभीर परिणाम होंगे। इसका मतलब ये होगा कि पीटीआई एक पार्टी के रूप में चुनाव नहीं लड़ पाएगी। ऐसी स्थिति में या तो पीटीआई के उम्मीदवारों को स्वतंत्र रूप से चुनाव लडऩा होगा या फिर चुनाव निशान के लिए उन्हें किसी छोटी पार्टी से समझौता करना होगा।’ ‘इससे पीटीआई के मतदाताओं के लिए बहुत असमंजस की स्थिति पैदा होगी और इसका पीटीआई के वोट बैंक पर भी व्यापक असर पड़ेगा।’
वरिष्ठ पत्रकार सलीम बुखारी ने अपने विश्लेषण में कहा है कि पीटीआई इस समय अक्षम है, वह सुप्रीम कोर्ट से तो बराबरी के मौक़े की मांग कर रही है लेकिन उसके ऊपर 9 मई की घटनाओं का बहुत भारी बोझ भी है। और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अभी पार्टी का मुश्किल वक़्त और लंबा खिंचेगा। 9 मई के प्रदर्शनों ने पार्टी को लगभग नष्ट कर दिया है और जो बचा भी है वो पूरी तरह से अव्यवस्थित है।
9 मई को इस्लामाबाद हाई कोर्ट से इमरान ख़ान की गिरफ़्तारी के बाद पूरे पाकिस्तान में दंगे भडक़ गए थे। इन दंगों में अधिकतर सैन्य प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया गया था। पार्टी के अधिकतर नेता चुनाव लड़ नहीं सकते हैं। ऐसे में पीटीआई अब अपनी अधिवक्ता ईकाई पर दांव लगा रही है। ऐसा माना जा रहा है कि अधिकतर वकीलों को टिकट दिए जाएंगे।’
सलीम बुख़ारी कहते हैं कि पार्टी की समस्या ये है कि इनमें से अधिकतर वकील सीधे जनता से जुड़े हुए नहीं हैं। ऐसे में पीटीआई इस चुनौती से कैसे उभरती है, ये अभी देखना बाकी है।
बुख़ारी कहते हैं, ‘अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है, ये भविष्य की बात है।’ वहीं टिप्पणीकार महमत सरफऱाज़ मानते हैं कि इमरान ख़ान का अधिकतर वोट ऐसे लोगों का है जो उनके व्यक्तित्व की प्रसंशा करते हैं। लेकिन अब जब वो ही रेस से बाहर हो जाएंगे, तो इससे पीटीआई के जीतने की संभावनाएं कमज़ोर होंगी और उसकी सत्ता में वापसी की संभावना भी कम हो जाएगी।
वो कहते हैं, ‘असल समस्या ये है कि पाकिस्तान में बैलट बॉक्स ये तय नहीं करता है कि सत्ता किसकी होगी बल्कि शक्तियां ( सुरक्षा प्रतिष्ठान) ही ये तय करते हैं।’ ‘सभी राजनीतिक दल इन शक्तियों से डरे हुए हैं, इसलिए ही वो ख़ामोश हैं, दुर्भाग्यवश, सभी दलों ने समझौता कर लिया है, या फिर ये ही कहा जा सकता है कि समूची राजनीतिक व्यवस्था ही कमज़ोर है। ’ (bbc.com/hindi)
-अशोक पांडे
मोहम्मद अली बॉक्सिंग का वर्ल्ड हैवीवेट चैम्पियन बन चुका था जब 1966 के साल अमेरिका ने अपनी दादागीरी के चलते वियतनाम जैसे छोटे से देश पर हमला बोल दिया। अमेरिका के हर युवा को युद्ध में अनिवार्य रूप से शामिल होने के आदेश हुए लेकिन अली ने साफ मना कर दिया।
जब भी उससे सार्वजनिक रूप से इस बारे में सवाल किये जाते वह ख़ुद की बनाई एक तुकबन्दी गाकर जवाब दिया करता-
‘कीप आस्किंग मी, नो मैटर हाउ लॉन्ग
ऑन द वॉर इन विएतनाम, आई सिंग दिस सॉन्ग
आई एन्ट गॉट नो क्वारल विद द विएत कान्ग
इसके बाद उसने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ‘मेरी अंतरात्मा इजाजत नहीं देती कि मैं एक शक्तिशाली अमेरिका की खातिर अपने भाइयों की हत्या करने जाऊं। मैं उन पर गोली चलाऊँ भी तो किस लिए? उन्होंने मुझे कभी गाली नहीं दी, मुझे जि़ंदा जलाने की कोशिश नहीं की, न मुझ पर अपने कुत्ते छोड़े। उन्होंने मुझसे मेरी नागरिकता नहीं छीनी। उन्होंने मेरे माँ-बाप के साथ हत्या और बलात्कार जैसे पाप नहीं किये। उन पर गोली चलाऊँ तो क्यों? मैं उन गरीबों पर कैसे गोली चला सकता हूँ?’
अली के इस खुले विरोध को राजद्रोह माना गया और उसे पांच साल की सज़ा सुनाई गई। पासपोर्ट छीन लिया कर बॉक्सिंग लाइसेंस निरस्त कर दिया गया। यह अलग बात है कि वकीलों ने उसे जेल जाने से बचा लिया लेकिन एक एथलीट के तौर पर उसके जीवन के सबसे अच्छे साल तबाह हो गए।
खुले आम किये गए इस सरकारी दमन को शुरू में लोगों ने खूब समर्थन दिया। मोहम्मद अली के घर में तीन टेलीफोन थे। तीनों दिन-रात बजते रहते। जब भी उन्हें उठाया जाता दूसरी तरफ से कोई न कोई नफऱत भरा स्वर होता। कोई उसे नमकहराम नीग्रो कहता तो कोई डरपोक चूहा। जो पुलिस वाले कभी उसे एस्कॉर्ट करने में गर्व महसूस करते थे वे उसे जल्दी सबक सिखाने की धमकियां देने लगे।
लेकिन मोहम्मद अली अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का एथलीट थी। धीरे-धीरे दुनिया भर में उसके लिए समर्थन जुटना शुरू हुआ। अब ऐसे लोगों के फोन आने लगे जो उसके कदम को साहसपूर्ण, नैतिक और बिलकुल उचित मानते थे। अली को स्कूल-कॉलेजों, सेमिनारों-सभाओं में भाषण देने को बुलाया जाने लगा।
एक दिन मोहम्मद अली के भाई रहमान ने उसे फोन थमाकर बोला कि इंग्लैण्ड से कोई बूढ़ा आदमी उससे बात करना चाहता है।
बूढ़े ने खांटी ब्रिटिश अंग्रेज़ी वाले लहजे में पूछा, ‘क्या पत्रकारों ने ठीक वही जनता को बताई जो तुमने कही थी?’
मोहम्मद अली ने हामी भरते हुए कहा, ‘आप यह बताइये दुनिया भर के लोग यह क्यों जानना चाहते हैं कि मैं विएतनाम के बारे में क्या सोचता हूँ? मैं न तो कोई नेता हूँ न राजनैतिज्ञ। मैं तो महज़ एक एथलीट हूँ।’
‘देखो भाई’ बूढ़े ने कहा, ‘अमेरिका द्वारा विएतनाम में किया जा रहा यह युद्ध दूसरी लड़ाइयों से ज़्यादा पाशविक है। तुम एक चैम्पियन फाइटर हैं और आम तौर पर दुनिया भर के चैम्पियन खिलाड़ी वही कहते-करते हैं जैसा दुनिया कह-कर रही होती है। कोई भी दूसरा खिलाड़ी खुशी-खुशी लडऩे चला गया होता। तुमने अपने व्यवहार से लोगों को हक्का-बक्का कर दिया।’
अली को बूढ़े की आवाज़ पसंद आई। उसने बूढ़े को बताया वह जल्द ही इंग्लैण्ड आकर वहां के हैवीवेट चैम्पियन हेनरी कूपर से लडऩे आने वाला है। उसने पूछा, ‘आपको क्या लगता है कूपर जीतेगा या मैं?
बूढ़े ने हंसते हुए कहा, ‘हेनरी कूपर काबिल बॉक्सर है लेकिन मैं आपको चुनूंगा।’
मोहम्मद अली ऐसे मौकों पर अक्सर जो कहता था उसने फिर से कहा, ’तुम जितने बेवकूफ दिखाई देते हो, असल में हो नहीं।’
अली ने बूढ़े को हेनरी से साथ होने वाले मुकाबले में आने का न्यौता दिया।
बातचीत से पहले बूढ़े ने अपना नाम बर्ट्रेंड रसेल बताया था। ज़ाहिर है मोहम्मद अली ने उसका नाम नहीं सुन रखा था।
कुछ सालों बाद अली इंग्लैण्ड गया लेकिन बूढ़ा फाइट देखने नहीं आ सका। अलबत्ता दोनों के बीच अगले दो साल तक चिठ्ठियों और ग्रीटिंग कार्ड्स का सिलसिला चलता रहा।
एक दिन अली एक अखबार के दफ्तर में बैठा वर्ल्ड बुक एन्साइक्लोपीडिया खोले बैठा था। उसने इत्तफ़ाकन लम्बी गर्दन वाले एक बूढ़े की फोटो वाला पन्ना खोला। नाम लिखा था – बर्ट्रेंड रसेल। आगे लिखा था – बीसवीं शताब्दी के महानतम गणितज्ञ और दार्शनिक।
मोहम्मद अली सकपका गया। उसने उसी वक़्त कागज़ कलम निकाल कर चिठ्ठी लिखना शुरू किया। रसेल से क्षमा माँगते हुए अली ने लिखा कि वह इस बात पर शर्मिन्दा है कि उस रोज़ अपने बचकानेपन में उसने उनसे न जाने क्या-क्या कह दिया था।
रसेल ने जवाब में लिखा, ‘मोहम्मद अली, मुझे तुम्हारा चुटकुला पसंद आया था। वैसे तुम जितने बेवकूफ दिखाई देते हो, असल में हो नहीं।’
(फोटो: मोहम्मद रफ़ी साहब मोहम्मद अली ने बड़े फैन थे। 1979 में अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान उन्होंने मोहम्मद अली से मिलाने की इच्छा जताई थी जिसे उनके प्रमोटर ने पूरा किया। फ़ोटो उसी मुलाक़ात का है।)
-चंदन कुमार जजवाड़े
बिहार के सीतामढ़ी जि़ले में राज्य सरकार की एक योजना इन दिनों चर्चा में है। सरकार ने सीतामढ़ी में मौजूद माँ जानकी जन्म स्थली ‘पुनौरा धाम’ में विकास का काम शुरू किया है। भारत की हिन्दू पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक़ भगवान राम की पत्नी सीता का जन्म यहीं हुआ था।
सीतामढ़ी में पिछले हफ़्ते बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विकास कार्य का शिलान्यास किया है। इसके तहत पुनौरा धाम को सुंदर और विकसित किया जाएगा। इसमें पुनौरा धाम में विशाल द्वार, परिक्रमा पथ, सीता वाटिका, लव कुश वाटिका, मंडप और पार्किंग जैसी कई सुविधाएं तैयार की जाएंगी। इसके अलावा पुनौरा धाम परिसर में सीता के जीवन काल पर आधारित झांकी भी दिखाई जाएगी। परिसर के अंदर दुकान, खान-पान के लिए सुरक्षित जगह, रूकने की व्यवस्था और टॉयलेट की सुविधा भी विकसित की जाएगी। इसके साथ ही राज्य सरकार ने हाल ही में बेगूसराय के सिमरिया धाम को विकसित करने की योजना भी शुरू की है। ये दावा किया गया है कि सिमरिया के गंगा घाट को हरिद्वार के हर की पौड़ी घाट से भी बेहतर बनाया जाएगा। इसके लिए सिमरिया धाम में सीढ़ी घाट बनवाया जा रहा है और इसका सौंदर्यीकरण किया जा रहा है।
रबर बांध भी बनवाया गया है ताकि यहां पूरे साल पानी उपलब्ध हो और पिंड दान करने को आने वाले श्रद्धालुओं को सुविधा रहे। राज्य सरकार की योजना में पटना सिटी में बड़ी पटन देवी मंदिर का विकास कराना भी शामिल है।
नीतीश का ‘सॉफ़्ट हिन्दुत्व’
पुनौरा धाम बिहार के प्रमुख तीर्थ स्थलों में गिना जाता है। ख़बरों के मुताबिक इसके विकास के लिए नीतीश सरकार ने 72 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है। क्या ये योजनाएँ नीतीश कुमार के ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की तरफ इशारा करती हैं।
वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी के मुताबिक़, ‘भारत धर्म प्रधान देश है। विपक्ष को अल्पसंख्यकों का वोट मिलेगा ही। आजकल धार्मिक स्थानों पर लोग जितना जा रहे हैं, उतना पहले नहीं जाते थे। यह दिखाता है कि आपको हिन्दुओं का वोट भी चाहिए, तो यह सब करना होगा।’
एक तरफ बीजेपी और केंद्र सरकार अयोध्या के विकास के लिए बड़ी योजना पर काम कर रही है। इसके लिए 32 हज़ार करोड़ रुपये की योजना बनाई गई है। अयोध्या में अगले ही महीने राम मंदिर का शिलान्यास किया जाएगा।
दूसरी तरफ हिन्दू तीर्थ स्थलों को लेकर नीतीश सरकार की ताज़ा योजना पर अब बीजेपी पलटवार कर रही है। बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता विजय कुमार सिन्हा ने इसे जनता को भ्रम में डालने की कोशिश बताया है।
विजय कुमार सिन्हा कहते हैं, ‘माननीय मुख्यमंत्री जी अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए चुनावी नौटंकी कर रहे हैं। नीतीश कुमार और इनके बड़े भाई 33 साल से शासन में हैं। अब चला-चली की बेला में किसी तरह इज़्जत बचाने की कोशिश कर रहे हैं।’
‘सीता के साथ भेदभाव’
विजय कुमार सिन्हा का आरोप है कि प्रकाश पर्व के लिए नीतीश सरकार करोड़ों रुपये ख़र्च करती है, लेकिन हिन्दू और सनातनी व्यवस्था के लिए नहीं, यह उनकी छोटी सोच को दर्शाता है।
बिहार के पटना साहिब को सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह की जन्मस्थली के तौर पर जाना जाता है। यहां हर साल प्रकाश पर्व मनाया जाता है। बिहार में सिख धर्म को मानने वाले लोग बड़ी संख्या में पटना साहिब के दर्शन के लिए आते हैं।
जनता दल यूनाइटेड के प्रवक्ता नीरज कुमार जवाब देते हैं, ‘नीतीश कुमार पर एक आरोप लगता है कि वो मुसलमानों के पक्षधर हैं, एक आरोप यह लगता है कि वो सॉफ़्ट हिन्दुत्व वाले हैं। नीतीश हर धर्म का सम्मान करते हैं। बिहार में केवल दस हज़ार सिखों की आबादी होने के बाद भी इतना बड़ा प्रकाश पर्व मनाते हैं।’
नीरज कुमार के मुताबिक़ बिहार सरकार मंदिर के लिए ‘चारदीवारी योजना’ भी चलाती है। राज्य में न्यास बोर्ड अधीन आने वाले मंदिरों और इसके परिसर को अवैध कब्ज़े से बचाने के लिए राज्य सरकार उसके चारों तरफ पक्की दीवार का घेरा डलवाती है।
बीजेपी के विजय कुमार सिन्हा कहते हैं, ‘जब राम जन्मभूमि को लेकर इतना बड़ा आंदोलन चला और मोदी जी के आने के बाद भी वो अभियान चला। अब तक किसने नीतीश को रोक रखा था। अयोध्या के नाम से उत्तर प्रदेश जाना जाता है तो बिहार की जनता भी चाहती है कि माँ जानकी के नाम से बिहार को जाना जाए।’
केंद्र सरकार से मांग
हालांकि बिहार में अलग अलग राजनीतिक दल सीतामढ़ी और सीता जन्मस्थली के विकास को नजऱअंदाज़ करने का आरोप लगाते रहे हैं।
बिहार में सीता और सीतामढ़ी के साथ भेदभाव का आरोप बीजेपी के ऊपर भी लगता है। इस मामले में बिहार विधान परिषद के सभापति और सीतामढ़ी से ताल्लुक रखने वाले जेडीयू एमएलसी देवेश चंद्र ठाकुर लगातार आवाज़ उठाते रहे हैं।
देवेश चंद्र ठाकुर कहते हैं, ‘सीतामढ़ी पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। आज मैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का धन्यवाद करता हूं कि सीतामढ़ी के विकास की एक शुरुआत हुई है। हम केंद्र सरकार से मांग करते हैं कि सीतामढ़ी और अयोध्या के बीच एक ‘राम जानकी एक्सप्रेस’ ट्रेन ही दे दें।’
राजनीति में धर्म का कार्ड
देवेश चंद्र ठाकुर आरोप लगाते हैं, ‘भारत सरकार अयोध्या के विकास के लिए 32 हज़ार करोड़ देती है। उसका दस फ़ीसदी भी सीतामढ़ी को दे देते। सीता के साथ इतिहास में भी अन्याय हुआ है और आज भी हो रहा है। केंद्र सरकार थोड़ा सीतामढ़ी पर भी ध्यान देती।’
धार्मिक तौर पर बिहार बौद्ध और जैन धर्म का केंद्र रहा है। इसके अलावा पौराणिक ग्रंथ रामायण की रचना करने वाले वाल्मीकि का संबंध भी बिहार के पश्चिमी चंपारण जि़ले के वाल्मीकिनगर से रहा है। वहीं हर साल पितृ पक्ष के मौक़े पर पूर्वजों के पिंड दान के लिए देश-विदेश से लोग गया पहुँचते हैं।
ऐसे में अयोध्या में राम मंदिर और सीतामढ़ी में माँ जानकी मंदिर की ख़ास चर्चा क्या किसी नई राजनीति की तरफ इशारा करती है?
कन्हैया भेलारी कहते हैं, ‘आपको सबका वोट चाहिए और नीतीश इसी की कोशिश कर रहे हैं। यह बात भी है कि नीतीश कुमार राम का जवाब सीता से देने की तैयारी में हैं।’ एक तरफ बीजेपी खुलकर ‘हिन्दुत्व’ की राजनीति करती दिखती है, दूसरी तरफ वह अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को लेकर भी काफ़ी उत्साहित है। इस तरह से बीजेपी बहुसंख्यक वोट बैंक को साधने की कोशिश में दिखती है। हालांकि बीजेपी विरोधी दलों की भी इस मामले में अपनी रणनीति नजऱ आती है।
इस रणनीति को इसी साल हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी के ‘बजरंगबली के नाम पर खेले गए कार्ड’ के कामयाब नहीं होने का श्रेय दिया जाता है।
सीतामढ़ी का महत्व
कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को बीजेपी को बुरी तरह हराया था। इसके अलावा बीजेपी से मुक़ाबले में साल 2020 में दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल कई मंचों पर ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करते हुए नजऱ आए थे। इसी सिलसिले में अब जेडीयू सीता और सीतामढ़ी के मुद्दे पर सक्रिय दिखती है।
जेडीयू के प्रवक्ता नीरज कुमार आरोप लगाते हैं, ‘सीतामढ़ी को केंद्र सरकार ने रामायण सर्किट में भी जगह नहीं दी है, जबकि वह इतना महत्वपूर्ण है। केंद्र अयोध्या में राम मंदिर के लिए 32 हज़ार करोड़ रुपये देता है, लेकिन सीतामढ़ी को क्या दिया?’ हालांकि सीता की जन्मस्थली को लेकर कुछ विवाद भी रहे हैं। इसी साल आई फि़ल्म ‘आदिपुरुष’ में सीता को ‘भारत की बेटी’ बताया गया था। नेपाल की राजधानी काठमांडू के मेयर ने इस डायलॉग पर आपत्ति जताई थी और इसे फि़ल्म से हटाने की मांग की थी।
नेपाल का दावा रहा है कि पौराणिक किरदार सीता का जन्म नेपाल के जनकपुर में हुआ था। इसी वजह से नेपाल में फि़ल्म के इस डायलॉग पर विवाद खड़ा हुआ था। ‘धर्मायण’ पत्रिका के संपादक और इतिहासकार भवनाथ झा ने इस विषय पर काफ़ी अध्ययन किया है। उन्होंने अपने लेख ‘मिथिला एक खोज’ में भी इसका जि़क्र किया है। उनका मानना है कि पहले नेपाल भी इस बात पर सहमत था कि सीता का जन्म आज के सीतामढ़ी में हुआ था और विवाह इत्यादि संस्कार आज के नेपाल के इलाक़े में।
कहां हुआ सीता का जन्म?
भवनाथ झा कहते हैं, ‘आज भले ही लोग कोसी से लेकर गंडक तक मिथिला मानते हैं। लेकिन राम, सीता और जनक के संदर्भ में मिथिला विदेह की राजधानी थी। वाल्मीकि के रामायण में सीता की जन्मस्थली अभी कहाँ हैं, इसकी ठोस सूचना नहीं मिलती है, जिससे बताया जा सके कि यह नगरी कहाँ थी।’
ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत में जहाँ जनक की राजधानी बताई गई है वह सीतामढ़ी या जनकपुर दोनों में से कोई भी हो सकता है। वहीं मैथिली कवि विद्यापति की रचना ‘भूपरिक्रमणम’ में दो नाम आए हैं। एक है गिरिजा स्थान और एक है गिरिजा ग्राम।
भवनाथ झा के मुताबिक़ गिरिजाग्राम का मतलब आज का सीतामढ़ी है। गिरिजा स्थान जो फुलहर के नाम से जाना जाता है, उसका संबंध फूलों के बाग से हो सकता है। जबकि आइन-ए-अकबरी के तिरहुत खंड में 74 परगना की सूची है। इसमें एक परगना का नाम है ‘महला’, यही मिहिला परगना है। चौदहवीं शताब्दी के जैन साहित्य में ‘मिथिला’ के लिए प्राकृत भाषा में ‘मिहिला’ लिखा गया है। मौजूदा जनकपुर जिस परगना में आता है उसका नाम आइन-ए-अकबरी में अबुल फज़ल ने कोरडी दिया है, यानी यह अलग परगना है।
परगना का नामकरण दिल्ली सल्तनत के काल में तेरहवीं- चौदहवीं शताब्दी में हुआ था। यानी दिल्ली सल्तनत के काल में भी मिथिला एक क्षेत्र के रूप में जाना जाता था। आज भी राजस्व के रिकार्ड में सीतामढ़ी मिथिला परगना में आता है।
जहां हुआ लव कुश का जन्म
भवनाथ झा के मुताबिक़, ‘साल 1740 में नेपाल के शासकों ने अयोध्या से आए साधुओं को नेपाल में बसाया और वहाँ का विकास शुरू हुआ। उसके बाद साल 1816 में ब्रिटिश भारत और नेपाल के बीच सुगौली की संधि के बाद जनकपुर का ज़्यादा विकास हुआ और ग्रंथों में जि़क्र होने के बाद भी लोग सीतामढ़ी को भूलते गए।’
देवेश चंद्र ठाकुर दावा करते हैं, ‘सुगौली की संधि में भारत की सीमा का एक बड़ा इलाक़ा नेपाल को दे दिया गया। वहां आज भी दो कुटिया हैं, जो खंडहर बन चुकी हैं। माना जाता है कि एक कुटिया में वाल्मीकि रहते थे और दूसरे में सीता ने लव-कुश को जन्म दिया था।’ उन्होंने इसे वापस लेने के लिए कऱीब छह महीने पहले प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी। हालांकि उन्हें चिट्ठी का जवाब नहीं मिला है लेकिन वो कहते हैं कि प्रधानमंत्री नेपाल से बात कर वह इलाक़ा वापस लेने की पहल करें और इसके बदले नेपाल को दूसरा इलाक़ा दे दें।
यानी साल 2024 के लोकसभा चुनावों तक राम और सीता को लेकर अभी कई मुद्दों पर बहस जारी रह सकती है। हालाँकि यह बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ केंद्र सरकार और बीजेपी के ख़िलाफ़ किन मुद्दों को लेकर जनता के पास जाती है। (bbc.com/hindi)
दिलनवाज पाशा
नई दिल्ली में ‘इंडिया’ गठबंधन की बैठक में किसी नेता को आधिकारिक रूप से प्रधानमंत्री का चेहरा नहीं घोषित किया गया।
मगर आम आदमी पार्टी के सांसद राघव चड्ढा ने मीडिया से कहा- ममता बनर्जी ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े के नाम को प्रस्तावित किया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस नाम का समर्थन किया।
‘इंडिया’ गठबंधन के दो बड़े नेताओं की तरफ़ से मल्लिकार्जुन खडग़े का नाम आगे करने के बाद ये सवाल उठ रहा है कि क्या मल्लिकार्जुन खडग़े प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के चेहरे को चुनौती दे पाएंगे?
ये सवाल भी है कि क्या 'इंडिया' गठबंधन और कांग्रेस को मल्लिकार्जुन खडग़े का नाम स्वीकार होगा।
82 साल के मल्लिकार्जुन खडग़े एक दलित नेता हैं और पिछले 55 सालों से भारत की राजनीति में सक्रिय हैं।
खडग़े के बारे में कुछ बातें
साधारण परिवार से आने वाले खडग़े मूलरूप से कर्नाटक के हैं
1969 में गुलबर्गा शहर में कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बने थे
कर्नाटक में लंबे समय तक विधायक रहे और दो बार सांसद भी चुने गए
पिछले सात-आठ साल से दिल्ली की राजनीति में ही सक्रिय हैं
लंबे राजनीतिक सफर में सिर्फ एक बार 2019 के लोकसभा चुनाव में हार मिली
2021 से खडग़े राज्यसभा में विपक्ष के नेता भी हैं
इंडिया गठबंधन का दलित कार्ड?
भारतीय लोकतंत्र के अभी तक के इतिहास में कोई दलित नेता प्रधानमंत्री पद तक नहीं पहुंचा है। ऐसे में विश्लेषक मान रहे हैं कि खडग़े का नाम आगे करके विपक्ष ने दलित कार्ड खेला है।
भारत में आबादी का जातिगत आंकड़ा नहीं है, हालांकि अनुमानों के मुताबिक भारत में कऱीब 25 फीसदी दलित हैं।
खडग़े नाम आगे करने की वजह के बारे में वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ''मल्लिकार्जुन खडग़े दलित नेता हैं। मौजूदा राजनीति में मोदी एनडीए की तरफ से एक ओबीसी चेहरा हैं, इंडिया गठबंधन की तरफ़ से नीतीश कुमार एक ओबीसी चेहरा हो सकते थे लेकिन इंडिया गठबंधन को समझ में आया है कि नीतीश कुमार के लिए ओबीसी चेहरे के रूप में मोदी का मुक़ाबला करना आसान नहीं होगा, इसलिए अब एक नया दलित कार्ड खेला गया है क्योंकि अभी तक भारत में कोई दलित प्रधानमंत्री नहीं बना है। खडग़े को चेहरा घोषित करके इंडिया गठबंधन चुनावों को रोचक बना सकता है।’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री मानते हैं कि मल्लिकार्जुन खडग़े का नाम आगे करके इंडिया गठबंधन ने आगामी लोकसभा चुनाव को रोचक और बीजेपी के लिए चुनौतीपूर्ण बना दिया है।
हेमंत अत्री कहते हैं, ‘मल्लिकार्जुन खडग़े देश के बड़े दलित नेता हैं। भारतीय राजनीति में अभी तक कोई दलित प्रधानमंत्री नहीं हुआ है। देश में दलितों की बड़ी आबादी है। अगर इन समीकरणों को ध्यान में रखकर देखा जाए तो मल्लिकार्जुन खडग़े आगामी चुनाव को रोचक बना सकते हैं। ’
आंकड़े क्या कहते हैं
भारत में दलित आरक्षण वाली 84 सीटें
बीजेपी के पास हैं 46 सीटें
इन सीटों पर 40 प्रतिशत वोट बीजेपी को मिला
कांग्रेस के पास इन 84 में से सिफऱ् 5 सीटें हैं
यूपी में दलितों के लिए 17 सीटें आरक्षित
इनमें से बीजेपी के पास 15 सीटें, बीएसपी के पास दो, कांग्रेस के पास कोई सीट नहीं
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर मल्लिकार्जुन खडग़े को इंडिया गठबंधन विपक्ष का चेहरा बना भी लेते हैं तो क्या दलित वोट इंडिया गठबंधन के साथ जाएगा?
विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘बीजेपी इससे पहले ही रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर दलित कार्ड खेल चुकी है और इसका बड़ा फायदा उठा चुकी है। ओबीसी के बाद दलित वोटर भी बीजेपी के साथ बड़ी तादाद में जुड़े हैं। ज़मीनी स्तर पर आज कांग्रेस बहुत कमज़ोर है। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को ज़रूर दलितों का भी वोट मिला है, लेकिन बीजेपी की तुलना में इस समीकरण में कांग्रेस अभी बहुत कमज़ोर है। सिर्फ खडग़े को चेहरा बनाकर मोदी का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। ये कोई तुरुप का इक्का नहीं होगा, बस लड़ाई रोचक हो जाएगी।’
त्रिवेदी कहते हैं, ‘इंडिया गठबंधन मोदी के ख़िलाफ़ चेहरा और मुद्दे तलाश रहा है और अभी तक गठबंधन को कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिली है।’
इंडिया गठबंधन की अंदरूनी राजनीति
इंडिया गठबंधन में कई बड़े नेता हैं जो स्वयं में क्षत्रप हैं और अपने आप को गठबंधन के अगुआ के रूप में देख रहे हैं।
ऐसे नेताओं के बीच किसी ऐसे नेता का नाम आगे करना जो सबके स्वीकार्य हो, गठबंधन के लिए एक चुनौती हो सकता था।
हालांकि विश्लेषक मानते हैं कि गठबंधन के भीतर कई नेता गांधी परिवार या राहुल गांधी के साथ इतने सहज नहीं हो सकते जितने वो मल्लिकार्जुन खडग़े के साथ हो सकते हैं।
विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल गांधी परिवार से एक दूरी बनाये रखना चाहते हैं, वो राहुल गांधी को अपने नेता की तरह नहीं पेश करना चाहते इसलिए भी मल्लिकार्जुन खडग़े का नाम एक नया रास्ता था। यानी इस लड़ाई में राहुल गांधी नहीं होंगे। ऐसा करके इंडिया गठबंधन की अंदरूनी राजनीति को साझा गया है।’
कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग राहुल गांधी को आगामी चुनावों में प्रधानमंत्री चेहरे के रूप में पेश कर रहा था। हालांकि राहुल गांधी ने कभी स्वयं ऐसा नहीं किया।
लेकिन राहुल गांधी के चेहरे पर सभी दलों को मनाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होता।
हालांकि हेमंत अत्री राहुल गांधी की जगह खडग़े को आगे करने का एक और कारण बताते हैं, ‘एक रणनीति के तहत खडग़े को आगे किया गया है। एक कारण ये भी है कि राहुल गांधी कभी भी अल्पमत की सरकार का नेतृत्व नहीं करेंगे। राहुल ने सार्वजनिक रूप से ये नहीं कहा है लेकिन ये स्पष्ट है। जब भी राहुल गांधी कभी किसी रैली में रहते हैं तो विपक्ष के नेताओं में गांधी परिवार के नेतृत्व को स्वीकार करने को लेकर एक खास तरह की हिचक रहती है। कांग्रेस सबसे बड़ा विपक्षी दल है, इसमें कोई शक नहीं है लेकिन राहुल समूचे विपक्ष को स्वीकार्य नहीं हैं।’
लेकिन ये सवाल भी है कि क्या इंडिया गठबंधन इस नाम पर सहमत होगा या नहीं होगा, कांग्रेस सहमत होगी या नहीं होगी।
इंडिया गठबंधन की एक बैठक में जब खडग़े बोल रहे थे तब लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार चले गए थे।
हेमंत अत्री कहते हैं, ‘खडग़े पर कांग्रेस के भीतर भी कोई आपत्ति नहीं होगी। गठबंधन में नीतीश कुमार और लालू यादव को कुछ आपत्ति हो सकती है क्योंकि अगर नीतीश कुमार को चेहरा घोषित किया जाता तो बिहार में लालू परिवार से मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ़ हो जाता। हालांकि अगर इस स्थिति को हटा दें तो खडग़े के नाम से किसी को आपत्ति नहीं होगी।’
क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दे पाएंगे?
कऱीब दस साल से भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा चेहरा हैं। हालिया विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा।
बीजेपी ने मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बचाई और छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया। इन तीनों ही राज्यों में चुनाव मोदी के नाम पर लड़ा गया। मध्य प्रदेश में तो नारा तक दिया गया- ‘एमपी के मन में मोदी, मोदी के मन में एमपी’।
यही नहीं बिना किसी विरोध के बीजेपी ने इन तीनों ही राज्यों में तीन नए नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया।
मौजूदा भारतीय राजनीति में पीएम मोदी के व्यक्तित्व को बड़ी आबादी पसंद करती है। कुछ उन्हें ‘विश्व गुरु’ के रूप में देखते हैं। ऐसे में क्या खडग़े मोदी को चुनौती दे पाएंगे?
विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘मौजूदा परिस्थितियों में ये नहीं लगता कि मल्लिकार्जुन खडग़े मोदी को मज़बूत चुनौती दे पाएंगे। मोदी एक लोकप्रिय नेता हैं। बीजेपी के पास 40 प्रतिशत के करीब वोट हैं। ओबीसी के 80 से अधिक सांसद बीजेपी के पास हैं, उनकी सरकार में कई ओबीसी मंत्री हैं। वो देश का सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा हैं।’
नरेंद्र मोदी ने अपने आप को भारत में एक गरीब और चाय बनाने वाले के रूप में पेश किया था और इसी से राष्ट्रीय स्तर पर अपना चुनाव अभियान शुरू किया था।
क्या खडग़े अपनी इस तरह की छवि गढ़ पाएंगे?
हेमंत अत्री कहते हैं, ‘खडग़े कभी इस तरह की बात नहीं करते हैं लेकिन सबको पता है कि उनकी पृष्ठभूमि क्या है। उनकी सादगी और सरलता को सब जनते हैं। उनमें कोई अहंकार नहीं है। वहीं मोदी ने जो शुरू में अपना रूप पेश किया था और अब जो वो हैं वो बिलकुल विपरीत हैं। ऐसी सूरत में खडग़े एक बिलकुल सटीक व्यक्ति हैं नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए। खडग़े पर किसी तरह का कोई आरोप नहीं है।’
कुछ लोगों का ये भी मानना है कि पीएम मोदी की जो ‘लार्जर दैन लाइफ़’ यानी विराट छवि है उसके पीछे मीडिया और मार्केटिंग भी है।
हेमंत अत्री कहते हैं, ‘नेता और उसका कद विज्ञापन और मार्केटिंग से नहीं बनता हैं। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी इमेज बनाने पर बहुत खर्च किया है। दुनिया में शायद ही कोई नेता होगा जिसने अपनी ऐसी छवि गढ़ी हो। मीडिया ने मोदी को स्थापित किया है।’
वो बोले, ''अगर इस नजरिए से देखें तो कोई भी नेता मोदी का मुकाबला नहीं कर पाएगा। लेकिन भारत लोकतंत्र है। भारत में नेता जनता के बीच से निकलकर आते हैं, जिस तरह से मोदी इसी देश में जनता के बीच से निकलकर आए हैं, वैसे ही खडग़े हैं, देश उन्हें भी पसंद कर सकता है। लेकिन ये भी सच है कि भारत की बड़ी आबादी आज नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व से अभिभूत है। ऐसे में खडग़े के लिए उन्हें चुनौती देना आसान नहीं होगा।’ (bbc.com)
एक व्यापारी अकबर के समय में बिजनेस करता था।
महाराणा प्रताप से लड़ाई की वजह से अकबर कंगाल हो गया और व्यापारी से कुछ सहायता मांगी।
व्यापारी ने अपना सब धन अकबर को दे दिया।
तब अकबर ने उससे पूछा कि तुमने इतना धन कैसे कमाया, सच सच बताओ नहीं तो फांसी दे दूँगा।
व्यापारी बोला-जहांपनाह मैंने यह सारा धन कर चोरी और मिलावट से कमाया है।
यह सुनकर अकबर ने बीरबल से सलाह करके व्यापारी को घोड़ों के अस्तबल में लीद साफ करने की सजा सुनाई।
व्यापारी वहां काम करने लगा।
दो साल बाद फिर अकबर लडाई मे कंगाल हो गया तो बीरबल से पूछा अब धन की व्यवस्था कौन करेगा?
बीरबल ने कहा बादशाह उस व्यापारी से बात करने से समस्या का समाधान हो सकता है। तब अकबर ने फिर व्यापारी को बुलाकर अपनी परेशानी बताई तो व्यापारी ने फिर बहुत सारा धन अकबर को दे दिया।
अकबर ने पुछा तुम तो अस्तबल में काम करते हो फिर तुम्हारे पास इतना धन कहां से आया सच सच बताओ नहीं तो सजा मिलेगी।
व्यापारी ने कहा यह धन मैंने आप के आदमी जो घोड़ों की देखभाल करते है उन से यह कहकर रिश्वत लिया है कि घोडे आजकल लीद कम कर रहे है। मैं इसकी शिकायत बादशाह को करूँगा क्योंकि तुम घोडो को पुरी खुराक नहीं देते हो और पैसा खजाने से पूरा उठाते हो।
अकबर फिर नाराज हुआ और व्यापारी से कहा कि तुम कल से अस्तबल में काम नहीं करोगे। कल से तुम समुन्र्द के किनारे उसकी लहरें गिनो और मुझे बताओ।
दो साल बाद अकबर फिर लड़ाई में कंगाल।
चारों तरफ धन का अभाव। किसी के पास धन नहीं।
बीरबल और अकबर का माथा काम करना बंद। अचानक बीरबल को व्यापारी की याद आई। बादशाह को कहा आखरी उम्मीद व्यापारी दिखता है आपकी इजाजत हो तो बात करूँ ।
बादशाह का गुरूर काफूर, बोला किस मुंह से बात करें दो बार सजा दे चुके हैं।
दोस्तों, व्यापारी ने फिर बादशाह को इतना धन दिया कि खजाना पूरा भर दिया।
बादशाह ने डरते हुए धन कमाने का तरीका पूछा तो व्यापारी ने बादशाह को धन्यवाद दिया और कहा इस बार धन विदेश से आया है क्योंकि मैंने उन सबको जो विदेश से आते हैं आपका फरमान दिखाया कि जो कोई मेरे लहरें गिनने के काम में अपने नाव से बाधा करेगा बादशाह उसे सजा देंगे।
सब डर से धन देकर गये और जमा हो गया।
कहानी का सार-
सरकार व्यापारी से ही चलती है,
चाहे अकबर के जमाने की हो या आज की।
इसलिये प्लीज
व्यापारियों को तंग ना करे
(सोशल मीडिया से)
पुष्य मित्र
कोई भी समूह क्या खाता है यह उसके परिवेश और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जैसे बर्फीले मुल्क में मांसाहार और शराब आवश्यक है और बिहार-बंगाल जैसे नदियों के इलाके में मछलियां। इसलिए कश्मीर से लेकर नॉर्थ ईस्ट तक और बिहार बंगाल में ब्राह्मण जातियां भी मांसाहार करती रही हैं। उत्तर बिहार-बंगाल और असम में तो पूरा तीन महीने पूरा इलाका बाढ़ में डूबा रहता था, वे शाकाहार कैसे अफोर्ड करते।
कई इलाके के लोग दूध और डेयरी उत्पाद अधिक खाते हैं और कई इलाके के मसालेदार भोजन। एक ही इलाके में अलग-अलग समूह के लोगों के भी भोजन अलग तरह के होते हैं। जैसे बिहार में ही मुशहर चूहा खाते रहे हैं और निषाद जातीय समूह मछली के साथ-साथ केकड़े और घोघा आदि भी खाते हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों में कुत्ते और सांप आदि खाने की भी परंपरा है। बस्तर में और दूसरे आदिवासी इलाकों में चींटी की चटनी खाई जाती है।
खानपान की कोई परंपरा गलत नहीं कही जा सकती, क्योंकि ये सदियों से टेस्टेड परंपरा है। इन्हीं परंपराओं की वजह से भीषण गरीबी के बीच भी मुशहर, डोम और निषाद जैसी जातियों के लोग हृष्टपुष्ट होते आये हैं। इन्हें हरी सब्जी और दूध नसीब नहीं होता। मगर अपने परिवेश में उपलब्ध मुफ्त के मांसाहार से इन्हें प्रोटीन और वसा मिलती रहती है।
सिक्किम के मंदिरों में मुझे बीफ और पोर्क खाने वाले पुजारी मिले। उन्हें बिल्कुल हैरत नहीं होती थी कि वे पुजारी होकर मांसाहार क्यों कर रहे।
मेरे एक मित्र लाइफ स्टाइल रोग से पीडि़त थे। उन्हें डॉक्टर ने कहा कि आप वही खाइये, जो आपके दादा-परदादा खाते रहे हैं। जाहिर है, वे परंपरा से टेस्टेड भोजन के महत्व को समझते थे।
शाकाहार मूलत: पश्चिम भारत का प्रचलन है। जहां वैष्णव धर्म के मानने वाले अधिक हैं। राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में शाकाहार का चलन अधिक है। यूपी और मध्यप्रदेश में और दूसरे आसपास के राज्यों में ब्राह्मण शाकाहारी होते हैं। वहां की परिस्थितियों ने इस परंपरा का जो जन्म दिया होगा कि जीवों को बचाकर रखा जाए। ये खेती और दूध आदि देने में काम आते हैं।
इंसान जो खाता है, जो उसका प्रिय भोजन होता है, अपने ईश्वर को वही भोग के रूप में चढ़ा देता है। वैष्णव धर्मावलंबी शाकाहारी प्रसाद चढ़ाते हैं तो शक्ति के उपासक देवी को बली के रूप में जीव चढ़ाते हैं और फिर उसे खाते हैं। उत्तर बिहार के कुछ इलाकों में जहां लोग ज्वालामुखी की पूजा करते हैं, उन्हें मुर्गे की बलि दी जाती है। कई देवियों को तो मदिरा तक अर्पित की जाती है। हिंदुओं में भी आदिवासियों में भी यह परंपरा रही है। इसमें कुछ असहज नहीं है।
भोजन की परंपराओं का भी अतिक्रमण होता रहा है। बौद्ध और जैन परंपराएं तो पशु बलि के विरोध में ही अस्तित्व में आयीं। इसके बावजूद बुद्ध ने मांसाहार को पूरी तरह निषेध नहीं किया। उनका आखिरी आहार भी सूअर का मांस था। बाद में वज्रयानी और तंत्रयानी बौद्ध ने भी मांस और मदिरा के सहारे पूजन प्रक्रिया शुरू की। यही तांत्रिक परंपरा फिर हिंदुओं में भी शाक्त और तंत्र परंपरा के रूप में आयी और यहां भी मांस और मदिरा का भोग लगने लगा।
जैन परंपरा शाकाहार को लेकर रिजिड रहे और इसलिए जैन धर्म में अमूमन व्यवसायी वर्ग ने ही रुचि ली, जो शाकाहार करके जीवित रह सकते थे। जहां बौद्ध धर्म को अपनाने वाले हर जाति के लोग थे, जैनियों के साथ ऐसा नहीं हुआ।
माना जाता है कि बौद्ध औऱ जैन परंपराओं का हिंदुओं पर असर ये हुआ कि वे पशु बलि के बदले नर बलि(नर पशु बलि) देने लगे। क्योंकि नर पशु न दूध देते थे, न बच्चे। इसलिए आज भी नर बलि का जिक्र धर्मग्रंथों में होता है। जानकार नर बलि का अर्थ नर पशु बलि के रूप में लेते हैं।
फिर दूसरा संक्रमण वैष्णव संप्रदाय का हुआ, जिसके अगुआ चैतन्य महाप्रभु थे। फिर कबीर पंथ ने शाकाहार की परंपरा को आगे बढ़ाया। रामनामी संप्रदाय भी आया, जिसने लोगों को कंठी धारण करने के लिए प्रेरित किया।
खास कर कबीरपंथ और ऐसे मिलते जुलते संप्रदाय जो वैचारिक रूप से तो काफी प्रगतिशील थे, मगर उन्होंने समाज के गरीब और निचली श्रेणी के लोगों में शाकाहार का प्रचार कर उनका बड़ा नुकसान कर दिया। ऐसा मैं मानता हूं।
बचपन में हमने इन जातियों के लोगों को हृष्ट-पुष्ट और मेहनती पाया है। मगर इन्होंने मांसाहार छोड़ा तो इनकी बस्तियों में बच्चे कुपोषित होने लगे। चूहे, घोंघे, केकरे और मछलियों के रूप में सहज और लगभग मुफ्त मिलने वाले पोषक आहार से ये वंचित हो गये। बदले में हरी सब्जी और दूध पाने की इनकी हैसियत नहीं थी।
मगर वैष्णव होने को सम्मानित निगाह से देखा गया और इसका आकर्षण पैदा किया गया। चूहा, घोघा और केकड़ा खाने को हीन समझा गया।
इस मसले पर बात करते हुए कथाकार मधुकर की कहानी दुश्मन याद आती है। जिसमें डोम जाति का एक युवक एमएलए बनता है। जब उसके स्वागत में उसकी बस्ती के लोग सूअर का मांस पकाते हैं, तो वह उसे खाने से इनकार कर देता है। अपने गले की तुलसी की कंठी दिखाता है। उसके जाने के बाद उसकी बस्ती के लोग कहते हैं, अब यह हमारा नहीं रहा, यह दुश्मन हो गया। इस कथा में यह समझ आता है कि जैसे ही किसी का वर्ग बदलता है, वह शाकाहार को अपनाने के आकर्षण में घिर जाता है।
नया अभियान सनातनी हिंदुत्व से प्रेरित है। वह सभी हिंदुओं को वैष्णव बनाना चाहता है। क्योंकि इसकी राजनीति का केंद्र देश के वैष्णव इलाके में है। पिछले दिनों मैंने एक नक्शा पेश किया था। उस नक्शे को फिर से देखें। समझ आयेगा।
मगर भारत का हिंदुत्व और सनातन भी एकरूप नहीं है। इसमें अलग-अलग परंपराएं हैं। आप सभी परंपराओं को एकरूप नहीं कर सकते। इसलिए दरभंगा में जब श्यामा मंदिर में बलि प्रथा को बंद कराया जाता है तो उसके विरोध में दक्षिणपंथी औऱ हिंदुत्ववादी भी सक्रिय नजर आते हैं।
व्यक्तिगत रूप से मैं भी बलि प्रथा के विरोध में हूं। मगर यह मेरा व्यक्तिगत विचार है। मैं अपना यह आग्रह किसी पर थोपना नहीं चाहता। हिंदू धर्म में यह व्यवस्था है कि अगर आप पशुबलि बंद कराना चाहते हैं तो नारियल या कुम्हर की बलि दे सकते हैं। मगर यह व्यक्तिगत चयन है, अगर आपकी इच्छा है तो इसे अपना लें। इसके लिए सामूहिक और संस्थागत आदेश ठीक नहीं। क्योंकि अंतत: ये चीजें हमें दूसरी परंपराओं के भी निषेध करने की तरफ ले जाती है।
कुल मिलाकर यह सब भोजन की राजनीति है। हम अपना विचार थोपते हुए अक्सर दूसरों पर अपनी भोजन परंपरा को भी थोपने लगते हैं और दूसरों की भोजन परंपरा को कमतर बताने लगते हैं। जबकि इस दुनिया में हर जीव भोजन के लिए किसी न किसी जीव की हत्या तो करता ही है। चाहे शाकाहारी हो, मांसाहारी हो या वीगन हो। इसलिए भोजन के मामले में दखल देना भी एक खतरनाक तानाशाही है। इससे बचना चाहिए।
(ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, इसका मेरी पत्रकारिता से लेना-देना नहीं है)
नासिरुद्दीन
कामकाजी महिलाओं को माहवारी के दौरान छुट्टी मिलनी चाहिए या नहीं? यह बहस या विवाद का मुद्दा क्यों होना चाहिए? मगर यह विवाद और बहस का मुद्दा बन गया है।
इसकी ताजा वजह, केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी का एक बयान है। उनका कहना है कि माहवारी के लिए छुट्टी की ज़रूरत नहीं है। यह बीमारी या विकलांगता नहीं है। उनके मुताबिक, सरकार का माहवारी छुट्टी देने के बारे में कोई प्रस्ताव नहीं है।
माहवारी कोई बीमारी या विकलांगता नहीं है, स्मृति ईरानी का यह कहना तो ठीक है। माहवारी क़ुदरती प्रक्रिया है। यह स्त्री की जि़ंदगी के साथ जुड़ा है। अपने जीवन का बड़ा हिस्सा वह माहवारी चक्र के साथ गुज़ारती है। इसलिए इसे सामान्य बात माना जा सकता है। मगर क्या वाक़ई ऐसा है?
माहवारी अनेक लड़कियों और स्त्रियों के लिए सामान्य या रोजमर्रा की बात नहीं है। यह प्रक्रिया कइयों के लिए काफ़ी तकलीफ़देह है। माहवारी शुरू होने से पहले और माहवारी के दौरान अनेक महिलाएँ जिस तजुर्बे से गुजऱती हैं, वे वही समझ सकती हैं।
शायद उन्हीं के लिए यह कहा गया है, जाके पैर फटे न बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई। हाँ, यह भी उतना ही सच है कि अनेक महिलाओं के लिए यह कम तकलीफ़देह होता है।
तकलीफ़देह माहवारी में क्या-क्या होता है
बीबीसी में प्रकाशित एक टिप्पणी कहती है कि माहवारी के दौरान तन-मन में ढेरों बदलाव होते हैं।
इस प्रक्रिया के शुरू होने से पहले लड़कियों या स्त्रियों में कई तरह की परेशानी होती है। इसे माहवारी से पहले की परेशानी कह सकते हैं। अंग्रेजी में इसे पीएमएस या प्री-मेंस्ट्रयूल सिंड्रोमकहा जाता है। इसमें मन के साथ-साथ तन में बदलाव होतेहैं।
मेडिकल साइंस तो ये कहता है कि ये बदलाव 200 तरह के हो सकते हैं। इसमें मन का उतार-चढ़ाव ज़बरदस्त होताहै। लड़कियों का मूड काफ़ी तेज़ी से ऊपर नीचे होता है। तनऔर मन दोनों तकलीफ़ देते हैं। चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है।दुख तारी रहता है। बात- बात पर रोने का मन करता है।
तनाव और चिंता हावी रहती है। नींद नहीं आती। सरदर्द, थकान रहती है। शरीर में तेज़ दर्द होता है। पेट में दर्द होता है। उल्टी होती है। चक्कर आता है। पैरों में ज़बरदस्त खिंचाव महसूस होता है। यौन इच्छाएँ घटती-बढ़ती हैं। पेड़ू में तकलीफ़ बढ़ जाती है।
पेट फूल जाता है। गैस कीशिकायत होती है। छाती में सूजन आ जाती है। जोड़ों औरमाँस पेशियों में दर्द होता है। कब्जिय़त हो जाती है। कई तो इस दौरान बेहद बेबस और बेसुध हो जाती हैं।
लम्बी उम्र तक इस हालत से महिलाओं को हर महीने गुजऱना है। किसी को ऐसी तकलीफ़ एक -दो दिन रहती है तो किसी के लिए यह ज़्यादा होता है। वे इनके साथ हर महीने जीती हैं।
अगर मर्दों को तकलीफदेह माहवारी होती तो...
अब जऱा ऊपर गिनाई गई तकलीफ़ों का ध्यान करते हैं और कल्पना करते कि पुरुषों को भी ऐसी तकलीफ़देह हालत से हर महीने के कुछ दिन गुजऱना पड़ता।
कामकाजी पुरुषों यानी दफ़्तरों में काम करने वाले मर्दों को भी ऐसी तकलीफ़ होती है। तब वे क्या करते? क्या वे सामान्य तरीक़े से अपने रोज़ाना के दफ़्तरी काम को निपटाते? वे जो घर या बाहर के काम करते, क्या उसे हर रोज़ की तरह आराम से कर पाते? क्या वे तन-मन की तकलीफ़ों को यों ही नजऱंदाज़ कर अपने काम में मन से जुटे रहते?
क्या हमें लगता है कि मर्द वाक़ई ऐसा कर पाते।।। शक़ है।।। मर्द शायद ही ऐसा कर पाते। बल्कि वे सालों पहले इसका उपाय ढूँढ चुके होते। उनकी छुट्टियों में एक ख़ास छुट्टी इसके लिए भी निकल आती। उसके लिए तर्क भी तलाश लिए जाते और उसकी ज़रूरत भी पैदा कर दी जाती।
स्त्रियों की जि़ंदगी का सच है
मगर स्त्रियों की जि़ंदगी कोई कल्पना नहीं है। वह हक़ीक़त है। और हक़ीक़त यह है कि कामकाजी महिलाओं को इसी तरह की तकलीफ़देह माहवारी के साथ या तो कामकाज पर जाना पड़ता है या दफ़्तर में काम करना पड़ता है या मजबूरन छुट्टी पर जाना पड़ता है। वे इसी हाल में घर के भी सारे काम करती हैं।
ऐसे में यह सवाल लाजि़मी है कि जब महिलाओं को क़ुदरती तौर पर एक प्रक्रिया से हर महीने गुजऱना पड़ता है तो उन्हें राहत देने के लिए कुछ उपाय क्यों नहीं होने चाहिए?
उन्हें वेतन के साथ ऐसी छुट्टी क्यों नहीं मिलनी चाहिए जो उन्हें तकलीफ़देह दिनों में राहत पहुँचाए? यह कोई उपकार नहीं होगा बल्कि काम की गुणवत्ता और माहौल को बेहतर बनाएगा।
बिहार में माहवारी छुट्टी
महिलाओं की तकलीफ़ ऐसा नहीं है कि कभी सुनी नहीं गई या किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। तीन दशक पहले बिहार सरकार ने इस सिलसिले में बड़ा कदम उठाया था।
बिहार की महिला राज्य कर्मचारियों को साल 1992 में यह हक़ मिला था कि वे हर महीने माहवारी के दौरान दो दिनों की छुट्टी ले सकती हैं। यह छुट्टी उन्हें 45 साल की उम्र तक मिल सकती है। कई मामलों में पिछड़े बिहार का यह प्रगतिशील कदम था।
मगर बिहार के इस कदम से किसी और राज्य ने प्रेरणा ली हो, ऐसी ख़बर नहीं है। गाहे ब गाहे ख़बरों में ज़रूर बिहार की इस महत्वपूर्ण छुट्टी की चर्चा होती रहती है।
हाँ, हमारे देश में कुछ निजी संस्थाएँ या स्वयंसेवी संस्थाओं ने अपने यहाँ काम करने वाली महिलाओं के लिए ऐसी छुट्टी की ज़रूर व्यवस्था की है। कहीं यह छुट्टी महीने में एक दिन की है तो कहीं यह छुट्टी और घर से काम करने की छूट का मिला-जुला रूप है।
तो कहीं यह साल में दस दिन की है। ज़ोमैटो, स्विगी, ओरियंट इलेक्ट्रिक जैसी कई कम्पनियों ने अपने यहाँ तनख़्वाह के साथ माहवारी छुट्टी दी है। इसका मतलब है कि ऐसी छुट्टी अब महज़ कल्पना नहीं रही।
स्पेन का माहवारी छुट्टी क़ानून
ऐसा नहीं है कि यह चर्चा हमारे देश में ही हो रही है या हमारे देश की लड़कियों या स्त्रियों की ही यह माँग है। यह चर्चा पूरी दुनिया में है। कई जगह तो ऐसी छुट्टियाँ हैं। पिछले दिनों स्पेन में एक क़ानून बना है। इस क़ानून के मुताबिक तकलीफ़देह माहवारी वाली महिलाओं को तनख़्वाह के साथ तीन से पाँच दिनों तक की छुट्टी का अधिकार मिला है।
इस क़ानून के मुताबिक ऐसी छुट्टी के लिए डॉक्टर के पर्चे की ज़रूरत होगी। स्पेन यूरापीय देशों में ऐसी छुट्टी देने वाला पहला देश है।
माहवारी अवकाश देने वाले और भी देश हैं
माहवारी अवकाश का मुद्दा कोई नई बात नहीं है। नारीवादी और मज़दूर आंदोलन का यह पुराना मुद्दा रहा है। कई देशों ने तो सालों पहले अपनी महिला कामगारों को माहवारी अवकाश का हक़ दे दिया था।
इस धरती पर कुछ सालों पहले तक एक देश था सोवियत संघ। लगभग सौ साल पहले सोवियत संघ ने माहवारी अवकाश दिया था। सोवियत महिलाओं को दो से तीन दिन तक के वेतन के साथ माहवारी अवकाश मिला करता था।
इसके अलावा जापान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, ताइवान और जाम्बिया जैसे देशों में भी महिलाओं को माहवारी अवकाश मिलता है। इसलिए यह कोई नायाब चीज़ नहीं है, जो भारत की लड़कियाँ और महिलाएँ माँग रही हैं। यह उनका हक़ बनता है।
महिलाओं को और महिलाओं से नुक़सान होगा
जब भी महिलाओं की जि़ंदगी बेहतर बनाने और उनकी ख़ास ज़रूरतों को ध्यान में रखकर कोई नया क़ानून बनाया जाता है या कोई अधिकार देने की बात होती है तो एक हल्ला ज़रूर होता है- इस क़दम से महिलाओं का नुक़सान होगा या महिलाएँ इसका ग़लत इस्तेमाल करेंगी।
ख़ासकर तब, जब वह क़ानून परिवार और काम के क्षेत्र में लागू होता है। हम घरेलू हिंसा या उत्पीडऩ के क़ानून में भी ऐसा देख सकते हैं और कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ से बचाने वाले क़ानून को लागू करने के दौरान ऐसा सुनते रहे हैं।
माहवारी की छुट्टी के सिलसिले में भी ऐसे ही तर्क दिए जा रहे हैं।
कहा जा रहा है कि माहवारी की छुट्टी देने की वजह से महिलाओं को काम नहीं मिलेगा या काम मिलने में दिक़्क़त होगी।
सवाल है, यह दिक़्क़त किसकी है- महिलाओं की या सरकार की या नौकरी देने वालों की?महिलाओं के लिए उठाए जाने वाले हर कदम के साथ ऐसे ढेरों किंतु-परंतु लग जाते हैं।
अगर महिलाओं की जि़ंदगी बेहतर बनाने वाले क़ानूनों से महिलाओं के लिए अवसर कम होते हैं, तो यह चिंता बतौर समाज हमें करनी है। यह चिंता सरकार को करनी है। ऐसा भेदभाव न हो, इसके उपाय करने होंगे। इसका उपाय यह तो क़तई नहीं हो सकता कि कोई क़ानून ही न बनाया जाए या महिलाओं की जि़ंदगी को बेहतर बनाने के उपाय न किए जाएँ।
इस वक््त माहवारी के दौरान वेतन के साथ छुट्टी के कई रूप हैं। उनके आधार पर तय किया जा सकता है कि कौन सा रूप हमारे लिए बेहतर होगा या कौन सा रूप लागू किया जाए। मगर किसी काल्पनिक डर से इसे लागू ही न किया जाए, यह ठीक नहीं होगा।
बस जऱा सी इच्छाशक्ति चाहिए
यक़ीन जानिए, इससे काम पर बुरा नहीं बल्कि अच्छा असर पड़ेगा। काम की गुणवत्ता में निखार आएगा। बतौर समाज और देश हम और ज़्यादा संवेदनशील बनेंगे। बेहतर इंसान और समाज बनेंगे।
इसमें दफ़्तरों में काम करने वाले पुरुषों की भी अहम भूमिका होगी।
वे महिलाओं के जीवन में इस छुट्टी की ज़रूरत समझें। इस छुट्टी के लिए खड़े हों तो वे एक बेहतर साथी के तौर पर सामने आएंगे।
जब बिहार या स्पेन या देश ही कई कम्पनियाँ तनख़्वाह के साथ माहवारी छुट्टी दे सकती हैं तो इस पर कोई राष्ट्रीय नीति या क़ानून क्यों नहीं बन सकता।
क्यों नहीं इसे बाक़ी कंपनियाँ और संस्थान अपने यहाँ लागू कर सकते हैं। चाहिए तो बस जऱा सी इच्छा शक्ति। लेकिन यह इच्छा शक्ति स्त्रियों के जीवन में बड़ा क़दम होगी। (bbc.com)
सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को पत्र लिख कर संसद में धुआं फैलाने वाले युवकों को माफ कर देने का अनुरोध किया है।
जस्टिस काटजू ने लोकसभा अध्यक्ष को लिखे पत्र में कहा कि ‘मैं आपको यह अनुरोध करने के लिए लिख रहा हूं कि उन युवाओं (संभवत: सभी छात्र या बेरोजगार युवा) को माफ कर दें जिन्होंने कल लोकसभा में प्रवेश किया और हंगामा मचाया।’
काटजू ने कहा कि ‘मैंने इंटरनेट पर पढ़ा कि उनमें से 4 को गिरफ्तार किया गया है और यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि प्रतिरोधक अधिनियम) लगाया गया है जिसकी धारा 13 के तहत 7 साल की सजा लग सकती है।
पुलिस के पूछताछ करने पर युवाओं ने कहा कि वह बेरोजगारी, मणिपुर की घटनाओं, किसानों के संकट आदि के खिलाफ विरोध कर रहे थे। उनके पास कोई हथियार नहीं थे, जिस गैस का इस्तेमाल उन्होंने किया वह नुकसान कारक नहीं थी। जाहिर है वह आतंकवादी या अपराधी नहीं थे, बल्कि सिर्फ सामाजिक मुद्दों के लिए विरोध कर रहे थे (हालांकि विरोध का उनका तरीका सही नहीं था)।’
जस्टिस काटजू ने कहा कि ‘इस संबंध में मैं आपको इंग्लैंड की एक घटना बताना चाहूंगा जिसका जि़क्र जाने-माने अंग्रेज जज लॉर्ड डेनिंग ने अपनी किताब ‘द ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ’ में किया है। वेल्स के कुछ छात्र वेल्श भाषा को लेकर काफी उत्साही थे और इससे खफा थे कि वेल्स में प्रसारित सभी रेडियो कार्यक्रम अंग्रेजी में होते थे, वेल्श में नहीं। वह लंदन में आए और उन्होंने उच्च अदालत में हंगामा किया। उच्च न्यायालय न्यायाधीश ने उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी पाया और तीन महीने की सजा सुनाई। उन्होंने अपील कोर्ट में अपील दाखिल की।
अपील स्वीकार करते हुए, लॉर्ड डेनिंग ने निम्नलिखित टिप्पणी की-
'मैं अब श्री वाटकिन पावेल के तीसरे बिन्दु पर आता हूं। वह कहते हैं कि सजाएं कठोर थीं। मुझे नहीं लगता जब और जिन हालत में सुनाई गईं, सजाएं कठोर थीं। यह न्याय के एक ऐसे मामले में सीधा हस्तक्षेप था, जिससे उनका कोई लेना-देना नहीं था। जज के लिए यह आवश्यक था कि उन्हें और सभी छात्रों को वह बताएं कि इस तरह की बात बर्दाश्त नहीं की जा सकती।
छात्रों को जिस मुद्दे पर प्रदर्शन करना है तो करें। अपनी मर्जी से विरोध करें। लेकिन यह कानूनी तरीकों से करना चाहिए, गैरकानूनी तरीके से नहीं। यदि वह देश की न्यायिक व्यवस्था पर चोट करेंगे- यहां मैं इंग्लैंड और वेल्स, दोनों के बारे में कह रहा हूं- तो वह समाज की जड़ों पर चोट कर रहे हैं और उसी पर वार कर रहे हैं जो उन्हें सुरक्षा देता है। केवल कानून और व्यवस्था के पालन से ही वह छात्र बने रह सकते हैं और अध्ययन कर सकते हैं और शांति से रह सकते हैं। इसलिए उन्हें कानून की मदद करनी चाहिए, कानून तोडऩा नहीं चाहिए।
लेकिन अब क्या किया जाए? पिछले सप्ताह न्यायाधीश ने सजा सुनाकर कानून को सही ठहराया। उन्होंने दिखा दिया कि कानून और व्यवस्था बनाए रखना आवश्यक है और बनाए रखा जाएगा। लेकिन इस अपील से चीजें बदल गई हैं। यह छात्र अब कानून का उल्लंघन नहीं कर रहे। इन्होंने इस अदालत में अपील की है और इसके प्रति सम्मान दर्शाया है। उन्होंने एक सप्ताह जेल में बिताया है। मुझे नहीं लगता कि इन्हें और अंदर रखना चाहिए।
यह युवा लोग कोई अपराधी नहीं हैं। इनमें हिंसा, बेईमानी या बुराई नहीं है। इसके विपरीत, बहुत कुछ ऐसा है जिसकी तारीफ की जानी चाहिए। वह वेल्श भाषा के सरंक्षण के लिए जो भी कर सकते हैं, करना चाहते हैं। उन्हें इसका गर्व भी हो सकता है। यह कवियों और गायकों की भाषा है, हमारी अंग्रेजी भाषा से भी मीठी है। वेल्स में यह अंग्रेजी के समान ही होनी चाहिए।
उन्होंने अति कर गलत किया, बहुत गलत किया। लेकिन, यह उन्हें बता दिया गया है, मुझे लगता है अब हम उन पर दया कर सकते हैं, दया करनी चाहिए। हमें उन्हें फिर से अपनी शिक्षा जारी रखने, अपने अभिभावकों के पास जाने और सही मार्ग, जिससे वह विचलित हो गए थे, पर चलने देना चाहिए।’ (मॉरिस विरुद्ध क्राउन ऑफिस (1970) 2 क्यू. बी.)
न्यायाधीश मार्कन्डेय काटजू ने कहा कि ‘मेरी राय में, श्रीमान अध्यक्ष महोदय, आपको उसी सहृदयता का प्रदर्शन करना चाहिए जो लॉर्ड डेनिंग ने किया। युवा कभी-कभी ऐसी हरकतें करते हैं जिन्हें बड़े पसंद नहीं करते। पर आखिरकार, नौजवान नौजवान होते हैं। जो इन युवाओं ने किया, हत्या, डकैती या बलात्कार जैसा गंभीर अपराध नहीं था, इसलिए आपको इस मामले में नरमी बरतनी चाहिए।’
उन्होंने कहा कि इन युवाओं पर कड़े यूएपीए कानून के तहत आरोप लगाए गए हैं जिसकी धारा 13 के तहत 7 साल की सजा इन्हें दी जा सकती है। यूएपीए की धारा 2(ओ) ‘गैरकानूनी गतिविधि’ को इस तरह परिभाषित करती है-
‘गैरकानूनी गतिविधि, एक व्यक्ति या संगठन के संदर्भ में, अर्थात व्यक्ति या संगठन की तरफ से की गई ऐसी गतिविधि (चाहे बोले या लिखित शब्दों से या ऐसे संकेतों से या दर्शनीय कार्य या अन्य तरीकों से)- (द्ब) जिसका उद्देश्य, या जो ऐसे दावे को समर्थन करती हो, किसी भी आधार पर देश के क्षेत्र के किसी हिस्से को अलग करना चाहती हो या देश के किसी क्षेत्र के हिस्से को केंद्र से अलग करना चाहती हो, या किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को ऐसे अलगाव या विलगाव के लिए उकसाती हो या (द्बद्ब) जो देश की संप्रभुता या क्षेत्रीय अखंडता के बारे में गलत दावा करती हो, सवाल उठती हो या बिगाड़ती हो या बिगाडऩे का इरादा रखती हो, या (द्बद्बद्ब) भारत के प्रति असंतोष पैदा करे या पैदा करने का इरादा रखती हो।’
जस्टिस काटजू ने कहा कि ‘इन युवाओं ने स्पष्ट रूप से यूएपीए में परिभाषित किसी ‘गैरकानूनी गतिविधि’ को नहीं अंजाम दिया। उन्होंने भारत के किसी क्षेत्र के किसी हिस्से को अलग करने या भारत की क्षेत्रीय अखंडता को बिगाडऩे या भारत के प्रति असंतोष पैदा करने की कोशिश जैसा कुछ नहीं किया। उन्होंने कुछ सामाजिक मुद्दे उठाए हैं, जिनके लिए वास्तव में उन्हें सराहना चाहिए।
मैं, इसलिए, सम्मानपूर्वक कहना चाहता हूं कि आप उन्हें अपने कार्यालय बुलाएं, जलपान कराएं और उन्हें बताएं कि उनके मन्तव्य को समझा जा सकता है लेकिन इसे अभिव्यक्त करने का उनका तरीका स्वीकार्य नहीं है। इसके बाद आपको इन्हें छोड़ देना चाहिए, इनके खिलाफ आरोप वापस लिए जाने चाहिए और चेतावनी देनी चाहिए कि ‘वह कानूनी तरीके से विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं लेकिन जो उन्होंने किया उसकी पुनरावृति बर्दाश्त नहीं की जाएगी।’
(जस्टिस काटजू के पत्र का हिंदी अनुवाद- महेश राजपूत, जनचौक से साभार।)
विनीत खरे
तीन बड़े राज्यों-राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में भाजपा के हाथों कांग्रेस की हार के चंद ही दिनों बाद विपक्षी इंडिया अलायंस की बेहद महत्वपूर्ण बैठक आज मंगलवार को दिल्ली में होने जा रही है। विपक्षी पार्टियों के इस संगठन की ये चौथी बैठक है।
राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में जीत के साथ भाजपा की अब 28 में से 12 राज्यों में सरकारें हैं जबकि चार अन्य राज्यों में इसकी गठबंधन सरकारें हैं। कांग्रेस की तीन राज्यों में सरकारें हैं, जिसमें तेलंगाना में मिली ताज़ा जीत भी शामिल है।
इस बैठक के एक दिन पहले ही 78 विपक्षी सांसदों को संसद से निलंबित कर दिया गया, जिसके बाद ताज़ा सत्र में निलंबित किए सांसदों की संख्या 92 हो गई है। ये सांसद गृहमंत्री अमित शाह से संसद में सुरक्षा चूक मामले में बयान की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे।
संसदीय चुनाव मात्र पांच महीने दूर हैं और साफ है कि सरकार और विपक्ष के बीच टकराव बढ़ रहा है।
पीडीपी की महबूबा मुफ्ती कहती हैं, ‘जिस तरह से हालात हैं, मुझे नहीं पता कि हमारा लोकतंत्र, हमारी धर्मनिरपेक्षता कितने समय तक सरकार के वार को सह पाएगी। अगर बीजेपी फिर जीतती है, तो फिर विपक्ष ही नहीं होगा, संविधान कहीं नहीं होगा, लोकतंत्र कहीं नहीं होगा।’
भाजपा लगातार ऐसे आरोपों को खारिज करती रही है। लेकिन विपक्ष लगातार सरकार पर सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगा रहा है। पार्टियां आम आदमी पार्टी के नेताओं को जेल भेजने, महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता रद्द किए जाने जैसे कदमों का उदाहरण देती हैं।
भाजपा ने ऐसे आरोपों को खारिज किया है और कहा है कि सरकारी एजेंसियां भ्रष्टाचार के खिलाफ़ कार्रवाई कर रही हैं।
विपक्षी इंडिया अलायंस की बैठक ऐसे वक्त पर हो रही है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं, भाजपा उनके तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का विश्वास जता रही है और विपक्ष के सामने चुनौती है कि भाजपा को लगातार तीसरी बार संसदीय चुनाव जीतने से कैसे रोका जाए।
पूर्व कांग्रेस राष्ट्रीय प्रवक्ता संजय झा के मुताबिक विपक्ष के लिए ये ‘करो या मरो की स्थिति है।’
वो कहते हैं, ‘अगर इंडिया अलायंस 2024 में चुनाव हारता है, तो ये सिफऱ् कांग्रेस के लिए ही नहीं, विपक्ष में सबके लिए ही अस्तित्व का संकट है। हाल ही में जो वाकये हुए हैं, जिस तरह महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता रद्द की गई, विपक्ष को निशाना बनाया गया, कोशिश है कि ये दिखाया जाए कि विपक्ष देशहित में नहीं है। और नैरेटिव सरकार के नियंत्रण में है क्योंकि (टीवी) चैनल्स उनके साथ हैं।’
राजनीतिक विश्लेषक और स्वराज इंडिया से जुड़े योगेंद्र यादव के मुताबिक, ‘विपक्ष की जो 2024 लडऩे की उम्मीद है, वो इस मीटिंग की सफलता पर निर्भर करती है। अगर ये मीटिंग कामयाब होती है तो इतने भर से 2024 का चुनाव जीता नहीं जाएगा, लेकिन उस उम्मीद को जिंदा रखने के लिए इस मीटिंग का कामयाब होना ज़रूरी है।’
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के राहुल वर्मा के मुताबिक, अगर विपक्ष अगला चुनाव हारता है तो वो बहुत कमजोर होगा और सरकार से जवाबदेही की और उसे चुनावी चुनौती देने की उसकी क्षमता कम होगी। लेकिन ऐसे भी विपक्षी नेता हैं जो इस सोच से सहमत नहीं।
जनता दल युनाइटेड के अध्यक्ष लल्लन सिंह पूछते हैं, ‘विपक्ष कहां कमजोर है?’
वो कहते हैं, ‘चुनाव के नतीजों का कोई असर नहीं होगा। अलग अलग राज्यों में जो चुनाव हुए, उसमें इंडिया अलायंस तो कहीं लड़ नहीं रही थी। वहां तो कांग्रेस पार्टी लड़ रही थी। उम्मीद की वजह है कि हम सब लोगों को लडऩा है 2024 का चुनाव एक साथ।’
भाजपा ने इंडिया अलायंस को खारिज किया है। उसके मुताबिक, ‘इस देश की जनता ने ढेर सारे अलायंस देखे हैं जो राजनीतिक स्वार्थ के कारण, चुनाव के वक्त, विचारधारा की समानता के बगैर किए गए हैं।’
कहां था इंडिया अलायंस?
इंडिया अलायंस बनने के पहले सवाल उठे थे कि कैसे इतनी अलग अलग सोच वाली पार्टियां साथ आ सकती हैं। लेकिन ये अलायंस बना और उम्मीद बंधी कि ये तेजी से आगे बढ़ेगा।
28 राजनीतिक दलों वाले इंडिया अलायंस की पहली बैठक जून में पटना में और दूसरी बैठक बेंगलुरु में हुई थी।
पिछली तीसरी बैठक तीन महीने पहले मुंबई में हुई थी और उसके बाद अब जाकर इस अलायंस की बैठक हो रही है।
तीसरी और चौथी बैठक के बीच में इतने लंबे समय के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार माना जा रहा है, हालांकि इस लेख के लिए हमारा कांग्रेस नेताओं से संपर्क नहीं हो पाया। (bbc.com)
एक सोच है कि कांग्रेस को उम्मीद थी कि पांच राज्यों में विधानसभा में अच्छे प्रदर्शन के बाद अलायंस में उसकी स्थिति बेहतर होगी, और उस वजह से अलायंस में सीटों को लेकर तालमेल आदि को लेकर बातचीत रुक सी गई थी।
आम आदमी पार्टी नेता राघव चड्ढा ने एक निजी चैनल के एक कार्यक्रम में कहा, ‘चारों राज्यों में अगर बतौर इंडिया गठबंधन चुनाव लड़ा जाता तो हो सकता है कि स्थिति कुछ अलग होती।’
समाजवादी पार्टी सांसद जावेद अली खान कहते हैं, ‘अगर (मध्य प्रदेश में) एसपी के साथ उनका अलायंस होता और कांग्रेस के नेताओं के साथ अखिलेश जी वहां मंच शेयर करते, वहां पांच दस संयुक्त रैली हो जाती तो निश्चित रूप से चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन भी या इंडिया अलायंस की भी स्थिति बहुत बेहतर होती।’
मध्य प्रदेश में कांग्रेस का सपा को सीट बंटवारे पर नजऱअंदाज़ करना और कांग्रेस नेता कमलनाथ के ‘अखिलेश वखिलेश’ के बयान से अलायंस की काफ़ी किरकिरी हुई थी, हालांकि जावेद अली खान कहते हैं, ‘उस एपिसोड को तो अब भूलना ही बेहतर है। वो जो हो गया, हो गया। और जिन लोगों की वजह से हुआ, उनका भी हश्र सबके सामने है।’
मीडिया में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक बयान भी छपा जिसमें उन्होंने इंडिया गठबंधन में धीमी गतिविधियों के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया था।
संजय झा कहते हैं, ‘कांग्रेस इसके लिए पूरी तरह जि़म्मेदार है। मुंबई में बैठक पहली सितंबर को हुई थी। सितंबर, अक्टूबर, नवंबर बर्बाद हुआ।’
वक्त बीतने के बाद पांच राज्यों में हुए चुनाव के नतीजे सामने आए जिसे कांग्रेस के लिए झटका माना गया।
जावेद अली खान कहते हैं, ‘बीजेपी से लड़ाई करना या उसको हराना बहुत बड़ा काम है जो इंडिया अलायंस ने अपने सिर लिया है। अगर सभी दलों में सलीके के साथ एकता रही और इसमें बड़ा भाई और छोटे भाई के आधार पर निर्णय नहीं हुए तो हम भाजपा को हराने की स्थिति में होंगे।’
लेकिन विपक्षी नेता तो ये बातें महीनों से कह रहे हैं।
पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ़्ती के मुताबिक हिमाचल और कर्नाटक के चुनावी नतीजों के बाद ‘कहीं न कहीं हम सब लोग लापरवाह थे कि लोग समझ गए हैं, और आने वाले दिन आसान होंगे।’
लेकिन चुनावी नतीजों ने विपक्षी गठबंधन के लिए चुनौतियां बढ़ा दीं।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के राहुल वर्मा के मुताबिक, ‘कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा और कर्नाटक की जीत के साथ जो जोर बनाया था वो उसने खो दिया। तीन महत्वपूर्ण चुनाव में उसकी हार हुई। ये कुछ ऐसा है कि ड्राइंग बोर्ड पर शुरुआत से काम शुरू किया जाए।’
विपक्षी जनता दल युनाइटेड पार्टी नेता लल्लन सिंह अभी उम्मीद से भरे हैं। वो पूछते हैं, ‘वक्त की बर्बादी क्या होती है? अभी वहुत वक्त है। आज भी 15-20 दिनों में अगर सीटों में सामंजस्य हो जाए तो क्या समस्या है?’
बैठक से उम्मीदें
विश्लेषक योगेंद्र यादव के मुताबिक 19 दिसंबर की बैठक की सफलता के तीन मापदंड हैं - पहला कि विपक्षी दलों के नेता इस बैठक में आएं ताकि ये संदेश जाए कि अलायंस बरकरार है।
दूसरा, सीट शेयरिंग का टाइम टेबल और तीसरा एक मिनिमम कॉमन एजेंडा, या उसका कोई ढांचा ताकि लोगों को पता चले इस अलायंस की क्या नीति है।
वो कहते हैं, ‘इंडिया कोएलिशन का असली महत्व नंबरों में नहीं है। इंडिया कोएलिशन का बनना एक मनोवैज्ञानिक प्रोत्साहन देता है। उसका बनना, जुडऩा, आगे बढ़ते हुए दिखना, ये अपने आप में नेताओं, कार्यकर्ताओं को विश्वास देगा।’
इंडिया अलायंस सोशल मीडिया ग्रुप की सदस्य इल्तजा मुफ़्ती के मुताबिक जिस ग्रुप की वो सदस्य हैं वहां सदस्यों में लगातार बात हो रही है, और वो एक व्हाट्स ऐप ग्रुप पर साथी सदस्यों के संपर्क में रहती हैं।
वो कहती हैं, ‘हम टीएमसी, पीडीपी, शिवसेना जैसी पार्टियां साथ हैं। ऐसे में सबके साथ समन्वय आसान नहीं। कहीं न कहीं हमारे विचार परस्पर विरोधी हैं लेकिन हम इस बात पर सहमत हैं कि देश को बचाना है।’
लेकिन ताज़ा विधानसभा के चुनाव ने एक बार फिर दिखाया है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील मज़बूत है, चाहे वो विधानसभा चुनाव ही क्यों न हों।
इन चुनाव में लाभार्थी वोट, महिला वोट, आदिवासी वोट आदि ने भी भाजपा की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जाति सर्वे के कांग्रेसी कार्ड को उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली।
विश्लेषक मिलन वैष्णव के मुताबिक ये जरूरी है कि अलायंस एक कॉमन प्लेटफॉर्म पर राज़ी हो। वैश्नव कहते हैं कि इंडिया ब्लॉक के पास नरेंद्र मोदी के मुकाबले कोई चेहरा न होना उसकी स्थिति कमज़ोर बनाता है। साथ ही वो सीटों पर अलायंस में सहमति न होने की ओर भी इशारा करते हैं।
उम्मीद है कि मंगलवार की बैठक में सीट शेयरिंग को लेकर कुछ ठोस बातें सामने आएंगी।
सीट शेयरिंग पर समाजवादी पार्टी के जावेद अली खान कहते हैं, ‘महाराष्ट्र, तमिलनाडु और बिहार में इंडिया पार्टियां पहले से ही गठबंधन में हैं। जहां नई सीट शेयरिंग होनी है वो है बंगाल, पंजाब, दिल्ली और यूपी। ये काम हमें चार राज्यों में पूरा करना है। यहां कांग्रेस की स्थिति ऐसी नहीं है जिसमें बहुत विवाद हो।’ बंगाल में कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं है। यूपी में पार्टी के दो विधायक हैं, जबकि दिल्ली में एक भी नहीं।
2024 के नतीजे क्या तय हैं?
भाजपा नेता दावा कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी का तीसरा बार प्रधानमंत्री बनना तय है, लेकिन विश्लेषक योगेंद्र यादव के मुताबिक विपक्षी गठबंधन के लिए उम्मीदें खत्म नहीं हुई हैं।
उनका मानना है कि भाजपा अपने चुनावी चरम पर पहुंच चुकी है और ऐसी कोई जगह नहीं जहां वो सीटों में वृद्धि कर सके, और ऐसे राज्य हैं जहां उसकी सीटों की संख्या गिरेगी।
वो जोर देते हैं कि विपक्ष देश के सामने न सिफऱ् एकता का बल्कि उम्मीद का संदेश दे।
पीडीपी नेता महबूबा मुफ़्ती का भी मानना है कि विपक्षी नेता अपने मतभेदों को भुलाकर साथ आएं और लगतार काम में जुटे रहे हैं, लेकिन वो मीडिया में कथित पक्षपात और सरकार के एजेंसियों के विपक्षी नेताओं के खिलाफ इस्तेमाल की शिकायत भी करती हैं।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के राहुल वर्मा मानते हैं कि मीडिया पक्षपात और सरकार के पास अथाह संसाधनों की शिकायत पूरी तरह गलत नहीं हैं।
वो कहते हैं, ‘आपको ये शिकायत करने के साथ साथ लोगों से बात कर उन्हें भी विश्वास में लेना होगा। आप लोगों से कैसे बात करें? ज़मीन पर जाकर। आप कितना ज़मीन पर जाते हैं? आप चाहते हैं कि मीडिया आपका काम करे। ठीक है कि मीडिया आपकी सोच को सुन नहीं रहा है। आपकी सोच क्या है? सभी सरकारों के पास ज़्यादा संसाधन होता है।’
कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता संजय झा को भी उम्मीद है कि विपक्ष के लिए अभी खेल खत्म नहीं हुआ है, और उसके लिए दो बातें महत्वपूर्ण हैं- पहला, जिन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा की सीधी टक्कर है वहां कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा होता है, और दूसरा उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी कैसा प्रदर्शन करती है।
जावेद अली खान याद दिलाते हैं, ‘मैंने तो इंडिया शाइनिंग और फील गुड का दौर भी देखा है। इंडिया इज़ इंदिरा और इंदिरा इज़ इंडिया का दौर भी हमने देखा है। जब बदलाव होता है तो हो ही जाता है।’ (बीबीसी)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
मध्य प्रदेश में एंटी इनकंबेंसी के बावजूद भारतीय जनता पार्टी की सबसे ज्यादा अंतर से जीत हुई है जिसमें उसे विपक्ष से लगभग ढाई गुणा अधिक सीट मिली हैं। भले ही भाजपा के नेताओं द्वारा यह प्रधानमन्त्री का जादू या मोदी की गारंटी आदि का असर बताया जा रहा है लेकिन शायद कोई राजनीतिक विश्लेषक या आमजन भी यह मानने को राजी नहीं होगा कि प्रदेश में भाजपा को यह प्रचंड बहुमत सिर्फ मोदी की बदौलत मिला है। आम धारणा यही है कि मध्य प्रदेश में भाजपा के प्रादेशिक नेताओं में शिवराज सिंह चौहान सबसे लोकप्रिय नेता हैं और उनकी लाडली बहना योजना ने उन्हें और भाजपा को पूरे प्रदेश में समभाव से लोकप्रिय बनाया है। यदि मोदी की गारंटी और तथाकथित जादू का इतना असर होता तो तेलंगाना में भाजपा तीसरे नंबर पर नहीं रहती और कुछ समय पहले कर्नाटक एवम हिमाचल प्रदेश में चुनाव नहीं हारती।
शिवराज सिंह चौहान सरकार पर व्यापम के अलावा भी भ्रष्टाचार के कई आरोप लगते रहे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में अधिसंख्य जनता के साथ उनका जमीनी जुड़ाव सबसे ज्यादा है। कांग्रेस में ऐसा जुड़ाव दिग्विजय सिंह के लिए भी है लेकिन शिवराज सिंह की भाषा और व्यवहार दिग्विजय सिंह से ज्यादा विनम्र और संतुलित है। वे अपने धुर विरोधियों से भी व्यक्तिगत रंजिश नहीं रखते इसलिए उनके दुश्मन काफी कम हैं। फिर भी मध्य प्रदेश में राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करने की नीति में शिवराज सिंह चौहान को भी रमन सिंह और वसुंधरा राजे की तरह मुख्यमंत्री की रेस से बाहर कर दिया गया। इसके साथ यह भी आश्चर्यजनक है कि जिन केंद्रीय नेताओ की टीम को राज्यों में चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी थी उन्हें भी विधायकों से संपर्क कर मुख्यमंत्री चुनने की जिम्मेदारी नहीं दी गई।
मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री चुनने के लिए हरियाणा जैसे छोटे राज्य के अपने प्रदेश में अलोकप्रिय मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को पर्यवेक्षक नियुक्त करना शायद यही दर्शाता है कि भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र केवल दिखावे के लिए है, असल में सब कुछ मोदी और शाह की जोड़ी ऊपर से ही तय करती है। यह तो निकट भविष्य में पता चलेगा कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में क्रमश: शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा राजे सरीखे नेताओं को किनारे कर नए चेहरों पर दांव लगाने से 2024 के लोकसभा चुनाव पर क्या असर होगा। क्या बाहर हुए वरिष्ठ नेता नेता और उनके अनेक समर्थक विधायक एवम कार्यकर्ता अपने अपने राज्यों में उसी लगन से काम करते रहेंगे जैसा वे अब तक करते आए हैं! वसुंधरा राजे जरुर ऐसी नेता हैं जो अपनी नाराजगी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सकती हैं। जहां तक शिवराज सिंह चौहान और रमण सिंह का प्रश्न है उनमें विद्रोह की चिंगारी दिखाई नहीं देती। संभव है कि उनकी निराशा को केन्द्र सरकार में मंत्री पद नवाज कर मरहम लगाने की कोशिश हो या उन्हें पार्टी में महत्त्वपूर्ण भूमिका देकर थोड़ा संतुष्ट करने के प्रयास किए जाएं। बहरहाल भारतीय जनता पार्टी का यह ओवरहाल उन मतदाताओं के गले उतरना मुश्किल है जिन्होंने अपने स्थानीय लोकप्रिय नेताओं की वजह से भाजपा को वोट दिया है। कम से कम मध्य प्रदेश और राजस्थान में शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे के कट्टर समर्थक काफी ठगे से महसूस कर रहे हैं।
राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है जहां निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यह भी संभव है कि भविष्य में तीनों राज्यों का तुलनात्मक रूप से युवा नेतृत्व अपनी रचनात्मक सक्रियता से लोगों का दिल जीत ले। जिस तरह भाजपा में अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवानी के नेतृत्व के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की है वैसा ही प्रादेशिक स्तर पर उभारी नई टीम भी कर सकती है। ऐसे में नए चेहरों का यह प्रयोग सफल भी हो सकता है।
-सिद्धार्थ ताबिश
ये एमिली लेवीन हैं.. एक अमेरिकन लेखिका, कॉमेडियन और मशहूर वक्ता.. 2018 में जब एमिली को फेफड़े का कैंसर हुआ तब उन्होंने टेड टॉक में उन्होंने जीवन और मृत्यु पर अपने बहुमूल्य विचार रखे.. जिसे हम सभी को सुनने चाहिए.. मैं उनकी इस टेड टॉक के विडियो के कुछ अंश हिंदी में अनुवादित कर रहा हूँ उनके लिए जो इंग्लिश नहीं समझ पाते हैं:
‘मुझे चौथे चरण का फेफड़ों का कैंसर है.. ओह, मुझे पता है.. आप कहेंगे बेचारी मैं.. मगर मुझे ऐसा नहीं लगता.. मैं स्वयं को बेचारी नहीं समझती हूँ.. मैं बस उन लोगों की मानसिकता को नहीं समझती जो मौत को हराने और मृत्यु पर विजय पाने के लिए निकले हैं.. आप वो कैसे कर सकते हैं? जीवन को ख़त्म किये बिना आप मृत्यु को कैसे हरा सकते हैं?
मुझे मौत को नहीं हराना है.. इससे मुझे कोई मतलब नहीं है.. मेरे लिए मौत को हारने जैसा विचार अविश्वसनीय रूप से कृतघ्न लगता है.. यह प्रकृति के प्रति अनादर है, यह विचार कि हम प्रकृति पर हावी होने जा रहे हैं, हम प्रकृति पर कब्ज़ा करने जा रहे हैं.. मेरी समझ के परे है.. हमें लगता है कि प्रकृति हमारी बुद्धि का सामना करने में बहुत कमजोर है.. नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगता
मैं जीवन के लिए अविश्वसनीय रूप से आभारी हूं, लेकिन मैं अमर नहीं होना चाहती.. मुझे अपने जाने के बाद अपना नाम जीवित रखने में कोई दिलचस्पी नहीं है.. मुझे ब्रह्मांड की चक्रीय लय के साथ तालमेल बिठाना पसंद है .. यही जीवन के बारे में बहुत असाधारण बात है मेरे लिए.. यह जनन, पतन और पुनर्जनन का एक चक्र है.. मैं केवल कणों का एक संग्रह मात्र हूं जो इस पैटर्न में व्यवस्थित है, फिर मेरा ये पैटर्न विघटित हो जाएगा.. और इसके सभी घटक भाग दूसरे पैटर्न में पुनर्गठित होने के लिए प्रकृति के लिए उपलब्ध होंगे.. कण कण अलग हो जाएगा और फिर व्यवस्थित होकर किसी और रूप में जुड़ेगा.. यही जीवन है।
मेरे लिए, यह बहुत रोमांचक है, और यह मुझे उस प्रक्रिया का हिस्सा बनने के लिए और भी अधिक आभारी बनाता है.. अब मैं मृत्यु को एक जर्मन जीवविज्ञानी, एंड्रियास वेबर के दृष्टिकोण से देखती हूं, जो इसे उपहार अर्थव्यवस्था के हिस्से के रूप में देखता है.. प्रकृति द्वारा आपको यह बहुत बड़ा उपहार, यानि जीवन दिया गया है.. आप इसे यथासंभव सर्वोत्तम रूप से समृद्ध करते हैं और फिर इसे वापस दे देते हैं.. जैसा कि किसी ने कहा, जीवन एक भोज है.. और मैंने भरपेट खाना खा लिया है अब.. मुझमें जीवन के प्रति अत्यधिक भूख थी.. मैंने ख़ूब जीवन खा लिया है.. लेकिन अब मृत्यु में, मैं भस्म हो जाउंगी.. और मेरी वो भस्म किसी मैदान, पहाड़ या नदी में जायेगी और वहां मैं हर सूक्ष्म जीव और अन्य को अपने पास आने के लिए आमंत्रित करुँगी.. मुझे लगता है कि उन्हें मैं स्वादिष्ट लगूंगी..
तो मुझे लगता है कि मेरे दृष्टिकोण के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि यह वास्तविक है.. आप इसे देख सकते हैं, आप इसका निरीक्षण कर सकते हैं.. यह वास्तव में होता है.. मेरे जीवन को वास्तविक बनाने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद’
फऱवरी 2019 को एमिली अपने कहे अनुसार इस प्रकृति में विलीन हो गयीं और अब न जाने किस रूप में व्यवस्थित होकर पुन: इस धरती पर मौजूद हुई हों।
- शहबाज अनवर
तारीख थी 23 सितंबर 2023। उत्तर प्रदेश के मुजफ़्फ़ऱनगर की जि़ला एवं सत्र न्यायालय में अन्य दिनों की तुलना में माहौल कुछ अलग था।
एक मामले में अदालत के फ़ैसले का इंतज़ार था। इस केस पर वहां मौजूद एक अभियुक्त की बाक़ी की जि़ंदगी का दारोमदार टिका था।
ये थे लगभग तीस साल के अमित चौधरी। वो क़त्ल के एक मामले में अभियुक्त थे और अपने केस की पैरवी यानी वकालत ख़ुद ही कर रहे थे।
फै़सला आया तो अमित चौधरी ने राहत की सांस ली। अदालत ने उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया।
अब इस केस में की गई अपील पर हाई कोर्ट में सुनवाई होगी। अभियोजन पक्ष के वकील का कहना है कि अब केस हाई कोर्ट में चलेगा।
अमित चौधरी के मुताबिक उनके लिए जि़ला एवं सत्र न्यायालय से बरी होना आसान नहीं था। वो दो साल से ज़्यादा समय तक जेल में रहने के बाद ज़मानत पर रिहा हुए थे।
जेल से बाहर आकर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। फिर क़ानून की डिग्री ली और वकील बने।
अमित बताते हैं, ‘12 अक्तूबर 2011 को एक पुलिसकर्मी की हत्या के आरोप में 17 लोगों के खि़लाफ़ मुजफ़्फ़ऱनगर के थाना भवन में रिपोर्ट दर्ज की गई थी। मुझे इस मामले में गिरफ्तार किया गया था। बेगुनाह होने के बाद भी मैं लगभग दो साल 4 महीने 16 दिन जेल में रहा।’
12 साल बाद सितंबर 2023 को अदालत ने अमित चौधरी समेत 12 अभियुक्तों को इस मामले से बरी कर दिया। एक अभियुक्त नीटू को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। इस दौरान चार अभियुक्तों की मौत हो गई जिनमें दो मुख्य साजि़शकर्ता थे।
अमित बताते हैं, ‘अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए मैंने वकालत पढ़ी, जिरह की और भगवान ने मेरा साथ दिया। मेरे एक वरिष्ठ अधिवक्ता जुलकरन सिंह इस केस में मुख्य वकील थे। मैं उनके साथ ज़रूरत पडऩे पर अदालत में जिरह करता और अपनी बात रखता।’
अदालत के आदेश के बारे में अमित कहते हैं, ‘अभियोजन पक्ष पुलिसकर्मी की हत्या और असलहा (हथियार) लूटने की अपराधिक साजिश का अपराध साबित करने में विफल रहा है।’
वकील जुलकरन सिंह ने बीबीसी से कहा, ‘23 सितंबर को आए अदालती फैसले में अमित चौधरी सहित 12 लोग इस मामले में बरी हो गए।’
लड़ाई अभी जारी रहेगी
इस मामले में अभियोजन पक्ष के सरकारी वकील कुलदीप कुमार ने बीबीसी से कहा है कि इस मामले में अपील की गई है।
उन्होंने कहा, ‘देखिए मामला थोड़ा पुराना हो गया है इसलिए ज़्यादा अधिक तो नहीं कह सकता हूं, लेकिन मामले में अपील को शासन ने स्वीकार कर लिया है, हाईकोर्ट में ये मामला अब चलेगा।’
क्या था मामला?
12 अक्तूबर 2011 को शामली जनपद के थाना भवन में एक पुलिसकर्मी कृष्णपाल सिंह की हत्या हुई। उनके हथियार भी लूट लिए गए।
अमित ने बीबीसी को बताया, ‘मेरी बहन इसी गांव में रहती है। मुख्य साजि़शकर्ताओं में से एक नीटू मेरी बहन का देवर था। मैं उस दिन उनके पास गांव में ही था, शायद इसी कारण मेरा नाम भी इस मामले में शामिल कर लिया गया।’
उन्होंने कहा, ‘जब मुझे इस बारे में पता चला तो मैं हैरान था। जिस मामले के बारे में मुझे दूर-दूर तक नहीं पता उसमें मुझे अभियुक्त बना दिया गया, मेरा कभी नीटू से कोई वास्ता नहीं रहा।’ घटना के वक्त अमित की उम्र कऱीब 18 साल थी। घटना के कुछ दिन पहले ही शामली को नया जिला बनाया गया था। अमित कहते हैं, ‘नए शामली जनपद की घोषणा से पहले तक घटनास्थल जिला मुजफ्फरनगर में ही पड़ता था।’
12 साल का संघर्ष
अमित चौधरी मूल रुप से जनपद बाग़पत के किरठल गांव से हैं। उनके पिता एक छोटे किसान हैं और उनकी मां गृहणी हैं।
अमित कहते हैं, ‘2009 में मुजफ़्फरनगर के कॉलेज से मैंने 12वीं पास की। इसके बाद बीए बड़ौत से कर रहा था। इसी बीच ये घटना हुई और मुझे जेल भेज दिया गया।’
14 मार्च 2014 को अमित को ज़मानत मिली और वो जेल से बाहर आ गए।
अमित बताते हैं, ‘बाहर आने के बाद मैंने सबसे पहले अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके बाद साल 2020 तक मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से एलएलबी और एलएलएम की पढ़ाई पूरी की।’ वो बताते हैं, ‘2019 में वकालत के लिए मेरठ जिला न्यायालय में रजिस्ट्रेशन हो चुका था। अदालत से इजाज़त के बाद मैं मुजफ़्फरनगर न्यायालय में अपने केस की पैरवी में पेश होने लगा।’
अमित कहते हैं कि उन पर हत्या का आरोप लगने के बाद उनके सगे-संबंधियों ने भी उनसे अपना नाता तोड़ लिया।
अमित कहते हैं, ‘जमानत मिलने के बाद जब मैं गांव गया तो लोग तरह-तरह के सवाल करने लगे, ताने मारने लगे। मेरे अपने भी मुझसे दूर हो गए। ऐसे में मैंने गांव छोडऩे का फैसला किया।’ ‘मैं गुडग़ांव चला गया और एक छोटे से किराए के कमरे में रहने लगा। मैं ख़ुद को बेगुनाह साबित करना चाहता था।’
फाकाकशी के दिन
गुडग़ांव में अमित ने एक महिला वकील वंदना ओबेरॉय के पास बतौर मुंशी काम किया।
अमित कहते हैं कि उन्हें यहां से जो पैसे मिलते उनसे खाने-पीने का भी इंतजाम नहीं हो पाता था। वो बताते हैं, ‘मेरे घर से कचहरी लगभग चार किलोमीटर दूर थी। मैं वहां पैदल ही जाता था क्योंकि मेरे पास किराए के पैसे नहीं होते थे।’
बीबीसी ने गुडग़ांव में जि़ला न्यायालय में महिला अधिवक्ता वंदना ओबेरॉय से भी बात की। उन्होंने कहा, ‘अमित ने मेरे पास 2015 में काम किया था। उस समय मुझे नहीं मालूम था कि वो आर्थिक तंगी झेल रहे हैं, नहीं तो मैं अवश्य उनकी मदद करती।’
तारीख पर दोस्तों की मदद
चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान अमित वहीं कैंपस में रहते थे।
यहां अमित के एक रिश्तेदार भी एमएससी की पढ़ाई कर रहे थे। उनके कहने पर प्रशांत कुमार नाम के उनके एक जूनियर ने अमित की मदद की।
अमित बताते हैं, ‘प्रशांत और कुछ और साथी हैं जो हर तारीख पर अदालत जाने से पहले 500 रुपये का नोट मेरी जेब में रख दिया करते थे।’
प्रशांत ने बीबीसी से कहा, ‘अमित ने लंबे समय तक संघर्ष किया है, मैं इस बात का गवाह हूं।’ उनके दोस्त विवेक कहते हैं, ‘मैं खुद छात्र होने के नाते अमित की अधिक मदद नहीं कर पाया। आज उनके बरी होने से खुश हूं।’
अमित चौधरी की एक जूनियर प्रियंका तोमर ने बीबीसी को बताया, ‘मैंने कहा था कि अमित चौधरी अदालत से बरी होंगे तो पार्टी दूंगी, अब वो वक्त आ गया है।’
‘मेरी तरह कोई और बेकसूर न फंसे’
अमित अपने अतीत को भुलाकर भविष्य पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं।
वो कहते हैं, ‘मैं वकालत के पेशे को अपनाकर अपने जैसे लोगों की आवाज़ बनना चाहता हूं। जिस तरह मैं निर्दोष होते हुए भी क़ानून के जाल में फंस गया, कोई और निर्दोष न फंसे।’ अमित चौधरी अब आगे क्रिमनल जस्टिस में पीएचडी करना चाहते हैं। (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
सत्ताधारी दल और विपक्ष दोनों क्रांतिकारी दल के नायक सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव आदि को उसी तरह पूजते हैं जैसे अधिकांश आम जनता उन्हें अपने महानायक मानती है। ब्रिटिश राज की संसद को बम फेंक कर जगाने वाले भगत सिंह और उनके साथियों को ब्रिटिश सरकार ने सजा सुनाई थी। उनकी सजा को माफ या कम करने के लिए महात्मा गांधी ने वायसराय से सिफारिश की थी लेकिन फिर भी सत्ताधारी दल से जुड़े काफी लोग जब तब गांधी पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने पूरे मनोयोग से भगतसिंह की सजा माफ कराने के प्रयास नहीं किए थे। अब एक तरह से फिर कुछ युवाओं ने वर्तमान सत्ताधारी दल और विपक्ष सहित पूरी संसद को उसी तरह जगाकर अपनी और अपने समाज की बडी समस्याओं और चिंताओं से अवगत कराने की कुछ वैसी ही गैर कानूनी कोशिश की है जैसी भगत सिंह ने की थी जो वर्तमान कानून में उन्हें अपराधी बनाती है। इन युवाओं ने संसद की सुरक्षा व्यवस्था की खामियों की तरफ ध्यान आकर्षित कर माननीय सांसदों, केंद्रीय मंत्रियों, गृहमंत्री और प्रधान मंत्री को यह बताने की कोशिश की है कि जब संसद में आम जनता के प्रतिनिधि सासंद भी सुरक्षित नहीं तब एक सौ चालीस करोड़ आबादी कैसे सुरक्षित महसूस कर सकती है।
प्रधान मंत्री और पूर्व प्रधान मंत्रियों के परिवारों के लिए एन एस जी की भारी भरकम सुरक्षा है जिसके चलते उनके दौरे के समय जनता को भारी परेशानी होती है। हाल ही में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी नए मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में महज दस मिनट के आयोजन में भोपाल आए थे लेकिन उनके कारण तीन घंटे तक काफी लोग जाम में फंसे रहे । सत्ता दल के करीबी कंगना रनौत जैसे लोगों को भी सरकार एक्स, वाई, जेड सुरक्षा दे देती है और अंबानी जैसे अमीर लोगों के लिए सी आई एस एफ जैसी केन्द्रीय सुरक्षा एजेंसियों को लगा देती है। इन खास लोगों की सुरक्षा आम लोगों के लिए मुसीबत का सबब बन गई है। पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के समय के कई ऐसे उदाहरण हैं जब वे सुरक्षा तामझाम के बगैर आम आदमी की तरह कहीं भी पहुंच जाते थे। यह इसलिए संभव था क्योंकि तब नागारिक भी सुरक्षित महसूस करते थे।
देश की केंद्रीय सुरक्षा एजेंसी हों या प्रदेश की पुलिस, दोनों का एक बड़ा हिस्सा चंद लोगों की चाक चौबंद सुरक्षा में तैनात रहता है और एक सौ चालीस करोड़ लोग सुरक्षा के लिए भगवान भरोसे रहते हैं। यही हाल आर्थिक विकास का है। चंद लोग नब्बे प्रतिशत धन संपत्ति पर कुंडली मारे बैठे हैं और अस्सी करोड़ तीन वक्त के भोजन के लिए सरकारी राशन की बांट देखते हैं। इस सबसे बड़े वर्ग के लिए कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं है। हम, जो लोग टैक्स देकर खास लोगों की सुरक्षा का भारी भार उठाते हैं, रेलवे के मुसाफिर की तरह अपनी जान माल की सुरक्षा के लिए खुद पर निर्भर हैं।संसद में घुसकर हंगामे से संसद का ध्यान आकर्षित करने वाले पढ़े लिखे बेरोजगार हैं। उन्होंने आम जनता के जरूरी मुद्दों के प्रति कुंभकरण की तरह सोई सरकार और सांसदों को जगाने की कोशिश की है। उन्होंने भगत सिंह की तरह कहा है कि वे किसी सासंद को नुकसान पहुंचाने के इरादे से नहीं आए थे बल्कि संसद की सुरक्षा और अपनी पीढ़ी की समस्याओं को संसद में रखने आए थे।
हाल में महुआ मोइत्रा का प्रकरण सामने आया है जिससे पता चलता है कि खास वर्ग की समस्याओं के लिए सासंद उनके हित के प्रश्न पूछने के लिए आसामी से उपलब्ध हो जाते हैं लेकिन आम आदमी के पास न संसाधन हैं और न इन युवाओं जैसा साहस है। भगत सिंह के लिए माफी चाहने वाले नेता क्या इन युवाओं को भी माफ करेंगे! हाल ही में कुछ छात्र नेताओं द्वारा विश्वविद्यालय के कुलपति को अस्पताल ले जाने के लिए मध्यप्रदेश हाई कोर्ट के जज की कार अगवा कर ली थी। उनके इस अपराध की माफी के लिए मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हाई कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखा है। क्या वे ऐसा पत्र लोकसभा अध्यक्ष को भी लिखेंगे!
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मुरारी बापू और बाबा रामदेव में बुनियादी अंतर है। मोरारी बापू कथा कहते हैं।कथा के बहाने व्यापार नहीं करते। वे जो कथा कहते हैं उसका पारिश्रमिक लेते हैं। अपनी रचनाओं को बेचते हैं, यह उनका एक परंपरागत बुद्धिजीवी के नाते सही काम है। लेकिन बाबा रामदेव तो योग के बहाने औषधी उद्योग चला रहे हैं। योग को राजनीतिक प्रचार का मंच और माध्यम के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। संतई में राजनीतिक घालमेल यानी साम्प्रदायिक विचारधारा का प्रचार- प्रसार कर रहे हैं। जबकि मुरारी बापू सीधे परंपरागत पाठ और सम-सामयिक उदात्त जीवन मूल्यों की बातें कहते हैं।
सामान्य तौर पर हमारे बौद्धिक जगत का भारतीय ज्ञान और आख्यान परंपरा से कम संबंध है और उनको वह कम जानता है। मोरारी बापू जैसे संतों का महत्व यह नहीं है कि उनके पास कितना बड़ा एम्पायर है, कितनी दौलत है, कितने राजनेता उनकी चरण वंदना करते हैं। ये चीजें गौण महत्व की हैं। काम की बात है आज के आम आदमी के लिए सटीक संदेश। मुरारी बापू ने एक कथा में महात्मा बुद्ध के हवाले से कहा - ‘कभी किसी के प्रभाव में नहीं जीना, अपने प्रभाव में जीना। सत्य जहाँ से मिले ले लो, पर किसी से प्रभावित नहीं होना।’
मुरारी बापू की कथा में अनेक ऐसी बातें आती हैं जो समानतावादी और विवेकपूर्ण विमर्श को बढ़ावा देती हैं। कायदे से मोरारी बापू को मास कल्चर के अंग के रूप में पढ़ें, वे मास कल्चर के अंग के रूप में भारतीय पाठ बना रहे हैं। मुरारी बापू का मानना है विवेक चार प्रकार से मिलता है-
1) एक मांगने से मिलता है। फिऱ वो कृपा करे तो।
2) मंथन से मिलता है। खुद के चिंतन से।
3) सत्संग करने से।
4) हमारा गुरु बिन बोले हमें विवेक प्रदान करता है।
मुरारी बापू ने बाबा कयामुद्दीन द्वारा 325 वर्ष पूर्व भारतीय वेदांत और कुरान का समन्वय करते हुए लिखी गई पुस्तक ‘नूर-ए-रोशन’ का लोकार्पण करते हुए कहा कि देश में लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा की तर्ज पर एक 'सद्भावना सभा' भी होना चाहिए। जहाँ देश के बुद्धिजीवी, संत और विद्वान बैठकर देश की समस्याओं पर चिंतन कर सके।
मुरारी बापू ने कुँअर बाराबँकी के शेर में अपनी बात यों कही-
न हारा है इश्क़ न दुनिया थकी है,
दिया जल रहा है और हवा चल रही है।
वो जहाँ भी रहेगा रोशनी फैलाएगा,
चिरागों का कोई मकाँ नहीं होता।
तसबी छोड़ दी मैंने इस खयाल से,
गिनकर नाम क्या लेना, वो तो बेहिसाब देता है।
मुरारी बापू ने भी अपने उद्बोधन में एक घटना सुनाते हुए कहा कि बरसों पहले जब मैं ऋषिकेश में अकेला रहता था और प्रतिदिन यज्ञ करता था तो यज्ञ समाप्त होने के बाद देर रात एक बजे गंगा नदी पार कर एक सूफी फकीर बाद यज्ञ की वेदी पर आता था। ये सिलसिला सात दिन तक चलता रहा। एक दिन मैंने उससे पूछा कि तुम इतनी रात को यज्ञ की वेदी के पास आकर क्यों बैठते हो, तो उसने कहा, मैं एक मुसलमान फकीर हूँ और कहीं मेरी वजह से हिन्दू लोग नाराज नहीं हो जाए इसलिए रात के अंधेरे में आकर इस पवित्र अग्नि के पास आकर बैठता हूँ। मुरारी बापू ने कहा कि इसके बाद हम दोनों देर रात को अकेले ही चुपचाप यज्ञ की वेदी पर बैठे रहते थे, कभी हमने कोई बात नहीं की, मगर ऐसा लगता है कि उस सूफी फकीर ने मुझ पर अपनी सारी करुणा बरसा दी और मैं आज तक उसमें भीगा हुआ हूँ।
मुझे मुरारी बापू की निम्नलिखित तीन बातें पसंद हैं- वे कहते हैं-
हमारे देश में तीन वस्तु आदमी को आदर के साथ मिलनी चाहिए :
- आगम/ शिक्षण: सबको शिक्षा मिलनी चाहिए।
- सबको अन्न मिलना चाहिए; कोई आदमी भूखा नहीं रहना चाहिए, बच्चे तो खासतौर पर।
- आदमी को आदर के साथ आरोग्य प्राप्त होना चाहिए।
- सुदेशना रुहान
जून का महीना, तीसरा हफ्ता, शायद बुधवार का दिन। मैंने फिर से झाँक के देखा उन आँखों में। वे अब भी उतनी ही गहरी थीं जैसे सालों पहले हुआ करती थीं। जीवन से भरी, इंदीवर की रचना जैसी! उस रोज मगर साफ-साफ कुछ भी नहीं दिख रहा था मुझे, शायद उन्हें भी। हम दोनों की आँखों में पानी की पांच परतें चढ़ी हुई थी, जिसे हटाना हम में से कोई नहीं चाहता था। थोड़ा संभलकर फिर उन्होंने कहा ‘माँ से मेरा नमस्ते कहना..!’ ‘लिपस्टिक लगाते रहिएगा!’ मैं अंत में केवल इतना कह पाई। वो हंस पड़ीं और फिर उसी मुस्कुराहट के साथ लौट गईं। कैंसर अस्पताल का वो छोटा सा गलियारा, उस दोपहर व्हील चेयर की आवाज से देर तक गूंजता रहा।
आज जब आँखों से पानी की वो परतें हट चुकी हैं, तो बता दूँ कि उस महिला से मेरा पुराना परिचय था। कोई दो दशक पुराना, जब वह एक अस्पताल में शिशु रोग विशेषज्ञ हुआ करती थीं। मैं शिशु और वह मेरी विशेषज्ञ। सभी बच्चों के लिए वह डॉक्टर कम, और चॉकलेट वाली आंटी अधिक थीं। ममता और धैर्य से भरी हुई। पर बीस साल बाद उस रोज जब हम मिले-तो मैं उनकी काउंसलर थी, और वह मेरी मरीज। उनका कैंसर अब आखरी चरण में था। एक डॉक्टर होने के नाते उन्हें इस बात की समझ थी, और घटते वक्त का अंदाजा भी। ऐसे में उन्होंने घर लौटने का फैसला किया और अपनी शेष इच्छाओं की लिस्ट थमाते हुए परिवार के साथ इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा की। उनके शेष दिनों तक पसंदीदा भोजन, क्यारियों में फूल और किताबें, लिस्ट में जगह बनाते रहे।
वह महिला, उन मरीजों में से एक थीं जिनकी आँखों में कभी मैंने मृत्यु का भय नहीं देखा, और न ही जीने की हड़बड़ाहट। बेहद सहजता से उन्होंने कहा ‘आज से बीस साल पहले जब मैं एक दफा बीमार पड़ी, तो मैंने ईश्वर से इतना समय माँगा जिसमें अपने बच्चों को आत्मनिर्भर होते देख सकूँ। उसके बदले ईश्वर ने मुझे बीस साल दे दिए। और आज जब वह मुझे अपने पास बुला रहा है, तो मैं तैयार हूँ!’
और इस तरह जून की उस सूखी दोपहर को मैंने जाना-मृत्यु के करीब चल रहा व्यक्ति शिक्षक होता है। उसका सत्य परम सत्य है।
‘चिरियत: यत तत्त शरीरम’- जो मिट रहा है वह शरीर है
प्रकृति का स्वरुप है बदलाव। जीवन की परिणीति है मृत्यु। आधायत्म कहता है कि हर जन्म लेती चीज धीरे-धीरे घट रही है। ब्रह्मांड और आकाश, देह और चैतन्य, सब कुछ! पर चुकीं जीवन सामाजिक है और मृत्यु व्यक्तिगत, इसलिए यथार्थ के बावजूद, मृत्यु को स्वीकार करना मुश्किल होता है। लेकिन अगर आने वाले अंत को स्वीकार कर लिया जाये तो शेष जीवन आनंद और गरिमा से भर उठता है। और यहीं से होती है पूर्ण रूप से जीने की शुरुआत। ओशो, जीवन को भरपूर जीने की कवायद कुछ यूँ करते हैं ‘प्रश्न ये नहीं होना चाहिए कि मृत्यु के बाद कहीं जीवन है या नहीं, प्रश्न ये हो- कि मृत्यु से पहले हम वास्तव में जीवित हैं या नहीं!’
जीवन के अंतिम दिनों में 70 वर्षीय स्नेहलता बेहद दुखी रहीं। एक अरसा हुआ लंबी बीमारी से जूझते। अस्पताल की खिडक़ी से झांकती गुनगुनी धूप और नर्स की समय पर दवाई, कुछ अच्छा नहीं लगता। रोज शाम जब बेटी मिलने आती तो स्नेहलता मुस्कुराने लगतीं। पर बेटी के लौटते ही उनका चेहरा आंसुओं से भर जाता। कुछ दिनों बाद इसका कारण पता चला। उनकी बेटी ने माँ की आने वाली मृत्यु को अस्वीकार कर दिया था। वह जितनी देर अस्पताल में रूकती, माँ को स्वस्थ होने के लिए कहती। बेटी ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की, कि माँ के मन में क्या है। क्या माँ की इच्छा जीने की है, या वह सुकून के साथ आनेवाली मृत्यु को स्वीकारना चाहती हैं? कितना दुखद है जब अंतिम समय में भी व्यक्ति के पास मन में चल रहे संघर्ष, भय और दुविधा को साझा करने वाला कोई न हो। और कितना सुखद हो सकता है जो कोई स्नेह से पकड़ ले उस जाते हुए हाथ को, और कह दे ‘अलविदा, ओ जाने वाले सुंदर इंसान!’
सीप, साहस और रजनीगंधा
मृत्यु के बारे में जानना और मृत्यु को जान लेना- ये दो अलग विषय हैं। विशेषज्ञ मानते हैं अंतिम समय से कुछ पहले मरीज को इसका ज्ञान होने लगता है। यह समय कुछ सप्ताह से लेकर महीनों का हो सकता है। पर अपने परिजनों का मनोबल बनाए रखने की खातिर वह इस पर बात नहीं करते। एक कैंसर अस्पताल के शोध में पाया गया के मरीज और उसका परिवार जब साथ परामर्श के लिए आते हैं तो उत्साही दिखते हैं। पर जैसे ही उन्हें अलग-अलग परामर्श कक्ष में बुलाया जाता है, वे सब अपने एकांत, भय और दु:ख पर बात करना चाहते हैं। एक दूसरे के सामने, मगर इसे स्वीकार करने में उन्हें हिचक होती है। ऐसे में स्नेह और करुणा से भरा वातावरण इस संकोच को मिटाने में सहायक हो सकता है। प्रेम से माथे पर हाथ फेरना और चुपचाप किसी को अंत तक सुनना, किसी ईलाज से कम नहीं!
मरीज और उनके लोगों को प्रेरित करें कि वे छोटे-छोटे वाक्यों से अपने भय और असुरक्षा के विषय में कहना शुरू करें। इसे कर्णप्रिय होने की कोई आवश्यकता नहीं। हो सकता है ऐसी बातचीत की शुरुआत एक लंबी खामोशी से हो, जो हफ्तों चलें। या फिर एक दूसरे के लिए इसमें दु:ख, ग्लानि और शिकायत निकलकर सामने आए। अगर ऐसा है तो भी अच्छा! याद रहे, शुरू की जटिलताएं ही आगे आने वाले समय को सहज करेंगी।
‘एक मृत व्यक्ति के लिए दु:ख नहीं, बल्कि आभार से भरा मन सच्ची श्रद्धांजलि होगी!’ थॉर्नटन वाइल्डर
आनंद बसा है सत्य के ह्रदय में
सत्य हमारे लिए बेहतर चुनाव के द्वार खोलता है- फिर यह चुनाव जीवन का हो, या मृत्यु का। कहते हैं सौंदर्य, सत्य का उपहार है। ‘वेन ब्रेथ बिकम्स एयर’ किताब के दिवंगत लेखक पॉल कलानिधि एक भारतीय अमरीकी न्यूरोसर्जन थे। महज 36 वर्ष की आयु में जब पॉल कैंसरग्रस्त हुए तो उन्होंने तय किया कि अब जो भी जीवन शेष है, वे इसे पूरे आनंद के साथ जीएंगे। यह आनंद उनके दु:ख को स्वीकारने के बाद आया।
अगले 22 महीने वे सर्जन, लेखक और रोगी तीनों बने रहे। और इन सबके मध्य ही उन्होंने पिता बनने का फैसला किया। इसे याद करते हुए उनकी पत्नी लूसी बताती हैं ‘पॉल के इस निर्णय से मैं हैरान थी! मैंने पूछा- पॉल, क्या उस शिशु को अलविदा कहना तुम्हारे लिए बहुत दुखदायी नहीं होगा? इस पर वह बोले ‘हाँ, पर क्या यह दु:ख मेरे जीवन का सबसे सुंदर दु:ख नहीं होगा?’ 9 मार्च 2015 को एक छोटे से, मगर भरपूर जीये हुए जीवन को पॉल ने अलविदा कह दिया। जीवन के आखरी दिन, आखरी पहर और आखिरी सांस तक पत्नी लूसी और नन्हीं बेटी केडी उनके साथ बने रहे।
जन्म और मृत्यु पर बात करना हम सभी का अधिकार है। और इस यात्रा को सुनिश्चित करना भी। ठीक कहा है उस अज्ञात कवी ने- ‘एक दिन हम सब तस्वीर बन जायेंगे।’ किसी जाते हुए व्यक्ति के अंत को सम्मान के साथ स्वीकार करना, जिंदगी के सबसे सुंदर उपहारों में से एक है। यह सच है कि किसी अपने का चले जाना एक अकल्पनीय क्षति है, पर यह भी सच है कि स्मृतियाँ और प्रेम, जीवन और मृत्यु से परे, अभेद हैं!
आइये बाँचें प्रेम और फिर से झाँके उन गहरी आँखों में। और इस बार उन्हें पूरी गरिमा के साथ विदा करें....
परिचय- सुदेशना रूहान
निरामय: कैंसर फाउंडेशन की संस्थापक। सन 2012 से छत्तीसगढ़ में कैंसर मरीजों के लिए काम कर रही हैं। साहित्य, सिनेमा और संगीत में रुचि। अंग्रेजी और हिंदी में लेखन। कई पत्रिकाओं और अखबार में लेख प्रकाशित।