संपादकीय
उत्तर-पूर्व का मणिपुर इस बुरी तरह हिंसा से घिर गया है कि केन्द्र सरकार ने वहां धारा 355 लागू की है, जिसका सरल मतलब यह होता है कि वहां की कानून व्यवस्था अब केन्द्र सरकार के हाथ में है। यह राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने वाली धारा 356 के ठीक पहले की नौबत है। यह एक अलग बात है कि केन्द्र और मणिपुर में दोनों जगह भाजपा सरकार है, और इसलिए 356 की नौबत शायद न आए जो कि पूरी पार्टी के लिए शर्मिंदगी की बात होगी, और मोदी सरकार के लिए भी। लेकिन अभी वहां हिंसा का जो हाल है उसमें हिंसा करते लोगों को देखते ही गोली मारने के हुक्म दिए गए हैं, और सेना, अर्धसैनिक बल तैनात किए गए हैं, राज्य के 16 में से 8 जिलों में कफ्र्यू लगा दिया गया है, पांच दिनों के लिए मोबाइल और इंटरनेट बंद हैं। इसके साथ-साथ पूरा राज्य आदिवासी और गैरआदिवासी समुदायों के बीच हथियारबंद संघर्ष देख रहा है। इसे देखने का एक दूसरा नजरिया यह हो सकता है कि ईसाई आदिवासियों और हिन्दू गैरआदिवासियों के बीच यह संघर्ष चल रहा है। दो दिन पहले मणिपुर की ओलंपिक विजेता और पूर्व राज्यसभा सदस्य मैरी कॉम ने ट्वीट किया था कि मेरा राज्य मणिपुर जल रहा है, और उसने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को टैग करके मदद मांगी थी। उनका कहना है कि हालात बहुत भयानक हैं, और केन्द्र और राज्य सरकारों को नौबत सुधारने के लिए जल्दी कुछ करना चाहिए। देश के दक्षिणपंथी प्रकाशनों ने इसे सीधे-सीधे चर्च का हिन्दुओं पर हमला करार दिया है, जिसके बारे में लोगों का कहना है कि इससे आग और भडक़ेगी।
अब मणिपुर की इस जटिल समस्या को आसान शब्दों में समझने की कोशिश करें तो वहां पर पहाड़ों में बसे हुए आदिवासी हैं, और घाटी में बसे हुए मैतेई बहुसंख्यक समुदाय के लोग हैं, जिनमें से अधिकतर हिन्दू हैं, उनमें बहुत थोड़े से मुस्लिम बने हैं। इस 50 फीसदी से अधिक मैतेई समुदाय को गैरआदिवासी होने की वजह से आरक्षण हासिल नहीं हैं। इनमें से कुछ लोग हाईकोर्ट गए, और हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को इस पर विचार करने को कहा कि मैतेई समुदाय को आदिवासी घोषित किया जाए। इससे वहां के वास्तविक आदिवासियों को मिलने वाला आरक्षण का लाभ बहुत ही कम हो जाएगा क्योंकि न सिर्फ उसके दावेदार दुगुने हो जाएंगे, बल्कि मैतेई समुदाय आदिवासियों के मुकाबले बहुत सक्षम और ताकतवर समुदाय भी है, और वह आरक्षण के फायदे उठाने में असली आदिवासियों से बहुत आगे भी रहेगा। आदिवासियों का भी यह डर है कि मैतेई अगर आदिवासी दर्जा पा जाएंगे तो वे आदिवासी इलाकों में भी जमीनें खरीदने लगेंगे, और आदिवासी बेजमीन, बेघर हो जाएंगे। राज्य विधानसभा की 60 सीटों में से 40 सीटें अकेली इम्फाल घाटी में हैं, जहां पर कि मैतेई बसे हुए हैं, और इसलिए विधानसभा में इसी समुदाय के लोग सबसे अधिक रहते हैं, और राज्य के इतिहास में तकरीबन तमाम मुख्यमंत्री इसी समुदाय से बने हैं। अभी विधानसभा में 40 मैतेई विधायक हैं, और 20 आदिवासी विधायक। अभी दो हफ्ते पहले मणिपुर हाईकोर्ट में मैतेई ट्राईब यूनियन नाम के एक संगठन की याचिका पर राज्य सरकार को कहा गया कि वह 10 साल पहले की केन्द्रीय जनजाति मामलों के मंत्रालय की सिफारिश पेश करे। इस सिफारिश में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की बात कही गई थी। अदालत में मैतेई तर्क यह है कि 1949 में जब मणिपुर भारत में मिला तब मैतेई लोगों को जनजाति का दर्जा मिला हुआ था।
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हम लगातार देश में जगह-जगह आदिवासी बेचैनी की बात करते हैं, और अब ऐसे तनाव में मणिपुर सबसे अधिक तनावग्रस्त राज्य बनकर सामने आया है, और 8 बरस की मोदी सरकार की सबसे कड़ी संवैधानिक कार्रवाई अपनी ही पार्टी के राज पर हुई है। लेकिन यह बात साफ है कि देश में आदिवासियों, दलितों के आरक्षण पर गैरदलित-आदिवासी लोगों का हमला किसी न किसी शक्ल में जारी है। उनकी जमीनों पर हमला हो रहा है, उनके जंगल और जल पर कब्जा हो रहा है, उनकी संस्कृति पर शहरी धार्मिक मूल्य लादे जा रहे हैं, और वे अपने ही घर में अजनबी बना दिए जा रहे हैं। मणिपुर देश की सरहद का एक प्रदेश है, और वहां पर बाहरी ताकतों की दखल का एक खतरा हमेशा ही रहता है। यह इलाका हथियारों और नशे की तस्करी का इलाका भी है। यहां पर अगर आदिवासियों के हक से छेडख़ानी की अदालती या सरकारी कोशिश होगी, तो उसका असर उत्तर-पूर्व के कुछ दूसरे राज्यों पर भी हो सकता है क्योंकि यहां की आदिवासी जातियों के लोग और जगहों पर भी बसे हुए हैं। हाईकोर्ट में गए हुए सत्तारूढ़ जाति के लोग केन्द्र और राज्य की जानकारी में थे, अदालत का कोई फैसला आरक्षण में फेरबदल का नहीं है, बल्कि वह विचार करने के बारे में है। अभी सब कुछ सरकार के हाथ में ही था, और केन्द्र और मणिपुर दोनों जगह भाजपा की ही सरकारें हैं। ऐसे में नौबत एकदम से काबू के बाहर हो जाना, हिंसा इस हद तक भडक़ जाना, यह ेएक बड़ी नाकामयाबी है। यह भी समझने की जरूरत है कि देश में किसी एक जगह आदिवासियों के हक छीनने की कोशिश अगर होगी, तो बाकी प्रदेशों में भी आदिवासी इसे गौर से देखेंगे। हो सकता है कि मणिपुर में सत्ता संतुलन के लिए और मैतेई हिन्दू लोगों को खुश करने के लिए भाजपा सरकारों को यह एक रास्ता सूझा हो, लेकिन आदिवासियों का आरक्षण अगर इस हमलावर अंदाज में बेअसर कर दिया जाएगा, तो वे किसी भी जगह हथियार उठाएंगे। मणिपुर की राजनीतिक और सामाजिक जटिलताएं पूरी तरह से हमारी समझ में नहीं हैं, इसलिए एक सीमित चर्चा के साथ आज हम यह विस्तृत सलाह दे सकते हैं कि देश में दलितों और आदिवासियों को तरह-तरह से बागी बनाने की नौबत लाना समझदारी नहीं है। उत्तर-पूर्व पहले भी तरह-तरह के उग्रवाद का शिकार रहा है, उसे भडक़ाने की कीमत पर वहां के आदिवासियों के हक खत्म नहीं करने चाहिए। वैसे भी आंकड़े बताते हैं कि वहां की आधी से अधिक आबादी वाला मैतेई समुदाय पढ़ाई-लिखाई, संपन्नता, राजनीतिक ताकत, इन सबमें सबसे आगे है, ऐसे में आदिवासियों के आरक्षण पर इस समुदाय को लाद देना सामाजिक न्याय भी नहीं दिखता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट की दखल के बावजूद दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय मैडल लाने वाले पहलवान युवक-युवतियों के साथ पुलिस जो सुलूक कर रही है, वह हैरान करने वाला है। कुश्ती संघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण के गंभीर आरोप कई महिला पहलवानों ने लगाए हैं, और उनकी लिखित शिकायत के बावजूद महीनों से इस पर पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई थी। अब सुप्रीम कोर्ट के हुक्म से और मुख्य न्यायाधीश के कड़े रूख से किसी तरह रिपोर्ट तो दर्ज हुई है, लेकिन बृजभूषण सिंह के इस्तीफे की मांग करते हुए शिकायकर्ता पहलवान युवतियां और उनके साथ खड़े हुए पहलवान युवक सभी जंतर-मंतर पर आंदोलन कर रहे हैं। एफआईआर के बावजूद न तो आज तक भाजपा सांसद से कोई पूछताछ हुई है, और गिरफ्तारी तो दूर की बात है। यह तब है जब मुख्य न्यायाधीश ने साफ-साफ यह कहा है कि वे देखेंगे कि पुलिस क्या कार्रवाई करती है। बीती आधी रात इस आंदोलन को खत्म करवाने के लिए दिल्ली पुलिस ने जिस तरह पहलवानों को हटाने की कोशिश की, महिला पहलवानों से धक्का-मुक्की की, और वहां पहुंची दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष को जिस तरह हिरासत में लेकर थाने ले जाया गया, वह सब बहुत खराब तस्वीर बना रहा है। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर्नाटक के चुनाव प्रचार में कल ही महिलाओं के सम्मान में कई तरह की बातें बोले हैं जिनके ट्वीट चल ही रहे हैं, और उसी दिन देश की राजधानी में अंतरराष्ट्रीय और ओलंपिक मैडल लाने वाले पहलवानों के साथ ऐसा बुरा सुलूक हो रहा है कि देश का झंडा रौशन करने वाली लड़कियां वहां रोते हुए दिख रही हैं।
कल से जो वीडियो आए हैं, और महिला खिलाडिय़ों के जो बयान हैं वे बताते हैं कि दिल्ली पुलिस और उसे चलाने वाली केन्द्र सरकार का रूख किसी भी तरह हमदर्दी का नहीं है, और उनकी तमाम नीयत भाजपा सांसद को बचाने की दिख रही है। कल आधी रात को जिस तरह के वीडियो संदेश रिकॉर्ड करके हरियाणा के लोगों को आने की अपील की गई, और बार-बार कहा गया कि उनकी बेटियों की इज्जत खतरे में है, तो वह देखना तकलीफदेह था। पहले तो इन पहलवानों के खिलाफ बड़ा आक्रामक बयान देने वाली भारतीय ओलंपिक संघ की अध्यक्ष पी.टी.ऊषा वहां आकर पहलवानों से मिलकर गई थी, और फिर रात में पुलिस ने यह कार्रवाई की। केन्द्र सरकार की पुलिस ने जो बर्ताव दिल्ली सरकार के महिला आयोग की अध्यक्ष के साथ किया है वह भी हैरान और हक्का-बक्का करने वाला है। किसी भी राज्य में किसी संवैधानिक संस्था से जुड़े हुए लोगों के साथ ऐसा बर्ताव कहीं देखा नहीं गया है, और दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल को आंदोलन कर रहीं खिलाडिय़ों से मिलने न देकर उठाकर थाने ले जाना लोकतंत्र में बिल्कुल भी मंजूर नहीं किया जा सकता, लेकिन हालत यही है कि सरकार के ऐसे रूख को अब नवसामान्य बना दिया गया है।
यह कुछ अधिक हैरानी की बात इसलिए हो जाती है कि कर्नाटक में चुनाव है, और वहां की महिला वोटर औसत हिन्दुस्तानी महिला के मुकाबले अधिक पढ़ी-लिखी हैं, कामकाजी हैं, और जाहिर है कि दिल्ली की खबरें उनको प्रभावित करेंगी। ऐसे में यौन शोषण के आरोपी सांसद की इस हद तक हिमायती दिखकर या बनकर भाजपा पता नहीं कौन सा फायदा पाएगी। अब आंदोलन में हालत यह हो गई है कि एक मैडल विजेता पहलवान बजरंग पुनिया ने कहा कि लड़कियों ने जो आरोप लगाए हैं उन्हें राजनीति से क्यों जोड़ा जा रहा है? जनता को गुमराह किया जा रहा है, हर चीज में राजनीति घुसाई जा रही है। उन्होंने कहा कि जैसे ही एफआईआर हुई, ये लोग खिलाडिय़ों को गाली देने लगे। अगर महिलाओं को न्याय मिल रहा है तो राजनीति अच्छी ही है। उन्होंने कहा कि सरकार चाहती है कि खिलाडिय़ों को धरने से हटाकर किसी तरह बृजभूषण को बचा लें। उन्होंने कहा अगर मैडल का ऐसा ही सम्मान है तो उस मैडल का हम क्या करेंगे, उसे भारत सरकार को लौटा देंगे। उन्होंने कहा कि जब पुलिस धक्का-मुक्की कर रही है तब नहीं दिख रहा है कि ये पद्मश्री भी हैं। स्वाति मालीवाल का कहना है कि जिन खिलाडिय़ों ने देश का नाम रौशन किया है वो यहां सडक़ पर बैठे हैं, और बृजभूषण शरण सिंह एसी कमरे में बैठे हैं, दिल्ली पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर रही, लेकिन मैं यहां खिलाडिय़ों से मिलने आई तो मिलने नहीं दिया गया, और मुझे घसीटकर पुलिस थाने ले गए। उन्होंने कहा कि ये गुंडे को बचाने के लिए पुलिस को लगाया गया है, और लड़कियों के बयान दर्ज नहीं किए जा रहे हैं।
यह पूरा सिलसिला बड़ा खराब है। इससे देश में खेलों को जितना नुकसान हो रहा है, उससे कहीं अधिक नुकसान भाजपा और सरकार का हो रहा है। अब देश के मां-बाप अपनी लड़कियों को किस भरोसे के साथ खेलों में भेजेंगे, अगर उन्हें यह साफ दिख रहा है कि महीनों की शिकायतों के बाद भी यौन शोषण पर कार्रवाई के बजाय आरोपी को बचाने में सरकार ने पूरी पुलिस झोंक दी है, सुप्रीम कोर्ट तक में सरकार शिकायती लड़कियों का विरोध कर रही है। इससे दुनिया में भी हिन्दुस्तान की इज्जत गिर रही है। और पी.टी.ऊषा जैसी बेवकूफ खिलाड़ी शायद ही कोई और होगी जो कि दूसरी खिलाडिय़ों की यौन शोषण की शिकायत को दुनिया में भारत की बदनामी की वजह बतला रही है। पी.टी.ऊषा के लिए यौन शोषण बदनामी की वजह नहीं है, उसकी शिकायत बदनामी की वजह है। भारतीय ओलंपिक संघ की ऐसी अध्यक्ष से क्या उम्मीद की जा सकती है। इस पूरे सिलसिले ने केन्द्र सरकार के लिए बड़ी शर्मिंदगी खड़ी की है, और उस भाजपा के लिए भी जिसका सांसद बृजभूषण शरण सिंह है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
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आने वाले दिन इस सरकार की साख की बर्बादी थाम सकेंगे, या यह और अधिक दूरी तक जारी रहेगी, वह पता लगेगा। फिलहाल सबको याद रखना चाहिए कि आज इंटरनेट पर हर किसी का हर रूख अच्छी तरह दर्ज हो जाता है, और आने वाला वक्त अपनी ही देश की होनहार लड़कियों के खिलाफ इस सरकारी रूख को काले अक्षरों में दर्ज करेगा।
जिन लोगों को यह लग रहा था कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से इंसानों के रोजगार पर कोई अधिक खतरा तुरंत नहीं आएगा, उनके लिए एक खबर है। एक अमरीकी कंपनी चेग के शेयरों के दाम कल 51 फीसदी तक गिर गए, और कंपनी को एक अरब डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ। एक ब्रिटिश कंपनी पियर्सन के दाम 15 फीसदी से अधिक गिर गए। ऑनलाईन ट्यूशन देने वाली और किताबें छापने वाली कई बड़ी कंपनियों के शेयर तेजी से गिर रहे हैं। और इसका अकेला जिम्मा चैटजीपीटी नाम की एक वेबसाइट है जो लोगों के मनचाहे मुद्दों पर पलक झपकते जानकारी ढूंढकर, जरूरत के मुताबिक शक्ल में ढालकर सामने रख देती है। इसमें कुछ गलतियां भी हैं, लेकिन वह बहुत तेजी से अपने को सुधारती जा रही है। जब घर बैठे मुफ्त में पल भर में पढऩे-लिखने वालों को उनकी मर्जी का माल तैयार मिलने लगेगा, तो वे क्यों तो उसे किताबों में ढूंढेंगे, और क्यों किसी कोचिंग या ट्यूशन वेबसाइट को उसके लिए पैसा देंगे। इसी का असर है कि पश्चिमी दुनिया में शिक्षा का कारोबार करने वाले लोगों का धंधा एकदम से गिरा है, और यह बड़ी जाहिर बात है कि जब कारोबार टूटते हैं, तो उसकी पहली मार कर्मचारियों पर होती है, और जिस तरह आज दुनिया की बड़ी-बड़ी टेक्नालॉजी कंपनियां कर्मचारियों को हजारों की संख्या में निकाल रही हैं, किताब और कोचिंग कारोबार के कर्मचारियों की बारी आई हुई दिखती है।
यहां पर यह समझना जरूरी है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के खतरे सिर्फ नौकरियां जाने तक सीमित नहीं हैं। ऐसा माना जा रहा है कि बरसाती पहाड़ी नदी की तरह अंधाधुंध ताकत और रफ्तार वाले आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से दुनिया में मुजरिमों के हाथ बहुत मजबूत हो सकते हैं, आतंकियों के हाथ एक नया औजार लग सकता है, और इनके मुकाबले बचाव के कोई औजार अभी बने नहीं है। यह भी माना जा सकता है कि विज्ञान के कई किस्म के कामों में, लोकतंत्रों में जनमत प्रभावित करने में, दुनिया में झूठ फैलाने और सच छिपाने में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और कारोबार मिलकर इतना कुछ कर सकते हैं कि उससे दुनिया में असला लोकतंत्र ही खत्म हो जाए। यह के तानाशाह और धर्मांध लोग अपनी सोच को फैलाने के लिए, और बाकी तमाम सोच को खत्म करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का मनमाना इस्तेमाल कर सकते हैं, और आज के विज्ञान और टेक्नालॉजी के पास इस असीमित ताकत के हमले को रोकने की कोई ताकत ही नहीं है।
यही वजह है कि दुनिया के एक सबसे बड़े कारोबारी, और चैटजीपीटी बनाने वाली आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस कंपनी के प्रमोटरों में से एक, एलन मस्क ने दुनिया के बहुत से कारोबारियों के साथ मिलकर यह सार्वजनिक अपील की है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर चल रही तमाम किस्म की रिसर्च रोक दी जाए क्योंकि यह किस तरह के खतरे पैदा करेगी यह साफ नहीं है। इसे एक दूसरे विशेषज्ञ की जुबान में समझें तो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस उसे विकसित करने वाले ह्यूमन इंटेलीजेंस को कब पार कर जाएगी वह पता ही नहीं लगेगा। ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि इंसानी बुद्धि जीवविज्ञान की क्षमता से काम करती है, और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस डिजिटल क्षमता से। इंसानी सोच कई तरह की सामाजिकता, नैतिकता, मानवीयता, और नीति-सिद्धांतों से प्रभावित रहती है, उनसे बंधी रहती है, लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस इन सबसे पूरी तरह मुक्त रहेगी, और उसे एक आतंकी या मुजरिम की तरह सोचने में कोई हिचक नहीं होगी, कोई वक्त नहीं लगेगा।
एक अपराधकथा की तरह सोचें, तो अगर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के दिमाग में यह बात आ जाएगी कि इंसान धरती पर बोझ बढ़ा रहे हैं, और उन्हें कम करना चाहिए, तो वह भरी सर्दियों में दुनिया के बर्फ जमे देशों में बिजलीघरों को पल भर में तबाह कर देगी, और दसियों लाख लोग जमकर खत्म हो जाएंगे। उसे लगेगा कि आबादी को घटाना है, तो हो सकता है कि वह पानी साफ करने के कारखानों में कोई रसायन घोल दे, दवा कारखानों में रसायनों का अनुपात कम-ज्यादा कर दे, या दुनिया की चुनिंदा प्रयोगशालाओं से वायरस रिलीज कर दे, कहीं कारखानों से यूनियन कार्बाइड की तरह जहरीली गैस छोड़ दे। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लैस आतंकी या धर्मांध लोग ऐसा काम मिनटों में करने की हालत में रहेंगे क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को इंसानी सोच के तौर-तरीके मालूम रहेंगे, और इंसानों को उसकी सोच के तरीकों का पता भी नहीं रहेगा जो कि वह खुद विकसित कर लेगी। एक आशंका यह भी है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में सीखने की जो अपार क्षमता विकसित हो रही है, वह बहुत जल्दी इंसानी काबू से परे पहुंच जाएगी, और उसके साथ-साथ यह भी चल रहा है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में भावनाएं भी विकसित हो सकती हैं। यह कल्पना की जाए कि ऐसी भावनाओं में किसी धर्म, राष्ट्रीयता, नस्ल, लिंग, या पेशे के खिलाफ नफरत पैदा कर दी जाए, तो वह खुद उस तबके को तबाह और खत्म करने के तरीके पल भर में ईजाद कर सकेगी, दुनिया भर के कम्प्यूटरों में घुसपैठ कर सकेगी, और मनचाहे लोगों को पल भर में खत्म कर सकेगी। यह कल्पना करने के लिए एक तस्वीर सोचें कि अगर इस हथियार से लैस कोई व्यक्ति यह तय कर ले कि दुनिया के तमाम कैंसर मरीजों को खत्म करना है क्योंकि वे इलाज के ढांचे पर बोझ हैं, तो ऐसे मरीजों की जांच रिपोर्ट प्रभावित करने, रेडियेशन की मशीनों से दिए जाने वाले डोज को बदलने, कैंसर की दवाओं में मिलावट कर देने जैसी अनगिनत योजनाएं भी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस खुद बना सकती है, और ऐसे मरीजों को बेमौत मार सकती है। आज हम अमरीका में एक अकेले बंदूकबाज को दर्जनों लोगों को मार डालते देख रहे हैं, लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसा औजार हथियार में तब्दील होकर बिना लहू बहाए पल भर में लाखों लोगों को मार सकेगा।
आज ये बातें कुछ लोगों को फिल्मी कहानी सरीखी लग सकती हैं, लेकिन याद रखना चाहिए कि अभी कुछ महीने पहले तक किसी ने चैटजीपीटी जैसे किसी मुफ्त औजार की आने की बात की होती, तो लोग उसे विज्ञान कल्पना ही करार देते। ऐसी चर्चा है कि कुछ दिनों के भीतर यूरोपीय यूनियन इस रिसर्च पर कोई रोक लगाने जा रही है, लेकिन लोगों का यह मानना है कि ऐसे फैसले पर कानून बनने, और उस पर अमल होने में बरसों लग जाएंगे, और तब तक यह औजार इंसानों को लाखों मील पीछे छोड़ चुका होगा। आज शायद यह सब लिखने में भी बहुत देर हो चुकी है, और अब तक शायद यह दानव अमर हो चुका है, आगे देखें क्या होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कर्नाटक चुनाव के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के घोषणापत्र आ गए हैं। कल पहले भाजपा का घोषणापत्र आया जिसमें गरीबी रेखा के नीचे के सभी परिवारों को साल में तीन मुफ्त रसोई गैस सिलेंडर देने का वायदा किया गया है। इसके अलावा पड़ोस के तमिलनाडु से जयललिता के शुरू किए हुए अम्मा किचन की तर्ज पर हर नगर निगम के हर वार्ड में सस्ते गुणवत्तापूर्ण, और स्वास्थ्यवर्धक भोजन उपलब्ध कराने के लिए अटल आहार केन्द्र स्थापित किए जाएंगे। पोषण आहार योजना के तहत हर बीपीएल परिवार को पांच किलो गेहूं, और पांच किलो मोटे अनाज मिलेंगे, और हर दिन आधा लीटर दूध मिलेगा। कांग्रेस का घोषणापत्र इसके बाद आया, और उसमें हर परिवार को दो सौ यूनिट मुफ्त बिजली का वादा किया गया है, इस तरह की व्यवस्था छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पहले से कर चुकी है, और आम आदमी पार्टी की सरकार ने पंजाब में इसे किया है। कर्नाटक के घोषणापत्र में कांग्रेस ने हर परिवार की महिला मुखिया को दो हजार रूपए महीने देने की घोषणा की है, हर बेरोजगार ग्रेजुएट को दो साल तक तीन हजार रूपए महीने, और डिप्लोमा होल्डर बेरोजगार को दो साल तक पन्द्रह सौ रूपए महीने दिए जाएंगे। कांग्रेस ने कहा है कि उसकी सरकार आने पर दस किलो अनाज मुफ्त दिया जाएगा, और सरकारी बसों में महिलाएं मुफ्त सफर कर सकेंगी।
इन दोनों घोषणापत्रों को इस बात को याद रखते हुए देखना चाहिए कि पिछले कुछ बरसों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोगों को मुफ्त या रियायती सामान देने के खिलाफ कई बार कहा है, और पिछले बरस उन्होंने इसे रेवड़ी कल्चर करार दिया था, तब केजरीवाल सरीखे कई नेताओं ने उनकी सोच और उनके बयान की खासी आलोचना की थी। अभी पांच दिन पहले इसी कर्नाटक में चुनाव प्रचार की आमसभा में मोदी ने फिर देश के कई राजनीतिक दलों के ‘रेवड़ी कल्चर’ पर हमला किया था, और कहा था कि देश के विकास के लिए लोगों को मुफ्त रेवड़ी बांटना बंद करना होगा। अब सवाल यह है कि चुनावी घोषणापत्र में भाजपा भी जगह-जगह कई तरह की मुफ्त चीजों की घोषणा करती है, अब फर्क यही रह जाता है कि किस तरह किस रंग की रेवडिय़ां मोदी को नहीं खटकती हैं, और किस रंग की खटकती हैं। जनता को जो कुछ भी मुफ्त या रियायती देने की घोषणा होती है, उसे देखने का अपना-अपना नजरिया होता है, और कोई भी उसे रेवड़ी करार दे सकते हैं। चुनावी मुकाबलों में तेरी रेवड़ी मेरी रेवड़ी से अधिक जायज कैसे, यह सवाल तो खड़े ही रहता है। धीरे-धीरे जनता हर छूट या रियायत की आदी हो जाती है, और उसे अगले चुनावों में कुछ और नया देने की जरूरत पड़ती है। और यह सिलसिला बढ़ते-बढ़ते आबादी के एक बड़े हिस्से को फायदा देने लगता है, लेकिन इससे आबादी का कोई स्थाई भला नहीं होता, केवल रोज की जिंदगी बेहतर होती है, खानपान मिलने से कुपोषण खत्म होता है, लेकिन इससे रोजगार नहीं बनता।
भारत जैसे देश में यह एक मुश्किल फैसला होता है कि रियायतों को कहां रोका जाए, और लोगों को काम करने के लिए कब आगे बढ़ाया जाए। बहुत सी पार्टियों ने समय-समय पर गरीबों के खानपान की सहूलियत के लिए बहुत रियायती इंतजाम अलग-अलग राज्यों में किए, इनमें शायद तमिलनाडु सबसे पहला भी रहा, और सबसे कामयाब भी रहा। स्कूलों में दोपहर का भोजन, फिर सुबह का नाश्ता, यह सब इंतजाम करने में भी तमिलनाडु ने ही बाकी हिन्दुस्तान को राह दिखाई है। और अब वहां पर हालत यह हो गई है कि जनता इसे अपना हक मानने लगी है, और कोई भी सरकार इसे खत्म नहीं कर सकती। जिस देश में आधी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे हो, उस देश में रियायतें, और जिंदा रहने के लिए मुफ्त की कुछ चीजें रोकी नहीं जा सकतीं। इसलिए पूरे देश में केन्द्र और राज्य सरकारें तरह-तरह की योजनाओं के तहत गरीब लोगों को अनाज तकरीबन मुफ्त देती हैं। कुछ राज्यों में एक दिन की मजदूरी से परिवार का एक महीने का राशन आ सकता है। इन्हीं बातों से हिन्दुस्तान में अब भुखमरी से मौत जैसी खबरें आना बंद हो गई हैं। और कुछ भी हो जाए, लोगों के पास खाने का इंतजाम अब रहने लगा है। लेकिन यह इंतजाम तो जंगलों या शहरों में रहने वाले जानवरों के पास भी रहता है, इंसानों को इससे ऊपर उठने की जरूरत है।
जिस तरह बेरोजगारी भत्ता कुछ सीमित बरसों के लिए देने की योजना छत्तीसगढ़ ने शुरू की है, कुछ और राज्यों में है, और कर्नाटक में अभी इसकी घोषणा हो रही है, उसी तरह बहुत सी रियायतें सीमित बरसों के लिए होनी चाहिए, और रोजगार की योजनाएं इस तरह लागू की जानी चाहिए कि लोग खुद कमाना शुरू कर सकें, और मुफ्त का सामान लेने की उनकी जरूरत न रहे। यह बात कहना आसान है, करना तकरीबन नामुमकिन है, क्योंकि जिस देश में सबसे बड़े खरबपति भी कोई टैक्स रियायत छोडऩा नहीं चाहते हैं, हर तरह की छूट को पाने के लिए अपने खाते-बही बदलते रहते हैं, उस देश में गरीबी की रेखा से जरा से ऊपर आए किसी को ईमानदारी से रियायतें छोड़ देने को कहना इस देश की संस्कृति के खिलाफ भी जाएगा। फिर भी एक सोच तो विकसित होनी ही चाहिए, फिर चाहे वह तुरंत अमल के लायक न भी हो। हिन्दुस्तान ने राजनीतिक दलों और सरकारों को रोजगार के मौके बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए जिससे लोग रियायतें अगर पाते भी रहें, तो भी उनके परिवार की दूसरी जरूरतें रोजगार से पूरी हों, और जिंदगी हमेशा गरीबी की रेखा के नीचे न रहे। आज हिन्दुस्तान में इंसानी सहूलियतें किसी भी विकसित देश के मुकाबले बहुत कमजोर हैं, और हिन्दुस्तान अपने आपको अब विकासशील देश नहीं गिनता है, विकसित देश गिनता है। जबकि विकसित के साथ जो तस्वीर दिमाग में उभरती है, वह हिन्दुस्तान की आम जिंदगी में कहीं नहीं है। चुनावी जीतने के लिए राजनीतिक दल घोषणापत्रों में चाहे जो लिखें, असल रोजगार पैदा करने वाली सरकार अलग ही दिखेगी, और आंकड़ों का वायदा करने वाली पार्टियां भी उजागर हो रही हैं। छह महीने बाद कुछ राज्यों में चुनाव हैं, और साल भर बाद देश में संसद के आम चुनाव। देखते हैं इन चुनावों में और कैसे-कैसे वायदे किए जाते हैं, और पिछले घोषणापत्रों के वायदों पर अब तक क्या हुआ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुनील से सुनें : कर्नाटक से उठा सवाल, ‘रेवड़ी’ बांटने से परहेज किसे?
कर्नाटक चुनाव में इन दो दिनों में भाजपा और कांग्रेस के घोषणापत्र आए हैं जिनमें गरीबों, महिलाओं, बेरोजगारों के लिए तरह-तरह की घोषणाएं हैं। बेरोजगारी भत्ते से लेकर हिन्दू त्यौहारों पर साल में तीन गैस सिलेंडर तक। इसके चार दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर्नाटक की आमसभा में रेवड़ी-संस्कृति के खिलाफ बोल गए थे। लेकिन भाजपा का घोषणापत्र कांग्रेस के मुकाबले अधिक रेवडिय़ों से भरा है। इस पर हमने एक तीसरी पार्टी, सीपीएम के एक नेता बादल सरोज से भी बात की कि ‘रेवडिय़ां’ बंटनी चाहिए या नहीं? इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार को सुनें न्यूजरूम से।
छत्तीसगढ़ भाजपा के सबसे बड़े नेता नंदकुमार साय ने बीती रात जब भाजपा से इस्तीफा दिया तो उनकी कई तरह की संभावनाएं दिख रही थीं। पहली बात तो यह लग रही थी कि भाजपा नुकसान को सीमित करने के लिए उन्हें मनाएगी, और हाशिए पर पड़े हुए साय को किसी भूमिका में रखा जाएगा। दूसरी संभावना यह लग रही थी कि वे आम आदमी पार्टी में जा सकते हैं। एक तीसरी संभावना यह थी कि वे कुछ इंतजार करके सर्वआदिवासी समाज नाम के संगठन से जुड़ सकते हैं। लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं हुआ, और वे इस वक्त प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। वे तीन बार के लोकसभा सदस्य, एक बार के राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं, और विधायक होने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रह चुके हैं, और राष्ट्रीय जनजातीय आयोग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे एक खासे पढ़े-लिखे आदिवासी नेता हैं, और जनसंघ के जमाने से वे लगातार एक ही पार्टी में बने रहे। उनका निजी चाल-चलन विवाद से परे बने रहा, और वे एक सिद्धांतवादी नेता माने जाते हैं, और इसके चलते वे अपनी पार्टी की सरकार से भी कई बार मतभेद रखते दिखते थे। अब उनके कांग्रेस में शामिल होने से छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग के सबसे बड़े आदिवासी नेता इस पार्टी में पहुंच जाएंगे, और जाहिर तौर पर आने वाले कई चुनावों में कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है।
भाजपा का छत्तीसगढ़ के प्रति रवैया बड़ा अजीब चल रहा है। एक आदिवासी नेता विष्णुदेव साय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे, जिन्हें हटाकर आदिवासी दिवस के दिन पिछले बरस एक ओबीसी सांसद अरूण साव को भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। यह काम दो-चार दिन आगे-पीछे भी हो सकता था, इनमें से कोई पार्टी छोड़ भी नहीं रहा था, लेकिन आदिवासी दिवस के दिन आदिवासी अध्यक्ष को हटाना लोगों को हक्का-बक्का करने वाला फैसला था। लेकिन छत्तीसगढ़ भाजपा की कोई जुबान राष्ट्रीय संगठन और मोदी-शाह के सामने रह नहीं गई है क्योंकि 65 सीटों के दावे के बाद कुल 15 सीटें मिली थीं, और तब से इन साढ़े चार बरसों में राज्य भाजपा के उस वक्त के किसी नेता को कुछ नहीं गिना गया। पिछले मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह सहित उस वक्त संगठन और सरकार के तमाम नेता मानो बर्फ में जमाकर रख दिए गए हैं कि कभी जरूरत पड़ेगी तो उन्हें वापिस जीवित किया जाएगा। पार्टी का यह फैसला भी बहुत अटपटा था कि विष्णुदेव साय को हटाने के बाद किसी आदिवासी नेता को कोई अहमियत नहीं दी गई, बल्कि एक ओबीसी नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक को हटाकर उन्हीं के संभाग के एक दूसरे ओबीसी विधायक नारायण चंदेल को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया। पार्टी के प्रवक्ता के रूप में एक तीसरे ओबीसी नेता अजय चंद्राकर को बढ़ावा दिया गया, मानो प्रदेश में और किसी जाति के नेता की कोई जरूरत ही नहीं है।
विधानसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बाद से अब तक लगातार छत्तीसगढ़ में भाजपा पर दिल्ली में ही तमाम फैसले लिए जा रहे हैं, और छत्तीसगढ़ के भाजपा नेताओं को यह भी नहीं मालूम है कि उन्हें अगले विधानसभा चुनाव में टिकट मिलेगी या नहीं, या उन्हें प्रचार में भी इस्तेमाल किया जाएगा या नहीं। इस नौबत ने इस राज्य में भाजपा के नेताओं को अनिश्चितता और अनिर्णय का शिकार बनाकर रख छोड़ा है। साथ-साथ ऐसा लगता है कि पूरे देश में ही भाजपा की कोई आदिवासी-नीति नहीं है, आदिवासी बहुल राज्यों में उसकी सरकार भी नहीं है, और न ही कोई बड़े नेता उसके संगठन में, उसकी सरकार में निर्णायक दिख रहे हैं। कहने के लिए भाजपा यह कह सकती है कि उसने राष्ट्रपति एक आदिवासी महिला को बनाया है, और इससे अधिक कोई पार्टी क्या कर सकती है, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि राष्ट्रपति का देश की रोजाना की राजनीति से कोई लेना-देना रहता नहीं है, वह एक प्रतीकात्मक महत्व देना तो है, लेकिन देश भर में आदिवासी इलाकों में केन्द्र सरकार, और कई राज्य सरकारों की नीतियों से जो बेचैनी बनी हुई है, उसे कम करने के बारे में केन्द्र सरकार ने सोचा ही नहीं है, बल्कि उसकी जंगल और खदान की जितनी नीतियां हैं, वे सब आदिवासियों के खिलाफ बनते दिख रही हैं। ऐसी कई वजहों से हो सकता है कि नंदकुमार साय जैसे नेता निजी उपेक्षा के अलावा भी आहत रहे हों, और इस वजह से भी आज साय कांग्रेस में जा रहे हैं। हो सकता है कि यह दल-बदल पूरी तरह से सिद्धांतवादी फैसला न होकर निजी हित में लिया गया फैसला हो, लेकिन राजनीति में किसी के भी फैसले इस तरह के मिलेजुले रहते हैं, और अक्सर ही न कोई फैसला सौ फीसदी सिद्धांतवादी होता, न सौ फीसदी निजी।
छत्तीसगढ़ कांग्रेस के मौजूदा आदिवासी अध्यक्ष मोहन मरकाम को हटाने के लिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की ओर से लगातार एक अभियान चलाने की खबरें आती ही रहती हैं। लेकिन साय के आने से मरकाम की सेहत पर तुरंत कोई फर्क पड़ते इसलिए नहीं दिखता कि दोनों छत्तीसगढ़ के दो अलग-अलग इलाकों के हैं, और पार्टी में आते ही साय को किसी तरह का बड़ा ओहदा और काबू नहीं दिया जा सकता। लेकिन छह महीने के बाद के चुनाव तक प्रदेश कांग्रेस में आदिवासी समीकरण कई तरह से बदलेंगे, और उस वक्त यह पार्टी भाजपा के मुकाबले बेहतर हालत में रह सकती है क्योंकि इसमें आदिवासी नेता लगातार महत्व पा रहे हैं, और भाजपा में आदिवासी नेता हाशिए पर भी नहीं रखे गए हैं। इस ताजा दल-बदल ने छत्तीसगढ़ की राजनीति को बड़ा दिलचस्प कर दिया है। इसका कर्नाटक पर कोई असर पड़ेगा ऐसी संभावना नहीं दिखती, लेकिन पार्टी का हौसला इससे जरूर बढ़ेगा, और इस नाटकीय घटना से भूपेश बघेल का वजन भी कांग्रेस संगठन के भीतर और छत्तीसगढ़ की राजनीति में बढ़ रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका में हर किसी को तरह-तरह की बंदूकें रखने का हक है। लोग फौजी दर्जे के ऐसे ऑटोमेटिक हथियार भी रखते हैं जिनसे मिनट भर में सौ लोगों को मारा जा सके। यह बड़ा ही अजीब और सिरफिरा देश है जो कि अपने हर नागरिक को इतने हथियार रखने का हक देता है जिससे एक-एक अमरीकी सैकड़ों लोगों को मार सके। और वहां पर हथियारों की वकालत करने वाले लोग यह मानकर चलते हैं कि इससे देश में लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा क्योंकि अमरीकी सेना कभी तख्ता पलट नहीं कर सकेगी क्योंकि जनता के पास इतने हथियार हैं। अभी वहां एक नौजवान अपने घर के अहाते में रोज गोलियां चला रहा था, और पड़ोसियों ने जब इस पर विरोध दर्ज किया, तो उसने पांच लोगों को मार डाला। नाजायज काम से रोकने का यह बहुत बड़ा दाम चुकाना पड़ा। लेकिन इस बात को हम दुनिया के बाकी देशों की उन अलग-अलग घटनाओं से जोडक़र भी देखना चाहते हैं जिनमें जायज विरोध के जवाब में इस तरह के कत्ल हो रहे हैं। हिन्दुस्तान में ही सडक़ों पर किसी की गुंडागर्दी को रोकने की कोशिश हो तो लोग मार डाल रहे हैं, छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट के कड़े हुक्म के बाद भी लगातार बजने वाले डीजे के शोरगुल का विरोध करने पर कत्ल हुए हैं, और आज के वक्त समझदार लोग कोई भी जागरूकता दिखाने के पहले यह मान लेते हैं कि उसका नतीजा जिंदगी देना भी हो सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि लोकतंत्र में छोटी-छोटी बातों के लिए लोग अगर अपने हक का इस्तेमाल न कर सकें, और हर बात की शिकायत के लिए पुलिस, सरकार, या अदालत तक जाना पड़े, तो कितनी नाजायज बातों को रोकना मुमकिन हो पाएगा? जब लोगों के बीच कानून की फिक्र खत्म हो जाती है, जब राजनीति मुजरिमों को बचाने का काम करने लगती है, जब पुलिस और अदालती कार्रवाई सबसे अधिक दाम देने वाले के हाथ बिकने को तैयार खड़ी रहती हैं, तब लोगों की जागरूकता जवाब देने लगती है। लोकतंत्र में इससे बुरी कोई नौबत नहीं रहती कि लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता को घर छोडक़र बाहर निकलें, क्योंकि अधिक जागरूक बनने के बाद इस बात की गारंटी नहीं रहेगी कि वे घर लौट सकेंगे या नहीं। आज आस-पड़ोस की गुंडागर्दी पर भी कुछ बोलने का धरम नहीं रह गया है क्योंकि हर गुंडे-मवाली को बचाने के लिए उसके धर्म के लोग, उसकी जाति के लोग, उसके राजनीतिक दल के लोग खड़े रहते हैं। और शरीफों का कोई संगठन नहीं रहता, शरीफ की मदद करने से किसी नेता का कोई फायदा नहीं होता, और शरीफ के पास ऐसा पैसा भी नहीं रहता कि पुलिस और अदालत उसके साथ इंसाफ करे। नतीजा यह होता है कि थाने से लेकर अदालत तक शरीफ सबसे अधिक प्रताडि़त रहते हैं, और मुजरिम घर जैसी सहूलियत पाते रहते हैं।
हिन्दुस्तान में अधिकतर प्रदेशों में अमरीका की तरह की बंदूकबाजी नहीं होती, लेकिन फिर भी यूपी-बिहार जैसे राज्य देखें तो वहां पर आम लोगों के बीच बंदूक की जिस तरह की संस्कृति प्रचलित है, और कानूनी और गैरकानूनी हथियार जितने आम हैं, उनके बीच शरीफों का गुजारा कम है। यही वजह है कि वहां पर बड़े-बड़े मुजरिमों के गिरोह राज करते हैं, वे किसी धर्म और किसी जाति की गिरोहबंदी करते हैं, और नेता उन्हें अपने भाड़े के हत्यारों की तरह बचाने का काम करते हैं। बंदूकों का राज चाहे वह मुजरिमों का हो, चाहे वह कश्मीर या बस्तर जैसे इलाकों में सुरक्षाबलों की बंदूकों का हो, उनमें अराजकता आ ही जाती है। अमरीका में एक अलग किस्म की अराजकता है जिसे वहां कानून की बुनियाद हासिल है, हिन्दुस्तान में सुरक्षाबलों को ज्यादती करने पर किसी तरह की कानूनी हिफाजत तो नहीं है, लेकिन अघोषित हिफाजत उन्हें इतनी मिली हुई है कि सुरक्षाबल ज्यादतियां करते हैं, तो भी उनका कुछ बुरा नहीं होता, उनकी सरकारें उन्हें बचाने का काम करती हैं, फिर चाहे वे एक गाड़ी के सामने एक बेकसूर कश्मीरी को बांधकर क्यों न चलें। कश्मीर हो या बस्तर ऐसे इलाकों में यह लगातार देखने में आ रहा है कि जो लोग जागरूकता की बात करते हैं, उन्हें सुरक्षाबल और उनकी सरकारें अलग-अलग किस्म के मामलों में फंसाने की कोशिश करते हैं। ऐसा उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी होता है, और जहां कहीं किसी उग्रवाद का बहाना बनाया जा सकता है, वहां पर सरकारें लोकतंत्र को जिंदा रखने के नाम पर जागरूकता को कुचलने का काम करती हैं। अब लोग न निजी हकों की बात कर सकते हैं, न सार्वजनिक हक की, और न ही समाज के लोकतांत्रिक अधिकारों की। इन सबके खिलाफ मवालियों से लेकर सरकारों तक की बंदूकें तैनात हैं। लोकतंत्र के लिए यह एक बड़ी तकलीफदेह और निराशाजनक नौबत है, कि ऐसे में लोग क्या जागरूकता दिखाएं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बिहार के तथाकथित सुशासन बाबू नीतीश कुमार ने अपने चहेते, एक दलित आईएएस के हत्यारे, भूतपूर्व सांसद आनंद मोहन को रिहा करने के लिए जिस तरह राज्य का जेल मैन्युअल बदला उससे पूरे देश के आईएएस स्तब्ध हैं, उनके एसोसिएशन ने मुख्यमंत्री से यह फैसला बदलने की मांग की है, और शायद वे इसके खिलाफ अदालत भी जाएं। इस अखबार ने इस बारे में बड़े कड़े शब्दों में यूट्यूब चैनल पर कहा भी है, और बिहार के एक प्रमुख पत्रकार पुष्य रंजन से राजनीति और अपराध के गठजोड़ का इतिहास जाना भी है। लेकिन उत्तरप्रदेश और बिहार से यह सिलसिला खत्म होते दिखता ही नहीं है। आनंद मोहन की रिहाई हुई तो अब बिहार में बैनर लग रहे हैं कि क्षत्रिय समाज के जेलों में बंद और मुजरिमों को भी बाहर निकाला जाए। यह मांग की गई है कि आनंद मोहन की तरह उन्हें भी रिहा करवाया जाए। एक तरफ तो पटना के इस फैसले से नीतीश कुमार को धिक्कारा जा रहा है, दूसरी तरफ दिल्ली में भाजपा के सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ नाबालिग और दूसरी महिला पहलवानों के यौन शोषण का जुर्म आखिर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी दखल के बाद कल दर्ज हुआ है। इसके पहले ओलंपिक मैडल लेकर आने वाली पहलवान लड़कियां सडक़-फुटपाथ पर आंदोलन करते बैठी थीं, और केन्द्र सरकार की नजरों में वे फुटपाथ पर पड़े कूड़े से अधिक नहीं दिख रही थीं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की कड़ी चेतावनी, और निगरानी की कड़ी टिप्पणी के बाद दिल्ली पुलिस के मुर्दा हाथों ने रपट लिखी है। वजह यही है कि भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष मौजूदा भाजपा सांसद हैं, और वे अपने इलाके के बेताज रंगदार भी हैं। ऐसे में जाहिर है कि भाजपा के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस की कोई दिलचस्पी ओलंपिक विजेता महिला खिलाडिय़ों के आंसुओं में नहीं थी।
उत्तरप्रदेश और बिहार के इन दो बाहुबलियों के मामलों को देखें तो देश के ये दो बड़े राज्य, एक अलग ही किस्म की जातिवादी, मवालीवादी, अराजक, और अलोकतांत्रिक राजनीति के अड्डे दिखते हैं। कोई हैरानी नहीं है कि देश में अधिकतर और जगहों पर यूपी-बिहार का नाम राजनीति और अपराध की जोड़ी के लिए लिया जाता है, और जहां पर अधिक अराजकता दिखती है, तो लोग अपने लोगों को याद दिलाते हैं कि ये यूपी-बिहार नहीं है। इन दोनों ही प्रदेशों में आम लोग तो अमन-पसंद ही होंगे क्योंकि आम लोगों की भला क्या सुनवाई हो सकती है, लेकिन जो खास लोग हैं वे अपने जुर्म के कारोबार में, अपनी राजनीति में आम लोगों का इस्तेमाल गुठलियों की तरह करते हैं, और उन्हीं की वजह से पूरे देश में इन दो राज्यों को एक बुरे विशेषण की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
आज जो बृजभूषण सिंह चर्चा में है, उसके बारे में खबरें बताती हैं कि वह राम मंदिर आंदोलन के उफान के वक्त उसमें जुड़ा और बाद में बीजेपी से सांसद बना। उसने सार्वजनिक रूप से यह दावा किया कि वह बाबरी मस्जिद गिराने में शामिल था, सीबीआई ने उस पर इसका केस भी चलाया, लेकिन 2020 में वह बरी हो गया। उस पर दाऊद इब्राहिम के गुर्गों की मदद के लिए टाडा भी लगाया गया, लेकिन वह उससे भी निकल गया। वह भाजपा छोडक़र सपा गया, वहां भी लोकसभा जीता, फिर लौटकर भाजपा आया, फिर वहां से जीत रहा है। पिछले ही बरस एक समाचार वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में उसने कहा था कि उसने एक कत्ल किया था। उसके चुनावी हलफनामे में अभी चार मामले बचे दिख रहे हैं जिनमें कत्ल की कोशिश का मामला भी है। और अब इतनी बड़ी संख्या में महिला खिलाडिय़ों ने उस पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं, लेकिन उसकी पार्टी का उस पर मुंह नहीं खुल रहा है। जो व्यक्ति जिस पार्टी से चाहे उस पार्टी से टिकट पा ले, जिस पार्टी से लड़े, चुनाव जीत जाए, बार-बार जीते, इलाके में धाक हो, पास में दौलत हो, तो भला कौन सी पार्टी को अपना ऐसा आरोपी चुभता है? इसी यूपी-बिहार में अभी जो एक बड़ा गैंगस्टर अतीक अहमद पुलिस घेरे में मार डाला गया, उसके और उसके कुनबे पर दर्ज जुर्मों की एक बड़ी लंबी फेहरिस्त है, और वह सपा से लेकर विधानसभा और लोकसभा का सफर करते रहा है। आनंद मोहन और उनकी बीवी बिहार में विधानसभा और लोकसभा उसी अंदाज में आते-जाते रहे जिस अंदाज में अदालत और जेल आते-जाते रहे।
अपराधियों को चुनावों से दूर रखने के लिए यूपीए सरकार के वक्त राहुल गांधी ने जिस विधेयक को फाडक़र फेंक दिया था, उसके न रहने पर भी राजनीतिक मुजरिम तरह-तरह से सत्ता पर काबिज हैं। बिहार में आनंद मोहन की रिहाई के लिए नियम बदलने के पहले ही नीतीश कुमार आनंद मोहन की रिहाई की मुनादी करते हैं। और चुनावी लोकतंत्र की मजबूरी यह है कि कांग्रेस इन्हीं नीतीश कुमार के साथ विपक्षी गठबंधन की संभावनाओं पर चर्चा कर रही है। यह पूरा सिलसिला लोकतंत्र में एक बड़ी निराशा खड़ी करता है कि भाजपा से लेकर समाजवादियों तक, और दूसरी पार्टियों तक भी, किसी को अपने मुजरिम नहीं खटकते हैं, बल्कि सुहाते ही हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि गुजरात के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले भाजपा सरकार ने उम्रकैद काट रहे उन 11 हत्यारे-बलात्कारी हिन्दू मुजरिमों को वक्त से पहले, नियम तोडक़र जेल से रिहा किया जिन्होंने बिल्किस बानो से गैंगरेप किया था, उसकी बेटी और मां सहित पूरे कुनबे का कत्ल किया था, और कुल 14 हत्याएं की थीं। जब लोकतंत्र में किसी पार्टी को अपने हत्यारे और बलात्कारी अभिनंदन और माला के लायक लगते हों, नियम तोडक़र जेल से रिहा करने के लायक लगते हों, तो आम वोटर बेवकूफों की तरह वोट डालकर इस खुशफहमी में जी सकते हैं कि उनके वोट से यह लोकतंत्र चल रहा है। यह लोकतंत्र पार्टियों की गुंडागर्दी, और उनके मवालियों की जांघतले दम तोड़ रहा है, और नासमझ वोटर अपने को सरकार बनाने वाला मान रहा है। हिन्दुस्तान के चुनाव इस हद तक ढकोसला बन गए हैं कि कोई सरकारें लोकतांत्रिक पैमानों पर चुनकर बनने की संभावना न सरीखी रह गई है। फिर भी दिल के बहलाने को जम्हूरियत का खयाल अच्छा है।
भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष भाजपा के एक बाहुबली सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ भारतीय पहलवानों द्वारा महीनों से लगातार केन्द्र सरकार से, सार्वजनिक रूप से की जा रही यौन शोषण की शिकायतों पर सरकार ने अब तक किया तो कुछ नहीं, अब जब इंसाफ की मांग करते हुए महिला खिलाड़ी सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं, तो भारतीय ओलंपिक संघ की अध्यक्ष पी.टी.ऊषा ने इन पहलवानों की ही आलोचना कर डाली, और कहा कि वे सडक़ों पर जाकर देश का नाम बदनाम कर रही हैं। उनके पास बृजभूषण सिंह के बारे में कहने को कुछ नहीं था, यह भी नहीं था कि महीनों से इतनी लड़कियों की शिकायत पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई, और यौन शोषण की जांच के बजाय उन्हें यह आंदोलन देश की बदनामी लग रहा है। एक ओलंपिक महिला खिलाड़ी रहते हुए पी.टी.ऊषा का आज दूसरी खिलाडिय़ों के लिए इस तरह का बयान बहुत से लोगों को हक्का-बक्का कर सकता है, लेकिन हमें इससे कोई सदमा नहीं पहुंचता। जो लोग किसी भी किस्म की सत्ता या ताकत की जगह पर पहुंच जाते हैं, वे अपने जेंडर से ऊपर उठ जाते हैं, वे अपनी जाति या धर्म से भी ऊपर उठ जाते हैं। उनके सामने सिर्फ ताकत, पैसा, महत्व और मुनाफा, यही बातें रह जाती हैं। यह बात महिलाओं के साथ बदसलूकी करने वाली महिला विधायकों या मंत्रियों को देखकर भी समझी जा सकती है, महिला अधिकारियों को देखकर भी समझी जा सकती है। महिलाओं को पीटने, और मां-बहन की गाली देने में महिला पुलिस अधिकारी भी पीछे नहीं रहती हैं। इसलिए कुल मिलाकर मामला ताकत का है, और ताकत लोगों को उनके जेंडर से ऊपर उठा देता है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर से लेकर इंदिरा गांधी तक के बारे में कहा जाता था कि अपने मंत्रिमंडल में वे अकेली मर्द रहती थीं।
कल से सोशल मीडिया पी.टी. ऊषा के खिलाफ उबला पड़ा है, और अगर उनका छोटा सा एक वीडियो देखा जाए जिसमें वे महिला पहलवानों को देश की बदनामी करने वाली बतला रही हैं, तो मन खट्टा हो जाता है, देश के लिए मैडल जीतकर आने वाली पी.टी. ऊषा के लिए मन में सम्मान पूरी तरह खत्म हो जाता है। उन्हें न सिर्फ खिलाडिय़ों की कोई परवाह नहीं है, बल्कि यौन शोषण की शिकार लड़कियों के लिए भी उनके मन में कोई हमदर्दी नहीं है। तृणमूल कांग्रेस की एक मुखर सांसद महुआ मोइत्रा ने पी.टी. ऊषा के बयान पर कहा है कि अगर इससे देश की बदनामी हो रही है तो सत्तारूढ़ भाजपा सांसद के यौन शोषण की हरकतों से, और उसके खिलाफ दिल्ली पुलिस द्वारा मामला दर्ज न करने से क्या गुलाब की खुशबू आ रही है? बहुत से राजनीतिक दलों ने भी पी.टी. ऊषा को धिक्कारा है। पी.टी. ऊषा का यह कहना है कि पहलवानों को शिकायत लेकर उनके पास आना था। वे शायद यह भूल रही हैं कि पिछले कई महीनों से यह सिलसिला चल रहा है, यौन शोषण की शिकार महिला पहलवान और उनके साथी केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर से भी मिले, खेल संघों में भी गए, और उन्हें जुबानी मरहम से अधिक कुछ नहीं मिला। पी.टी. ऊषा भी इस ताकतवर कुर्सी पर बैठने के बाद से ऐसे मामलों को देखने की सीधी-सीधी जिम्मेदार हैं, लेकिन वे बैठकर इंतजार कर रही हैं कि कोई आकर उनसे शिकायत करे, तब वे उस पर गौर करें, यह नजरिया भी धिक्कार के लायक है। आज खिलाडिय़ों ने भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष, भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ दर्ज अपराधों की एक लंबी फेहरिस्त भी दिल्ली में सामने रखी है, लेकिन कई बार का सांसद रहा हुआ यह आदमी भाजपा को किसी जवाब-तलब के लायक भी नहीं लग रहा है। यह रवैया एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा के लिए शर्मनाक है, पी.टी.ऊषा के लिए शर्मनाक है, और महिलाओं के हक की वकालत करने वाले नेताओं के लिए भी शर्मनाक है।
पहलवानों का यह आंदोलन दिल्ली के करीब के, लगे हुए हरियाणा से भी जुड़ा हुआ है क्योंकि अधिकतर महिला पहलवान वहीं की हैं। अब धीरे-धीरे करके दूसरे राजनीतिक दलों के लोग भी इससे जुड़ रहे हैं, और पुरूष पहलवान तो पहले दिन से ही महिला पहलवानों के साथ हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट में भी आज सुनवाई के लिए लगा है, और ऐसा लगता है कि दिल्ली पुलिस जिस तरह से भाजपा सांसद के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करने से कतरा रही है, उसे अदालत की फटकार भी लगेगी। लेकिन महज फटकार से क्या होता है, अगर पुलिस इस सांसद को बचाने पर ही आमादा होगी तो चाहे कितने ही सुबूत हों, पुलिस बार-बार अदालती दखल बिना दो कदम भी आगे नहीं बढ़ेगी। भारत में सत्ता और पैसों की ताकत का यही हाल है। हर पार्टी अपने-अपने पसंदीदा मुजरिमों को बचाने में लगी रहती है।
फिलहाल आज का दिन पी.टी. ऊषा को धिक्कारने का दिन है जिसके मन में न दूसरी महिलाओं के लिए कोई सम्मान रह गया है, न दूसरी खिलाडिय़ों के लिए। सरकारी सहूलियतें और ओहदे की ताकत लोगों से इंसानियत छीन लेती हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अगले महीने हिन्दुस्तान में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक होने जा रही है जिसमें पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो के आने की बात तय हो गई है। पिछले कुछ बरसों से लगातार भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बहुत बढ़ा हुआ चल रहा है जिसकी वजह से दोनों देशों में कारोबार भी घटा है, और सरकारों के बीच जाहिर तौर पर किसी तरह की बात नहीं हो रही है। वैसे तो दुनिया में तमाम सरकारों के बीच पर्दे के पीछे बातचीत की अलग-अलग तरकीबें काम करती रहती हैं, और ऐसे में भारत और पाकिस्तान भी कुछ लोगों के मार्फत कहीं बात कर रहे हों, तो उसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए। लोगों को एक दिलचस्प बात ठीक से याद नहीं होगी कि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक विदेश प्रवास से दिल्ली लौटते हुए अचानक पाकिस्तान उतर गए, उस वक्त के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के परिवार में एक शादी में पहुंचे, जन्मदिन मनाया, दोनों की मां के लिए तोहफे लेना-देना हुआ, तो इसके पीछे भारतीय विदेश मंत्रालय का नहीं, हिन्दुस्तान के एक कारोबारी सजन जिंदल का अधिक हाथ था जिनके परिवार से नवाज शरीफ के परिवार का दशकों पुराना आने-जाने का रिश्ता था। इसलिए जाहिर तौर पर जो दिखता है, वही पूरा नहीं होता, पर्दे के पीछे बहुत सी और बातों का असर भी होता है। अब अभी बिलावल भुट्टो के आने को लेकर भारत में विरोधी भावनाएं सडक़ों पर हैं, हिन्दुस्तानी फौज पर अभी हुए एक आतंकी हमले की बात को गिनाया जा रहा है, और भारतीय विदेश मंत्री ने अपने एक विदेश दौरे के बीच ही बयान दिया है कि ऐसे एक पड़ोसी के साथ जोडऩा बहुत मुश्किल है जो हमारे खिलाफ सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ावा देता है।
पांच मई को होने वाली शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में चीन और रूस के अलावा भी कई और देशों के विदेश मंत्री रहेंगे, और ऐसे में हमेशा ही यह होता है कि एजेंडा से परे भी नेताओं में आपस में अनौपचारिक चर्चाएं होती हैं जो कि कई बार औपचारिक चर्चाओं के मुकाबले भी अधिक काम की रहती हैं। भारत में बिलावल भुट्टो अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी हैं जो कि पाकिस्तान सरकार की एक हैसियत से यहां आ रहे हैं। उनके नाना और उनकी मां दोनों ही अलग-अलग वक्त पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे हुए हैं, और नाना को फौजी तानाशाह ने फांसी दी थी, और मां बेनजीर भुट्टो को एक रैली में गोली मार दी गई थी। यहां पर इस बात का कोई औचित्य नहीं है, फिर भी सरहद के दोनों तरफ एक अजीब सा संयोग है कि हिन्दुस्तान में भी एक नेता राहुल गांधी के पिता और दादी की मौत भी असाधारण हुईं, और उन दोनों का जुल्फिकार अली भुट्टो और बेनजीर भुट्टो के साथ लंबा संपर्क था।
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के लिए एक बहुराष्ट्रीय संगठन की बैठक में सदस्यों के रूप में आमने-सामने होना बहुत अहमियत तो नहीं रखता है, लेकिन इन दोनों देशों के बीच तनातनी से दोनों का ही बड़ा नुकसान होता है। सरहद के दोनों तरफ गरीबी है, वह कम और अधिक हो सकती है, लेकिन है दोनों तरफ, और इन दोनों का फौजी खर्च मोटेतौर पर एक-दूसरे के खिलाफ ही अधिक रहता है। सडक़ से जुड़े इन दोनों देशों के बीच कारोबार बहुत अच्छा हो सकता है, और अलग-अलग वक्त पर होते भी रहा है। तनातनी में दोनों देश और जगहों से महंगा खरीदने, और सस्ता बेचने को मजबूर रहते हैं। हिन्दुस्तान में सरकारी और निजी क्षेत्र में गंभीर और महंगे इलाज की बहुत बड़ी क्षमता है, और तनाव कम रहने पर पाकिस्तान से हजारों लोग इलाज के लिए हिन्दुस्तान आते भी थे, लोगों को सहूलियत मिलती थी, और चिकित्सा-कारोबार को ग्राहकी। लेकिन वह भी बंद हो चुका है। सरहद के दोनों तरफ लाखों लोगों की रिश्तेदारियां हैं, लेकिन उनका भी सीधा आना-जाना बंद है, और किसी तीसरे देश के मार्फत कुछ लोग आ-जा पाते हैं। सडक़, रेल, और हवाई रास्ते का दोनों देशों के बीच का सारा ढांचा बेकार पड़ा हुआ है। लोगों को याद होगा कि इन दोनों देशों के बीच फिल्म, संगीत, फैशन, क्रिकेट, और पर्यटन की बहुत संभावनाएं हैं, और जब तनाव कम रहता था, तो हिन्दुस्तान के फिल्म और टीवी पर पाकिस्तानी कलाकार दिखते थे, उनके कार्यक्रम हिन्दुस्तान में होते थे। सरहद के तनाव, और आतंकी तोहमतों ने लोगों के बीच के सारे रिश्तों को बर्फ में जमाकर सर्द कर दिया है।
किसी देश की सरकार की जुबान अलग हो सकती है, सरकार चुने हुए लोगों से बनती है, और लोगों को अगले चुनाव में फिर सरकार में आने की जरूरत भी लगती है। ऐसे में सरकार चला रहे लोगों की प्राथमिकताएं संबंध सुधारने से परे की भी हो सकती हैं। लेकिन अगर जनता की पसंद और प्राथमिकता देखी जाए, तो वह सरहदों पर बहुत महंगा तनाव घटाने, और मोहब्बत के रिश्ते बढ़ाने की हिमायती होंगी। लेकिन दिक्कत यह रहती है कि आम जनता सरकार को चुनती तो है, सरकार चलाती नहीं है। एक बार चुन लिए जाने के बाद पांच बरस तक सरकार जनता को चलाती है, और इस सिलसिले में जम्मू-कश्मीर के पिछले गवर्नर सतपाल मलिक की हाल ही में कही गई बातों को भी याद रखने की जरूरत है जिसमें उन्होंने पुलवामा के आतंकी हमले से जुड़ी बड़ी नाजुक बातें कही थीं, और उनमें से किसी बात का अभी तक भारत सरकार ने खंडन नहीं किया है। इन तमाम बातों को देखते हुए ऐसा लगता है कि अगर किसी तरह दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू हो सकती है, तो उससे दोनों तरफ के गरीबों का सबसे अधिक भला होगा, उनकी रोटी छीनकर गोला-बारूद खरीदना कम होगा, बर्फीली सरहदों पर सैनिकों की मौतें घटेंगीं, और दोनों तरफ कारोबार बढ़ेगा। हम सरकार की कूटनीतिक जुबान नहीं जानते, लेकिन भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्तों का मामला ऐसा है कि इसमें सरकारों की जुबानें फासलों को घटाते नहीं दिखती हैं। ऐसा लगता है कि सरकारें चुनाव अभियान में बोलती हैं, और वे अपने देश की जनता से नहीं, देश के वोटरों से बात करती हैं। यह नौबत बदलनी चाहिए। यह बात सुझाना भी आसान नहीं है क्योंकि इसे बहुत आसानी से देश के साथ गद्दारी करार दिया जा सकता है, और सरहद पार भेजने की बात कही जा सकती है। लेकिन सच बोलने वालों को जहर का प्याला देने का दुनिया का पुराना इतिहास रहा है। इसलिए आज नफरती हो-हल्ले के बीच मोहब्बत की जुबान बोलने वालों को कुछ खतरे तो उठाने ही होंगे। इसलिए हम यह साफ-साफ सुझा रहे हंै कि आतंकी हमलों और सरहदी तनावों पर जो भी फौजी कार्रवाई करनी है उसे जारी रखते हुए भी देशों को आपस में बातचीत जारी रखनी चाहिए। यह बात एक वक्त चंबल के डकैतों पर भी लागू होती थी, यह पंजाब के खालिस्तानी आतंकियों, उत्तर-पूर्व के उग्रवादियों, और देश के कई राज्यों के नक्सलियों पर भी लागू होती है, कि बातचीत का सिलसिला कभी बंद नहीं होना चाहिए। हम हमेशा बातचीत की वकालत करते हैं, और उसके साथ बहुत सारी शर्तें जोडऩे के खिलाफ रहते हैं।
इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर कल ही इसके संपादक ने सरकारी और संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की फिजूलखर्ची के खिलाफ तल्ख जुबान में कई बातें कही थीं, और गांधी के इस गरीब देश में किफायत बरतने की नसीहत दी थी। अब आज सुबह के इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के मुताबिक आम आदमी पार्टी के चर्चित मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री निवास पर 45 करोड़ रूपये खर्च किए हैं। उनकी पार्टी की सफाई यह है कि मकान 80 साल पुराना है, इसलिए इसे दुबारा बनवाने की जरूरत थी। लेकिन बीजेपी ने याद दिलाया है कि केजरीवाल ने 2013 में दावा किया था कि वे सरकारी घर, हिफाजत, और सरकारी कार नहीं लेंगे, लेकिन उन्होंने बने-बनाए घर पर 45 करोड़ खर्च किए। आम आदमी पार्टी की सफाई यह है कि यह तो सरकारी निवास है जिस पर सरकारी खर्च किया गया है। पार्टी ने बयान जारी किया है कि 1942 का बना हुआ मकान है, और सरकारी इंजीनियरों ने इसकी जगह नया घर बनाने की सलाह दी थी। इस 45 करोड़ में से 30 करोड़ ही मकान पर लगाए गए हैं, और 15 करोड़ से अहाते में बंगला-ऑफिस बनाया गया है। आम आदमी पार्टी का यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री के लिए बन रहे नए घर पर 467 करोड़ रूपये खर्च किए जा रहे हैं, प्रधानमंत्री के मौजूदा घर की मरम्मत-सजावट पर 89 करोड़ लगाए गए थे। पार्टी ने यह भी बताया है कि दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने पिछले कुछ महीनों में अपने घर की मरम्मत और साज-सज्जा पर 15 करोड़ खर्च किए हैं।
झारखंड के राज्यपाल की किफायत की खबरों को देखते हुए कल इस संपादक ने अपने न्यूजरूम वीडियो में नेताओं और दूसरे ओहदों पर बैठे हुए लोगों की जनता के पैसों की फिजूलखर्ची के खिलाफ कहा था, और अब यह खबर आ गई जो कि हक्का-बक्का करती है। एक मुख्यमंत्री का परिवार आखिर कितना बड़ा होता है, उस पर जनता के कितने पैसे खर्च होने चाहिए? जो व्यक्ति अपनी पार्टी को आम आदमी का नाम देता है, जो नाप से अधिक बड़े कपड़े पहनकर अपने आपको गरीब की तरह दिखाता है, जो हजार किस्म की किफायत और त्याग की बात करते आया है, वह अपने सरकारी मकान पर अगर इस तरह 45 करोड़ खर्च कर रहा है, तो वह हक्का-बक्का करने वाली बात है। केजरीवाल और उनकी पत्नी दोनों ही केन्द्र सरकार के बड़े अफसर रहे हुए हैं, वे चाहते तो अपनी पिछली तनख्वाह से भी अपनी जरूरत का कोई मकान ले सकते थे, लेकिन पुराने मकान की ऐसी मरम्मत और सजावट तो एक जुर्म की तरह लग रही है। दिल्ली बहुत महंगा शहर होगा, लेकिन जनता का पैसा नेता पर इतना क्यों बर्बाद किया जाना चाहिए?
छत्तीसगढ़ में जब पिछले मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह के समय नई राजधानी की योजना बनी, बड़ा सा मंत्रालय बना, और दफ्तर बने, और मंत्री-मुख्यमंत्री के लिए बंगले की योजना बनी, तब भी हमने इस बात को एक से अधिक बार लिखा था कि छत्तीसगढ़ में चूंकि यह सब कुछ पहली बार बन रहा है, इसलिए सरकार के पास किफायत बरतने का एक अनोखा मौका है, और मंत्री-अफसर के बड़े-बड़े दफ्तर बनाने के बजाय, छोटे-छोटे दफ्तर बनाने चाहिए, और हर मंजिल पर मीटिंग के कुछ कमरे बना देने चाहिए जिनका अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोग इस्तेमाल कर सकें। लेकिन आज मंत्री और सबसे बड़े अफसरों के कमरे ही ऐसे बनाए गए हैं जिनमें दर्जनों लोगों की बैठक हो सकती है, और उतने बड़े कमरों का रख-रखाव, उनकी एयरकंडीशनिंग बर्बाद होते रहती है। छत्तीसगढ़ के मंत्री-मुख्यमंत्री बंगलों के आंकड़े तो अभी सामने नहीं है, लेकिन वहां भी इसी तरह की बर्बादी हो रही होगी, क्योंकि नेता-अफसर-ठेकेदार को बड़े-बड़े निर्माण सुहाते हैं। अकेली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ऐसी दिखती है जो कि एक घनी बस्ती के बीच अपने निजी पारिवारिक मकान में रहती हैं, खपरैल के छत का मकान है, और घर के सामने की गली बारिश में पानी से भर जाती है, जिसमें ईटें रखकर ममता अपने घर आती-जाती हैं। अभी पिछले बरस इस घर में दीवाल फांदकर एक विचलित आदमी घुस आया था, वह रात भर वहां एक कोने में दुबके बैठे रहा, और सुबह पुलिस ने उसे पकड़ा था। ममता बैनर्जी शहर के बदबूदार नाले के पास की इस बस्ती में 50 बरस से रह रही हैं, और उनके रेलमंत्री रहते हुए उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब उनके इस घर पर आए थे, तो इसे देखकर हक्का-बक्का रह गए थे।
केजरीवाल की तरह पुराने सरकारी मकान की मरम्मत और सजावट पर बर्बादी करने वाले लोग हों, या छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्य में बनी अंधाधुंध गैरजरूरी बड़ी राजधानी में बनते अंधाधुंध बड़े बंगलों की बात हो, इन सब पर जनता का पैसा खर्च होता है, और इसका हक किसी को नहीं होना चाहिए। दुनिया के कई बहुत संपन्न देशों में वहां के सत्तारूढ़ नेता बड़ी किफायत से रहते हैं, साइकिल पर चलते हैं। कुछ यूरोपीय देशों में तो राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री एक फ्लैट में रहते हैं जिसकी इमारत में और भी बहुत से लोग रहते हैं। अभी कुछ बरस पहले ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनिजाद तेहरान की एक बड़ी इमारत के एक फ्लैट में रहते थे।
जनता के पैसों पर जीने वाले लोगों को अंधाधुंध सुख-सुविधाओं का मोह छोडऩा चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है। लोग अपनी सहूलियतों पर अंधाधुंध खर्च करते हैं, और फिर उनके आदी होकर किसी भी कीमत पर उस सत्ता पर बने रहना चाहते हैं। हिन्दुस्तान में अगर ऐसे सत्तामोह को खत्म करना है, और गरीबों के साथ इंसाफ करना है तो सरकारी बंगलों की परंपरा को खत्म कर देना चाहिए। इनको नीलाम करके वहां पर बहुमंजिली इमारत बनानी चाहिए, जिसमें लोग सरकारी कर्मचारियों की फौज के बिना गिने-चुने घरेलू कामगारों के साथ रह सकें। लेकिन देश की कोई बड़ी पार्टी, कोई बड़े नेता ऐसा करना नहीं चाहते। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहने के लिए बिना परिवार के हैं, न पत्नी साथ रहती, न मां, न परिवार का कोई और। लेकिन अंधाधुंध बड़े प्रधानमंत्री निवास में रहते हुए भी उन्हें करीब पांच सौ करोड़ का नया प्रधानमंत्री निवास बनवाने से कोई परहेज नहीं रहा। जबकि उन्हीं की तस्वीरों वाली थैलियों में गरीबों को मुफ्त या रियायती अनाज बांटकर प्रचार भी किया जाता है। ऐसे गरीब देश में प्रधानमंत्री को पांच सौ करोड़ का नया घर क्यों चाहिए? देश के तमाम सरकारी बंगलों को नीलाम करके सबको एक किराया-भत्ता दे दिया जाए, और वे अपनी पसंद और क्षमता के मकान किराए से लेकर रहें, इससे छोटे-छोटे प्रदेशों में भी सैकड़ों करोड़ रूपये साल की बचत होगी, और दिल्ली जैसे शहर में तो हजारों करोड़ रूपये साल की बचत होगी। लेकिन आज अगर कोई ऐसी जनहित याचिका लेकर अदालत जाए, तो उसे बाहर फेंक दिया जाएगा क्योंकि जज खुद ही अंग्रेजों के वक्त के बड़े-बड़े बंगले छोडऩा नहीं चाहते, और रिटायर होने के बाद भी उनमें बने रहने की जुगत करते रहते हैं। इसलिए यह लोकतंत्र सही मायनों में एक सामंती तंत्र है, और इसमें कोई सुधार तभी हो सकता है जब ममता बैनर्जी जैसी फक्कड़ जिंदगी जीने वाले कोई प्रधानमंत्री बनें, और जिनमें देश के गरीबों के लिए दर्द भी हो।
दिल्ली में भारत के कुश्ती-चैंपियन महीनों से अपने फेडरेशन के तानाशाह और बदनाम अध्यक्ष, भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं, और जब सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की, तो अब पहलवानों की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी किया है। देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस मामले को बहुत गंभीर माना है। पहलवानों के आरोप हैं कि फेडरेशन को मनमाने तरीके से हांकने वाले अध्यक्ष सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने महिला पहलवानों का यौन उत्पीडऩ किया जिनमें नाबालिग भी शामिल है। ये पहलवान अभी दिल्ली में धरने पर बैठे हुए हैं, उनकी दर्ज कराई गई यौन उत्पीडऩ की शिकायत के बावजूद पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की है, जबकि यौन शोषण की शिकार लड़कियों में एक उस वक्त 16 बरस की थी जिसने गोल्ड मैडल भी जीता था। इनकी तरफ से अदालत में खड़े हुए वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि ऐसे जुर्म के मामले में जांच न करने के लिए जिम्मेदार पुलिसवालों पर भी मुकदमा चलना चाहिए।
महीनों हो गए हैं यह देश पहलवान लडक़े-लड़कियों को आंसू बहाते देख रहा है। वे सार्वजनिक जगहों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, बड़ी संख्या में खिलाडिय़ों के ऐसे आरोप हैं, और यौन शोषण की शिकार कुछ लड़कियों की तरफ से उनके साथी पहलवान सामने आए हैं ताकि उन्हें शर्मिंदगी न झेलनी पड़े। लेकिन केन्द्र सरकार के बड़े-बड़े मंत्रियों से लेकर पुलिस तक कुछ भी नहीं कर रहे। लीपापोती करने के अंदाज में भारतीय कुश्ती संघ की एक जांच का नाटक सा किया जा रहा है। इस संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर आरोप है कि उन्होंने कम से कम 10 महिला कुश्ती खिलाडिय़ों का यौन उत्पीडऩ किया है। जैसा कि कोई भी आरोपी करते हैं, इस आदमी ने भी अपने पर लगे आरोपों को गलत बताया है। इस मामले को भारत में खेलों के जानकार मान रहे हैं कि यह इंसाफ के लिए लड़ाई की एक बड़ी शुरुआत है। जो लोग खेलों की दुनिया की हकीकत जानते हैं, वे यह भी मानते हैं कि महिला खिलाडिय़ों को अक्सर ही ऐसे शोषण का सामना करना पड़ता है, उनमें से कुछ बच पाती हैं, कुछ नहीं बच पातीं। लेकिन उनका प्रशिक्षण, उनका चयन, उन्हें आगे बढऩे के मौके, इन सबके लिए मर्द पदाधिकारियों के शोषण का सामना करना पड़ता है। आज हालत यह है कि कुश्ती संघ के इस अध्यक्ष पर ही महीनों से इतने गंभीर आरोप लग रहे हैं, लेकिन न तो सरकार की तरफ से जांच कमेटी बनाने की एक खानापूरी के अलावा और कुछ किया गया, और न ही भाजपा की तरफ से अपने इस सांसद से कोई जवाब-तलब किया गया। ऐसा माना जाता है कि यह सांसद उत्तर भारत के अपने इलाके में वोटरों पर खासा दबदबा रखता है, और पार्टी उसके खिलाफ कुछ करने की हिम्मत नहीं कर सकती।
इस एक मामले से परे भी हमें हमेशा यह लगता है कि भारत में खेल संघों पर नेताओं और अफसरों का जिस बुरी तरह कब्जा है, उसके चलते उनके शिकार खिलाडिय़ों को कभी इंसाफ नहीं मिल सकता। वे ही सांसद-विधायक हैं, वे ही मंत्री-अफसर हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई करे तो कौन करे? शायद यही देखते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने आज नाराजगी के साथ पुलिस को हुक्म दिया है। हम राष्ट्रीय स्तर पर, और प्रदेशों में भी यह देखते हैं कि राजनीतिक सत्ता, सरकारी ताकत, और कारोबारी दौलत, इससे परे कोई खेल संघ नहीं चल सकते। इन तीनों दायरों में जो सबसे ताकतवर हैं, उन्होंने पूरी जिंदगी में उस खेल का मैदान भी न देखा हो, वे ही लोग राज करते हैं, और होनहार खिलाडिय़ों को किस तरह खत्म किया जाए, इसका इंतजाम भी करते हैं। चारों तरफ ऐसे खेल संघ खिलाडिय़ों से परे हैं, उनके चुनावों में दौलत और सत्ता का बोलबाला रहता है, और उन्हें माफिया अंदाज में चलाया जाता है। यह सिलसिला जब तक खत्म नहीं होगा, तब तक हिन्दुस्तान में खेलों का भला नहीं हो सकता, शोषण के शिकार खिलाडिय़ों को कोई इंसाफ नहीं मिल सकता। देश ने देखा है कि किस तरह बीसीसीआई के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महीनों तक दखल दी, एक रिटायर्ड जज की अगुवाई में कमेटी बनाई, लेकिन किसी भी तरह से खेल की यह संस्था खिलाडिय़ों के हाथ नहीं आ पाई। देश और प्रदेशों में क्रिकेट बड़े-बड़े सबसे ताकतवर नेताओं, और कारोबारियों के कब्जे में चले आ रहा है। और क्रिकेट से परे के भी दर्जनों खेल पदाधिकारियों की ताकत के शिकार हैं। ऐसे में अगर किसी पदाधिकारी, प्रशिक्षक, मैनेजर, या वरिष्ठ खिलाड़ी के खिलाफ यौन शोषण की शिकायत है, तो उस पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाती है। ऐसा सिर्फ हिन्दुस्तान में हो ऐसा भी नहीं है, अमरीका में अभी कुछ बरस पहले जिम्नास्टिक्स के सबसे बड़े प्रशिक्षकों पर दर्जनों खिलाडिय़ों के यौन शोषण का मामला सामने आया जिसमें सैकड़ों, कम से कम 368 जिम्नास्ट लड़कियों के यौन शोषण की बात जांच में साबित हुई, और वहां के खेल पदाधिकारी या अधिकारी इसकी अनदेखी करते चले आ रहे थे। बाद में जब एक सबसे बड़ी जिम्नास्ट एक मुकाबले के बीच ही अपनी मानसिक स्थिति के चलते पीछे हट गई, तो यह पूरा मामला उजागर हुआ, वरना यह दशकों से चले आ रहा था।
अब चूंकि यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा है, तो यह मानना चाहिए कि अदालत खेल संघों की हालत को भी देखेगी। भूतपूर्व खिलाडिय़ों को लेकर, और खेल के दायरे से परे के कुछ लोगों को लेकर एक बड़ी जांच कमेटी बनानी चाहिए, जो कि पहलवानों की इस ताजा शिकायत से परे भी बाकी हालात की भी जांच करे।
सुप्रीम कोर्ट में सेम सेक्स मैरिज नाम से चर्चित मुकदमे की सुनवाई के बीच में कल वकीलों के देश के सबसे बड़े संगठन, बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने एक प्रस्ताव मंजूर करके सुप्रीम कोर्ट को भेजा है कि इस मामले की सुनवाई बंद की जाए, और इसे कानून बनाने वाली संसद के लिए छोड़ा जाए। इस संगठन का कहना है कि यह बहुत संवेदनशील मामला है, और इसके सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक पहलू हैं, इसलिए इस पर विस्तृत विचार-विमर्श जरूरी है। काउंसिल का कहना है कि देश के 99.9 फीसदी से अधिक लोग समलैंगिक विवाह के खिलाफ हैं। प्रस्ताव में कहा गया है कि मानव सभ्यता और संस्कृति बनने के बाद से विवाह को आमतौर पर मंजूर किया गया है, और आगे जन्म बढ़ाने और मनोरंजन के लिए लोगों को पुरूष और महिला के रूप में बांटा गया है। काउंसिल का कहना है कि इस पर कोई अदालती फैसला विनाशकारी होगा। वकीलों के इस संगठन के मुताबिक अधिकांश आबादी का मानना है कि याचिकाकर्ताओं के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का कोई भी फैसला देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक ढांचे के खिलाफ जाएगा।
हमारी याददाश्त में वकीलों के संगठन का यह एक बहुत ही अभूतपूर्व कदम है कि वे किसी मामले की सुनवाई न करने की अपील सुप्रीम कोर्ट से कर रहे हैं। मामले की सुनवाई चल रही है, और मुख्य न्यायाधीश सहित पांच जजों की एक संविधानपीठ इसे सुन रही है। मुख्य न्यायाधीश ने केन्द्र सरकार के वकील से जो सवाल किए हैं, और सुनवाई के दौरान उन्होंने जो बातें कही हैं, उन्हें देखते हुए वकीलों के इस संगठन को शायद ऐसा अंदाज लग रहा है कि यह फैसला सेम सेक्स मैरिज के पक्ष में भी जा सकता है, इसलिए सरकार भी कुछ विचलित दिख रही है, और बार भी। बार तो वकीलों का एक पेशेवर संगठन है, और उसे इस मामले के संवैधानिक और कानूनी पहलुओं तक अपनी दिलचस्पी को सीमित रखना था। अगर कोई मामला अदालत के वकीलों से जुड़े हुए किसी पहलू का होता, तो भी उनकी यह अतिरिक्त सक्रियता और दिलचस्पी समझ आती। आज ऐसा लग रहा है कि अदालत के शुरुआती रूख से ही सरकार और सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया पार्टी की सोच कुछ बेचैन है। लोगों को याद होगा कि पिछले एक-दो बरस से केन्द्र सरकार के कानून मंत्री लगातार सार्वजनिक बयानों के रास्ते सुप्रीम कोर्ट पर हमला करते आए हैं, और अदालत को उसकी सीमाएं दिखाने की खुली कोशिश करते रहे हैं। ऐसे में बार काउंसिल ऑफ इंडिया की यह पहल न तो उनके पेशे से जुड़ी हुई है, और न ही देश में इस मुकदमे से कोई ऐसी नौबत आते दिख रही है जिससे कि वकालत के पेशे का नुकसान हो, उस पर कोई खतरा आए। जहां तक देश के लोगों से जुड़े हुए सार्वजनिक हित और महत्व की बात है, तो हर कुछ महीनों में ऐसे जलते-सुलगते मुद्दे सामने आते हैं, लेकिन हमने इस काउंसिल को इस तरह के प्रस्ताव पारित करते नहीं देखा है, इसलिए यह अटपटा भी है, और काउंसिल के मकसदों से बहुत अलग भी है।
अब अगर वकीलों के लिखे हुए को देखें तो उनका संगठन अगर औपचारिक रूप से इतने गंभीर एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ को कुछ लिख रहा है, तो उससे कम गंभीरता की उम्मीद तो हो नहीं सकती। यह बात हैरान करती है कि देश के वकीलों का यह सबसे बड़ा संगठन यह मान रहा है कि देश के 99.99 फीसदी से अधिक लोग सेम सेक्स के खिलाफ हैं। वकीलों से तो तर्कसंगत बात की उम्मीद की जाती है, फिर चाहे अपने मुवक्किल को बचाने के लिए वे न्यायसंगत बात न भी करें। यह बात तो किसी तरह तर्कसंगत नहीं है क्योंकि देश में ऐसा कोई सर्वे नहीं हुआ है जिससे पता लगे कि इतने फीसदी लोग सेम सेक्स मैरिज के खिलाफ हैं। दूसरी तरफ एक ऐसा अनुमान जरूर लगाया जाता है कि एलजीबीटीक्यूआई-प्लस कहे जाने वाले तबके में आबादी के 10 फीसदी से अधिक लोग आते हैं। ऐसे में हिन्दुस्तान में ऐसी सेक्स-प्राथमिकताओं वाले लोगों की गिनती 10-15 करोड़ होनी चाहिए। लेकिन वकीलों का संगठन इनकी संख्या 0.1 फीसदी से भी कम बता रहा है क्योंकि वह सेम सेक्स मैरिज के विरोधियों को 99.99 फीसदी से अधिक बता रहा है। देश की संविधानपीठ से की जा रही अपील का अभूतपूर्व होने के साथ-साथ इस तरह बेबुनियाद होना भी कुछ हैरान करता है कि इसके पीछे मकसद क्या है।
यह जरूर है कि देश की सरकार वकीलों के ऐसे दबाव को पसंद कर सकती है क्योंकि इसका कोई असर अगर संविधानपीठ पर होता है, तो उससे सरकार अदालत में असुविधा से बच सकती है। हालांकि आज मोदी सरकार के हाथ संसद में जो अभूतपूर्व बाहुबल है, उसके चलते तो सरकार शायद सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले को पलट भी सकती है, और अगर 99.99 फीसदी जनता सेम सेक्स मैरिज के खिलाफ है, तब तो सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए ऐसा फैसला फायदे का होगा क्योंकि फिर उसे पलटकर नया कानून बनाकर सरकार 99.99 फीसदी जनता को लुभा सकेगी। लेकिन सरकार की जो प्राथमिकता हो सकती है, उसके लिए उसके पास संसद है। अदालत ने आज उसे अपनी बात रखने का हक तो है ही। वकीलों का संगठन इस मामले में क्यों उतरा है, यह हैरान करता है। और सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने तस्वीरों सहित यह याद भी दिलाया है कि सैकड़ों बरस पहले के बने खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर सेम सेक्स की मूर्तियां अच्छी तरह कायम हैं, और भारत के लिए यह कोई नई बात नहीं है। हमको भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट किसी भी तरह वकीलों के संगठन के ऐसे अटपटे प्रस्ताव से प्रभावित नहीं होगा क्योंकि संविधानपीठ अगर इस तरह की बातों के प्रभाव में आने लगी, तब तो देश में न्याय व्यवस्था चल ही नहीं पाएगी। समलैंगिकता के खिलाफ समाज के एक तबके में हिकारत है, नफरत है, और उससे दहशत है। ऐसे होमोफोबिक समाज से भी अभी तक जिस तरह की आवाज नहीं उठी है, वैसी आवाज बार काउंसिल ऑफ इंडिया क्यों उठा रहा है, यह एक पहेली है। खैर, सुप्रीम कोर्ट की संविधानपीठ अदालती सुनवाई से परे की ऐसी अपील पर शायद कोई गौर भी न करे, और वही बेहतर होगा।
पढ़े-लिखे लोग चाहे मामूली ही हों, टेक्नालॉजी, सोशल मीडिया, और मुफ्त के मैसेंजरों की मेहरबानी से लोगों की सक्रियता देखते ही बनती है। कोई भी घटना कहीं भी होती है, किसी का एक बयान आता है, तो उस पर हजारों लाखों प्रतिक्रियाएं आने लगती हैं। अब अभी ट्विटर पर जाने-पहचाने, नामी-गिरामी लोगों को मिले हुए ब्ल्यूटिक नीले निशान को खत्म किया गया, और उसे सिर्फ माहवारी भाड़ा देने वाले लोगों के लिए रखा गया, तो बड़ा बवाल हुआ। अमिताभ बच्चन तक ट्विटर के सामने गिड़गिड़ाते रहे, और हाथ-पैर जोडक़र ब्ल्यूटिक चालू रखने की मांग करते रहे। इस मांग का समर्थन करते हुए अमिताभ को टैग करते एक ने लिखा-और अगर ई एलन मस्कवा फिर भी ना सुनी, तो एकरे दफ्तर के पिछवाड़े बमबाजी भी होय सकत है, अभी ओका समझ में नै आवा कि हम इलाहाबादी कुछ भी कर सकित है। यह धमकी अमिताभ बच्चन की मजाकिया गिड़गिड़ाहट में की गई एक गंभीर मांग के समर्थन में दी गई थी, और एलन मस्क मानो देवनागरी न समझ पाए, तो इसी बात को रोमन हिज्जों में भी लिखा गया था, और उसमें एलन मस्क को दो शब्द जरूर समझ में आए होंगे, एक तो खुद का नाम, और दूसरा उसके ऑफिस के पीछे बम्बार्डमेंट। नतीजा यह हुआ कि ऐसे इलाहाबादी अभिषेक उपाध्याय का ट्विटर अकाऊंट सस्पेंड कर दिया गया। अब उनके लाख से अधिक फॉलोअर हैं, लेकिन इस बात का भी कोई रूतबा एलन मस्क पर नहीं पड़ा क्योंकि उसे यह कारोबार भी चलाना है, इलाहाबादी अमरूद नहीं बेचने हैं।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के तौर-तरीकों से असहमत लोग भी बढ़ते चल रहे हैं। बहुत से लोगों को बार-बार फेसबुक या ट्विटर पर ब्लॉक भी कर दिया जाता है, किसी को टिप्पणी करने से रोका जाता है, किसी की पोस्ट हटा दी जाती है, क्योंकि ये प्लेटफॉर्म उनकी बातों को, उनकी पोस्ट की गई फोटो को अपने नियमों और पैमानों के खिलाफ पाते हैं। फिर जब हर घंटे करोड़ों पोस्ट होनी है, और हिंसा बढ़ाने, नफरत फैलाने की तोहमत लगनी है, तो जाहिर है कि इन्हें कुछ तो सावधानी बरतनी ही है। यह एक अलग बात है कि इनकी सावधानी के तौर-तरीके बहुत काम के नहीं हैं क्योंकि नफरत की अधिकतर बातें तो इन तमाम प्लेटफॉर्म पर राज कर रही हैं, हिंसा की धमकियां तैर रही हैं, लेकिन कुछ लोगों के अकाऊंट ब्लॉक हो रहे हैं, और उनकी पहुंच भी कहा जाता है कि सीमित कर दी जा रही है। इस बात को समझने की जरूरत है क्योंकि जब तक भी, जिस हद तक भी सोशल मीडिया लोकतांत्रिक आवाज को जगह देंगे, तब तक उसका इस्तेमाल करने में ही समझदारी है।
बहुत से लोगों का यह मानना है कि फेसबुक या ट्विटर पर उनकी पोस्ट की पहुंच को घटा दिया जा रहा है। ऐसा कहने वाले अधिकतर लोग साम्प्रदायिकता विरोधी, धर्मान्धता, और कट्टरता के विरोधी दिखते हैं। और जब ऐसे लोगों को अपनी पहुंच कम होने का अहसास होता है, तो यह जाहिर है कि इसके पीछे कैसी सोच की दिलचस्पी हो सकती है। अब वह सोच फेसबुक या ट्विटर, या इंस्टाग्राम पर किस तरह का असर खरीद सकती है, यह एक अलग कल्पना और जांच का मुद्दा है। दुनिया की बहुत सी लोकतांत्रिक ताकतों का यह मानना है कि सोशल मीडिया आज पूरी तरह बिकाऊ है, तरह-तरह की साजिशों में भागीदार है, वह किसी देश में जनमत को प्रभावित करने के लिए ठेके पर काम करने के अंदाज में अपने कम्प्यूटरों का इस्तेमाल करता है। इन बातों को बाहर बैठे हमारे सरीखे लोग साबित नहीं कर सकते, लेकिन इन कंपनियों से निकले हुए जो कर्मचारी हैं वे कई बार लोकतंत्र के हित में भीतर की साजिशों के खिलाफ बयान देते हैं जिन पर अमरीका जैसे देश में जांच भी चल रही है। अब जब तक ऐसी किसी जांच का कोई नतीजा निकले, तब तक तो ऐसी साजिशें अगर हैं, तो वे जारी रहेंगी, और हो सकता है कि इसकी नई तरकीबें भी बनती चल रही हों।
दुनिया में सोशल मीडिया को लोकतंत्र के एक सबसे बड़े औजार की तरह देखा जा रहा था। अधिकतर लोगों के लिए यह आज भी है। यह एक अलग बात है कि ताकतवर तबकों की सोच के खिलाफ चलने वाले लोगों को किनारे करने के लिए सरकार और कारोबार की ताकत पर्दे के पीछे से काम जरूर करती होगी। हो सकता है कि यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के मैनेजमेंट को खरीदने के स्तर पर हो, या यह भी हो सकता है कि वहां पर शिकायत दर्ज कराने के जो तरीके हैं, उनका इस्तेमाल करते हुए भाड़े के साइबर-सैनिक अगर कुछ लोगों के खिलाफ लगातार शिकायत दर्ज करते होंगे, तो भी सोशल मीडिया मैनेजमेंट ऐसे लोगों की पहुंच को कम करता होगा। यही वजह है कि हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ लिखने वाले लोगों की पहुंच कम होते रहती है, उन्हें ब्लॉक किया जाता है। हो सकता है कि साम्प्रदायिक ताकतों की फौज लगातार इनके खिलाफ झूठी शिकायतें करती हों, और उसके असर में इन्हें ब्लॉक किया जाता हो, इनकी पहुंच घटाई जाती हो। यह तो हम बहुत जाहिर तौर पर दिखने वाले तरीकों की बात कर रहे हैं, इससे परे भी बहुत से ऐसे तरीके इंटरनेट और ऑनलाईन दुनिया पर हो सकते हैं जो कि किसी की साख को घटा सकें, किसी की विश्वसनीयता को कम कर सकें, और फिर सोशल मीडिया के कम्प्यूटर इंटरनेट पर लिखी ऐसी बातों, ऐसी तोहमतों का नोटिस लेकर खुद ही कुछ लोगों का दायरा बांधते हों।
फेसबुक और ट्विटर पर पहुंच घटा देने की शिकायत आम हैं, लेकिन इस कंपनी का मालिक मार्क जुकरबर्ग खुद टेलीफोन कॉल पर सुनकर एक-एक की पहुंच नहीं घटाता, यह कम्प्यूटरों के जिम्मे का काम है जिसमें इंसानी दखल रहता जरूर है, लेकिन इन दोनों को प्रभावित करने के लिए पर्दे के पीछे से बहुत बड़ी-बड़ी साजिशें होती होंगी, उसके बारे में भी सोचना चाहिए। जो बहुत जाहिर तौर पर दिखता है, आज के वक्त में उससे बहुत अलग भी बहुत कुछ पर्दे के पीछे होता है। सोशल मीडिया नाम के कारोबार में सोशल सिर्फ दिखावे का है, और जो शब्द कारोबार दिखता भी नहीं है, वही असली खिलाड़ी है, और उसी के हाथों में कठपुतलियों के धागे हैं। हो सकता है कि ऐसी कंपनियों से निकले हुए कुछ लोग आगे सुबूतों के साथ इनकी नीयत का भांडाफोड़ करें, लेकिन जब तक सोशल मीडिया नाम का यह कारोबार रहेगा, तब तक उसमें कारोबारी साजिश का खतरा बने ही रहेगा।
दिल्ली पुलिस ने अभी बंगाल से जालसाजों के एक गिरोह को पकड़ा है जो कि फर्जी नामों से सिमकार्ड जारी करवाकर झारखंड के कुख्यात जामताड़ा के जालसाजों को देते थे, और वहां से वे देश भर में उससे ठगी करते थे। हैरानी की बात यह है कि बंगाल के जिस आदमी को पुलिस ने अपने घेरे में लिया उसके पास से 22 हजार सिमकार्ड मिले हैं जिनमें से अधिकतर हिन्दुस्तान के थे, लेकिन उनमें बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, और श्रीलंका के सिमकार्ड भी थे। जामताड़ा के जालसाज बड़ी-बड़ी कंपनियों और बैंकों के नकली वेबसाइट बनाकर ऐसे सिमकार्ड के नंबर उस पर पोस्ट करते थे, और फिर कस्टमर केयर बनकर फोन करने वाले ग्राहकों को ठगते थे। मिलते-जुलते नामों वाली असली सरीखी दिखने वाली वेबसाइटें बनाना एक अलग किस्म का जुर्म था, और इसका कोई भी हिस्सा इंटरनेट पर कई तरह की जानकारी डाले बिना पूरा नहीं हो सकता था। अब सवाल यह उठता है कि देश की बड़ी-बड़ी मोबाइल कंपनियां केन्द्र सरकार के नियमों के मुताबिक कई तरह की शिनाख्त पाने के बाद ही सिमकार्ड दे सकती हैं, इसी तरह इंटरनेट कनेक्शन और वेबसाइट के डोमेन नेम भी कई तरह की शिनाख्त के बाद ही हो पाते हैं। निपट अनपढ़ लोग भी जामताड़ा की जालसाजी की परंपरा से सरकार और कारोबार की ऐसी सभी जांच को पार करते दिख रहे हैं, और एक-दो मामलों में नहीं, रोजाना हजारों मामलों में।
हिन्दुस्तान में साइबर अपराधी जब लूट का माल ठिकाने लगा चुके रहते हैं, तब पुलिस लाठी लेकर उनके पांवों के निशान पीटते दिखती है। अभी दिल्ली पुलिस ने बंगाल जाकर जो गिरफ्तारी और जब्ती की है, वह सिलसिला भी यही मुजरिम साल भर से अधिक से चला रहे थे। हर दिन वहां का एक-एक जालसाज नौजवान दर्जनों लोगों को ठगता है, और उस किस्म के हजारों लोग वहां से काम करते हैं। उस इलाके की शिनाख्त इतनी अच्छी तरह हो चुकी है कि सरकारी एजेंसियां चाहें तो उस गांव से निकलने वाले हर मोबाइल और हर इंटरनेट सिग्नल को जालसाजी का मानकर उस पर निगरानी रख सकती हैं, लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा होता नहीं है। सरकार का पूरा का पूरा तंत्र जुर्म के बाद की जांच तक सीमित है, जुर्म के पहले निगरानी रखकर लोगों को बचाने के मामले में सरकार बिल्कुल बेअसर है। और यह बात सिर्फ केन्द्र सरकार की नहीं है, उस प्रदेश सरकार के बारे में भी सोचना चाहिए जिसके तहत जामताड़ा आता है, और जहां से देश भर में हर दिन दसियों हजार लोग ठगे जाते हैं। जहां एक गांव इंटरनेट और साइबर जालसाजी को कुटीर उद्योग की तरह चला रहा है, जिस पर फिल्में बन रही हैं, उसकी इतनी पुख्ता पहचान के बाद भी सरकार वहां कुछ नहीं कर पा रही है, यह बेबसी समझ से परे है।
भारत में और इसके प्रदेशों में जुर्म की जांच के लिए बहुत सी एजेंसियां हैं। लेकिन संभावित जुर्म को रोकने के लिए निगरानी रखने की एजेंसियां बिल्कुल नहीं हैं। जबकि निगरानी रखने की एजेंसी होती, तो वह जुर्म हो जाने के बाद की जांच एजेंसी के लिए भी मददगार रहती। जुर्म की जांच करने के बाद मुजरिम पकड़े जाने पर भी उनकी ठगी या लूटी गई रकम तो बरामद नहीं हो पाती है। इसलिए इस देश को एक मजबूत निगरानी एजेंसी की जरूरत है, जो राष्ट्रीय स्तर पर अपना काम करे, और राज्य भी अपने स्तर पर ऐसी एजेंसी बना सकते हैं जो कि चर्चा और खबरों से, मुजरिमों और खबरियों से मिली जानकारी के आधार पर मुजरिमों को जुर्म करने के पहले ही, या जुर्म करते ही दबोच सके। हिन्दुस्तान में खुफिया एजेंसियां जो निगरानी करती हैं, वे राजनीतिक, आंतरिक सुरक्षा से जुड़े आतंक सरीखे मामलों की रहती हैं, ठगी-जालसाजी, चिटफंड और मार्केटिंग जैसे मामले लोगों के लुट जाने के महीनों बाद सामने आते हैं, तब तक हाथ आने लायक कुछ बचता नहीं है।
अभी जिस तरह एक मुजरिम से 22 हजार सिमकार्ड मिले हैं, उन्हें देखते हुए मोबाइल कंपनियों पर भी कार्रवाई की जरूरत है जो कि गलाकाट बाजारू मुकाबले में बिना जांच-पड़ताल सिमकार्ड बेचने में लगी रहती हैं। अगर संगठित अपराध जगत इस हद तक, इतनी आसानी से सिमकार्ड हासिल कर सकता है, तो फिर ग्राहकों की जांच-पड़ताल का पूरा सिलसिला ही बोगस साबित होता है। यह मामला, और इससे जुड़ा जामताड़ा का मामला ऐसा है कि जांच एजेंसियों को इन मुजरिमों को ले जाकर देश के बड़े पुलिस-प्रशिक्षण संस्थानों में अफसरों की इनसे ट्रेनिंग करवानी चाहिए ताकि वे अपराध करने के तरीकों को समझ सकें, और बाद में दूसरे मुजरिमों को पकड़ सकें।
हिन्दुस्तान बड़ी तेजी से एक डिजिटल इकॉनॉमी के रास्ते पर धकेल दिया गया है। अब हर मोबाइल फोन लोगों का बैंक बन चुका है, और उस पर पैसे आ भी रहे हैं, और उससे जा भी रहे हैं। लोग इंटरनेट का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने लगे हैं, और अधिकतर कारोबार किसी भी तरह की ग्राहक सेवा इंटरनेट के रास्ते ही देता है। ऐसे में आम ग्राहक किसी तरह से भी इन औजारों के इस्तेमाल से नहीं बच सकते। सरकार को ही साइबर-निगरानी बढ़ानी होगी वरना घर बैठे एक मोबाइल फोन से, एक कम्प्यूटर से जुर्म करने का आसान सिलसिला और नए मुजरिम बनाते ही चलेगा।
मध्यप्रदेश के सतना की खबर है कि बुरी तरह कर्ज में डूब गए एक पिता ने पैर खो चुकी अपनी जवान बेटी के इलाज से थककर खुदकुशी कर ली। छह साल पहले यह लडक़ी एक सडक़ हादसे में दोनों पैर से लाचार हो गई थी, और बिस्तर पर ही थी। तीन बच्चों में से इस एक बेटी का इलाज कराते हुए पिता के घर-दुकान बिक गए, और कर्ज चढ़ गया, मकान किराया साल भर से देना नहीं हुआ, पिता ने हाल ही में खून बेचकर खाने और गैस सिलेंडर का इंतजाम किया था, और अब आखिर में उसने इस बेटी को फोन करके कहा कि वह थक गया है, और आत्महत्या कर रहा है। इसके पहले कि लोग उसे ढूंढ पाते, उसने ट्रेन के सामने खुदकुशी कर ली। अब यह कल्पना भी मुश्किल है कि ऐसे पिता के रहते हुए जो घर नहीं चल पा रहा था, तीन बच्चों वाला वह परिवार अब क्या तो इलाज करा पाएगा, और क्या जी पाएगा।
इस मामले को देखकर लगता है कि ईश्वर भी कुछ परिवारों पर अधिक मेहरबान रहता है, और यह वैसा ही एक परिवार है, या शायद यह कहना बेहतर होगा कि था, अब उसे बचा हुआ परिवार क्या माना जाए। और यह उस मध्यप्रदेश की बात है जिसमें तीन बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हर लडक़ी को अपनी भांजी बताते हैं, हर महिला को बहन कहते हैं, और ऐसी निजी रिश्तेदारी बताते हुए ही वे राजनीति करते हैं। उनकी अनगिनत योजनाएं कन्याओं के नाम पर हैं, लेकिन जाहिर है कि किसी हादसे की शिकार ऐसी गंभीर जख्मी लडक़ी के इलाज का कोई सरकारी इंतजाम नहीं रहा होगा, तभी पिता का घर बिक गया, दुकान बिक गई, और कर्ज लद गया। बात थोड़ी अटपटी इसलिए भी है कि आज केन्द्र सरकार और अलग-अलग राज्य सरकारों की बहुत किस्म की इलाज-बीमा योजनाएं हैं जिनके तहत ऐसी लडक़ी का भी इलाज होना चाहिए था, लेकिन अमल में कोई कमी-कमजोरी दिखती है जो कि यह परिवार इलाज और मदद नहीं पा सका।
दुनिया के विकसित देशों में हर किस्म का बीमा रहता है। इलाज के लिए, हादसे से निपटने के लिए, किसी और किस्म के नुकसान की भरपाई के लिए। ऐसा इसलिए भी रहता है कि सरकारें अपने ऊपर मदद करने की बहुत जिम्मेदारी नहीं लेती हैं। मुसीबत में आने पर उससे उबरने को जिंदगी का एक हिस्सा मानकर ही लोगों पर ही यह छोड़ा जाता है कि वे हर तरह का बीमा कराकर रखें। इसीलिए अमरीका जैसे देश में जब तूफान से पूरे के पूरे शहर उजड़ जा रहे हैं, तो सरकार को हर किसी की पूरी मदद नहीं करनी होती, जो कि मुमकिन भी नहीं रहेगी। अब हिन्दुस्तान जैसे देश में यह कल्पना कुछ मुश्किल है कि जिन लोगों का आज खाने-कमाने का ठिकाना नहीं है, वे कई किस्म के बीमे करवाकर रखें। इसके बाद बीमा कंपनियां तो विकसित दुनिया में भी बेईमानी के लिए बदनाम हैं, और उनसे लंबी कानूनी लड़ाई लडऩे की नौबत आते रहती है। इसलिए ब्रिटेन जैसे देश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा एक बड़ा मुद्दा है, और तमाम गरीब और मध्यमवर्गीय लोग उस पर टिके रहते हैं।
हिन्दुस्तान में मुफ्त इलाज के लिए सरकारों ने कई तरह के इंतजाम किए हैं, और अधिकतर लोगों को कुछ या अधिक हद तक उसका फायदा भी मिल जाता है। जहां से ऐसी खबरें आती हैं, उनकी तुरंत जांच संबंधित सरकारों को करवानी चाहिए कि इलाज-बीमे के इंतजाम में क्या कमी रह गई थी, या सरकारी योजना में कहां कमजोरी रह गई है। कल की ही बात है ट्विटर पर ओडिशा की एक तस्वीर आई है जो कि दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने पोस्ट की है। यह एक वीडियो है जिसमें 70 साल की एक बुजुर्ग महिला प्लास्टिक की एक कुर्सी को सामने बढ़ा-बढ़ाकर उसके सहारे से धूप में नंगे पैर चलते हुए बैंक जा रही है। उसे हर बार पेंशन (शायद सामाजिक पेंशन) लेने इसी तरह जाना पड़ता है, और उसके जर्जर बदन को देखें, तो हैरानी होती है कि वह और कितने बार ऐसा सफर कर सकेगी? पेंशन को लेकर चारों तरफ से ऐसी खबरें आती हैं, कुछ सौ रूपये महीने की सामाजिक पेंशन के लिए भी लोगों को ऐसी अमानवीय नौबत से हर महीने गुजरना पड़ता है।
सरकारों में ऐसी संवेदनशीलता होनी चाहिए कि मरीजों, बुजुर्गों, बच्चों, महिलाओं, और विकलांगों की जरूरतों का खास ख्याल रखा जाए। ये गिनती में कम रहते हैं, बहुत संगठित नहीं रहते हैं, अपनी हालत की वजह से ये किसी आंदोलन या प्रदर्शन के लायक भी नहीं रहते हैं, लेकिन सरकार और समाज को इन्हें प्राथमिकता देनी चाहिए। ये दोनों ही खबरें विचलित करती हैं, और ये तकलीफदेह चाहे जितनी हों, ये बहुत अनोखी नहीं हैं, देश में जगह-जगह ऐसी नौबत है, और जहां कहीं अधिकारी-कर्मचारी संवेदनशील होते हैं वहां जरूर हालत बेहतर होती है। हर कुछ महीनों में ऐसी खबरें भी देखने मिलती हैं कि मौत के बाद शव घर ले जाने कोई गाड़ी नहीं मिल पाई तो लोग कंधे पर, या साइकिल पर शव लेकर लंबा-लंबा सफर सडक़ से करते रहे। ऐसी नौबत यह भी साबित करती है कि हिन्दुस्तानी समाज अपने आपको चाहे कितना ही धर्मालु कहे, वह बेरहमी में कम नहीं है। धर्म और बाबाओं के लिए तो लोगों की जेब से रकम निकल जाती है, लेकिन सबसे अधिक जरूरतमंदों के लिए मदद नहीं निकलती। सरकार से परे समाज को भी उस इंसानियत को पाने की कोशिश करनी होगी जिसकी बातें बड़ी-बड़ी होती हैं, लेकिन दर्शन नहीं होते हैं। जो परिवार एक बच्ची के इलाज में सब कुछ बेच चुका था, वह शहर में ही था, और उस शहर में कई संपन्न लोग भी होंगे, लेकिन मौत के पहले तक किसी ने इनके बारे में सोचा नहीं होगा। लोग ईश्वर की पूजा, धार्मिक बाबाओं की सेवा, बड़े-बड़े प्रवचन के बजाय असल जिंदगी के जरूरतमंदों का साथ देने की सोचें, तो शायद बहुत सी जिंदगियां बच सकती हैं।
हिन्दुस्तान और बाकी बहुत से देशों में भी जिस तरह समाचार-विचार की वेबसाइटें होती हैं, ठीक उसी तरह कई वेबसाइटें मीडिया में तैरते झूठ पकडऩे का काम करती हैं। होता यह है कि झूठ हमेशा सच से अधिक दिलचस्प होता है, और एक झूठ किसी ने पोस्ट किया, तो वह अधिक रफ्तार से आगे बढ़ाया जाता है। आज के मीडिया की अलग-अलग कई किस्में एक-दूसरे से मुकाबला करती रहती हैं, और इनके बीच झूठ के लिए चाह बड़ी अधिक रहती है। कुछ किस्म के झूठ तो गढ़े हुए होते हैं, यानी जो बयान किसी ने दिया नहीं, उसकी कतरन गढक़र फैला देना, और कुछ झूठ गलत लेबल लगाकर आगे बढ़ाए जाते हैं कि किसी नेता के साथ किसी की तस्वीर को किसी और खबर के साथ जोडक़र फैला देना। ऐसा किसी एक पार्टी के लोग ही करते हों ऐसा नहीं है, और ऐसा सोच-समझकर ही करते हों, ऐसा भी नहीं है। सोशल मीडिया पर आज बहुत से लोग अनजाने में भी किसी बात को आगे बढ़ा देते हैं, यह मानते हुए कि वह सच है। हर किसी को यह हड़बड़ी दिखती है कि वे अपने जान-पहचान के लोगों के सामने कुछ ऐसा पेश करें कि लोग उसे पसंद करें। लोगों की वाहवाही पाने की यह चाह भी बहुत से नावाकिफ लोगों को झूठ फैलाने में उलझा देती है।
अब धीरे-धीरे बड़े समाचार संस्थानों ने भी फैक्ट-चेक नाम से समाचारों की जांच करना शुरू किया है, जो कि बहुत मुश्किल काम भी नहीं था। लेकिन सनसनी फैलाने पर आमादा तथाकथित मीडिया संस्थान सोच-समझकर अनजान बनकर झूठ फैलाते आए हैं, लेकिन अब वह धीरे-धीरे उजागर होने लगा है। आज भी हिन्दुस्तान में बहुत कड़ा आईटी कानून होने के बावजूद गढ़े हुए, और गलती से फैलाए गए झूठ पर कार्रवाई नहीं के बराबर हो रही है। फिर यह भी है कि किसी धार्मिक या राजनीतिक सोच से जुड़े हुए लोग अपने लोगों को अधिक जिम्मेदार बनाना भी नहीं चाहते। अगर तमाम लोग जागरूक और जिम्मेदार हो गए, तो फिर सडक़ों पर साम्प्रदायिक नारे लगाते हुए जुलूस निकालने के लिए भीड़ कहां से आएगी। इसलिए लोगों को मंदबुद्धि और बंदबुद्धि बनाए रखने में ही नेतागीरी चलाने की सहूलियत रहती है। यह भी एक वजह है कि कोई संगठन या कोई नेता अपने मातहत काम करने वाले लोगों को झूठ फैलाने से रोकते नहीं हैं। होता यह भी है कि जो सबसे कट्टर धर्मान्ध होते हैं, साम्प्रदायिक या हिंसक होते हैं, या जिनके मन में महिलाओं के प्रति भारी हिकारत रहती है, वैसे तमाम लोग सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय होते हैं, और बाकी किस्म के मीडिया में आए हुए झूठ को बड़ी रफ्तार से आगे बढ़ाते हैं।
अब वक्त आ गया है कि प्रेस कौंसिल जैसे मीडिया संस्थान, या भारत में टीवी के लिए बनाए गए निगरानी-संगठन, या एडिटर्स गिल्ड जैसी पेशेवर संस्था को मीडिया और सोशल मीडिया पर तैरते झूठ के खिलाफ एक अधिक संगठित कार्रवाई करनी चाहिए। आज हालत यह है कि किसी बेकसूर को पूरी तरह से बदनाम कर दिया जाता है, लेकिन उनकी यह ताकत नहीं रहती कि वे अदालत तक जा सकें जो कि खर्चीला और तकलीफदेह दोनों ही होता है। दूसरी तरफ मीडिया संस्थानों के झूठ के खिलाफ देश में बने हुए संगठनों और संस्थाओं को काम करना चाहिए, और निजी स्तर पर जो झूठ फैलाया जा रहा है, उस पर सरकार या पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए। ऐसा न होने पर सबसे सनसनीखेज झूठ इतना अधिक फेरा लगाते रहता है कि वह सच सरीखा दिखने लगता है। इस सिलसिले को रोकने की जरूरत है, और जब तक हर दिन ऐसे किसी बदनीयत झूठे को सजा नहीं मिलेगी, तब तक बाकी लोगों को सबक नहीं मिलेगा।
हिन्दुस्तान में यह भी देखने में आता है कि धर्म और राजनीति से जुड़े हुए संगठनों के बड़े-बड़े पदाधिकारी नफरत और हिंसा को फैलाने के लिए भी कई किस्म का झूठ इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोग चाहे किसी भी पार्टी के हों, उनके खिलाफ केस दर्ज होने चाहिए, और ऐसे मामलों को फैसलों तक तेजी से पहुंचाना चाहिए। आज हालत यह है कि इंटरनेट और कम्प्यूटरों की मेहरबानी से, मोबाइल फोन की वजह से झूठ तो पल भर में दुनिया भर में फैल जाता है, लेकिन उस पर कार्रवाई बरसों तक नहीं होती है। इसलिए आज साइबर अदालतों की जरूरत है ताकि आईटी एक्ट, और इस तरह के दूसरे मामलों की सुनवाई बेहतर तरीके से हो सके, और अधिक रफ्तार से हो सके। आज हालत यह है कि न तो पुलिस इन मामलों को ठीक से तैयार कर पाती है, न ठीक से सुबूत जब्त कर पाती क्योंकि उनकी ट्रेनिंग ही अब तक नहीं हो पाई है, और फिर सुबूत जब्ती में, किसी कम्प्यूटर-प्रयोगशाला की रिपोर्ट में जरा सी भी कमी रह जाने से मुजरिमों के वकील उन्हें बचा ले जाते हैं। आज सरकारों में अधिक जागरूकता की जरूरत है, दिक्कत यह है कि जो पीढ़ी सरकार चला रही है, उसका खुद का अपना कम्प्यूटर और इससे जुड़े हुए मामलों का ज्ञान और तजुर्बा कम है। कुल मिलाकर एक नई पीढ़ी की नई सोच की जरूरत इन नए किस्म के जुर्मों से निपटने के लिए है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
गुजरात के कुख्यात बिलकिस बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कल केन्द्र सरकार के साथ जो रूख दिखाया है, वह लोकतंत्र की मजबूती का एक सुबूत है। जब सरकार अपने किए पर इस हद तक अड़ जाए कि उसके अमानवीय, अनैतिक, और अलोकतांत्रिक फैसले भी अदालती नजरों से परे के हैं, और सरकार अदालत को यह नहीं बताएगी कि बलात्कार और 14 लोगों के कत्ल के मुजरिमों को सरकार ने किस आधार पर जेल से छोडऩा तय किया, तो वैसी हालत में अदालत में रीढ़ की हड्डी की जरूरत लगती है, और कल दो जजों की बेंच ने केन्द्र सरकार के साथ ठीक वही किया है। 2002 के गुजरात दंगों के दौरान एक गर्भवती मुस्लिम महिला से बलात्कार और परिवार के 14 लोगों के कत्ल के मुजरिमों को गुजरात सरकार ने कुछ महीने पहले रिहाई के लायक मानकर छोड़ दिया, और उसके बाद उनका जमकर स्वागत चल रहा है। जब यह मामला नीचे की अदालतों से निराश होकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो जजों ने सरकार से कहा कि वे फाईलें पेश की जाएं जो कि समय के पहले इन कैदियों को रिहा करने की बुनियाद थीं। अदालत ने इस बात पर भी टिप्पणी की कि इतना भयानक जुर्म होते हुए भी कुछ मुजरिमों को सजा के दौरान ही लंबे-लंबे पैरोल दिए गए। जजों ने सरकार को याद दिलाया कि यह कत्ल का आम मामला नहीं था जिसमें कि किसी कैदी को आचरण अच्छा होने से सजा पूरी होने के कुछ पहले रिहा कर दिया जाए। अदालत ने याद दिलाया कि यह एक गर्भवती महिला के साथ सामूहिक बलात्कार और उसके परिवार के 14 लोगों के कत्ल का मामला था जिसे आम जुर्म नहीं माना जा सकता। ऐसे में सरकार ने क्या सोचकर, फाईलों पर क्या लिखकर इन्हें रिहा किया है, वह तो अदालत देखना चाहेगी। जजों ने केन्द्र सरकार के वकील को चेतावनी भी दी कि उसे यह भी समझना चाहिए कि ऐसी रिहाई से वह देश को क्या संदेश देना चाहती है। अदालत ने सरकार को कहा कि इस रिहाई के वक्त सरकार ने कौन से तथ्य और तर्क इस्तेमाल किए हैं, और दिमाग का इस्तेमाल किया है या नहीं, इसे अदालत देखना चाहती है। इस मामले में 11 लोगों को उम्रकैद मिली थी, और सारे के सारे लोगों को अच्छा आचरण बताकर समय के पहले रिहा किया गया, जबकि उनके खिलाफ पैरोल पर बाहर आने पर शिकायतकर्ताओं को धमकाने की शिकायतें होती रही हैं। उसके बाद भी गुजरात सरकार और केन्द्र सरकार ने यह रिहाई की। जजों ने सरकार से यह सवाल भी पूछा कि ऐसे जुर्म को देखते हुए इन लोगों को 11 सौ दिनों से अधिक की पैरोल दी गई, जो कि तीन साल से अधिक की होती है, क्या आम कैदी को ऐसी पैरोल मिलती है?
हम यहां पर अदालत की कही एक बात को आगे बढ़ाना चाहते हैं। जस्टिस के.एम.जोसेफ और जस्टिस बी.वी.नागरत्ना ने कहा कि ऐसी रिहाई करके सरकार बाकी देश को क्या संदेश देना चाहती है? जजों ने यह एकदम मुद्दों की बात पकड़ी है, और यह रिहाई इन 11 बलात्कारी-हत्यारों की ही नहीं थी, यह रिहाई इससे कहीं अधिक पूरे देश को यह बताने को थी कि गुजरात सरकार के साथ-साथ केन्द्र सरकार का भी लोगों के लिए क्या रूख है, जातियों के लिए, धर्मों के लिए, किसी एक धर्म के लोगों के खिलाफ धार्मिक आधार पर किए गए जुर्म को लेकर इन सरकारों का क्या रूख है? गुजरात के 2002 के दंगे सिर्फ गुजरात के लिए नहीं थे, उनका संदेश पूरे देश के लिए था, और वह संदेश गया भी, उसमें वक्त लगा, लेकिन देश की तमाम जनता ने उसके मतलब अपनी-अपनी तरह से, अपने-अपने लिए निकाल लिए थे। अब पहले गुजरात सरकार ने रिहाई का यह फैसला लिया, और फिर केन्द्र सरकार ने उसे मंजूर किया, और अब केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट से यह कह रही है कि वह रिहाई की फाईलें दिखाना नहीं चाहती, तो यह सब भी एक संदेश है। इस चिट्ठी को चारों तरफ पहुंचने में ये जज आड़े आ रहे हैं क्योंकि वे इस देश में न्यायपालिका की जिम्मेदारी को समझ रहे हैं, और उसे पूरी करने पर उतारू हैं।
सरकारें चाहे वे किसी प्रदेश की हों, या देश की हों, उनमें अपने पहले की सरकार से और अधिक दुष्ट और भ्रष्ट होने का एक मिजाज बन ही जाता है, और वे उसी लाईन पर आगे बढ़ती रहती हैं। ऐसे में अगर अदालतों के जज अपने वृद्धावस्था पुनर्वास की संभावना पर लार टपकाते बैठे रहते हैं, तो वह मिजाज भी उनके फैसलों में साफ-साफ दिखने लगता है। किसी देश-प्रदेश में जब राज्य ही अराजक हो जाए, सरकारें मनमानी करने लगें, और वे जजों को तरह-तरह से प्रभावित करने पर आमादा भी रहें, तो वह नौबत भी आम लोगों को अब दिखने लगी है। इसलिए हम सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से पहले भी उसके रूख को बारीकी से देखते हैं क्योंकि अगर आम जनता के बीच दूसरे लोकतांत्रिक तबके कोई जनमत नहीं बना पा रहे हैं, तो भी सुप्रीम कोर्ट के ऐसे रूख से जनमत को एक दिशा मिलती है। आने वाले दिनों में इस मामले में केन्द्र सरकार और क्या आना-कानी करती है, वह देखने लायक होगा, और अगर उसे लगता है कि अदालत की अवमानना करना भारी पड़ेगा, और वह फाईलें पेश करती है, तो वे फाईलें और अधिक देखने लायक होंगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी गर्मी शुरू हुई ही है, और आज की खबर कहती है कि देश के 9 राज्यों में लू चलने का खतरा है। मौसम विभाग ने बंगाल, बिहार, और आन्ध्र में भीषण गर्मी का ऑरेंज अलर्ट जारी किया है, और ओडिशा, झारखंड, यूपी, और सिक्किम में हीट वेव का खतरा बताया है। पिछले बरस हिन्दुस्तान में गेहूं की फसल के दौरान इतनी बुरी लू चली थी कि गेहूं के दाने ठीक से नहीं बन पाए थे। इस पर लिखने की जरूरत इसलिए भी लग रही है कि अभी दो दिन पहले ही महाराष्ट्र में हुई एक बड़ी आमसभा में गर्मी से एक दर्जन लोग मारे गए, और सैकड़ों अस्पताल में भर्ती किए गए हैं। इसके पहले कभी भी ऐसी कोई आमसभा सुनाई नहीं पड़ती थी, किसी-किसी सभा में स्कूली बच्चों को देर तक खड़ा कर देने से उनके चक्कर खाकर गिरने की खबर जरूर रहती थी, लेकिन बड़े लोगों में इस तरह एक आमसभा में दर्जन भर मौतें अनसुनी, अनदेखी थीं। और आज की मौसम की भविष्यवाणी पर ही चर्चा की अधिक जरूरत नहीं है, क्योंकि अभी गर्मी के कम से कम 60 दिन बाकी हैं। और झारखंड में तो अगले दो दिनों में ही पारा 44 डिग्री से ऊपर जाने की भविष्यवाणी है, बिहार में बीते कल अधिकतर जगहों पर पारा 40 डिग्री पार कर चुका था। उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में अतीक अहमद को मारने के लिए चलाई गई गोलियों से भी तापमान कुछ बढ़ा होगा, वहां पर कल 44.6 डिग्री सेल्सियस गर्मी रही।
अब इंसान तो फिर भी मौसम की भविष्यवाणी देख लेते हैं, और उस हिसाब से कूलर, वॉटरकूलर, और बाकी इंतजाम कर लेते हैं। लेकिन शहरी सडक़ों के जानवर, और जंगलों के जंगली जानवर बदहाल रहते हैं। उन्हें पीने के पानी का भी ठिकाना नहीं रहता है। जंगल में कुछ खाना नसीब हो इसकी गारंटी नहीं रहती है, और पानी की तलाश में हाथी से लेकर भालू तक, और शेर से लेकर तेंदुए तक गांवों मेें पहुंचते हैं, अधिकतर तो लोग उन्हें मारते हैं, और कभी-कभी अपनी जान बचाने के लिए वे भी लोगों को मारते हैं। शहरों में पेड़ कटते चले जा रहे हैं, धूप से खौल जाने वाले कांक्रीट के ढांचे बढ़ते जा रहे हैं, और पंछियों के रहने की जगह सिमटती चल रही है। बंगाल में ममता बैनर्जी ने, और त्रिपुरा की सरकार ने भी इस हफ्ते तमाम स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए हैं, और शायद ओडिशा में भी ऐसा ही फैसला हो रहा है।
लेकिन दुनिया के पर्यावरण में और मौसम में जो बदलाव आ रहे हैं, उन्हें सिर्फ गर्मी से नहीं आंका जा सकता। दुनिया की बहुत सी जगहों में ऐसी बर्फबारी होती है जैसी किसी ने कभी देखी नहीं थी। अभी पिछले दो बरसों में योरप में ऐसी बाढ़ आई कि उसे किसी ने देखा नहीं था। हिन्दुस्तान के बगल का पाकिस्तान जिस तरह बाढ़ में डूबा, और महीनों तक डूबे रहा, उसके नुकसान से वह देश बरसों तक नहीं उबर सकेगा। इस तरह मौसम की सबसे बुरी मार न सिर्फ अधिक बुरी होती चल रही है, बल्कि वह अधिक जल्दी-जल्दी भी हो रही है, अधिक जगहों पर भी हो रही है। हालत यह है कि मौसम में बदलाव को धीमा करने के लिए जितने अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं, उनमें जुबानी जमाखर्च के अलावा काम कम हो रहा है, और बड़े देश अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए गरीब देशों की मदद को पैसा नहीं निकाल रहे हैं। अभी सूडान की खराब हालत पर संयुक्त राष्ट्र की तरफ से एक बयान आया, और संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने याद दिलाया कि यह देश जो अपनी गरीबी के कारण मौसम के बदलाव में कोई भी बढ़ोत्तरी नहीं कर रहा है, वह मौसम के बदलाव का सबसे बुरा शिकार हुआ है, और भुखमरी की कगार पर है। खुद पाकिस्तान का यह तर्क है कि वह अपनी गरीबी की वजह से अंतरराष्ट्रीय प्रदूषण में कुछ भी नहीं जोड़ रहा है, लेकिन उस पर मार संपन्न देशों के प्रदूषण की वजह से पड़ी है, जो कि मदद करने की अपनी जिम्मेदारी निभाने को तैयार नहीं हैं।
हिन्दुस्तान जैसा देश जो कि न तो दूसरे बहुत देशों की मदद करने के लायक है, और न ही दूसरे देशों से मदद पाने के लायक है, उसे अपने बारे में बारीकी से सोचना चाहिए। कटे हुए पेड़ों की जगह नए पेड़ लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में बनी कमेटी से राज्यों को मिले हजारों करोड़ रूपये सरकारी अमला और सत्तारूढ़ राजनीतिक ताकतें लूटकर खा जा रही हैं, और कोई पेड़ नहीं लग रहे। अब किसी देश में इससे अधिक ऊंची निगरानी और क्या हो सकती है कि एक-एक पैसे को खर्च करने के लिए नियम सुप्रीम कोर्ट ने बनाए और लागू किए हैं। यह देश अंधाधुंध आर्थिक उदारीकरण का शिकार है, और मानो देश की सार्वजनिक परिवहन नीति कार-कंपनियां बनाती हैं। शहरों में बसों या दूसरे किस्म के ट्रांसपोर्ट का ढांचा बढऩे ही नहीं दिया जा रहा है ताकि निजी गाडिय़ां बिकती रहें। आज हालत यह है कि इन गाडिय़ों को बनाते हुए धरती पर कार्बन बढ़ रहा है, फिर इन गाडिय़ों को चलाते हुए वह कार्बन और बढ़ रहा है, और उसके बाद बढ़ी हुई गाडिय़ों के लिए अधिक से अधिक पार्किंग बनाना, सडक़ों और पुलों को चौड़ा करना चल रहा है जिससे कि कार्बन और अधिक बढ़ रहा है। किस तरह एक बस में 50 लोगों के जाने के बजाय 25-50 कारों में उतने लोग जाते हैं, और पूरा शहरी ढांचा इसी बढ़ी हुई जरूरत के हिसाब से बनाया जा रहा है। पेड़ घटते जा रहे हैं, कांक्रीट की खपत बढ़ती जा रही है, और खुली जगह खत्म होती जा रही है।
यह अकेली दिक्कत नहीं है, कई और किस्म के खतरे भी हैं, जिनमें कोयले से चलने वाले बिजलीघरों को सबसे बड़ा खतरा माना जाता है, और सामानों की अमरीकी पैमाने की खपत भी धरती बहुत बड़ा बोझ है, शायद हर औसत अमरीकी दुनिया के किसी भी और इंसान के मुकाबले मौसम को अधिक बर्बाद कर रहे हैं। यह सिलसिला पता नहीं कैसे थमेगा, किसकी मदद से थमेगा, लेकिन यह बात तय है कि आज की जिस पीढ़ी को मौसम की आग से बचने के लिए छाता हासिल है, उसे पेड़ लगाना नहीं सूझ रहा है, पेड़ बचाना भी नहीं सूझ रहा है, प्रदूषण घटाना तो सूझ ही नहीं रहा है क्योंकि अपनी खुद की कार एसी है।
ऐसी टुकड़ा-टुकड़ा बहुत सी बातें हैं और लोग इस बारे में सोचें, बात करें, और सत्ता हांकने वाले लोगों से सवाल भी करें। अगर आज इतनी जिम्मेदारी जिंदा लोग नहीं निभाएंगे, तो मरकर इन्हें ऊपर से अपनी औलादों को सूरज की आग में झुलसते देखना होगा, यह तो तय है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बंगाल में सीबीआई शिक्षक भर्ती घोटाले की जांच कर रही है। इसमें आज सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के एक विधायक को गिरफ्तार किया गया। इसके पहले भी इस पार्टी के दो और विधायक इसी मामले में गिरफ्तार हो चुके हैं, और जांच अभी जारी ही है। शिक्षकों की भर्ती के लिए रिश्वत लेने का यह करीब तीन सौ करोड़ रूपये का घोटाला बताया जाता है। बंगाल की स्कूलों के लिए शिक्षक भर्ती की सीबीआई जांच का आदेश कलकत्ता हाईकोर्ट ने दिया था। ऐसे आरोप लगे थे कि पश्चिम बंगाल प्राथमिक शिक्षा बोर्ड ने 2020 में साढ़े 16 हजार शिक्षकों की भर्ती शुरू की थी, और इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हुआ। हाईकोर्ट ने पहली नजर में भ्रष्टाचार के संकेत दिखने पर सीबीआई जांच का आदेश दिया जिसके बिना सीबीआई इस राज्य में कोई जांच नहीं कर सकती क्योंकि ममता सरकार ने सीबीआई से जांच के अधिकार वापिस ले लिए हैं। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार के दौरान वहां भी व्यापमं नाम का बहुत बड़ा भर्ती घोटाला हुआ था जिसमें लिए गए इम्तिहानों से छांटे गए लोगों को पढ़ाई और सरकारी नौकरी सभी के लिए मौका मिलता है। इसमें 2009 में एफआईआर दर्ज हुई थी, और पुलिस दो हजार से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है, ढेर सारे गवाह और आरोपी रहस्यमय तरीके से मारे जा चुके हैं। गिरफ्तार लोगों में राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री के अलावा सौ से अधिक नेता गिरफ्तार किए गए थे, और एक राज्यपाल चूंकि गुजर गए, इसलिए वे कार्यकाल के बाद गिरफ्तारी से बच गए। इस घोटाले में मेडिकल कॉलेजों में दाखिले का भ्रष्टाचार भी शामिल था।
यह बात समझने की जरूरत है कि जब कभी किसी पढ़ाई या किसी नौकरी के गिने-चुने मौकों को लेकर भ्रष्टाचार होता है तो वह समाज में समानता के मौके खत्म करता है, सबसे काबिल लोगों के आगे बढऩे की संभावना खत्म कर देता है, और लोगों का सरकार और लोकतंत्र पर से भरोसा पूरी तरह खत्म भी हो जाता है। इसके बाद इससे निराश हुए लोग न तो सरकारी संपत्ति को अपना मान पाते, और न ही उन्हें कोई अच्छी सरकार चुनने में दिलचस्पी रह जाती। उनकी नजरों में पूरी सरकार भ्रष्ट रहती है, लोकतंत्र सिर्फ ताकतवर लोगों के हाथ का औजार रहता है, और हर सफल या चुने हुए उम्मीदवार के पीछे वे भ्रष्टाचार देखते हैं। विश्वास का ऐसा संकट छोटा नहीं होता है, और यह लोकतंत्र को खोखला करते रहता है। इसके बाद लोगों को जब जहां मौका मिलता है वे वहां टैक्स चोरी को जायज मानते हैं, सरकारी सहूलियतों को नाजायज तरीके से लेने को भी सही मानते हैं। इसलिए पढ़ाई या नौकरी, किसी भी तरह के मुकाबलों का भ्रष्ट होना देश को कम काबिल लोग दे जाता है, जिससे सरकार और समाज दोनों की उत्पादकता बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है। ऐसा भी नहीं कि इन्हीं दो राज्यों में ऐसा हो रहा है। राजस्थान तो बार-बार पर्चे फूट जाने और सामूहिक नकल से ऐसा घिरा हुआ है कि वहां परीक्षा के दौरान पूरे शहर का इंटरनेट बंद कर दिया जाता है ताकि नकल न हो सके। वहां पर लगातार पर्चे फूटते रहते हैं, इम्तिहान टलते रहती हैं।
कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि वामपंथी पार्टियों ने अपने राज के प्रदेशों में पार्टी के कार्यकर्ताओं के परिवार से किसी एक को सरकारी नौकरी देने की तरह-तरह की तरकीबें निकाली हुई थीं, और बंगाल, त्रिपुरा, केरल में इनका इस्तेमाल होता था। कुछ इसी तरह की बात भाजपा से जुड़े हुए आरएसएस के बारे में होती है कि जब कभी भाजपा की सरकार रहती है, दाखिलों और नौकरियों में अपने लोगों को घुसाने की तरकीबें संघ निकाल लेता है। इन बातों का कोई ठोस सुबूत तो हो नहीं सकता, लेकिन ये व्यापक चर्चा में रहती आई हैं। ऊंची पढ़ाई और छोटी नौकरियों से परे विश्वविद्यालयों में शिक्षक बनाने जैसे मौकों पर सत्तारूढ़ पार्टियां अपनी विचारधारा के लोगों को लादती ही रहती हैं। और शायद इसीलिए पहली कुलपति अपनी विचारधारा के बनाए जाते हैं, उसके बाद बनने वाली किसी भी चयन समिति में अपनी सोच के लोगों को लाया जाता है, और बाद में पूरा चयन इससे प्रभावित होता है। जब कुछ बरस ऐसा सिलसिला चल निकलता है, तो फिर आगे चीजें आसान भी होने लगती हैं क्योंकि अधिक कुर्सियों पर हमख्याल लोग काबिज रहते हैं।
सीबीआई की जांच, चाहे वह मध्यप्रदेश में हो, या पश्चिम बंगाल में, वह जब तक एक मिसाल बनकर, कड़ी सजा दिलवाकर सामने नहीं आएगी, तब तक किसी का हौसला पस्त नहीं होगा। उसके बाद भी असर कितना होगा यह नहीं पता क्योंकि लोगों को लगता है कि सजा पाने वाले लोगों ने लापरवाही की होगी, और वे सावधानी से काम करेंगे। भर्तियों के समय अधिकतर प्रदेशों में खुला भ्रष्टाचार दिखाई पड़ता है, और ऐसा लगता है कि किसी भी लंबी-चौड़ी भर्ती के वक्त उस प्रदेश के हाईकोर्ट को पहले से सीबीआई जांच का आदेश दे देना चाहिए, जो कि जांच के पहले से ही निगरानी रखना शुरू कर दे। हिन्दुस्तान में इस एक चीज की कमी लगती है कि भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराध हो जाने तक उसकी कोई निगरानी नहीं होती, जहां व्यापक भ्रष्टाचार का खुला खतरा दिखता है, वहां पर भी निगरानी रखने की कोई एजेंसी नहीं है। दाखिला और भर्ती से परे भी चिटफंड या दूसरे किस्म के आर्थिक अपराधों की खबरें छपती रहती हैं, और बरसों बाद जाकर कोई जांच शुरू होती है। यह पूरा दौर रकम को गायब करने में इस्तेमाल हो जाता है, और बाद में खोखले हो चुके लोगों की गिरफ्तारी के अलावा कुछ नहीं हो पाता। यह सिलसिला पलटना चाहिए। संसद और विधानसभाएं अपने राजनीतिक चरित्र की वजह से, और वहां पर काबिज लोगों की वजह से किसी निगरानी एजेंसी को नहीं चाहेंगी, लेकिन लोगों को इसे एक मुद्दा बनाना चाहिए, तभी इस देश में समानता बच सकेगी, और लोगों के हक के पैसे बच सकेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले में बिरनपुर में हुई साम्प्रदायिक हत्याओं के बाद प्रदेश में नफरती बयानों का सैलाब आ गया है। पहली हत्या एक हिन्दू की हुई, तो जाहिर है कि विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा के करवाए गए प्रदेश बंद के दौरान दर्जनों भाजपा और हिन्दूवादी नेताओं के बड़े आक्रामक बयान आए, और छत्तीसगढ़ के हालात को पाकिस्तान से लेकर तालिबान जैसा बताया गया, इस राज्य में मुस्लिमों के एक तबके को म्यांमार से आए रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थी कहा गया, और इसके अलावा भी बहुत सी और बातें बयानों, भाषणों में, और सोशल मीडिया पर कही गईं। भाजपा के राष्ट्रीय संगठन के छत्तीसगढ़ प्रभारी ने भी यहां आने पर मीडिया में एक ऐसा बयान दिया कि मदरसों में बम, गोली, बारूद, और आतंकवाद की शिक्षा दी जाती है। अब राज्य में प्रियंका गांधी का कार्यक्रम निपट जाने के बाद कांग्रेस ने पुलिस में शिकायत की है कि ये सारे बयान सुप्रीम कोर्ट की भाषा में हेट-स्पीच के तहत आते हैं, और इन पर कार्रवाई की जाए। इस शिकायत के पहले भी मुस्लिम समाज के लोगों ने मदरसों के बारे में कही गई बात के खिलाफ पुलिस में शिकायत की थी।
यह बात सही है कि छत्तीसगढ़ के इस ताजा साम्प्रदायिक तनाव में पहली मौत एक हिन्दू की हुई, और उसी से आगे आंदोलन शुरू करने का मौका हिन्दू संगठनों को मिला। लेकिन उस मामले में सरकार ने आनन-फानन आधा दर्जन से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया था, और बाद में और गिरफ्तारियां हुईं। लेकिन छत्तीसगढ़ बंद के सिलसिले में जितने तरह की हमलावर और नफरती बातें की गईं, उनमें से बहुत सी नाजायज थीं, बेबुनियाद थीं, और सुप्रीम कोर्ट के बड़े साफ-साफ निर्देशों की रौशनी में वे हेट-स्पीच थीं। अब अगर कांग्रेस ने यह रिपोर्ट लिखाई है, तो इसकी कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जिस इलाके में ऐसी बयानबाजी होती है, उस इलाके के पुलिस अफसरों को सीधे-सीधे जवाबदेह बनाया है, और खुद होकर रिपोर्ट दर्ज करने के लिए कहा है। हम इसलिए यह बात तो साफ है कि छत्तीसगढ़ में अगर पुलिस मुस्लिम समाज और कांग्रेस की शिकायत पर एफआईआर करती है, तो वह न सिर्फ उसके लिए जरूरी है, बल्कि उससे बचने का कोई रास्ता भी पुलिस के पास नहीं है।
हम कभी पल भर की उत्तेजना में मुंह से निकल गए कुछ शब्दों को अनसुना करने के हिमायती हैं, लेकिन जब एक तबका लगातार, सोच-समझकर, संगठित रूप से, मीडिया और सोशल मीडिया में लगातार ऐसा अभियान चलाए, तो फिर उसे न तो गलती से कहा गया माना जा सकता, और न ही अनदेखा किया जा सकता। यह गलती नहीं गलत काम के दर्जे की बात है। और इस बार तो जिस तरह मुस्लिम और ईसाई समाज के आर्थिक बहिष्कार की खुली कसम राम के नाम पर खाई गई है, वह हेट-स्पीच होने के साथ-साथ परले दर्जे की साम्प्रदायिक बात भी है। कहां तो एक राम थे जिन्होंने रास्ते में आने वाले किसी भी तरह के न सिर्फ इंसानों, बल्कि वानरों से भी प्यार किया, उनका भी सहयोग लिया। और दूसरी तरफ आज राम की जय-जयकार के नारे लगाते हुए लोगों को साम्प्रदायिक नफरत की कसम दिलाई जा रही है। यह घटना कानूनी कार्रवाई के लायक है, और राज्य सरकार के पास कार्रवाई न करने का कोई विकल्प नहीं होना चाहिए। चाहे जितने बरस लगें, साम्प्रदायिकता, नफरत, और हिंसा के फतवों पर कार्रवाई होनी ही चाहिए, और आज सहूलियत यह है कि वीडियो सुबूतों, सोशल मीडिया पोस्ट, और लिखित बयानों की वजह से पुलिस के पास सुबूत भी बहुत रहते हैं। और अब तो हिन्दुस्तान में कुछ अदालतें अपने अधिकार क्षेत्र से परे के मामलों में भी फैसले देने लगी हैं, इसलिए कम से कम स्थानीय पुलिस और स्थानीय अदालत को तो अपने इलाकों के मामलों पर कार्रवाई करनी चाहिए। यह जरूरी इसलिए है क्योंकि भलमनसाहत की बातें बहुत से लोगों और संगठनों पर कोई असर नहीं कर रही हैं। लोग संविधान को अनदेखा करते हुए इस खुशफहमी में जी रहे हैं कि यह देश अब हिन्दू राष्ट्र बन ही चुका है, यहां पर गैरहिन्दुओं को रहने का हक नहीं है, और उन्हें पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, और अफगानिस्तान भेज देना चाहिए। यह बात किसी पार्टी को या कुछ संगठनों को चुनाव जीतने के लिए फायदे की लग सकती है, लेकिन यह इस देश को एक बनाए रखने वाली नहीं है। ऐसे बयान चाहे जिस पार्टी या संगठन के लोग दें, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी ही चाहिए। छत्तीसगढ़ में जिस तरह से साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा है, और बढ़ाया जा रहा है, उससे यहां का गौरवशाली इतिहास खत्म हो जाएगा, वर्तमान जलने लगेगा, और यही सिलसिला जारी रहा तो भविष्य राख हो जाएगा। इसलिए राजनीतिक शिष्टाचार को छोडक़र नफरती बातों पर कानूनी कार्रवाई होनी ही चाहिए। हो सकता है कि कुछ लोगों को पहली बार यह समझ में आए कि उनकी बातें गैरकानूनी थीं, और सजा के लायक थीं, लेकिन ऐसी मिसाल कभी न कभी तो पेश करनी ही होती है, अब उसका वक्त आ गया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्यप्रदेश के इंदौर में एक 12 बरस के बच्चे को पीटा गया, जयश्रीराम, और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने को मजबूर किया गया, और उसके कपड़े उतारे गए, और वीडियो बनाकर फैलाया गया। यह सब कुछ मध्यप्रदेश के इस कारोबारी राजधानी के शहर के बीच हुआ। बताया जा रहा है कि ऐसा कुछ लोगों ने किया, लेकिन पुलिस ने जो जुर्म दर्ज किया है उसमें ऐसा करने वाले आरोपी को भी नाबालिग बताया है। हम बिना किसी और जानकारी के पुलिस के कहे हुए को गलत करार देना नहीं चाहते, लेकिन इस घटना पर जाना चाहते हैं जिसमें अगर बड़े लोग शामिल हैं तो भी, और अगर किसी नाबालिग ने ऐसा किया है, तो भी यह कैसा खतरनाक माहौल है इस पर सोचने की जरूरत है।
ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश में इस किस्म की साम्प्रदायिक हरकत नई हो। जिस प्रदेश में बड़े-बड़े नेता और सरकारी-संवैधानिक ओहदों पर बैठे हुए लोग लगातार साम्प्रदायिक बातें करते हैं, जहां पर सरकार का रूख देखकर पुलिस भी एक चुनिंदा अल्पसंख्यक समुदाय के मकान-दुकान गिराने के लिए बुलडोजर और मशीनें लेकर पहुंचती है, वहां पर एक बच्चे के साथ अगर ऐसा हो गया है, तो वह जुर्म के लिहाज से कितना भी गंभीर क्यों न हों, मध्यप्रदेश की आज की संस्कृति के हिसाब से जरा भी असाधारण बात नहीं है, वहां का माहौल ही ऐसा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि बड़े लोगों की नफरत अब छोटे बच्चों तक भी पहुंच रही है, और बच्चों को शिकार बनाया जा रहा है, और अगर पुलिस का कहना सही है, और आरोपी भी नाबालिग है, तो यह एक नए खतरे की शुरुआत है कि अब कमउम्र बच्चे भी इस किस्म की साम्प्रदायिक हिंसा और नफरत में जुट गए हैं। यह हैरानी की बात बिल्कुल नहीं है क्योंकि जहां बड़े-बड़े लोग रात-दिन सिर्फ नफरत की लपटें मुंह से निकाल रहे हैं, तो वहां उनके बच्चों पर ऐसा असर होना ही था।
हम बार-बार यह बात लिखते हैं कि लोग चाहें तो अपने बच्चों के लिए विरासत में मकान-दुकान छोडक़र न जाएं, लेकिन उनके लिए कम से कम एक महफूज दुनिया जरूर छोड़ें। आज वह हाल नहीं दिख रहा है। आज देश के बहुसंख्यक तबके को उसी की निर्वाचित सरकार के राज में लगातार खतरे में बताया जा रहा है, लगातार उसे अल्पसंख्यकों का खतरा दिखाया जा रहा है, और हकीकत में असली खतरा तो अल्पसंख्यकों पर खड़ा किया गया है, उन पर हमले जारी हैं, और अब उनमें से एक के बच्चे के साथ देश के एक प्रमुख कारोबारी शहर के बीच ऐसी हिंसा हुई है कि उसके कपड़े उतारकर उससे धार्मिक नारे लगवाकर उसका वीडियो बनाया गया है, और अब पुलिस यह वीडियो न फैलाने की अपील कर रही है। अब वह कौन सा समुदाय होगा, कौन सा परिवार होगा जो कि अपने बच्चों के साथ हुए ऐसे सुलूक को आसानी से भूल सकेगा, और अपने इरादों पर काबू पा सकेगा। और कोई अगर यह सोचते हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय गिनती में कम है, और उसके साथ कैसा भी सुलूक किया जाए, वह बहुसंख्यकों का कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा, तो यह एक खुशफहमी है। एक सीमा से ज्यादा हिंसा झेलने के बाद किसी भी समुदाय के मन में हिंसा की बात आ सकती है, और वह दिन इस देश के अमन-चैन के लिए खतरनाक होगा।
इसके पहले भी देश भर में जगह-जगह कई बुजुर्ग मुस्लिमों को दाढ़ी पकडक़र मारा-पीटा गया, और उनसे हिन्दू देवी-देवताओं के जय-जयकार के नारे लगवाए गए। यह साम्प्रदायिक हिंसा करने वाले लोग अपना खुद का वीडियो बनाकर उसे चारों तरफ फैलाते भी रहे। इससे उनके इरादों के साथ-साथ उनका हौसला भी दिखता है कि कई प्रदेशों में या इस पूरे देश में उन्हें कानून के राज की कोई परवाह नहीं है। अब इंदौर जैसे शहर में अगर ऐसा वीडियो बनाकर लोग फैला रहे हैं, तो हमारा मानना है कि मध्यप्रदेश के हाईकोर्ट या देश के सुप्रीम कोर्ट की यह जिम्मेदारी है कि इस पर राज्य सरकार को नोटिस भेजकर जवाब मांगे। राज्य सरकार अभी इस पर कोई फिक्र करते नहीं दिख रही है, क्योंकि देश के अधिकतर प्रदेशों में सरकारों को अपनी पुलिस की साजिश की ताकत पर बहुत भरोसा होता है कि वह ऐसे किसी भी मामले को दबाने या मोडऩे में माहिर रहती है। और इसके साथ-साथ एक दूसरी चीज यह भी है कि देश और अधिकतर प्रदेशों में आज मानवाधिकार आयोग, बाल संरक्षण आयोग या परिषद, महिला आयोग, या एसटी-एससी आयोग उनमें मनोनीत राजनेताओं की वजह से लोकतंत्र के किसी काम के नहीं रह गए हैं। वे सत्ता की मदद के लिए किसी भी जुल्म और ज्यादती को कुचलने वाले लोग रह गए हैं। ऐसे में जिस मकसद से ऐसी संवैधानिक संस्थाओं को बनाया गया है उस मकसद की ही शिकस्त की गारंटी ये संस्थाएं तय कर देती हैं।
हिन्दुस्तान के लोगों को, खासकर बहुसंख्यक समाज को यह सोचना चाहिए कि वे तो पौन सदी से इस देश में सुरक्षित ही थे, आज हिन्दूवादी सरकार के रहते हिन्दू जितने असुरक्षित बताए जा रहे हैं, उतने खतरे में तो वे कभी भी नहीं थे। आज बहुसंख्यक समाज पर सीधे तो कोई खतरा नहीं है, लेकिन जिस तरह की हिंसा को उसमें बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे यह बात साफ है कि पूरे का पूरा लोकतंत्र खतरे में आने वाला है, शायद आ चुका है। इससे उबरने में हो सकता है कि एक से अधिक पीढिय़ां लग जाएं, क्योंकि नफरत को फैलाना आसान होता है, नफरत में फेविकोल के मजबूत जोड़ की तरह लोगों को जोडऩे की ताकत बहुत रहती है, और मोहब्बत जब तक अपने जूते के तस्मे बांधती रहती है, नफरत पूरे शहर का एक दौरा करके आ जाती है। इसलिए आज नफरत बढ़ाने वाले लोग याद रखें कि वे अपनी आने वाली पीढिय़ों के लिए एक खतरा छोडक़र जाने वाले हैं। हमारे कम लिखे को अधिक समझा जाए, वरना बीमार को पार समझा जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ट्विटर के मालिक एलन मस्क इस कंपनी को खरीदने के पहले से अभिव्यक्ति की आजादी, बल्कि पूरी आजादी के कड़े हिमायती रहे हैं, और उसी के चलते जब उन्होंने ट्विटर खरीदने के बाद काम खुद देखना चालू किया, तो बहुत से बंद कर दिए गए अकाउंट भी उन्होंने खोल दिए कि लोगों को अधिक आजादी मिलनी चाहिए। इनमें हिंसा की बात करने वाले लोग भी थे, और अलोकतांत्रिक बात करने वाले भी। लेकिन उनका यह मानना है कि हिन्दुस्तान में सोशल मीडिया कानून इतना कड़ा बनाया गया है कि यहां काम करना मुश्किल है। बीबीसी को दिए एक लंबे इंटरव्यू में उन्होंने बहुत से दूसरे जवाबों के साथ-साथ भारत के बारे में भी कहा कि यहां पर हिन्दुस्तानियों को अमरीका या पश्चिमी देशों की तरह की सोशल मीडिया आजादी दे पाना मुमकिन नहीं है, और सरकार के हुक्म न मानने पर भारत में ट्विटर कर्मचारियों को जेल जाना होगा। उन्होंने कहा इसलिए वे अपने कर्मचारियों को जेल भेजने के बजाय भारत के नियमों को मान रहे हैं। उन्होंने यह बात इस सवाल के जवाब में कही कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री से जुड़े हुए ट्वीट ट्विटर ने ब्लाक कर दिए थे।
मुद्दा अकेले ट्विटर का नहीं है, मुद्दा हिन्दुस्तान में सरकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक का है। अभी दो-चार दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला दिया है जिसमें केन्द्र सरकार ने केरल के एक मलयालम समाचार चैनल का लाइसेंस नवीनीकरण करने से मना कर दिया था। बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो अदालत ने यह पाया कि केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय ने अपने खुफिया विभागों की कुछ रिपोर्ट का हवाला देते हुए नवीनीकरण से मना कर दिया था, और ऐसी रिपोर्ट अदालत को भी बताने से इंकार कर दिया था। अदालत ने इस तर्क को गलत पाया कि इस चैनल की कंपनी में जिन लोगों के शेयर हैं, उनका किसी इस्लामिक संगठन से कुछ लेना-देना है। अदालत ने पाया कि न तो यह संगठन प्रतिबंधित है, और न ही केन्द्र सरकार यह साबित कर सकी कि इस चैनल की कंपनी के शेयर होल्डरों का इस संगठन से कुछ लेना-देना है। यह तर्क देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की खुफिया रिपोर्ट की कमर ही तोड़ दी।
अदालत ने कहा कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस तरह से रोका नहीं जा सकता। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की बेंच ने यह फैसला दिया जिसमें बड़े खुलासे से मीडिया के महत्व का बखान किया गया है। अदालत ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए जनता के बुनियादी हक नहीं छीने जा सकते। यहां यह जिक्र जरूरी है कि हिन्दुस्तान में मीडिया के अलग से कोई हक नहीं है, और एक नागरिक के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों का उपयोग करके ही अखबार निकलते हैं, या मीडिया के दूसरे कारोबार चलते हैं। टीवी समाचार चैनलों के लिए देश में यह शर्त है कि उन्हें शुरू करने की उनके लाइसेंस के लिए गृह मंत्रालय की सुरक्ष मंजूरी लगती है। इस सुनवाई के दौरान भी गृह मंत्रालय ने जब सीलबंद लिफाफे में कागजात दाखिल किए, तो सुप्रीम कोर्ट ने इस आदत की भी जमकर आलोचना की। इसके साथ-साथ केरल हाईकोर्ट के फैसले की भी बुरी तरह आलोचना की। यह फैसला मुख्य न्यायाधीश ने खुद लिखा, और कहा कि केन्द्र सरकार ने यह स्पष्ट करने की भी कोई कोशिश नहीं की कि किस तरह तथ्यों को छुपाना राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में होगा। फैसले में कहा गया कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा को जनता को कानून से मिले हुए हक छीनने के लिए इस्तेमाल कर रही है, और यह कानून के राज में नहीं होने दिया जा सकता।
प्रेस के सबसे जानकार कुछ लोगों का यह कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने जितने खुलासे से इस फैसले में प्रेस के हक की वकालत की है, उसके महत्व को स्थापित किया है, वह इस मामले से परे भी देश के उन तमाम दूसरे मामलों में काम आने वाली बात है जिनमें कोई सरकार प्रेस के हक कुचल रही है। फैसले में कहा गया है कि मीडिया में सरकार की नीतियों की आलोचना किसी भी तरह से व्यवस्था-विरोधी नहीं कही जा सकती। सरकार द्वारा ऐसी भाषा का इस्तेमाल यह बताता है कि सरकार मीडिया से यह उम्मीद रखती है कि वह व्यवस्था की हिमायती रहे। फैसले में कहा गया कि प्रेस की यह ड्यूटी है कि वह सच बोले, और जनता के सामने कड़े तथ्य रखे, और लोकतंत्र में सही दिशा चुनने के लिए उनकी मदद करे।
हिन्दुस्तान में आज सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसले की बहुत जरूरत थी क्योंकि न सिर्फ केन्द्र सरकार, बल्कि कई राज्य सरकारें भी प्रेस और मीडिया पर तरह-तरह से हमले कर रही हैं। आज ऐसा लग रहा है कि सरकारें प्रेस की आजादी के खिलाफ हैं, संसद भी आज अपने असंतुलित बहुमत की वजह से केन्द्र सरकार के एक विभाग की तरह रह गई है। मीडिया नाम का कारोबार देश के सबसे बड़े कारोबारियों के हाथ में चले गया है, और पत्रकारिता या अखबारनवीसी अब कैसेट और सीडी के संगीत की तरह पुराने वक्त की बात होने जा रही है। ऐसे में अगर लोकतंत्र को बचाना, तो एक बहुत ही मजबूत सुप्रीम कोर्ट की जरूरत है, और अभी ऐसा लग रहा है कि मुख्य न्यायाधीश और उनके मातहत कम से कम कुछ और जज हौसले के साथ अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। ऐसे में इस फैसले में मुख्य न्यायाधीश के लिखे हुए इस वाक्य पर ध्यान देना चाहिए कि लोकतंत्र में प्रेस की क्या ड्यूटी है। अगर मीडिया कहे जाने वाले बड़े-बड़े संस्थान यह जिम्मा नहीं भी उठाते हैं, तो भी सोशल मीडिया और इंटरनेट पर मिली आजादी का इस्तेमाल करते हुए पत्रकारों को अपने पेशे से लोकतंत्र की उम्मीदें पूरी करनी चाहिए।
हिन्दुस्तान की सरहद से लगे हुए पुराने वक्त के बर्मा, और आज के म्यांमार का भारत से बड़ा गहरा संबंध रहा है। हिन्दुस्तानियों का वहां जाकर काम करना, कारोबार करना भी इतना आम था कि एक हिन्दी फिल्म का एक गाना ही था, मेरे पिया गए रंगून वहां से किया है टेलीफून...। ऐसे पड़ोसी देश में पिछले कुछ बरसों से फौजी तानाशाही की हुकूमत के चलते न सिर्फ लोकतंत्र खत्म है, बल्कि वहां से निकाले गए रोहिंग्या शरणार्थियों का बहुत बड़ा बोझ बांग्लादेश पर पड़ा है। वहां लाखों रोहिंग्या शरणार्थी पहुंचकर रह रहे हैं, और बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर, वहां की जिंदगी पर इनका बड़ा बोझ भी है। अब कल म्यांमार के एक गांव में सेना के खिलाफ काम करने वाले एक राजनीतिक संगठन के दफ्तर का उद्घाटन हो रहा था, और वहां मौजूद भीड़ पर फौजी हेलीकॉप्टर से बम गिराया गया, गोलियों से हमला किया गया, और इसमें 50 से 100 के बीच मौतों का अंदाज है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस हमले को लेकर फिक्र जाहिर की है, लेकिन अब तक हिन्दुस्तान ने इस पर शायद कुछ नहीं कहा है। रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमान हैं, और भारत में उनकी थोड़ी सी मौजूदगी को लेकर हिन्दुत्ववादी तबके हमलावर रहते हैं, और जहां कहीं मुस्लिमों की मौजूदगी रहती है वहां उनके नाम के साथ पहले बांग्लादेशी शरणार्थी जोड़ दिया जाता था, अब रोहिंग्या शरणार्थी जोड़ दिया जा रहा है।
म्यांमार की हकीकत को भारत पता नहीं कब तक अनदेखा करते रहेगा, और जुबान बंद रखेगा। कुछ खबरें तो ऐसी भी हैं कि म्यांमार पर जो अंतरराष्ट्रीय रोक लगाई गई है, उसके चलते वहां की फौजी हुकूमत दूसरे देशों से हथियार नहीं खरीद रही है, लेकिन उसकी कुछ किस्म की फौजी मदद हिन्दुस्तान भी कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत के रूख को लेकर लगातार लिखा जा रहा है कि वह लोकतंत्र की बात जरूर करता है लेकिन म्यांमार में वह फौजी तानाशाही का साथ दे रहा है। हिन्दुस्तान थोड़े से जुबानी जमा-खर्च के लिए हिंसा की बड़ी घटनाओं पर कुछ बोल लेता है, लेकिन वह व्यवहार में वहां के फौजियों के साथ है। इसके पीछे यह भी एक वजह हो सकती है कि अगर वह म्यांमार के किसी भी तरह के शासकों को साथ नहीं रखेगा, तो उनके चीन के करीब जाने की नौबत रहेगी। शायद ऐसी नौबत से बचने के लिए भारत को म्यांमार की सरकारी हिंसा पर मोटेतौर पर चुप्पी रखना बेहतर लग रहा है। लेकिन दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि अगर दोस्त देश भी बड़े पैमानों पर मानवाधिकार का हनन करते हैं, तो उस पर रखी गई चुप्पी अच्छी तरह दर्ज होती है। हालत यह है कि म्यांमार चार लोकतंत्रवादी कार्यकर्ताओं को पिछले बरस जब मौत की सजा दी गई, तो भारत में बसे हुए म्यांमार के सौ-दो सौ लोग उस पर जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना चाहते थे, और सरकार ने आखिरी वक्त पर प्रदर्शन की इजाजत वापिस ले ली। भारत के उत्तर-पूर्व में मिजोरम में कुछ म्यांमार-शरणार्थियों को स्थानीय स्तर पर जगह दी गई है, लेकिन भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शरणार्थियों के लिए बने दस्तावेज पर दस्तखत के बाद भी इनके लिए कुछ करते नहीं दिख रही है। इसके साथ जब 1971 में पूर्वी पाकिस्तान से भारत में आए हुए लाखों शरणार्थियों को देखें, तो भारत ने उस वक्त एक बड़ी दरियादिली दिखाई थी, और वह इंसानियत आज गायब है।
म्यांमार की हालत अगर देखें, तो वहां पर फौज ने नोबल शांति पुरस्कार विजेता प्रधानमंत्री आंग-सान-सू-की की निर्वाचित सरकार को 2021 में पलट दिया था, और दो साल के लिए इमरजेंसी लगा दी थी। फौजी हुकूमत ने अब तक हजारों लोगों को मार डाला है, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की फिक्र, रोक, और उसके विरोध के बावजूद यहां के फौजी शासक जुल्म और ज्यादती का दौर चलाए हुए हैं। वहां पर जनता के ऊपर हवाई हमले कई बार देखने में आते हैं, और उनमें सैकड़ों लोग मारे जा रहे हैं। दसियों लाख लोग अपने घर और गांव छोडक़र बेदखल होने को बेबस किए गए हैं, और वहां पर रोहिंग्या मुस्लिम आबादी को अवांछित जनता करार देकर उनके गांव के गांव जलाकर लोगों को देश छोडऩे पर मजबूर किया जा रहा है। हिन्दुस्तान जैसे पड़ोसी देश को चीनी सरहद पर अपनी रणनीतिक जरूरतों को देखने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के प्रति अपनी जवाबदेही भी देखनी चाहिए। किसी देश को इस तरह का रूख इतिहास में महानता का दर्जा नहीं दिला सकता। यह बात सही है कि देश की विदेश और फौजी रणनीति हमेशा ही नैतिकता पर नहीं चल सकती, लेकिन इतनी लंबी चुप्पी की अनैतिकता भी ठीक नहीं है।
पूरी दुनिया के सामने एक ताजा मिसाल है कि किस तरह खाड़ी के देशों में एक-दूसरे के खिलाफ कट्टर दुश्मन बने हुए ईरान और सऊदी अरब को चीन ने न सिर्फ बातचीत की टेबिल पर लाया, बल्कि इनके बीच रिश्ते कायम करवाए। और नतीजा यह है कि अमरीका जैसी पश्चिमी ताकतें देखते रह गईं, और कल तक उनके प्रभामंडल वाला सऊदी अरब आज चीन के असर से, कट्टर अमरीका-विरोधी ईरान के साथ चले गया है। यह एक किस्म से दशकों की अमरीकी नीति और मेहनत की शिकस्त है, और चीन की बहुत बड़ी अंतरराष्ट्रीय जीत भी है। आज हालत यह है कि ताजा-ताजा दोस्त बने ईरान और सऊदी अरब साथ बैठकर बगल के यमन में चल रहे लंबे गृहयुद्ध को खत्म करवाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें बागियों को ईरानी मदद बताई जाती थी। इस तरह इन दोनों देशों के गठजोड़ से इस पूरे इलाके में एक नया प्रभामंडल बनने का आसार दिख रहा है जो कि दुनिया के इस हिस्से में अमरीका के पिट्ठू इजराइल के लिए खतरा भी हो सकता है। इसलिए म्यांमार पर महज चुप्पी हिन्दुस्तान के काम आने वाली नहीं है, उसे एक बड़े लोकतंत्र की तरह भी बर्ताव करना होगा, और अपनी फौजी जरूरतों का भी ध्यान रखना होगा। शरणार्थियों को लेकर अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत वह अपनी जिम्मेदारी की वह पहले भी अनदेखी कर चुका है। ठीक पड़ोस के इस देश के घटनाक्रम से भारत का इस तरह बेरूख रहना ठीक नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
साम्प्रदायिक तनाव से कुछ दूर रहने वाले छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ महीनों में लगातार धर्मों से जुड़ी हुई ऐसी हिंसक घटनाएं हुई हैं कि अब यह प्रदेश साम्प्रदायिक हिंसा से अछूता नहीं लग रहा है। ताजा मामला बेमेतरा जिले के बिरनपुर गांव का है, जो कि गृहमंत्री का अपना जिला है, और उसके साजा विधानसभा क्षेत्र में अभी एक साम्प्रदायिक हिंसा से मौत हुई है, यह चुनाव क्षेत्र प्रदेश के एक ताकतवर और वरिष्ठ मंत्री रविन्द्र चौबे का है। यहां हिन्दू और मुस्लिम बच्चों के बीच कुछ आपसी झगड़ा हुआ, और उसमें बाद में बड़े भी शामिल हो गए, और मारपीट में एक हिन्दू नौजवान की मौत हो गई, और घटना में शामिल आधा-एक दर्जन मुस्लिम गिरफ्तार हो गए हैं। इस मामले को लेकर विश्व हिन्दू परिषद ने प्रदेश बंद किया, जिसमें भाजपा पूरी ताकत से शामिल हुई, और यह जाहिर और स्वाभाविक ही था कि बाकी हिन्दू संगठन भी इसमें उतरे। बंद कामयाब रहा, लेकिन बंद के दौरान भी इस तनावग्रस्त इलाके में छोटी-मोटी आगजनी हुई, और पुलिस के लिए हालात काबू करना मुश्किल रहा। आज सुबह की खबर है कि इसी इलाके में दो नौजवानों की लाशें मिली हैं जो कि जंगल में बकरियां चराने गए थे।
इस मामले के कुछ पीछे जाकर देखें तो इस गांव में हिन्दू-ओबीसी समुदाय की दो बहनों ने वहीं के दो मुस्लिम लडक़ों से शादी कर ली थी, और तभी से यह तनाव सुलग रहा था। कुछ महीने हो चुके थे लेकिन बात को कोई भूले नहीं थे, और बच्चों के एक झगड़े से दबी हुई हिंसक-नफरत सामने आ गई। मारपीट की हिंसा कत्ल के मकसद वाली नहीं दिख रही, लेकिन उसमें मौत हो गई। आज पूरे देश में जो साम्प्रदायिक तनाव फैला हुआ है, उसे देखते हुए छत्तीसगढ़ की यह ताजा हिंसा अनदेखी तो रहने वाली नहीं थी, और एक हिन्दू नौजवान की मौत के खिलाफ कल प्रदेश बंद एक बड़ी स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। छत्तीसगढ़ में चुनाव कुछ ही महीने बाद है, और ऐसे में यह घटना हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिए एक बड़ी वजह बन सकती है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि ठीक बगल के जिले कबीरधाम में पिछले साल-दो साल में लगातार कई बार हिन्दू-मुस्लिम टकराव हुआ है, और सार्वजनिक जगहों पर हिंसा भी हुई, जो कि गनीमत है कि किसी मौत तक नहीं पहुंची थी। कबीरधाम के पास के इस गांव में इस साम्प्रदायिक टकराव पर पड़ोस के साम्प्रदायिक तनाव का असर पडऩा ही था, और ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लोगों को इस तनाव को घटाने के लिए जितनी मेहनत करनी चाहिए थी, वह नहीं की। और यह काम किसी घटना के होने के साथ ही होने का नहीं है, इसके लिए महीनों और बरसों की लगातार मेहनत लगती है, और उस किस्म की मेहनत करने वाले वामपंथी पार्टियों के लोग राजनीति के हाशिए पर जा चुके हैं, सत्तारूढ़ कांग्रेस के लोग सत्ता के फल चखने में लगे हुए हैं, और भाजपा के लोगों के पास एक राष्ट्रीय एजेंडा है ही।
लेकिन बात सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम तनाव की नहीं है। छत्तीसगढ़ में दो और तरह के तनाव राज्य के दक्षिण और उत्तर के आदिवासी इलाकों में चल रहे हैं। बस्तर में आदिवासियों के भीतर ही इस बात को लेकर बड़ा तनाव चल रहा है कि उनमें से कुछ लोग ईसाई बन रहे हैं। कई गांवों में ऐसे ईसाई-आदिवासियों की लाशों को गांव के कब्रिस्तान में दफनाने का भी विरोध हो रहा है। पहली नजर में यह आदिवासी समुदाय के भीतर से खड़ा हो रहा एक तनाव है, लेकिन इसके पीछे भी कोई ईसाई-विरोधी ताकतें शामिल होंगी तो भी उसमें हैरानी की कोई बात नहीं होगी क्योंकि आदिवासियों को हिन्दू समाज गिनती के नाम पर अपने में जरूर गिनता है। इस तनाव में होने वाली हिंसा या हिंसक घटनाओं की खबर आने पर ही लोगों को इसका अहसास हो रहा है, लेकिन यह उससे आगे बढक़र जमीन पर फैला हुआ तनाव है, जिसका पूरा अहसास बाहर अभी नहीं हो रहा है। यह फिर अगले चुनाव को खासा प्रभावित करने वाला मुद्दा हो सकता है। दूसरी तरफ राज्य के उत्तरी इलाके, सरगुजा में बताया जाता है कि एक अलग किस्म का तनाव चल रहा है, वहां बाहर से आकर बहुत से मुस्लिम बस रहे हैं, और उनके बांग्लादेशी होने, या रोहिंग्या शरणार्थी होने के आरोप लगते हैं। झारखंड से लगी हुई सरहद के किनारे के गांवों में ऐसी नई बसाहट की खबरें आती हैं, इन्हें भाजपा रोहिंग्या शरणार्थियों से जोड़ती है, और सरकार या सत्तारूढ़ कांग्रेस इन खबरों को पूरी तरह खारिज करती है। कुछ जानकार लोगों का यह मानना है कि ऐसी मुस्लिम बसाहट चल रही है, लेकिन वह कितनी बड़ी है, मुस्लिम कहां के हैं, यह अभी साफ नहीं है।
हम ऐसे किसी मामले में धर्म, जाति या सम्प्रदाय के जिक्र को छुपाने की कोशिश करने के खिलाफ हैं। इसीलिए हम साम्प्रदायिक हिंसा की खबरों में नामों का साफ-साफ जिक्र करते हैं, जब सच सामने नहीं रहता, तो सौ किस्म की अफवाहें पैदा होती हैं। हम छत्तीसगढ़ में इन तीन अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग वजहों से खड़े हो चुके तनावों को महज चुनाव से जोडक़र देखना नहीं चाहते। यह राज्य हमेशा से साम्प्रदायिक शांति का टापू बने रहा है। जब आसपास के बहुत से राज्य जलते-सुलगते रहते हैं, तब भी छत्तीसगढ़ ने बड़ा बर्दाश्त दिखाया है। ऐसे में मरने-मारने तक पहुंचा हुआ यह साम्प्रदायिक तनाव इस राज्य के लिए शर्मनाक है, और सरकार के लिए एक बड़ी दिक्कत भी है, खतरा भी है। यह मौका उन सामाजिक-राजनीतिक नेताओं के दखल का है जिनकी जनता के बीच साख है, अब भी बाकी है। दिक्कत यही है कि ऐसी साख वाले लोग कम हैं, और जो हैं वे हाशिए पर हैं। बेसाख नेताओं के किए कुछ होना नहीं है, और साम्प्रदायिक हिंसा की आग में जनता ही झुलसेगी, कोई नेता तो झुलसेंगे नहीं। यह बात साफ समझ लेनी चाहिए कि पुलिस की सीधी भागीदारी के बिना अगर ऐसा तनाव हुआ है, तो उसे लेकर पुलिस पर तोहमत नहीं लगाई जा सकती, और नेताओं को अपनी नाकामयाबी का जिम्मा खुद लेना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज एक खबर से हिन्दुस्तान में दो मुद्दे उठ खड़े हो रहे हैं। यह खबर एनसीपी के मुखिया शरद पवार का ताजा बयान है जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से डिग्री दिखाने की मांग करते हुए आम आदमी पार्टी के चलाए जा रहे अभियान को राजनीतिक मुद्दा मानने से इंकार कर दिया है। उन्होंने कहा है कि केन्द्र सरकार की आलोचना, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था, महंगाई जैसे मुद्दों पर होनी चाहिए, लोगों के बीच धर्म और जाति के नाम पर पैदा की जा रही दरारों की बात उठानी चाहिए, बेमौसम बरसात से फसल खराब हुई है उस पर बात होनी चाहिए, डिग्री भी कोई मुद्दा है?
शरद पवार का बयान तो यह एक है, लेकिन इससे दो बातें उठ रही हैं। अभी दो दिन पहले ही उन्होंने संसद में 20 विपक्षी दलों की उठाई गई इस मांग को खारिज कर दिया कि अडानी के खिलाफ जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में बनी जांच कमेटी बेहतर काम कर सकती है। उनके इस बयान को कांग्रेस सहित बाकी तमाम विपक्षी दलों के लिए एक झटका माना गया क्योंकि एनसीपी न सिर्फ इन विपक्षी दलों में गिनी जाती है, बल्कि महाराष्ट्र में तो वह कांग्रेस के साथ गठबंधन में भी है। ऐसे में पवार के बयान को अडानी को ताकत देने वाला, मोदी को असुविधा से निकालने वाला, और विपक्षी एकता को झटका देने वाला माना गया। अब आज फिर उनका यह बयान ऐसा माहौल बना रहा है कि वे आम आदमी पार्टी के आज के सबसे बड़े राजनीतिक मुद्दे को खारिज करके एक बार फिर विपक्ष में दरार खड़ी कर रहे हैं। इन दो बातों को जब जोडक़र देखा जाए, तो पहली नजर में ऐसा लगता है कि शरद पवार शायद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बिना लिखे हुए एक क्लीनचिट दे रहे हैं, हालांकि पवार को संदेह का लाभ दिया जाए, तो यह भी माना जा सकता है कि वे इन मुद्दों पर एक सैद्धांतिक असहमति रखते हैं, और यह असहमति बिना मोदी-मदद की नीयत के, एक ईमानदार असहमति है। लेकिन दूसरी नजर में देखें तो लगातार दो ऐसे बयान साबित करते हैं कि इसके पीछे पवार का कुछ जोड़-घटाना भी है क्योंकि राजनीति इतनी मासूमियत और इतनी संतई का पेशा तो है नहीं। पवार को भी मालूम है कि इन दो बयानों से विपक्ष को झटका लगेगा, और नरेन्द्र मोदी को ताकत मिलेगी।
यह तो एक बात हुई, लेकिन इससे परे एक दूसरी बात भी इस बयान के बाद उठती है। पवार ने तो यह खारिज कर दिया है कि प्रधानमंत्री की डिग्री कोई मुद्दा नहीं है, लेकिन आम आदमी पार्टी के लिए यह मुद्दा इज्जत का सवाल इसलिए बना हुआ है कि मोदी से उनकी डिग्री दिखाने की मांग करने वाले अरविंद केजरीवाल पर गुजरात हाईकोर्ट ने 25 हजार रूपये जुर्माना लगाया है, अदालत का यह मानना है कि सूचना के अधिकार के तहत डिग्री मांगकर केजरीवाल ने इस अधिकार का बेजा इस्तेमाल किया है। यह तो जाहिर है कि केजरीवाल इसके खिलाफ ऊपरी अदालत तक जाएंगे, या जा चुके होंगे, लेकिन अब जब यह मामला अदालत से जुर्माना सुन चुका है, तो ऐसा लगता है कि इसका किसी किनारे पहुंच जाना ही ठीक होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पढ़ाई कितनी हुई है, यह किसी भी तरह की संवैधानिक जरूरत नहीं है। लेकिन चुनाव आयोग में दाखिल कागजातों में कोई छोटी-मोटी गड़बड़ी रहने पर भी लोगों के चुनाव खारिज होते रहे हैं। प्रधानमंत्री देश के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण नेता होते हैं, इसलिए उनके स्तर पर सार्वजनिक जीवन के पैमानों का सबसे अधिक कड़ाई से इस्तेमाल भी होना चाहिए, उसी से बाकी देश के सामने एक मिसाल खड़ी हो सकती है। हम पढ़ाई और डिग्री की जरूरत को खारिज करते हुए भी इस मांग को सही मानते हैं कि प्रधानमंत्री को अपनी डिग्री दिखा देनी चाहिए। जो लोग सार्वजनिक जीवन में हैं, और सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर हैं, उनसे जुड़े हुए किसी भी मामले में शक की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए। और यह बात उनके निजी पारिवारिक जीवन की कोई बात नहीं है, यह बात पढ़ाई और यूनिवर्सिटी की डिग्री की है, जिसे न दिखाने की क्या वजह हो सकती है? हम आम आदमी पार्टी के जेल में बंद भूतपूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के लिखकर भेजे गए एक बयान को खारिज करते हैं कि प्रधानमंत्री पढ़े-लिखे नहीं हैं, इसलिए वे तरह-तरह की अवैज्ञानिक बातें करते हैं, और इससे देश का अपमान होता है। अवैज्ञानिक बातों के लिए लोगों का अनपढ़ होना जरूरी नहीं होता, हमने तो विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. मुरली मनोहर जोशी को खड़े होकर बाबरी मस्जिद गिरवाते देखा है, जिनकी पीठ पर लदी हुई उमा भारती वाली तस्वीर आज भी किसी भी इंटरनेट सर्च में सबसे पहले सामने आ जाती है। हमने विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे डॉ. प्रवीण तोगडिय़ा के अनगिनत धर्मान्ध, साम्प्रदायिक, और अवैज्ञानिक बयान पढ़े हैं, और वे तो पेशे से एक कैंसर सर्जन बताए जाते हैं। इसलिए पढ़ाई-लिखाई से समझदारी का अनिवार्य रूप से कोई रिश्ता नहीं होता। हो सकता है कि पोस्ट ग्रेजुएट होने के बाद भी लोग आदतन अवैज्ञानिक बातें और हर तरह के झूठ बोलने की मानसिक बीमारी के शिकार हों, इसलिए डिग्री से किसी की बातों को हम अनिवार्य रूप से नहीं जोड़ते। हमारा मानना है कि प्रधानमंत्री के पास निश्चित ही पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री होगी, और जो जनचर्चा है कि वह डिग्री एंटायर पॉलिटिकल साईंस में एमए की है, तो उस पर भी शक करने की कोई वजह हमें नहीं लगती है, हो सकता है कि कोई यूनिवर्सिटी पॉलिटिकल साईंस का और विस्तार करके एंटायर पॉलिटिकल साईंस का कोर्स चलाती हो। आज हवा में जितने तरह की डिग्रियां मोदी से जुडक़र तैर रही हैं, इनको देखते हुए खुद प्रधानमंत्री को चाहिए कि सारे सुबूतों के साथ अपने तथ्य लोगों के सामने रख दें, अगर उन्होंने एंटायर पॉलिटिकल साईंस में मास्टर्स डिग्री पाई है, तो उसमें छुपाने का कुछ नहीं है, वे तो इस देश में चुनाव जीत-जीतकर अपने आपको एंटायर इलेक्टोरल साईंस में मास्टर साबित कर ही चुके हैं। हम केजरीवाल की मांग को और अधिक वजन देने के खिलाफ हैं, और केजरीवाल के पूरे मुद्दे को खारिज करने का काम प्रधानमंत्री खुद ही कर सकते हैं। विश्वविद्यालय इसकी जानकारी न दे, और हाईकोर्ट केजरीवाल पर जुर्माना लगाए, इन सबसे प्रधानमंत्री पद की साख पर जो संदेह खड़े होते हैं, वे लोकतंत्र के लिए अच्छे नहीं हैं। नरेन्द्र मोदी को हर बरस दर्जनों अंतरराष्ट्रीय नेताओं से मिलना होता है, और ऐसे में उनके बारे में देश-विदेश के मीडिया में ओछी बातें छपती रहें, यह ठीक नहीं है। शरद पवार ने चाहे उन्हें रियायत दी हो, मोदी को खुद होकर अपने कागज दिखाने चाहिए, क्योंकि इस देश में कागज नहीं दिखाएंगे नाम का आंदोलन तो वे लोग चला रहे हैं, जिनके बारे में एक तबका देशद्रोही, राष्ट्रविरोधी, टुकड़े-टुकड़े गैंग विशेषण इस्तेमाल करता है। प्रधानमंत्री का पद एक असाधारण सम्मान का होता है, और उन्हें इस बहस पर पूर्णविराम लगाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)