संपादकीय
मध्यप्रदेश के इंदौर में एक 12 बरस के बच्चे को पीटा गया, जयश्रीराम, और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने को मजबूर किया गया, और उसके कपड़े उतारे गए, और वीडियो बनाकर फैलाया गया। यह सब कुछ मध्यप्रदेश के इस कारोबारी राजधानी के शहर के बीच हुआ। बताया जा रहा है कि ऐसा कुछ लोगों ने किया, लेकिन पुलिस ने जो जुर्म दर्ज किया है उसमें ऐसा करने वाले आरोपी को भी नाबालिग बताया है। हम बिना किसी और जानकारी के पुलिस के कहे हुए को गलत करार देना नहीं चाहते, लेकिन इस घटना पर जाना चाहते हैं जिसमें अगर बड़े लोग शामिल हैं तो भी, और अगर किसी नाबालिग ने ऐसा किया है, तो भी यह कैसा खतरनाक माहौल है इस पर सोचने की जरूरत है।
ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश में इस किस्म की साम्प्रदायिक हरकत नई हो। जिस प्रदेश में बड़े-बड़े नेता और सरकारी-संवैधानिक ओहदों पर बैठे हुए लोग लगातार साम्प्रदायिक बातें करते हैं, जहां पर सरकार का रूख देखकर पुलिस भी एक चुनिंदा अल्पसंख्यक समुदाय के मकान-दुकान गिराने के लिए बुलडोजर और मशीनें लेकर पहुंचती है, वहां पर एक बच्चे के साथ अगर ऐसा हो गया है, तो वह जुर्म के लिहाज से कितना भी गंभीर क्यों न हों, मध्यप्रदेश की आज की संस्कृति के हिसाब से जरा भी असाधारण बात नहीं है, वहां का माहौल ही ऐसा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि बड़े लोगों की नफरत अब छोटे बच्चों तक भी पहुंच रही है, और बच्चों को शिकार बनाया जा रहा है, और अगर पुलिस का कहना सही है, और आरोपी भी नाबालिग है, तो यह एक नए खतरे की शुरुआत है कि अब कमउम्र बच्चे भी इस किस्म की साम्प्रदायिक हिंसा और नफरत में जुट गए हैं। यह हैरानी की बात बिल्कुल नहीं है क्योंकि जहां बड़े-बड़े लोग रात-दिन सिर्फ नफरत की लपटें मुंह से निकाल रहे हैं, तो वहां उनके बच्चों पर ऐसा असर होना ही था।
हम बार-बार यह बात लिखते हैं कि लोग चाहें तो अपने बच्चों के लिए विरासत में मकान-दुकान छोडक़र न जाएं, लेकिन उनके लिए कम से कम एक महफूज दुनिया जरूर छोड़ें। आज वह हाल नहीं दिख रहा है। आज देश के बहुसंख्यक तबके को उसी की निर्वाचित सरकार के राज में लगातार खतरे में बताया जा रहा है, लगातार उसे अल्पसंख्यकों का खतरा दिखाया जा रहा है, और हकीकत में असली खतरा तो अल्पसंख्यकों पर खड़ा किया गया है, उन पर हमले जारी हैं, और अब उनमें से एक के बच्चे के साथ देश के एक प्रमुख कारोबारी शहर के बीच ऐसी हिंसा हुई है कि उसके कपड़े उतारकर उससे धार्मिक नारे लगवाकर उसका वीडियो बनाया गया है, और अब पुलिस यह वीडियो न फैलाने की अपील कर रही है। अब वह कौन सा समुदाय होगा, कौन सा परिवार होगा जो कि अपने बच्चों के साथ हुए ऐसे सुलूक को आसानी से भूल सकेगा, और अपने इरादों पर काबू पा सकेगा। और कोई अगर यह सोचते हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय गिनती में कम है, और उसके साथ कैसा भी सुलूक किया जाए, वह बहुसंख्यकों का कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा, तो यह एक खुशफहमी है। एक सीमा से ज्यादा हिंसा झेलने के बाद किसी भी समुदाय के मन में हिंसा की बात आ सकती है, और वह दिन इस देश के अमन-चैन के लिए खतरनाक होगा।
इसके पहले भी देश भर में जगह-जगह कई बुजुर्ग मुस्लिमों को दाढ़ी पकडक़र मारा-पीटा गया, और उनसे हिन्दू देवी-देवताओं के जय-जयकार के नारे लगवाए गए। यह साम्प्रदायिक हिंसा करने वाले लोग अपना खुद का वीडियो बनाकर उसे चारों तरफ फैलाते भी रहे। इससे उनके इरादों के साथ-साथ उनका हौसला भी दिखता है कि कई प्रदेशों में या इस पूरे देश में उन्हें कानून के राज की कोई परवाह नहीं है। अब इंदौर जैसे शहर में अगर ऐसा वीडियो बनाकर लोग फैला रहे हैं, तो हमारा मानना है कि मध्यप्रदेश के हाईकोर्ट या देश के सुप्रीम कोर्ट की यह जिम्मेदारी है कि इस पर राज्य सरकार को नोटिस भेजकर जवाब मांगे। राज्य सरकार अभी इस पर कोई फिक्र करते नहीं दिख रही है, क्योंकि देश के अधिकतर प्रदेशों में सरकारों को अपनी पुलिस की साजिश की ताकत पर बहुत भरोसा होता है कि वह ऐसे किसी भी मामले को दबाने या मोडऩे में माहिर रहती है। और इसके साथ-साथ एक दूसरी चीज यह भी है कि देश और अधिकतर प्रदेशों में आज मानवाधिकार आयोग, बाल संरक्षण आयोग या परिषद, महिला आयोग, या एसटी-एससी आयोग उनमें मनोनीत राजनेताओं की वजह से लोकतंत्र के किसी काम के नहीं रह गए हैं। वे सत्ता की मदद के लिए किसी भी जुल्म और ज्यादती को कुचलने वाले लोग रह गए हैं। ऐसे में जिस मकसद से ऐसी संवैधानिक संस्थाओं को बनाया गया है उस मकसद की ही शिकस्त की गारंटी ये संस्थाएं तय कर देती हैं।
हिन्दुस्तान के लोगों को, खासकर बहुसंख्यक समाज को यह सोचना चाहिए कि वे तो पौन सदी से इस देश में सुरक्षित ही थे, आज हिन्दूवादी सरकार के रहते हिन्दू जितने असुरक्षित बताए जा रहे हैं, उतने खतरे में तो वे कभी भी नहीं थे। आज बहुसंख्यक समाज पर सीधे तो कोई खतरा नहीं है, लेकिन जिस तरह की हिंसा को उसमें बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे यह बात साफ है कि पूरे का पूरा लोकतंत्र खतरे में आने वाला है, शायद आ चुका है। इससे उबरने में हो सकता है कि एक से अधिक पीढिय़ां लग जाएं, क्योंकि नफरत को फैलाना आसान होता है, नफरत में फेविकोल के मजबूत जोड़ की तरह लोगों को जोडऩे की ताकत बहुत रहती है, और मोहब्बत जब तक अपने जूते के तस्मे बांधती रहती है, नफरत पूरे शहर का एक दौरा करके आ जाती है। इसलिए आज नफरत बढ़ाने वाले लोग याद रखें कि वे अपनी आने वाली पीढिय़ों के लिए एक खतरा छोडक़र जाने वाले हैं। हमारे कम लिखे को अधिक समझा जाए, वरना बीमार को पार समझा जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ट्विटर के मालिक एलन मस्क इस कंपनी को खरीदने के पहले से अभिव्यक्ति की आजादी, बल्कि पूरी आजादी के कड़े हिमायती रहे हैं, और उसी के चलते जब उन्होंने ट्विटर खरीदने के बाद काम खुद देखना चालू किया, तो बहुत से बंद कर दिए गए अकाउंट भी उन्होंने खोल दिए कि लोगों को अधिक आजादी मिलनी चाहिए। इनमें हिंसा की बात करने वाले लोग भी थे, और अलोकतांत्रिक बात करने वाले भी। लेकिन उनका यह मानना है कि हिन्दुस्तान में सोशल मीडिया कानून इतना कड़ा बनाया गया है कि यहां काम करना मुश्किल है। बीबीसी को दिए एक लंबे इंटरव्यू में उन्होंने बहुत से दूसरे जवाबों के साथ-साथ भारत के बारे में भी कहा कि यहां पर हिन्दुस्तानियों को अमरीका या पश्चिमी देशों की तरह की सोशल मीडिया आजादी दे पाना मुमकिन नहीं है, और सरकार के हुक्म न मानने पर भारत में ट्विटर कर्मचारियों को जेल जाना होगा। उन्होंने कहा इसलिए वे अपने कर्मचारियों को जेल भेजने के बजाय भारत के नियमों को मान रहे हैं। उन्होंने यह बात इस सवाल के जवाब में कही कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री से जुड़े हुए ट्वीट ट्विटर ने ब्लाक कर दिए थे।
मुद्दा अकेले ट्विटर का नहीं है, मुद्दा हिन्दुस्तान में सरकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक का है। अभी दो-चार दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला दिया है जिसमें केन्द्र सरकार ने केरल के एक मलयालम समाचार चैनल का लाइसेंस नवीनीकरण करने से मना कर दिया था। बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो अदालत ने यह पाया कि केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय ने अपने खुफिया विभागों की कुछ रिपोर्ट का हवाला देते हुए नवीनीकरण से मना कर दिया था, और ऐसी रिपोर्ट अदालत को भी बताने से इंकार कर दिया था। अदालत ने इस तर्क को गलत पाया कि इस चैनल की कंपनी में जिन लोगों के शेयर हैं, उनका किसी इस्लामिक संगठन से कुछ लेना-देना है। अदालत ने पाया कि न तो यह संगठन प्रतिबंधित है, और न ही केन्द्र सरकार यह साबित कर सकी कि इस चैनल की कंपनी के शेयर होल्डरों का इस संगठन से कुछ लेना-देना है। यह तर्क देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की खुफिया रिपोर्ट की कमर ही तोड़ दी।
अदालत ने कहा कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस तरह से रोका नहीं जा सकता। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की बेंच ने यह फैसला दिया जिसमें बड़े खुलासे से मीडिया के महत्व का बखान किया गया है। अदालत ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए जनता के बुनियादी हक नहीं छीने जा सकते। यहां यह जिक्र जरूरी है कि हिन्दुस्तान में मीडिया के अलग से कोई हक नहीं है, और एक नागरिक के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों का उपयोग करके ही अखबार निकलते हैं, या मीडिया के दूसरे कारोबार चलते हैं। टीवी समाचार चैनलों के लिए देश में यह शर्त है कि उन्हें शुरू करने की उनके लाइसेंस के लिए गृह मंत्रालय की सुरक्ष मंजूरी लगती है। इस सुनवाई के दौरान भी गृह मंत्रालय ने जब सीलबंद लिफाफे में कागजात दाखिल किए, तो सुप्रीम कोर्ट ने इस आदत की भी जमकर आलोचना की। इसके साथ-साथ केरल हाईकोर्ट के फैसले की भी बुरी तरह आलोचना की। यह फैसला मुख्य न्यायाधीश ने खुद लिखा, और कहा कि केन्द्र सरकार ने यह स्पष्ट करने की भी कोई कोशिश नहीं की कि किस तरह तथ्यों को छुपाना राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में होगा। फैसले में कहा गया कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा को जनता को कानून से मिले हुए हक छीनने के लिए इस्तेमाल कर रही है, और यह कानून के राज में नहीं होने दिया जा सकता।
प्रेस के सबसे जानकार कुछ लोगों का यह कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने जितने खुलासे से इस फैसले में प्रेस के हक की वकालत की है, उसके महत्व को स्थापित किया है, वह इस मामले से परे भी देश के उन तमाम दूसरे मामलों में काम आने वाली बात है जिनमें कोई सरकार प्रेस के हक कुचल रही है। फैसले में कहा गया है कि मीडिया में सरकार की नीतियों की आलोचना किसी भी तरह से व्यवस्था-विरोधी नहीं कही जा सकती। सरकार द्वारा ऐसी भाषा का इस्तेमाल यह बताता है कि सरकार मीडिया से यह उम्मीद रखती है कि वह व्यवस्था की हिमायती रहे। फैसले में कहा गया कि प्रेस की यह ड्यूटी है कि वह सच बोले, और जनता के सामने कड़े तथ्य रखे, और लोकतंत्र में सही दिशा चुनने के लिए उनकी मदद करे।
हिन्दुस्तान में आज सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसले की बहुत जरूरत थी क्योंकि न सिर्फ केन्द्र सरकार, बल्कि कई राज्य सरकारें भी प्रेस और मीडिया पर तरह-तरह से हमले कर रही हैं। आज ऐसा लग रहा है कि सरकारें प्रेस की आजादी के खिलाफ हैं, संसद भी आज अपने असंतुलित बहुमत की वजह से केन्द्र सरकार के एक विभाग की तरह रह गई है। मीडिया नाम का कारोबार देश के सबसे बड़े कारोबारियों के हाथ में चले गया है, और पत्रकारिता या अखबारनवीसी अब कैसेट और सीडी के संगीत की तरह पुराने वक्त की बात होने जा रही है। ऐसे में अगर लोकतंत्र को बचाना, तो एक बहुत ही मजबूत सुप्रीम कोर्ट की जरूरत है, और अभी ऐसा लग रहा है कि मुख्य न्यायाधीश और उनके मातहत कम से कम कुछ और जज हौसले के साथ अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। ऐसे में इस फैसले में मुख्य न्यायाधीश के लिखे हुए इस वाक्य पर ध्यान देना चाहिए कि लोकतंत्र में प्रेस की क्या ड्यूटी है। अगर मीडिया कहे जाने वाले बड़े-बड़े संस्थान यह जिम्मा नहीं भी उठाते हैं, तो भी सोशल मीडिया और इंटरनेट पर मिली आजादी का इस्तेमाल करते हुए पत्रकारों को अपने पेशे से लोकतंत्र की उम्मीदें पूरी करनी चाहिए।
हिन्दुस्तान की सरहद से लगे हुए पुराने वक्त के बर्मा, और आज के म्यांमार का भारत से बड़ा गहरा संबंध रहा है। हिन्दुस्तानियों का वहां जाकर काम करना, कारोबार करना भी इतना आम था कि एक हिन्दी फिल्म का एक गाना ही था, मेरे पिया गए रंगून वहां से किया है टेलीफून...। ऐसे पड़ोसी देश में पिछले कुछ बरसों से फौजी तानाशाही की हुकूमत के चलते न सिर्फ लोकतंत्र खत्म है, बल्कि वहां से निकाले गए रोहिंग्या शरणार्थियों का बहुत बड़ा बोझ बांग्लादेश पर पड़ा है। वहां लाखों रोहिंग्या शरणार्थी पहुंचकर रह रहे हैं, और बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर, वहां की जिंदगी पर इनका बड़ा बोझ भी है। अब कल म्यांमार के एक गांव में सेना के खिलाफ काम करने वाले एक राजनीतिक संगठन के दफ्तर का उद्घाटन हो रहा था, और वहां मौजूद भीड़ पर फौजी हेलीकॉप्टर से बम गिराया गया, गोलियों से हमला किया गया, और इसमें 50 से 100 के बीच मौतों का अंदाज है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस हमले को लेकर फिक्र जाहिर की है, लेकिन अब तक हिन्दुस्तान ने इस पर शायद कुछ नहीं कहा है। रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमान हैं, और भारत में उनकी थोड़ी सी मौजूदगी को लेकर हिन्दुत्ववादी तबके हमलावर रहते हैं, और जहां कहीं मुस्लिमों की मौजूदगी रहती है वहां उनके नाम के साथ पहले बांग्लादेशी शरणार्थी जोड़ दिया जाता था, अब रोहिंग्या शरणार्थी जोड़ दिया जा रहा है।
म्यांमार की हकीकत को भारत पता नहीं कब तक अनदेखा करते रहेगा, और जुबान बंद रखेगा। कुछ खबरें तो ऐसी भी हैं कि म्यांमार पर जो अंतरराष्ट्रीय रोक लगाई गई है, उसके चलते वहां की फौजी हुकूमत दूसरे देशों से हथियार नहीं खरीद रही है, लेकिन उसकी कुछ किस्म की फौजी मदद हिन्दुस्तान भी कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत के रूख को लेकर लगातार लिखा जा रहा है कि वह लोकतंत्र की बात जरूर करता है लेकिन म्यांमार में वह फौजी तानाशाही का साथ दे रहा है। हिन्दुस्तान थोड़े से जुबानी जमा-खर्च के लिए हिंसा की बड़ी घटनाओं पर कुछ बोल लेता है, लेकिन वह व्यवहार में वहां के फौजियों के साथ है। इसके पीछे यह भी एक वजह हो सकती है कि अगर वह म्यांमार के किसी भी तरह के शासकों को साथ नहीं रखेगा, तो उनके चीन के करीब जाने की नौबत रहेगी। शायद ऐसी नौबत से बचने के लिए भारत को म्यांमार की सरकारी हिंसा पर मोटेतौर पर चुप्पी रखना बेहतर लग रहा है। लेकिन दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि अगर दोस्त देश भी बड़े पैमानों पर मानवाधिकार का हनन करते हैं, तो उस पर रखी गई चुप्पी अच्छी तरह दर्ज होती है। हालत यह है कि म्यांमार चार लोकतंत्रवादी कार्यकर्ताओं को पिछले बरस जब मौत की सजा दी गई, तो भारत में बसे हुए म्यांमार के सौ-दो सौ लोग उस पर जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना चाहते थे, और सरकार ने आखिरी वक्त पर प्रदर्शन की इजाजत वापिस ले ली। भारत के उत्तर-पूर्व में मिजोरम में कुछ म्यांमार-शरणार्थियों को स्थानीय स्तर पर जगह दी गई है, लेकिन भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शरणार्थियों के लिए बने दस्तावेज पर दस्तखत के बाद भी इनके लिए कुछ करते नहीं दिख रही है। इसके साथ जब 1971 में पूर्वी पाकिस्तान से भारत में आए हुए लाखों शरणार्थियों को देखें, तो भारत ने उस वक्त एक बड़ी दरियादिली दिखाई थी, और वह इंसानियत आज गायब है।
म्यांमार की हालत अगर देखें, तो वहां पर फौज ने नोबल शांति पुरस्कार विजेता प्रधानमंत्री आंग-सान-सू-की की निर्वाचित सरकार को 2021 में पलट दिया था, और दो साल के लिए इमरजेंसी लगा दी थी। फौजी हुकूमत ने अब तक हजारों लोगों को मार डाला है, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की फिक्र, रोक, और उसके विरोध के बावजूद यहां के फौजी शासक जुल्म और ज्यादती का दौर चलाए हुए हैं। वहां पर जनता के ऊपर हवाई हमले कई बार देखने में आते हैं, और उनमें सैकड़ों लोग मारे जा रहे हैं। दसियों लाख लोग अपने घर और गांव छोडक़र बेदखल होने को बेबस किए गए हैं, और वहां पर रोहिंग्या मुस्लिम आबादी को अवांछित जनता करार देकर उनके गांव के गांव जलाकर लोगों को देश छोडऩे पर मजबूर किया जा रहा है। हिन्दुस्तान जैसे पड़ोसी देश को चीनी सरहद पर अपनी रणनीतिक जरूरतों को देखने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के प्रति अपनी जवाबदेही भी देखनी चाहिए। किसी देश को इस तरह का रूख इतिहास में महानता का दर्जा नहीं दिला सकता। यह बात सही है कि देश की विदेश और फौजी रणनीति हमेशा ही नैतिकता पर नहीं चल सकती, लेकिन इतनी लंबी चुप्पी की अनैतिकता भी ठीक नहीं है।
पूरी दुनिया के सामने एक ताजा मिसाल है कि किस तरह खाड़ी के देशों में एक-दूसरे के खिलाफ कट्टर दुश्मन बने हुए ईरान और सऊदी अरब को चीन ने न सिर्फ बातचीत की टेबिल पर लाया, बल्कि इनके बीच रिश्ते कायम करवाए। और नतीजा यह है कि अमरीका जैसी पश्चिमी ताकतें देखते रह गईं, और कल तक उनके प्रभामंडल वाला सऊदी अरब आज चीन के असर से, कट्टर अमरीका-विरोधी ईरान के साथ चले गया है। यह एक किस्म से दशकों की अमरीकी नीति और मेहनत की शिकस्त है, और चीन की बहुत बड़ी अंतरराष्ट्रीय जीत भी है। आज हालत यह है कि ताजा-ताजा दोस्त बने ईरान और सऊदी अरब साथ बैठकर बगल के यमन में चल रहे लंबे गृहयुद्ध को खत्म करवाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें बागियों को ईरानी मदद बताई जाती थी। इस तरह इन दोनों देशों के गठजोड़ से इस पूरे इलाके में एक नया प्रभामंडल बनने का आसार दिख रहा है जो कि दुनिया के इस हिस्से में अमरीका के पिट्ठू इजराइल के लिए खतरा भी हो सकता है। इसलिए म्यांमार पर महज चुप्पी हिन्दुस्तान के काम आने वाली नहीं है, उसे एक बड़े लोकतंत्र की तरह भी बर्ताव करना होगा, और अपनी फौजी जरूरतों का भी ध्यान रखना होगा। शरणार्थियों को लेकर अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत वह अपनी जिम्मेदारी की वह पहले भी अनदेखी कर चुका है। ठीक पड़ोस के इस देश के घटनाक्रम से भारत का इस तरह बेरूख रहना ठीक नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
साम्प्रदायिक तनाव से कुछ दूर रहने वाले छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ महीनों में लगातार धर्मों से जुड़ी हुई ऐसी हिंसक घटनाएं हुई हैं कि अब यह प्रदेश साम्प्रदायिक हिंसा से अछूता नहीं लग रहा है। ताजा मामला बेमेतरा जिले के बिरनपुर गांव का है, जो कि गृहमंत्री का अपना जिला है, और उसके साजा विधानसभा क्षेत्र में अभी एक साम्प्रदायिक हिंसा से मौत हुई है, यह चुनाव क्षेत्र प्रदेश के एक ताकतवर और वरिष्ठ मंत्री रविन्द्र चौबे का है। यहां हिन्दू और मुस्लिम बच्चों के बीच कुछ आपसी झगड़ा हुआ, और उसमें बाद में बड़े भी शामिल हो गए, और मारपीट में एक हिन्दू नौजवान की मौत हो गई, और घटना में शामिल आधा-एक दर्जन मुस्लिम गिरफ्तार हो गए हैं। इस मामले को लेकर विश्व हिन्दू परिषद ने प्रदेश बंद किया, जिसमें भाजपा पूरी ताकत से शामिल हुई, और यह जाहिर और स्वाभाविक ही था कि बाकी हिन्दू संगठन भी इसमें उतरे। बंद कामयाब रहा, लेकिन बंद के दौरान भी इस तनावग्रस्त इलाके में छोटी-मोटी आगजनी हुई, और पुलिस के लिए हालात काबू करना मुश्किल रहा। आज सुबह की खबर है कि इसी इलाके में दो नौजवानों की लाशें मिली हैं जो कि जंगल में बकरियां चराने गए थे।
इस मामले के कुछ पीछे जाकर देखें तो इस गांव में हिन्दू-ओबीसी समुदाय की दो बहनों ने वहीं के दो मुस्लिम लडक़ों से शादी कर ली थी, और तभी से यह तनाव सुलग रहा था। कुछ महीने हो चुके थे लेकिन बात को कोई भूले नहीं थे, और बच्चों के एक झगड़े से दबी हुई हिंसक-नफरत सामने आ गई। मारपीट की हिंसा कत्ल के मकसद वाली नहीं दिख रही, लेकिन उसमें मौत हो गई। आज पूरे देश में जो साम्प्रदायिक तनाव फैला हुआ है, उसे देखते हुए छत्तीसगढ़ की यह ताजा हिंसा अनदेखी तो रहने वाली नहीं थी, और एक हिन्दू नौजवान की मौत के खिलाफ कल प्रदेश बंद एक बड़ी स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। छत्तीसगढ़ में चुनाव कुछ ही महीने बाद है, और ऐसे में यह घटना हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिए एक बड़ी वजह बन सकती है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि ठीक बगल के जिले कबीरधाम में पिछले साल-दो साल में लगातार कई बार हिन्दू-मुस्लिम टकराव हुआ है, और सार्वजनिक जगहों पर हिंसा भी हुई, जो कि गनीमत है कि किसी मौत तक नहीं पहुंची थी। कबीरधाम के पास के इस गांव में इस साम्प्रदायिक टकराव पर पड़ोस के साम्प्रदायिक तनाव का असर पडऩा ही था, और ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लोगों को इस तनाव को घटाने के लिए जितनी मेहनत करनी चाहिए थी, वह नहीं की। और यह काम किसी घटना के होने के साथ ही होने का नहीं है, इसके लिए महीनों और बरसों की लगातार मेहनत लगती है, और उस किस्म की मेहनत करने वाले वामपंथी पार्टियों के लोग राजनीति के हाशिए पर जा चुके हैं, सत्तारूढ़ कांग्रेस के लोग सत्ता के फल चखने में लगे हुए हैं, और भाजपा के लोगों के पास एक राष्ट्रीय एजेंडा है ही।
लेकिन बात सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम तनाव की नहीं है। छत्तीसगढ़ में दो और तरह के तनाव राज्य के दक्षिण और उत्तर के आदिवासी इलाकों में चल रहे हैं। बस्तर में आदिवासियों के भीतर ही इस बात को लेकर बड़ा तनाव चल रहा है कि उनमें से कुछ लोग ईसाई बन रहे हैं। कई गांवों में ऐसे ईसाई-आदिवासियों की लाशों को गांव के कब्रिस्तान में दफनाने का भी विरोध हो रहा है। पहली नजर में यह आदिवासी समुदाय के भीतर से खड़ा हो रहा एक तनाव है, लेकिन इसके पीछे भी कोई ईसाई-विरोधी ताकतें शामिल होंगी तो भी उसमें हैरानी की कोई बात नहीं होगी क्योंकि आदिवासियों को हिन्दू समाज गिनती के नाम पर अपने में जरूर गिनता है। इस तनाव में होने वाली हिंसा या हिंसक घटनाओं की खबर आने पर ही लोगों को इसका अहसास हो रहा है, लेकिन यह उससे आगे बढक़र जमीन पर फैला हुआ तनाव है, जिसका पूरा अहसास बाहर अभी नहीं हो रहा है। यह फिर अगले चुनाव को खासा प्रभावित करने वाला मुद्दा हो सकता है। दूसरी तरफ राज्य के उत्तरी इलाके, सरगुजा में बताया जाता है कि एक अलग किस्म का तनाव चल रहा है, वहां बाहर से आकर बहुत से मुस्लिम बस रहे हैं, और उनके बांग्लादेशी होने, या रोहिंग्या शरणार्थी होने के आरोप लगते हैं। झारखंड से लगी हुई सरहद के किनारे के गांवों में ऐसी नई बसाहट की खबरें आती हैं, इन्हें भाजपा रोहिंग्या शरणार्थियों से जोड़ती है, और सरकार या सत्तारूढ़ कांग्रेस इन खबरों को पूरी तरह खारिज करती है। कुछ जानकार लोगों का यह मानना है कि ऐसी मुस्लिम बसाहट चल रही है, लेकिन वह कितनी बड़ी है, मुस्लिम कहां के हैं, यह अभी साफ नहीं है।
हम ऐसे किसी मामले में धर्म, जाति या सम्प्रदाय के जिक्र को छुपाने की कोशिश करने के खिलाफ हैं। इसीलिए हम साम्प्रदायिक हिंसा की खबरों में नामों का साफ-साफ जिक्र करते हैं, जब सच सामने नहीं रहता, तो सौ किस्म की अफवाहें पैदा होती हैं। हम छत्तीसगढ़ में इन तीन अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग वजहों से खड़े हो चुके तनावों को महज चुनाव से जोडक़र देखना नहीं चाहते। यह राज्य हमेशा से साम्प्रदायिक शांति का टापू बने रहा है। जब आसपास के बहुत से राज्य जलते-सुलगते रहते हैं, तब भी छत्तीसगढ़ ने बड़ा बर्दाश्त दिखाया है। ऐसे में मरने-मारने तक पहुंचा हुआ यह साम्प्रदायिक तनाव इस राज्य के लिए शर्मनाक है, और सरकार के लिए एक बड़ी दिक्कत भी है, खतरा भी है। यह मौका उन सामाजिक-राजनीतिक नेताओं के दखल का है जिनकी जनता के बीच साख है, अब भी बाकी है। दिक्कत यही है कि ऐसी साख वाले लोग कम हैं, और जो हैं वे हाशिए पर हैं। बेसाख नेताओं के किए कुछ होना नहीं है, और साम्प्रदायिक हिंसा की आग में जनता ही झुलसेगी, कोई नेता तो झुलसेंगे नहीं। यह बात साफ समझ लेनी चाहिए कि पुलिस की सीधी भागीदारी के बिना अगर ऐसा तनाव हुआ है, तो उसे लेकर पुलिस पर तोहमत नहीं लगाई जा सकती, और नेताओं को अपनी नाकामयाबी का जिम्मा खुद लेना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज एक खबर से हिन्दुस्तान में दो मुद्दे उठ खड़े हो रहे हैं। यह खबर एनसीपी के मुखिया शरद पवार का ताजा बयान है जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से डिग्री दिखाने की मांग करते हुए आम आदमी पार्टी के चलाए जा रहे अभियान को राजनीतिक मुद्दा मानने से इंकार कर दिया है। उन्होंने कहा है कि केन्द्र सरकार की आलोचना, बेरोजगारी, कानून व्यवस्था, महंगाई जैसे मुद्दों पर होनी चाहिए, लोगों के बीच धर्म और जाति के नाम पर पैदा की जा रही दरारों की बात उठानी चाहिए, बेमौसम बरसात से फसल खराब हुई है उस पर बात होनी चाहिए, डिग्री भी कोई मुद्दा है?
शरद पवार का बयान तो यह एक है, लेकिन इससे दो बातें उठ रही हैं। अभी दो दिन पहले ही उन्होंने संसद में 20 विपक्षी दलों की उठाई गई इस मांग को खारिज कर दिया कि अडानी के खिलाफ जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में बनी जांच कमेटी बेहतर काम कर सकती है। उनके इस बयान को कांग्रेस सहित बाकी तमाम विपक्षी दलों के लिए एक झटका माना गया क्योंकि एनसीपी न सिर्फ इन विपक्षी दलों में गिनी जाती है, बल्कि महाराष्ट्र में तो वह कांग्रेस के साथ गठबंधन में भी है। ऐसे में पवार के बयान को अडानी को ताकत देने वाला, मोदी को असुविधा से निकालने वाला, और विपक्षी एकता को झटका देने वाला माना गया। अब आज फिर उनका यह बयान ऐसा माहौल बना रहा है कि वे आम आदमी पार्टी के आज के सबसे बड़े राजनीतिक मुद्दे को खारिज करके एक बार फिर विपक्ष में दरार खड़ी कर रहे हैं। इन दो बातों को जब जोडक़र देखा जाए, तो पहली नजर में ऐसा लगता है कि शरद पवार शायद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बिना लिखे हुए एक क्लीनचिट दे रहे हैं, हालांकि पवार को संदेह का लाभ दिया जाए, तो यह भी माना जा सकता है कि वे इन मुद्दों पर एक सैद्धांतिक असहमति रखते हैं, और यह असहमति बिना मोदी-मदद की नीयत के, एक ईमानदार असहमति है। लेकिन दूसरी नजर में देखें तो लगातार दो ऐसे बयान साबित करते हैं कि इसके पीछे पवार का कुछ जोड़-घटाना भी है क्योंकि राजनीति इतनी मासूमियत और इतनी संतई का पेशा तो है नहीं। पवार को भी मालूम है कि इन दो बयानों से विपक्ष को झटका लगेगा, और नरेन्द्र मोदी को ताकत मिलेगी।
यह तो एक बात हुई, लेकिन इससे परे एक दूसरी बात भी इस बयान के बाद उठती है। पवार ने तो यह खारिज कर दिया है कि प्रधानमंत्री की डिग्री कोई मुद्दा नहीं है, लेकिन आम आदमी पार्टी के लिए यह मुद्दा इज्जत का सवाल इसलिए बना हुआ है कि मोदी से उनकी डिग्री दिखाने की मांग करने वाले अरविंद केजरीवाल पर गुजरात हाईकोर्ट ने 25 हजार रूपये जुर्माना लगाया है, अदालत का यह मानना है कि सूचना के अधिकार के तहत डिग्री मांगकर केजरीवाल ने इस अधिकार का बेजा इस्तेमाल किया है। यह तो जाहिर है कि केजरीवाल इसके खिलाफ ऊपरी अदालत तक जाएंगे, या जा चुके होंगे, लेकिन अब जब यह मामला अदालत से जुर्माना सुन चुका है, तो ऐसा लगता है कि इसका किसी किनारे पहुंच जाना ही ठीक होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पढ़ाई कितनी हुई है, यह किसी भी तरह की संवैधानिक जरूरत नहीं है। लेकिन चुनाव आयोग में दाखिल कागजातों में कोई छोटी-मोटी गड़बड़ी रहने पर भी लोगों के चुनाव खारिज होते रहे हैं। प्रधानमंत्री देश के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण नेता होते हैं, इसलिए उनके स्तर पर सार्वजनिक जीवन के पैमानों का सबसे अधिक कड़ाई से इस्तेमाल भी होना चाहिए, उसी से बाकी देश के सामने एक मिसाल खड़ी हो सकती है। हम पढ़ाई और डिग्री की जरूरत को खारिज करते हुए भी इस मांग को सही मानते हैं कि प्रधानमंत्री को अपनी डिग्री दिखा देनी चाहिए। जो लोग सार्वजनिक जीवन में हैं, और सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर हैं, उनसे जुड़े हुए किसी भी मामले में शक की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए। और यह बात उनके निजी पारिवारिक जीवन की कोई बात नहीं है, यह बात पढ़ाई और यूनिवर्सिटी की डिग्री की है, जिसे न दिखाने की क्या वजह हो सकती है? हम आम आदमी पार्टी के जेल में बंद भूतपूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के लिखकर भेजे गए एक बयान को खारिज करते हैं कि प्रधानमंत्री पढ़े-लिखे नहीं हैं, इसलिए वे तरह-तरह की अवैज्ञानिक बातें करते हैं, और इससे देश का अपमान होता है। अवैज्ञानिक बातों के लिए लोगों का अनपढ़ होना जरूरी नहीं होता, हमने तो विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. मुरली मनोहर जोशी को खड़े होकर बाबरी मस्जिद गिरवाते देखा है, जिनकी पीठ पर लदी हुई उमा भारती वाली तस्वीर आज भी किसी भी इंटरनेट सर्च में सबसे पहले सामने आ जाती है। हमने विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे डॉ. प्रवीण तोगडिय़ा के अनगिनत धर्मान्ध, साम्प्रदायिक, और अवैज्ञानिक बयान पढ़े हैं, और वे तो पेशे से एक कैंसर सर्जन बताए जाते हैं। इसलिए पढ़ाई-लिखाई से समझदारी का अनिवार्य रूप से कोई रिश्ता नहीं होता। हो सकता है कि पोस्ट ग्रेजुएट होने के बाद भी लोग आदतन अवैज्ञानिक बातें और हर तरह के झूठ बोलने की मानसिक बीमारी के शिकार हों, इसलिए डिग्री से किसी की बातों को हम अनिवार्य रूप से नहीं जोड़ते। हमारा मानना है कि प्रधानमंत्री के पास निश्चित ही पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री होगी, और जो जनचर्चा है कि वह डिग्री एंटायर पॉलिटिकल साईंस में एमए की है, तो उस पर भी शक करने की कोई वजह हमें नहीं लगती है, हो सकता है कि कोई यूनिवर्सिटी पॉलिटिकल साईंस का और विस्तार करके एंटायर पॉलिटिकल साईंस का कोर्स चलाती हो। आज हवा में जितने तरह की डिग्रियां मोदी से जुडक़र तैर रही हैं, इनको देखते हुए खुद प्रधानमंत्री को चाहिए कि सारे सुबूतों के साथ अपने तथ्य लोगों के सामने रख दें, अगर उन्होंने एंटायर पॉलिटिकल साईंस में मास्टर्स डिग्री पाई है, तो उसमें छुपाने का कुछ नहीं है, वे तो इस देश में चुनाव जीत-जीतकर अपने आपको एंटायर इलेक्टोरल साईंस में मास्टर साबित कर ही चुके हैं। हम केजरीवाल की मांग को और अधिक वजन देने के खिलाफ हैं, और केजरीवाल के पूरे मुद्दे को खारिज करने का काम प्रधानमंत्री खुद ही कर सकते हैं। विश्वविद्यालय इसकी जानकारी न दे, और हाईकोर्ट केजरीवाल पर जुर्माना लगाए, इन सबसे प्रधानमंत्री पद की साख पर जो संदेह खड़े होते हैं, वे लोकतंत्र के लिए अच्छे नहीं हैं। नरेन्द्र मोदी को हर बरस दर्जनों अंतरराष्ट्रीय नेताओं से मिलना होता है, और ऐसे में उनके बारे में देश-विदेश के मीडिया में ओछी बातें छपती रहें, यह ठीक नहीं है। शरद पवार ने चाहे उन्हें रियायत दी हो, मोदी को खुद होकर अपने कागज दिखाने चाहिए, क्योंकि इस देश में कागज नहीं दिखाएंगे नाम का आंदोलन तो वे लोग चला रहे हैं, जिनके बारे में एक तबका देशद्रोही, राष्ट्रविरोधी, टुकड़े-टुकड़े गैंग विशेषण इस्तेमाल करता है। प्रधानमंत्री का पद एक असाधारण सम्मान का होता है, और उन्हें इस बहस पर पूर्णविराम लगाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के आगरा में अभी एक भयानक मामला हुआ। रामनवमी के दिन वहां मुसलमानों के खिलाफ एक तनाव खड़ा करने के लिए उसके कुछ दिन पहले वहां मुस्लिम नाम वाले एक इलाके में एक गाय काटी गई, और उसे लेकर कुछ मुस्लिमों के खिलाफ हिन्दू महासभा की ओर से पुलिस रिपोर्ट लिखाई गई। उत्तरप्रदेश की योगी सरकार की पुलिस ने जब मामले की जांच की, तो पता लगा कि अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता संजय जाट ने कुछ हिन्दू और कुछ मुस्लिम लडक़ों के साथ मिलकर यह गाय काटी, और कुछ दूसरे मुस्लिम लोगों के खिलाफ रिपोर्ट लिखा दी जिनसे कि उसका झगड़ा चल रहा था। मकसद यह था कि रामनवमी के मौके पर हिन्दू-मुस्लिम तनाव फैले, और इस मामले का भांडाफोड़ होने के बाद ऐसा भी माना जा रहा है कि इससे प्रदेश में जगह-जगह तनाव हो सकता था। पुलिस की जांच में यह पता लगा कि जिन बेकसूर मुस्लिम लोगों के खिलाफ यह रिपोर्ट लिखाई गई थी, वे पिछले एक महीने में इस इलाके में गए भी नहीं थे, और जाहिर है कि इस वारदात के वक्त तो वे वहां से दूर थे ही।
अब अगर यह यूपी की पुलिस नहीं होती, तो भी यह माना जा सकता था कि शायद किसी राज्य की पुलिस मुस्लिमों को बचाने के लिए ऐसा कर रही है, लेकिन जब योगी सरकार की पुलिस इस पूरे मामले को उजागर करे, तो फिर इसमें शक करने की कोई वजह नहीं बचती है। अब यह कल्पना की जाए कि पुलिस ने इसे वक्त रहते पकड़ नहीं लिया रहता, तो आज कितना तनाव हुआ रहता? और यह बात सिर्फ उत्तरप्रदेश में हो ऐसा भी नहीं है। छत्तीसगढ़ की आज सामने आई एक जानकारी देखें तो एक वरिष्ठ पत्रकार ने आज लिखा है कि यहां के कबीरधाम जिले में गोमांस की बिक्री के आरोप में गिरफ्तार किए गए छह के छह लोग हिन्दू हैं। इसी तरह एक दूसरे जिले बलौदाबाजार में भी गोमांस के साथ जिसे गिरफ्तार किया गया है, वह भी हिन्दू है। यह हाल देखकर उन मुस्लिमों की याद आती है जिन्हें देश में जगह-जगह किसी भी मांस के साथ पकडक़र, गोमांस का आरोप लगाकर उनकी भीड़त्या की जा चुकी है। हर कुछ हफ्तों में देश के किसी न किसी हिन्दी या हिन्दू राज्य में ऐसी वारदात सामने आती है, और गरीब मुस्लिम के कत्ल से खबर उतनी बड़ी नहीं बनती, जितनी कि किसी अमीर हिन्दू के कत्ल से बन सकती थी। लेकिन एक पूरे समाज के कलेजे पर इससे जख्म तो आता ही है।
देश में साम्प्रदायिक तनाव और धार्मिक उन्माद का हाल यह है कि अगर गाय को मारने, गोमांस बेचने के मामलों के पीछे कोई मुस्लिम नाम आता, तो देश भर में उसके खिलाफ बयानबाजी शुरू हो जाती, सोशल मीडिया पर हमलों का सैलाब आ जाता। लेकिन चूंकि इस मामले हिन्दू ही शामिल हैं, हिन्दू महासभा जैसा चर्चित संगठन इसके पीछे है, और पूरी साजिश सीएम योगी की पुलिस उजागर कर चुकी है, इसलिए अभी सबकी बोलती बंद है। जो लोग गाय को पूजनीय मानकर उसके नाम पर मरने-मारने पर उतारू रहते हैं उनको तो कम से कम आज चुप नहीं रहना चाहिए, और हिन्दू महासभा के ऐसे नेताओं को फांसी देने की मांग करने का यह एक सही मौका है। फांसी का यह सुझाव हम अपनी तरफ से नहीं दे रहे हैं, हम किसी को भी फांसी के खिलाफ हैं, लेकिन गोहत्या कर फांसी का नारा लगाने वालों को आज अपने धर्म पर भी शर्म आनी चाहिए कि उनके धर्म का नाम लेकर एक हमलावर संगठन चलाने वाला सामाजिक नेता खुद ही गाय कटवा रहा है, मुस्लिमों के खिलाफ दंगा भडक़ाने के लिए। आगरा से आने वाली खबरें बतलाती हैं कि हिन्दू महासभा का यह बड़ा नेता पहले भी वसूली और उगाही के काम में लगा हुआ था, और वह गाय-बैल-भैंस लाने ले जाने वाले कारोबारियों को रोककर उनसे वसूली करते रहता था।
गाय काटने पर भडक़ने वाले हिन्दू समुदाय को इन घटनाओं को अधिक गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि ये उसके ही लोग कर रहे हैं, और इसकी तोहमत किसी बेकसूर मुस्लिम या ईसाई पर मढक़र उसे सडक़ पर मारा जा सकता है। हम आगरा पुलिस की भी तारीफ करेंगे कि उसने साम्प्रदायिक तनाव का यह खतरा खत्म करने का काम किया, और तेजी से जांच करके गुनहगार हिन्दू नेता को पकड़ा, और बेकसूर मुस्लिमों को बरी किया। ऐसे मामले में गुनहगार पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम लगना चाहिए क्योंकि ऐसे साम्प्रदायिक तनाव से देश भर में सुरक्षा खतरे में पड़ती है।
गोमांस का मामला हिन्दुस्तान में बड़ा संवेदनशील बनाया गया है। आज भाजपा के जो सबसे आराध्य नेता हैं, उनमें से एक विनायक दामोदर सावरकर ने गाय को पवित्र मानने वाले लोगों को जमकर आड़े हाथ लिया था, और गाय को काटने की वकालत की थी। उन्होंने गाय को कुत्तों और गधों की तरह का ही एक पशु माना था, और लिखा था कि ऐसे पशु को देवता मानना मनुष्यता का अपमान करना है। उन्होंने यह भी लिखा था कि जब यह पशु उपयुक्त न रह जाए, तब उसका रहना हानिकारक होगा, और उस स्थिति में गोहत्या भी आवश्यक है। और भारत में आज वोटों की राजनीति के चलते उत्तर भारत के कुछ राज्यों में गोमांस पर भाजपा की कोई रोक नहीं है, बल्कि वहां के भाजपा अध्यक्ष सार्वजनिक रूप से यह कहते हैं कि वे गोमांस खाते हैं। यही हाल गोवा, पश्चिम बंगाल और केरल को लेकर भी सामने आता है। इन तमाम राज्यों में गोमांस खाना सामान्य प्रचलन में है, और किसी पार्टी को राजनीति करनी हो तो उसके लिए वहां इसका विरोध करना खुदकुशी करने सरीखा होगा।
हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक ताकतों की अतिसक्रियता को देखते हुए तमाम सरकारों और धर्मनिरपेक्ष लोगों को बहुत सावधान रहने की जरूरत है, वरना साम्प्रदायिक लोग खुद गाय काटेंगे, और उसके टुकड़े दिखाकर दूसरे किसी धर्म के लोगों को टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में पुलिस की जांच और अदालती इंसाफ के हाल के बारे में हम कई बार यहां लिखते हैं। मौत की सजा के खिलाफ लिखते हुए भी हमारा यही तर्क रहता है कि जहां पुलिस-जांच इतनी कमजोर हो, भ्रष्टाचार लबालब हो, अदालती व्यवस्था में ये दोनों ही खामियां एक साथ हों, वहां पर किसी गरीब की क्या औकात रहती है कि वे इंसाफ की सोच भी सकें। इसलिए इस देश से मौत की सजा हटा देनी चाहिए क्योंकि कब कोई बदनीयत से, पीछे लगकर किसी को ऐसी सजा दिलवा दे इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। ऐसा एकदम ताजा एक मामला मध्यप्रदेश से अभी आया है जिसमें छिंदवाड़ा जिले की एक लडक़ी गायब हो गई। पुलिस ने उसके कत्ल के जुर्म में उसके भाई और पिता को गिरफ्तार किया, उनके घर के पास से एक खेत में दफन एक मानव कंकाल भी पुलिस ने बरामद किया, और सात बरस की जांच के बाद अभी 2021 में पुलिस ने बाप-बेटे को ही इस कत्ल में मुजरिम ठहराते हुए गिरफ्तार कर लिया, ये दोनों एक बरस जेल में रहे। लेकिन मामले में एक नाटकीय मोड़ तब आया जब मर चुकी मानी गई यह लडक़ी लौटकर आ गई, थाने पहुंची, और उसने बताया कि वह गुस्से में घर से चली गई थी, अब वह शादीशुदा है, और दो बच्चे भी हैं। इससे एक बार फिर यही साबित होता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था बुनियादी कमजोरियों और खामियों से आजाद नहीं है, और ऐसे में इसके भरोसे किसी को फांसी सुना देना ठीक नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि जो परिवार इस एक बरस की ऐसी तकलीफ झेल चुका है, उसकी भरपाई कैसे होगी?
भारतीय न्याय व्यवस्था में एक सुधार करने की जरूरत है। बल्कि दो अलग-अलग किस्म के सुधार। इन दोनों के बारे में हम अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग लिखते आए हैं, लेकिन आज उन्हें जोडक़र देखने की जरूरत है। पहले से हमारा यह मानना है कि अगर समाज में कोई ताकतवर व्यक्ति किसी कमजोर के खिलाफ कोई जुर्म करे, तो ऐसे ताकतवर की संपन्नता से एक पर्याप्त बड़ा हिस्सा उस कमजोर को मिलना चाहिए, जिसकी जिंदगी बर्बाद हुई है। यह नुकसान तय करने के कुछ फॉर्मूले होने चाहिए, और इसी तरह मुजरिम की संपन्नता को आंकने के भी। हमारा यह भी सुझाव रहा है कि कोई अपने से कमजोर तबके की लडक़ी या महिला से बलात्कार करे, तो बलात्कारी की संपत्ति का एक हिस्सा उस गरीब को उसी तरह मिलना चाहिए, जिस तरह संपत्ति में परिवार के लोगों को हिस्सा मिलता है। अब इसके साथ-साथ यह भी होना चाहिए कि अगर कोई बेकसूर पुलिस और न्याय व्यवस्था की कमजोरी या खामी से कोई सजा भुगतते हैं, तो उन्हें इसकी भरपाई का एक सरकारी इंतजाम होना चाहिए। यह इंतजाम करने के लिए सरकार को एक फंड बनाना चाहिए, जिसमें इक_ा रकम बेगुनाह लोगों की भरपाई में काम लाई जा सके। अब चूंकि सरकारें उदार और खुली अर्थव्यवस्था पर बहुत भरोसा करती हैं, इसलिए वे ऐसे हर्जाने या मुआवजे के भुगतान के लिए कोई बीमा भी कर सकती हैं। आज भी सडक़ पर चलने वाली गाडिय़ों का ऐसा बीमा होता है जिससे कि एक्सीडेंट में नुकसान पाने वाले को उससे भरपाई की जा सके। भारतीय न्याय व्यवस्था बहुत बेकसूरों के साथ ऐसा एक्सीडेंट करवाते चलती है, और वहां भी लोगों को मुआवजे का हक बहुत जरूरी है। परिवार की लडक़ी के कत्ल के आरोप में बाप और भाई की गिरफ्तारी, और उनको अदालती कैद, यह किसी भी परिवार को तबाह करने के लिए पर्याप्त बातें हैं, और इस पर जुर्माने और हर्जाने का इंतजाम इंसाफ की बुनियादी जरूरत है।
भारत में अधिकतर जुर्म के लिए पुलिस ही अकेली जांच एजेंसी है, और इसे पिछली पौन सदी में लगातार तबाह किया गया है। अलग-अलग पार्टियों की सरकारों ने अलग-अलग प्रदेशों में इसका अंतहीन राजनीतिक इस्तेमाल किया है, और अपने विरोधियों के खिलाफ इसे जुल्म ढाने का एक हथियार बनाकर रख दिया है। जाहिर है कि अपने ऐसे बेजा इस्तेमाल के खिलाफ पुलिस कुछ उम्मीद भी करेगी, और वह उम्मीद भ्रष्टाचार की गुंजाइश वाली, मलाईदार समझी जाने वाली कुर्सियों की शक्ल में पुलिस को दी जाती है। आज देश भर में पुलिस एक बहुत ही संगठित भ्रष्टाचार की मशीनरी बन गई है, और इसके सुधरने का कोई आसार नहीं दिख रहा है। हर सरकार अपने से पहली सरकार के कुकर्मों को एक शुरूआती पैमाना मानकर उसके ऊपर भ्रष्टाचार की नई तरकीबें निकालती हैं। नतीजा यह है कि अधिकतर प्रदेशों में पुलिस की कमाऊ कुर्सियां नीलाम होती हैं, और फिर पुलिस इसी तरह बेकसूरों को धांसकर उनसे वसूली-उगाही में जुट जाती है, और संगठित अपराधों से हिफाजती-हफ्ता वसूलने लगती है। बहुत सी अदालतों में पुलिस को इन्हीं सब हरकतों के लिए आड़े हाथों लिया है, और एक हाईकोर्ट जज ने हिन्दुस्तानी पुलिस को वर्दीधारी गुंडों के गिरोह किस्म की कोई बात लिखी थी। पुलिस और अदालतों की नाकामी का यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और बेकसूर जनता को उनके जुल्मों के खिलाफ मुआवजे का हक होना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पंजाब में जिस तरह खालिस्तानी नारा एक बार फिर बुलंद होते दिख रहा है, उस पर लोगों का एक विश्लेषण यह भी है कि पंजाब में पिछले बरसों की राजनीतिक अस्थिरता के चलते हुए, कांग्रेस के अलग-अलग मुख्यमंत्रियों के रहते, और फिर आम आदमी पार्टी का मुख्यमंत्री बनते हुए प्रशासन पर राजनीतिक पकड़ कमजोर हो गई है, और खालिस्तान-समर्थक फिर से सिर उठा रहे हैं। आज की एक अखबार की खबर यह है कि इस बार वहां अराजकता खड़ी करने वाले, और खालिस्तान की मांग करने वाले अमृतपाल सिंह नाम के आदमी ने भारत आने के पहले प्लास्टिक सर्जरी कराकर अपना चेहरा जनरैल सिंह भिंडरावाले की तरह का करवाया था। लोगों को याद होगा कि 1980 के दशक में भिंडरावाले खालिस्तान आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा था, और 1984 के ऑपरेशन ब्लूस्टार में वह सेना के हाथों मारा गया था।
अब कुछ अलग-अलग जानकार लोगों के जो विश्लेषण सामने आए हैं वे भी गौर करने लायक है। पंजाब से रिटायर होने वाले एक बड़े वरिष्ठ अफसर ने कहा है कि खालिस्तान आंदोलन को खड़ा करने, और उससे जुडऩे की एक बड़ी वजह यह भी रहती है कि विदेशों में राजनीतिक शरण की अर्जी लगाने वाले लोगों को ऐसे आंदोलनों में अपने शामिल होने की तस्वीरें, और उसके वीडियो उन देशों में अर्जी के साथ काम आते हैं। इनकी मदद से वे वहां पर यह साबित कर सकते हैं कि इस आंदोलन की वजह से भारत की सरकारें उनके खिलाफ कार्रवाई कर रही हैं, इसलिए उन्हें उन देशों में शरण दी जाए। इस तरह जाहिर तौर पर जो दिखता है, उससे परे भी बहुत कुछ रहता है। बहुत से लोग जो कि ऐसे आंदोलनों की अगुवाई करते हैं, उन्हें दुनिया के दूसरे देशों में बसे हुए लोगों से रूपया-पैसा मिलते रहता है, और उसके लिए आंदोलनों का अस्तित्व साबित करते रहना जरूरी रहता है।
ठीक ऐसा ही हिन्दुस्तान के और भी दूसरे बहुत से आंदोलनों को लेकर है। धर्म और सम्प्रदाय, जाति, या किसी और संगठन के झंडेतले बहुत से आंदोलन करवाने वाले नेताओं की यही नीयत रहती है कि वे किसी राजनीतिक संगठन के बीच, या कि चंदा देने वाले राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय लोगों के बीच अपनी मौजूदगी साबित करते रह सकें। आज देश भर में धर्म के नाम पर झंडे-डंडे लेकर नौजवानों को झोंक दिया गया है, और कुछ पार्टियों के बड़े-बड़े नेता मंच और माइक से बड़े हिंसक फतवे देते रहते हैं। वे सोते-जागते पश्चिमी संस्कृति को गालियां देते हैं, भारत में धर्म के महत्व को स्थापित करते रहते हैं, लेकिन ऐसे नेताओं की पूरी लिस्ट बीच-बीच में आती है कि उनके खुद के बच्चे पश्चिम के कौन से बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं। वे हिन्दुस्तानी बेरोजगार नौजवानों को जिस तरह हिंसक और नफरती आंदोलनों में झोंकते चलते हैं, उससे वे अपने बच्चों को परे रखते हैं, उनके कोई बच्चे सडक़ों पर ऐसी अराजकता मेें शामिल नहीं दिखते। ऐसा ही हाल खालिस्तान के लिए विदेशों से चंदा देने वाले लोगों का है, ऐसा ही हाल हिन्दुस्तान के दूसरे धर्मान्ध संगठनों को चंदा देने वाले विदेशियों का है। अपनी जमीन से कटे हुए ये लोग उससे जुडऩे की चाहत में उसके सबसे धर्मान्ध लोगों से जुड़ जाते हैं, उनकी आर्थिक मदद करने लगते हैं। और यह सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं लेता। चूंकि दूसरे देशों में बसे हुए लोग अपनी जरूरत से अधिक कमाने लगते हैं, इसलिए वे मनचाहे आंदोलनों को सींचने भी लगते हैं।
आज कुछ लोग इस बात को लेकर भी हैरान हैं कि हिन्दुस्तान का एक आर्थिक दबदबा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बना हुआ है, और इसे एक बड़ी अर्थव्यवस्था गिना जा रहा है, दुनिया के बहुत से देशों के साथ इसका लंबा व्यापार चलता है, और ऐसे में भी अगर भारत सरकार उन देशों की सरकारों से बात करके भारत के कुछ आंदोलनों को मिलने वाला चंदा बंद नहीं करवा पा रही है, उन देशों में रहकर हिन्दुस्तान में जुर्म करवाने वाले लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं करवा पा रही है, तो यह एक किस्म की नाकामयाबी है। हम इतनी तेजी से ऐसे किसी नतीजे पर इसलिए नहीं पहुंचना चाहते, क्योंकि यह पहला दौर नहीं है जब देश के बाहर बसे हुए भारतवंशी लोगों का एक छोटा तबका भारत के ऐसे अलगाववादी, अराजक, और हिंसक आंदोलनों को बढ़ावा दे रहा हो। ऐसा पहले भी होते आया है, और भिंडरावाले के वक्त तो पंजाब से लगे हुए सरहद पार के पाकिस्तान से बहुत बड़ी हथियारों की मदद हिन्दुस्तानी आतंकियों को मिलती ही थी। उस वक्त के मुकाबले पंजाब का आतंक आज कहीं नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि ठीक हो चुके कैंसर के मरीज के बदन में एक बार फिर कैंसर के लक्षण दिखने लगे हों, इसे कम खतरनाक मानना भी ठीक नहीं है।
लेकिन जैसा कि आज की यहां की चर्चा है, देश और दुनिया के किसी भी आंदोलन के पीछे कई किस्म की अदृश्य और रहस्यमय ताकतें भी रह सकती हैं। किसी कारोबार के खिलाफ चल रहे आंदोलन के पीछे उस कारोबारी के किसी प्रतिद्वंद्वी का हाथ भी हो सकता है, किसी एक टेक्नालॉजी के खिलाफ चल रहे आंदोलन के पीछे उसी काम के लिए विकसित किसी नई टेक्नालॉजी के कारोबारी भी हो सकते हैं। पंजाब के खालिस्तानी आंदोलन के साथ एक दूसरा खतरा यह है कि देश भर का सिक्ख समुदाय धर्म के नाम पर बड़ी तेजी से भडक़ जाता है। अमृतपाल सिंह नाम के इस खालिस्तान आंदोलनकारी की पुलिस तलाश शुरू ही हुई थी, कि दूर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अमृतपाल के समर्थन में जुलूस निकल गया था। सिक्खों में धार्मिक एकजुटता बहुत अधिक है, और इस एकता का प्रदर्शन भी तेजी से होने लगता है। इसलिए पंजाब के इस मामले को अधिक सावधानी से देखने की जरूरत है। आज दुनिया में किसी एक प्रदेश के लोगों की सबसे अधिक वीजा अर्जियां लगी होंगी, तो वे पंजाब के लोगों की ही हैं। पंजाब एक आर्थिक असमानता का शिकार भी है जहां एक तबका विदेशों में हो रही कमाई से देश में सुख पा रहा है, और दूसरा तबका अपने प्रदेश में ही बैठा हुआ बेरोजगार सा हो गया है, नशे का शिकार हो गया है। ऐसे बेरोजगार-नशेड़ी लोगों को किसी भी आंदोलन से जोड़ लेना आसान है, खासकर तब जब वह धर्म से जुड़ी कोई बात हो। देश को ऐसे अलगाववादी आंदोलनों को लेकर बहुत चौकन्ना रहना चाहिए क्योंकि इन्हीं के रास्ते दूसरे देशों के साजिश करने वालों को दाखिल होने का मौका मिलता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के जज अगर बिना लाग-लपेट खुलासे से अगर इंसाफ की बात करते हैं, तो वह सुनना बड़ा दिलचस्प होता है। देश के लोकतंत्र में, यहां की सरकारी व्यवस्था में क्या होना चाहिए, और क्या नहीं, इस पर एक बड़ा दिलचस्प नजरिया सुनने मिलता है। आज देश भर में यह चर्चा है कि केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां एनडीए पार्टियों को छोडक़र बाकी तमाम विपक्षी पार्टियों के नेताओं और उनकी राज्य सरकारों के खिलाफ, उनसे जुड़े हुए कारोबारों के खिलाफ इकतरफा जांच में लगी हुई हैं। मोदी विरोधी नेताओं और पार्टियों के पास आंकड़े हैं कि ईडी की चल रही कितनी जांच में से कितनी जांच विपक्षी नेताओं के खिलाफ हैं। ऐसे में देश के दर्जन भर से अधिक राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई थी कि केन्द्रीय जांच एजेंसियों को नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करते हुए क्या-क्या नहीं करना चाहिए। इनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट से केन्द्र सरकार और उसकी एजेंसियों को निर्देश देने की अपील की थी, ताकि राजनेताओं को जांच की प्रताडऩा न झेलनी पड़े, और उन्हें जल्द जमानत मिल जाए। विपक्षी वकील का यह कहना था कि केन्द्र सरकार चुनिंदा तरीके से राजनीतिक विरोधियों को निशाना बना रही है, और ऐसे में गिरफ्तारी, रिमांड, और जमानत, सबके लिए सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देने चाहिए। कांग्रेस सहित देश के 14 विपक्षी दलों ने यह पिटीशन लगाई थी, और कांग्रेस के एक बड़े नेता, और सुप्रीम कोर्ट के एक प्रमुख वकील अभिषेक मनु सिंघवी इसे लेकर अदालत में खड़े हुए थे। लेकिन अदालत का रूख देखकर सिंघवी ने यह पिटीशन वापिस ले ली।
अब इस मामले को सुन रहे देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने इस बात पर कुछ हैरानी जाहिर की कि कैसे नेता अपने आपको बाकी जनता से परे के ऐसे कोई विशेषाधिकार देने की मांग कर सकते हैं? उन्होंने कहा कि राजनेता, और देश की जनता का दर्जा एक बराबर है, वे जनता से ऊपर की किसी दर्जे का दावा नहीं कर सकते, उनके लिए कोई अलग प्रक्रिया कैसे हो सकती है? जितने तरह की बातें विपक्षियों के वकील ने कही थीं, वे जांच और मुकदमों का सामना कर रहे विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी में कुछ शर्तें लगाने, उनको आसान जमानत मिलने की वकालत करते हुए थीं। मुख्य न्यायाधीश ने इनको पूरी तरह खारिज कर दिया, और कहा कि अगर केन्द्र सरकार और जांच एजेंसियों ने किसी मामले में ज्यादती की है तो वह मामला सामने रखा जाए, इस तरह तमाम जांच के लिए कोई निर्देश जारी नहीं किया जा सकता। उनका कहना बड़ा साफ था कि गिरफ्तारी या जमानत के मामले में जनता और नेता के बीच कोई फर्क कैसे किया जा सकता है?
आज देश में जांच एजेंसियों का बनाया हुआ जो माहौल है उसमें गैरभाजपाई, गैरएनडीए पार्टियों के नेताओं को यह लग रहा है कि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता ही उनका सबसे बड़ा जुर्म है, और उनके खिलाफ जांच और अदालती कार्रवाई की जो प्रक्रिया चल रही है, वही सबसे बड़ी सजा है, जितनी कि अदालत भी नहीं देगी। हो सकता है कि यह बात पूरी तरह से सही हो, लेकिन एक दूसरा सवाल यह उठता है कि यह बात सिर्फ केन्द्रीय जांच एजेंसियों तक सीमित नहीं हैं, अधिकतर राज्यों में वहां की पुलिस और वहां की दूसरी जांच एजेंसियां भी इसी तरह से काम कर रही हैं। कुछ राज्यों में तो पुलिस जिस तरह खुलकर साम्प्रदायिक-दंगाई के अंदाज में लगी हुई हैं, वह देखकर भी हैरानी होती है। राज्यों की पुलिस चूंकि ईडी और सीबीआई के मुकाबले बहुत अधिक किस्म के मामलों की जांच करती हैं, देश का अधिकतर कानून राज्यों के अधिकार क्षेत्र में ही आता है, और राज्यों की पुलिस सत्ता के सामने पीकदान पकड़े हुए सेवक के अंदाज में खड़ी रहती हैं। इसलिए राज्य की सत्ता को नापसंद लोगों के खिलाफ ऐसी पुलिस और राज्यों की दूसरी जांच एजेंसियों का बर्ताव भी ऐसा ही चुनिंदा और निशाने वाला रहता है जिनकी शिकायत इस पिटीशन में सुप्रीम कोर्ट से की गई है। किसी भी राज्य में क्या सत्ता के पसंदीदा लोगों पर कोई कार्रवाई हो सकती है? पूरे ही देश में पुलिस कुछ भी करने के पहले सत्ता के चेहरे का अंदाज लगाती है कि उस पर इस कार्रवाई की क्या प्रतिक्रिया होगी, और उसी के मुताबिक सब कुछ तय होता है। इसलिए केन्द्र सरकार हो, या राज्य सरकारें, जांच एजेंसियों का दुरूपयोग, पुलिस का दुरूपयोग एक बहुत व्यापक मामला है। इस पिटीशन की वजह पैदा होने की एक वजह है कि केन्द्र की एजेंसियों की राज्यों के ऊपर एक मजबूत पकड़ रहती है, और राज्य की पुलिस या एजेंसियों की वैसी कोई पकड़ केन्द्र सरकार पर नहीं रहती। यह अधिकार क्षेत्र ऐसा है कि राज्य केन्द्र के मातहत सरीखे दिखते हैं, और अपनी तमाम स्वायत्तता के बावजूद वे कुछ संघीय अपराधों के लिए केन्द्र और उसकी जांच एजेंसियों के प्रति जवाबदेह रहते हैं।
आज देश में जो माहौल बना हुआ है कि मोदी सरकार की जांच एजेंसियां विपक्षियों के पीछे लगी हुई हैं, उसी को बयां करते हुए यह पिटीशन लगी थी, लेकिन जब मुख्य न्यायाधीश ने इसके तर्कों को बुरी तरह खारिज करते हुए जनता के आम हकों से अधिक कोई हक नेताओं को देने से इंकार कर दिया। यह एक बहुत अच्छी बात है। आज गिरफ्तारी के खिलाफ और जमानत के लिए आम जनता जितनी तकलीफ पाती है, और आम जनता के लिए जांच और न्याय की पूरी प्रक्रिया ही सजा साबित हो जाती है, उसे देखते हुए राहत की जरूरत तो आम जनता को अधिक है क्योंकि वह नेताओं से परे, गरीब भी रहती है। इसलिए अदालत ने यह ठीक तय किया है कि इस मामले में नेताओं को कोई अलग दर्जा न दिया जाए।
हिन्दुस्तान में लोग अगर किसी जगह वक्त पर पहुंच जाएं तो मजाक में उन्हें अंग्रेज कह दिया जाता है। हो सकता है कि अँग्रेज वक्त के पाबंद रहे होंगे। और जब कोई खासे लेट पहुंचते हैं, तो यह कह दिया जाता है कि वे इंडियन टाईम के मुताबिक आए हैं। कुछ जिम्मेदार लोग जो कि हर जगह, हर कार्यक्रम में वक्त पर पहुंचते हैं, उनकी जिंदगी निराशा और कुंठा से भरी होती है क्योंकि वे औरों का इंतजार करते बैठे रहते हैं। जो लेट-लतीफ रहते हैं (अब लतीफ तो लोगों का नाम भी होता है, और इस तरह का उसका इस्तेमाल पता नहीं किस लतीफ के लेट होने से शुरू हुआ होगा) उन्हें कोई तनाव नहीं रहता। सरकारों में जो जितने ऊंचे ओहदों पर रहते हैं, वे आमतौर पर उतना ही अधिक लेट होने को अपना हक मान लेते हैं। कुछ मंत्री ऐसे भी रहते हैं जो मुख्यमंत्री के लिए अपनी हिकारत उजागर करने को उनके बाद ही किसी कार्यक्रम में पहुंचते हैं। और बहुत से लोग कार्यक्रमों में स्कूली बच्चों को सभागृह भरने के लिए इक_ा करवा लेते हैं, और घंटों बाद पहुंचते हैं। छत्तीसगढ़ के एक भूतपूर्व मंत्री के बारे में यह आम जानकारी रहती थी कि अधिक शादियों वाले दिन वे कुछ शादियों में आधी रात के इतने बाद पहुंचते थे कि कभी-कभी दूल्हा-दुल्हन सुहागरात के कमरे में जा चुके रहते थे, और बड़ी मंत्रीजी के आने पर उन्हें फिर तैयार करके आशीर्वाद के लिए लाया जाता था।
ऐसे देश में जब देश की सबसे बड़ी अदालत की मुख्य न्यायाधीश कोर्ट में दस मिनट लेट पहुंचने पर तुरंत माफी मांगते हैं, और वजह बताते हैं कि वे साथी जजों के साथ एक विचार-विमर्श में थे, और इसलिए लेट हो गए। जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ को अपने इस मिजाज के लिए भी जाना जाता है कि कभी किसी बहुत ही जरूरी वजह से वे कुछ मिनट भी लेट होते हैं, तो सार्वजनिक रूप से माफी मांगते हैं। और वे दूसरे संदर्भों में यह बात बता भी चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जज हफ्ते में सातों दिन काम करते हैं, और अदालत में उनकी मौजूदगी काम का एक छोटा हिस्सा ही है, बाकी वक्त वे कमरे में और घर पर अगली सुनवाई की तैयारी में या फैसले लिखवाने में लगाते हैं। उनकी नर्मदिली और रहमदिली के और भी कुछ किस्से सामने आए हैं कि वे किस तरह एक बार अपने सहकर्मियों को दिल्ली के एक रेस्त्रां में खाने को ले गए, और वहां एक साधारण आदमी की तरह टेबिल खाली होने की कतार में बारी का इंतजार करते रहे।
जो लोग सच में ही बड़े होते हैं, वे फलों से लदे हुए पेड़ की तरह झुके रहते हैं। बाकी लोगों का हाल क्या रहता है यह लोगों ने देखा हुआ है। और ऐसे बाकी लोग अपनी कुर्सी की ताकत की वजह से चाहे इज्जत पा लें, लेकिन उससे परे लोगों की नजरों में वे गिरे ही रहते हैं। अपने शहर में, अपने लोगों के बीच, बिना किसी जरूरत या हड़बड़ी के पुलिस-पायलट गाड़ी और सायरनों के साथ ट्रैफिक तोड़ते हुए जो लोग घूमते हैं, वे लोगों की बद्दुआ भी पाते हैं। जो लोग किसी कार्यक्रम में मंच पर घंटों लेट पहुंचते हैं, वे वहां मौजूद तमाम लोगों की हिकारत भी झेलते हैं, फिर चाहे वह उनके चेहरे पर जाहिर न की जाए। हिन्दुस्तान में जिस तरह देर से पहुंचने को, कार्यक्रम देर से शुरू करने को एक संस्कृति बना दिया गया है, उससे देश का बहुत सा उत्पादक वक्त बर्बाद होता है। कार्यक्रम से जुड़े तमाम लोग तय वक्त के भी घंटों पहले से तैनात और जुटे रहते हैं, दर्शक या श्रोता भी वक्त के पहले लाकर बिठा दिए जाते हैं, और इसके बाद माननीय के पहुंचने में जितना वक्त लगता है, वह बाकी सबके वक्त की बहुत बर्बादी भी होती है, और सबकी बेकद्री भी होती है। दूसरे इंसानों को इतना खराब, और इतना गैरजरूरी गिनकर चलना ठीक नहीं है।
जस्टिस चन्द्रचूड़ की मिसाल और लोगों के बीच बांटनी चाहिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का विनम्र होना भी कानूनी जरूरत नहीं है, हमने लाल कपड़ा देखते ही भडक़ने वाले, आपा खोने वाले, अपनी तथाकथित प्रतिष्ठा के लिए तुरंत तलवार निकाल लेने वाले कई किस्म के जजों के बारे में सुना है। अभी तो आए दिन अलग-अलग प्रदेशों से ये खबरें आ रही हैं कि किस तरह सत्ता और राजनीति से जुड़े हुए लोग दूसरों के साथ हिंसा कर रहे हैं, उन्हें बेइज्जत कर रहे हैं। चूंकि अब हर हाथ में मोबाइल की शक्ल में एक वीडियो कैमरा होता है इसलिए ऐसी हरकतें दर्ज हो जाती हैं, और लोगों की हिंसा और बदसलूकी उजागर हो जाती है। लेकिन कैमरों की पहुंच से परे ऐसी हरकतें चलती ही रहती हैं। सत्ता और पैसों की ताकत हर किसी को नहीं पचती, इन्हें पचाकर विनम्र बने रहने के लिए एक खास दर्जे की उदारता लगती है, जो हर किसी को नसीब नहीं रहती।
ताकत की जगहों पर बैठे हुए लोगों को वक्त का पाबंद बनाने का काम जनता ही कर सकती है, जो किसी कार्यक्रम में मौजूद रहें, उनका यह हक रहता है कि वे लेट आने वाले माननीय लोगों से सवाल कर सकें। और इसके साथ-साथ लोगों को सोशल मीडिया पर लिखना भी चाहिए कि किस कार्यक्रम में कौन कितने लेट पहुंचे। किसी को दूसरों को यह हक नहीं देना चाहिए कि वे उनका वक्त बर्बाद कर सकें। इन दिनों कुछ जिम्मेदार लोग जब किसी को मिलने का समय देते हैं, तो साथ-साथ यह भी उजागर कर देते हैं कि उन्हें अगला काम कितने बजे से है। इससे यह साफ हो जाता है कि मिलने आने वाले लोगों को उस वक्त तक निकल भी जाना है। किसी भी मुलाकात को बारात के जनवासे की तरह अंतहीन नहीं चलाना चाहिए कि दो-तीन दिन रूकना ही है। किसी बैठक के शुरू होने का वक्त भी तय रहना चाहिए, और खत्म होने का भी। बैठक या कार्यक्रम खत्म होने के वक्त पर लोगों को उठकर चले भी जाना चाहिए। अगर हिन्दुस्तान की संस्कृति को सुधारना है, तो कम से कम कुछ लोगों को ऐसी पहल करनी होगी। आज तो हालत यह है कि जिस वक्त कार्यक्रम खत्म हो जाना चाहिए, उस वक्त तक बहुत से कार्यक्रम शुरू भी नहीं होते हैं। यह सिलसिला खत्म करने के लिए लोगों को आपस में बात करके एक पहल करनी चाहिए, और इससे देश और दुनिया का बहुत वक्त बचेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में लोगों को ज्ञान और समझ के बीच का फर्क आमतौर पर मालूम नहीं होता। जो जानकारी से लबालब है, उसे समझदार मान लिया जाता है। जबकि यह भी हो सकता है कि किसी ने केबीसी या सामान्य ज्ञान के इम्तिहान के लिए तैयारी की हो, और इतिहास से लेकर विज्ञान तक, क्रिकेट से लेकर अंतरिक्ष तक सब कुछ पढ़ डाला हो जिससे ज्ञान तो बहुत मिल गया हो, लेकिन समझ जरूरी नहीं है कि कुछ भी मिली हो। जिन लोगों को हिन्दी के शब्दों से ठीक से समझ न आ रहा हो, उनके लिए यह बताना ठीक होगा कि नॉलेज जरूरी नहीं है कि विज्डम भी लेकर आए। जिन लोगों ने हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराया गया परमाणु बम बनाया था, उनका ज्ञान बहुत था, लेकिन उनके पास यह समझ नहीं थी कि ऐसी तकनीक विकसित करने से बेदिमाग और बद्दिमाग नेताओं के हाथ किस तरह की बेहिसाब ताकत लग जाएगी, और उससे कितनी तबाही हो सकेगी। ये लोग अपनी तकनीकी कामयाबी पर आत्ममुग्ध थे, और किसी ने नहीं सोचा कि इससे दुनिया का विकास नहीं होने जा रहा, विनाश होने जा रहा है।
कुछ-कुछ ऐसा ही कई बार चिकित्सा विज्ञान के साथ भी लगता है। डॉक्टरों ने ऐसी दवाईयां और तकनीक हासिल कर ली हैं कि पहले जिन बीमारियों से जल्दी मौत हो जाती थी, उन पर पार पाया जाता है, और लोग लंबी जिंदगी जीते हैं। बुढ़ापे के बरस बड़े लंबे हो चल रहे हैं। दुनिया के अधिकतर देशों में औसत आबादी बढ़ती चल रही है। और जो तबका इलाज का खर्च उठा सकता है, वह तबका महंगे से महंगा, और आधुनिक इलाज पाकर जिंदगी को लंबा करते चल रहा है। फिर वह लंबाई जरूरी नहीं है कि एक बेहतर जिंदगी भी हो, और बेहतर भी क्यों कहें, अच्छी जिंदगी भी हो। जिंदगी कैसी है, यह बात डॉक्टरी कामयाबी को उतना तय नहीं करती है जितना यह बात करती है कि जिंदगी कितनी लंबी खींची जा सकती है। हम बीच-बीच में ऐसी खबरें पढ़ते हैं कि कुछ लोगों को बरसों तक वेंटिलेटर पर रखा गया, और फिर वे होश में आए बिना ही गुजर गए। बरसों पहले का बेहोश होने के पहले का वह आखिरी दिन उनकी याद में रहा होगा, और वे मशीनों से चल रही सांसों और धडक़न के बावजूद उस याद को दुबारा नहीं सोच पाए होंगे। इन दिनों यह भी लगातार सुनाई पड़ता है कि उम्र के साथ-साथ लोगों को होने वाली कई किस्म की दिमाग से जुड़ी हुई बीमारियां होने लगी हैं, वे सब कुछ भूलने लगे हैं, उनका काबू अपने बदन पर नहीं रह जाता है, और वे खराब हालत में लंबी जिंदगी जीते रह जाते हैं। अब चिकित्सा विज्ञान अनुसंधान और तकनीक से आगे बढ़ा हुआ एक ऐसा विज्ञान है जिसकी अपनी कोई सोच नहीं है, उसकी इलाज की या जिंदगी को ढोने की एक ताकत है, जिसका इस्तेमाल डॉक्टरों को अपनी समझ से करना होता है। और यह समझ लोगों को अपने पेशे की तकनीकी और वैज्ञानिक कामयाबी पर टिके रहने को मजबूर करती है। उनकी समझ यह नहीं सुझा पाती कि बाहरी मदद से किसी बदन को कितना ढोया जाए, किस लागत पर ढोया जाए, और क्या उतनी क्षमता से और कई लोगों को जिंदा रहने में, बेहतर जिंदगी में मदद की जा सकती थी?
लोगों को याद होगा कि किस तरह जब योरप में इटली कोरोना का शिकार हुआ, और अंधाधुंध मामले सामने आने लगे, तो बहुत से अस्पतालों ने यह तय कर लिया कि वेंटिलेटर जैसी सीमित सुविधाओं से उन्हीं जिंदगियों को पहले बचाया जाए जिनकी लंबी जिंदगी बाकी है। कोरोना से तो वे लोग भी संक्रमित थे जो कि बहुत बूढ़े थे, जो कोरोना के पहले भी बहुत बुरी तरह मेडिकल-मदद पर चल रहे थे, और कोरोना के बाद जिनकी जिंदगी बहुत लंबी न होने के आसार थे, उन लोगों पर वेंटिलेटर खर्च नहीं किया गया। बहुत से लोगों को यह बात अमानवीय लग सकती है, कि एक मरीज को बचाया जा सकता था, लेकिन उसे वेंटिलेटर नहीं लगाया गया। लेकिन जिंदगी की हकीकत को देखते हुए समझदारी यही थी कि सीमित वेंटिलेटर से पहले उन्हीं को बचाया जाए जिनके सामने लंबी और सेहतमंद जिंदगी बाकी है, और इटली में डॉक्टरों ने यही किया। दुनिया भर में इक्का-दुक्का ऐसे भी लोग मिले जो बहुत बुजुर्ग हो चुके थे, और उन्होंने खुद होकर वेंटिलेटर और ऑक्सीजन की दौड़ में अपने लोगों को नहीं झोंका, और चैन से गुजर गए।
बहुत से लोग जिनकी संपन्नता इतनी रहती है कि वे कोई भी इलाज खरीद सकते हैं, लेकिन वे अपने लोगों को यह बता चुके रहते हैं कि नौबत आने पर उन्हें कृत्रिम जीवनरक्षक मशीनें न लगाई जाएं क्योंकि उन्हें लगाने का कोई अंत नहीं है, वे मशीनें लोगों को बरसों तक जिंदा रख सकती हैं, बिना होश रहे। इसलिए उससे बेहतर नौबत गुजर जाना है, ताकि परिवार के बाकी लोगों की जिंदगी तबाह न हो। चिकित्सा विज्ञान एक विज्ञान के रूप में बहुत कामयाब है, लेकिन यह सवाल अलग है कि क्या वह समझदारी में भी उतना कामयाब है? या कि अपनी रिसर्च, अपनी बनाई दवा और मशीनें, अपनी बनाई जांच की तकनीक को तौलते हुए वह लोगों को अंतहीन जिंदा रखने में लगे रहता है? वैज्ञानिक नजरिए से तो यह बात समझदारी की लगती है, लेकिन जब दुनिया में बहुत सीमित चिकित्सा सुविधा को देखें, तो लगता है कि क्या चुनिंदा ताकतवर लोग इनका इतना अधिक इस्तेमाल करते रहें कि बहुत से दूसरे जरूरतमंद लोगों को ये हासिल ही न हो सके? यहां पर आकर मरीजों और डॉक्टरों, और मरीजों के परिजनों की भी समझदारी का सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या एक बेबस और अपाहिज सरीखी बहुत लंबी जिंदगी को खींचते चले जाना समझदारी है? यह विज्ञान के हिसाब से मुमकिन है, लेकिन समझ के हिसाब से नाजायज है। इस फर्क को समझने की जरूरत है। ज्ञान हमेशा समझ नहीं होता, और समझ की परख नाजुक मौकों पर होती है, उन मौकों पर लोग अपने खुद के बारे में कोई फैसला करने की हालत मेें नहीं रहते, दूसरों को ही वैसे फैसले लेने पड़ते हैं। इसलिए लोगों को वक्त रहते हुए, अपने इलाज, अपनी सेहत, अपने बदन के अंगदान, देहदान जैसे फैसले कर लेने की समझदारी दिखानी चाहिए।
महाराष्ट्र के एक परिवार की विचलित करने वाली खबर है। वहां पिता को बहला-फुसलाकर एक बेटे ने चार एकड़ जमीन और मकान अपने नाम पर करवा लिया। इसके बाद पिता को तीर्थयात्रा करवाने के बहाने लेकर निकला, और मध्यप्रदेश के देवास स्टेशन पर खाना लाने के बहाने पिता को छोडक़र चले गया। बूढ़ा और कमजोर पिता तीन हफ्ते से अधिक स्टेशन पर ही बैठकर बेटे का इंतजार करते रहा, इसके बाद अफसरों ने उसे ले जाकर एक वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया। माता-पिता को तीर्थ करवाने के नाम पर हिन्दी-हिन्दुस्तान के जहन में श्रवण कुमार की कहानी आती है जो कांवर पर अंधे मां-बाप को बिठाकर तीर्थयात्रा पर निकला, और रास्ते में राजा दशरथ ने गलती से श्रवण कुमार पर बाण चला दिया, उसकी वहीं मौत हो गई, और उसके मां-बाप ने दशरथ को श्राप दिया जिसकी वजह से राम को बनवास हुआ और दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिए। एक तरफ यह कहानी है, दूसरी तरफ आज का यह श्रवण कुमार है जो इतने बूढ़े और कमजोर पिता को स्टेशन पर इस तरह छोड़ गया जिस तरह कि लाइलाज बीमारी के शिकार किसी घरेलू जानवर को लोग शहर के पास के किसी जंगल में छोड़ आते हैं। फिर इस श्रवण कुमार ने यह काम सारी दौलत अपने नाम करवाने के बाद किया।
हम पहले भी इस अखबार में यह लिखते रहे हैं कि लोगों को भावनाओं में बहकर अपनी सारी प्रापट्री औलादों के नाम नहीं करनी चाहिए। यह मानकर चलना चाहिए कि उनकी अपनी जिंदगी खासी लंबी हो सकती है, क्योंकि आज दुनिया भर में औसत उम्र बढ़ती चल रही है। फिर यह भी है कि अब महंगे इलाज जगह-जगह उपलब्ध होने लगे हैं, और अधिक उम्र तक जिंदा रहने पर इनमें से कई किस्म के इलाज की जरूरत पड़ सकती है। इसलिए लोगों को अपनी बचत, अपनी दौलत, अपने जिंदा रहने तक अपने काबू में रखनी चाहिए। और अपने जाने के बाद के लिए तो उनके पास यह विकल्प रहता ही है कि वे आल-औलाद के लिए छोड़ जाएं, या फिर समाजसेवा के किसी काम के लिए दे जाएं। जो लोग संतानप्रेम में अपनी मौत के काफी पहले अपनी जमीन-जायदाद, अपनी बचत, सब कुछ बच्चों को दे देते हैं, उनमें से काफी लोगों का वक्त बड़ा मुश्किल गुजरता है। उन्हें बगल से आते-जाते बच्चों का ध्यान खींचने के लिए भी खांसना पड़ता है, तब बच्चों को दिखता है कि बूढ़े मां-बाप अभी बाकी हैं।
और लोगों को यह भी समझना चाहिए कि यह बात उनके बच्चों के भी भले की है कि उन्हें जिम्मेदार बनाए रखने का काम मां-बाप करें। ऐसा करने पर ही उनकी अगली पीढ़ी यह देख पाती है कि चाहे मां-बाप के प्रेम में, या फिर दौलत के लिए, किस तरह मां-बाप की सेवा की जाती है, मां-बाप की फिक्र की जाती है। इससे अगली पीढिय़ों तक भी यह नसीहत मिसाल के तौर पर आगे बढ़ती है, और आज के बुजुर्ग मां-बाप अपने बच्चों के बुढ़ापे के वक्त के लिए अपने पोते-पोती के सामने यह मिसाल रख जाते हैं। हो सकता है कि आज बच्चों को रकम की जरूरत हो, हर किसी को रहती है, खासकर जिनके मां-बाप के पास रकम दिखती रहती है, लेकिन अपने जिंदा रहने के इंतजाम के बाद ही बच्चों की मदद करनी चाहिए, वरना बुढ़ापे में अगर हाथ फैलाने की नौबत आई, तो उस वक्त की बदनामी भी बच्चों के नाम ही लिखाती है। इसलिए उन्हें ईमानदार और जिम्मेदार बनाए रखने का जिम्मा मां-बाप का ही रहता है।
महाराष्ट्र की यह खबर आई थी कि एक दूसरी खबर भी पिछले दो-चार दिनों से सामने खड़ी हुई थी। देश की एक प्रमुख पत्रिका में दशकों तक पत्रकारिता कर चुके एक व्यक्ति ने इंस्टाग्राम पर अपनी 90 बरस की मां की फोटो के साथ लिखा है कि वे अभी अस्पताल से घर लौटी हैं, और देर से सोकर उठती हैं। इस बीच उनका एक बेटा अपने चार साथियों के साथ सुबह-सुबह पहुंचकर बीमार और कमजोर, 90 बरस की मां को नींद से जगाकर, पांव छूते हुए अपनी तस्वीरें खिंचवाने लगा, क्योंकि उसका जन्मदिन था, और उसे सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरें पोस्ट करके वाहवाही पानी थी। इसके पहले साल भर में बेटे को मां का हालचाल पूछने का वक्त नहीं मिला था, और न ही अस्पताल में ही मां का ख्याल रखने का। उन्होंने लिखा और भी बहुत कुछ है, जो कि बड़ा तकलीफदेह है। जो लोग सार्वजनिक जीवन और राजनीति में हैं, उन्हें अपने या मां-बाप के जन्मदिन पर इस तरह की नौटंकी करने की जरूरत पड़ती है। और लंबे वक्त से यह बात कार्टूनिस्टों के काम भी आती है कि मदर्स डे पर किस तरह ऐसी आल-औलाद साल में एक बार वृद्धाश्रम पहुंचती हैं, और सेल्फी लेकर पोस्ट करती हैं। मां का ऐसा इस्तेमाल बहुत से लोग करते हैं, और ऐसे ही लोग आज इस कलियुग के श्रवण कुमार हैं।
आज यहां इस चर्चा को छेडऩे का मकसद यही है कि लोगों को 80-90 बरस की उम्र तक अपने जिंदा रहने और इलाज की फिक्र पहले करनी चाहिए, उसका पुख्ता इंतजाम रखना चाहिए, और उसके बाद ही आल-औलाद की फिक्र करनी चाहिए जिनके कि हाथ-पैर चलते हों। लोगोंं को यह भी याद रखना चाहिए कि बैंक इन दिनों संपत्ति पर एक रिवर्स मार्टगेज भी करते हैं, जिसमें आपके जिंदा रहने तक आपको हर महीने एक रकम मिलती जाती है, और उसके बाद उस संपत्ति को बेचकर बैंक अपना कर्ज निकाल लेता है, और बाकी रकम वारिसों को दे देता है। ऐसे विकल्प के बारे में भी लोगों को सोचना चाहिए। ये दो घटनाएं जो कि चार दिन के भीतर ही सामने आई हैं, उन्हें देखकर हर किसी को सबक लेना चाहिए, और आल-औलाद भी अगर अपने मां-बाप को सचमुच ही चाहती हैं, तो उन्हें खुद होकर मां-बाप से इसी किस्म की वसीयत भी करवानी चाहिए कि उनसे अगली पीढ़ी को कुछ भी उनके गुजरने के बाद ही मिले।
हैदराबाद की पुलिस ने एक ऐसे नौजवान को गिरफ्तार किया है जिसने देश की करीब आधी आबादी की निजी जानकारियों को जुटाकर इंटरनेट पर बेचने का धंधा चला रखा था। इसमें छात्रों के स्कूल-कॉलेज की जानकारी, जीएसटी, आरटीओ की जानकारी, लोगों के खरीदी, खानपान, ऑनलाईन और मोबाइल से भुगतान जैसी बेहिसाब जानकारी थी। उसने देश के दो दर्जन राज्यों और आठ महानगरों के 65-70 करोड़ लोगों और कारोबार के निजी और गोपनीय डेटा चुराने और बेचने का धंधा चला रखा था। उसके पास ऑनलाईन टैक्सियां इस्तेमाल करने वालों की जानकारी थी, और लाखों सरकारी कर्मचारियों की जानकारी भी। इनमें देश के रक्षा विभाग के कर्मचारियों, बिजली ग्राहकों, शेयर कारोबार के अकाऊंट, बीमा, क्रेडिट कार्ड सबकी जानकारी थी। अब एक अकेला लडक़ा जिसे इन सब जानकारियों के साथ गिरफ्तार किया गया, वह खुलेआम इंटरनेट पर इन्हें बेच भी रहा था। अब सैकड़ों किस्म की ये जानकारियां यह भी बताती हैं कि जो लोग आपकी जानकारी इकट्ठा करते हैं, वे उसे हिफाजत से नहीं रखते। और घर बैठे एक लडक़ा जब इन्हें चुरा ले रहा है, ग्राहक ढूंढकर बेच ले रहा है, तो फिर दुनिया भर में बिखरे हुए पेशेवर हैकर इससे और कितना अधिक काम कर रहे होंगे। अब इस खबर से लोगों को यह सोचना चाहिए कि मोबाइल फोन और कम्प्यूटर पर किसी भी एप्लीकेशन या वेबसाइट के मांगने पर वे जितनी आसानी से अपनी सारी जानकारी दे देते हैं, अपने फोन और कम्प्यूटर पर घुसपैठ की इजाजत दे देते हैं, उसका नुकसान उन्हें कितना हो सकता है। आज झारखंड के जामताड़ा जैसे पेशेवर-जालसाज हो चुके एक गांव-कस्बे का हाल यह है कि वहां के बच्चे-बच्चे ने फोन पर जालसाजी सीख ली है, और वे लोगों के बैंक खातों को दुह लेते हैं। ऐसे में डिजिटल लेनदेन, कारोबार, भुगतान को बढ़ाना तो ठीक है, लेकिन उसके साथ ही आपकी हिफाजत बहुत बुरी तरह खत्म भी हो रही है। अगर एक अकेला लडक़ा देश की आधी आबादी की डिजिटल जानकारी जुटा सकता है, तो फिर पेशेवर हैकर तो उससे हजार गुना अधिक ताकत रखते हैं, और वे तो हो सकता है कि आपकी स्मार्ट टीवी में लगे कैमरे से आपके बेडरूम में लगातार निगरानी भी रख रहे हों।
दुनिया में डिजिटल तकनीक, ऑनलाईन, और कम्प्यूटर-मोबाइल के बिना भी गुजारा नहीं है। लेकिन आज हालत यह है कि अगर आप गूगल मैप जैसे साधारण एप्लीकेशन को गलती से एक इजाजत दे बैठते हैं तो वह आपके पल-पल की लोकेशन को समय सहित दर्ज करते चलता है। हमारे आसपास के कुछ लोगों ने अपने खुद के फोन पर दर्ज अपने ये नक्शे जब देखे हैं, तो वे खुद दहशत में आ गए। और आज अधिकतर लोगों को यह समझ नहीं है, या वे इतने चौकन्ने नहीं हैं कि किस एप्लीकेशन को कौन सी इजाजत देना जरूरी है, और कौन सी नहीं। लोग यह भी अंदाज नहीं लगा पाते हैं कि कौन से मोबाइल ऐप बिल्कुल ही अविश्वसनीय है। भारत सरकार बीच-बीच में कुछ विदेशी एप्लीकेशनों पर रोक लगाती है लेकिन ऐसा होने के पहले वे बरसों तक कारोबार कर चुके होते हैं। आज भारत में जिस टिक-टॉक पर रोक लगे बरसों हो गए हैं, अब जाकर ब्रिटेन और अमरीका जैसे पश्चिमी देश उस पर रोक लगाने की बात सोच रहे हैं।
हमारा ख्याल है कि अपने देश के नागरिकों की हिफाजत के लिए यह जिम्मेदारी सरकार ही उठा सकती है कि वह वहां प्रचलित सभी वेबसाइटों और मोबाइल ऐप जैसी चीजों की सुरक्षा की जांच करे, गैरजरूरी जानकारी मांगने और दर्ज करने वाले लोगों से जवाब मांगे, और अपनी जनता को सार्वजनिक रूप से आगाह भी करे। आज टेक्नालॉजी जिस रफ्तार से छलांग लगाकर आगे बढ़ रही है, उसमें यह बिल्कुल मुमकिन नहीं है कि आम लोग सावधान रह सकें। आज तो खुद सरकार इतनी जगह डिजिटल जानकारी मांगती है, इतने ओटीपी आते हैं, कि उनमें कौन सा सरकार का पूछा हुआ है, और कौन सा किसी जालसाज का, यह अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोगों को भी समझ नहीं पड़ता है। और फिर हिन्दुस्तान तो ऐसा एक डेटा प्रोटेक्शन कानून बनाने जा रहा है, और अभी कंपनियों और सरकारों द्वारा दर्ज किए गए डेटा की हिफाजत आईटी कानून के तहत आती है। ऐसा सुनाई पड़ता है कि सरकार इसे कड़ा कानून बनाने वाली है, और अगर जुटाई गई जानकारी को कंपनियां हिफाजत से नहीं रखेंगी, तो इस पर उन्हें बड़ा जुर्माना और कड़ी सजा भी हो सकती है। हर दिन लोग अपनी निजी और सार्वजनिक जिंदगी की सैकड़ों-हजारों छोटी-छोटी जानकारियां मोबाइल ऐप से, वेबसाइटों से, और सोशल मीडिया से शेयर करते रहते हैं। इन सबकी इजाजत लोग इनका इस्तेमाल करते हुए खुलकर दे देते हैं, और बाद में उन्हें ही याद नहीं रहता कि वे किस-किसको कौन-कौन सी बात रिकॉर्ड करने की इजाजत दे चुके हैं। आज कहीं पर ईडी, और कहीं पर आईटी के छापों में जो जानकारियां निकल रही हैं, उनमें से बहुत सी जानकारियां लोगों के मोबाइल फोन और तरह-तरह के एप्लीकेशन से निकल रही हैं, जिन्हें लोग यह मानकर चल रहे थे कि वे मिटाई जा चुकी हैं, और उनमें से मिटा कुछ भी नहीं था। वह सबका सब जांच एजेंसियों के हाथ लग गया।
दुनिया की बहुत सी सरकारें चीन जैसे संदिग्ध देश से सावधान होकर चल रही हैं, क्योंकि वहां का एक कानून देश की हर कंपनी को इस बात के लिए मजबूर करता है कि सरकार के मांगने पर उन्हें अपने पास की हर जानकारी देनी होगी। ब्रिटेन-अमरीका यह मानकर चल रहे हैं कि टिक-टॉक जैसा मासूम दिखने वाला एप्लीकेशन लोगों की हजारों जानकारियां दर्ज करते रहता है, और चीनी सरकार उसका विश्लेषण करके इन लोगों के बारे में अनगिनत जानकारी पा सकती है, उसका बेजा इस्तेमाल कर सकती है। अब हिन्दुस्तान के एक नौजवान ने चोरी की हुई जानकारी का यह जखीरा बाजार में पेश करके इस देश के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है कि क्या यहां की कोई भी जानकारी महफूज नहीं है? इस बारे में जनता तो क्या ही सावधान होकर सोच सकेगी, देश की सरकार को ही लोगों की साइबर-हिफाजत करनी होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोकतंत्र में राजनीतिक स्थिरता या राजनीतिक अस्थिरता अधिक होने के अपने-अपने खतरे होते हैं। जहां बहुत अधिक स्थिरता हो जाती है, वहां पर सरकार बददिमाग हो जाती है, और संसदीय बाहुबल से काम करने लगती हैं, उसे जनता की नाराजगी की भी अधिक परवाह नहीं रह जाती क्योंकि पांच बरस में वोट गिरेंगे तो कितने गिरेंगे? दूसरी तरफ राजनीतिक अस्थिरता के अपने नुकसान होते हैं। बाईस बरस पहले देश में तीन नए राज्य बने थे, और इनमें से दो राज्यों में खूब अस्थिरता रही, मुख्यमंत्री बार-बार बदले गए, सरकारें पलटने की नौबत रही, और उसका बड़ा नुकसान हुआ। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ इन तीनों में से अकेला ऐसा राज्य रहा जहां खूब स्थिरता रही, अब तक की तीनों सरकारों में से किसी को गिराने की नौबत नहीं रही, लेकिन ऐसी स्थिरता के नुकसान भी इस राज्य को देखने मिले, लेकिन आज इन तीनों राज्यों पर चर्चा का मौका नहीं है, एक अलग राज्य पर बात करनी है।
पंजाब को देखें तो वह दो तरह के खतरों से घिरा दिखने लगा है। एक तरफ तो देश के भीतर इस प्रदेश में, और बाहर पश्चिम के कुछ देशों में लगातार खालिस्तानी हलचल शुरू हो गई दिख रही है। आज चाहे वह महज कैमरों के सामने दिखने के लिए कुछ सौ या कुछ हजार लोगों तक सीमित है, लेकिन ऐसे ही लोग हिन्दुस्तान के खालिस्तानी आंदोलन के लिए चंदा भी भेजते हैं। अब खुद पंजाब के भीतर खालिस्तान का मुद्दा उठाने वाले लोग फिर सिर उठाने लगे हैं, और उनकी आक्रामक भीड़ के सामने पंजाब की पुलिस और सरकार अभी बुरी तरह बेबस दिखी हैं। यह नौबत कम खतरनाक नहीं है क्योंकि अभी कुछ ही दशक हुए हैं कि पंजाब आतंक के बहुत लंबे और बहुत खूनी दौर से गुजरा था। अनगिनत जानें गई थीं, और उसी सिलसिले में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या भी हुई थी, और उसके बाद देश भर में जगह-जगह सिक्ख विरोधी दंगे हुए थे जिसमें भी बहुत सी मौतें हुई थीं। पंजाब में देश से अलग एक खालिस्तान बनाने की मांग की पुरानी और गहरी जड़ें हैं, अब अगर जमीन के ऊपर इसका अंकुर फूटते दिख रहा है, तो यह कम फिक्र की बात नहीं है। और इस बात को हम सीधे-सीधे पंजाब की एक अस्थिरता से जोडक़र देख रहे हैं।
लोगों को इस राज्य का ताजा इतिहास देखना चाहिए जब कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी ही पार्टी की नजरों की किरकिरी बन गए थे, और पार्टी के मौजूदा नेताओं के मुकाबले वे अपने को अधिक बड़ा भी समझते थे। नतीजा यह हुआ कि तनातनी के एक लंबे दौर के बाद कैप्टन ने कांग्रेस छोड़ी, और घरेलू कलह से जूझ रही पंजाब कांग्रेस बहुत मुश्किल से एक महत्वहीन सा मुख्यमंत्री बना पाई। कांग्रेस में पहले से नेतृत्व का झगड़ा इस प्रदेश को खा रहा था, और वह अगले विधानसभा चुनाव तक जारी रहा, और एक अलग किस्म की राजनीतिक अस्थिरता के ये बरस आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने का मौका दे गए। अब आम आदमी पार्टी के साथ एक दिक्कत यह है कि वह पंजाब के पहले सिर्फ एक शहर की पार्टी थी। एक म्युनिसिपल की तरह की दिल्ली में सरकार बनाने और चलाने का मामला किसी दूसरे और बड़े राज्य से बिल्कुल अलग रहता है, और पंजाब में आप के मुख्यमंत्री बिना किसी तजुर्बे के भी थे, खुद पार्टी की कोई राष्ट्रीय सोच नहीं है, और अगर अरविंद केजरीवाल के एक पुराने साथी कुमार विश्वास की बात पर भरोसा किया जाए, तो केजरीवाल पंजाब चुनाव के पहले भी खालिस्तान का जिक्र कर चुके थे कि अगर वहां आप नहीं आई, तो खालिस्तान आ जाएगा। ऐसी तमाम बातों के बीच जिस तरह दिल्ली में इस पार्टी की सरकार भ्रष्टाचार के मामलों से घिरी हुई है, उसी तरह पंजाब में भी इसकी सरकार के मंत्री भ्रष्टाचार में गिरफ्तार हुए, मुख्यमंत्री देश-विदेश में कई मौकों पर बहकते और लडख़ड़ाते दर्ज हुए, और सरकार चलाने की गंभीरता नहीं दिखी। दूसरी तरफ पंजाब में सत्ता और भागीदार दोनों खोने के बाद अकाली दल और भाजपा अलग-अलग बेचैन हैं, और इन सबके बीच खालिस्तानी फिर सिर उठा रहे हैं। वे न सिर्फ सिर उठा रहे हैं, बल्कि हथियार भी उठा रहे हैं, और थाने पर एक किस्म से उनके हमले में पुलिस और सरकार शरणागत हुई दर्ज हुई है।
पंजाब में पिछले तीन-चार बरसों की राजनीतिक स्थिरता के अलावा एक और बात वहां खालिस्तानी सोच को सिर उठाने का मौका दे रही है कि यह पहला मौका है कि पंजाब आम आदमी पार्टी जैसी राजनीतिक-समझविहीन पार्टी की सरकार देख रहा है। वैसे तो अकाली दल भी एक प्रदेश वाला क्षेत्रीय दल है, लेकिन लंबे समय तक एनडीए का हिस्सा रहने से उसमें राष्ट्रीय समझ आई है, और वह खालिस्तान के मुद्दे पर भी आज की पंजाब सरकार जितना और जैसा ढुलमुल नहीं रहा है। आम आदमी पार्टी कभी किसी राष्ट्रीय गठबंधन में नहीं रही, और यह भी एक वजह है कि उसने एक शहर की सरकार चलाते हुए देश के जटिल राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को समझा भी नहीं है। यह अनुभवहीनता पंजाब को चलाने में आड़े आ रही है। एक दिक्कत यह भी है कि देश के भीतर ऐसी अशांति और आतंक की आशंका का बोझ अंत में केन्द्र सरकार पर भी पड़ता है, और आज की मोदी सरकार के साथ केजरीवाल के सांप-नेवले जैसे दिखते संबंध पंजाब के समाधान में रोड़ा भी रहेंगे।
आज जब हिन्दुस्तान के पड़ोस का पाकिस्तान अभूतपूर्व घरेलू दिक्कतें और खतरे देख रहा है, तब वहां की किसी सरकार के लिए भारत में कुछ हरकतें करवाना एक आसान और पसंदीदा काम हो सकता है, और पंजाब ने पहले भी बड़ा लंबा दौर ऐसी ही सरहद पार की दखल का देखा हुआ है। इसलिए आज पंजाब को अधिक गंभीरता से लेने की जरूरत है, और जिस काबिलीयत की जरूरत है, वह आम आदमी पार्टी के पास दिख नहीं रही है। यह एक अलग बात है कि उसे पांच बरस सरकार चलाने का हक वोटरों ने दिया है, लेकिन अगर वहां खालिस्तानी मुद्दे का ऐसा ही हाल रहा, तो अगले राज्य चुनाव तक नौबत बेकाबू भी हो सकती है। आखिर में एक और मुद्दे का जिक्र जरूरी है कि दिल्ली और पंजाब की जेलों में बंद हत्यारों के खूंखार गिरोह जेल के भीतर से, या देश के बाहर से जिस तरह कत्ल करवा रहे हैं, और देश के चर्चित और महत्वपूर्ण लोगों को कत्ल की धमकियां भेज रहे हैं, वह सिलसिला भी पंजाब ने पहले शायद ही कभी देखा हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बांग्लादेश में एक अखबार के रिपोर्टर को एक झूठी खबर प्रकाशित करने की तोहमत लगाकर सरकार ने जेल भेज दिया है। यह रिपोर्ट स्वतंत्रता दिवस पर 26 मार्च को प्रकाशित हुई थी जिसमें कई आम नागरिकों की जिंदगी के बारे में उनका कहा हुआ छापा गया था। एक मजदूर की यह बात इसमें छपी थी जिसका कहना था- इस आजादी का क्या मतलब है अगर हम चावल तक भी नहीं खरीद सकते। और इस मजदूर की बात बांग्लादेश में खाने-पीने के सामानों की महंगाई की एक सही तस्वीर थी। लेकिन यह अखबार एक विपक्षी दल का समर्थक है, और इसलिए सरकार ने इसे जनता के बीच असंतोष पैदा करने के लिए दुर्भावनापूर्ण इरादे से तथ्यों को पेश करना बताया है। और यह कार्रवाई एक नागरिक की तरफ से दर्ज करवाई गई शिकायत पर की गई है। अखबार के संपादक और प्रकाशक के खिलाफ भी इस खबर को लेकर कार्रवाई करने की बात बांग्लादेश के कानून मंत्री ने कही है।
सरकारों का अगर बस चले तो वे सबसे पहले अखबारों से छुटकारा पाएं। देश-प्रदेश में विपक्ष के अलावा मुद्दों को उठाने का काम अखबार करता है, और उससे छुटकारा पाने के कई अलग-अलग तरीके अलग-अलग सरकारें ईजाद कर लेती हैं। इनमें यह बांग्लादेशी तरीका सबसे ही रद्दी तरीका है। बेहतर तरीका तो यह होता है कि आलोचक या असहमत अखबार की किसी कमजोर नब्ज को जकडक़र रखा जाए, और उसकी बोलती बंद रखी जाए। हिन्दुस्तान में ऐसी कई मिसालें हैं जिनमें अधिक आक्रामक या कटुआलोचक ईमानदार अखबार के सामने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी गईं कि प्रकाशक को वह कारोबार बेचना पड़ा, और उसके बाद नए मालिकान सरकार के हिमायती आए। ऐसा सिर्फ देश में होता है यह जरूरी नहीं है, बहुत से प्रदेशों में ऐसा ही होता है। बांग्लादेश का यह ताजा मामला तो विपक्षी समर्थक अखबार में भी एक बड़ा मासूम मामला दिखता है। आज तो तकरीबन तमाम दुनिया में खाने-पीने की चीजों तक लोगों की पहुंच घटती जा रही है। महंगाई बढ़ रही है, लोग रोजगार खो रहे हैं, गुजारा मुश्किल से हो रहा है। ऐसे में अगर बांग्लादेश जैसे दिक्कत झेल रहे देश में किसी गरीब ने अपनी तकलीफ बताई है, और उस पर अखबार ने रिपोर्ट बनाई है, तो इस पर कार्रवाई शर्मनाक है। इससे बांग्लादेश की एक लोकतंत्र के रूप में इज्जत गिरती है, और आज दुनिया के बहुत से देश ऐसे हैं जो किसी देश के साथ कारोबारी या दूसरे किस्म के रिश्ते बनाते हुए यह भी देखते हैं कि वहां लोकतंत्र का क्या हाल है? लोगों को याद होगा कि भारत के कालीन उद्योग में बड़े पैमाने पर बाल मजदूर होने की वजह से बहुत से सभ्य और विकसित लोकतंत्रों ने हिन्दुस्तानी कालीन खरीदने से मना कर दिया था। आज बांग्लादेश में जितनी कम मजदूरी पर अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के कपड़े-जूते बनते हैं, उस मजदूरी को लेकर भी योरप के देशों में बड़ी फिक्र जाहिर की जा रही है, और ऐसे ब्रांड के बहिष्कार की बात भी उठती है।
हम आज की दुनिया में किसी एक देश में अलोकतांत्रिक बातों को उसका घरेलू मामला नहीं मानते, हमारा मानना है कि बाकी दुनिया को भी उस पर बोलने का हक है, जिस तरह बांग्लादेश के इस घरेलू मामले पर बोल रहे हैं, या जिस तरह एक जर्मन मंत्री ने राहुल गांधी के लोकसभा से निष्कासन पर कुछ कहा है, या जिस तरह संयुक्त राष्ट्र और अमरीका भारत के कुछ दूसरे साम्प्रदायिक मामलों पर बोल चुके हैं। दुनिया के देश ऐसे स्वायत्तशासी टापू नहीं हैं कि उन्हें एक-दूसरे को देखने की मनाही हो। लोगों की आवाजाही से लेकर कारोबार तक, और आर्थिक मदद से लेकर कर्ज तक, अनगिनत ऐसे मामले हैं जिनमें तमाम देश एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। इसलिए कोई देश अपनी प्रेस पर, अपनी जनता पर जुल्म करते हुए बाकी दुनिया को आंखें बंद रखने को नहीं कह सकते। लोग एक-दूसरे के मामलों पर बोलेंगे, और यही एक विश्व समुदाय की पहचान है। जिस तरह एक वक्त गांवों में लोगों का एक-दूसरे पर सामाजिक दबाव होता था, और लोग दूसरों का लिहाज करते हुए, गलत काम करने से झिझकते थे कि लोग टोकेंगे। आज भी हालत वैसी ही है। आज हिन्दुस्तानी अखबारों के संगठनों को भारतीय मामलों के साथ-साथ बांग्लादेश के इस ताजा मामले पर भी बोलना चाहिए। हिन्दुस्तान की सरकार तो शायद ही मुंह खोलेगी, लेकिन हिन्दुस्तान सरकार से परे एक देश भी है, लोकतंत्र भी है, समाज भी है, और एक जुबान भी है। हिन्दुस्तानी लोगों को दूसरे देशों के घरेलू मामलों पर अपनी राय जाहिर करना बंद नहीं करना चाहिए। दुनिया में जहां बेइंसाफी होते दिखे, वहां उसका विरोध करना चाहिए। आज संचार के साधनों और सोशल मीडिया के चलते अमरीकी राष्ट्रपति की किसी घोषणा के अगले ही पल हिन्दुस्तान के गांव में बैठे लोग भी उस पर अपनी राय जाहिर कर सकते हैं, और उसे कोई रोकते भी नहीं हैं। लगातार अंतरराष्ट्रीय मामलों पर बोलने से हो सकता है कि हिन्दुस्तानियों के भीतर अपने ही देश के अखबार को बचाने का हौसला भी जुट जाए। आज तो ईमानदार और मुखर अखबार सरकारों के निशाने पर रहते हैं, और देश की सरकारों की आलोचना में आम जनता को भी खतरा दिखता है। इसलिए बाहर की सरकारों के जुल्म पर बोलने की आदत जारी रखना चाहिए, जिससे धीरे-धीरे अपनी सरकार पर कुछ बोलने की हिम्मत भी किसी दिन आ जाए।
जिस देश-प्रदेश की सरकार जनता की बुनियादी दिक्कतों, और उसकी जायज नाराजगी को भी अखबारों से दूर रखना चाहती है, या अखबारों को उनसे दूर रखना चाहती है, वे उसी तरह चुनाव हार सकती हैं जिस तरह इमरजेंसी में अखबारों को चापलूस बनाकर, उनकी आवाज खत्म करके इंदिरा गांधी हकीकत से दूर रहीं, और चुनाव हार बैठीं। जनता अगर चावल खरीदने की हालत में नहीं हैं, और सरकार यह भी सुनना नहीं चाहती हैं, तो फिर ऐसी भूख को बगावत में बदलने में अधिक वक्त नहीं लगता। हर सरकार को अखबारों को कुचलते हुए ऐसे खतरों को याद रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के तीन सौ वकीलों ने कानून मंत्री किरण रिजिजू के उस बयान के खिलाफ एक साझा बयान दिया है जिसमें मंत्री ने यह कहा था कि कुछ रिटायर्ड जज एंटी-इंडिया गैंग का हिस्सा बन गए हैं। इन वकीलों ने लिखा है कि सरकार की आलोचना किसी भी शक्ल में न देश की आलोचना होती है, न ही देशविरोधी होती है। उन्होंने लिखा है कि कानून मंत्री रिटायर्ड जजों को धमकी देकर बाकी नागरिकों को यह संदेश देना चाहते हैं कि आलोचना की किसी भी आवाज को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उन्होंने लिखा- हम कानून मंत्री के बयान की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं, एक मंत्री से इस तरह के दादागिरी भरे बयान की उम्मीद नहीं थी। वकीलों ने लिखा कि पूर्व जजों और जिम्मेदार लोगों की अपने अनुभव पर आधारित राय चाहे सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी को पसंद न आए, लेकिन कानून मंत्री को ये अधिकार नहीं है कि वो इस पर अपमानजनक टिप्पणी करें। उल्लेखनीय है कि कानून मंत्री ने कुछ पूर्व जजों को एंटी-इंडिया गैंग का हिस्सा बताने के साथ-साथ यह भी कहा था कि इसके खिलाफ एजेंसियां कानून के दायरे में रहकर कदम उठाएंगी, और जो लोग देश के खिलाफ काम करेंगे उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी।
वैसे तो वकीलों ने अपने बयान में वह काफी कुछ लिख दिया है जो हम अपनी राय के रूप में यहां लिखते, लेकिन फिर भी इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत इसलिए है कि कानून मंत्री से परे भी बहुत से मंत्री और एनडीए-भाजपा के बहुत से नेता लगातार इस तरह की जुबान में बोलते हैं। लोकतंत्र में जनता और बाकी लोगों को अपनी राय रखने की जो आजादी मिली हुई है, वह बहुत से लोगों को बुरी तरह खटकती है। जब किसी धर्म, राजनीतिक विचारधारा, या व्यक्ति के प्रति अंधभक्ति से काम किया जा रहा हो, तो वहां कोई न्यायसंगत और तर्कसंगत बात भी पुलाव में कंकड़ की तरह खटकने लगती है। जो लोग इस भक्ति से परे की सोच रखते हैं, वे सत्ता और उसके भागीदारों की आंखों में किरकिरी की तरह चूभते हैं। इसलिए अलग-अलग विचारधाराओं के बहुत से प्रमुख वकीलों ने मिलकर यह साझा बयान बनाया है, और इसका कानूनी वजन चाहे कुछ भी न हो, इसका लोकतांत्रिक वजन बहुत होता है। और यह बयान में ठीक ही याद दिलाया गया है कि सरकार के आलोचक उतने ही देशभक्त होते हैं जितने कि सरकार में बैठे हुए लोग।
लोकतंत्र सिर्फ एक शासनतंत्र नहीं होता, वह एक जीवनतंत्र भी होता है, और वह तानाशाही के मुकाबले सभ्यता का एक बहुत बड़ा विकास भी होता है। जब सभ्यता की फिक्र नहीं रह जाती, तब फिर बहुत सी अलोकतांत्रिक बातें भी कही जाती हैं। हिन्दुस्तान में आज यही हो रहा है। और जब राष्ट्रवादी उन्माद देश के लोगों का एक बड़ा ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो गया है, तो फिर उसी को बढ़ाते चलना आसान नुस्खा बन जाता है। जिस तरह खबरों की वेबसाइटों पर जिन खबरों को अधिक हिट्स मिलने लगती हैं, वैसी खबरों को बढ़ावा देते चलना एक कारोबारी समझदारी मानी जाती है, ठीक उसी तरह जब धार्मिक और राष्ट्रवादी उन्माद की हांडी बार-बार चढ़ाना कामयाब होते जा रहा है, तो फिर असहमति के बयान देने वालों को पाकिस्तान भेज देने, टुकड़ा-टुकड़ा गिरोह करार देने, और राष्ट्रविरोधी गैंग कहने का बड़ा आसान हथियार सत्ता-समर्थक लोगों के हाथ लग गया है। इसी सिलसिले के चलते कभी जेएनयू को बदनाम करने की साजिश होती है, और पुलिस की कार्रवाई लोगों को बरसों तक बिना किसी मुकदमे के फैसले के, जेलों में बंद रखती है। दिक्कत यह है कि जब लोगों के दिमाग पर उन्माद हावी रहता है, तब फिर उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों का महत्व समझ नहीं आता। फिर आज जिस बहुसंख्यक तबके को एक नए किस्म की उन्मादी-आजादी मिली हुई है, उसे यही सबसे बेहतर लोकतंत्र लग रहा है।
कानून मंत्री आज किसी एजेंडा के तहत लगातार सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ कुछ न कुछ बोले जा रहे हैं। यह अदालत को उसकी औकात दिखाने का एक रूख है, और शायद इसके पीछे एनडीए का वह ऐतिहासिक संसदीय बाहुबल भी है जिसके भरोसे वह कई किस्म के संविधान संशोधन करने, या नया कानून बनाने की उम्मीद रखता है। आज राहत की एक बात यही है कि सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश सहित कुछ और न्यायाधीश भी रीढ़ की हड्डी वाले दिख रहे हैं, उनका रूख और उनके फैसले सरकार के किसी विभाग के अफसर की तरह के नहीं हैं, और वे एक स्वतंत्र न्यायपालिका की तरह काम कर रहे हैं। ऐसे में लगता है कि केन्द्र सरकार और कानून मंत्री का तनाव बढ़ते चल रहा है, और इस तनाव के चलते कानून मंत्री लगातार नाजायज बातें कह रहे हैं। देश के वकीलों ने जिम्मेदारी का एक काम किया है, और बाकी तबकों के जागरूक लोगों को भी किसी न किसी तरह जनता के बीच लोकतांत्रिक मूल्यों को गिनाना जारी रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आरटीआई ने हिन्दुस्तान के लोकतंत्र को कुछ हद तक तो झकझोर कर रख दिया है। सरकारें जिस सामंती अंदाज में चला करती थीं, उनके वे अंदाज अब उनकी लाख कोशिशों के बावजूद उजागर होने लगे हैं। सरकारों के भ्रष्टाचार, सरकारों की मनमानी के बारे में आरटीआई से जो जानकारी निकलती है उसे पहले नौकरशाह अपनी जागीर के स्टाम्प पेपर की तरह कुर्सी की गद्दी के नीचे दबाकर उस पर सवार बैठते थे। लेकिन अब कम से कम कुछ मामलों में आरटीआई काम आने लगी है, और कई मामलों में सरकारें सुप्रीम कोर्ट तक चली जाती हैं कि वे आरटीआई में जानकारी नहीं देंगी। ऐसी ही एक जानकारी असम के वन्यप्राणी विभाग से एक सामाजिक कार्यकर्ता ने निकलवाने में कामयाबी पाई है जिससे पता लगता है कि पिछले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के काजीरंगा नेशनल पार्क जाने पर उनके इंतजाम में शेर-संरक्षण के मद से एक करोड़ दस लाख रूपये खर्च किए गए थे। यह रकम खर्च करके राष्ट्रपति के लिए रंगरोगन करवाया गया, तम्बू लगाए गए, हवा साफ करने वाले एयर-प्यूरीफायर खरीदे गए, और राष्ट्रपति के लावलश्कर के खाने-पीने का इंतजाम किया गया। यह बात सरकार के अपने रिकॉर्ड से साबित हुई कि टाइगर फाउंडेशन से खर्च इस एक करोड़ दस लाख के अलावा 51 लाख रूपये वन्यप्राणी फंड से भी खर्च किए गए। अब देश में कौन शेर है कौन नहीं, यह तो पता नहीं, लेकिन राष्ट्रपति की खातिरदारी असम सरकार ने शेरों और दूसरे जानवरों को बचाने के फंड से की। असम के शेर-संरक्षण के नियम कहते हैं कि इस फंड का 90 फीसदी हिस्सा पर्यावरण को शेर के अनुकूल रखने, और इस इलाके की ग्रामीण स्तर की कमेटियों को मजबूत करने पर खर्च किया जाएगा ताकि इंसानों का जानवरों से टकराव कम हो। इसके अलावा बचा 10 फीसदी पैसा सोसायटी के एफडी में रखा जाना चाहिए।
अब सवाल यह उठता है कि क्या देश के सबसे बड़े ओहदे पर बैठे हुए मेहमान के लिए असम सरकार के पास खातिरदारी को और कोई पैसा नहीं था? पूरे देश में जगह-जगह नेताओं और अफसरों पर होने वाला खर्च किसी न किसी दूसरे के हक का होता है। कहीं वृक्षारोपण के पैसे से मंत्री और अफसरों, और उनके कुनबों की खातिरदारी का इंतजाम होता है, तो कहीं सुप्रीम कोर्ट की निगरानी वाले कैम्पा मद के सैकड़ों करोड़ रूपये नेताओं और अफसरों की मनमानी के कामों पर खर्च होते हैं। कुछ ऐसा ही जिला खनिज निधि के सैकड़ों करोड़ का होता है, और कलेक्टर अपनी मर्जी से ऐसे काम मंजूर करते हैं जिसमें सबसे मोटी रिश्वत मिल सके। अगर संवैधानिक कुर्सियों पर बैठे हुए बड़े-बड़े लोग देश के किसी हिस्से में जाते हुए महज एक चि_ी लिख दें कि उनके प्रवास के इंतजाम में सौ फीसदी सादगी बरती जाए, कोई रंगरोगन न किया जाए, कोई सडक़ न बनाई जाए, सोफा-पलंग, पर्दे कुछ भी न बदले जाएं, और उन पर किए गए खर्च किस मद से हुए, इसका हिसाब उन्हें दिया जाए, तो ही देश में हर दिन दस-बीस करोड़ रूपये बचने लगेंगे क्योंकि राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक, और सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट के जजों तक, सबके इंतजाम में अंधाधुंध, और गैरजरूरी खर्च किया जाता है। यह सिलसिला पूरी तरह अलोकतांत्रिक है, और खत्म होना चाहिए। लोगों को याद होगा कि अभी जब गुजरात के मोरवी में एक झूलता हुआ पूल टूटा और बहुत से लोगों की मौतें हुईं, तो वहां प्रधानमंत्री के पहुंचने के पहले पूरे अस्पताल का रंगरोगन हुआ, रातोंरात सडक़ें बनाई गईं। अगर कोई खर्च होना था तो वह अस्पताल पर होना था, और वह खर्च प्रधानमंत्री प्रवास पर हुआ। यह सिलसिला सामंती भी है, और अमानवीय भी है। देश में गरीबी बहुत है, और आधी आबादी शायद इसलिए जिंदा है कि उसे मुफ्त या लगभग मुफ्त सरकारी राशन मिलता है। स्कूलों में जाने वाले बच्चे इसलिए कुपोषण में गहरे डूबने से बचे हैं कि उन्हें स्कूलों में दोपहर का भोजन मिलता है। मिड-डे-मील की वजह से देश कुपोषण से कुछ हद तक उबर पाया है। ऐसे देश में रेलवे के बड़े अफसरों के दौरे के लिए अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहे, सैलून कहे जाने वाले खास डिब्बे जोड़े जाते हैं, जिनका और कोई इस्तेमाल नहीं होता। राष्ट्रपति भवन से लेकर प्रधानमंत्री के नए बन रहे आवास तक, और सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट की इमारतों से लेकर भीतर के ढांचों तक हिन्दुस्तान में अलोकतांत्रिक सामंती सिलसिला दिखता है। राज्यों के राजभवनों में पुलिस बैंड और पुलिस की सलामी गारद तैनात रहते हैं, जिनमें दर्जनों पुलिसवाले बर्बाद होते हैं। यह बैंड राज्यपाल के किसी भी कार्यक्रम में पहले और बाद में राष्ट्रगान बजाने के लिए बस में सवार होकर आता-जाता है, और यह मान लिया जाता है कि देश की जनता खुद तो राष्ट्रगान गा ही नहीं सकती। राष्ट्रगान की याद दिलाने के लिए ऐसे सामंती इंतजाम की क्या जरूरत है? और झंडा फहराने और उतारने के लिए एक पूरी सलामी गारद क्यों तैनात की जाती है? राष्ट्रपति के अंगरक्षकों के नाम पर घुड़सवार लोगों का एक पूरा दस्ता क्यों चले आ रहा है? इन पर लाखों रूपये रोज का खर्च होता है, और क्या आज हिन्दुस्तान के राष्ट्रपति इस हिफाजत पर जिंदा हैं?
यह पूरा सिलसिला खत्म करवाने के लिए किसी अदालत जाने का भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि बड़ी अदालतों के जज खुद भी एक सामंती जिंदगी जीना पसंद करते हैं। हाईकोर्ट के जज सडक़ से सफर करते हैं, तो उनके सामने सायरन बजाती पुलिस पायलट गाड़ी चलती है, और उनके पीछे भी सुरक्षा गाड़ी या दूसरी गाडिय़ां रहती हैं। अब अपने ही देश-प्रदेश की जनता को सडक़ों पर से धकियाकर अलग करके जो जज सायरन के साये में रफ्तार से कहीं पहुंच जाते हैं, क्या वे किसी की मौत की सजा रोकने की हड़बड़ी में रहते हैं? अगर उनके वक्त की इतनी कीमत है, तो फिर सडक़ों पर से गुजर रहे किसी मजदूर या कारीगर का वक्त भी उनसे अधिक कीमती है क्योंकि उससे उसकी रोज की जिंदा रहने की ताकत जुड़ी हुई है। दूसरों को किनारे धकियाकर मंत्री-मुख्यमंत्री, या कई मामलों में बड़े अफसर भी चलते हैं, और रास्ता देने को मजबूर हुए लोग उन्हें गालियां देते हुए लोकतंत्र पर भरोसा खोते जाते हैं।
असम में राष्ट्रपति की खातिरदारी के इस हिसाब-किताब को देखकर यह समझ पड़ता है कि हर प्रदेश के आरटीआई कार्यकर्ताओं को तैयार रहना चाहिए कि कब किस खास व्यक्ति के आने पर क्या-क्या खर्च किया गया, वह किस मद से आया। सार्वजनिक जगहों पर होने वाले दूसरे किस्म के खर्च का हिसाब-किताब भी निकलवाते रहना चाहिए, और यह भांडा फोड़ते रहना चाहिए कि कितने बरस के भीतर ही फुटपाथ दुबारा बन रहे हैं, दीवारें नई खड़ी हो रही हैं, या सडक़ों को बार-बार बनाया जा रहा है। सत्ता के सामंती मिजाज के साथ जनता के हकों की यह लड़ाई चलती ही रहेगी, और इसमें जनता को थकना नहीं चाहिए, सत्ता को छेकना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका में अब अंधाधुंध गोलीबारी से लोगों को मारना औसतन हर महीने होने वाली वारदात है। आज भी एक छोटी स्कूल में एक महिला हमलावर ने पहुंचकर अंधाधुंध गोलियां चलाईं, उनमें बच्चे-बड़े सात लोग मारे गए। अभी दो दिन पहले इतवार को ही कैलिफोर्निया के गुरुद्वारे में वहीं के दो लोगों के बीच आपस में गोलियां चलीं जिनमें दो लोग बुरी तरह जख्मी हुए। अब अगर अमरीका में होने वाली ऐसी गोलीबारी की खबरें ढूंढें तो इनका कोई अंत नहीं है, और न ही ऐसे हमलों का कोई अंत है। दरअसल वहां पर हथियारों की खरीदी इतनी आसान है कि कोई भी नागरिक दर्जनों हथियार खरीदकर अपने घर पर एक नुमाइश सी लगा सकते हैं, और ऐसे ही लोग कानूनी खरीदे गए हथियारों से सार्वजनिक जगहों पर लोगों को थोक में मार रहे हैं। अमरीका में हथियार बनाने वाले कारखानेदारों की लॉबी इतनी मजबूत है, और वहां की दो में से एक प्रमुख पार्टी, रिपब्लिकन, हथियार खरीदने और रखने की आजादी की इतनी बड़ी वकील है कि वह संसद में निजी हथियारों में कटौती की किसी बात को मंजूरी ही नहीं पाने देती। मौजूदा डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति जो बाइडन लगातार ऐसी हर गोलीबारी के बाद संसद और देश से अपील कर रहे हैं कि हथियारों में कटौती के संविधान संशोधन का साथ दें, लेकिन कारोबारी माफिया इस बात को आगे ही नहीं बढऩे देता। यह पूंजीवादी दुनिया के लिए एक मिसाल है कि कोई कारोबार किस हद तक मतलबपरस्त और जनविरोधी हो सकता है, कि उसके चेहरे पर हर बरस ऐसी हजारों मौतों से भी कोई शिकन न पड़ती हो।
जब तक अमरीका में निजी हथियारों की आजादी की कुछ तस्वीरें न देखें, बाहर के लोगों को यह भरोसा ही नहीं हो सकता कि एक-एक अमरीकी नागरिक किस तरह अपने घर को फौजी बंदूकखाना बनाकर रख सकते हैं। वे ऐसे फौजी दर्जे के हथियार खरीद सकते हैं जो कि निजी सुरक्षा के लिए तभी जरूरी हो सकते हैं, जब किसी दूसरे देश की फौज किसी अमरीकी के घर में घुस जाएं। उससे कम किसी नौबत में ऐसे घातक ऑटोमेटिक हथियारों की जरूरत किसी को नहीं पड़ सकती जो एक मिनट में सैकड़ों गोलियां दागते हों। अमरीका की पूंजीवादी व्यवस्था को लेकर यह बात भी बार-बार लिखी जाती है कि वहां हथियारों के कारखानेदार अमरीकी फिल्मों के मार्फत एक ऐसी हथियार-संस्कृति को बढ़ावा देते हैं जिसे कि आम अमरीकी अपने स्वाभिमान से जोडक़र देखने लगते हैं। हालत यह है कि अमरीका में एक बड़े तबके की सोच को इस तर ढाल दिया गया है कि अधिक से अधिक नागरिकों के पास जब हथियार रहेंगे, तब अमरीका में कोई सत्तापलट नहीं हो सकेगा क्योंकि फौज नागरिकों के हथियारों के सामने टिक नहीं सकेगी। अमरीका जैसे बड़े देश में जब लोगों को देशभक्ति के नाम पर, आजादी को बचाने के नाम पर हथियार बेचने में कामयाबी मिल रही है, तो यह कारोबार इससे अधिक और क्या उम्मीद कर सकता है। दुनिया भर में जहां-जहां लोग अमरीकी फिल्में देखते हैं, उन्हें मालूम है कि वहां की बहुत सारी एक्शन फिल्मों में हथियारों का कैसा ग्लैमर स्थापित किया जाता है, और जब उन्हें खरीदने की पूरी तरह आजादी होती है, तो फिर हॉलीवुड और हथियार, ये दोनों कारोबार एक-दूसरे को बढ़ाते चलते हैं।
यह भी समझने की जरूरत है कि अमरीका में धार्मिक आजादी, विचारों की आजादी, दुनिया भर से आए हुए अलग-अलग नस्लों के लोगों के लिए जितनी जगह है, उसमें स्वाभाविक रूप से कई किस्म का तनाव बने रहता है। ऐसे सामाजिक तनाव से परे एक तनाव यह भी रहता है कि अमरीकी लोग, खासकर नौजवान, परिवार और समाज के खिलाफ कई किस्म की नफरत से भी घिरे रहते हैं, और स्कूल-कॉलेज में होने वाले अधिकतर हमलों के पीछे नस्लवादी, या फिर निजी नफरत का हाथ मिलता है। एक तरफ तो देश के लोग इतने तनावग्रस्त हैं, देश का हाल इतने किस्म के नस्लभेदी और अंतरराष्ट्रीय समुदायों के तनाव से घिरा हुआ है, और फिर घर-घर में अंधाधुंध संख्या में बंदूक-पिस्तौल हैं। 2020 में अमरीका में 45 हजार से अधिक लोग गन की गोलियों से मरे हैं। इनमें 54 फीसदी खुदकुशी में, और 43 फीसदी हत्याओं में मरे हैं। हर दिन अमरीका में गन की गोलियों से औसतन 123 से अधिक लोग मारे गए हैं। इसके बावजूद सरकार कारोबार-माफिया के सामने बेबस है जिसने कि संसद में एक बहुत बड़ा समर्थन जुटा रखा है। हालत यह है कि रिपब्लिकन पार्टी के सम्मेलन देश में जहां कहीं होते हैं, वहां पर हथियारों की प्रदर्शनी लगती है, और उनकी बिक्री होती है। पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की यह पार्टी हथियार के सौदागर सरीखे काम करती है।
अमरीका की इस घरेलू हिंसा से हिन्दुस्तान का कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि जिस दिन अमरीकी फौजों से किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या परोक्ष लड़ाई की नौबत आएगी, आम अमरीकी नागरिक अपने निजी हथियारों को लेकर मोर्चे पर नहीं रहेंगे, लेकिन इससे हिन्दुस्तान समेत तमाम देशों को यह सबक लेने की जरूरत जरूर है कि कोई कारोबार किस तरह राष्ट्रीय हितों को बंधक बनाकर रख सकते हैं। देश के हित एक तरफ धरे रह गए, और नागरिकों को हथियारों का ग्राहक बनाकर यह कारोबार हर दिन करीब सवा सौ मौतें देश में पेश कर रहा है। हर लोकतंत्र को यह देखना चाहिए कि उसके कौन से कारोबार संसद और सरकार को प्रभावित करके, अदालतों में जजों को प्रभावित करके, और मीडिया को खरीदकर जनता की सोच बदल सकते हैं? अगर लोग ठंडे दिल से बैठकर बारीकी से देखेंगे, तो उन्हें हर लोकतंत्र में ऐसे कुछ धंधे दिखाई पड़ेंगे जो कि जनहित के खिलाफ हैं, लेकिन जिनका कोई विरोध नहीं हो सकता है। ऐसे धंधे हर राजनीतिक दल की सरकार को प्रभावित करके चलते हैं, संवैधानिक संस्थाओं को जेब में रखकर चलते हैं, और मीडिया तो अब ऐसे कई धंधे सीधे-सीधे खरीद चुके हैं। बात महज अमरीका की गन लॉबी की नहीं है, बात माफिया अंदाज में काम करने वाले कारोबार की है, और सभी को इसके खतरे समझना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इराक में दुनिया के एक सबसे खतरनाक माने जाने वाले आतंकी संगठन, इस्लामिक स्टेट, को खत्म करने के लिए 2014-17 में अमरीका की अगुवाई में कुछ देशों की एक फौजी टीम ने जंग लड़ा था, और वहां बड़े पैमाने पर हमले किए थे। अमरीका ने तो बाद में यह मंजूर कर लिया था कि शहरी इलाकों में उसके हवाई हमलों से आतंकियों के साथ-साथ सैकड़ों नागरिक भी मारे गए थे, लेकिन ब्रिटेन इस बात पर अड़ा हुआ था कि उसने एक बिल्कुल परफेक्ट जंग लड़ी थी, और उसमें एक भी नागरिक की मौत नहीं हुई थी। अब एक एनजीओ, एयरवॉर्स, के साथ मिलकर प्रतिष्ठित ब्रिटिश अखबार गार्डियन ने एक जांच रिपोर्ट तैयार की है जो बताती है कि ब्रिटिश हमलों में भी नागरिक मारे गए थे। गार्डियन की रिपोर्टर इराक के मोसुल शहर जाकर वहां ऐसे हमलों में मरे हुए लोगों के परिवारों के बचे हुए लोगों से बात करके लौटी, और सारा खुलासा छापा है। इस रिपोर्ट के बाद अब ऐसे लोगों के परिवारों को ब्रिटेन से एक मुआवजा लेने का हक मिलेगा।
इस बात पर आज लिखा जाना जरूरी इसलिए है कि इस अखबार ने और ब्रिटेन के एक एनजीओ ने अपनी ही फौज के छुपाए गए तथ्यों का भांडाफोड़ करना तय किया, और बेकसूर इराकी जनता के हकों के लिए यह रिपोर्ट तैयार करना अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी माना है। अब इस बात को हिन्दुस्तान में पिछले बरसों में पाकिस्तान पर हुई एयर स्ट्राईक और भारत में पाकिस्तान के करवाए गए कहे जाने वाले आतंकी हमलों के बारे में जो भी जानकारी मांगते हैं उन्हें देश का गद्दार करार देकर पाकिस्तान भेजे जाने का फतवा दिया जाता है, उनके बारे में कहा जाता है कि वे टुकड़ा-टुकड़ा गैंग हैं जो भारत को तबाह करना चाहते हैं। अब ब्रिटेन में यह कोई नई बात नहीं है कि वहां दूसरे देशों में भी की गई फौजी कार्रवाई को लेकर अपनी सरकार से सवाल किए जाएं ताकि सरकार की जवाबदेही रहे, और फौज भी बेकाबू कार्रवाई न करती रहे। लोकतंत्र न तो सस्ती व्यवस्था है, और न ही वह बहुत सहूलियत की व्यवस्था है। फिर एक जिम्मेदार लोकतंत्र महज अपनी सरहदों के भीतर लोकतांत्रिक रहकर खुश नहीं हो लेता, जिम्मेदार लोकतंत्र दुनिया के दूसरे हिस्सों को लेकर भी बात करता है। आज ब्रिटिश पार्लियामेंट में लगातार इस बात पर बहस चल रही है कि दूसरे देशों से वहां बोट से पहुंचने वाले शरणार्थियों के साथ क्या सुलूक किया जाए। यह बहस उन दूसरे देशों से आने वाले लोगों के साथ एक बेहतर और अधिक मानवीय बर्ताव करने के लिए की जा रही है, जबकि ऐसे लोग ब्रिटेन पर पहली नजर में तो बोझ ही बनते हैं। इसके साथ जोडक़र हिन्दुस्तान की इस बात को देखना चाहिए कि यहां पर पड़ोस के लगे हुए म्यांमार से आने वाले, भयानक हिंसा के शिकार रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर देश का क्या रूख है। यह बात भी समझनी चाहिए कि दुनिया में शरणार्थियों के लिए जो अंतरराष्ट्रीय सहमति दर्ज है उस पर भारत के भी दस्तखत हैं, लेकिन पड़ोस के शरणार्थियों के लिए आज यहां कोई जगह और हमदर्दी नहीं हैं।
चूंकि हिन्दुस्तान लगातार यह कहते रहता है कि उसने संसदीय व्यवस्था ब्रिटेन से ली है, इसलिए ब्रिटेन के इन दो उदाहरणों से भी कुछ सीखने की जरूरत है। पहली बात तो यह कि अगर ब्रिटिश फौजें किसी दूसरे देश में जाकर वहां किसी बेकसूर को मारकर आई हैं, तो भी ब्रिटिश मीडिया इंसाफ के लिए उस बात की भी जांच कर रहा है, और यह कोशिश कर रहा है कि ऐसे बेकसूर परिवारों को ब्रिटिश सरकार से मुआवजा मिल सके। दूसरी बात यह भी कि ब्रिटिश फौजों की जवाबदेही तय हो सके, ताकि अगली बार उनसे ऐसी गलती न हो, या वे ऐसा गलत काम न करें। एक उन्मादी राष्ट्रवाद के नाम पर देश की फौज को पवित्र और पूजनीय बनाकर सवालों से परे कर देना उस फौज के भले का भी नहीं रहता, क्योंकि उससे गलतियां और गलत काम होने का खतरा बढ़ते जाता है।
गार्डियन ब्रिटेन का सबसे जिम्मेदार अखबार माना जाता है, और इसने उस वक्त भी सवाल उठाए थे जब देश कोरोना से जूझ रहा था, लॉकडाउन लगा हुआ था, और ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के सरकारी आवास पर उनके साथ काम कर रहे लोगों ने दारू पार्टी की थी। यह दारू पार्टी लॉकडाउन के नियमों के खिलाफ थी, इसलिए जब इसके शुरुआती सुबूत सामने आए, तो लंदन की पुलिस को इसकी जांच दी गई। पुलिस ने प्रधानमंत्री पर जांच के बाद जुर्माना लगाया, और अभी संसद की एक जांच समिति इस नतीजे पर पहुंची है कि इस बारे में संसद में सवाल होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने झूठ कहा था। एक ऐसा भी खतरा वहां मंडरा रहा है कि अगर संसद की समिति इस पर कड़ी कार्रवाई करती है तो बोरिस जॉनसन का संसदीय-राजनीतिक जीवन खत्म हो सकता है।
लोकतंत्र एक-दूसरे से बेहतर चीजों को सीखने की व्यवस्था है। संसदीय व्यवस्था किसी धर्मग्रंथ की तरह लिखे हुए शब्दों को अंतिम सत्य मान लेने की नहीं रहती, वह तजुर्बों से परंपराओं को कायम करने का नाम रहती है। आज ब्रिटेन या दूसरे लोकतांत्रिक देश जिस पारदर्शिता की तरफ लगातार बढ़ रहे हैं, जिस तरह वहां नेताओं की, सरकार और फौज की, जजों और अफसरों की जवाबदेही रहती है, और बढ़ती चल रही है, उससे हिन्दुस्तान जैसे देश को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। लंदन पुलिस का छोटा सा अफसर प्रधानमंत्री निवास जाकर इस बात की जांच कर चुका है कि वहां किन तारीखों पर पार्टियां हुईं, उनमें सामाजिक दूरी का पालन हुआ या नहीं हुआ, और प्रधानमंत्री निवास को कुसूरवार पाने पर प्रधानमंत्री को जुर्माना भी सुना दिया। कितने लोकतंत्र ऐसे हैं जो कि ऐसी पारदर्शिता से काम कर सकते हैं?
पूरी दुनिया में फौजों का इतिहास गलतियों, और गलत कामों से भरा हुआ है। जंग और फौजी कार्रवाई के हालात ही ऐसे रहते हैं कि कई बार ऐसा हो जाता है, और कई बार दुश्मन को निपटाने के इरादे से ऐसा कर दिया जाता है। लेकिन अगर इन बातों की जांच न हो, तो उस मुल्क की फौज बेकाबू और अराजक हो जाने का एक खतरा रहता है। इसलिए लोकतांत्रिक देशों को अपने किसी भी संस्थान को ऐसा पवित्र और पूजनीय नहीं बनाना चाहिए कि वहां कोई सवाल करना गद्दारी मान लिया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ पिछले कुछ मुख्य न्यायाधीशों के मुकाबले अधिक मुखर हैं, और अपनी सोच को खुलकर सामने रखते हैं। उन्होंने अभी सार्वजनिक रूप से यह कहा कि अदालतों को सीलबंद लिफाफों का सिलसिला खत्म करना चाहिए। आमतौर पर जब सरकार किसी मुकदमे में एक हिस्सा होती है, तो वह कई किस्म की जानकारी संवेदनशील बताते हुए उसे सीलबंद लिफाफे में अदालत को पेश करती है। अभी ऐसा ताजा मामला अडानी के खिलाफ जांच को लेकर था, जिसमें सरकार ने अपनी तरफ से जांच टीम के लिए सदस्यों के नाम सुझाए थे लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने उस लिफाफे को खोलने से ही इंकार कर दिया था, और साफ किया था कि जनता के बीच पारदर्शिता के लिए यह जरूरी है कि सीलबंद लिफाफों का सिलसिला खत्म किया जाए। उन्होंने यह भी कहा था कि वे सरकार के सुझाए नाम देखना भी नहीं चाहते, क्योंकि उसके बाद वे अगर दूसरे लोगों को भी जांच कमेटी में रखेंगे, तो भी जनता के बीच उसकी विश्वसनीयता नहीं रहेगी। देश की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी गोपनीय जानकारी को लेकर भी कभी-कभी सरकार अदालत से बंद कमरे में सुनवाई की मांग करती है ताकि सुनवाई की जानकारी मीडिया के मार्फत जनता तक न पहुंचे।
मुख्य न्यायाधीश का यह रूख बड़ा पारदर्शी और लोकतांत्रिक है। लेकिन इसे एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ है कि एक ताजा मामले में अदालत का रूख बदला हुआ नजर आता है। सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज पर उनकी एक सहयोगी कर्मचारी ने यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया था। इस पर जब जज ने इसके खिलाफ मानहानि का केस किया, तो इस महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि केस को दिल्ली हाईकोर्ट के बजाय किसी और अदालत भेजा जाए क्योंकि दिल्ली हाईकोर्ट के अधिकतर जज इस सुप्रीम कोर्ट जज के साथ काम किए हुए हैं, और वहां उसे इंसाफ की उम्मीद नहीं है। खैर, इसके बाद हुआ यह कि इस जज (अब भूतपूर्व) और इस सहयोगी महिला के बीच किसी तरह का कोई समझौता हुआ, और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के.एम.जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना की बेंच ने मामले की पूरी कार्रवाई को सीलबंद करके रिकॉर्ड रूम में रखने का आदेश दिया, और केस को खत्म कर दिया। ऐसे में इस पूर्व जज के वकील ने मांग की कि जब समझौता हो गया है तो सोशल मीडिया को यह आदेश दिया जाए कि वे इस मामले का सारा रिकॉर्ड हटा दें। इस पर जजों ने हैरानी के साथ कहा कि ऐसा आदेश वे कैसे दे सकते हैं क्योंकि मीडिया ने तो वही लिखा है जो खुली अदालत में कहा गया था। हटाने का ऐसा आदेश करना जायज नहीं होगा।
अब यहां पर एक सवाल उठता है कि अगर यह मामला खुली अदालत में ही चल रहा था, और उसकी रिपोर्टिंग मीडिया में हो रही थी, उसमें दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का वक्त लग रहा था, तो क्या आज दोनों पक्षों के बीच अदालत के बाहर होने वाले किसी समझौते की वजह से केस को बंद करके रिकॉर्ड को सील कर देना ठीक है? यह मामला किसी घर के भीतर शोषण का नहीं है, यह मामला यह सुप्रीम कोर्ट के एक जज का अपनी एक इंटर्न के साथ किए गए बर्ताव का है जिस पर महिला इंटर्न ने यौन उत्पीडऩ की रिपोर्ट लिखाई थी। हम हिन्दुस्तानी कानून के मुताबिक यौन उत्पीडऩ की शिकार महिला की पहचान छुपाए रखने के हिमायती हैं। लेकिन जनता के पैसों से तनख्वाह पाने वाला सुप्रीम कोर्ट के जज सरीखे बड़े ओहदे पर बैठा हुआ आदमी अगर अपनी मातहत के यौन उत्पीडऩ का आरोपी है, तो क्या इस मामले में हुए समझौते की जानकारी उस महिला के नाम बिना जनता के सामने नहीं आनी चाहिए? यह बात हम इसलिए लिख रहे हैं कि यह सुप्रीम कोर्ट जज के अदालती कामकाज से जुड़ी हुई व्यवस्था का मामला है, और इस बारे में जब ऐसी शिकायत हुई थी, तो समझौते का बाद भी जनता को यह मालूम होना चाहिए कि समझौता हुआ क्या है? यह मामला एक आपराधिक बर्ताव का मामला है, और इसे निजी कहकर खत्म कर देना जायज नहीं होगा। इस मामले में अदालत को अगर यह लगता है कि एक समझौता हो गया है, और मामला आगे चलने की जरूरत नहीं है, तो भी जनता को सुप्रीम कोर्ट के अपने जज के खिलाफ दायर किए गए इस मामले में तथ्य जानने का हक है। हमारा ख्याल है कि यौन उत्पीडऩ के मामलों में महिला को तो अपनी शिनाख्त छुपाए रखने का हक है, और यह कानून और मीडिया की जिम्मेदारी भी है। लेकिन जिसके खिलाफ ऐसी शिकायत हुई है, उसे मामले के सीलबंद कर दिए जाने की रियायत क्यों मिलनी चाहिए? क्या सुप्रीम कोर्ट जज की जगह कोई आम आदमी होता, तो भी क्या उसे ऐसी रियायत मिली होती?
एक तरफ तो सीजेआई का रूख सीलबंद लिफाफों के खिलाफ दिखता है, दूसरी तरफ अपने आचरण के लिए संविधान और जनता दोनों के प्रति जवाबदेह, सुप्रीम कोर्ट के एक जज पर लगी इतनी बड़ी तोहमत अदालत के बाहर के किसी रहस्यमय और गोपनीय सौदे या समझौते से अगर हट भी रही है, तो भी वह जनता के सामने आनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के जज को अपने आचरण के लिए संदेह से परे रहना चाहिए। दुनिया में बड़े लोगों को अपना आचरण संदेह से परे रखने के लिए कहा जाता है। लोकतंत्र के पहले भी राजाओं के लिए यह एक आदर्श गिनाया जाता था, और हिन्दुस्तान में राम की कहानियों में जगह-जगह इसकी मिसाल मिलती है। हम सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा या रिटायर्ड किसी भी तरह के जज के कामकाज से जुड़े, ओहदे और दफ्तर से जुड़े ऐसी किसी विवाद को निजी नहीं मानते जिसे लेकर अदालत में एक केस दायर किया जा चुका था। ऐसी अदालती लड़ाई किसी बाहरी, निजी, और गोपनीय समझौते के तहत जजों के सामने तो खत्म हो सकती है, लेकिन इससे जनता के प्रति अदालत और जजों की जवाबदेही खत्म नहीं हो जाती। उस महिला की पहचान गोपनीय बनाए रखने के साथ-साथ इस समझौते को उजागर करना चाहिए, इसे ठीक उसी तरह अदालती कागजात का हिस्सा बनाना चाहिए जिस तरह कोई भी दूसरे मामले रहते हैं, वरना यह अदालतों का अपने आपको पारदर्शिता से परे रखने का काम कहलाएगा जिससे उसकी साख खत्म होगी। यौन उत्पीडऩ का मामला ऐसा नहीं है कि जिसे दफन कर देना किसी जज का हक हो। यहां पर बात हक की नहीं जवाबदेही की है।
सुप्रीम कोर्ट वैसे भी अपनी साख पिछले एक मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर एक मातहत महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन शोषण के आरोपों में बुरी तरह खो चुका है, क्योंकि उसने बंगले पर यौन शोषण के खिलाफ शिकायत की थी, और उसकी सुनवाई करने के लिए खुद रंजन गोगोई जज बनकर बैठे थे। हमारा ख्याल है कि इस किस्म की इससे बुरी मिसाल और कुछ नहीं हो सकती थी। और बाद में यह आरोप भी सामने आए थे कि जिस महिला ने यह आरोप लगाया था, उसके मोबाइल फोन पर पेगासस से घुसपैठ की गई थी। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ को पारदर्शिता के अपने पैमाने पर खरा उतरना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का एक वीडियो तैर रहा है जिसमें ग्वालियर की एक निजी यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि गांधी के पास कानून की कोई डिग्री नहीं थी, उन्होंने सिर्फ हाईस्कूल डिप्लोमा किया था। उन्होंने यह दावा किया कि वे यह बात सुबूतों के साथ कह रहे हैं। इस बयान पर देश और गांधी के इतिहास के जानकार लोग हॅंस भी रहे हैं, और रो भी रहे हैं। उस वक्त के इंग्लैंड से बैरिस्टर बने मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका जाकर वकालत करने लगे थे, और वहां पर रंगभेदी, नस्लभेदी भेदभाव से आहत होकर उन्होंने एक आंदोलन छेड़ा था, और हिन्दुस्तान लौटकर स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू की थी। गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी का कहना है कि गांधी ने लॉ की डिग्री पाई थी, और यह बात उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी लिखी है। तुषार ने मोदी सरकार के बनाए हुए इस राज्यपाल पर तंज कसते हुए कहा कि जाहिलों को राज्यपाल बना देने का यही नतीजा होता है। गांधी के पास लॉ की डिग्री थी, लेकिन उनके पास एंटायर लॉ डिग्री नहीं थी जैसी कि मोदी के पास एंटायर पोलिटिकल साईंस की डिग्री है। उल्लेखनीय है कि मोदी की डिग्री को लेकर बरसों से यह विवाद चल रहा है कि विश्वविद्यालय उसकी जानकारी क्यों नहीं दे रहा है, और मोदी जिस कोर्स में डिग्री बताते हैं, वह कोर्स तो विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में दिखता भी नहीं है। खैर, वह विवाद एक अलग विवाद है, और मोदी से लेकर स्मृति ईरानी तक बहुत से लोग अपनी डिग्रियों को लेकर खुद जवाबदेह हैं, इसलिए उनके लिए हमें कुछ नहीं कहना है। लेकिन आज जो गांधी नहीं रह गए हैं, और जिनके बारे में इतिहास में दर्ज तथ्यों को भी तोड़-मरोडक़र, या झूठ गढक़र जो अभियान चलाया जा रहा है, उस पर जरूर बात होनी चाहिए।
हाल के बरसों में देश में जिस रफ्तार से भाजपा और संघ परिवार के बड़े-बड़े नेताओं ने गांधी और नेहरू के खिलाफ एक अभियान छेड़ा है, वह बहुत भयानक है। देश के इतिहास में, स्वतंत्रता संग्राम में, आधुनिक भारत के निर्माण में जिन लोगों का अपार योगदान रहा है, उन्हें भाड़े के भोंपुओं के मार्फत रात-दिन कोसना, हिन्दुस्तान में एक अभूतपूर्व घटना है। और यह सिलसिला देश को एक खरे इतिहास से दूर ले जा रहा है, और एक झूठे इतिहास के गौरव में जीने का मौका दे रहा है। आज सोशल मीडिया पर झूठ फैलाने की आजादी के चलते उस ग्वालियर से गांधी की पढ़ाई के बारे में संवैधानिक कुर्सी पर बैठे एक आदमी ने यह नया झूठ शुरू किया है, जिस ग्वालियर से गांधी की हत्या के लिए हथियार निकला था, और जिसके जंगलों में गांधी के हत्यारों ने गोली चलाने का अभ्यास किया था। इसी ग्वालियर के शासक घराने सिंधिया के बारे में सुभद्रा कुमारी चौहान ने देशप्रेम की एक सबसे महान कविता में लिखा है कि किस तरह सिंधिया घराने ने अंग्रेजों का साथ दिया था। अब जहां से गई पिस्तौल ने गांधी की हत्या की थी, आज उसी जगह गांधी पर एक नई गोली दागी जा रही है, ताकि फर्जी डिग्री, या डिग्री के झूठे दावे वाले लोगों की फेहरिस्त में गांधी का भी नाम जोड़ा जा सके, और इस पूरी लिस्ट को एक अलग विश्वसनीयता दिलाई जा सके।
लोकतंत्र में जब मूर्तिभंजन होता है, तो वह मासूम नहीं होता, उसे सोच-समझकर किया जाता है। नेहरू के खिलाफ चल रहा अभियान अपने दम पर एक सीमा तक ही चल सकता था, उसके बाद अब उसे गांधी विरोधी एक अभियान की जरूरत और पड़ेगी, क्योंकि गांधी को बदनाम करने से भी नेहरू की बदनामी कुछ और हद तक बढ़ाई जा सकेगी। इस देश में गोडसे की विचारधारा से उपजी नस्लें लगातार इस अभियान में लगी रहती हैं कि गोडसे को भारत-पाक विभाजन से विचलित एक देशभक्त साबित किया जा सके, और ये लोग गांधी की तस्वीर पर गोलियां दागते हुए अपनी तस्वीर और वीडियो पोस्ट करते रहते हैं। भाजपा की सांसद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर सार्वजनिक रूप से खुलेआम गांधी को कोसती हैं, और गोडसे की स्तुति करती हैं, और संसद में बनी रहती हैं, भाजपा में भी। इसलिए भाजपा के नेताओं के कुछ खास मौकों पर राजघाट जाने को इसी संदर्भ में देखना चाहिए कि अपनी पार्टी के भीतर गांधी के हत्यारों के पूजकों के लिए उसके मन में कितना सम्मान है, और कैसे ओहदे उसने इन्हें दे रखे हैं। ऐसे ही एक बहुत बड़े ओहदे पर बैठे हुए मनोज सिन्हा ने बेमौके पर एक बेतुकी बात छेडक़र गांधी पर जो हमला किया है, उसे इस पूरे अभियान के एक हिस्से के रूप में देखना चाहिए। हिन्दुस्तान की आज की जिस पीढ़ी ने गांधी को न देखा है, न आजादी की लड़ाई को भुगता है, उस पीढ़ी को नेहरू और गांधी के खिलाफ बरगलाना कुछ मुश्किल नहीं है। यह पीढ़ी भाड़े के झूठे भोंपुओं की सोशल मीडिया पर कही गई बातों को ज्यों की त्यों मान लेने का सहूलियत का काम करने की आदी है, और इसके बीच देश के इतिहास के सबसे महान लोगों का मूर्तिभंजन करना, और सबसे खराब लोगों को महिमामंडित करना बहुत ही आसान बात है। मनोज सिन्हा गए तो एक निजी यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में थे, लेकिन वहां उन्होंने वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी के दर्जे का भाषण दिया। कोई हैरानी नहीं है कि वे उस जंगल में भी श्रद्धासुमन अर्पित करने गए हों जहां पर गांधी पर गोली चलाने के पहले अभ्यास किया गया था।
देश में नफरत के लिए एक बड़ा बर्दाश्त पैदा किया जा चुका है। और जिस तरह एक धीमा जहर देकर एक वक्त विषकन्याएं तैयार करने की कहानी रहती थी, आज उसी तरह ये नफरतपुरूष तैयार किए गए हैं। नई पीढ़ी नफरतजीवी हो जाए, तो गांधी-नेहरू की विचारधारा के खिलाफ लोगों का चुनाव जीतना एक आसान काम हो जाएगा, और आज उसी इरादे से लगातार तरह-तरह की कोशिशें चल रही हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राहुल गांधी के बयान पर अदालत का फैसला अच्छा है या बुरा, सही है या गलत, यह बहस तो ऊपरी अदालत से इसके खिलाफ होने जा रही अपील के आने तक चल सकती है। लेकिन उसका कोई मतलब नहीं है। हिन्दुस्तानी राजनीति में राहुल का यह बयान अगर दो बरस कैद के लायक है, तो राष्ट्रीय स्तर के दर्जनों नेताओं को बाकी तमाम जिंदगी जेल में ही काटनी होगी। यह अलग बात है कि अधिक पार्टियां या नेता राजनीतिक और चुनावी बयानों को लेकर इस हद तक नहीं जाते हैं कि वे विपक्षी या विरोधी को कैद दिलवा दी जाए। लेकिन भाजपा और उसके नेता आज जिस आक्रामकता के साथ काम कर रहे हैं, और कांग्रेस और राहुल गांधी से उनके रिश्ते जितने खराब चल रहे हैं, उसके चलते हुए एक चुनावी बयान को यहां तक पहुंचाया गया है। हालत यह है कि जिस आम आदमी पार्टी की सरकार के दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की सीबीआई और ईडी की गिरफ्तारी पर भी कांग्रेस ने मुंह नहीं खोला था, उसके नेता और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल खुलकर राहुल गांधी के समर्थन में आए हैं, और विपक्षी नेताओं को इस तरह अदालतों में घसीटने के खिलाफ उन्होंने कुछ घंटों के भीतर ही बयान दिया है। और यह बात जाहिर है कि किसी भी राज्य की सरकार, वहां के नेता स्थानीय छोटी अदालतों में ऐसे मामले लगाकर विरोधी को कैद दिलवाने की उम्मीद कर सकते हैं क्योंकि छोटी अदालत का नजरिया किसी मुकदमे में संवैधानिक व्याख्या का नहीं रहता, वे आमतौर पर बहुत सीमित दायरे में सोचती हैं, और बात-बात में सजा देती हैं। छोटी अदालतों से सुनाई गई अधिकतर सजा हाईकोर्ट तक जाकर खारिज भी हो जाती हैं। राहुल के मामले में भी यही होने की उम्मीद है, और इस बीच यह भी सोचने की जरूरत है कि अगर हर नेता को इस तरह अदालत में घसीटा गया, तो कितने लोग बाहर रह जाएंगे?
अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कुछ बरस पहले का एक वीडियो दिख रहा है जिसमें वे संसद में रेणुका चौधरी की हॅंसी की तुलना रामायण की एक हॅंसी से करते हैं कि रामायण के बाद वैसी हॅंसी अभी सुनाई पड़ी है। यह बात सबको मालूम है कि रामायण में शूर्पनखा की राक्षसी हॅंसी का ही उल्लेख है। इसके अलावा भी नरेन्द्र मोदी कभी शशि थरूर के संदर्भ में सौ करोड़ की गर्लफ्रेंड कहते आए हैं, कभी सोनिया गांधी के संदर्भ में जर्सी गाय, और राहुल के संदर्भ में हाईब्रीड बछड़ा, राजीव गांधी के संदर्भ में करप्ट नंबर-1, जैसी बहुत सी सार्वजनिक टिप्पणियां उनके नाम के साथ जुड़ी हुई हैं, और यह हाल कई पार्टियों के बहुत से नेताओं का रहते ही आया है। अभी-अभी महाराष्ट्र में विधानसभा में एक निर्दलीय विधायक बच्चू कड़ू ने यह प्रस्ताव रखा था कि प्रदेश में आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी पर काबू करने के लिए इन्हें असम भेजा जाए क्योंकि इस पूर्वोत्तर राज्य में स्थानीय लोग कुत्ते खा जाते हैं। इस बात को लेकर असम के मुख्यमंत्री भारी खफा हैं, और उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर यह बयान वापिस लेने और माफी मांगने को कहा है। असम की विधानसभा में इसे लेकर खूब हंगामा हुआ, और यह मांग की गई कि महाराष्ट्र के इस विधायक को सदन में बुलाया जाए, और माफी मंगवाई जाए। लोगों को याद होगा कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तो उनके बारे में विपक्ष ने लगातार-गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है, का नारा लगाया था, जो पूरे चुनाव में चलते रहा। राहुल गांधी के कर्नाटक चुनाव में कहे गए एक वाक्य पर उन्हें गुजरात की एक अदालत से यह सजा हुई है, और उसमें राहुल ने कहा था कि सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है। जाहिर है कि वे नीरव मोदी, ललित मोदी के साथ-साथ नरेन्द्र मोदी की तरफ भी इशारा कर रहे थे, क्योंकि सार्वजनिक राजनीति में इतनी मासूमियत की छूट तो दी नहीं जा सकती कि वे सिर्फ नीरव और ललित की बात कर रहे थे। ऐसे अनगिनत बयान हैं। केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का एक बयान जिसमें उन्होंने सार्वजनिक सभा के मंच से गोली मारो सालों को किस्म का नारा लगाकर एक समुदाय की तरफ इशारा किया था, और जब मामला अदालत पहुंचा तो जज का विश्लेषण था कि चूंकि उन्होंने हॅंसते-हॅंसते यह बात कही थी, तो इसे हिंसा के लिए उकसावा नहीं माना जा सकता। हिन्दुस्तान में पिछले बरसों में दर्जनों सांसदों और सैकड़ों विधायकों ने, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों सहित अंधाधुंध हिंसक बयान दिए हैं जिनमें साम्प्रदायिक नफरत और हिंसा के फतवे रहे हैं। लेकिन किसी अदालत से उन्हें कोई सजा नहीं हुई क्योंकि राजनीतिक बयानों की राजनीतिक प्रतिक्रिया को काफी मान लिया गया था। किसी धर्म या समुदाय के सफाए के बयानों पर अगर अदालत का रूख किया जाता, तो उनके मुकाबले तो राहुल का बयान कुछ भी नहीं है। लेकिन जिस अदालत में जो मामला जाता है, वह अदालत तो उसी की सुनवाई करती है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जरूर कई मामलों को जोड़ सकते हैं, लेकिन छोटी अदालतें एक व्यापक नजरिया नहीं अपना सकतीं।
राजनीति में ओछी बातें भी बंद होना चाहिए, और बिना बात के बतंगड़ भी। आज अगर भाजपा विरोधी दूसरी पार्टियां चाहें तो अलग-अलग लोगों से और अलग-अलग समुदायों से बहुत से भाजपा नेताओं के खिलाफ अदालतों में उनके बयानों को लेकर मुकदमे दर्ज करवाए जा सकते हैं, इनसे हो सकता है कि लोग कुछ और सम्हलकर बोलने लगें, लेकिन लोकतंत्र में हर बात के लिए अदालत का रूख ठीक नहीं है। हो सके तो सार्वजनिक जीवन की बातों को जवाबी बातों से ही निपटाना चाहिए। फिर भी अगर कुछ लोग अधिक ही हिंसा और नफरत की बात करते हैं तो उनके खिलाफ जरूर अदालत जाना चाहिए। कांग्रेस के नेता भाजपा के नेताओं के खिलाफ अब अधिक चौकन्ने रह सकते हैं कि अदालत तक जाने का हक सिर्फ गुजरात के एक मोदी सरनेम वाले विधायक का नहीं है, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं का भी है। और ऐसे मुकदमों का सैलाब लाने के लिए रोज ही खबरों की कतरनें, और वीडियो मौजूद हो रहे हैं।
उत्तरप्रदेश के कानपुर के किसी करौली सरकार नाम के बाबा की खबरें बताती हैं कि वह आश्रम में पहुंचने वाली एक युवती को कद बढ़ाने की उसकी इच्छा पूरी करने के लिए कोई मंत्र सा पढ़ता है, और कहता है कि छह महीने में उसकी ऊंचाई तीन इंच बढ़ जाएगी। यह वीडियो चारों तरफ फैला हुआ ही है कि इस बीच एक डॉक्टर ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई कि इस बाबा के आश्रम में उससे सवाल पूछने पर बाबा ने अपने गुंडों से उसे पिटवाया। सवालों के जवाब में अपने बाहुबलियों से पिटवाना कोई बहुत अनोखा काम बाबाओं के लिए नहीं है। कहीं वे लोगों की पतलून उतरवाने की धमकी देते हैं, कहीं वे श्राप से भस्म कर देने की धमकी देते हैं, बाबा ने इसे सनातन धर्म को नीचा दिखाने की साजिश करार दिया है। शिकायत करने वाला वकील डॉ. सिद्धार्थ चौधरी है, और नाम से समझ पड़ता है कि वह हिन्दू है। दूसरी तरफ कानपुर के एक वकील ने इस बाबा को चुनौती दी है कि उनके बच्चों की बीमारी बाबा अपने चमत्कारों के दावे से ठीक कर दे तो वह अपनी पूरी दौलत बाबा को दान दे देगा। इन खबरों के बीच ऐसे वीडियो आते जा रहे हैं जिनमें यह बाबा कोई मंतर पढक़र चमत्कार से लोगों की बीमारी ठीक करने का नाटक करते दिखता है।
अब छत्तीसगढ़ भी मध्यप्रदेश के ऐसे एक-दो बाबाओं का शिकार पिछले महीनों में हो चुका है। और ऐसे पाखंडी चमत्कारी दावे करने वाले लोगों के खिलाफ कानून बने हुए हैं, लेकिन किसी भी पार्टी की सरकार हो वह इनके भक्तों की नाराजगी से बचने के लिए ऐसे दावों की अनदेखी करती है। दूसरी तरफ धर्म का ही चोला पहने हुए बहुत से तथाकथित साधू-संत अभी-अभी छत्तीसगढ़ में बड़ा डेरा डाल गए हैं, और देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग कर गए हैं। इनके साथ भी उसी तरह कांग्रेस के बड़े नेता जुड़े हुए थे जिस तरह डेढ़-दो बरस पहले छत्तीसगढ़ में एक ऐसे ही भगवा आयोजन में गांधी को गंदी गालियां बकी गई थीं, उससे भी कांग्रेस के नेता जुड़े हुए थे। अब पुलिस में रिपोर्ट होने पर कांग्रेस की सरकार कोई कार्रवाई कर दे तो कर दे, कांग्रेस के निर्वाचित नेता भी पूरी तरह से ऐसे पाखंडियों के पीछे लगे रहते हैं। मध्यप्रदेश के ही एक ऐसे ‘सरकार’ को छत्तीसगढ़ के ही उस वक्त के सबसे बड़े कांग्रेस नेता, और अविभाजित मध्यप्रदेश के मंत्री ने लाकर यहां बसाया था, तब से उनका कारोबार यहां चल ही रहा है। इसलिए हर किस्म के पाखंड और चमत्कार के साथ, धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता के फतवे देने वाले प्रवचनकर्ताओं के चरणों में कांग्रेसी भी पड़े दिखते हैं। लोगों को याद होगा कि आसाराम नाम के बलात्कारी मुजरिम के एक पैर पर नरेन्द्र मोदी, तो दूसरे पैर पर दिग्विजय सिंह पड़े दिखते थे। अभी भी महीनों से चल रहे विवाद के बाद भी मध्यप्रदेश के एक नौजवान बाबा के पैरों पर वानप्रस्थ की उम्र वाले कांग्रेस नेता कमलनाथ दिखे हैं।
वोटों के चक्कर में अगर अधिक हिन्दू बनने को बेचैन कांग्रेस पार्टी अगर ऐसे बाबाओं को जगह-जगह साख दिलाती रहेगी, तो वह हिन्दुत्व की असली वारिस भाजपा की बी टीम भी नहीं बन पाएगी, सी, डी, या ई टीम शायद बन जाए तो बन जाए। जिनको हिन्दुत्व के नाम पर वोट देना है, वे भला भाजपा को क्यों छोड़ेंगे जिसने कभी हिन्दुत्व नहीं छोड़ा। अब देश भर में अलग-अलग पार्टियों के राज वाले प्रदेशों में ऐसे बाबा कारोबार चला रहे हैं। राजनीतिक दल तो बलात्कारी कैदी राम-रहीम को भी जेल से बार-बार बाहर आने का रास्ता बनाने में लगे रहते हैं। राजनीतिक दलों को ऐसे बाबाओं को अंधभक्तों को अपने वोटर बनाने की हसरत रहती है। कांग्रेस का इतिहास जवाहरलाल नेहरू रहा हुआ है, उसके बाद भी अगर आज वह पाखंडों पर सवार होकर भाजपा को पीटना चाहती है, तो भाजपा के पास ऐसे पाखंडों के अंधभक्तों के अलावा अपने खुद के भक्त भी हैं। इस हथियार से भाजपा का कुछ नहीं बिगाड़ा जा सकता।
देश के कानून को भी इस पर गौर करना चाहिए कि किस तरह लोगों की वैज्ञानिकता को खत्म करके, चमत्कारों का झांसा देकर पेशेवर पाखंडी लोग झांसों की दुकान चला रहे हैं, और उनके खिलाफ मौजूदा कानून के तहत कोई भी कार्रवाई राज्य की सरकारें नहीं कर रही हैं। अब तो वीडियो-सुबूत लोगों के जुर्म साबित करने के लिए आसानी से मौजूद रहते हैं, और देश की किसी न किसी बड़ी अदालत को एक कड़ा रूख दिखाना होगा। जिस देश में जनता तरह-तरह की तकलीफों से घिरी रहती है, जहां उसे सरकार और अदालतों से अधिक उम्मीद नहीं रह जाती, जहां देश का भ्रष्टाचार लोगों को अपनी काबिलीयत से आगे नहीं बढऩे देता, वहां पर लोग अंधविश्वासों में फंस जाते हैं। हिन्दुस्तान ऐसा ही एक देश है। यह सिलसिला खत्म करने के लिए बेंगलुरू से लेकर पुणे तक जिन अंधविश्वास-विरोधियों ने अभियान चलाए, उन्हें मार डाला गया, क्योंकि अंधविश्वास से घिरी जनता से वोट दुहना आसान रहता है। फिर भी छत्तीसगढ़ के डॉ. दिनेश मिश्र की तरह और लोगों को भी आगे आना होगा, जनसंगठनों को मजबूती से पाखंड का विरोध करना होगा, और सरकारों और अदालतों को कार्रवाई के लिए घेरना होगा, तब जाकर देश में वैज्ञानिक सोच को बचा पाना मुमकिन होगा। जहां एक पाखंडी अपने मंतर से पढ़ी-लिखी युवती का कद तीन इंच बढ़ा देने का दावा करे, वहां विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की जरूरत किसे रह जाती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली पुलिस ने 6 लोगों को शहर की दीवारों पर पोस्टर चिपकाने के एक मामले में गिरफ्तार किया है। ये पोस्टर जाहिर तौर पर आम आदमी पार्टी के छपवाए हुए दिखते हैं। पोस्टरों पर कहीं आप का नाम नहीं है, लेकिन अब तक की पुलिस जांच में जो सामने आया है उसके मुताबिक ऐसे पोस्टरों से भरी हुई एक वैन जब्त हुई है जो कि आप मुख्यालय से निकली थी, और गिरफ्तार किए गए लोगों से यह पता लगा है कि दो दिन से ऐसे पोस्टर छापकर आप मुख्यालय में पहुंचाए जा रहे थे। इस पोस्टर की जिम्मेदारी लिए बिना इस पार्टी ने ट्विटर पर इस पोस्टर की फोटो के साथ लिखा है कि मोदी सरकार की तानाशाही चरम पर है, इस पोस्टर में ऐसा क्या आपत्तिजनक है जो इसे लगाने पर मोदीजी ने सौ एफआईआर कर दी, प्रधानमंत्री मोदी, आपको शायद पता नहीं पर भारत के एक लोकतांत्रिक देश है, एक पोस्टर से इतना डर क्यों?
अब यह पोस्टर चार शब्दों के हैं, मोदी हटाओ देश बचाओ। दो प्रिटिंग प्रेस को ऐसे 50-50 हजार पोस्टर छापने का ऑर्डर दिया गया था, और इन प्रेस से जुड़े हुए लोगों ने इतवार रात से सोमवार सुबह तक दिल्ली की दीवारों पर ये पोस्टर चिपकाए हैं। ये मामला प्रिटिंग प्रेस के नाम के बिना पोस्टर छापने की वजह से दर्ज किया गया है क्योंकि देश के कानून के मुताबिक किसी भी छपाई पर उसे छपवाने वाले और छापने वाले के नाम होने चाहिए। लोगों को याद होगा कि छोटे-छोटे से पर्चे भी प्रिटिंग प्रेस के नाम सहित ही छपते हैं। ऐसे में एक राजनीतिक मांग या नारे वाले ऐसे पोस्टर छपवाना और उन्हें सार्वजनिक दीवारों पर चिपकाना, यह काम बिना नाम क्यों होना चाहिए था? अरविन्द केजरीवाल की पार्टी को चुनाव लड़ते कई बरस हो गए हैं, और यह पार्टी रात-दिन दिल्ली के लेफ्टिनेंट जनरल से कानूनी लड़ाई में लगी रहती है। अभी इसके दो बड़े नेता जेलों में हैं, और पार्टी रात-दिन वकीलों के साथ जुटी हुई है। ऐसे में एक रजिस्टर्ड राजनीतिक दल को इस मासूमियत का लाभ नहीं दिया जा सकता कि वह पोस्टर छपवाते हुए एक न्यूनतम कानूनी जरूरत को पूरा करना भूल गई थी। वह तो अभी भी जब इस मामले में सौ एफआईआर हो चुकी हैं, और 6 लोग गिरफ्तार हो चुके हैं, तब भी इस पोस्टर की जिम्मेदारी लेने से कन्नी काट रही है। वह प्रधानमंत्री की आलोचना तो कर रही है, उन्हें लोकतंत्र याद दिला रही है, बेनाम पोस्टरों के खिलाफ जुर्म दर्ज होने पर उसे तानाशाही करार दे रही है, लेकिन अपनी खुद की इस हरकत पर बेकसूर लोगों की गिरफ्तारी के बाद भी वह इन पोस्टरों को छपवाने और लगवाने की जिम्मेदारी के मुद्दे पर चुप है। यह तो पुलिस जांच से साबित हो गया है कि इन पोस्टरों के पीछे आम आदमी पार्टी ही है, तो फिर सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के आंदोलन की उपज यह पार्टी साफ-साफ अपने काम कुबूल क्यों नहीं कर रही है? मोदी से लोकतंत्र की उम्मीद करना, और खुद बेनाम पोस्टर छपवाकर लगवाने का कानूनविरोधी काम करना, इन दोनों को एक साथ करना आम आदमी पार्टी के बस की ही बात दिखती है।
हिन्दुस्तान में राजनीतिक दल चुनावों के वक्त, चुनाव आचार संहिता के चलते चुनाव आयोग के सीधे नियंत्रण में रहते हैं, या कम से कम उनके प्रति हर हद तक जवाबदेह तो रहते ही हैं। लेकिन आचार संहिता से परे भी उनका काम तो एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल की हैसियत से ही चलता है, और यह मान्यता उन्हें चुनाव आयोग से ही मिली हुई है, इसलिए अपनी गैरकानूनी हरकतों के लिए उन्हें देश के बाकी कानून के साथ-साथ चुनाव आयोग के प्रति भी जवाबदेह रहना चाहिए, और गैरकानूनी हरकतों की वजह से पार्टियों की मान्यता खत्म करने का इंतजाम भी रहना चाहिए। और यह बात हम सिर्फ आम आदमी पार्टी के इस मासूम नारे वाले गैरकानूनी पोस्टरों के बारे में नहीं कह रहे हैं, बल्कि किसी भी पार्टी के नेता की गैरकानूनी और अलोकतांत्रिक बातों के बारे में भी कह रहे हैं। बहुत से नेता लगातार हिंसा और साम्प्रदायिक नफरत भडक़ाने वाले बयान देते हैं। इनमें से बहुत से लोग राजनीतिक दलों के सांसद और विधायक भी रहते हैं, या मान्यता प्राप्त राजनीतिक संगठन के पदाधिकारी रहते हैं। चूंकि संसद और विधानसभाएं सदन के बाहर अपने सदस्यों के किसी भी आचरण पर कोई कार्रवाई करते नहीं दिखती हैं, न ही उनकी कोई दिलचस्पी दिखती है, ऐसे में चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों से जवाब-तलब करने, उनकी मान्यता निलंबित या खत्म करने का काम करना चाहिए। आज बहुत से लोगों को यह बात इसलिए अलोकतांत्रिक लग सकती है क्योंकि आज देश में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता धेले की नहीं रह गई है। ऐसा माना जाता है कि मोदी सरकार ने चुनाव आयोग को सरकार का ही एक विभाग या मंत्रालय बना रखा है। लेकिन हम राजनीतिक दलों के जुर्म, उनकी गुंडागर्दी, और उनके अलोकतांत्रिक कामों को लेकर चुनाव आयोग के प्रति उनकी एक जवाबदेही के हिमायती हैं। अब अगर संवैधानिक संस्थाएं पूरी तरह से पक्षपाती हो जाएं, तो एक अलग बात है, उस हालत में तो बिना ऐसे अधिकार के भी चुनाव आयोग किसी पार्टी को परेशान कर सकता है, लेकिन सामान्य स्थितियों में राजनीतिक दलों की जवाबदेही बढ़ानी चाहिए, और उन्हें सिर्फ देश के आम कानून के भरोसे नहीं छोडऩा चाहिए। वे एक विशेष कानूनी दर्जा प्राप्त मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल हैं, और इस मान्यता के साथ यह बात जुड़ी रहनी चाहिए कि अगर वे सार्वजनिक जगहों पर कोई तोडफ़ोड़ करते हैं, तो चुनाव आयोग भी उनसे जवाब-तलब कर सके, नुकसान की वसूली कर सके। कई लोगों को लग सकता है कि इस काम के लिए तो देश के दूसरे कानून काफी हैं, और चुनाव आयोग को और अधिक अधिकार क्यों दिए जाएं, लेकिन देश के बाकी कानून राजनीतिक दलों की मान्यता से जुड़े हुए नहीं हैं। इसलिए देश में कई तरह के सार्वजनिक जुर्म करने पर कार्रवाई का अधिकार चुनाव आयोग को भी होना चाहिए।
आखिर में इस मुद्दे पर यही लिखना रह गया है कि आम आदमी पार्टी इस तरह के कई शिगूफों, और लोगों से एकतरफा टकराव करने की रणनीति पर चलती आई है। वह कोई आरोप उछालती है, और खिसक लेती है, किसी बात को मुद्दा बनाती है, और उसे सहूलियत के साथ भूल जाती है, वह भ्रष्टाचार विरोध के आंदोलन के साथ अस्तित्व में आई थी, लेकिन आज उसके बड़े-बड़े नेता बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के मामलों में गिरफ्तार हैं, और लोगों की हमदर्दी इस पार्टी के साथ घटती दिख रही है। अब यह पार्टी मोदी हटाने का ऐसा नारा तो दीवारों पर लगवा रही है जो देश के बाकी विपक्षी दलों को भी ठीक लगे, लेकिन मोदी के खिलाफ किसी मजबूत विपक्ष की नौबत से वह कतरा भी रही है। इसलिए आज उसका मोदी विरोध का यह महत्वहीन नाटक गैरकानूनी छपाई करवाने का नाटक भी है, ताकि ये पोस्टर और खबरों में आ जाएं। दिल्ली की जनता कई वजहों से केजरीवाल को दुबारा चुन चुकी है, लेकिन धीरे-धीरे करके ऐसे नाटक उजागर होते चलेंगे, और इस पार्टी के लिए मामला आसान नहीं रह जाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के सबसे चर्चित चुनाव-रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने अभी किसी एक टीवी चैनल से बातचीत में अगले आम चुनाव को लेकर अपना जो अंदाज सामने रखा है, वह पूरी तरह से अनोखा तो नहीं है, क्योंकि बहुत से लोग यह मानते हैं कि डॉन को ढूंढने की तरह, मोदी को हराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। ये शब्द किसी और के कहे हुए नहीं है, और यह हमारी अपनी एक मिसाल है, जो कि अलग-अलग तथ्यों और तर्कों से माकूल साबित होती है। हिन्दुस्तानी चुनावी राजनीति की हकीकत को देखें, तो मोदी को हराने की हसरत एक बड़ी दूर की कौड़ी दिखती है, और वह कौड़ी शायद फूटी हुई भी है। खैर, हम अपनी बात से यह चर्चा शुरू करने के बजाय प्रशांत किशोर की कही बातों पर आएं तो उन्होंने कहा कि विचारधारा के स्तर पर अलग-अलग बंटे होने के कारण विपक्षी एकता 2024 में काम नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि विपक्षी एकता केवल दिखावा है, और पार्टियों और नेताओं को एक साथ लाने से ही यह साकार नहीं होगी। प्रशांत किशोर ने कहा अगर भाजपा को चुनौती देना चाहते हैं तो उसकी तीन ताकतों, हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद, और कल्याणवाद को समझना होगा, और इनमें से कम से कम दो का मुकाबला किए बिना भाजपा को चुनौती नहीं दे सकते। प्रशांत किशोर ने अपने अब तक की आखिरी राजनीतिक पहल का भी खुलासा किया, और कहा कि कांग्रेस से उनके संपर्क का मकसद कांग्रेस को दुबारा खड़ा करना था, जबकि उनका मकसद चुनाव जीतना था, इसलिए सहमति नहीं हुई।
अब प्रशांत किशोर की बातों को कुछ पल के लिए छोड़ भी दें, तो भी हिन्दुस्तान की हकीकत तो देश के नक्शे पर साफ-साफ लिखी हुई है। शुरूआत देश के उन दो बड़े राज्यों से करें जहां से लोकसभा की सबसे अधिक सीटें आती हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार इन दोनों की राजनीति यह कहती है कि इन दोनों जगहों पर कांग्रेस अधिक सीटें जीतने की हालत में नहीं है। बिहार में कांग्रेस कुल एक सीट पर जीती थी, और उसका यही हाल उत्तरप्रदेश में भी था। इन नतीजों के चलते हुए वह बिहार में किसी गठबंधन में भी एक से अधिक सीट शायद ही पाए, और यूपी में तो न सपा न बसपा, कांग्रेस से गठबंधन को कोई भी तैयार नहीं है। ऐसे में कांग्रेस देश भर में अपनी मौजूदगी के दावे पर तो खरी है, लेकिन उसके हाथ में सीटें बहुत कम हैं, और अब से लेकर 2024 के चुनाव तक अगर धरती और आसमान में कुछ उलट-पुलट न हो जाए, तो आज ऐसी कोई वजह नहीं दिखती है कि कांग्रेस की सीटें बढ़ सकें। लेकिन दूसरी तरफ राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस पार्टी एक बड़ी खुशफहमी में जरूर पड़ गई है कि राहुल विपक्ष के इतने बड़े नेता हैं कि विपक्षी एकता का कोई भी गणित राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर ही सुलझाया जा सकेगा। कांग्रेस की यह घरेलू दिक्कत जरूर है कि राहुल से परे किसी और के नाम पर सोचने की कोई गुंजाइश नहीं है, और यह बात हकीकत भी है कि डेढ़ सौ दिनों के इस सफर ने राहुल को अपने ही पदयात्रा के पहले के कद से बहुत बड़ा कर दिया है। इससे एक दिक्कत भी हुई है, राहुल, और उनसे बढक़र उनकी पार्टी को भारत जोड़ो से जो आत्मविश्वास मिला है, उससे कांग्रेस पार्टी अपने आपको विपक्षी मोर्चे का स्वाभाविक मुखिया मानने लगी है, और राहुल को इस मोर्चे का नेता। यह कांग्रेस की पसंद हो सकती है, लेकिन विपक्षी मोर्चे में शामिल होने वाले दलों के लिए यह अगुवाई मंजूर करना आसान भी नहीं है, शायद बिल्कुल भी मुमकिन नहीं है।
देश के एक-एक करके हर राज्य को देखें, तो वहां क्षेत्रीय पार्टियां एक-दूसरे के मुकाबले इस तरह डटी हुई हैं कि भाजपा के अगुवाई वाले गठबंधन, और कांग्रेस के अगुवाई वाले गठबंधन में से किसी भी एक में ऐसी दो क्षेत्रीय पार्टियां जाने की नहीं सोच सकती हैं। यूपी में सपा और बसपा, बंगाल में ममता और वामपंथी, पंजाब में अकाली, कश्मीर में अब्दुल्ला और महबूबा, आंध्र में चंद्राबाबू नायडू और जगन मोहन, तेलंगाना में सत्तारूढ़ टीआरएस पहले ही कांग्रेस और भाजपा दोनों से परे रहने की मुनादी कर चुकी है। अधिकतर जगहों पर क्षेत्रीय पार्टियां आपसी टकराहट की वजह से किसी एक गठबंधन में नहीं जाएंगी, और ऐसे में केन्द्र की ताकत, और एक-एक करके अधिकतर प्रदेशों में सत्ता पर पहुंच चुकी एनडीए के मुकाबले लोगों को जोडऩा तकरीबन नामुमकिन लगता है। अब ऐसे में लोगों को जोडऩे की एक तरकीब हो सकती थी कि कांग्रेस सबसे फैली हुई, सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद अगर प्रधानमंत्री पद पर दावा नहीं करती, तो कुछ पार्टियां उसके साथ जुड़ सकती थीं, लेकिन जिस देश में गुजराल और देवेगौड़ा जैसे नेता भी प्रधानमंत्री बन चुके हैं, वहां पर देश के कम से कम आधा दर्जन नेताओं का ऐसा सपना देखने का तो बड़ा जायज हक बनता है। हालात कब किसे ले जाकर प्रधानमंत्री बना दें, इसका ठिकाना नहीं रहता, इसलिए आज ममता से लेकर अखिलेश तक, और नीतीश से लेकर पवार तक, बहुत से लोगों को ऐसा गठबंधन नागवार गुजर सकता है जिसका पीएम-प्रत्याशी अभी से राहुल गांधी को बना दिया जाए।
हमने कुछ अरसा पहले भी इसी जगह पर यह बात लिखी थी कि राहुल और कांग्रेस के सामने आज बड़ी चुनौती कांग्रेस को एक रखना नहीं है, बल्कि विपक्षी एकता की कोशिश करना है। लेकिन यह कोशिश शुरू भी हो, उसके पहले कांग्रेस के कुछ बड़बोले नेता शुरू हो जाते हैं कि कोई भी गठबंधन तभी मुमकिन है, जब राहुल उसके नेता, और पीएम-प्रत्याशी हों। आज जब लोग एक-दूसरे से मिलकर किसी गठबंधन की संभावनाएं टटोल ही रहे हैं, उस वक्त कांग्रेस पार्टी एक पार्टी के रूप में, या उसके नेता राहुल की तरफ से अगर ऐसी बातें करेंगे कि लूडो के खेल में छह आने पर ही गोटी बाहर निकलने जैसी शर्त गठबंधन में राहुल को मुखिया बनाने की रहेगी, तो फिर यह बातचीत का माहौल भी नहीं रहेगा। गठबंधन के मुखिया की बात तो उस वक्त होनी चाहिए जब गठबंधन की पार्टियों की जीती हुई सीटों की लिस्ट सामने रहे। यह बात सही है कि कांग्रेस के लिए यह नौबत बहुत आसान नहीं है, कि वह पार्टी के रूप में अपने को सबसे ऊपर रखे, और राहुल गांधी को नेता बनाने को पहली शर्त रखे, या फिर वह विपक्षी एकता की कोशिश करे। ये दोनों बातें साथ चलते नहीं दिख रही हैं। प्रशांत किशोर के तर्क अलग हो सकते हैं, और हमारे आज के यहां गिनाए गए तर्क कुछ अलग, लेकिन इन दोनों से अंदाज यही बैठता है कि 2024 के चुनाव में मोदी जैसा कोई नहीं के हालात दिख रहे हंै। पार्टियां अपने को बचाने, अपने नेता को बचाने, विपक्ष को बचाने, और भारतीय लोकतंत्र को बचाने के बीच प्राथमिकताएं तय करने में बहुत तंगदिली, और तंगनजरिए का शिकार दिख रही हैं।