संपादकीय
हिन्दुस्तान के सबसे चर्चित चुनाव-रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने अभी किसी एक टीवी चैनल से बातचीत में अगले आम चुनाव को लेकर अपना जो अंदाज सामने रखा है, वह पूरी तरह से अनोखा तो नहीं है, क्योंकि बहुत से लोग यह मानते हैं कि डॉन को ढूंढने की तरह, मोदी को हराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। ये शब्द किसी और के कहे हुए नहीं है, और यह हमारी अपनी एक मिसाल है, जो कि अलग-अलग तथ्यों और तर्कों से माकूल साबित होती है। हिन्दुस्तानी चुनावी राजनीति की हकीकत को देखें, तो मोदी को हराने की हसरत एक बड़ी दूर की कौड़ी दिखती है, और वह कौड़ी शायद फूटी हुई भी है। खैर, हम अपनी बात से यह चर्चा शुरू करने के बजाय प्रशांत किशोर की कही बातों पर आएं तो उन्होंने कहा कि विचारधारा के स्तर पर अलग-अलग बंटे होने के कारण विपक्षी एकता 2024 में काम नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि विपक्षी एकता केवल दिखावा है, और पार्टियों और नेताओं को एक साथ लाने से ही यह साकार नहीं होगी। प्रशांत किशोर ने कहा अगर भाजपा को चुनौती देना चाहते हैं तो उसकी तीन ताकतों, हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद, और कल्याणवाद को समझना होगा, और इनमें से कम से कम दो का मुकाबला किए बिना भाजपा को चुनौती नहीं दे सकते। प्रशांत किशोर ने अपने अब तक की आखिरी राजनीतिक पहल का भी खुलासा किया, और कहा कि कांग्रेस से उनके संपर्क का मकसद कांग्रेस को दुबारा खड़ा करना था, जबकि उनका मकसद चुनाव जीतना था, इसलिए सहमति नहीं हुई।
अब प्रशांत किशोर की बातों को कुछ पल के लिए छोड़ भी दें, तो भी हिन्दुस्तान की हकीकत तो देश के नक्शे पर साफ-साफ लिखी हुई है। शुरूआत देश के उन दो बड़े राज्यों से करें जहां से लोकसभा की सबसे अधिक सीटें आती हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार इन दोनों की राजनीति यह कहती है कि इन दोनों जगहों पर कांग्रेस अधिक सीटें जीतने की हालत में नहीं है। बिहार में कांग्रेस कुल एक सीट पर जीती थी, और उसका यही हाल उत्तरप्रदेश में भी था। इन नतीजों के चलते हुए वह बिहार में किसी गठबंधन में भी एक से अधिक सीट शायद ही पाए, और यूपी में तो न सपा न बसपा, कांग्रेस से गठबंधन को कोई भी तैयार नहीं है। ऐसे में कांग्रेस देश भर में अपनी मौजूदगी के दावे पर तो खरी है, लेकिन उसके हाथ में सीटें बहुत कम हैं, और अब से लेकर 2024 के चुनाव तक अगर धरती और आसमान में कुछ उलट-पुलट न हो जाए, तो आज ऐसी कोई वजह नहीं दिखती है कि कांग्रेस की सीटें बढ़ सकें। लेकिन दूसरी तरफ राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस पार्टी एक बड़ी खुशफहमी में जरूर पड़ गई है कि राहुल विपक्ष के इतने बड़े नेता हैं कि विपक्षी एकता का कोई भी गणित राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर ही सुलझाया जा सकेगा। कांग्रेस की यह घरेलू दिक्कत जरूर है कि राहुल से परे किसी और के नाम पर सोचने की कोई गुंजाइश नहीं है, और यह बात हकीकत भी है कि डेढ़ सौ दिनों के इस सफर ने राहुल को अपने ही पदयात्रा के पहले के कद से बहुत बड़ा कर दिया है। इससे एक दिक्कत भी हुई है, राहुल, और उनसे बढक़र उनकी पार्टी को भारत जोड़ो से जो आत्मविश्वास मिला है, उससे कांग्रेस पार्टी अपने आपको विपक्षी मोर्चे का स्वाभाविक मुखिया मानने लगी है, और राहुल को इस मोर्चे का नेता। यह कांग्रेस की पसंद हो सकती है, लेकिन विपक्षी मोर्चे में शामिल होने वाले दलों के लिए यह अगुवाई मंजूर करना आसान भी नहीं है, शायद बिल्कुल भी मुमकिन नहीं है।
देश के एक-एक करके हर राज्य को देखें, तो वहां क्षेत्रीय पार्टियां एक-दूसरे के मुकाबले इस तरह डटी हुई हैं कि भाजपा के अगुवाई वाले गठबंधन, और कांग्रेस के अगुवाई वाले गठबंधन में से किसी भी एक में ऐसी दो क्षेत्रीय पार्टियां जाने की नहीं सोच सकती हैं। यूपी में सपा और बसपा, बंगाल में ममता और वामपंथी, पंजाब में अकाली, कश्मीर में अब्दुल्ला और महबूबा, आंध्र में चंद्राबाबू नायडू और जगन मोहन, तेलंगाना में सत्तारूढ़ टीआरएस पहले ही कांग्रेस और भाजपा दोनों से परे रहने की मुनादी कर चुकी है। अधिकतर जगहों पर क्षेत्रीय पार्टियां आपसी टकराहट की वजह से किसी एक गठबंधन में नहीं जाएंगी, और ऐसे में केन्द्र की ताकत, और एक-एक करके अधिकतर प्रदेशों में सत्ता पर पहुंच चुकी एनडीए के मुकाबले लोगों को जोडऩा तकरीबन नामुमकिन लगता है। अब ऐसे में लोगों को जोडऩे की एक तरकीब हो सकती थी कि कांग्रेस सबसे फैली हुई, सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद अगर प्रधानमंत्री पद पर दावा नहीं करती, तो कुछ पार्टियां उसके साथ जुड़ सकती थीं, लेकिन जिस देश में गुजराल और देवेगौड़ा जैसे नेता भी प्रधानमंत्री बन चुके हैं, वहां पर देश के कम से कम आधा दर्जन नेताओं का ऐसा सपना देखने का तो बड़ा जायज हक बनता है। हालात कब किसे ले जाकर प्रधानमंत्री बना दें, इसका ठिकाना नहीं रहता, इसलिए आज ममता से लेकर अखिलेश तक, और नीतीश से लेकर पवार तक, बहुत से लोगों को ऐसा गठबंधन नागवार गुजर सकता है जिसका पीएम-प्रत्याशी अभी से राहुल गांधी को बना दिया जाए।
हमने कुछ अरसा पहले भी इसी जगह पर यह बात लिखी थी कि राहुल और कांग्रेस के सामने आज बड़ी चुनौती कांग्रेस को एक रखना नहीं है, बल्कि विपक्षी एकता की कोशिश करना है। लेकिन यह कोशिश शुरू भी हो, उसके पहले कांग्रेस के कुछ बड़बोले नेता शुरू हो जाते हैं कि कोई भी गठबंधन तभी मुमकिन है, जब राहुल उसके नेता, और पीएम-प्रत्याशी हों। आज जब लोग एक-दूसरे से मिलकर किसी गठबंधन की संभावनाएं टटोल ही रहे हैं, उस वक्त कांग्रेस पार्टी एक पार्टी के रूप में, या उसके नेता राहुल की तरफ से अगर ऐसी बातें करेंगे कि लूडो के खेल में छह आने पर ही गोटी बाहर निकलने जैसी शर्त गठबंधन में राहुल को मुखिया बनाने की रहेगी, तो फिर यह बातचीत का माहौल भी नहीं रहेगा। गठबंधन के मुखिया की बात तो उस वक्त होनी चाहिए जब गठबंधन की पार्टियों की जीती हुई सीटों की लिस्ट सामने रहे। यह बात सही है कि कांग्रेस के लिए यह नौबत बहुत आसान नहीं है, कि वह पार्टी के रूप में अपने को सबसे ऊपर रखे, और राहुल गांधी को नेता बनाने को पहली शर्त रखे, या फिर वह विपक्षी एकता की कोशिश करे। ये दोनों बातें साथ चलते नहीं दिख रही हैं। प्रशांत किशोर के तर्क अलग हो सकते हैं, और हमारे आज के यहां गिनाए गए तर्क कुछ अलग, लेकिन इन दोनों से अंदाज यही बैठता है कि 2024 के चुनाव में मोदी जैसा कोई नहीं के हालात दिख रहे हंै। पार्टियां अपने को बचाने, अपने नेता को बचाने, विपक्ष को बचाने, और भारतीय लोकतंत्र को बचाने के बीच प्राथमिकताएं तय करने में बहुत तंगदिली, और तंगनजरिए का शिकार दिख रही हैं।
हिन्दुस्तान में एक बार फिर कोरोना की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। एक दिन में देश में 5 सौ से अधिक कोरोना पॉजिटिव मिलने से सरकारें चौकन्नी हो गई हैं। सडक़ों पर कुछ लोग, चाहे वे गिनती के ही क्यों न हों, मास्क लगाए दिखने लगे हैं। लेकिन ऐसी कोई वजह नहीं दिखती है कि देश में इसे लेकर किसी दहशत या हड़बड़ी की नौबत हो। कोरोना के पिछले दो अलग-अलग दौर में जिस तरह लाखों लोग मारे गए, और विश्व स्वास्थ्य संगठन का अंदाज दसियों लाख का है, उसके बाद कोरोना के तीसरे दौर में तकरीबन कुछ भी नहीं हुआ। इसकी दो वजहें बताई गईं, एक तो यह कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा टीके ले चुका है, और दूसरी वजह यह कि आबादी के एक बड़े हिस्से को कोरोना हो चुका था, और उसकी वजह से इस वायरस के खिलाफ शरीर में प्रतिरोधक शक्ति विकसित हो चुकी थी, और इस वजह से वायरस का नया हमला उस पर असर नहीं कर रहा था। अब अगर नौबत जरा भी फिक्र की नहीं है, तो फिर इस मुद्दे पर आज लिखा क्यों जा रहा है? आज कोरोना पर लिखने की जरा भी नीयत नहीं है, लेकिन कोरोना के सबक से जिंदगी के दूसरे दायरों में भी कुछ-कुछ सीखा जा सकता है।
हिन्दुस्तान में आज धार्मिक कट्टरता, और साम्प्रदायिकता के वायरस ने तकरीबन तमाम आबादी को संक्रमित कर दिया है। इस तरह से प्रभावित हो चुकी आबादी पर अब और अधिक भडक़ाऊ बातों का असर होते ही नहीं दिखता है। साम्प्रदायिक नफरत लोगों को ध्यान भी नहीं खींचती, वह हिन्दुस्तानी जिंदगी में एक नवसामान्य बात हो गई दिखती है। जब लोग ऐसे चिकने घड़े सरीखे हो जाएं जिन पर साम्प्रदायिक नफरत की फिक्र की बूंद भी न टिक पाए, तो वह एक अलग किस्म की, बड़ी फिक्र की बात रहती है, और आज हिन्दुस्तान उसी से गुजर रहा है। फिर दूसरी बात यह भी है कि जब लोगों की सोच जिंदगी के किसी एक दायरे में तर्कहीन, कुतर्क पर आधारित, अवैज्ञानिक होने लगती है, तो फिर वे जिंदगी के बाकी दायरों में भी उसी दर्जे की सोच रखने लगते हैं। अगर कोई अंधविश्वासी बिना महूरत देखे घर से नहीं निकलते हैं, तो फिर वे किसी ताबीज के झांसे में भी जल्दी आ जाते हैं, वे घर-दुकान का वास्तु सुधरवाने लगते हैं, किसी मंत्र का जाप करना उन्हें ठीक लगने लगता है, और वे निर्मल बाबा सरीखे किसी इंसान के बताए शुक्रवार को काले कुत्ते को पीली रोटी खिलाने के लिए भी घूमते रहते हैं। अंधविश्वास अकेले नहीं आता, वह दोस्तों और सहेलियों के साथ आता है। उसी तरह जिस देश की सोच झूठ पर जिंदा रहने लगती है, वह देश कई किस्म के झूठों पर भरोसा करने लगता है, और उसका कोई अंत नहीं होता। वह पीलिया उतारने के लिए थाली के पानी में खड़ा करके किसी से मंत्र भी पढ़वाने पर भरोसा करने लगता है। वह किसी दरगाह या मंदिर पर होने वाली आत्मा आने की नौटंकी पर भी भरोसा करने लगता है। और इस किस्म के अवैज्ञानिक और अंधविश्वासी संक्रमण की मार से लोगों पर वैज्ञानिकता का असर खत्म हो जाता है। जिन लोगों ने एक पूरी पीढ़ी की जिंदगी विज्ञान पर भरोसा करके एक वैज्ञानिक सोच पाई थी, उन्हें अंधविश्वासी सोच साल भर में अंधविश्वासी बना सकती है। हिन्दुस्तान में आज यही हो रहा है, जिस तरह कोरोना के संक्रमण के बाद अब कोरोना का खतरा ऐसे लोगों पर घट गया है, उसी तरह अंधविश्वास के संक्रमण के बाद अब लोगों पर वैज्ञानिकता का ‘खतरा’ घट चुका है, और लोग तेजी से धार्मिक, जातीय, या सामुदायिक नफरत में घिरने लगे हैं, उन्हें यह समझ ही नहीं पड़ रहा है कि भीड़ की मानसिकता से परे देश की बेहतरी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में है।
देश की जनता वैज्ञानिक सोच के खिलाफ, लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ एक प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुकी है। ऐसे में उसे सार्वजनिक और व्यापक हित की बातें समझाना मुश्किल हो गया है। पहले वह एक धर्म को एक ईकाई मानकर, उसके भीतर के लोगों के भले की ही बात सोच रही है, फिर इस धर्म के भीतर भी अलग-अलग किस्म की आस्था पद्धतियों के भीतर उसकी सोच सिमट रही है। और यह सिलसिला धीरे-धीरे करके एक बहुत ही छोटे और बहुत ही कट्टर दायरे में लोगों को कैद करते जा रहा है। लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक सोच कतरों में नहीं आ पाती, उसके लिए लोगों को निर्विवाद रूप से अपनी तमाम सोच को विकसित करना होता है। जिस तरह सडक़ पर चलते किसी इंसान के सिर से लेकर पैर तक, तमाम धड़ को ही एक साथ आगे या पीछे ले जाया जा सकता है, टुकड़ों में नहीं ले जाया जा सकता, उसी तरह लोगों की सोच है, या तो वह पूरी तरह वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक होगी, न्यायसंगत और सरोकारी होगी, या फिर वह अंधविश्वासी और अलोकतांत्रिक होगी, उसे सामाजिक समानता से कुछ भी लेना-देना नहीं होगा।
यह तमाम बात लोगों को कुछ अमूर्त लग सकती है, क्योंकि इसे एक चेहरा देना मुश्किल है, इसे महज समझा जा सकता है। और आज इस बात को समझने की जरूरत जितनी अधिक है, उसके खिलाफ उतनी ही अधिक संगठित साजिश चल रही है कि लोग कहीं वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक सोच की ओर लौट तो नहीं जाएंगे? यह वक्त हिन्दुस्तान में एक बहुत खतरनाक दौर है, और इससे भी अधिक खतरनाक यह है कि लोगों को इस खतरे का अहसास होना खत्म हो चुका है। यह सिलसिला पता नहीं कब थमेगा, थमेगा भी या नहीं, या फिर यह बढ़ते ही चलेगा, दुनिया के उन कुछ देशों की तरह जहां पर कि धर्मान्धता ने लोकतंत्र को भी खत्म कर दिया है। इस हिन्दुस्तान को आज हिन्दू राष्ट्र बनाने के नारे बढ़ते चल रहे हैं, वे फतवों की शक्ल ले रहे हैं, और इससे भी बड़ा खतरा यह है कि बहुत से लोगों को यह बात स्वाभाविक और सही लग रही है, और इसमें उनकी बची-खुची लोकतांत्रिक सोच आड़े भी नहीं आ रही है। सोच का इस हद तक खत्म हो जाना एक बड़ा खतरा है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज किस मुद्दे पर लिखा जाए इसे लेकर तलाश जारी थी कि कुछ हैरान करने वाली एक खबर आ गई, और यह तलाश खत्म हुई। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के घर पर दिल्ली पुलिस के एक बड़े अफसर की अगुवाई में एक टीम पहुंची है जो उनसे उनके एक बयान पर पूछताछ करना चाहती है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने श्रीनगर में यह कहा था कि कुछ महिलाओं ने उनसे यौन उत्पीडऩ की शिकायत लेकर संपर्क किया था, और उन्होंने यह सुना है कि उन महिलाओं पर अभी भी यौन हमले किए जा रहे हैं। अभी पूछताछ करने पहुंचे अफसरों का कहना है कि पुलिस ने उनसे उन पीडि़त महिलाओं के बारे में जानकारी मांगी है ताकि उन्हें सुरक्षा मुहैया कराई जा सके।
पूछताछ का यह अंदाज कुछ हैरान करता है। किसी एक सांसद ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में अगर यह कहा है कि यौन शोषण की शिकार महिलाओं ने उनसे मिलकर शिकायत की है, तो क्या यह बयान किसी सांसद के घर पुलिस टीम के पहुंचकर बयान लेने के लायक है? या पुलिस महज एक चि_ी लिखकर भी अपने लोगों का वक्त बचा सकती थी? कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने यह कहा है कि भारत जोड़ो यात्रा को खत्म हुए ही 45 दिन हो चुके हैं। अगर दिल्ली पुलिस को राहुल गांधी के बयान से महिलाओं की सुरक्षा की इतनी फिक्र उपजी थी, तो उसे इतने दिनों में यह पूछताछ कर लेनी थी। यह बात अटपटी है, और इसीलिए आज कांग्रेस और केन्द्र सरकार के बीच, खासकर राहुल गांधी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच चल रही एक अभूतपूर्व तनातनी को लेकर पूछताछ का यह तरीका अधिक फिक्र के लायक हो जा रहा है। क्या यह ब्रिटेन प्रवास के दौरान राहुल गांधी द्वारा की गई मोदी सरकार की आलोचना की एक प्रतिक्रिया है? क्या यह कांग्रेस पार्टी की ओर से अडानी को लेकर मोदी से हर दिन सोशल मीडिया पर किए जा रहे सवालों की प्रतिक्रिया है? आज जब तनातनी इतनी अधिक है, तो क्या सरकार चला रहे लोगों को सरकार के तौर-तरीकों को लेकर कुछ अधिक सावधान नहीं रहना था, या फिर तौर-तरीकों का यह प्रदर्शन सोच-समझकर किया जा रहा है, ताकि खिलाफ बयान देने वाले लोगों को सरकार की ताकत का अहसास हो सके?
एक नेता के एक सामान्य बयान का जवाब प्रभावित पार्टी या नेता की ओर से एक सामान्य बयान से भी हो सकता था। लेकिन राहुल के बयान के खिलाफ जिस तरह से संसद को ही कई दिनों से ठप्प कर दिया गया है, जिस तरह से राहुल से माफी मंगवाने पर भाजपा और सत्ता आमादा हैं, वह भी हैरान करता है। अडानी से तो हिन्दुस्तान की अर्थव्यवस्था, जनता के हक की सार्वजनिक संपत्तियां जुड़ी हुई हैं, इसलिए अडानी को लेकर तो अमरीका की संस्था हिंडनबर्ग से लेकर भारतीय अदालतों तक कई जगहों पर सवाल हो रहे हैं, इसलिए किसी को उसका बुरा नहीं मानना चाहिए। लेकिन भारतीय लोकतंत्र की आज की हालत की राहुल की व्याख्या अगर किसी बहाने पुलिस को उनके घर पहुंचा दे रही है, तो यह तरीका अभूतपूर्व और बड़ा ही अटपटा है, और यह निराश करता है कि इस लोकतंत्र में विपक्ष और असहमति अवांछित हो चुके हैं।
फिर यह बात भी हैरान करती है कि सत्ता के साथ-साथ मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा देश की हर दिक्कत के लिए जिस अंदाज में राहुल से सवाल कर रहा है, उससे ऐसा लगता है कि राहुल ही देश के प्रधानमंत्री हैं, और सौ रूपये लीटर डीजल-पेट्रोल से लेकर 11 सौ रूपये के गैस सिलेंडर तक के लिए राहुल ही जिम्मेदार हैं। देश की दिक्कतों और सरकार की नाकामी को लेकर जितने सवाल सरकार से होने चाहिए, उतने सवाल राहुल से किए जा रहे हैं। लोकतंत्र में मीडिया ने हिन्दुस्तान में बहुत पहले से अपने को चौथा खम्भा बना रखा था। अब यह चौथा खम्भा पहले खम्भे के तलुओं को गुदगुदाने में जिस अंदाज में जुटा हुआ है, उससे हैरानी होती है कि क्या असल जिंदगी के कोई स्तंभ एक-दूसरे के पैरों पर पड़े रहकर भी स्तंभ का दर्जा पाने का दावा करते रह सकते हैं? इस मीडिया में जब कभी हिन्दुस्तानी जिंदगी के कुछ असल मुद्दों के सतह पर आ जाने, और छा जाने का खतरा दिखता है, तब-तब योजनाबद्ध तरीके से कुछ ऐसी निहायत गैरजरूरी बातों से गढ़ी हुई खबरों के सैलाब मीडिया में दिखने लगते हैं कि जनता, दिमाग पर जोर डालने से बचने की आदी जनता, उसी में भीग जाती है। यह सिलसिला गैरमुद्दों को असल मुद्दों की तरह पेश करने का है, और ऐसा भी लगता है कि राहुल के घर पुलिस भेजने का यह फैसला खबरों से कुछ दूसरी बातों को पीछे धकेलने का है, और बयान देने वाले नेताओं को चुप रहने की, कम बोलने की नसीहत देने वाला तो है ही। यह लिखते-लिखते ही दिल्ली से राहुल के घर के बाहर पुलिस के पहुंचने और दाखिल होने के जो वीडियो आए हैं, वे और हक्का-बक्का करते हैं। डेढ़-दो दर्जन पुलिसवाले, जिनमें से बहुत से लोग वीडियो रिकॉर्डिंग कर रहे हैं, मानो हरियाणा के संत रामपाल के आश्रम में पुलिस कार्रवाई होने जा रही है, और भीतर से हथियारबंद संघर्ष की आशंका है। एक अहिंसक, सभ्य और विनम्र सांसद से पूछताछ के लिए दिल्ली पुलिस का एक अफसर काफी नहीं होता?
हिन्दुस्तान में आज केन्द्र सरकार, भाजपा, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से किसी भी किस्म की असहमति, उनमें से किसी की भी आलोचना को देशविरोधी, राष्ट्रविरोधी, और राष्ट्रद्रोही साबित करने की एक दौड़ चल रही है। कल ही केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने एक बयान दिया है कि देश के कुछ ऐसे भूतपूर्व जज हैं जो भारतविरोधी गिरोह का हिस्सा हैं, जो न्यायपालिका को विपक्षी दलों की तरह सरकार के खिलाफ करने की कोशिश कर रहे हैं, और जो कोई देश के खिलाफ काम करेंगे उन्हें इसके दाम चुकाने होंगे। उनके इस बयान पर देश के एक प्रमुख वकील प्रशांत भूषण ने इसे जजों को धमकी देना कहा है। तो बात सिर्फ राहुल गांधी तक सीमित नहीं है, इस देश में देश की सबसे बड़ी अदालत के रिटायर्ड जज भी अब भारतविरोधी गिरोह का हिस्सा करार दिए जा रहे हैं, क्योंकि वे सरकार के कुछ फैसलों से असहमत हैं। जिस लोकतंत्र में असहमति नाली में फेंक दिए गए अवांछित नवजात शिशु से भी अधिक अवांछित मान ली जाए, वहां नाली में सिर्फ नवजात शिशु की लाश नहीं रहती, वहां वानप्रस्थ आश्रम जाने की उम्र वाले लोकतंत्र की लाश भी रहती है।
आज दो अलग-अलग चीजें हुई हैं, सुबह की पहली खबर यह मिली कि पिछले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप यूट्यूब और फेसबुक पर वापिस आ गए हैं, और उन्होंने लिखा- ‘आई एम बैक’। और इसके साथ ही उन्होंने अपनी एक चुनावी रैली का वीडियो पोस्ट करके एक किस्म से यह मुनादी कर दी है कि वे दुबारा चुनाव लडऩे जा रहे हैं। 2020 में चुनाव हारने के बाद उनके समर्थकों ने जिस तरह अमरीकी संसद पर हमला बोला था, हिंसा की थी, और अगली सरकार को आने से रोकने की कोशिश की थी, उसके बाद हिंसा को भडक़ाते दिखने वाले ट्रंप के सोशल मीडिया अकाऊंट ब्लाक कर दिए गए थे। अब वे फिर से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं, और अमरीकी संस्कृति के मुताबिक अच्छे या बुरे हर किस्म के उम्मीदवार को यह हक है कि वोटर तक अपनी बात पहुंचा सके, या वोटर अपने उम्मीदवार की बात सुन सके, इसलिए एक-एक करके तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नफरत और हिंसा की राजनीति करने वाले ट्रंप के अकाऊंट बहाल करते जा रहे हैं। इस बीच लोगों को याद होगा कि ट्रंप ने अपनी नफरत की सोच को आगे बढ़ाने के लिए ट्विटर के मुकाबले एक नया प्लेटफॉर्म भी शुरू करवाया था, लेकिन वह किसी किनारे नहीं पहुंच पाया। आज की दूसरी खबर यह है कि बिहार के एक यूट्यूबर मनीष कश्यप ने तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों पर हमले की झूठी खबरें फैलाकर नफरत और तनाव फैलाने का काम किया था, और इस पर उसके खिलाफ दर्ज मामले में उसने बिहार पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया है। पुलिस उसे चारों तरफ तलाश रही थी, और दोनों राज्यों की पुलिस का यह मानना है कि इस यूट्यूबर ने हमले की फर्जी खबरें फैलाई थीं।
अब अलग-अलग जगहों का कानून सोशल मीडिया पर झूठ, नफरत, और हिंसा फैलाने वाले लोगों के साथ कैसा बर्ताव करता है, यह भी देखने के लायक है क्योंकि भडक़ाने का यह तरीका लगातार अधिक इस्तेमाल हो रहा है, और हिन्दुस्तान में तो बड़े राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नामी-गिरामी पदाधिकारी इस काम में लगे दिखते हैं, और फिर मानो उन्हें कानून की भी कोई परवाह नहीं रह गई है। दूसरी तरफ लोगों को याद होगा कि कंगना रनौत जैसी चर्चित फिल्म अभिनेत्री नफरत की अपनी पोस्ट के चलते हुए ट्विटर पर ब्लाक की गई थीं। नफरत का यह सिलसिला लोगों की निजी सोच तक सीमित नहीं है, इसे साम्प्रदायिक विचारधाराएं हिन्दुस्तान में लगातार संगठित रूप से, और बहुत से लोगों का अंदाज है कि एक साजिश के तहत लोगों का साइबर-गिरोह खड़ा करके आगे बढ़ाया जा रहा है। यह बात जरूर है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत किसी के मुंह जिंदगी भर के लिए नहीं सिले जा सकते, और कानूनी कार्रवाई के बाद लोगों को एक बार फिर बोलने का हक मिलना चाहिए, लेकिन हिन्दुस्तान में दिक्कत यह है कि नफरत फैलाने वाले किसी सोशल मीडिया मवाली को सजा होते दिखती नहीं है, नतीजा यह होता है कि बाकी नफरतजीवी आम लोगों को भी यह लगता है कि वे जो चाहे पोस्ट कर सकते हैं, और देखादेखी नफरत का यह सैलाब दूर-दूर तक फैलने लगता है।
हिन्दुस्तान में वैसे तो साइबर कानून बड़ा कड़ा बनाया गया है, और उसी के चलते तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों पर हमले की झूठी खबर पर बिहार में दर्ज मुकदमे में एक नफरतजीवी यूट्यूबर को पुलिस के सामने हथियार डालने पड़े हैं, लेकिन ऐसी गिरफ्तारी के बाद लोगों को सजा मिलते दिखती नहीं है। पता नहीं मामले-मुकदमे कितने लंबे चलते हैं, सजा की खबरें क्यों नहीं आती हैं, और उनके न आने से बाकी लोग इसी धंधे को आगे बढ़ा रहे हैं। सोशल मीडिया और इंटरनेट-मोबाइल का इस्तेमाल जिस तरह बढ़ गया है, ऐसा लगता है कि देश में साइबर-जुर्मों की सुनवाई के लिए अलग से अदालतों की जरूरत है। इसके साथ-साथ पुलिस या सरकारी वकीलों को भी साइबर तकनीक की बारीकियों को पढ़ाकर ऐसे मुकदमों के लिए तैयार करना चाहिए। इन मामलों में गवाहों की जरूरत नहीं रहती है, और पुख्ता साइबर सुबूत रहते हैं जिन पर तेजी से फैसले तक पहुंचना आसान रहता है, फिर भी ऐसे मामलों में सजा क्यों नहीं हो रही है, इस बारे में सरकारों को सोचना चाहिए।
सोशल मीडिया के नफरत और हिंसा वाले जुर्म से परे और भी बहुत किस्म के साइबर-जुर्म हैं, जो लोगों को बड़ी आर्थिक चोट पहुंचा रहे हैं। लोगों की जिंदगी भर की बचत मोबाइल के एक-दो मैसेज के जवाब देने की गलती करने पर चली जाती है। ऐसे जुर्म इतने संगठित तरीके से किए जा रहे हैं कि हर दिन ऐसे बहुत से मामले उजागर हो रहे हैं। इसके बाद भी मोबाइल फोन, सिमकार्ड, इंटरनेट कनेक्शन के सुबूत रहते हुए भी पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां जुर्म के सिलसिले को क्यों नहीं रोक पाती हैं, यह समझना भी कुछ मुश्किल है। जब तक लोगों को जालसाजी और ठगी का अहसास होता है, और उनमें से कुछ लोग पुलिस तक पहुंच पाते हैं, और मुजरिमों में से कुछ तक पुलिस पहुंच पाती है, तब तक ऐसे जालसाज रात-दिन ऐसे अपराध करने में लगे रहते हैं। हर किस्म के साइबर-जुर्म की बहुत तेजी से जांच, उनकी तेजी से धरपकड़, और मामलों की तेज सुनवाई के लिए साइबर-जागरूकता, साइबर-थानों, और साइबर-अदालतों सबकी जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
यह दौर सूचना की सुनामी का दौर है। जिस तरह कई बरस पहले आई समुद्री सुनामी में बहुत से देशों के किनारे तबाह हो गए थे, और अनगिनत मौतें हुई थीं, उसी तरह आज खबरों, सूचनाओं, अफवाहों, और साजिशों की सुनामी आई हुई है, और उस अस्थाई समुद्री सुनामी के मुकाबले यह सुनामी तो स्थाई हो गई है। लोग तरह-तरह के मेडिकल दावे वॉट्सऐप पर पाते हैं, और उसे अंधाधुंध आगे बढ़ाना इस जिम्मेदारी से शुरू कर देते हैं कि मानो वे दुनिया के अकेले डॉक्टर हैं, और पूरी दुनिया को ठीक करके रख देंगे। नतीजा यह होता है कि इनके झांसे में आकर बहुत से लोग डायबिटीज, या किडनी जैसी गंभीर बीमारियों की दवाएं लेना भी बंद करके प्राकृतिक चिकित्सा शुरू कर देते हैं, या घरेलू नुस्खों को आजमाने लगते हैं, जड़ी-बूटियों या आयुर्वेदिक दवाईयों के किसी बेवकूफ के भेजे गए दावों पर अमल करने लगते हैं। बहुत से डॉक्टर इस बात को जानते हैं कि उनके कई मरीज ऐसे झांसों में आकर बुरी हालत में पहुंचकर उनके पास दुबारा आते हैं, और तब तक बहुत सा नुकसान हो चुका रहता है। यह तो बात मेडिकल दावों की हुई, हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में हजार किस्म के दूसरे धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता के, राजनीतिक कटुता के, संविधान की बात करने वालों के विरोध के अभियान चलते रहते हैं, और अब अंधभक्तों और अंधविश्वासियों की हालत यह हो गई है कि वे इस तथाकथित सोशल मीडिया को भी मीडिया में आई खबर बताकर आगे बढ़ाते रहते हैं। चूंकि टेक्नालॉजी ने समाचारों और सूचनाओं को आंधी-तूफान की रफ्तार से फैलाना सबको मुहैया करा दिया है, तो अब कहीं किसी के नग्न या अश्लील वीडियो को किसी और का बताकर फैलाना इतना आसान हो गया है, और लोगों में यह काम करने की ‘जिम्मेदारी’ की भावना इतनी बढ़ गई है कि वे देश को बचाने के अंदाज में अफवाहों को फैलाते रहते हैं। और सोशल मीडिया, और सोशल मीडिया के नाम पर पनप चुकी मैसेंजर सर्विसों का मानसिक दबाव मीडिया पर इतना अधिक रहता है कि टीवी चैनल और यहां तक कि अखबार भी ऐसी अफवाहों को आगे बढ़ाने में लग जाते हैं कि सनसनी के गलाकाट मुकाबले में कहीं पीछे न रह जाएं।
अब छत्तीसगढ़ में एक ऐसी अफवाह सोशल मीडिया और मैसेंजर सेवाओं से होते हुए मीडिया कहे जाने वाले टीवी-अखबार में पहुंची हुई है जिससे कि लोगों का अपार नुकसान हो रहा है। आए दिन खबरें आती हैं कि राशन के चावल में प्लास्टिक का चावल खपाया जा रहा है। छोटी-छोटी जगहों से आने वाली ऐसी खबरों पर विधायक भी बयान देने लगे हैं, सरकार से जांच की मांग करने लगे हैं, और बड़े-बड़े शहरों में बैठे बड़े-बड़े संपादक भी प्लास्टिक के चावल की खबरों को छाप रहे हैं। इस बारे में एक नगरपालिका अध्यक्ष रहे, और राईस मिल मालिक विजय गोयल ने गलतफहमी दूर करने की कोशिश की है। उन्होंने यह साफ किया है कि केन्द्र सरकार की एक योजना के तहत कुपोषण और एनीमिया को दूर करने के लिए सरकारी राशन के चावल को फोर्टिफाइड किया गया है। इसके लिए अलग से मिलें बनाई गई हैं जो कि चावल को फोर्टिफाइड करती हैं, उनमें सूक्ष्म पोषक तत्वों को मिलाया जाता है, आयरन विटामिन-20, फोलिक एसिड जैसे तत्व डाले जाते हैं। फिर सरकारी योजना और नियम के तहत तमाम राईस मिलों के लिए यह जरूरी है कि वे अपने मिल किए गए चावल में एक फीसदी ऐसा फोर्टिफाइड चावल मिलाएं ताकि हर घर में पहुंचने वाले चावल में ऐसे दाने मिले हुए रहें।
अब सोशल मीडिया और गैरजिम्मेदार वॉट्सऐप-संदेशों की मेहरबानी से कुछ अलग रंग के हो जाने वाले ऐसे दानों को प्लास्टिक का चावल करार दिया जा रहा है, और बहुत सी महिलाएं इस झांसे में आकर चावल साफ करते हुए ऐसे दानों को निकालकर फेंक देती हैं। सरकार का यह महंगा कार्यक्रम कचरे में चले जा रहा है, और आम लोगों की सेहत को इससे जो फायदा होना था, वह धरा रह जा रहा है। लोगों को यह याद दिलाना जरूरी है कि जिस तरह नमक में आयोडीन मिलाकर लोगों को घेंघारोग से बचाया गया है, उसी तरह ऐसे चावल से लोगों को एनीमिया से लेकर कुपोषण तक से बचाया जा रहा है। अब एक सनसनीखेज खबर बनाने के फेर में लोग और अखबार दोनों ही इस बात को अनदेखा कर दे रहे हैं कि 20-25 रूपये किलो के राशन के चावल में सौ-पचास रूपये किलो वाले प्लास्टिक से दाने बनाकर मिलाने की बेवकूफी कौन करेगा? मिलावट करने वाले लोग अफवाहबाज लोगों जितने बेवकूफ नहीं रहते कि कई गुना अधिक दाम की मिलावट करें।
सरकार को यह चाहिए कि ऐसी अफवाह फैलाने वाले कुछ लोगों पर एक प्रतीकात्मक कार्रवाई करके उसका प्रचार करे ताकि बाकी लोगों की अफवाहबाजी पर रोक लग सके। फिर यह तो जनता में जागरूकता पैदा करने का एक काम है कि वह अफवाहें फैलाने से दूर रहे, और इस काम को कौन करेगा यह जनता के बीच के लोगों को ही तय करना होगा क्योंकि सामाजिक संगठन जिस जागरूकता को मुफ्त में फैला सकते हैं, उस जागरूकता का कोई भी सरकारी अभियान करोड़ों के भ्रष्टाचार की एक संभावना भी बन जाएगा। इस बीच जिसके पास जो मेडिकल दावे आते हैं, उन्हें अपने ही पास खत्म करना शुरू करें, आगे न बढ़ाएं। इसके साथ-साथ अगर वे यह साबित कर सकते हैं कि ये मेडिकल दावे झूठे हैं, तो इस झूठ का भांडाफोड़ जरूर करना चाहिए जैसा कि भारत में इंटरनेट पर कुछ वेबसाइटें लगातार करती हैं। मीडिया और सोशल मीडिया में लगातार झूठ फैलाया जाता है, साजिशन फैलाया जाता है, और उसका खंडन करना जरूरी है, ठीक उसी तरह प्लास्टिक के चावल की अफवाह को खत्म करना भी जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका में सिएटल वहां का ऐसा पहला शहर बना है जहां पर स्थानीय कानून बनाकर जाति के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाया गया है। म्युनिसिपल की एक निर्वाचित प्रतिनिधि, भारतवंशी क्षमा सावंत ने यह कानून लिखकर सदन में रखा था, और जाति व्यवस्था को शोषण का भी एक पहलू बताया था। भारत की तीन हजार बरस पुरानी जाति व्यवस्था भारतीयों के साथ-साथ उन सब जगहों पर चली जाती है, जहां-जहां वे जाकर बसते हैं। हल्के अंदाज में यह भी कहा जाता है कि हिन्दुस्तानी हिन्दू जहां जाते हैं, वहां जाति व्यवस्था और अचार, इन दो चीजों को ले जाते हैं। ऐसे में अमरीका में भी हिन्दू समुदायों के बीच जाति-आधारित भेदभाव को बड़ा मजबूत माना जाता है, और इसीलिए एक भारतवंशी जनप्रतिनिधि ने वहां यह पहल की। इसके बाद कनाडा में भी एक बड़े स्कूलबोर्ड ने अपने कोर्स के तहत चलने वाले स्कूलों में जातिगत भेदभाव पर रोक लगाई है। क्षमा सावंत राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक समाजवादी हैं, और उनका कहना है कि सवर्ण हिन्दू ब्राम्हण समाज हिन्दुस्तान में भी जातिगत भेदभाव करता है, और इन्हीं के साथ-साथ इनके संस्कारों में यह जातिवाद दूसरे देशों तक भी चले जाता है। दिलचस्प बात यह है कि सिएटल के म्युनिसिपल में क्षमा सावंत अकेली भारतवंशी अमरीकी हैं, और उनके इस प्रस्ताव को गंभीरता से मंजूर किया गया। हालांकि अमरीका के एक हिन्दू संगठन ने इसका विरोध करते हुए एक खुली चिट्ठी लिखी है कि हिन्दुओं को उनके मूल देश की वजह से गैरजरूरी निशाना बनाया जा रहा है। उनका तर्क है कि अमरीका में भारतीयों की आबादी बहुत कम है और ऐसे कोई खास सुबूत नहीं है कि उनके बीच बड़े पैमाने पर कोई जातिगत भेदभाव होते हैं। इतिहास में यह दर्ज है कि हिन्दुस्तान में 1948 से ही जातिगत भेदभाव को गैरकानूनी करार दिया गया था।
यह सिलसिला थोड़ा सा हैरान करता है क्योंकि हिन्दुस्तान से अमरीका जाकर बसने वाले लोग एक तो पढ़े-लिखे होते हैं, वे जिंदगी में कामयाब भी होते हैं, और अपनी संपन्नता के बीच उन्हें दूसरे भारतवंशियों के साथ जातिगत भेदभाव करने की कैसे तो फुर्सत मिल पाती है, और कैसे उन्हें आधुनिक कामयाबी में इतना आगे बढऩे के बाद भी हजारों बरस पुरानी इस अमानवीय व्यवस्था की बात सूझती है? लेकिन यह बात वहां बसे हुए सवर्ण हिन्दू तो गलत बताते हैं, लेकिन वहां बसे हुए गैरसवर्ण हिन्दू इसे एक हकीकत बताते हैं, खासकर दलित तबके के लोग। अब इस बात को हिन्दुस्तान के साथ जोडक़र देखें, तो यहां भी हिन्दुओं में सवर्ण तबके को यह लगता है कि जाति व्यवस्था खत्म हो चुकी है, उनमें से बहुतों को तो यह भी लगता है कि अब आरक्षण की भी जरूरत खत्म हो गई है जो कि एक सीमित समय के लिए लागू की गई व्यवस्था थी, और जिसे बाद में बार-बार आगे बढ़ाया गया। दूसरी तरफ जो आरक्षित तबके हैं, उनको यह बात लगती है कि जातिगत भेदभाव सिर चढक़र बोलता है, और न सिर्फ आरक्षण जारी रहना चाहिए, बल्कि भारत में ऊंची अदालतों के जजों के लिए जो आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं है, उसे भी लागू करना चाहिए। दिलीप मंडल जैसे बहुत ही आक्रामक और दलित-ओबीसी समुदायों के हिमायती लेखक सोशल मीडिया पर लगातार इस बात को लिखते हैं कि देश के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट से लेकर हिन्दुस्तान की क्रिकेट टीम तक किस तरह सवर्ण तबका हावी है, और न तो ओबीसी, और न ही दलित आदिवासी को कोई हक मिल पाता है। वे लगातार क्रिकेट नतीजों की मिसाल देते हुए यह बात लिखते हैं कि खराब प्रदर्शन के बावजूद सवर्ण खिलाडिय़ों को किस तरह आगे के मैचों के लिए टीम में रखा जाता है, और ओबीसी या दूसरे गैरसवर्ण खिलाडिय़ों को शानदार प्रदर्शन के बावजूद टीम में मौका नहीं मिलता है, और धीरे-धीरे उनका रिकॉर्ड कमजोर दिखने लगता है। इसी तरह एक पक्षपाती चयन की वजह से कई सवर्ण खिलाडिय़ों को बार-बार मौका मिलता है, और उनके नाम रिकॉर्ड जुड़ते चलते हैं।
अब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के लिए आरक्षण लागू नहीं है, लेकिन क्या इसका यह असर नहीं हो रहा है कि जजों में इन समुदायों के लोगों की तकलीफों का अहसास नहीं रहता? हो सकता है कि इन जजों में आरक्षित तबकों के प्रति हमदर्दी हो, लेकिन जैसा कि दलित साहित्य लिखने के मुद्दे पर दलितों की तरफ से कहा जाता है कि सहानुभूति का साहित्य अलग होता है, और अनुभूति का साहित्य अलग। इसलिए बहुत से दलित लेखक इस बात को लेकर हमलावर रहते हैं कि गैरदलितों को दलित जिंदगियों पर साहित्य नहीं लिखना चाहिए। क्या ऐसी ही नौबत दलित मामलों पर, या आदिवासियों के मामलों पर फैसले देने वाले सवर्ण जजों के साथ नहीं आती होंगी कि उन्होंने कभी इन तबकों की जिंदगी को न जिया है, न करीब से देखा है।
जिस अमरीका से हमने आज की यह चर्चा शुरू की है उस अमरीका में भी काले लोगों के बीच से किसी का सुप्रीम कोर्ट का जज बनना बहुत बड़ा मुद्दा रहता है। और वहां पर चूंकि राष्ट्रपति अपनी पसंद के जज का नाम सुझाते हैं, और उनकी लंबी संसदीय-सुनवाई के बाद अमूमन उन्हें जज बना दिया जाता है, इसलिए वहां की दोनों प्रमुख राजनीतिक विचारधाराओं के राष्ट्रपति अपनी-अपनी पसंद से जज मनोनीत करते हैं, और वहां पर राष्ट्रपति, यानी सरकार, की दखल जज बनाने में सबसे अधिक रहती है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में जजों का कॉलेजियम ही जज चुनता है, और सरकार के हाथ उन्हीं नामों में से अधिकतर को मंजूरी देने, और कुछ को रोक देने की ताकत ही रहती है। इसलिए अब हिन्दुस्तान में जिन तबकों के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट जज न के बराबर हैं, उन तबकों के लोगों को मौका कैसे मिल सकता है, यह सोचना कॉलेजियम का ही काम है क्योंकि उसने जजों के नाम छांटने को अपना एकाधिकार बना रखा है।
जाति व्यवस्था कमजोर हो रही है, खत्म हो रही है, ऐसी सोच जमीन से जुड़ी हुई बिल्कुल नहीं है। हिन्दुस्तानी हिन्दू जहां-जहां रहते हैं, वहां वे या तो जातिगत भेदभाव को लादते हैं, या उसके शिकार रहते हैं। अमरीका में लोकतांत्रिक मूल्य एक बड़ा मुद्दा रहते हैं, वहां रंगभेद के खिलाफ बहुत कड़ा कानून है, और बहुत बड़े आंदोलन भी चलते हैं। वहां पर आज भारत के हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था के खिलाफ अगर कानूनी जागरूकता खड़ी हुई है, तो वह एक नया संघर्ष जरूर है, लेकिन इस संघर्ष का फायदा हिन्दुस्तान तक कभी न कभी पहुंचेगा। कामयाब देशों और आधुनिक लोकतंत्रों में पहुंचने के बाद हिन्दुस्तानियों का पाखंड खत्म हो जाता हो, वैसा भी नहीं है। आज भी वहां बसे हुए भारतवंशियों का एक तबका भारत के सबसे कट्टर और साम्प्रदायिक आंदोलनों को आगे बढ़ाता है, उनकी मदद करता है। यह पूरा सिलसिला तमाम जगहों पर खत्म होना चाहिए। सिएटल और कनाडा की यह शुरुआत बहुत अच्छी है।
हिन्दुस्तान की एक सबसे बड़ी समाचार वेबसाइट पर एक खबर की हैडिंग है- आपकी गर्लफ्रेंड वॉट्सऐप पर किससे करती है ज्यादा बातें? खुद वॉट्सऐप खोलता है राज, तरीका काफी आसान। इसके साथ की खबर तरीका बताती है कि बॉयफ्रेंड यह मालूम कर सकता है कि उसकी गर्लफ्रेंड सबसे ज्यादा किससे बातें करती हैं। हैडिंग इतनी सनसनीखेज है कि इसे पढऩे वाले लोगों में से तमाम मर्द और लडक़े इसलिए इसे पढ़ लेंगे कि अपनी जिंदगी की महिला या लडक़ी पर निगरानी कैसे रखी जाए, और हो सकता है कि महिलाएं और लड़कियां भी इसे जरूर पढ़ लें कि उनकी जिंदगी के लोग तांक-झांक किस तरह से कर सकते हैं, और उससे अगर बचना है, तो पहले उसके खतरे को तो समझना ही होगा।
अब सवाल यह उठता है कि लाखों रूपये महीने तनख्वाह पाने वाले मीडियाकर्मियों की समझ अगर ऐसी है कि लड़कियों पर ही नजर रखने की जरूरत है, तो फिर हर दिन दसियों लाख लोगों की पढ़ी जाने वाली वेबसाइट का समाज पर ऐसा ही असर होगा। और यह कोई अनोखी बात नहीं है, समाज की पूरी की पूरी भाषा, उसकी पूरी सोच, उसकी समझ, और उसकी हरकतें महिलाओं के खिलाफ हैं। और दिक्कत की एक बात यह भी है कि महिलाओं के खिलाफ महज आदमी नहीं हैं, खुद महिलाएं भी हैं। पिछले एक-दो बरस में दसियों ऐसे वीडियो आए हैं जिनमें नशे या होश में लड़कियां और महिलाएं किसी गरीब चौकीदार या फंस गए लडक़े को पीट रही हैं, और उसे मां-बहन की गालियां दिए जा रही हैं। जिन लड़कियों और महिलाओं में हालात या टोली के चलते इतनी ताकत आ गई है कि वे सार्वजनिक जगहों पर मोबाइल फोन के वीडियो कैमरे के सामने भी जमकर मारपीट कर रही हैं, जमकर गालियां बक रही हैं, लेकिन उनकी गालियां मां-बहनों पर केन्द्रित हैं, उनके ताकतवर हो जाने से, आक्रामक और हमलावर हो जाने से गालियां बाप और भाई के खिलाफ नहीं हैं। अभी कुछ दिन पहले किसी जगह कांग्रेस पार्टी ने किसी अफसर या मंत्री के खिलाफ प्रदर्शन किया तो कमजोरी और निकम्मेपन की तोहमत लगाते हुए उन्हें चूडिय़ां भेंट कीं। यह काम इंदिरा और सोनिया गांधी की पार्टी भी करती है, और वह पार्टी तो करती ही है जो कि सुबह उठते ही पहला नाम भारतमाता का लेती है, और भारतमाता को प्रणाम करने के बाद सोती है। यह देश जहां साल में दो बार नौ दिनों तक देवी की पूजा होती है, जहां पर स्कूलों में सभी धर्मों के बच्चे शायद सौ बरस से भी अधिक से सरस्वती की पूजा करते आए हैं, जहां पर बंगाल में मुस्लिम लोग बराबरी से दुर्गा पूजा में शामिल होते हैं, वहां भी देवी की पहनी जाने वाली चूडिय़ों को राजनीतिक प्रदर्शन में कमजोरी के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
दरअसल हिन्दुस्तानियों की सोच महिलाओं को एक कमजोर तबका मानकर चलने की है, और ऐसी पुरूषवादी सोच की शिकार वे महिलाएं भी हो जाती हैं जो कि अपने आपको बराबरी का मानती हैं, समाज में जिनकी हालत बेहतर है, जिनके हाथ कुछ ताकत है, और जो मर्दों से आगे बढक़र निकलने की हसरत रखती हैं, वैसी महिलाएं भी मर्दानगी के प्रतीकों को ज्यों का त्यों इस्तेमाल करने लगती हैं, और गालियां बकते समय दूसरों की मां-बहन के साथ ऐसी हरकतों का जिक्र करने लगती हैं, जो कि एक महिला होने के नाते उनके लिए मुमकिन भी नहीं है। यह सिलसिला लोग बचपन से देखना शुरू करते हैं, तो यह मरने तक उनके साथ बने रहता है। और हिन्दुस्तानी समाज में गैरबराबरी तो इतनी अधिक है ही कि आज बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि हरियाणा के एक गांव में 75 साल बाद अब पहली बार लड़कियों को कॉलेज जाने की इजाजत मिली है। लडक़े पहले से कॉलेज जाते रहते थे, लेकिन रास्ते में उनकी बदमाशियों के चलते लड़कियां कॉलेज नहीं जा पाती थीं, और अब पहली बार एक बाहरी महिला की प्रेरणा से गांव के लोगों ने अपनी लड़कियों को कॉलेज जाने की इजाजत दी है।
महिलाओं के साथ भेदभाव की सोच को कदम-कदम पर कुचलने की जरूरत है। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को ऐसे मौके भी मिलते हैं कि हिंसक मर्दानगी का विरोध किया जा सके। लोगों को भाषा, मुहावरों, मिसालों, और गालियों में औरतों पर हमले जहां दिखें, वहां उसका विरोध करना चाहिए। हिन्दुस्तानी संस्कृति और सोच में यह बात इतने गहरे पैठ चुकी है कि लोगों को अब इनमें कोई हिंसा या बेइंसाफी दिखती भी नहीं है। खुद महिलाएं विरोध-प्रदर्शन में चूडिय़ां भेंट करने निकल पड़ती हैं, और सडक़ की लड़ाई में दूसरों की मां-बहन एक करने लगती हैं। इसलिए न सिर्फ मर्दों की सोच को बदलने की जरूरत है, बल्कि औरतों को भी यह समझाने की जरूरत है कि वे अपने पूरे तबके के खिलाफ हिंसा और बेइंसाफी कर रही हैं।
जब कभी भाषा बनी होगी, जाहिर है कि उस पर मर्दों का ही कब्जा रहा होगा, वे ही पहले पढऩे-लिखने वाले रहे होंगे, और उनका एकाधिकार उस पर रहा होगा। इसलिए समाज में लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ चली आ रही बेइंसाफी तमाम कहावतों और मुहावरों में अच्छी तरह दर्ज है। स्कूल की किताबों को देखें तो कमल को घर चलकर पढऩे को कहा जाता है, और विमला को नल पर जल भरने के लिए। बचपन से दिमाग में बैठी हुई यह गैरबराबरी आखिरी तक चलती ही रहती है, और मर्द मरने के बाद अपनी बेटियों के हाथ से जलाया या दफनाया जाना भी बर्दाश्त नहीं करते, और वहां भी बेटे न हों तो दूर के रिश्तेदार मर्दों को मौका मिल जाएगा, लेकिन बेटी या किसी महिला का मौका नहीं मिलेगा। आज इस मुद्दे पर हमारे लिखने का मकसद यही है कि एक प्रमुख वेबसाइट की एक खबर को लेकर चर्चा छेडऩे का मौका मिला है, तो इस पर लिखना हम अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। इस बहाने और कई पहलुओं पर बात हो गई, और लोगों के सोचने का कुछ सामान सामने रखना हो गया। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान की अदालतों में होने वाले लेटलतीफ इंसाफ की चर्चा तो अक्सर होते ही रहती है, लेकिन अभी जापान से एक ऐसी खबर आई है जो वहां की अदालती रफ्तार के कम से कम एक मामले को लेकर रौंगटे खड़े कर देती है। इवाओ हाकामादा दुनिया में मौत का सबसे लंबे वक्त से इंतजार कर रहा एक कैदी है जिसे कि 1966 में अपने गृहस्वामी के घर को आग लगाकर परिवार के चार लोगों को मार डालने के आरोप में मौत की सजा हुई थी। यह सजा तो दो बरस में ही सुना दी गई थी, लेकिन वह हमेशा से ही यह कहते रहा कि उससे जोर-जुल्म से यह गुनाह कबूलवाया गया था। इसके बाद लगातार अदालतों में उसकी अपील चलती रही, और यह सजा मिलने के 27 बरस बाद सुप्रीम कोर्ट ने दुबारा सुनवाई की उसकी अपील खारिज की। इसके बाद भी उसके वकील अदालतों में लड़ते रहे, और अभी इस सोमवार को टोक्यो हाईकोर्ट ने माना कि इस सजायाफ्ता मुजरिम पर लगाए गए आरोपों में कोई खामी हो सकती है, इसलिए नई डीएनए जांच के मुताबिक मामले की फिर से सुनवाई की जाए। इस पूरे दौर में इवाओ की उससे कुछ ही छोटी बहन लगातार उसकी तरफ से अभियान चलाती रही, और वकील भी करती रही। मौत की सजा के इंतजार में भी उसे उम्र बहुत अधिक हो जाने की वजह से 2014 में घर पर रहने की इजाजत दे दी गई थी, और तब से वह घर बैठे अपनी अपीलों की सुनवाई देखते जा रहा था। उसके करीबी लोगों का कहना है कि करीब 50 बरस की कैद, जिसका अधिकतर हिस्सा कोठरी में अकेले रहना पड़ा, उसने इवाओ की दिमागी हालत पर भी बहुत असर किया है। अब 87 बरस की उम्र में उस पर आधी सदी से भी अधिक पुरानी मौतों या हत्याओं का वह मामला फिर चलने जा रहा है।
इससे एक बात साफ होती है कि हिन्दुस्तान ही नहीं दुनिया में अधिकतर जगहों पर अदालती लड़ाई में खुद के या समर्थकों के पैसों की बड़ी जरूरत होती है। आज हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट में कोई करोड़पति इंसान जिसका अरबों का कारोबार है, वह रातोंरात सुनवाई पा सकता है, लेकिन बहुत गरीब और बेबस लोग इस रफ्तार से अपने खुद के वकील से भी वक्त नहीं पा सकते। अधिकतर गरीब लोग हाईकोर्ट का भी खर्चा नहीं उठा सकते हैं, सुप्रीम कोर्ट तो उनकी पहुंच से बाहर रहता ही है। जापान के जिस मामले को लेकर आज यहां चर्चा की जा रही है उसमें इस बूढ़े की बहन लगातार उसके लिए अभियान चलाती रही, और उन दोनों की जो तस्वीरें दिख रही हैं उनमें वे फटेहाल भी नहीं दिख रहे हैं, जिससे कि जाहिर है कि उनके पास मुकदमेबाजी की ताकत तो रही होगी। अमरीका में मौत की सजा पाने वाले, अमूमन काले या दूसरे अश्वेत लोग, उनकी मदद के लिए बनाए गए संगठनों की मदद पाते हैं, और ऐसे संगठन या ऐसी सोच वाले वकील उनके मामलों को लेकर आखिरी सांस तक दौड़-भाग करते हैं। हिन्दुस्तान के छत्तीसगढ़ के बस्तर में जिन आदिवासियों पर पुलिस नक्सल-समर्थक होने की तोहमत लगाती है, उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करना नामुमकिन सा लगता है क्योंकि उनके पास अदालत या वकील का खर्च उठाने की ताकत नहीं रहती। ऐसे में बस्तर में सामाजिक सरोकार से काम करने वाली कुछ महिला वकील लगातार उनकी लड़ाई लडऩे का काम करती हैं, और उन्हीं की मदद से बेकसूर आदिवासियों में से कुछ या कई को राहत मिल पाती है। ऐसे वकीलों से दूसरी मदद यह मिलती है कि उनकी मौजूदगी ही पुलिस और सुरक्षाबलों को अगली ज्यादती करने के वक्त कुछ चौकन्ना रखती है कि ये मामले आगे अदालतों में उठाए जा सकते हैं। यह बिना लिखी, बिना कही चेतावनी रहती है, लेकिन इसका असर होता है।
हिन्दुस्तान की अदालतें पिछले कुछ बरसों में लगातार अच्छी या बुरी वजहों से खबरों में बनी हुई हैं। जजों का चाल-चलन लगातार बुरी खबरें पैदा करता है, लेकिन उन पर चर्चा भी होती रहती है। फिर जजों के वकीलों के साथ टकराव, सरकार का जजों से टकराव, इससे भी संस्थागत कमजोरियां उजागर होती रहती हैं, और इन सभी पहलुओं को अपने में सुधार का मौका मिलता है। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद पिछली आधी सदी में हिन्दुस्तान की न्याय व्यवस्था में सुधार की तमाम बातें हालात को किसी किनारे नहीं पहुंचा पाई हैं। न तो अदालतों पर से मामलों का बोझ घटा है, न ही फैसलों में कोई रफ्तार आई है, न ही अदालतों का भ्रष्टाचार घटा है। कुल मिलाकर देश में माहौल यह है कि जिसके पास खूब सारा पैसा है, बड़े-बड़े शातिर और कामयाब वकीलों को रखने की ताकत है, उन्हीं की जल्द सुनवाई हो सकती है, या उनकी दिलचस्पी हो तो उनके मामले बरसों तक घिसट सकते हैं। लोगों का यह भी मानना है कि जिनके पास पैसों की ताकत है वे बहुत से रहस्यमय तरीकों से अपने मामलों की सुनवाई ही बरसों तक टलवाने में कामयाब रहते हैं।
अब जापान में जिस कैदी के मामले की दुबारा सुनवाई डीएनए टेक्नालॉजी आने की वजह से सुबूतों को दुबारा परखने के लिए हो रही है, वैसी टेक्नालॉजी हिन्दुस्तानी अदालतों में भी मामलों को दुबारा तौलने में काम आ सकती है, और आम लोगों का यही मानना रहेगा कि जिनके पास सत्ता या पैसों की ताकत होगी वे ऐसी जांच-रिपोर्ट अपनी मर्जी से खरीद सकेंगे, और टेक्नालॉजी से इंसाफ को मदद मिलने के बजाय उसे धक्का मिलेगा। जापान की बात से हमने आज की यह चर्चा शुरू जरूर की है, लेकिन जो बातें हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था को तबाह करती चली आ रही हैं, उनके बारे में दुबारा सोचने की जरूरत है। कैसे हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था को सुधारा जा सकता है, बेहतर बनाया जा सकता है, और इंसाफ का हिमायती बनाया जा सकता है, यह सोचना चाहिए। ऐसा भी नहीं कि इस बारे में सोचा नहीं गया है, कई बार भारत सरकार की बनाई हुई कमेटियों की रिपोर्ट भी आई हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ। बेहतर न्याय व्यवस्था के लिए एक असरदार जनआंदोलन की जरूरत है। जापानियों की तो औसत उम्र बहुत अधिक रहती है, इसलिए 87 बरस की उम्र में भी यह आदमी दुबारा पूरा मुकदमा झेलने की खबर सुन पा रहा है, हिन्दुस्तानी गरीब तो 50-60 बरस की उम्र में ही चल बसते हैं, और उनके लिए इंसाफ तो जापान के मुकाबले कुछ अधिक रफ्तार करना होगा।
दुनिया के कामगारों के बीच एक खतरा छाया हुआ दिखता है कि मशीनें उनका काम छीन लेंगी। मशीन मानव, या रोबो तो आंखों से दिखते हैं, इनमें से कुछ-कुछ तो इंसानी बांहों सरीखे मशीनी हाथों वाले भी होते हैं, इनमें से कुछ पहियों पर चलते इंसानों की तरह एयरपोर्ट पर आने-जाने वाले मुसाफिरों को उनकी जरूरत की जानकारी देने का काम भी करते हैं। लेकिन अभी तक रोबो मोटेतौर पर कारखानों के ऐसे काम करते हैं जिनमें इंसानों को खतरा रहता है, या गोदामों में सामान छांटकर पैक करके उसे किसी जगह भेजने के एक सरीखे दुहराव वाले काम करते हैं। अब ताजा खबरों के मुताबिक रोबो अस्पतालों और घरों की सफाई का काम भी करने लगे हैं जिनके लिए कई जगहों पर कामगार मुश्किल से मिलते हैं। अस्पतालों के संक्रामक हिस्सों में कई तरह के काम कर्मचारियों के लिए खतरे के भी रहते हैं, और वहां पर भी रोबो का इस्तेमाल इंसानों को बीमारी से बचाता है। अब दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल में रोबो चिकन नाम की एक ऐसी फूडचेन शुरू हुई है जहां पर पकाने का काम रोबो कर रहे हैं, और यह भी माना जा रहा है कि जब किसी ब्रांड के रेस्त्रां चारों तरफ बिखरे हुए हों, तब वहां पकाने के तरीके में कोई फेरबदल सिखाने में लंबा वक्त लग सकता है, लेकिन अगर कम्प्यूटर से चलने वाली ऐसी रोबोटिक मशीनों के हाथों से वहां पकाया जा रहा है, तो फिर किसी एक कम्प्यूटर से इन्हें इंस्ट्रक्शन देकर पल भर में अगले व्यंजन को बदला जा सकता है।
अब पिछले कुछ महीनों से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित एक वेबसाइट बहुत खबरों में हैं जिसे चैटजीपीटी कहा जाता है। इसमें कोई भी जानकारी पूछने पर, लिखने का सुझाव मांगने पर यह कम्प्यूटर पल भर में आज तक की तमाम कम्प्यूटरीकृत जानकारी में से काम की बातें लेकर एकदम ताजा लिखकर पेश कर देता है। इसकी ताकत का अहसास करने के लिए इसे इस्तेमाल करने से कम में बात समझ में नहीं आएगी। अब अभी तो इस चैटजीपीटी को ही अधिक से अधिक उत्कृष्ट बनाने का काम चल रहा है, लेकिन क्या वह दिन बहुत अधिक दूर है जब इंसानी हुक्म पर काम करने वाले रोबो इस तरह की कृत्रिम बुद्धि का भी इस्तेमाल करके लोगों के हुक्म को इंसानी खूबियों की हद तक पूरा मान सकें? आज एक रोबो का पकाया हुआ खाना उसमें डाली गई व्यंजन-विधि के मुताबिक होगा, लेकिन अलग-अलग इंसानों के स्वाद की अलग-अलग पसंद के मुताबिक इसमें फेरबदल शायद ये रोबो अभी खुद न कर पाए, लेकिन हो सकता है कि बहुत जल्द ही एक ऐसी कृत्रिम बुद्धि इसमें जोड़ी जा सके कि यह लोगों की पसंद से अधिक मिर्च डाल सके, कम तल सके, छोटे टुकड़े कर सके, और उस पर हरा धनिया छिडक़ सके।
लेकिन आज की यह चर्चा महज रोबो तक सीमित नहीं है, यह रोबो से जुड़े इंसानी रोजगारों की बात भी है। ऐसा लगता है कि रोबो बहुत तेजी से इंसानी कामकाज को छीन लेंगे, वे कई किस्म के काम आज भी इंसानों से बेहतर कर रहे हैं, कम देर में, अधिक खूबी के साथ कर रहे हैं, और सस्ते भी पड़ रहे हैं, वे न बीमार पड़ते हैं, न तनख्वाह बढ़ाने की मांग पर हड़ताल करते हैं। इसलिए कुछ किस्म की जगहों में मैनेजमेंट तेजी से रोबो का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन दुनिया में लाखों किस्म के ऐसे काम हैं, जो उतने दुहराव वाले नहीं हैं जो कि रोबो की खूबी होता है, वे खुद होकर छोटे-छोटे फेरबदल करने के लायक नहीं है, इसलिए वे इंसानों की नौकरियां अगले कई बरस तक तो बहुत धीमी रफ्तार से ही छीनेंगे। अब इस नौबत को एक और बात से जोडक़र देखने की जरूरत है। दक्षिण कोरिया, जहां पर कि रोबो का इस्तेमाल कारखानों के कामगारों में अब दस फीसदी तक पहुंच गया है, जहां पर दुनिया का सबसे अधिक रोबो इस्तेमाल हो रहा है, वहां पर यह एक मजबूरी भी है। दक्षिण कोरिया की आबादी जिस रफ्तार से गिर रही है, वह दुनिया में सबसे अधिक है, और नई जन्मदर वहां दुनिया में सबसे कम है, आबादी बनाए रखने के लिए जितनी होनी चाहिए, उससे बहुत ही कम है। फिर इलाज और बेहतर जिंदगी की वजह से आबादी में बूढ़ों का अनुपात बढ़ते जा रहा है, मतलब यह कि कामगार आबादी का अनुपात भी घटते जा रहा है, गिनती भी घटते जा रही है। ऐसे में बिना मशीनों तो काम चलना नहीं है, यही वजह है कि सबसे तेजी से आबादी और कामगार दोनों खोने वाला यह देश रोबो का अधिक से अधिक इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन हिन्दुस्तान जैसे देश को देखें जहां पर कि आबादी अगले कुछ दशक बढ़ती ही चली जानी है, यहां पर कामगार इतने सस्ते हैं, और अधिकतर काम इतने असंगठित हैं कि यहां रोबो का दखल लंबे समय तक गिने-चुने कामों में ही रहेगा।
इससे जुड़ी हुई एक तीसरी बात भी जोडक़र देखने की जरूरत है। अब संपन्न दुनिया में लोग पहले की तरह जानवरों सरीखा काम करना नहीं चाहते। एक-एक करके बहुत से ऐसे संपन्न और विकसित देश होते जा रहे हैं जहां पर बिना रोबो के इस्तेमाल के भी इंसान अब हफ्ते में चार दिन काम कर रहे हैं, और कुछ जगहों पर तो महज तीन दिन। इसका यह मतलब है कि लोगों को अपनी पसंद की जिंदगी जीने के लिए इतना पैसा मिल रहा है कि वे आधे से कम दिन काम करके भी मजे से जी रहे हैं। ऐसे लोगों को अपनी जिंदगी के सुख के लिए ऐसे कई किस्म के इंसानी कामगार लगेंगे जो काम रोबो से नहीं चल सकेगा। इसलिए इंसानों की जरूरत बहुत तेजी से कम होगी, यह डर भी बेबुनियाद लगता है। यह जरूर हो सकता है कि आज जहां पर इंसानों को काम मिला हुआ है, कल वहां से उनका काम मशीनें छीन लें, और इंसानों को कोई दूसरा काम तलाशना पड़े। लेकिन वैसे भी अधिकतर इंसान वक्त और जगह की जरूरत के मुताबिक अलग-अलग किस्म के काम करते भी रहते हैं। एक वक्त बैंकों में काउंटर के पीछे बैठे लोग जो काम करते थे, वह धीरे-धीरे एटीएम पर होने लगे, और अब तो हिन्दुस्तान में छोटे-छोटे से चाय और ठेलेवाले लोग भी मोबाइल फोन से मिलने वाले डिजिटल भुगतान को पाना सीख चुके हैं, मतलब यह कि धीरे-धीरे एटीएम भी बेरोजगार होते जा रहे हैं।
आने वाली दुनिया अगर इंसानों के रोजगार को छीनने वाली होगी, तो उसमें संपन्नता की वजह से लोगों में बढऩे वाली सुख की चाहत पूरी करने के लिए कई किस्म के इंसानी कामगारों की जरूरत बढ़ेगी भी। यह जरूर हो सकता है कि एक एटीएम पर गार्ड की ड्यूटी करने वाले की नौकरी घटेगी, लेकिन कहीं पर एक मालिश करने वाले का रोजगार बढ़ जाएगा। इस तरह का यह तालमेल बदलती हुई दुनिया में लोगों को सीखना पड़ेगा, और आने वाले वक्त किस जगह, किस जुबान को बोलने वाले, किस हुनर के, किस देश के कितने लोगों के रोजगार का रहेगा, यह भी कृत्रिम बुद्धि से लैस कोई रोबो तेजी से निकाल देगा। इस बीच अमरीका का एक आंकड़ा देना जायज होगा, वहां पर आज हुनर वाले रोजगार के लिए कामगार कम हैं, हर हुनरमंद कामगार के लिए दो रोजगार आज मौजूद हैं, और आने वाले बरसों में ऐसे रोजगार और बढऩे जा रहे हैं। मतलब यह कि फिक्र रोजगार की नहीं, अपने हुनर की करनी चाहिए, रोबो अगर कभी काम छीनने आएंगे भी, तो वे सबसे पहले सबसे कमजोर हुनर वाले कामगारों का काम छीनेंगे, बेहतर कामगार तो रोबो के साथ-साथ भी बने ही रहेंगे।
कर्नाटक में अभी वहां के लोकायुक्त के छापे में एक भाजपा विधायक के बेटे को 40 लाख रूपये रिश्वत लेते गिरफ्तार किया गया तो उसके पास से 8 करोड़ रूपये और मिले। यह विधायक कर्नाटक सरकार के एक निगम का अध्यक्ष भी था जो कि वहां मैसूर ब्रांड की चंदन वाले साबुन-अगरबत्ती बनाने का काम करता है, और इसी के कारखानों के लिए कच्चे माल की खरीदी के लिए विधायक का यह बेटा रिश्वत ले रहा था। इसके बाद विधायक ने कहा कि उनका विधानसभा क्षेत्र ऐसे संपन्न लोगों का है कि वहां घर-घर में 5-10 करोड़ रूपये नगद पड़े रहते हैं। देश भर में भाजपा की विरोधी पार्टियों और उनकी सरकारों के लोगों पर लगातार ईडी, आईटी, और सीबीआई के छापे पड़ रहे हैं, इस बीच भाजपा विरोधी पार्टियों को कर्नाटक के विधायक के बेटे का यह रिश्वतकांड जवाबी हमले के लिए एकदम तैयार मामला मिला। फर्क यही था कि केन्द्र सरकार की एजेंसियां सरकार के मातहत काम करती हैं, और कर्नाटक का लोकायुक्त एक अलग संवैधानिक संस्था है, जो कि सरकार से परे काम करता है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि केन्द्र सरकार की एजेंसियां भाजपा नेता के खिलाफ भी कार्रवाई करती हैं।
लेकिन आज चर्चा का मुद्दा कुछ और है। किसी सत्तारूढ़ विधायक के बेटे को रिश्वत लेते रंगे हाथों पकडऩा, और उसके घर से करोड़ों की नगदी निकलना छोटा मामला नहीं था, देश भर के लोगों के लिए 8 करोड़ की रकम सपने में देखने के लिए भी बहुत बड़ी होती है। जब चारों तरफ इस मामले की तस्वीरें छपने लगीं, इसके वीडियो सामने आए, तो इतने संपन्न नेता होने के नाते यह भाजपा विधायक एक अदालत गया। और बेंगलुरू की इस जिला अदालत में पिटीशन में गिनाए गए 46 मीडिया संस्थानों पर यह रोक लगा दी कि वे इस विधायक और उसके बेटे के खिलाफ या अपमानजनक कोई भी बात न छापेंगे, न टीवी पर दिखाएंगे, और न ही उस पर कोई बहस आयोजित करेंगे। यह रोक अगली सुनवाई तक के लिए लगाई गई है, और इस लिस्ट में टाईम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू, एनडीटीवी, आजतक, जैसे प्रमुख और बड़े मीडिया संस्थान हैं। इस विधायक ने अदालत से अपील की थी कि ये सारे मीडिया संस्थान जिस तरह ये खबरें दिखा रहे हैं, वह उसकी चरित्र-हत्या के अलावा और कुछ नहीं है। अदालत ने भी इन खबरों को दिखाने के बाद इन पर होने वाली बहसों को विधायक और बेटे की चरित्र-हत्या मान लिया, और कहा कि चूंकि गरिमा के साथ जीवन एक बुनियादी हक है, इसलिए छापने और प्रसारण पर यह रोक लगाई जा रही है। इसके साथ ही अगली सुनवाई सात हफ्ते बाद तय की गई है।
अभी हमारी नजरों के सामने यह नहीं आया है कि इन बड़े मीडिया संस्थानों ने निचली अदालत के इस आदेश के खिलाफ किसी बड़ी अदालत मेें अपील की है या नहीं, लेकिन सवाल यह उठता है कि जाहिर तौर पर 40 लाख रिश्वत लेते हुए पकड़ाने के बाद विधायक-पुत्र से 8 करोड़ की और नगदी बरामद होना क्या जुर्म के प्रारंभिक सुबूतों से कम है? अगर एक संवैधानिक संस्था की ऐसी कार्रवाई और इतनी रकम के बाद भी अगर इन बाप-बेटे को पहली नजर में दोषी नहीं माना जाएगा, तो फिर देश में किसी भी आरोपी को देश की आखिरी अदालत से सजा मिल जाने के पहले तक संदेह का लाभ देना होगा। यह हैरानी की बात है कि एक हफ्ते पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ के एक भूतपूर्व अफसर के मामले में 42 पेज लंबा एक फैसला लिखा जिसमें उसने भ्रष्टाचार से देश और लोकतंत्र को होने वाले खतरों के बारे में बहुत खुलासे से लिखा। और उस फैसले के आने के बाद अब अगर एक जिला अदालत ऐसे खुले भ्रष्टाचार के मामले की खबरों पर रोक लगा रही है, तो यह रोक ऊपर की किसी अदालत में टिकने वाली नहीं दिखती है। इसका मतलब तो यह हो गया कि जो लोग कोई बड़ा वकील करके अदालत तक जा सकते हैं, वहां से अपनी मर्जी का कोई आदेश पा सकते हैं, उनके खिलाफ कुछ छापा या दिखाया नहीं जा सकता। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी पर बहुत सारे अदालती फैसले आने के बाद अगर आज कोई एक जिला अदालत एक साथ 46 अलग-अलग मालिकाना हकों वाले मीडिया संस्थानों पर एकमुश्त ऐसी रोक लगाती है, तो कानून की ऐसी समझ हक्का-बक्का करती है। कोई एक मीडिया संस्थान तो किसी के खिलाफ दुर्भावना से कोई अभियान चलाए, और उस पर कोई अदालत ऐसी रोक लगाए, वह तो फिर भी समझा जा सकता है, लेकिन चार दर्जन मीडिया संस्थानों पर ऐसी रोक लगाना लोकतंत्र के मखौल के अलावा कुछ नहीं है।
हिन्दुस्तान में यह मानकर चलना चाहिए कि कई किस्म के सत्तारूढ़ भ्रष्टाचार किसी न किसी मीडिया की मेहरबानी से ही उजागर होते हैं, लेकिन सत्ता या पैसों की ताकत वाले लोग लगातार मीडिया पर रोक लगाने के लिए अदालती और गैरकानूनी दबाव बनाते ही रहते हैं। लोगों को याद होगा कि देश की एक सबसे बड़ी पत्रिका के संपादक के लिखे हुए के खिलाफ अडानी ने सौ-सौ करोड़ रूपये के मानहानि के मुकदमे किए थे, और फिर उस पत्रिका को अपने संपादक को हटाना ही पड़ गया, और अडानी के वकीलों ने अदालतों से यह आदेश भी हासिल कर लिया कि यह संपादक (जो कि भूतपूर्व हो चुका था) अडानी के बारे में कुछ न लिखे। दुनिया के जिस लोकतंत्र में मीडिया पर इस किस्म की रोक लगाई जाती है, वहां पर सरकार और कारोबार की संगठित भ्रष्ट भागीदारी बढ़ती ही चली जाती है। यह सिलसिला न सिर्फ थमना चाहिए, बल्कि जिस अदालत ने मीडिया पर ऐसी रोक लगाई है, उसके फैसले का विश्लेषण भी किसी बड़ी अदालत को करना चाहिए। अगर इसी तरह की रोक लोगों को मिलती रही, तो फिर इस देश में किसी ताकतवर के खिलाफ कोई खबर बन ही नहीं सकेगी।
आमतौर पर दुनिया के लोकतंत्रवादी लोग इजराइल को एक देश के रूप में नीची नजरों से देखते हैं क्योंकि यह देश फिलस्तीन की जमीन पर कब्जा करके, वहां के लोगों को बेदखल करके, दुनिया की सबसे बड़ी बेइंसाफी दर्ज करते चले आ रहा है, और इस गुंडे की पीठ पर जिस तरह अमरीका के बीटो का हाथ बना रहता है, उसकी वजह से संयुक्त राष्ट्र संघ भी जुबानी जमाखर्च से अधिक आज तक कुछ नहीं कर पाया है, और इजराइल दुनिया के एक सबसे बड़े मुजरिम की तरह लोकतांत्रिक देशों को नामंजूर बना हुआ है। यह एक अलग बात है कि हिन्दुस्तान के साथ हाल के बरसों में उसके रिश्ते ऐसे मजबूत हुए हैं कि हिन्दुस्तानी सरकार के लोग अपने बच्चों के अक्षर ज्ञान से फिलस्तीन का फ अक्षर हटा देने की सोच रहे हैं। ऐसे में आज अगर इसी इजराइल के भीतर के लोग अपने देश में लोकतंत्र को बचाने के लिए इस अंदाज में सडक़ों पर हैं कि जिसकी किसी ने वहां सपने में भी कल्पना न की होगी, तो यह बात गौर करने लायक है। इजराइल में लोकतंत्र को बचाने के लिए सरकार के खिलाफ आम लोगों के साथ-साथ कौन-कौन और लोग जुड़े हैं, यह देखना हैरान करता है। दुनिया के बाकी तमाम देशों को भी लोकतंत्र खत्म करने की हरकतों के पहले यह सोच लेना चाहिए कि इजराइल जैसे फौलादी फौजी शिकंजे वाले देश में अगर आज सरकारी पायलट प्रधानमंत्री के विमान को उड़ाने से इंकार कर दे रहे हैं, विमान कर्मचारी प्रधानमंत्री के विमान में ड्यूटी से मना कर दे रहे हैं, और इनसे कहीं आगे बढक़र इजराइल की एयरफोर्स के सबसे चुनिंदा लड़ाकू विमान-पायलटों का स्क्वॉड्रन सरकार के खिलाफ विरोध दर्ज करते हुए अगर ट्रेनिंग लेने से मना कर दे रहा है, तो दुनिया के कितने देश ऐसी नौबत का खतरा उठा सकते हैं। इजराइली प्रधानमंत्री सरकारी विमानसेवा के पायलटों और बाकी कर्मचारियों की मनाही का शिकार उस वक्त हुए जब वे इटली के प्रधानमंत्री से मिलने वहां जाने वाले थे। इस इजराइल में किसी ने ऐसे जनआंदोलन की कल्पना भी नहीं की होगी क्योंकि इस देश के लोग दुनिया के सबसे कामयाब कारोबारी हैं, और छोटी सी जमीन से ये पूरी दुनिया में फौजी, खुफिया, सुरक्षा सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर का दुनिया का सबसे बड़ा कारोबार करते हैं। ऐसे व्यस्त कारोबारी देश में अगर लोग सरकार के एक फैसले के खिलाफ इस हद तक सडक़ों पर उतर आए हैं, तो दुनिया के उन तमाम देशों को इससे एक सबक लेना चाहिए जो आज अपनी-अपनी सरहदों में लोकतंत्र को खत्म करने के तरीके ईजाद करने में लगे हुए हैं। लगे हाथों अभी अमरीका के न्यूयॉर्क में सैकड़ों यहूदियों का निकाला हुआ एक जुलूस भी काबिल-ए-जिक्र है जिसमें यह मांग की गई कि जिस तरह इजराइल फिलीस्तीनियों पर जुल्म कर रहा है, अमरीका इजराइल को दी जाने वाली सारी फौजी मदद बंद करे। ये यहूदी लोग इजराइल के ही मूल निवासी हैं, लेकिन अपने देश की सरकार के फिलीस्तीन-विरोधी रूख से असहमत हैं।
अब यह समझने की जरूरत है कि आज इजराइल में इतना बड़ा यह आंदोलन क्यों छिड़ा है? वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं, और किसी तरह खींचतान कर उन्होंने अटपटी पार्टियों से मिलकर इजराइल के इतिहास की आज तक की सबसे कट्टरपंथी और दकियानूसी सरकार बनाई है। इसमें ऐसी दक्षिणपंथी पार्टियां शामिल हैं जिनके मन में मानवाधिकारों के लिए हिकारत के अलावा कुछ नहीं है, और जो खुलेआम फतवे देती हैं कि किस तरह फिलीस्तीन का नाम भी दुनिया के नक्शे से मिटा देना चाहिए। ऐसी कट्टरपंथी सरकार ने अभी संविधान में ऐसा संशोधन करना शुरू किया है जिससे अदालतों के ऊपर सरकार का काबू हो जाएगा, और सरकार ही संसद से लेकर अदालत तक इन सबके ऊपर राज करेगी। इजराइल की जनता चाहे वह फिलीस्तीन पर अपने देश के जुल्मों पर मोटेतौर पर चुप रहती आई है, लेकिन अपने देश में लोकतंत्र खत्म होने के इस खतरे को उसने तुरंत भांप लिया है, और लाखों लोग सडक़ों पर निकल आए हैं। किसी भी देश में किसी हड़ताल या सरकारविरोधी आंदोलन में फौज शायद ही कभी शामिल होती हो, और अगर फौज ही सरकार के खिलाफ उठ खड़ी हुई है, तो यह बगावत या सत्तापलट से कुछ ही कदम पीछे की नौबत है। ऐसे में यह देखना अविश्वसनीय लगता है कि इजराइली एयरफोर्स के लड़ाकू पायलटों की तरफ से यह बयान आ रहा है कि वे एक तानाशाह सरकार के लिए काम नहीं करेंगे, और सरकार को यह रूख बता भी दिया गया है। इजराइल के दस भूतपूर्व वायुसेना प्रमुखों ने एक खुली चि_ी में प्रधानमंत्री को देश के संविधान से छेड़छाड़ बंद करने को कहा है, और लिखा है कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ रही है। इजराइल की फौज का एक अहम हिस्सा यूनिट-8200 है जो कि फौज के लिए लुके-छुपे ऑपरेशन करती है, उसकी रिजर्व फोर्स ने भी यह कह दिया है कि उसके लोग ड्यूटी नहीं करेंगे।
इजराइल की मौजूदा सरकार अपने बदनाम प्रधानमंत्री नेतन्याहू की अगुवाई में कुछ महीने पहले ही तमाम घटिया किस्म की पार्टियों के साथ मिलकर सत्ता पर आई है, और अब ऐसे गिरोह ने संविधान में ऐसा संशोधन करना शुरू कर दिया है जिससे जजों की नियुक्ति पर सरकार का पूरा कब्जा हो जाएगा, और संसद के बनाए हुए कानूनों का सुप्रीम कोर्ट कुछ भी नहीं कर पाएगी। सरकार का यह तर्क है कि पिछले चुनाव में वह वोटरों द्वारा चुनी गई है, और उसे संविधान में ऐसे फेरबदल का हक है, लेकिन देश की जनता ने इस तर्क को खारिज कर दिया है कि निर्वाचित होने का मतलब संविधान से छेड़छाड़ का हक होता है। आज वहां चल रहा जनआंदोलन न सिर्फ इजराइल के इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन है, बल्कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकार के खिलाफ फौज में मौजूदा लोगों का अपने किस्म का अनोखा आंदोलन है।
हम इजराइल के भीतर के हालात को लेकर अधिक फिक्रमंद नहीं हैं क्योंकि यह देश दुनिया का सबसे जुल्मी देश बना हुआ है, लेकिन हम वहां उठ खड़े हुए इस लोकतांत्रिक आंदोलन को देखकर राहत महसूस कर रहे हैं कि सबसे अधिक मतलबपरस्त दिखते कारोबारी जनता वाले देश में भी लोकतंत्र को एक सीमा से अधिक कुचलने का क्या नतीजा हो सकता है। हम इस जागरूकता को दुनिया के उन बाकी लोकतंत्रों के लिए अहमियत का मानते हैं जहां पर सरकारें संसद और अदालत को काबू में रखने की संभावनाओं पर लार टपका रही हैं। इजराइल की जनता की आज की लोकतांत्रिक जागरूकता बाकी दुनिया के लिए भी एक मिसाल बन सकती है, और जिन देशों में जनता आज मुर्दा बनी हुई है, वहां भी हो सकता है कि लोगों को लोहिया की कही बात याद आए, और उन्हें यह समझ आए कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करतीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अफ्रीका के केन्या में एक ईसाई पादरी अपने चर्च के भक्तों के बीच यह दावा करते रहता था कि वह ईसा मसीह है। दावा तो अच्छा था, इसके चलते अंधभक्तों को एक रोजगार मिल गया रहता, और वे इस पादरी के पैरों पर पड़े रहते, लेकिन अफ्रीकी कम पढ़े-लिखे और पिछड़े जरूर दिखते हैं, लेकिन वे अधिक समझदार निकले। उन्होंने यह तय किया कि अगर यह पादरी ईसा मसीह है तब इसे आने वाले ईस्टर त्योहार पर ईसा मसीह की जिंदगी की तरह सूली पर चढ़ा देना चाहिए। और जिस तरह ईसा मसीह उसके तीसरे दिन फिर से जिंदा होकर लोगों के बीच आ जाएंगे। अब उन्होंने इस पादरी से जिद करना शुरू किया कि चूंकि वह ईसा मसीह है, इसलिए उसे सूली पर चढऩे में दिक्कत नहीं होनी चाहिए क्योंकि वह तीन बाद जिंदा होकर लौट आएगा। अब ऐसे में यह पादरी भागकर पुलिस तक गया, और उसने कहा कि उसे अपने मानने वालों से अपनी जान को खतरा है। उसने कहा कि खासकर आने वाली ईस्टर को देखते हुए साल के इस वक्त में वह डरा-सहमा है। केन्या से आई खबरें बताती हैं कि उसके समुदाय के लोग सिर्फ यही चाहते थे कि वह जो दावा करता है उसे साबित करे ताकि वे भी जान सकें कि सच क्या है। इस पादरी के बहुत से मानने वाले हैं, और उसने एक चमत्कार दिखाते हुए कुछ समय पहले शादी के एक समारोह में पानी को चाय में बदल दिया था।
ईश्वरीय, जादुई, और चमत्कारी दावे करने वालों का यही हाल करना चाहिए। इस पादरी के साथ किसी ने हिंसा शुरू भी नहीं की थी, और दहशत में इसके होश ठिकाने आ गए। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार भारी चर्चा में बने रहने वाला, दावे करने वाला, और लोगों के तौलिए उतारने वाला एक पाखंडी बाबा अभी बुरी तरह उजागर हुआ जब उसका भाई एक पिस्तौल लेकर एक दलित परिवार की शादी में गया, और बजते हुए संगीत का विरोध करते हुए उसने लोगों को गंदी गालियां दीं, धमकाया, और परले दर्जे की दलित प्रताडऩा की। दूसरी तरफ यह बाबा जो कि नाटकीय और जादुई अंदाज में करिश्मे दिखाने का दावा करता है, बीमारियां ठीक करने का दावा करता है, अपने भाई की इस करतूत से अनजान बैठा हुआ था, पूरे वारदात का वीडियो सामने आने के बाद अब भाई गिरफ्तार है, और बाबा की बोलती बंद है। वरना अभी पिछले ही हफ्ते की बात है कि मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और भूतपूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ सारे विवादों के बीच भी जाकर इस बाबा के पैरों पर बैठे थे, और एमपी के गृहमंत्री भी बाबा की चरणरज पाकर धन्य थे। ऐसे ताकतवर बाबा का भांडाफोड़ करने के लिए भी एक वारदात काफी थी, और कुछ तर्कवादियों ने यह सवाल खड़ा कर दिया था कि त्रिकालदर्शी होने का दावा करने वाला यह बाबा अपने ही भाई के जुर्म को नहीं देख पाया, और अपने असर से भाई को ही ऐसा गंदा जुर्म करने से नहीं रोक पाया। लोगों को याद होगा कि एक लडक़ी के साथ बलात्कार के जुर्म में जेल में बंद आसाराम को हिन्दुस्तान की किसी अदालत ने जमानत और पैरोल के लायक भी नहीं पाया। एक दूसरा बाबा, फिल्मी सितारों जैसी नौटंकी से जीने वाला राम-रहीम भी बलात्कार और दूसरी हिंसा के जुर्म में जेल काट रहा है, और सरकार और अदालत की मेहरबानी से बार-बार लंबी-लंबी पैरोल पा रहा है। इसी तरह का एक बाबा रामफल पुलिस कार्रवाई के खिलाफ हिंसा के जुर्म में जेल में पड़ा हुआ है। बहुत से और बाबा या दूसरे पादरी अब तक भांडाफोड़ से बचे हुए हैं, और जेल के बाहर हैं।
लोगों की जिंदगी को इस तरह के धार्मिक पाखंडी जिस हद तक बर्बाद करते हैं, उसके खिलाफ विज्ञान और इंसानियत पर भरोसा रखने वाले लोगों को खड़ा होना चाहिए। लेकिन दिक्कत यह है कि बेंगलुरू से लेकर पुणे तक जो सामाजिक आंदोलनकारी पाखंड के खिलाफ खड़े होते हैं, उन्हें या तो मार डाला जाता है, या अनगिनत मुकदमों में अदालत में घसीट दिया जाता है। सरकारों का हाल यह है कि कई पार्टियों की सरकारें आईं-गईं लेकिन गौरी लंकेश या गोविंद पानसारे के कातिलों का अब तक कुछ पता भी नहीं चला है। अब ऐसे में पड़ोस के पाकिस्तान में होने वाली धर्मान्ध हत्याओं और हिन्दुस्तान में होने वाली ऐसी अंधविश्वासी हत्याओं में फर्क क्या है? दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तान में अनगिनत नेता, अफसर, जज, और बड़े-बड़े मीडिया मालिक ऐसे ही बड़े-बड़े पाखंडियों के भक्त हैं, और सरकारें वोटरों से इस कदर सहमी रहती हैं कि वे किसी पाखंड के खिलाफ कोई कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं करतीं हैं।
अभी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पिछले हफ्ते ही अखबारों के पूरे पहले पन्ने पर एक स्वघोषित चमत्कारी बाबा का ईश्तहार छपा जिसमें बड़ी-बड़ी लाइलाज बीमारियों को चमत्कार से ठीक करने का दावा किया गया, इस बाबा की तारीफ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बयान छपा, और अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन की तस्वीर छपी, अमरीकी सरकार की सीनेट में इस बाबा के स्वागत का दावा करते हुए गोरे लोगों की एक फोटो छपी, लेकिन पुलिस में शिकायत करने के बावजूद पुलिस ने इस गैरकानूनी दावे के खिलाफ कुछ नहीं किया। दावा करने वाले बाबा को यह भी होश नहीं है कि अमरीकी सरकार अलग है, और वहां की सीनेट अलग है, अमरीका में सरकार की सीनेट जैसी कोई चीज नहीं है। लेकिन पुलिस में शिकायत करने वाले छत्तीसगढ़ के एक अकेले अंधविश्वास-विरोधी आंदोलनकारी डॉ. दिनेश मिश्र ने समय रहते पुलिस को बताया, लेकिन उनकी बात अनसुनी रह गई। पिछले बरस भी इसी बाबा के ऐसे ही पाखंडी कार्यक्रम में इलाज के चमत्कारी दावे के खिलाफ उन्होंने शिकायत की थी, और उस पर उनका बयान लेने पुलिस ने उनसे दस महीने बाद संपर्क किया था, जबकि बाबा का कार्यक्रम चार दिन में निपट चुका था।
हिन्दुस्तान में सरकार हांकने वाली पार्टियां इस कदर अनैतिक हो चुकी हैं कि वोटों के अलावा उन्हें कुछ भी नैतिक नहीं लगता। ऐसे में लोगों को ही अदालतों में जाकर बाबाओं के साथ-साथ उनके चरणों पर पड़े हुए मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को भी उजागर करना चाहिए। जिनकी जिंदगी की सांस वोटों से चलती है, उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। उन्हें कटघरे में घसीटने से कम कुछ नहीं किया जा सकता। लेकिन सवाल यह है कि डॉ.दिनेश मिश्र जैसे एक व्यक्ति को प्रदेश के सारे अंधविश्वास से लडऩे का जिम्मा देकर फिर पूरा प्रदेश पाखंडियों के प्रवचन में मंजीरा बजाता रहे, तो इससे बात बननी नहीं है। यह सिलसिला इसलिए खत्म करना चाहिए कि ऐसे बाबा लोगों से संघर्ष की इच्छाशक्ति छीन लेते हैं, उन्हें चमत्कारों में बांध लेते हैं, और यह एक बड़ी वजह रहती है कि सत्ता पर काबिज नेता, और अफसर उन्हें यह पाखंड जारी रखने देते हैं क्योंकि इससे जनता बेअसर होते चलती है, और वह संघर्ष के बजाय एक निरर्थक भक्ति को ही सारा समाधान मान लेती है। सत्ता के ऐसे संरक्षण के खिलाफ और अधिक लोगों को उठ खड़ा होना चाहिए। अफ्रीका के केन्या में जब लोग इस पाखंडी और स्वघोषित ईसा मसीह के खिलाफ उठ खड़े हुए, और उसे सूली पर चढऩे के लिए कहा, तो उसके सारे दावों की हवा निकल गई, और अपनी ही भक्तों को छोडक़र वह पुलिस थाने में जा छुपा। हिन्दुस्तान में भी जगह-जगह ऐसे बाबाओं को घेरकर सवाल होने चाहिए, उनके अवैज्ञानिक और गैरकानूनी चमत्कारी दावों पर उनके खिलाफ रिपोर्ट होनी चाहिए, तब जाकर देश की जनता को अंधविश्वास के शिकंजे से निकाला जा सकेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आरएसएस से जुड़ी एक संस्था ने गर्भ संस्कार नाम का एक कार्यक्रम शुरू किया है जिसके तहत महिला चिकित्सकों को यह ट्रेनिंग दी जा रही है कि वे किस तरह गर्भवती महिलाओं को भगवान राम, हनुमान, शिवाजी, और स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में पढऩे को कहें ताकि बच्चे को गर्भ में ही संस्कार मिल सके। संवर्धिनी न्यास नाम की यह संस्था आरएसएस की महिला ईकाई राष्ट्र सेविका समिति से जुड़ी हुई है, और इसका कहना है कि होने वाले बच्चों में हिन्दू शासकों के गुण आ सकें, इसलिए यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इसमें दिल्ली के एम्स की एक डॉक्टर भी शामिल थी जिसका कहना है कि जैसे ही कोई जोड़ा बच्चे के बारे में सोचे, वैसे ही गर्भ संस्कार शुरू कर देना चाहिए। इस कार्यक्रम में शामिल लोगों का दावा है कि गर्भ संस्कार ठीक से किया जाए तो होने वाले बच्चे का डीएनए भी बदला जा सकता है। कार्यक्रम में शामिल डॉक्टरों ने एक से बढक़र एक अवैज्ञानिक बातें कहीं, जो कि जाहिर है उनके डॉक्टर होने से बहुत से लोगों के बीच विश्वसनीय मान ली जाएगी। दिलचस्प बात यह भी है कि अभी दो दिन पहले यह कार्यक्रम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में किया गया, जहां जेएनयू की विसी शांतिश्री धुलीपुड़ी पंडित इसकी अतिथि बनाई गई थीं, जो कि कार्यक्रम में नहीं पहुंचीं। यह संस्था हर बरस ऐसे एक हजार गर्भ संस्कारी बच्चों का लक्ष्य लेकर चल रही है, और इसका मानना है कि इससे हिन्दुस्तान की पुरानी शान फिर से कायम हो सकेगी।
किसी नस्ल को दूसरी नस्लों से बेहतर बताने का एक सिलसिला हिटलर के समय से दुनिया का इतिहास गढ़ चुका है। अब हिन्दुस्तान के हिन्दुत्व जैसे तबके में जातियों के आधार पर शुद्धता, और श्रेष्ठता की जिद भी आक्रामक होते चल रही है, जो कि नई नहीं है, और मनुवादी जाति व्यवस्था के समय से यह रक्तशुद्धता का काम करती आ रही है। अब इसमें छोटी सी दिक्कत यह है कि अपनी कट्टर धार्मिक सोच, जातिवाद, राष्ट्रवाद, और साम्प्रदायिक नफरत के चलते विज्ञान से जुड़े हुए डॉक्टर भी ऐसी मुहिम में शामिल हो रहे हैं जो कि नफरत को एक अलग विश्वसनीयता देती है। इन संगठनों की सोच को देखें, इनके पूजनीय चरित्रों को देखें, तो यह साफ हो जाता है कि यह किस तरह एक धर्म की श्रेष्ठता, और उस धर्म के भीतर भी सत्ता की ताकत रखने वाली कुछ जातियों की श्रेष्ठता का अभियान है। आज देश में वैज्ञानिक सोच को मार-मारकर खत्म करने का जो सिलसिला पिछले कुछ बरसों से चल रहा है, और सत्ता की राजनीति की मेहरबानी से बहुत हद तक कामयाब भी हो चुका है, उसकी वजह से अब लोग धर्म, पुराण, आध्यात्म, और पुरानी भारतीय तथाकथित संस्कृति के नाम पर किसी भी अवैज्ञानिक बात पर भरोसा करने के लिए एक पैर पर खड़े हैं। यह नौबत एक झूठे आत्मगौरव से संतुष्ट समाज की रचना भी कर रही है, और ऐसी संतुष्टि की वजह से लोगों के लिए अब कोई असल कामयाबी हासिल करना जरूरी भी नहीं रह गया है।
अभी कुछ ही दिन पहले भारतीय मूल के नोबल विजेता वेंकटरमन रामाकृष्णन ने सलाह दी थी कि भारत को मांस पर बहस छोडक़र शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा था कि कौन कैसा मांस खाते हैं इस पर साम्प्रदायिक दुश्मनी पालने के बजाय विज्ञान और तकनीक की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। उनकी सलाह थी कि अगर भारत इनोवेशन, विज्ञान, और तकनीक में निवेश नहीं करेगा तो वह दुनिया की दौड़ में चीन से पीछे छूट जाएगा। विदेश में बसे हुए रामाकृष्णन को 2009 में नोबल पुरस्कार मिला था। उन्होंने अभी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में कहा था कि भारत चीन से पहले ही काफी पिछड़ गया है, 50 साल पहले इन दोनों देशों को देखें तो दोनों की तुलना हो सकती थी, तब भारत चीन से थोड़ा बेहतर ही कहा जा सकता था, लेकिन अब नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि आजादी के पहले हिन्दुस्तान में विश्वस्तरीय वैज्ञानिक हुए, और यह सिलसिला आजादी के बाद भी कुछ समय तक नेहरू की वजह से चला जो कि विज्ञान में दिलचस्पी रखते थे, और जिन्होंने उत्कृष्ट संस्थान खड़े किए। अब आज के वैज्ञानिकों की सोच से परे अगर भारत के इतिहास के, और हिन्दुत्ववादियों के सबसे पसंदीदा राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर को देखें, तो उन्होंने खुलकर लिखा था कि गाय पूजनीय नहीं है, गाय सिर्फ एक उपयोगी जानवर है। उन्होंने लिखा था गाय एक ऐसा पशु है जिसके पास मूर्ख से मूर्ख मनुष्य के बराबर भी बुद्धि नहीं होती, गाय को दैवीय कहते हुए मनुष्य से इसे ऊपर मानना मनुष्य का अपमान है। उनका कहना था कि मनुष्य के लिए गाय जब तक उपयोगी है उसकी हत्या नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब वह उपयुक्त न रह जाए तब वह हानिकारक हो जाएगी, और उस स्थिति में गोहत्या भी आवश्यक है। आज के भाजपा और संघ परिवार के एक सबसे बड़े राष्ट्रवादी प्रतीक सावरकर का कहना था कि गाय के गले में घंटी बांधना है तो उसी भावना से बांधनी चाहिए जैसे कि कुत्ते के गले में पट्टा बांधा जाता है, भगवान के गले में हार डालने की भावना से यह घंटी नहीं बांधनी चाहिए। उन्होंने कुत्ते के अलावा गधे से भी गाय की तुलना की थी।
अब सवाल यह उठता है कि हिन्दुत्ववादियों में भी एक वैज्ञानिक सोच रखने वाले सावरकर की अच्छी तरह दर्ज लिखी हुई इन बातों की चर्चा पर भी उनके आज के प्रशंसक भडक़ने लगते हैं। और विज्ञान के बैनरतले वे एक ऐसा अंधविश्वास फैला रहे हैं, जिसके बारे में उनका कहना है कि उससे डीएनए भी बदल सकता है। आज जो लोग धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिक नफरत के आधार पर भारत के एक नामौजूद इतिहास पर गर्व करते हुए इस तरह के अभियान को अपनी डॉक्टरी की विश्वसनीयता भी दे रहे हैं, उन्हें कम से कम उस विज्ञान के बारे में भी सोचना चाहिए जिससे वे रोजी-रोटी कमाते हैं, समाज में इज्जत पाते हैं। आज हिन्दुस्तान के लोगों के सामने असल जिंदगी की जो दिक्कतें हैं, उनकी तरफ से ध्यान हटाने के लिए रात-दिन कई तरह के शिगूफे खड़े किए जा रहे हैं। लेकिन दुनिया का इतिहास बताता है कि आज के मुकाबले की दुनिया में वही देश टिक पाएंगे जो कि एक वैज्ञानिक और उदारवादी सोच से आगे बढ़ेंगे। कट्टर और धर्मान्ध सोच लोगों को उनकी अपनी संभावनाओं से कोसों पीछे रखेगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बीबीसी की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुस्तानी शहरों में लड़कियों और महिलाओं का घर से निकलना लडक़ों और आदमियों के मुकाबले कितना कम होता है। इनमें अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग तबकों की लड़कियां और महिलाएं हैं, और उनमें से अधिकतर का यह मानना है कि वे सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। कुछ तो हिन्दुस्तानी समाज में लडक़े और मर्द अपने गैरबराबरी के सामाजिक दर्जे की वजह से भी मनमाने बाहर रह सकते हैं, दूसरा यह कि सेक्स-अपराधों का खतरा भी उन पर नहीं के बराबर रहता है, इसलिए भी वे किसी भी इलाके में, किसी भी वक्त, अकेले भी आ-जा सकते हैं जो कि महिलाओं और लड़कियों के लिए मुमकिन नहीं है। बीबीसी ने यह रिपोर्ट सामाजिक अध्ययन करने वाले कुछ लोगों के निष्कर्षों पर बनाई है, और इसके मुताबिक गोवा ऐसा राज्य है जहां घर से बाहर निकलने वाले महिला और पुरूष बराबर हैं। तमिलनाडु की महिलाएं कारखानों में खूब काम करती हैं, और देश भर में फैक्ट्रियों में काम करने वाली 16 लाख महिलाओं में से तकरीबन आधी तमिलनाडु की हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि कुछ राज्यों में सरकारी योजनाओं के तहत मुफ्त साइकिल मिलने से भी लड़कियों का घर से निकलना बढ़ा है। दुनिया के बाकी बहुत से देशों में कराए गए ऐसे सर्वे में हिन्दुस्तान ही सबसे पिछड़ा हुआ निकला है, और यहां पर घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं का अनुपात सबसे ही कम है।
ऐसे सर्वे और इस रिपोर्ट से परे भी बहुत सी ऐसी बातें हम अपने आसपास देखते हैं जिसकी वजह से लड़कियां और महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर अपने को दिक्कत या खतरे में पाती हैं। मर्द तो किसी भी दीवार के किनारे खड़े होकर हल्के हो लेते हैं, और अब तो अंतरराष्ट्रीय विमानों में भी वे साथ के दूसरे पैसेंजरों पर पेशाब करने लगे हैं, इसलिए उन्हें तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन हिन्दुस्तानी शहरों में आमतौर पर कई-कई किलोमीटर तक चले जाने पर भी महिलाओं के लिए कोई पखाने या पेशाबघर नहीं रहते, और रहते भी होंगे तो उनके साफ न रहने गारंटी की जा सकती है। यह हाल सार्वजनिक जगहों से परे स्कूल-कॉलेज और दफ्तर-दुकान का भी रहता है, जिनमें से किसी को महिला या लडक़ी के लायक नहीं बनाया जाता है। हिन्दुस्तानी आमतौर पर गंदे रहते हैं, किसी भी सार्वजनिक जगह को अधिक से अधिक बुरी तरह से गंदा करना वे अपना बुनियादी अधिकार समझते हैं, और यहीं से लड़कियों और महिलाओं के लिए दिक्कत शुरू हो जाती है।
दूसरा मामला गुंडे और मुजरिम किस्म के लडक़ों का रहता है जिनकी छेडख़ानी से बचने में लड़कियों को खुद ही जूझना पड़ता है क्योंकि न तो आम हिन्दुस्तानी मुसीबत में पड़ी लडक़ी की मदद में आगे आते, और न ही अधिकतर प्रदेशों में पुलिस ही सार्वजनिक जगहों पर मददगार रहती है। हाल के बरसों में ऐसा कोई दिन नहीं गया जब किसी न किसी शहर से यह खबर नहीं आई कि छेडख़ानी या बलात्कार की शिकायत करने वाली लडक़ी की पुलिस ने कोई मदद नहीं की, और वे ही मुजरिम दुबारा धमकाने पर उतारू हो गए, और बहुत सी लड़कियां और महिलाएं ऐसे में आत्महत्या करती हुई खबरों में आती हैं। डरे-सहमे परिवार मवालियों की राजनीतिक ताकत और उनके बाहुबल के मुकाबले घर पर रहना ठीक समझते हैं, और कम से कम लड़कियों और महिलाओं को तो बिना किसी जरूरी काम के बाहर न निकलने की सलाह देते हैं। योरप तो योरप, अफ्रीका तक के देश हिन्दुस्तान के मुकाबले कई गुना बेहतर हैं जहां महिलाएं पुरूषों की बराबरी से ही बाहर निकलती हैं।
यह भी समझने की जरूरत है कि किसी महिला के बाहर निकलने से उसकी पढ़ाई-लिखाई, ट्रेनिंग, काम करने के दूसरे मौके, आर्थिक आत्मनिर्भरता, और जिंदगी में कामयाबी, ये सब जुड़े रहते हैं। जब किसी के घर की दीवारें ही उसके लिए पूरा आसमान बता दिया जाए, तो उसकी उड़ान आखिर कितनी ऊंची और कितने दूर तक हो सकती है? कोई भी देश अपनी आधी आबादी की संभावनाओं का फायदा उठाए बिना आगे नहीं बढ़ सकता। भारत में महिलाओं को आमतौर पर घरेलू कामकाज में ही झोंक दिया जाता है, और उनकी क्षमताओं का उससे अधिक कोई इस्तेमाल नहीं होता। देश भर के कामगारों में महिलाओं का अनुपात बहुत ही कम है, और जहां पर महिलाएं बराबरी से मेहनत का काम करती हैं, वहां भी उन्हें मर्दों के मुकाबले कम मजदूरी मिलती है।
जो संगठित क्षेत्र के नियमित रोजगार की जगहें हैं, वहां भी महिलाओं को लेकर मैनेजमेंट के मन में हिचक बनी रहती है क्योंकि उन्हें कई महीने का प्रसूति-अवकाश देना पड़ता है, और अब माहवारी के दिनों में भी किसी तरह की रियायत की मांग उठ रही है। चूंकि घर से काम की जगह तक आना-जाना भी रात के वक्त सुरक्षित नहीं रहता, इसलिए महिलाओं से रात की शिफ्ट में काम नहीं लिया जा सकता, और यह भी एक वजह है कि लोग उन्हें काम पर रखना नहीं चाहते हैं। इसके अलावा उन पर पारिवारिक जिम्मेदारियां इतनी अधिक रहती हैं कि बाहर काम करने पर भी हर पारिवारिक दिक्कत का बोझ उन्हीं पर आता है, और मैनेजमेंट यह सोचता है कि महिला कर्मचारी को ऐसी तमाम नौबतों पर अधिक छुट्टी देनी पड़ेगी। इन सब बातों को लेकर लोग महिलाओं को काम पर तब तक नहीं रखते, जब तक कि उन कामों के लिए महिला ही सबसे माकूल न हो।
महिलाओं को आगे बढ़ाने में परिवार से लेकर समाज तक, गांव या शहर-कस्बे के माहौल तक, और हिफाजत की जिम्मेदारी वाली पुलिस तक सबको बहुत काम करना होगा, तब लड़कियां और महिलाएं आत्मविश्वास के साथ बाहर निकलकर अर्थव्यवस्था में बराबरी का योगदान कर पाएंगी। शहरों को अपने सार्वजनिक परिवहन से लेकर ट्रैफिक तक, और सडक़ों की गुंडागर्दी तक सबको देखना होगा, तभी परिवार हिम्मत के साथ अपनी लड़कियों और महिलाओं को बाहर जाने देंगे। पढ़ाई और खेलकूद के संस्थानों को भी यह देखना होगा कि लड़कियों के शोषण के मामले न हों, क्योंकि जुर्म किसी एक लडक़ी के साथ होता है, और उसकी खबरों से हजारों दूसरी लड़कियों का बाहर निकलकर पढऩा या काम करना थम जाता है। समाज के अलग-अलग मंचों पर इस मुद्दे पर बातचीत की जरूरत है ताकि हर इलाके में इससे जुड़ी हुई दिक्कतों और खतरों की शिनाख्त हो सके, उन्हें दूर करने के रास्ते निकाले जा सकें, और देश को लड़कियों के लिए एक अधिक सुरक्षित जगह बनाया जा सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बाम्बे हाईकोर्ट के एक जज, गौतम पटेल ने अभी एक मामले की सुनवाई करते हुए सरकारी वकील से पूछा कि क्या मुम्बई शहर अपने गरीबों से छुटकारा पाना चाहता है? उन्होंने कहा कि बेघर होना एक वैश्विक समस्या है, ऐसे लोग कम किस्मत वाले हैं, लेकिन वे इंसान तो हैं। जस्टिस गौतम पटेल जस्टिस मीना गोखले के साथ हाईकोर्ट में एक मामले की सुनवाई कर रहे थे। यह मामला बाम्बे हाईकोर्ट के ठीक सामने शहर के एक विख्यात चौराहे फ्लोरा फाउंटेन के इर्द-गिर्द फुटपाथों पर बेघर लोगों के कब्जे को लेकर बाम्बे बार एसोसिएशन की एक याचिका का है जिसमें यह एसोसिएशन फुटपाथों से बेघर लोगों को हटाना चाह रहा है। इस मामले में जस्टिस पटेल ने तल्खी के साथ कहा कि क्या आप उन्हेें फुटपाथों से फेंक देना चाहते हैं? दोनों जजों ने पूछा कि क्या शहर को अपने गरीबों से छुटकारा पा लेना चाहिए? जजों ने कहा कि बेघर लोगों की समस्या चाहे बार एसोसिएशन की फिक्र न हो, यह कम से कम अदालत की फिक्र तो है ही। जजों ने वकीलों को याद दिलाया कि वे लोग भी इंसान हैं, और इस अदालत में उनकी उतनी ही जगह है जितनी कि बार एसोसिएशन की है। बाम्बे हाईकोर्ट में फुटपाथ और सडक़ किनारे कारोबार करने वाले छोटे फेरीवालों का मामला भी चल रहा है, और इन दोनों ही किस्म के तबकों से फुटपाथ पर चलने की जगह घिरती है। लेकिन अदालत ने इन दोनों किस्म के मामलों को जोडक़र सुनना सही नहीं समझा।
हिन्दुस्तान में जगह-जगह शहरी फुटपाथों पर काम करने वाले लोगों के खिलाफ माहौल बनते ही रहता है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में शहर के एकदम बीच के सबसे घने बाजारों में दुकानों के सामने, सडक़ों पर लोग कारोबार कर रहे हैं, वहां से किसी छोटी गाड़ी के निकलने की भी जगह नहीं रह गई है, लेकिन शहर को हांकने वाले नेताओं की मेहरबानी से यह सिलसिला जारी है, और बढ़ते ही चल रहा है। दूसरी तरफ शहर के एक खाली हिस्से में कॉलेजों के सामने खोमचे-ठेले लगाने वाले छोटे-छोटे मजदूर सरीखे कारोबारियों को इन्हीं नेताओं और उनकी म्युनिसिपल के अफसरों ने कई किलोमीटर तक हटाकर फेंक दिया क्योंकि उस इलाके में नेताओं और अफसरों ने मिलकर खानपान का एक नया महंगा बाजार बनाया है, और इस बाजार का कारोबार बढ़ाने के लिए सडक़ किनारे के गरीब ठेलेवालों को बेदखल करना जरूरी था। यह पूरा इलाका कॉलेज, यूनिवर्सिटी, और हॉस्टलों का है, यहां पर दसियों हजार बच्चे इन सैकड़ों ठेलों पर रोज खाते थे, और हजारों लोगों का घर भी उससे चलता था। अब गिने-चुने कुछ दर्जन बड़े कारोबारी वहां महंगी दुकानों को (शायद नाजायज तरीके से) पाएंगे, और महंगे कारोबार के एकाधिकार के लिए गरीबों को उठाकर फेंक दिया गया। यह इलाका स्थानीय विधायक के घर का इलाका है, लेकिन यहां ठेले लगाने वाले लोग शहर के अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं, और जाहिर है कि वे इस इलाके के विधायक के वोटर नहीं हैं, इसलिए उनकी फिक्र भी नहीं है।
हमारा मानना है कि अगर छत्तीसगढ़ में कोई जनहित याचिका अदालत तक पहुंचे, और किसी जज को गरीबों के साथ किए गए इस जुल्म को समझाया जा सके, तो इन ठेलेवालों को उठाकर फेंकने वाले कटघरे में रहेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ जैसा राज्य सामाजिक चेतना के मामले में एक मुर्दा राज्य है। यहां के लोग अपने निजी स्वार्थ से परे बहुत कम कुछ करते दिखते हैं। और चुनाव लडक़र जीतने वाले नेताओं को शायद यह भरोसा हो गया है कि वे गरीबों के वोटों से नहीं जीतते, नोट देकर खरीदे गए वोटों से जीतते हैं, इसलिए इस तरह के जुल्म की साजिश पर भी किसी का मुंह नहीं खुलता। एक तरफ शहर में एक के बाद दूसरे खेल के मैदान को काटकर, बांटकर तरह-तरह के बाजार बनाए जा रहे हैं, आसपास की संपन्न बस्तियों के लिए पार्किंग बनाई जा रही है, हर बगीचे और तालाब को कारोबारी जगह बनाया जा रहा है, तालाबों को पाटा जा रहा है, मैदानों को काटा जा रहा है, और इनके खिलाफ अदालत तक जाने की फिक्र और फुर्सत किसी जनसंगठन को नहीं है, जनप्रतिनिधियों को तो है ही नहीं।
ऐसा मुर्दा समाज किसी भी शहर और प्रदेश की मौत का मूक गवाह रहता है। वह हर किस्म के जुल्म और जुर्म होते देखते रहता है, और जब तक उसके अपने मकान-दुकान टूटने की बारी नहीं आती, वह बेफिक्र रहता है। आज छत्तीसगढ़ में, या इस किस्म के दूसरे बहुत से गैरजिम्मेदार प्रदेशों में सरकार, और स्थानीय संस्थाओं की जनविरोधी योजनाओं का विरोध करने के लिए जागरूक नागरिकों के संगठनों की जरूरत है जो कि आने वाली पीढिय़ों के लिए शहर को बचाने के लिए फिक्रमंद हों। निर्वाचित स्थानीय नेता, और सरकार हांक रहे अफसर काली कमाई की योजनाएं बनाने में पूरी तरह भागीदार रहते हैं, और शहरों में बन रही हर योजना की प्राथमिकता यही रहती है कि किस तरह लूटा और खाया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के अधिकतर हिस्सों में सडक़ों पर बुरी तरह काबिज कारोबारियों को अनदेखा करके किसी एक खास हिस्से के फुटपाथी ठेलेवालों को जिस तरह फेंका गया है, उसके फैसलों की फाईलें लोगों को निकलवानी चाहिए, और इसके खिलाफ अदालत जाना चाहिए। प्रदेश के किसी एक शहर को लेकर भी अगर हाईकोर्ट का कोई अच्छा फैसला आता है, तो वह बाकी प्रदेश में भी समान स्थितियों पर लागू होगा। यह मौका न्यायपालिका के लिए भी अपनी सामाजिक चेतना के इस्तेमाल का रहेगा, वैसे तो अदालत को खुद होकर भी ऐसे मामले में खबरों के आधार पर जनहित याचिका शुरू कर देनी थी, और राजधानी के म्युनिसिपल के कमाऊ नेताओं और अफसरों से जवाब मांगने थे।
दुनिया में आज सबसे ताकतवर जो चीजें मानी जाती हैं उनमें किसी देश की सरकार रहती है, धर्म रहता है, ईश्वर की धारणा रहती है कि वह सर्वशक्तिमान है, सर्वत्र है, सर्वज्ञ है, और सबकी हिफाजत करता है। हर धर्म लोगों को भरोसा दिलाता है कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, और उनकी जरूरत के वक्त ईश्वर उनके साथ खड़े रहेगा। लेकिन पाकिस्तान से शुरू होकर इटली के समंदर तक पहुंचने वाली एक युवती की कहानी बताती है कि एक मां इन सबसे अधिक ताकतवर रहती है, सरकार से भी, धर्म से भी, और ईश्वर से भी।
यह कहानी बड़ी तकलीफदेह है। पाकिस्तान में दो बहनें मशहूर खिलाड़ी थीं, और राष्ट्रीय टीम तक पहुंची हुई थीं। इनमें से एक शाहिदा रजा थीं जो कि फुटबॉल और हॉकी दोनों में देश और विदेश के कई मुकाबलों तक पहुंची हुई थीं, और इन खेलों में उन्होंने बड़ा नाम भी कमाया था। वे अपनी मेहनत से इन खेलों में आगे बढ़ी थीं, और कई देशों तक मैच खेलने गई हुई थीं। उनका तीन बरस का एक बेटा है जो कि पैदा होने के बाद जल्द ही एक विकलांगता का शिकार हो गया, और कमजोर दिमाग की वजह से उसका चलना-फिरना मुमकिन नहीं रह गया। डॉक्टरों ने कहा कि विदेशों में इसका इलाज मुमकिन है। इसी बात को लेकर शाहिदा योरप जाना चाह रही थी, और वहां जाकर काम करके इलाज के लिए अपने बेटे को बुलाने का सपना देख रही थीं। शाहिदा एक वीजा लेकर तुर्की तक गईं, और वहां से एक गैरकानूनी बोट पर सवार होकर सैकड़ों और लोगों के साथ वे इटली जा रही थीं, और करीब-करीब वहां पहुंच भी गई थीं। इटली के समंदर में नाव डूबने से दो सौ लोगों की मौत का अंदाज है जिसमें 40 पाकिस्तान से थे, और इन्हीं में 27 बरस की शाहिदा भी थीं जो कि देश की सबसे होनहार खिलाडिय़ों में से एक थीं।
एक देश के रूप में पाकिस्तान बड़ा नाकामयाब रहा है क्योंकि वह धर्म पर आधारित देश बना, उसके कानून अपनी ही आबादी के बीच भेदभाव करने वाले बने, और वहां धार्मिक कट्टरता पर बने हुए आतंकी संगठनों ने कानून के ऊपर अपना राज कायम कर लिया। नतीजा यह निकला कि 15 अगस्त 1947 के पहले भारत और पाकिस्तान एक ही जमीन का हिस्सा थे, और हिन्दुस्तान इस पौन सदी में लगातार आगे बढ़ा क्योंकि उसने अभी कुछ बरस पहले तक धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा नहीं दिया, धार्मिक आतंकी संगठनों का राज कायम नहीं होने दिया। पाकिस्तान में सरकार इस मामले में नाकामयाब रही। और जहां तक धर्म का सवाल है, तो धर्म तो अपने अधिकतर लोगों को गरीब रखने में भरोसा रखता है क्योंकि उन लोगों को नर्क का डर और स्वर्ग के सपने दिखाकर उन्हें राजा और कारोबारी का गुलाम बनाकर रखा जा सकता है। पाकिस्तान में धर्म ने यह काम बखूबी किया, और अधिकतर आबादी गरीब रह गई, बहुत सी आबादी आधुनिक शिक्षा से दूर रह गई, विज्ञान और टेक्नालॉजी से उसे रूबरू नहीं होने दिया गया क्योंकि ये दोनों ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाते हैं। नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान एक नाकामयाब अर्थव्यवस्था बनकर रह गया, और इसमें वहां धर्म के बोलबाले का बड़ा हाथ रहा। अब बात आती है ईश्वर की, तो ईश्वर की धारणा अपने आपमें अफीम के नशे की तरह रहती है, और इस मामले में भी ईश्वर बुरी तरह नाकामयाब रहा कि उसने अपने सबसे गरीब भक्तों की भी कोई मदद नहीं की, वहां के करोड़ों लोग बाढ़ के शिकार होकर भूखों मरने के करीब आ गए, दसियों लाख लोग बेघर हो गए, और ईश्वर ऊपर बैठा सब देखता रहा, और उसने सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वत्र, इनमें से किसी भी तमगे को नहीं छोड़ा। पाकिस्तान में इस नौजवान खिलाड़ी महिला की इटली के समंदर में इस तरह की मौत ईश्वर की नामौजूदगी, या नाकामयाबी का एक बड़ा सुबूत है।
लेकिन सरकार, धर्म, ईश्वर, इन सबकी असफलता के बीच एक मां कामयाब रही कि जो असंभव किस्म का काम था, वह उसी को पूरा करने के लिए निकल पड़ी थी, और किसी तरह योरप पहुंचकर, वहां कोई काम जुटाकर, इलाज के लिए अपने बच्चों को वहां बुलवाने और उसे पैरों पर खड़ा करने के लिए वह सिर पर कफन बांधकर निकल पड़ी थी। तीन साल के बेटे को पाकिस्तान में लाइलाज मानी गई एक बीमारी से उबारने के लिए उसने अपनी जान दांव पर लगा दी, और एक ओवरलोड बोट पर सवार होकर गैरकानूनी तरीके से वह योरप तक पहुंच ही गई थी कि उसी ऊपर वाले ईश्वर ने जमीन से जरा दूरी पर बोट को डुबा दिया। यह महिला अपनी इस जिंदगी में तो बेटे का इलाज नहीं करा पाई, लेकिन फिर भी वह सरकार, धर्म, और ईश्वर, इन तीनों से बेहतर साबित हुई कि उसने कोई कोशिश बाकी नहीं रख छोड़ी थी। वह अपनी जान भी खतरे में डालकर बेटे के इलाज के लिए एक परदेस पहुंचकर वह तमाम कोशिशें करने वाली थी जो कि उसके देश की सरकार ने नहीं की थी, धर्म ने नहीं की थी, और ईश्वर ने तो जाहिर है कि वह तकलीफ उसके बेटे को दी ही थी।
लोगों को इस एक मामले को देखकर यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि किसी देश में किसी धर्म का राज कायम हो जाने पर उस देश के लोगों का, उस धर्म के लोगों का भला नहीं हो जाता। यह भी समझना चाहिए कि धर्म बड़ी-बड़ी बातें करता है, लेकिन अपने भीतर के सबसे दौलतमंद और ताकतवर लोगों को यह नहीं कहता कि वे उसी धर्म के दूसरे गरीब लोगों की मदद करें। और ईश्वर तो दुनिया में होने वाले हर बुरे को देखते हुए बैठे रहता है, और बिना कुछ किए हुए एक नाजायज वाहवाही पाते रहता है। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि एक मां इन सबसे ऊपर होती है, वह अपनी जान देकर भी अपने बच्चों को बचाने की कोशिश करती है, और दुनिया की तमाम चीजों में मां से बड़ा सच और कुछ नहीं होता।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने एक शानदार आदेश देकर चुनाव आयोग की नियुक्तियों का तरीका बदल दिया है। अब तक केन्द्र सरकार चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त अपनी मर्जी से नियुक्ति करते आई है, लेकिन अब ये नियुक्तियां प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और देश के मुख्य न्यायाधीश की एक कमेटी की सिफारिश से होंगी। पांच जजों की एक संविधानपीठ ने यह फैसला लिया है, और इसे संसद कोई कानून बनाकर ही पलट सकेगी। उल्लेखनीय है कि देश के पिछले एक चुनाव आयुक्त अरूण गोयल को केन्द्र सरकार ने भयानक हड़बड़ी में पिछले बरस उस वक्त नियुक्त किया था जब सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के तरीके बदलने पर सुनवाई चल ही रही थी। यह कुर्सी 5 मई 2022 से खाली थी, लेकिन इस सुनवाई की वजह से 18 नवंबर को केन्द्र सरकार ने अपनी पसंद के इस चुनाव आयुक्त को आनन-फानन नियुक्त कर दिया। अभी इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह हैरानी जाहिर की कि गोयल की नियुक्ति जिस बिजली की गति से एक दिन में पूरी की गई वह हक्का-बक्का करने वाली थी। अदालत ने इस फैसले में दर्ज किया कि 18 नवंबर को चुनाव आयुक्त की खाली कुर्सी भरने के लिए मंजूरी मांगी गई थी उसी दिन कार्यरत और रिटायर्ड आईएएस अफसरों का डेटाबेस बनाया गया, चार नामों पर विचार किया गया, दिसंबर में रिटायर होने जा रहे गोयल ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति मांगी, और फिर इसके लिए लगने वाले तीन महीनों के समय से छूट मांगी, प्रधानमंत्री ने छूट दी, और उसी दिन उन्हें चुनाव आयुक्त बना दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने हैरानी जाहिर की कि अगर इस अफसर को नियुक्ति के बारे में पता नहीं था, तो उसने 18 नवंबर को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन कैसे किया था?
इन तमाम जानकारियों को लिखने का मकसद यह है कि आज सुप्रीम कोर्ट को देश के किन हालात को देखते हुए, केन्द्र सरकार के कौन से तौर-तरीकों को देखते हुए यह फैसला देना पड़ा, वह साफ हो सके। जिस वक्त सुप्रीम कोर्ट इस मामले में फैसला कर ही रहा था, उस वक्त जिस आनन-फानन तरीके से गोयल की नियुक्ति की गई उसने केन्द्र सरकार की ऐसी ताकत पर सवाल खड़े कर दिए थे कि सत्तारूढ़ पार्टी को अगले चुनाव में किसी तरह का फायदा देने की ताकत रखने वाले चुनाव आयोग में अगर नियुक्तियां सत्तारूढ़ पार्टी इसी तरह बिना किसी रोक-टोक कर सकेगी तो वह आने वाले चुनावों की निष्पक्षता खत्म करने की गारंटी होगी। हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट को इस पिछले चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर भी सवाल उठाने थे, और केन्द्र सरकार से अधिक कड़ाई से जवाब-तलब करना था। यह नौबत बदलने की बहुत जरूरत थी, और यह अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधानपीठ ने यह फैसला लिया है। आज हिन्दुस्तान में संवैधानिक संस्थाओं को केन्द्र सरकार के शिकंजे में लाने का जो निरंतर सिलसिला चल रहा है, वह देश से लोकतंत्र को खत्म करने का पूरा खतरा रखता है। दिलचस्प बात यह है कि अरूण गोयल नाम के जिस अफसर से इस्तीफा लेकर, उसे रातों-रात कुछ घंटों में ही चुनाव आयुक्त बना दिया गया, उसकी वरिष्ठता के 160 ऐसे अफसर थे जो कि उम्र में उनसे छोटे भी थे, और चुनाव आयोग में कार्यकाल पूरा कर सकते थे। ये तमाम बातें बताती हैं कि मोदी सरकार किस अंदाज में एक-एक संवैधानिक कुर्सी, एक-एक संवेदनशील ओहदे पर अपनी पसंद के लोगों को बिठाकर देश में अपनी पसंद का एक लोकतंत्र बना चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले की ही मिसाल देकर देश में ऐसी दूसरी नियुक्तियों के बारे में भी एक पिटीशन लगानी चाहिए जो कि सरकार से परे रहने वाली कुर्सियों की है, लेकिन जिन्हें सरकार ने अपनी पसंद से भरने का हक बना रखा है। बहुत सी जांच एजेंसियों, और दूसरे पदों पर लोगों को बिठाने, उन्हें हटाने, उनका कार्यकाल बढ़ाने का काम सरकार की मर्जी पर नहीं छोडऩा चाहिए, और जिस तरह सीबीआई के डायरेक्टर के लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और देश के मुख्य न्यायाधीश की कमेटी काम करती है, उसी तरह बाकी एजेंसियों की नियुक्तियां भी होनी चाहिए, और देश में इन तमाम जांच एजेंसियों को एक अलग संवैधानिक संस्था के मातहत करना चाहिए, और सरकार से इन्हें अलग करना चाहिए। जिस तरह आज न्यायपालिका या चुनाव आयोग अलग संवैधानिक संस्थाएं हैं, उसी तरह देश की प्रमुख जांच एजेंसियां भी सरकार के सीधे नियंत्रण से परे एक अलग संवैधानिक संस्था के नियंत्रण में होनी चाहिए, उसके प्रति जवाबदेह होने चाहिए। इस ताजा फैसले में संविधानपीठ ने एक बहुत सही बात कही है- एक कमजोर निर्वाचन आयोग घातक परिस्थिति पैदा कर देगा, लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब सभी भागीदार चुनाव प्रक्रिया की शुचिता को बनाए रखने के लिए मिलकर काम करें ताकि लोगों की इच्छा सामने आ सके। सरकार के अहसान से दबा व्यक्ति कभी भी खुदमुख्तार होकर काम नहीं कर सकता।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उम्मीद जगाने वाला भी है कि सरकार की मनमानी के खिलाफ अभी भी भारतीय लोकतंत्र में एक काबू की गुंजाइश है। देश की जनता और जनसंगठनों को, राजनीतिक दलों और मीडिया के अब तक बचे हिस्सों को लोकतांत्रिक संभावनाएं टटोलना बंद नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र ऐसी स्थितियों के बीच ही एक बार फिर से खड़ा होने की संभावना रखता है, और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले, और इस रूख से यह उम्मीद जागती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बहुत पहले किसी नासमझ ने स्कूल का निबंध लिखते हुए एक लाईन गढ़ी थी कि भारत एक कृषिप्रधान देश है, और फिर मानो यह निबंध पढऩे वाले तमाम बच्चों ने बड़े होने तक इसी लाईन को दुहराया, और फिर यह राजनीति में भी काम आने लगी कि भारत एक कृषिप्रधान देश है। आज 21वीं सदी के दूसरे दशक में पहुंचने के बाद गलती समझ में आती है कि भारत कृषिप्रधान नहीं धर्मप्रधान देश है। धर्म से अगर समय बच जाए, तो यह देश कुछ और भी कर लेता है। लेकिन इस देश के धर्मों को एक साथ कोसने या उनकी एक साथ स्तुति करने के बजाय अगर उन्हें अलग-अलग करके देखें, तो बड़ी दिलचस्प तस्वीर सामने आती है। और आज की यह बातचीत इसी तस्वीर पर है जो कि लोग इस मुद्दे को पढऩे के बाद अपनी सहमति या असहमति के साथ अपने तजुर्बे और अपनी पसंद से निष्कर्षों की अपनी तस्वीर बना सकते हैं।
हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्सों में देखें तो धर्म से होने वाला प्रदूषण उस धर्म को मानने वाले लोगों की गिनती से नहीं जुड़ा रहता, वह उस धर्म के लोगों की संपन्नता से जुड़ा रहता है। जिस धर्म के लोग जितने अधिक संपन्न हैं, उनकी तीर्थयात्राएं उतनी लंबी, उतनी महंगी, उतने बार-बार होती हैं, जितना पैसा उनके पास होता है। ऐसे लोगों के धर्मस्थान बड़े-बड़े बनते हैं, बड़े खर्चीले बनते हैं, और धरती पर उनका कार्बन फुटप्रिंट उतना ही बड़ा रहता है, यानी उनसे पर्यावरण को नुकसान उतना ही अधिक होता है। ऐसे धर्म के धार्मिक आयोजन बड़े तामझाम वाले, साधन, सुविधाओं, और सामानों का उतना ही अधिक इस्तेमाल करने वाले होते हैं, और उनमें पहुंचने वाले तमाम लोग अपने साधनों का उतना ही अधिक निजी इस्तेमाल भी करते हैं। इस तरह ऐसे धर्मों का धरती पर, पर्यावरण पर, शहरी सुविधाओं पर, और सार्वजनिक जगहों पर दबाव सबसे अधिक पड़ता है। फिर यह भी है कि संपन्न तबकों के धर्म से जुड़े उत्सव संख्या में अधिक दिन चलते हैं, साल में अधिक बार होते हैं क्योंकि संपन्न लोग रोजी-रोटी कमाने की रोजाना की फिक्र से आजाद रहते हैं, उनके रहे बिना उनके कारोबार चलते रहते हैं, और उनकी टकसाल चलती रहती है। इसलिए ऐसे धर्मों के बड़े लंबे-लंबे प्रवचन होते हैं, कीर्तन होते हैं, कहीं-कहीं तो चार महीने तक धार्मिक आयोजन चलते हैं जो कि आमतौर पर भारत में परंपरागत रूप से बारिश का वक्त होता था क्योंकि इस दौरान लोग खेती में लगे रहते थे, कारोबार मंदा रहता था, और कारोबारी तबका धार्मिक आयोजनों में पूरा वक्त दे सकता था, इसलिए ऐसे ही महीनों में लंबे-लंबे चलने वाले आयोजन भी होते थे। लेकिन बाद के बरसों में जब कारखाने और कारोबार चलाने के लिए मैनेजर, मुनीम, और परिवार के जवान लोग बढऩे लगे, तो फिर लोग बुढ़ापे से पहले ही अधेड़ होने पर भी धार्मिक आयोजनों में वक्त गुजारने लगे। इनमें एक फायदा यह भी होता है कि संपन्न लोगों का जमावड़ा चाहे धर्म के लिए, धर्म के नाम पर हो, उनके बीच कारोबार की बात तो होती ही रहती है।
दूसरी तरफ अगर कोई धर्म गरीब लोगों का धर्म है तो उनके आयोजन गिनती में बहुत कम होते हैं, उनमें तामझाम बहुत कम होता है, उनके उपासना स्थल बहुत छोटे होते हैं, उनमें निर्माण बहुत कम होता है, उनमें तीर्थयात्रा न अधिक होती हैं, न लंबी होती हैं, और न महंगी होती हैं। इस तरह धरती पर पर्यावरण पर प्रति गरीब धर्मालु कार्बन फुटप्रिंट बड़ा छोटा बनता है। जितने गरीब लोग रहेंगे, वे साधन, सुविधाओं, सामानों, और सार्वजनिक जगहों का उतना ही कम इस्तेमाल करते हैं। छत्तीसगढ़ में सतनामी समाज साल में एक बार गुरूघासीदास जयंती मना लेता है, और वह मानो सालभर का पर्याप्त धार्मिक आयोजन रहता है। बौद्ध लोग साल में एक बुद्ध जयंती मना लेते हैं, और मानो वह उनका पर्याप्त धार्मिक आयोजन रहता है। दूसरी तरफ जैन, सिक्ख, हिन्दुओं के भीतर के संपन्न मारवाड़ी तबके अपनी संपन्नता के चलते बड़े-बड़े धार्मिक आयोजन करते हैं, जो कि कई दिन चलते हैं, इनमें भीड़ निजी गाडिय़ों से पहुंचती हैं, इनके लंबे जुलूस निकलते हैं, बड़े-बड़े मैदानों पर इनके कार्यक्रम होते हैं, लंबी तीर्थ होते हैं, और सार्वजनिक जगहों का, सडक़ों और मैदानों का ये संपन्न धर्म अधिक इस्तेमाल भी करते हैं। दूसरी तरफ भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भारी उत्साह वाले कई ऐसे धार्मिक कार्यक्रम हैं जिनमें बहुत से धर्मों के लोग जुड़ जाते हैं, और जिनका चरित्र किसी एक धर्म के लोगों की संपन्नता से जुड़ा हुआ नहीं रहता। पूरे बंगाल में दुर्गा पूजा में मुस्लिम समाज बराबरी से शामिल होता है, देश भर में गणेशोत्सव में सभी धर्मों और जातियों के लोग शामिल होते हैं, और होली और दीवाली जैसे त्योहार तो सभी धर्मों के लोग मनाते हैं, लेकिन इनमें और बाकी धार्मिक आयोजनों में फर्क यही है कि इनका चरित्र सांस्कृतिक और सामाजिक अधिक है, और ये किसी धर्म के विशुद्ध धार्मिक कार्यक्रम नहीं हैं।
ये बातें किसी शोध का नतीजा नहीं है, सिर्फ साधारण समझबूझ से सोची गई बातें हैं, और लोग अपने-अपने हिसाब से इन तर्कों के ठीक खिलाफ जाकर भी विश्लेषण कर सकते हैं जिनमें यहां पर लिखे गए तमाम तर्क शायद गलत भी साबित किए जा सकें। लेकिन लोगों को यह सोचना चाहिए कि क्या गरीब का धर्म धरती और पर्यावरण पर उसी तरह कम बोझ डालता है जिस तरह गरीब की जिंदगी धरती का सीमित इस्तेमाल करती है? इसके साथ-साथ यह भी सोचना चाहिए कि तमाम धर्मों के लोग जब शांति और अहिंसा की बात करते हैं, तो उनके धार्मिक आयोजन क्या सचमुच बाकी लोगों के प्रति, सार्वजनिक जीवन के प्रति, शोरगुल और रौशनी की शिकायत न कर पाने वाले पशु-पक्षियों के प्रति अहिंसक हैं? सार्वजनिक सहूलियतों पर अंधाधुंध कब्जा किए बिना जो धार्मिक आयोजन किए न जा सकें, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि क्या इनमें किफायत बरतकर उन पैसों से, उतने वक्त से, उतनी मेहनत से कुछ ऐसा किया जा सकता है जिससे कि ईश्वर की बनाई हुई कही जाने वाली दुनिया को कुछ और बेहतर बनाया जा सके?
फिलहाल अधिक नसीहत देने के बजाय यह विश्लेषण करने की सलाह देना बेहतर है कि लोग अलग-अलग धर्मों के आयोजनों की अर्थव्यवस्था के बारे में सोचें, अपने-अपने धर्म के सार्वजनिक कब्जे के बारे में सोचें, देश-प्रदेश, और शहर के कानूनों को मानने और तोडऩे के बारे में सोचें। किसी समाजशास्त्री के लिए यह एक दिलचस्प अध्ययन का मुद्दा हो सकता है कि किसी धर्म के मानने वाले लोगों की संपन्नता दुनिया को किस तरह प्रभावित करती है। यह भी सोचने की जरूरत है कि किस धर्म के धार्मिक आयोजनों को मीडिया में कितनी जगह मिलती है, और यह जगह क्या उस धर्म के लोगों के विज्ञापनदाता होने से जुड़ी हुई है? क्या विज्ञापन देने वालों के धर्म को खबरों में मजदूरों के धर्म के मुकाबले अनुपातहीन अधिक कवरेज मिलता है? क्या खबरों में जगह किसी धर्म से जुड़े हुए लोगों की गिनती से जुड़ी हुई न होकर उस धर्म के लोगों की कारोबारी ताकत से जुड़़ी होती है? और आखिर में एक दिलचस्प बात और, नियम-कानून तोडऩे की धर्म की ताकत क्या उस धर्म से जुड़े हुए लोगों के वोटों की संख्या से बनती है, या उसके लोगों के नोटों की संख्या से?
अदालतों में चल रहे मुकदमों और उन पर आने वाले फैसलों की खबरों से देश के लोगों को कानून की एक बेहतर समझ बनाने में मदद मिलती है। कानून तो किताबों में लिखे हुए हैं, और कायदे से तो उनकी जरूरत पडऩे पर फीस देकर वकील से काम लिया जा सकता है, लेकिन ऐसी जरूरत पडऩे के पहले रोज की जिंदगी में बेहतर समझ के लिए अदालती खबरों को पढऩा फायदे का हो सकता है। हर बरस हिन्दुस्तान में हजारों ऐसी पुलिस रपट होती हैं जिनमें कोई लडक़ी या महिला किसी नौजवान या आदमी के खिलाफ रिपोर्ट लिखाती है कि उसने शादी का झांसा देकर उससे देहसंबंध बनाए, महीनों या बरसों तक देहसंबंध जारी रहे, और जब उसने किसी और लडक़ी से शादी कर ली, तो धोखा खाने वाली लडक़ी या महिला पुलिस में बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने पहुंची। अभी छत्तीसगढ़ में एक मामला ऐसा भी आया है जिसमें इसी किस्म की रिपोर्ट एक महिला ने लिखाई, और अदालत में आरोपी के वकील ने यह खुलासा किया कि वह महिला तो पहले से शादीशुदा है, उससे किसी भी तरह के संबंध रखते हुए उसका मुवक्किल उससे शादी का वायदा कैसे कर सकता था। हम अपने महिला-अधिकार समर्थक बहुत से पाठकों की नाराजगी झेलते हुए भी हर बरस एक-दो बार इस मुद्दे पर लिखते हैं कि अगर एक बालिग लडक़ी या महिला किसी के साथ प्रेमसंबंध या देहसंबंध में पड़ती है, और यह रिश्ता शादी में तब्दील नहीं होता है, तो उसे बलात्कार कहना ठीक नहीं है। हर किस्म के संबंध में संबंधों के चलते हुए भी लोगों के विचार बदलते रहते हैं, सगाई के बाद शादी के पहले सगाई टूट जाती है, शादी होने के बाद तलाक हो जाते हैं, तो ऐसे में देहसंबंध के बाद शादी न हो पाने को सीधे-सीधे धोखा देकर बलात्कार करना कह देना सही नहीं होगा। और अगर कानून का ऐसा इस्तेमाल हो सकता है, तो फिर यह भी हो सकता है कि बदला लेने के लिए कई निराश लड़कियां और महिलाएं बिना धोखा खाए भी सिर्फ शादी न हो पाने की वजह से ऐसी रिपोर्ट लिखाने पर आमादा हो जाएं।
ऐसा एक मामला अभी कलकत्ता हाईकोर्ट में आया जिसमें अदालत ने निचली अदालत से बलात्कार की सजा पाए हुए व्यक्ति को इस आधार पर बरी किया कि रिपोर्ट लिखाने वाली महिला 26 बरस की थी, पूरी तरह से परिपक्व थी, और उसने अपनी मर्जी से देहसंबंध बनाए थे, इसलिए यह कहना गलत होगा कि उसने शादी के वायदे की वजह से आरोपी के साथ सेक्स किया था। इस मामले में ऐसे देहसंबंधों के चलते यह महिला गर्भवती हो गई थी, और उसने एक बच्ची को जन्म भी दिया था, लेकिन इसके बाद यह शादी नहीं हुई, और उसने बलात्कार की रिपोर्ट लिखाई थी। हाईकोर्ट ने यह कहा कि अगर देहसंबंध की तारीख पर लडक़ी 18 बरस की हो चुकी है, और यह सेक्स उसकी सहमति से हो रहा है, तो इसके लिए उसके साथी को बलात्कार का गुनहगार नहीं ठहराया जा सकता। अदालत ने माना कि इन दोनों के बीच इन दोनों के घरों में सेक्स होते रहा, जिससे यह साफ होता है कि यह बलात्कार नहीं था। कोर्ट का कहना था कि 26 बरस की महिला ऐसे संबंधों के खतरे समझती हैं, और उसकी सहमति एक सोची-समझी सहमति रहती है।
इसके पहले भी एक-एक करके देश के कई हाईकोर्ट से ऐसे फैसले आए हैं जिनमें जजों ने यह माना है कि प्रेमसंबंधों और देहसंबंधों के बाद शादी न हो पाना बलात्कार मान लेना ठीक नहीं है। हम लगातार इस बात की वकालत करते आ रहे हैं कि शादी के वायदे और शादी के बीच एक बहुत ही जायज वजह भी हो सकती है जिससे कि कोई शादी न करे। और प्रेम या देहसंबंधों में पडऩे वाली लड़कियों या महिलाओं को यह मानकर चलना चाहिए कि ऐसे हर संबंध शादी में तब्दील नहीं होते। एक बालिग की सहमति के साथ यह बात भी मानी जाती है कि वह सोची-विचारी सहमति है, और शादी का वायदा पूरा न होने पर ऐसी सहमति से मुकर जाना ठीक नहीं है। फिर अगर ऐसे देहसंबंध एक बार के हों, तो उन्हें बलात्कार भी कहा जा सकता है, लेकिन जब ऐसे संबंध महीनों और बरसों तक चलते हैं, दर्जनों बार होते हैं, तो उन्हें शादी के वायदे से जोडक़र देखना समाज में एक खतरनाक नौबत खड़ी करना होगा। कानून अगर ऐसी हिफाजत देने लगे तो उससे लड़कियों और महिलाओं में जिम्मेदारी की कमी आने लगेगी, और जो फैसले उन्हें देहसंबंध बनाने के पहले लेने चाहिए, वे अब अदालत जाने की शक्ल में लेने लगेंगीं। एक मोटा अंदाज लगाया जाए तो शायद दस-बीस प्रेमसंबंधों में दो-चार ही शादी में तब्दील होते होंगे, जबकि इससे कई गुना अधिक के बीच देहसंबंध होते होंगे। बालिग लोगों के बीच देहसंबंध इस जिम्मेदार रूख के साथ ही होने चाहिए कि इसके बाद शादी हो भी सकती है, और नहीं भी हो सकती है। कानून के बेजा इस्तेमाल से निचली अदालत में किसी को बलात्कार की सजा दिला भी दी जाए, तो उससे लड़कियों और महिलाओं का कोई भला नहीं होना है। ऐसी सजा की धमकी देकर अगर कोई शादी हो पाती है, तो वह शादी कोई अच्छी जिंदगी नहीं रहेगी। लोगों को जिम्मेदारियां तय करते हुए कानून की मदद से किसी लडक़े या आदमी पर अनुपातहीन जिम्मेदारी डाल देने से बचना चाहिए। ऐसा होने पर लड़कियों और महिलाओं में देहसंबंधों के बाद के खतरे का चौकन्नापन घटते चले जाएगा। ऐसा लगता है कि निचली अदालतों से ऐसे मामलों में सजा देना जिस तरह से चल रहा है, उस हिसाब से सुप्रीम कोर्ट का साफ-साफ ऐसा फैसला आना चाहिए जो पूरे देश पर लागू हो, और अपना वायदा पूरा न कर पाने वाले व्यक्ति को इस तरह सजा मिलना बंद हो सके। जिंदगी में किसी भी तरह के संबंध में वायदे हर बार पूरे नहीं होते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में एक के बाद एक धार्मिक और साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर याचिका लगाने वाले वहां के एक वकील और भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की एक ताजा याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया, और उन्हें बड़ा सा एक आईना दिखाया। अश्विनी उपाध्याय पहले भी इस किस्म की बहुत सी याचिकाएं लगा चुके हैं जिनसे देश का साम्प्रदायिक सद्भाव प्रभावित हो सकता है। लेकिन यह पहला मौका था जब दो जजों ने उन्हें सैद्धांतिक आधार पर जमकर फटकार लगाई। अश्विनी उपाध्याय ने अदालत में याचिका लगाई थी कि देश में मुस्लिम आक्रमणकारियों के नाम वाली जितनी जगहें हैं उनके नाम बदलने के लिए एक आयोग गठित किया जाए। उन्होंने राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन का नाम बदलकर अमृत उद्यान करने की मिसाल दी, और कहा कि आक्रमणकारियों के नामों को बनाए रखना संविधान के तहत नागरिक अधिकारों के खिलाफ है।
यह याचिका खारिज करते हुए दो जज, जस्टिस के.एम. जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा-भारत धर्मनिरपेक्ष है, और संविधान की रक्षा करने वाला है, आप अतीत के बारे में चिंतित हैं, और वर्तमान पीढ़ी पर इसका बोझ डालने के लिए इसे खोदते हैं। आप अतीत को चुनिंदा रूप से देख रहे हैं, और आपकी उंगलियां एक विशेष समुदाय पर उठ रही हैं जिसे आप बर्बर कह रहे हैं, क्या आप देश को उबालते रखना चाहते हैं? आप इस याचिका से क्या हासिल करना चाहते हैं, क्या देश में और कोई मुद्दे नहीं हैं? जजों ने कहा- देश अतीत का कैदी नहीं रह सकता, देश को आगे बढऩा चाहिए, और यह अपरिहार्य है, अतीत की घटनाएं वर्तमान और भविष्य को परेशान नहीं कर सकतीं। जजों ने कहा- हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है जिसके कारण भारत ने सभी को आत्मसात कर लिया है, उसी के कारण हम साथ रह पाते हैं, अंग्रेजों की बांटो, और राज करो की नीति ने हमारे समाज में फूट डाल दी है।
इस याचिका में अश्विनी उपाध्याय ने दर्जनों शहरों के नाम, दर्जनों जगहों के नाम गिनाते हुए एक नामकरण आयोग बनाने की मांग की थी ताकि मुस्लिम आक्रमणकारियों से जुड़े नामों को हटाया जाए। इस पर जस्टिस के.एम.जोसेफ ने कहा कि हिन्दुत्व जीने की एक महान शैली है, इसके महत्व को मत घटाइये। उन्होंने कहा कि वे ईसाई हैं, लेकिन वे हिन्दुत्व के प्रशंसक हैं, और इसे पढऩे की कोशिश भी की है, इसकी महानता को समझने की कोशिश की है, इसे किसी और मकसद के लिए इस्तेमाल मत कीजिए। उन्होंने मिसाल दी कि वे जिस केरल से आए हैं वहां हिन्दुओं ने चर्च बनाने के लिए जमीनें दान दी हैं। दोनों जजों ने यह कहा कि हिन्दुस्तान को अतीत का कैदी बनाकर नहीं चला जा सकता। जजों के रूख को देखते हुए याचिकाकर्ता वकील अश्विनी उपाध्याय ने याचिका वापिस लेने की कोशिश की लेकिन जजों ने उसकी इजाजत नहीं दी और वे उसे खारिज करके ही माने। जजों ने कहा कि इस तरह की याचिकाओं से समाज को नहीं तोडऩा चाहिए, कृपया देश को ध्यान में रखें, किसी धर्म को नहीं।
कुछ ही ऐसे मौके रहते हैं जब संसद या बाहर दिए गए किसी भाषण या अदालत के किसी फैसले के शब्दों को ज्यों का त्यों लिख देने की इच्छा होती है कि इस अखबार की अपनी विचारधारा और सोच यही है। यह फैसला ऐसा ही एक फैसला है। अश्विनी उपाध्याय लगातार किसी न किसी मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में लगे रहते हैं जिनसे कि धर्म, सम्प्रदाय, या साम्प्रदायिकता जुड़ी रहती है। हमारा ख्याल है कि उनकी इस याचिका में जिस तरह पूरे मुस्लिम समाज को बर्बर लिखा गया है, उससे भी जज विचलित हुए, और उपाध्याय की पुरानी साख भी जजों को याद रही होगी कि वे ऐसे ही मुद्दों को लेकर बार-बार अदालत पहुंचते रहते हैं। जजों का यह रूख तारीफ के काबिल है कि उन्होंने याचिका वापिस लेने की इजाजत नहीं दी, और उसे खारिज ही किया। जजों ने संविधान के बुनियादी मूल्यों को भी गिनाया कि किस तरह भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, और तमाम तबके यहां बराबरी से जीने का हक रखते हैं। ऐसा भी नहीं है कि संविधान के ये मूल तत्व सुप्रीम कोर्ट के इस चर्चित वकील को मालूम नहीं रहे होंगे, लेकिन मुस्लिमों का नामोनिशान मिटा देने की यह याचिका कुछ भारी पड़ी, और इस तरह के नामकरण का मामला अब जब तक किसी बड़ी बेंच के लिए मंजूर न हो, तब तक के लिए तो यह खारिज हो ही चुका है।
इन जजों ने न तो कोई नई बात कही है, और न ही कोई अनोखी बात। उन्होंने संविधान की बुनियादी बातें, और लोकतंत्र की बुनियादी समझ को ही गिनाया है। होना तो यह चाहिए था कि इस देश को हांकने वाले प्रधानमंत्री, और उनकी पसंद से बनाई गईं राष्ट्रपति को ही यह सोचना था कि राष्ट्रपति भवन की मुगल गार्डन का नाम बदलकर अमृत उद्यान रखने से यह खौलता हुआ लाल लावा दूर तक बहते जाएगा। यह मुगल गार्डन मुगलों का बनाया हुआ नहीं था, इसे अंग्रेजों ने बनाया था, लेकिन उद्यान की शैली मुगल उद्यान शैली रहने की वजह से उसका नाम मुगल गार्डन रखा गया था। उस नाम को बदलकर प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली सरकार, और उनकी मनोनीत राष्ट्रपति ने मानो कोई बड़ी कामयाबी हासिल कर ली थी। उसी से उत्साह और हौसला पाकर ऐसी पिटीशन लगी थी, और जजों की की हुई समझदारी की बातों पर सरकार और राष्ट्रपति को भी गौर करना चाहिए। भाजपा के राज वाले उत्तरप्रदेश में यह सिलसिला बेकाबू चल रहा है कि हर उस शहर का नाम बदल दिया जाए जिसमें कुछ भी मुस्लिम, कुछ भी ऊर्दू दिखाई देता है। यह सोच हिन्दुस्तान के भीतर मुस्लिम तबके में एक असुरक्षा पैदा कर रही है, और वे अपने आपको दूसरे दर्जे का नागरिक महसूस कर रहे हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। जो लोग हिन्दुस्तान को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने पर आमादा हैं, उन्हें धर्म के आधार पर चलने वाले अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल जैसे बहुत से देशों की हालत देखनी चाहिए। हिन्दुस्तान अगर पिछली पौन सदी में इतना आगे बढ़ पाया है, तो वह सभी समुदायों के योगदान से आगे बढ़ा है, सिर्फ किसी एक धर्म के लोगों के बढ़ाए नहीं बढ़ा है। अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट में ऐसी बदनीयत उजागर हुई, जजों ने भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी मजबूती याद दिलाई, और लोगों को देश की संवैधानिक व्यवस्था एक बार फिर सुनाई पड़ी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में कितनी चीजें अटल हो सकती हैं? जितने तलाक हो रहे हैं उन्हें देखते हुए शादियां भी सात जन्म तो दूर, एक जन्म भी अटल रह जाए तो बहुत है, राजनीति में जो लोग हैं वे जिस रफ्तार से पार्टियां बदलते हैं, उनकी प्रतिबद्धता उतनी ही अटल है जितनी कि पारे की बूंद की स्थिरता रहती है। लोगों में ईमानदारी अगर कूट-कूटकर भरी है, तो भी कोई वक्त ऐसा आ सकता है जब उनकी जरूरत बहुत बड़ी हो, और दाम ईमानदारी के मुकाबले बहुत अधिक बड़ा हो, तो फिर वह ईमानदारी भी अटल नहीं रह जाती। प्रेमसंबंधों में कब देहसंबंध शुरू हो जाते हैं, और कब दोनों ही टूट जाते हैं, इसका भी कोई ठिकाना नहीं रहता, और बहुत से मामलों में इसके बाद महिला अदालत भी चली जाती है कि उसके साथ शादी का वायदा करके बलात्कार किया गया था, इसलिए प्रेम और देहसंबंध भी अटल नहीं हैं। लेकिन आज दुनिया में बहुत बड़ी फिक्र बने हुए कई किस्म के जहरीले पदार्थ जरूर अटल हैं जो कि कभी खत्म नहीं होने वाले हैं, जिन्हें फॉरएवर केमिकल्स कहा जाता है, यानी चिरकालिक रसायन। चिर काल का मतलब ही है हमेशा के लिए, और दुनिया में आज हजारों किस्म के ऐसे जहर हैं जो कि कुदरत से लेकर सार्वजनिक जगहों तक, और इंसानों के बदन में इक_ा हो गए हैं, और जो कभी कहीं नहीं जाने वाले हैं, और ये एक बड़ी फिक्र का सामान हैं।
फॉरएवर केमिकल्स यानी पीएफएएस अकेले योरप में ही 17 हजार से ज्यादा जगहों पर पाए गए हैं, और इनमें से दो हजार जगहों को तो हॉटस्पॉट कहा जाता है यानी वहां लोगों के ऐसे जहर को पाने का खतरा बहुत अधिक है। एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि इंसानों के बनाए हुए करीब 45 सौ ऐसे पदार्थ हैं जो फॉरएवर केमिकल्स के दायरे में आते हैं, और ये जानवरों, मछलियों, डेयरी के दूध से लेकर इंसान के बदन और मां के दूध तक फैले हुए हैं। योरप के अलावा अमरीका जैसे कड़े पैमानों वाले देश में 98 फीसदी आबादी के बदन में चिरकालिक रसायन मिले हैं। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि भारत जैसे लापरवाह और भ्रष्ट देश में प्रदूषण के पैमानों पर कोई भी अमल न होने से यहां के उद्योग और कारोबार किस बड़े पैमाने पर ये रसायन फैला रहे होंगे। भारत जैसे देश में तो जानवरों से अधिक दूध पाने के लिए उन्हें तरह-तरह के इंजेक्शन लगाए जाते हैं, पोल्ट्री उद्योग जरूरत से अधिक एंटीबायोटिक का इस्तेमाल करता है, जानवर घूरों पर खाते हैं, और वहां से कई किस्म का जहर पाते हैं। हिन्दुस्तान जैसे देश में जहरीले सामानों की पैकिंग को नष्ट करने के कोई वैज्ञानिक तरीके नहीं हैं, खेतों में ऐसा अंधाधुंध कीटनाशक इस्तेमाल होता है कि पंजाब के कई इलाकों से कैंसर मरीजों की पूरी रेलगाडिय़ां ही राजस्थान के कैंसर अस्पताल जाती हैं। हिन्दुस्तान के खनिज इलाकों में तरह-तरह का प्रदूषण फैला हुआ है, और सारे खनिज इलाके तरह-तरह के खनिज-आधारित कारखाने भी चलाते हैं, और इन कारखानों में कई तरह के फॉरएवर केमिकल्स का इस्तेमाल होता है। दुनिया में कपड़ा उद्योग में धुलाई या चमड़े को पकाने जैसे काम में जिन रसायनों का इस्तेमाल होता है, उनसे निकले हुए फॉरएवर केमिकल्स नालों से होते हुए सीधे नदी पहुंच जाते हैं, और सरकार का, समाज का उस पर कोई बस नहीं रहता।
अब जो लोग अपने शरीर में पीएफएएस दर्जे के ऐसे जहर लेकर चल रहे हैं, उनमें से बहुत से हो सकता है कि आज खतरनाक स्तर के नीचे हों, लेकिन कब बदन में यह जहर बढक़र खतरनाक स्तर के ऊपर चले जाएगा, इसकी कोई जांच भी हिन्दुस्तान जैसे देश में सुनी भी नहीं जाती हैं। यह जरूर पता लगते रहता है कि खेतों में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशक मां के दूध में भी पाए जाते हैं, और उससे होते हुए वे दुधमुंहे बच्चों में भी पहुंच जाते हैं। इसमें कई किस्म के फॉरएवर केमिकल्स भी हैं। लेकिन हम खास हिन्दुस्तान जैसे देश को लेकर जब सोचते हैं तो यह लगता है कि तकरीबन तमाम आबादी किसी भी किस्म के प्रदूषण को लेकर बेफिक्र है क्योंकि उसने दिल्ली जैसी जहरीली हवा में भी जीना सीख लिया है। नतीजा यह है कि बदन में धीरे-धीरे इकट्ठे होने वाले ऐसे खतरे की तरफ से हम सब बेफिक्र रहते हैं क्योंकि इससे लीवर और किडनी को नुकसान हो सकता है, लेकिन वह धीमी रफ्तार से होता है, इनसे कैंसर हो सकता है, लेकिन उसकी शिनाख्त देर से होती है, और यह भी पता नहीं लगता है कि कैंसर किस वजह से हुआ है, इनसे यौन शक्ति कम हो सकती है, लेकिन यौन शक्ति कम होने की और भी कई वजहें हो सकती हैं, और लोग ऐसे जहर से उसे जोडक़र देखना इसलिए नहीं सीख सकते क्योंकि ऐसे जहर की जानकारी भी बहुत कम है। दिक्कत यह है कि शरीर में एक बार पहुंचा हुआ ऐसा जहर शरीर से बहुत धीरे-धीरे बाहर निकलता है, और बहुत से लोगों में यह भी हो सकता है कि जिस रफ्तार से यह बाहर निकलता हो, उससे अधिक रफ्तार से यह भीतर पहुंचता हो, और भीतर इसका स्तर बढ़ते चलता हो। रोज खाने के सामानों, मछली, मांस, दूध, अंडे, और सब्जियों में ये जहर या इस दर्जे के रसायन खतरनाक स्तर पर हो सकते हैं, और हो सकता है कि इससे आने वाली तमाम पीढिय़ों तक पहुंचने वाले डीएनए भी प्रभावित होते हों।
आज दुनिया भर में कारोबारियों के आपराधिक स्तर के गैरजिम्मेदार होने के सुबूत आते ही रहते हैं। बहुत से बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय ब्रांड जहरीले सामान बनाकर उन्हें ग्राहकों के बीच खपाते रहते हैं, और बच्चों पर इस्तेमाल होने वाले पाउडर जैसे आम इस्तेमाल के सामान बनाने वाली एक सबसे बड़ी कंपनी जॉन्सन एंड जॉन्सन अंतरराष्ट्रीय मुकदमे झेल रही है क्योंकि उसके इस सामान से बच्चों को कैंसर होने का खतरा पाया गया है। आज जब योरप और अमरीका जैसे कड़े सुरक्षा पैमानों वाले देश भी हजारों किस्म के चिरकालिक जहर झेल रहे हैं, तो हिन्दुस्तान में तो यह खतरा दर्जनों या सैकड़ों गुना अधिक होगा। आज विज्ञान की समझ रखने वाले लोगों को इसकी और जानकारी तलाश कर उसे हिन्दुस्तानी संदर्भ में सरल भाषा में तैयार करके लोगों के बीच बांटना चाहिए ताकि ऐसे फॉरएवर केमिकल्स को बढ़ाना रोका जा सके। जो लोग विज्ञान पढ़े हुए हैं, उनकी पढ़ाई से समाज को कोई फायदा तब तक नहीं है जब तक वे खतरे के ऐसे संकेतों को आम लोगों की भाषा में लिखकर, कहकर उसे अधिक से अधिक लोगों तक न पहुंचाएं। जो लोग इंटरनेट का मामूली इस्तेमाल भी करना जानते हैं वे फॉरएवर केमिकल्स पर और जानकारी निकाल सकते हैं, और अपनी समझ बढ़ा सकते हैं, आसपास के और लोगों को भी चौकन्ना कर सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस का रायपुर का यह महाधिवेशन कई मायनों में ऐतिहासिक है। यह गांधी परिवार की सोनिया गांधी का लीडरशिप से संन्यास का मौका भी है, और यह मोटेतौर पर राजनीति से उनकी बाहर रवानगी की शुरुआत भी है। फिर यह इसी परिवार के राहुल गांधी के एक नए व्यक्तित्व के उभरने का मौका भी है। उन्होंने राजनीति में पिछले करीब दो दशक में जो कुछ हासिल किया था, उससे कहीं अधिक उन्होंने डेढ़ सौ दिनों की एक पदयात्रा में हासिल कर लिया है, और अब उन्हें लेकर वंशवाद या नासमझी की कोई बातें प्रासंगिक नहीं रह गई हैं। एक पदयात्रा किस तरह किसी को परिवार के वंशज से उठाकर एक बड़ा नेता, और एक शानदार इंसान बना सकती है, इसकी मिसाल भारत जोड़ो यात्रा से सामने आई है। इसलिए कांग्रेस का यह महाधिवेशन राहुल गांधी के इस नए अवतार के साथ भी हो रहा है। फिर यह इस रौशनी में भी हो रहा है कि एक खुले चुनाव से कांग्रेस अध्यक्ष बनकर आए मल्लिकार्जुन खडग़े आज एक अभूतपूर्व स्वायत्तता से पार्टी चलाते दिख रहे हैं, और पार्टी की सबसे बड़ी कमेटी के चुनाव से गांधी परिवार ने अपने को अलग रखा है। सोनिया गांधी की रवानगी, एक नए अवतार में राहुल गांधी का आगमन, और परिवार के बाहर के एक अध्यक्ष के बीच कांग्रेस पार्टी तीन दिनों तक अपने वर्तमान और भविष्य पर चर्चा कर रही है। तीन राज्यों में ही सत्ता में सिमट गई कांग्रेस के लिए आज का यह इतना बड़ा आयोजन छोटा नहीं है, लेकिन इसमें जिन मुद्दों पर चर्चा हो रही है, क्या सचमुच वही कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती रहेगी?
एक वक्त था जब दस बरस से अधिक वक्त था सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए यूपीए की मुखिया भी थीं, और यूपीए की तमाम पार्टियां उनके साथ आराम से चलती थीं। लेकिन पिछले आठ बरस के मोदी राज ने यूपीए को खत्म कर दिया है, और अब 2024 के लोकसभा चुनाव तक कौन सा गठबंधन मोदी का मुकाबला करने के लिए खड़ा किया जा सकता है, यह सवाल देश के तमाम गैर-एनडीए दलों के सामने खड़ा हुआ है, और खासकर कांग्रेस के सामने, जिसका यह मानना है कि उसके बिना देश में कोई कामयाब विकल्प नहीं बन सकता, और ऐसे विकल्प का मुखिया कांग्रेस से परे किसी और पार्टी का नहीं हो सकता। आज कांग्रेस के सामने अपना घर सम्हालने की चुनौती बहुत बड़ी नहीं है, क्योंकि पार्टी छोडक़र कौन लोग भाजपा में जाएंगे, इसे कांग्रेस तय नहीं कर रही, भाजपा तय कर रही है। लेकिन एक बात जो कांग्रेस के तय करने की है, वह बाकी पार्टियों के साथ तालमेल करने, और अगले प्रधानमंत्री के लिए चेहरा तय करने की है। यह एक ऐसा जटिल मुद्दा है जिस पर आज कांग्रेस पर देश की ऐतिहासिक जिम्मेदारी एक अलग मांग करती है, और कांग्रेस का अपना स्वार्थ, या उसका अपना भविष्य एक अलग रास्ता सुझाता है।
सोनिया गांधी और राहुल गांधी में यह एक बड़ा फर्क है कि सोनिया के मातहत चले यूपीए में तमाम गठबंधन और समर्थक दलों को सहूलियत लगती थी, लेकिन आज राहुल गांधी के साथ कई वजहों से वैसी बात नहीं दिखती है। यह कल्पना करें कि भारत जोड़ो यात्रा अगर सोनिया गांधी ने की होती, तो क्या उन्हें राहुल की भारत जोड़ो यात्रा से बाकी पार्टियों का बहुत अधिक समर्थन नहीं मिला होता? गैरभाजपाई पार्टियों के बीच एक अधिक मान्यता पाना आज कांग्रेस और राहुल गांधी, दोनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। आज सैद्धांतिक रूप से मोदी सरकार से लडऩे की बात कांग्रेस सरीखी किसी भी पार्टी का एक बड़ा मुद्दा होना स्वाभाविक है, लेकिन इस लड़ाई के लिए एक गठबंधन तैयार करना, कांग्रेस के लिए आज आसान नहीं दिख रहा है। इस एक मुद्दे पर हो सकता है कि कांग्रेस अधिवेशन जैसे मंच से कुछ अधिक तय न कर पाए, लेकिन आज इस अधिवेशन के मौके पर कांग्रेस के बारे में लिखते हुए हमें यही बात सबसे अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण लग रही है कि बाकी पार्टियों के साथ कांग्रेस का एक चुनावी तालमेल, गठबंधन, सहमति किस तरह हासिल किए जा सकते हैं। यह चुनौती बड़ी इसलिए भी है कि केन्द्र और राज्यों में, संसद और विधानसभाओं में कांग्रेस की ताकत के मुकाबले क्षेत्रीय पार्टियां इस तरह जगह बना चुकी हैं, कि उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को नाजायज कहना ठीक नहीं है। आज केन्द्र पर सत्तारूढ़ एनडीए के घटक दलों को छोड़ दें, तो बाकी पार्टियों में एनडीए का मुकाबला करने के लिए लीडरशिप का मुद्दा सबसे बड़ा दिख रहा है, राहुल गांधी, नीतीश कुमार, केसीआर, इनमें से कौन ऐसे गठबंधन के मुखिया हो सकते हैं, इस पर तमाम विपक्षी एकता टिकी रहेगी। आज देश में मोदी का मुकाबला करने के लिए महज अपनी पार्टी के लोगों को एक रखना जरूरी नहीं है, बल्कि मोदीविरोधी तमाम पार्टियों के लोगों को एक रखना जरूरी है, और रखने के पहले भी उन्हें एक करना जरूरी है। अब यही देखना होगा कि बाकी पार्टियों में राहुल के प्रति सहमति की जो कमी है, उसे दूर कैसे किया जा सकता है? क्या इसमें कांग्रेसाध्यक्ष खड़ग़े, और सोनिया गांधी भी सहयोग कर सकते हैं? क्या राहुल गांधी बहुत से मुद्दों पर एक कड़ा रूख लेने के बजाय विपक्ष के अधिक मान्यता प्राप्त नेता की तरह एक न्यूनतम आम सहमति वाला रूख भी रख सकते हैं, ऐसे बहुत से सवाल आज देश की राजनीति में खड़े हुए हैं। कांग्रेस अपना यह अधिवेशन को कई तरह की सैद्धांतिक बातों पर, और संगठन के कुछ मुद्दों पर निपटा ही लेगी, लेकिन इसके बाद एक असली संघर्ष सामने खड़े रहेगा कि 2024 के लिए बाकी पार्टियों के साथ एक बेहतर सहमति कैसे तैयार की जाए? और इस बात की कामयाबी से कांग्रेस और राहुल दोनों का भविष्य तय होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले विधानसभा चुनाव के पहले पंजाब में यह मुद्दा उठा था कि क्या आम आदमी पार्टी खालिस्तान समर्थकों के समर्थन से चुनाव जीतने की कोशिश कर रही है? और वहां आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद से लगातार न सिर्फ पंजाब में, बल्कि हिन्दुस्तान के बाहर भी ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में वहां बसे हुए सिखों के बीच के कुछ तबके खालिस्तान को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। अभी पंजाब के एक पुलिस थाने में ऐसे ही खालिस्तान समर्थकों के हुए एक हथियारबंद आक्रामक हमले, और उसके साथ में पुलिस के आत्मसमर्पण से एक बार फिर पंजाब में खालिस्तान समर्थक हिंसा पनपने का खतरा दिख रहा है। इस ताजा घटना में पुलिस ने खालिस्तान का मुद्दा उठाने वाले अमृतपाल सिंह नाम के एक चर्चित व्यक्ति के करीबी समर्थक को अपहरण और हिंसा के आरोप में गिरफ्तार किया था। और अपने समर्थक को छुड़वाने के लिए ‘वारिस पंजाब दे’ (पंजाब के वारिस) नाम के संगठन के मुखिया अमृतपाल सिंह ने सैकड़ों हथियारबंद समर्थकों के साथ थाने पर हमला किया, और इसके सामने बेबस पुलिस ने यह वायदा किया कि अगले अदालती कामकाज के दिन इस समर्थक को अदालत से छुड़वा दिया जाएगा, तब यह हिंसक भीड़ वहां से टली। और पुलिस ने अपने ही गिरफ्तार किए इस आदमी को अदालत से छुड़वा भी दिया। खबरों में यह भी है कि अमृतपाल सिंह नाम के इस आदमी ने हाल ही में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह को धमकी दी थी कि उनका हाल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जैसा होगा। पंजाब के सभी राजनीतिक दलों ने पुलिस थाने पर हुए इस हमले पर फिक्र जाहिर की है, और इसे एक खतरनाक नौबत करार दिया है। आम आदमी पार्टी की राज्य सरकार अभी भीड़ की ताकत के सामने दंडवत बिछी दिख रही है, और आने वाला वक्त पंजाब को राजनीतिक और अलगाववादी हिंसा के दौर में एक बार फिर धकेल सकता है।
पंजाब की मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी के साथ एक दिक्कत यह भी है कि इसके पहले सिर्फ दिल्ली में उसकी सरकार थी, और दिल्ली की सरकार पर पुलिस और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी नहीं रहती है। इसलिए इस पार्टी को अब तक किन्हीं राजनीतिक मुद्दों से नहीं जूझना पड़ा था, और यह मोटेतौर पर म्युनिसिपल जैसा काम करने के तजुर्बे वाली पार्टी थी। पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी, और उसके पहले लंबे समय तक सत्ता में रहे अकाली-भाजपा गठबंधन की बुरी सरकारों के जवाब की शक्ल में आम आदमी पार्टी वोटरों द्वारा चुनी गई थी। लेकिन इस पार्टी और इसके नेताओं को पंजाब के पिछले अलगाववादी और आतंकी इतिहास का कोई तजुर्बा नहीं है। नतीजा यह है कि एक नई क्षेत्रीय पार्टी की तरह वह राज्य को सिर्फ प्रशासन चलाने जैसा मानकर चल रही है, और इससे प्रदेश में अलगाववाद का खतरा बढ़ते चल रहा है। आज ऐसा लग रहा है कि दुनिया के कुछ दूसरे देशों में बसे हुए सिखों में से भी कुछ लोग इस खुशफहमी में हैं कि भारत के एक हिस्से को काटकर खालिस्तान बनाया जा सकता है, और वह सिखों का एक धर्मराज्य होगा। इनकी कल्पना में भारत के नक्शे का जो हिस्सा खालिस्तान दिखता है, वह भारत और पाकिस्तान के बीच की जगह है। हिन्दुस्तान एक तो बहुत बड़ा और बहुत ताकतवर देश है, और इससे यह उम्मीद करना एक नासमझी है कि वह किसी दबाव के तहत अपने देश को काटकर एक नया देश बनाने के लिए झुक जाएगा। लेकिन जिन लोगों का अस्तित्व खालिस्तान के मुद्दे को जिंदा रखकर ही चलता है, वे लोग तो कमसमझ लोगों को ऐसे काल्पनिक धर्मराज का सपना दिखाते हुए उन्हें डॉलर और पौंड में दुहते ही रहेंगे। फिर लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि पिछली बार जब खालिस्तान बनाने की खुशफहमी के साथ पंजाब में आतंक फैला था, तो उसके पीछे सरहद पार पाकिस्तान की तरफ से आने वाला बहुत बड़ा समर्थन भी था। आज पाकिस्तान खुद ही दाने-दाने को मोहताज है, हिन्दुस्तानी सरहदें उस दौर के मुकाबले आज अधिक मजबूत हैं, और ऐसे में खालिस्तान का सपना कुछ अलगाववादियों की हसरतों से अधिक कुछ नहीं है। लेकिन पंजाब के घरेलू हालात हिंसक होने में कभी भी देर नहीं लगती है। देश का यह प्रदेश धर्म के नाम पर सबसे पहले उबलने वाला प्रदेश है, और धर्म के अपमान होने की भावना यहां तेजी से फैलाई जा सकती है, तेजी से फैल जाती है। इसलिए पकिस्तान की सरहद से लगा हुआ यह प्रदेश एक लापरवाह सरकार का खतरा नहीं उठा सकता जो कि थाने पर पहुंची भीड़ के सामने अभी बिछ गई थीं। आज पंजाब से परे अगर दिल्ली में भी यह जनभावना और जनधारणा फैली कि आम आदमी पार्टी की सरकार खालिस्तान समर्थकों के सामने समर्पण कर चुकी है, तो शायद दिल्ली में भी केजरीवाल अगला चुनाव नहीं जीत पाएंगे। आज सारे देश में अपनी मौजूदगी बढ़ाने का सपना लिए चलने वाले केजरीवाल और दूसरे आप नेताओं को यह समझना चाहिए कि उनकी असली परख दिल्ली में नहीं हुई थी, वह परख अभी पंजाब में होने जा रही है।
पंजाब में एक तरफ तो खालिस्तान समर्थकों को खुलकर सामने आते हुए देखा जा सकता है, दूसरी तरफ इसी पंजाब में बड़े-बड़े संगठित जुर्म जेलों में बैठे हुए माफिया-सरगना करवा रहे हैं। ऐसे संगठित अपराधों के तमाम सुबूत सामने आ चुके हैं, और पंजाब सरकार इस पर भी काबू नहीं पा सक रही है। यह मौका इस राज्य में अलग-अलग चुनावी हसरत और निशाना रखने वाली पार्टियों की राजनीति का भी है। यह मौका केन्द्र सरकार और पंजाब की राज्य सरकार के बीच तनातनी के खतरे का भी है। ऐसे में पंजाब को धर्मराज बनने से बचाना, उसे अलगाववादियों के शिकंजे से दूर रखना, और सरहद पार से होने वाली तस्करी से आए नशे में डूबी पूरी नौजवान पीढ़ी को बचाने का भी है। इनमें से हर चीज बड़ी चुनौती है, और देखना होगा कि टीवी के इश्तहारों से परे पंजाब की आप सरकार कैसे कामयाब होती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में बीती आधी रात एक सडक़ हादसे में एक परिवार के 11 लोगों की मौत हो गई, और 10 लोग खासे जख्मी होकर अस्पताल में हैं। ये तमाम लोग एक मालवाहक गाड़ी में एक पारिवारिक कार्यक्रम में गए थे, और वापिसी में एक ट्रक ने इन्हें जोरों से टक्कर मारीं, और मौके पर ही 11 लोग मारे गए। सडक़ हादसों में कुछ गिनी-चुनी वजहों से रोजाना अलग-अलग जगहों पर बहुत सी मौतें होती हैं, लेकिन उन पर लिखने की जरूरत तब सूझती है जब मौतें थोक में आती हैं, और खबरें बड़ी बनती हैं। ऐसे हादसे कम मौतों वाले हों, या अधिक वाले, इनमें से अधिकतर के पीछे सरकारी विभागों और गाड़ी चलाने वाले लोगों की बराबरी की जिम्मेदारी रहती है।
ऐसे मौकों पर सरकार को यह सोचना चाहिए कि क्या इन हादसों को किसी तरह कम किया जा सकता है? छत्तीसगढ़ एक खनिज प्रदेश होने के नाते यहां पर कोयला, लोहा, सीमेंट-पत्थर की आवाजाही खासी रहती है, और इसके अलावा धान का बहुत बड़ा कारोबार रहने से भी सडक़ों पर ट्रकें अधिक रहती हैं। इन दोनों बातों के अलावा यह राज्य आधा दर्जन दूसरे राज्यों से घिरा हुआ है, इसलिए भी दूसरे प्रदेशों की गाडिय़ां यहां से होकर गुजरती हैं। लेकिन यह बात तो कोई नई नहीं है, और सडक़ों से लेकर ट्रैफिक और आरटीओ के इंतजाम तक हर विभाग को इसकी जानकारी है। फिर यह जानकारी भी सबको है कि कारोबारी गाडिय़ां बहुत खराब हालत में चलती हैं, उनकी फिटनेस जांचने की दिलचस्पी किसी विभाग को नहीं होती, वे ओवरलोड भी चलती हैं, ड्राइवर बिना नींद पूरी किए या नशे में अंधाधुंध रफ्तार से चलाते रहते हैं, और ट्रैफिक नियमों के लिए लोगों के मन में परले दर्जे की हिकारत है। ये तमाम बातें मिलकर खराब सडक़ों के साथ जुडक़र बहुत बड़ा खतरा बन जाती हैं। इनमें से हर खतरे को एक जिम्मेदार सरकार कम कर सकती है, लेकिन वैध और अवैध कमाई से परे सरकार की दिलचस्पी सुरक्षा और सावधानी में बहुत ही कम दिखती है।
दूसरी तरफ लोग लापरवाह हैं, और पूरे कुनबे को लेकर किसी भी मालवाहक गाड़ी पर सवार होकर रात-बिरात शादी-ब्याह या पूजा-तीर्थ से आते-जाते हैं, कई जगहों पर तो ड्राइवर भी शराब पिए हुए रहते हैं। इस तरह दो अलग-अलग गाडिय़ां दो अलग-अलग नशे में डूबे ड्राइवरों के हाथों आमने-सामने जब आती हैं, तो ऐसा हादसा न होना हैरानी की बात रहती है। अगर पुलिस की जांच और कार्रवाई कड़ी हो, तो भी नशे में गाड़ी चलाना रूक सकता है। ऐसे ड्राइवरों के लाइसेंस अगर निलंबित और रद्द होना शुरू हो जाए, गाडिय़ां जब्त होने लगें, तो फिर ऐसे हादसे भी कम होने लगेंगे। लेकिन कारोबारी मालवाहक गाडिय़ां या मुसाफिर बसें अधिक से अधिक कारोबार करने के चक्कर में अंधाधुंध रफ्तार से सडक़ों को रौंदती हैं, और आए दिन ऐसे हादसे होते हैं, लेकिन किसी ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस रद्द होने की बात नहीं आती है।
छत्तीसगढ़ अतिसंपन्नता का शिकार प्रदेश है, और यहां पर बड़ी-बड़ी तेज रफ्तार गाडिय़ां सडक़ों पर अराजकता के साथ दौड़ती हैं। बहुत अधिक पैसा जिनके पास है वे लाखों रूपये की मोटरसाइकिलों के साइलेंसर फाडक़र चलते हैं, बड़ी गाडिय़ों पर अंधाधुंध लाईट और सायरन लगाकर चलते हैं, और ऐसी बातें उनके मिजाज को भी बताती हैं कि वे बाकी नियमों को भी इसी तरह तोड़ते होंगे। किसी भी प्रदेश या शहर में नियम-कानून की इज्जत की शुरुआत सडक़ों से ही होती है, और जिस शहर में सडक़ों पर अराजकता रहती है वहां बाकी की जिंदगी में भी अराजकता रहती है। यही हाल छत्तीसगढ़ का हो रहा है कि यहां सडक़ों पर ट्रैफिक पूरी तरह बेकाबू रहता है, और सरकार के किसी अमले की इसमें दिलचस्पी भी नहीं रहती है। अगर सरकार न करे तो भी जनता के बीच से ऐसा एक सोशल ऑडिट होना चाहिए कि किसी सडक़ हादसे में मौतों की जिम्मेदारी किन बातों पर थी। आज छत्तीसगढ़ में न सरकार इस नजरिए से सडक़ हादसों का विश्लेषण करती, न ही जनता को इसकी कोई खास परवाह लगती कि जो सरकार गाडिय़ों से इतना टैक्स लेती है, वह सडक़ सुरक्षा के मामले में लापरवाह है।
आज टाली जा सकने वाली तमाम मौतों को रोकने की जरूरत है। लोगों से सौ फीसदी जिम्मेदारी की उम्मीद करना गलत है, और आम हिन्दुस्तानी का मिजाज सजा, जुर्माना, या लाठी देखकर ही ठीक से चलने का है। इसलिए सरकार के जुड़े हुए विभागों को जनसंगठनों के साथ मिल-बैठकर सडक़ सुरक्षा बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए। जब छत्तीसगढ़ अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब जिला और संभाग स्तर पर यातायात सुधार समितियां बनती थीं, और उनमें व्यापारी संगठनों से लेकर अखबारों तक के लोग रखे जाते थे, और उनकी सलाह भी सुनी जाती थी। अब वह सिलसिला खत्म हो गया है, और अब इसे सिर्फ अफसरों का काम मान लिया गया है। ऐसे में सडक़ों पर मौतें कभी कम नहीं हो पाएंगीं।
यूक्रेन पर रूस के हमले का एक साल पूरा होने के ठीक पहले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन अचानक ही यूक्रेन पहुंचे, और वहां खुले में यूक्रेनी राष्ट्रपति के साथ घूमकर तस्वीरें खिंचवाकर उन्होंने एक अलग किस्म का भरोसा जताया है। लेकिन तस्वीरों से परे उनके भाषण ने भी यूक्रेन का साथ देने का पश्चिमी देशों और नाटो देशों का एक वायदा सामने रखा है जो कि इस जंग में आज बहुत मायने रखता है। यह जंग यूक्रेन पर रूस के हमले के साथ शुरू हुई थी, और मास्को का यह अंदाज था कि यह कुछ महीनों में यूक्रेनी सत्ता के साथ-साथ खत्म हो जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, और यह जंग आज दुनिया की एक महाशक्ति रूस पर भारी पड़ते दिख रही है। यह एक अलग बात है कि पूरी जंग यूक्रेनी जमीन पर लड़ी जा रही है, यूक्रेन बड़ा नुकसान झेल रहा है, उसके कई इलाकों पर रूस का कब्जा हो चुका है, लेकिन यूक्रेन एक असाधारण मनोबल के साथ रूस के खिलाफ डटा हुआ है, और पश्चिमी देश एक अभूतपूर्व और असाधारण एकता दिखाते हुए यूक्रेन का फौजी साथ दे रहे हैं। आज मोर्चे पर लड़ तो यूक्रेनी सैनिक रहे हैं, लेकिन उनका साज-सामान अमरीका और ब्रिटेन से लेकर जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देशों से आ रहा है, आते ही जा रहा है। दूसरी तरफ ऐसा माना जा रहा है कि रूस की युद्ध की क्षमता अब कमजोर पड़ रही है, एक तरफ तो पश्चिम के लागू किए गए बहुत कड़े आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से रूस की जनता की जिंदगी पर थोड़ा सा फर्क पड़ा है, और थोड़ा सा फर्क रूसी सरकार के खजाने पर भी पड़ा है जिसे कि अपनी फौज पर, भाड़े के सैनिकों पर अंधाधुंध खर्च करना पड़ रहा है। दूसरी तरफ यूक्रेन का साथ देने के लिए तमाम नाटो देश अपना खजाना खोल रहे हैं, और फौजी साज-सामान भेज रहे हैं। इसलिए गैरबराबरी की यह लड़ाई भी रूस पर कई मायनों में भारी पड़ रही है, फिर चाहे उसे आज अपनी जमीन नहीं खोनी पड़ी है।
अब रूस ने यूक्रेन के परमाणु हथियार पाने की आशंका गिनाते हुए अपनी सरहद तक नाटो के पहुंच जाने का तर्क या बहाना गिनाते हुए यह हमला किया था। लेकिन अमरीका से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक, और दुनिया के दर्जनों और देशों ने भी इसे यूक्रेन की स्वायत्तता पर हमला माना है, और संयुक्त राष्ट्र बार-बार रूस के इसे रोकने के लिए कहते भी आ रहा है। आज नौबत यह आ गई है कि इन दोनों देशों के बीच किसी भी तरह की बातचीत मुमकिन नहीं दिख रही है, और रूस एक अंतहीन जंग के लिए डटा हुआ है, और अमरीका और उसके साथी देश यूक्रेन का अंतहीन साथ देने के लिए डटे हुए हैं। दिक्कत यह है कि इस जंग में सीधा-सीधा नुकसान अकेले यूक्रेन का हो रहा है जो कि जमीन खो चुका है, जिसके दसियों हजार लोग मारे गए हैं, और जिसके देश का ढांचा तबाह हो गया है, एक करोड़ से अधिक लोग बेदखल हो चुके हैं। यूक्रेन की बर्बादी के आंकड़े गिन पाना भी आसान नहीं है। ऐसे में उसे रूस के साथ जंग जारी रखने के लिए तो पश्चिम की मदद मिल रही है, लेकिन खुद यूक्रेन के पुनर्निर्माण की जरूरतें पश्चिम से कितनी पूरी होंगी, वह पुनर्निर्माण कब शुरू हो सकेगा, इसमें कुछ भी अभी साफ नहीं है। फिर यह भी है कि योरप और अमरीका की कोई भी मदद किफायत और पारदर्शिता की कई शर्तों के साथ आएगी, जिन्हें यूक्रेन पता नहीं कितना पूरा कर पाएगा।
इन्हीं तमाम बातों के बीच एक बात यह साफ है कि अमरीका और नाटो देश यूक्रेन की फौजी मदद इसलिए भी कर रहे हैं कि वे नाटो देशों के फौजी गठबंधन के चलते हुए रूस के आसपास के अपने सदस्य देशों की हिफाजत को लेकर फिक्रमंद हैं। और इस हिफाजत की गारंटी उसी हालत में हो सकती है जब रूस से लगे हुए कई देश नाटो में शामिल हो जाएं, और नाटो की फौजी क्षमता रूस की सरहदों तक पहुंच जाए। ठीक यही फिक्र रूस इस हमले के पीछे बताता है जिसे वह हमला या जंग कहने से कतराता है, और जिसे वह महज एक फौजी कार्रवाई कहता है। लेकिन शब्दों से परे सच तो यह है कि एक महाशक्ति ने एक छोटे से पड़ोसी पर इतना बड़ा फौजी हमला किया कि जिसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता था, लेकिन रूसी फौजी तेवर देखकर उसके खिलाफ दर्जनों देश जिस तरह एकजुट हुए हैं, और उन्होंने जिस हद तक यूक्रेन का साथ दिया है, उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। नतीजा यह है कि आज यूक्रेन के फौजियों की मौत, उसकी तबाही की कीमत पर रूस कमजोर होते चल रहा है, और यह बात अमरीका और नाटो के बाकी देशों के फौजी फायदे की बात है। अब सवाल यह उठता है कि अपने फौजियों को शामिल किए बिना, इस युद्ध को विश्व युद्ध में तब्दील होने के खतरे से बचाते हुए यूक्रेन का जो साथ दिया जा रहा है, उससे रूस का नुकसान तो जाहिर तौर पर हो रहा है, लेकिन इसकी जो कीमत यूक्रेन चुका रहा है, उसकी भरपाई कैसे होगी? आज यूक्रेन के लोग शरणार्थी होकर दर्जन भर दूसरे देशों में पड़े हुए हैं। यूक्रेन का ढांचा बुरी तरह तबाह हो चुका है, और अगली शायद चौथाई सदी भी यह देश इस नुकसान से उबर नहीं पाएगा। ऐसे में रूस को खोखला करने की हसरत लिए हुए जो लोग यूक्रेन का साथ दे रहे हैं, वे अपने फौजियों की शहादत के बिना सिर्फ खर्च करके यह मकसद हासिल कर रहे हैं। यह एक अलग नैतिक सवाल है कि यूक्रेनी जनता की जिंदगी और देश के कितने नुकसान की कीमत पर रूस का कितना नुकसान जायज कहा जाएगा? आज इस जंग को एक बरस पूरा हो रहा है, और इस मौके पर पूरी दुनिया को यह सोचना चाहिए कि इस तबाही से कैसे उबरा जा सकता है क्योंकि इससे न सिर्फ इन दो देशों का सीधा नुकसान हो रहा है, यूक्रेन का साथ देने वाले देशों का बड़ा खर्च हो रहा है, और इन दोनों देशों से बाहर निकलने वाले अनाज, खाद, पेट्रोलियम की कमी से दुनिया की अर्थव्यवस्था कितनी तबाह हो रही है। ऐसी बहुत सी बातों पर जंग की इस पहली सालगिरह पर लोगों को सोचना चाहिए, और अपने-अपने देशों की सरकारों से सवाल भी करना चाहिए।