संपादकीय
देश के एक प्रमुख और अब तक काफी या कुछ हद तक विश्वसनीय बने हुए समाचार चैनल, एनडीटीवी, का मालिकाना हक बदल जाने से इसे देखने वाले लोगों को लग रहा है कि यह हिन्दुस्तानी टीवी पर भरोसेमंद पत्रकारिता का अंत हो गया है। अभी नए मालिक, देश के सबसे बड़े उद्योगपति अडानी ने अपना रूख दिखाना शुरू भी नहीं किया है, लेकिन लोगों की ऐसी आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं। एक घाटे के कारोबार को देश का सबसे बड़ा मुनाफा कमा रहा कारोबारी अगर ले रहा है, तो उसे भरोसेमंद पत्रकारिता जारी रखने के लिए तो ले नहीं रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अडानी का घरोबा जगजाहिर है, और एनडीटीवी एक ऐसा समाचार चैनल था जिसका कम से कम कुछ हिस्सा मोदी की आलोचना की हिम्मत करता था। एनडीटीवी के हिन्दी के सबसे चर्चित टीवी-पत्रकार रवीश कुमार का नाम देश और दुनिया में आज हिन्दुस्तान के सबसे हिम्मती पत्रकार के रूप में लिया जाता था, और सोशल मीडिया पर आम प्रतिक्रिया कल यही थी कि जब सरकार और कारोबार एक पत्रकार को नहीं खरीद सके, तो उन्होंने पूरा चैनल ही खरीद लिया। और जैसी कि उम्मीद थी मालिक बदलने के साथ एनडीटीवी से पहला इस्तीफा रवीश कुमार का ही हुआ क्योंकि अपनी विचारधारा और अपने तौर-तरीके के साथ उनकी कोई जगह अडानी के चैनल में बच नहीं गई थी। और सच तो यह है कि आज एनडीटीवी को लेकर लोगों के बीच जितनी हमदर्दी है, उसका बहुत सा हिस्सा अकेले रवीश कुमार की वजह से है जो कि साफ-साफ सच कहते थे, यह एक अलग बात है कि आज के हालात के मुताबिक वह सच मोदी सरकार और देश के मीडिया में उनके अंधसमर्थकों की आलोचना लगता था। अगर सच किसी को आलोचना लगता है, तो ईमानदार लोग सच लिखना या बोलना तो बंद नहीं कर देंगे। रवीश कुमार देश-विदेश में अपनी पत्रकारिता के लिए खूब सम्मान पाते रहे हैं, और जाहिर है कि उसी अनुपात में उन्हें हिन्दुस्तान में भक्तजनों की गालियां भी मिलती रही हैं। एनडीटीवी के मालिकान एक वक्त तो पत्रकार थे, लेकिन बाद में वे चैनल-मालिक कारोबारी रहे, इसलिए उनकी पत्रकारिता के बारे में आज अधिक चर्चा की जरूरत नहीं है। चर्चा रवीश कुमार की ही हो रही है, होनी भी चाहिए, जिनकी वजह से इस चैनल को भी एक ऐसी साख मिली जो कि रवीश कुमार के बिना नहीं मिल सकती थी। लेकिन चैनल की इस बात के लिए तो तारीफ की ही जानी चाहिए कि उसने रवीश कुमार को इस हद तक बढ़ाया, और इतने लंबे वक्त तक उन्हें जगह दी, या बर्दाश्त किया। यह भी कोई छोटी बात नहीं थी। आज सत्ता अपने खिलाफ असहमति को हटाने के लिए बहुत कुछ करती है, और रवीश कुमार बहुत लंबे समय तक खरी पत्रकारिता की एक मिसाल बने हुए सत्ता की आंखों की किरकिरी बने रहे, और एनडीटीवी मैनेजमेंट की इस बात के लिए तो तारीफ की ही जानी चाहिए।
हिन्दुस्तान में यह पहला मौका है जब एक मीडिया कारोबार को लेकर लोगों की इस तरह की हमदर्दी सामने आ रही है, और उससे भी बढक़र एक अकेले पत्रकार के साथ इतनी बड़ी संख्या में प्रशंसक खड़े हुए दिख रहे हैं। एक बहुत ही मजबूत सरकार से असहमत के साथ सहमत होकर सोशल मीडिया पर उजागर होना भी आज के वक्त में एक छोटे से हौसले की बात तो है ही। आज सहूलियत यही है कि अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए किसी को अखबार या टीवी चैनल की जरूरत नहीं रह गई है। लोग बिना किसी लागत के, बहुत मामूली खर्च से अपना यूट्यूब चैनल शुरू कर सकते हैं, और बात की बात में लाखों, दसियों लाख लोगों तक पहुंच सकते हैं। ऐसा काम बहुत से स्वतंत्र पत्रकार कर भी रहे हैं, और उनमें से जिनका काम अच्छा है वे यह भी साबित करने में कामयाब रहे हैं कि बड़े कारोबारी ढांचे के बिना भी आज अखबारनवीसी या पत्रकारिता मुमकिन है। और सच तो यह है कि बड़ा कारोबारी ढांचा अखबारनवीसी के खिलाफ भी जाता है। जब ढांचे की लागत बहुत बड़ी हो जाती है, उसे चलाने का खर्च बहुत बड़ा हो जाता है तो ऐसे मीडिया संस्थान को सौ किस्म के समझौते भी करने पड़ते हैं, और दूसरे ऐसे कारोबार भी करने पड़ते हैं जिनका मिजाज मीडिया के ईमानदारी के मिजाज से मेल नहीं खाता। ऐसी मिसालें नाम लेकर गिनाने की जरूरत नहीं हैं, वे चारों तरफ बिखरी हुई है। कहीं सत्ता की ताकत से मीडिया चलता है, कहीं कारोबार की ताकत से, और कहीं कुछ रहस्यमयी छुपी हुई ताकतों से। हिन्दुस्तान में जहां पर कि कालेधन की अपार संभावना रहती है, किसी भी कारोबार से दो नंबर के पैसे निकाले जा सकते हैं, और उनसे कोई दूसरा कारोबार चलाया जा सकता है, वहां पर अपने बड़े राजनीतिक या कारोबारी हितों के लिए एक पालतू मीडिया खड़ा कर लेना मुश्किल नहीं है। कोई एक वक्त रहा होगा जब लोगों को लगता था कि मीडिया कारोबारी के कोई और कारोबार नहीं होने चाहिए, लेकिन वह बात बहुत पहले ही खत्म हो गई, और एक वक्त के देश के एक सबसे बड़े कारोबारी, बिड़ला, न सिर्फ मीडिया में आए, बल्कि राज्यसभा तक पहुंचे। मीडिया, कारोबार, राजनीति, और सत्ता इन सबका एक बड़ा घालमेल हिन्दुस्तान में चलते ही रहता है, और इस कारोबार में ईमानदारी बनाए रखने के लिए कोई लोकतांत्रिक सोच इस देश की संवैधानिक संस्थाओं में नहीं रही।
खैर, रवीश कुमार आज अगर अपने यूट्यूब चैनल पर पूरा वक्त लगाते हैं, तो शायद वे एनडीटीवी के वक्त की अपनी दर्शक संख्या को भी पार कर जाएंगे। हिन्दुस्तान में अच्छी पत्रकारिता के लिए यही उम्मीद की एक बात है कि सोशल मीडिया, इंटरनेट, और तरह-तरह के मुफ्त के अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर खरी और ईमानदार बात कहने की गुंजाइश आज भी मुफ्त में हासिल है। रवीश कुमार के पहले भी कुछ दूसरे पत्रकारों ने किसान आंदोलन के दौरान अपनी पहचान इसी तरह अखबार और टीवी से परे बनाई, और हो सकता है कि रवीश कुमार से बहुत से और लोगों को भी एक नई राह मिले जो कि सत्ता पर काबिज नेताओं और मीडिया-कारोबार के मालिकान के काबू से बाहर रहे। बिना लागत की मीडिया-पहल के ईमानदार और दबावमुक्त बने रहने की संभावना किसी भी परंपरागत कारोबार के मुकाबले अधिक रहेगी। अब आने वाले दौर से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि उससे मीडिया और पत्रकारिता के कोर्स बदल जाएंगे, और एक व्यक्ति के अपने यूट्यूब चैनलों के कारोबार भी बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई में जगह पाएंगे।
रवीश कुमार का भविष्य तो सुनहरा है, क्योंकि उनका दांव पर कुछ भी नहीं लगा है, और बिना कारोबारी ढांचे के भी उनकी कामयाबी की गारंटी रहेगी। लेकिन यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं रहेगा कि दूरदर्शन के लिए एक साप्ताहिक कार्यक्रम पेश करने वाले प्रणब रॉय एनडीटीवी को खोने के बाद अब आगे क्या करते हैं? क्योंकि टीवी चैनल जितनी लागत के बिना भी वे अंग्रेजी का अपना कोई यूट्यूब चैनल शुरू कर सकते हैं, और आधी सदी पहले पैदा हुई पीढ़ी को याद भी होगा कि प्रणब रॉय के साप्ताहिक समाचार बुलेटिनों का किस तरह इंतजार रहता था। भारत की पत्रकारिता और मीडिया कारोबार के लिए आने वाले दिन दिलचस्प हो सकते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
महाराष्ट्र के जालना की एक बड़ी अजीब सी खबर है। वहां एक महिला ने सुबह स्कूल जाने के लिए अपनी चौदह बरस की बेटी को जगाया जो कि स्कूल में एक मोबाइल फोन चोरी करते पकड़ाई थी, और उसने स्कूल जाना बंद कर दिया था। मां के जगाने पर वह गुस्से में बाथरूम में घुसी जहां उसकी सात बरस की चचेरी बहन नहा रही थी। उसने गुस्से में छोटी बहन का गला ब्लेड से काट दिया, और उस बच्ची की मौत हो गई। मां ने अपनी बेटी को रोकने की कोशिश की, लेकिन उसने दरवाजा भीतर से बंद कर रखा था, और उसका हमला कामयाब रहा। बाद में इस महिला ने ही पुलिस को जानकारी दी। अब हिंसा की यह घटना जिन लोगों को न हिला पाए, उनके लिए छत्तीसगढ़ के बेमेतरा की एक और खबर है। पुलिस को दस बरस की एक बच्ची की फांसी लगाकर आत्महत्या की सूचना मिली। जब इसका पोस्टमार्टम कराया गया तो पता लगा कि उसके साथ बलात्कार हुआ था। जब आसपास जांच की गई तो पड़ोस के एक नाबालिग लडक़े पर शक हुआ, और पूछताछ में उसने मंजूर किया कि वह मोबाइल पर अश्लील वीडियो देखते रहता था, और उसने पड़ोस में इस छोटी लडक़ी को पकडक़र रेप किया, उसके विरोध और बात खुल जाने के डर से उसके नाक-मुंह दबा दिए। इसके बाद उसने चुनरी से फांसी का फंदा बनाकर उसे टांग दिया, और छत के रास्ते अपने घर चले गया। अब उस लडक़े को बाल संप्रेक्षण गृह भेजा गया है।
ये दो खबरें बहुत विचलित करती हैं। मां-बाप अपने बच्चों को स्कूल जाने को न कहें, तो क्या कहें? अगर वे पढ़ेंगे-लिखेंगे नहीं, तो आगे चलकर परिवार और दुनिया पर एक खतरनाक बोझ बनेंगे। और अगर बच्चों का गुस्सा इस कदर बेकाबू है कि मां के जगाने पर वह छोटी बहन का गला काट डाले, तो एक गरीब परिवार अपने बच्चों की और कितनी परवाह कर सकता है, उन्हें हिफाजत से रखने के लिए और क्या कर सकता है। ठीक वही हाल छत्तीसगढ़ की इस बच्ची का है जो कि जाहिर तौर पर गरीब दिखती है, और पड़ोस के पोर्न-प्रभावित लडक़े के लिए एक आसान शिकार साबित हुई। घर-परिवार के भीतर की ऐसी हिंसा को रोकने का कोई तरीका दुनिया की किसी पुलिस के पास नहीं हो सकता है। यह तो परिवार और समाज के ही कुछ करने की बात है। बच्चों की सोच किस तरफ जा रही है, वे मोबाइल या कम्प्यूटर पर क्या देख रहे हैं, उन पर कैसा असर हो रहा है, और वे किसी गलत काम को करने का कितना मौका पा रहे हैं, यह देखना पुलिस के बस का बिल्कुल नहीं हो सकता। जब ऐसे जुर्म की खबर लगती है तब ही पुलिस का दाखिला होता है, जो अदालत के फैसले के बाद खत्म हो जाता है। लेकिन सरकार और समाज मिलकर स्कूलों के माध्यम से या मुहल्लों के रास्ते बच्चों को हिंसा से दूर रखने की कुछ तरकीबें जरूर निकाल सकते हैं।
मोबाइल फोन को लेकर बच्चों की दीवानगी पिछले बरसों में लॉकडाउन और वर्क फ्रॉम होम के दौरान एकदम से बढ़ गई है। लोग घरों में बैठे फोन और कम्प्यूटर पर काम करते थे, या बिना काम के भी इन्हीं उपकरणों पर समय गुजारते थे, और इन्हें देख-देखकर बच्चों ने भी टीवी, कम्प्यूटर, और मोबाइल की लत लगा ली। कोई एक-दूसरे को मना भी नहीं कर पाए। स्कूल-कॉलेज के बच्चों को पढ़ाई के लिए भी मोबाइल और कम्प्यूटर जरूरी हो गया। इंटरनेट के साथ जब ये उपकरण बच्चों को मिल गए, तो वे क्या देखते हैं, और उससे क्या सीखते हैं, यह उन्हीं के बस की बात रह गई। कामकाजी मां-बाप बच्चों पर पूरे वक्त निगरानी तो रख नहीं सकते थे, नतीजा यह हुआ कि बच्चे कहीं-कहीं से पोर्न तक पहुंचने लगे, और फिर वहीं फंसने लगे। लोगों को याद होगा कि पिछले बरस भी छत्तीसगढ़ में इसी किस्म का एक भयानक मामला हुआ था जिसमें परिवार के ही कई नाबालिग भाईयों ने मोबाइल फोन पर पोर्न देख-देखकर घर में ही छोटी बहन के साथ बलात्कार किया था। बाद में जब मामला उजागर हुआ तो परिवार और पुलिस को यह भी ठीक से समझ नहीं आया कि घर के भीतर के इस मामले में घर के तमाम लडक़ों को पुलिस के रास्ते सुधारगृह भेजा जाए, या क्या किया जाए।
अब जब डिजिटल जिंदगी एक हकीकत बन चुकी है, घरों में छोटे-छोटे बच्चे बिना वीडियो देखे खाने-पीने से भी मना कर देते हैं, रोजाना कई-कई घंटे टीवी या कम्प्यूटर-फोन के सामने बैठे रहते हैं, तब इस नौबत का कोई इलाज ढूंढना जरूरी है। इससे उनके दिल-दिमाग और आंखों पर तो असर पड़ ही रहा है उनका विकास भी प्रभावित हो रहा है। बच्चों के वीडियो-खेल भी गोलीबारी और हिंसा से भरे हुए हैं, और जब वे इंटरनेट और यूट्यूब पर कुछ भी ढूंढते हैं, तो जाहिर है कि किसी न किसी वक्त तो पोर्न तक पहुंच ही जाएंगे। टीवी के बुलेटिनों में रात-दिन तरह-तरह के सेक्स और जुर्म की खबरें घरों में चलती ही रहती हैं, और मां-बाप को यह परवाह भी कम जगहों पर ही रहती है कि इन्हीं के सामने उनके बच्चे भी बैठे हैं। ऐसे में हिंसा, सेक्स, अराजकता, और जुर्म इन सबका मिलाजुला असर बच्चों पर कई तरह से पड़ रहा है, और आसपास के दूसरे बच्चे उनके नाबालिग-जुर्म का शिकार हो रहे हैं। अब घर के लोग भी अपने बच्चों को कितनी तरह से बचाकर रख सकते हैं? खुद के घर के बच्चों से, पड़ोस के बच्चों से, या घर-पड़ोस के परिचित बड़े लोगों से बच्चों को आखिर कितने दूर रखा जा सकता है? लेकिन इस सिलसिले को शुरू में ही रोक देना जरूरी है क्योंकि ऐसे सेक्स-हिंसा में फंसे हुए बच्चे अगर पकड़ में नहीं आएंगे, उनकी शिनाख्त नहीं हो पाएगी, तो वे ऐसे कई जुर्म और भी कर सकते हैं, और आमतौर पर उनके शिकार उनसे छोटे बच्चे ही रहेंगे।
नाबालिग बच्चों के मुजरिम बन जाने से उनकी बाकी की पूरी जिंदगी बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है। हिन्दुस्तान में सुधारगृहों का जो हाल है, उनका तजुर्बा यह है कि वहां गए हुए बच्चे कई और किस्म के जुर्म सीखकर लौटते हैं। दूसरी तरफ इस देश में मनोचिकित्सक और मानसिक परामर्शदाता जरूरत से बहुत ही कम हैं, और जिन बच्चों को उनकी जरूरत है उनमें से बहुत ही गिने-चुने को वे नसीब होते हैं। सरकार और समाज की बाकी कोशिशों के साथ-साथ एक बात और यह की जानी चाहिए कि विश्वविद्यालयों में मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं के कोर्स चलाए जाएं, और स्कूल-कॉलेज में, या समुदाय में उनकी सेवाएं उपलब्ध हों। आज बहुत महंगे निजी स्कूलों में तो परामर्शदाता कुछ घंटों के लिए रहते हैं, लेकिन शायद एक फीसदी बच्चों को भी वे नसीब नहीं होते। गरीब और सरकारी स्कूलों, और छोटी निजी स्कूलों तक परामर्शदाता तभी हो सकते हैं, जब ऐसे पाठ्यक्रम बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित लोगों को तैयार कर सकें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के भीतर, और बाहर बसे भारतवंशियों के बीच द कश्मीर फाईल्स नाम की फिल्म को लेकर जो बहस साल भर से चल रही थी, वह कल फिर जिंदा हो गई है जब भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में निर्णायक मंडल के अध्यक्ष इजराईली फिल्ममेकर नवाद लपिड ने इसे एक प्रोपेगेंडा और भद्दी फिल्म करार दिया। समापन समारोह के मंच से उन्होंने केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर और हिन्दुस्तान के दूसरे बड़े अफसरों की मौजूदगी में उन्होंने इस फिल्म के बारे में जितनी कड़ी बात कही, वह इस समारोह के इतिहास में अभूतपूर्व थी। उन्होंने कहा कि निर्णायक मंडल ने मुकाबले में शामिल की गईं जितनी फिल्में देखीं, उनमें से बाकी सभी फिल्में बहुत अच्छी क्वालिटी की थीं, और उन्होंने बहुत शानदार बहस छेड़ी। लेकिन कश्मीर फाईल्स को देखकर सारा निर्णायक मंडल विचलित और हैरान था, यह एक प्रोपेगेंडा और भद्दी फिल्म जैसी लगी जो कि इस तरह के प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल के कलात्मक मुकाबले के लायक नहीं थी। उन्होंने कहा कि वे आमतौर पर लिखित भाषण नहीं देते हैं, लेकिन इस बार वे लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे हैं क्योंकि वे सटीकता के साथ अपनी बात कहना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि वे इस फिल्म के बारे में खुलकर अपनी बात कह रहे हैं क्योंकि वे खुलकर कहना चाहते हैं।
द कश्मीर फाईल्स नाम की यह फिल्म विवेक अग्निहोत्री की बनाई हुई है, और इसमें कश्मीरी पंडितों की त्रासदी के कथानक को फिल्माया गया है। इस फिल्म के आते ही जानकार लोगों ने खुलकर इसके खिलाफ लिखा कि यह कश्मीर के लोगों को और बुरी तरह बांटने की नीयत से बनाई गई है, और कश्मीर की आम जनता पर भी एक हमला है। इस फिल्म को हिन्दुस्तान के भाजपा-समर्थकों, और दूसरे मुस्लिमविरोधी संगठनों ने हाथोंहाथ लिया था, और भाजपा राज्यों ने इसे जगह-जगह टैक्सफ्री किया था। यह फिल्म केन्द्र सरकार के राजनीतिक एजेंडा को बढ़ाने वाली मानी गई थी, और खासकर कश्मीर में मोदी सरकार के मातहत चल रहे राज्यपाल के शासन को ताकत देने की नीयत से बनाई गई भी कही गई थी। हाल के बरसों में कई ऐतिहासिक कहानियों पर हिन्दुस्तान में ऐसी फिल्में बनीं जिनसे लोगों के राजनीतिक रूझान को एक खास चुनावी मोड़ दिया जा सके। इसके अलावा पिछले दशकों के कुछ हादसों और वारदातों को लेकर भी ऐसी फिल्में बनीं जिन्होंने पूरे मुस्लिम समाज को मुजरिम या खलनायक की तरह पेश किया, और हिन्दुस्तान में धार्मिक ध्रवीकरण का एक एजेंडा सेट किया। अभी हिन्दुस्तान में इस किस्म की फिल्मों और टीवी सीरियलों पर काम चल रहा है जिससे कि दक्षिणपंथी सोच को मजबूत किया जा सके। कश्मीर फाईल्स ऐसी ही एक फिल्म मानी गई थी, और वह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील ताकतों से लगातार आलोचना पा रही थी। दूसरी तरफ नफरतजीवी संगठनों को इस फिल्म से एकजुट होने का एक नया मौका मिला था, और इसे कश्मीर के इतिहास का एक सच्चा पन्ना बताकर स्थापित किया जा रहा था।
जिस तरह हिन्दुस्तान में आज बहुत से दूसरे मुद्दे दो अलग-अलग किस्म की सोच का समर्थन और विरोध पा रहे हैं, द कश्मीर फाईल्स वैसा ही एक मुद्दा बनकर लोगों के सामने रही है, और कुछ महीनों की ऐसी जिंदगी के बाद इस फिल्म पर चर्चा खत्म हो चुकी थी, और हिन्दुस्तान के मुस्लिमविरोधी लोगों ने भक्तिभाव से इस फिल्म को बढ़ावा दिया था। अभी फिल्म फेस्टिवल में निर्णायक मंडल की ओर से अध्यक्ष की कही इस बात के पहले यह फिल्म खबरों से हट चुकी थी, लेकिन अब फिर यह चर्चा में है। भारत में इजराईल के राजदूत ने इस इजराईली फिल्मकार के बयान को पूरी तरह से खारिज करते हुए इस पर भारत के लोगों से माफी मांगी है। लेकिन सवाल यह है कि एक फिल्म समारोह के पूरी तरह से मनोनीत निर्णायक मंडल ने अगर एकमत होकर कोई राय सामने रखी है, तो उस पर इजराईल के राजदूत को माफी मांगने का क्या हक है? उस पर तमाम लोग अपनी प्रतिक्रियाएं दे सकते हैं, लेकिन निर्णायक मंडल अध्यक्ष का इजराईली हो जाने से इजराईल के राजदूत का माफीनामा जायज नहीं हो जाता। इजराईल की अपनी मजबूरियां हैं कि वह भारत को नाराज करना नहीं चाहता है क्योंकि भारत इजराईल के कुल निर्यात का आधा हिस्सा खरीदता है। दुनिया की सबसे तेज कारोबारी कही जाने वाली यहूदी नस्ल के लोगों की सरकार अगर अपने सबसे बड़े ग्राहक का भी सम्मान नहीं करेगी, तो कारोबार में मार खाएगी। इसलिए इजराईल के राजदूत ने आनन-फानन जो अफसोस जाहिर किया है, और अपने देश के फिल्मकार को धिक्कारा है, वह एक कारोबारी की मजबूरी है। सवाल यह है कि कई देशों के फिल्मकारों से मिलकर बना हुआ एक निर्णायक मंडल किसी एक देश की सरकार, या उसकी सोच के प्रति जवाबदेह नहीं रहता है, वह अपने समारोह में दाखिल फिल्मों के लिए जवाबदेह रहता है।
इससे एक बात और साबित होती है कि किसी भी देश की सरकार, या वहां के धार्मिक संगठन कोई फिल्म तो बनवा सकते हैं, या किसी और की बनाई हुई फिल्म को बढ़ावा दे सकते हैं, लेकिन वे उस फिल्म को उत्कृष्टता के पैमाने पर खरी साबित नहीं करवा सकते। कश्मीरी पंडितों की त्रासदी इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है, लेकिन उसे भडक़ाऊ अंदाज में, उसका राजनीतिक शोषण करने के लिए बनाई गई फिल्म को अगर उत्कृष्टता के पैमाने पर कमजोर पाया जा रहा है, तो अच्छे फिल्मकार तो उत्कृष्टता की ऐसी कमी पर अपनी बात रखेंगे ही। और भारत का अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह दुनिया के सबसे बड़े फिल्म समारोहों में से एक है, और भारत में हर बरस दुनिया की सबसे अधिक फिल्में भी बनती हैं। इसलिए अगर इसके निर्णायक मंडल ने कुछ महसूस किया है, तो उनकी सोच पर गौर करना चाहिए, बजाय इसके कि उसके खारिज किया जाए। इजराईली राजदूत ने इस इजराईली फिल्मकार के बयान को खारिज करने के लिए जिस तरह आनन-फानन एक बयान दिया है, वह दो देशों के संबंधों को आंच से बचाने की कोशिश है। लेकिन फिल्मों की उत्कृष्टता के पैमाने कूटनीति से तय नहीं होते हैं। यह अच्छा हुआ कि भारत सरकार के तय किए हुए निर्णायक मंडल से ही निकलकर ऐसी सर्वसम्मत बात इस फिल्म के बारे में आई है। बाकी तो फिर हिन्दुस्तान और दूसरी जगहों के धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोगों का यह अधिकार है कि ऐसी आलोचना को खारिज करके अपना एजेंडा जारी रखें।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के मेरठ का एक मामला सामने आया है जिसमें स्कूल की एक टीचर के साथ क्लास के तीन लडक़ों की छेडख़ानी, और छींटाकशी का उन्होंने खुद ही वीडियो बनाया, अश्लील टिप्पणी करते हुए अपनी खुद की आवाज रिकॉर्ड की, अश्लील हावभाव दिखाते हुए अपने चेहरे रिकॉर्ड किए, और वीडियो को चारों तरफ फैला भी दिया। ये लडक़े, और उनके साथ एक लडक़े की बहन, ये सब तकनीकी रूप से ही नाबालिग हैं, लेकिन बालिग होने के करीब हैं, और उनकी हरकत जैसा कि साफ दिख रहा है, बालिगों से बढक़र है। इस टीचर ने पहले प्रिंसिपल से इस बात की शिकायत की, और क्लास बदलने को कहा, लेकिन न तो प्रिंसिपल ने यह बात सुनी, और न ही क्लास के भीतर और क्लास के बाहर भद्दे कमेंट करते हुए वीडियो बनाने वाले इस तथाकथित नाबालिग गिरोह ने अपनी हरकतें बंद कीं। नतीजा यह हुआ कि इस शिक्षिका को थक-हारकर पुलिस में जाना पड़ा, और पुलिस अब इन चारों को उठाकर अदालत में पेश किया है। नाबालिग होने से इनकी गिरफ्तारी नहीं हुई है लेकिन इन्हें किसी सुधारगृह में रखा गया होगा। यह वीडियो चारों तरफ फैला हुआ है, और इसकी वजह से यह शिक्षिका डिप्रेशन में बताई जा रही है, और घरवालों का कहना है कि वह आत्महत्या की सोच रही है।
यह वीडियो कई बातें दिखाता है, और चौंकाता भी है। इसमें लडक़े बड़े फख्र से अपना चेहरा दिखाते हुए, अश्लील हावभाव दिखाते हुए शिक्षिका को दिखाते हैं, और तरह-तरह के भद्दे फिकरे कसते हैं। उन्हीं का बनाया हुआ वीडियो बताता है कि जब यह शिक्षिका स्कूल के अहाते में जा रही है, तो राह पर बैठे हुए ये लडक़े अश्लील बातें कहते हुए फिर अपना वीडियो बनाते हैं, और वह शिक्षिका क्लास के भीतर भी किताब से अपना चेहरा ढक लेने को मजबूर हो जाती है, और बाहर भी इन्हें पार करके किसी तरह चली जाती है। शिक्षिका हिजाब बांधे हुए है, साड़ी पर कोट पहने हुए है, वह किसी भी तरह से भडक़ाती हुई नहीं दिखती है। और जब यह सब फिल्माया जा रहा है तो लडक़ों की अश्लील बातें सुनकर क्लास में बड़ी संख्या में मौजूद लड़कियां हॅंसती हुई भी दिखती हैं। जिन लडक़ों के सामने शिक्षिका का कोई बस नहीं चल रहा, जिनका दुस्साहस इतना है कि वे खुद की ही गुंडागर्दी का, छेडख़ानी का ऐसा वीडियो फैला रहे हैं, उनसे लड़कियां भी क्लास में क्या भिड़ जातीं। लेकिन वे ऐसी हरकतों पर हॅंसती हुई दिखती हैं जो कि 12वीं में पहुंचने के बाद उनकी जागरूकता कितनी है, इसका एक सुबूत है। इनमें से कई छात्र-छात्राएं वोट डालने के लायक भी हो चुके होंगे या कुछ महीनों में हो जाएंगे, और जागरूकता के ऐसे स्तर के साथ वे किस तरह की सरकार चुनेंगे, यह भी हैरानी होती है।
किसी शिक्षिका की शिकायत पर भी स्कूल प्रशासन अगर कार्रवाई न करे, तो यह भी सदमा पहुंचाने वाली बात है, क्योंकि किसी महिला के लिए आज हिन्दुस्तान में पुलिस में जाकर रिपोर्ट करना भारी शर्मिंदगी की वजह रहती है, और थाने से लेकर अदालत तक उसे ही बुरी निगाह से देखा जाता है। यह घटना यह भी बताती है कि एक आम हिन्दुस्तानी स्कूल में पढ़ाई का माहौल कैसा है। स्कूल से सर्टिफिकेट लेकर, और कॉलेज से डिग्री लेकर निकलने वाले लोग किस स्तर के रहते हैं। यह मामला उत्तरप्रदेश का है जहां के औसत लोग औसत दर्जे से नीचे के पढऩे वाले माने जाते हैं। यही हाल दक्षिण भारत का, या महाराष्ट्र का होता, तो शायद हालात इतने खराब नहीं दिखते। उत्तरप्रदेश में सभी तरह के मामलों में अराजकता का जो आम हाल है, वह वहां की ऐसी स्कूलों पर भी झलक रहा है।
लेकिन इस मामले में एक और पहलू पर गौर करने और चर्चा करने की जरूरत है। हिजाब लगाई हुई और पूरे कपड़े पहनी हुई इस शिक्षिका के साथ इस छेडख़ानी के दुस्साहस वाले तीनों लडक़ों के जो नाम कुछ खबरों में सामने आ गए हैं, वे सारे ही मुस्लिम नाम हैं। अब मुस्लिम समाज के भीतर हिजाब के हिमायती लोग बिना हिजाब अपनी बच्चियों को पढऩे भेजने के भी खिलाफ रहते हैं। उनके मुताबिक लड़कियों को सारे बाल बांधकर और ढांककर रखने चाहिए। मर्दों के बनाए हुए जिन नियमों को यह समाज अपनी लड़कियों और महिलाओं पर ज्यादती के साथ थोपता है, वह समाज अपने लडक़ों को किस तरह तैयार करता है, यह भी मेरठ के इस मामले में साफ दिखता है। स्कूल राममनोहर लोहिया के नाम पर है, वहां पर बिना हिजाब छात्राएं भी दिख रही हैं। लेकिन हिजाब से ढंकी हुई एक शिक्षिका से खुली छेडख़ानी करने और उस पर गर्व करने वाले तमाम लडक़े मुस्लिम हैं। अब मुस्लिम समाज को यह सोचना चाहिए कि उन्होंने एक शिक्षिका पर तो हिजाब लादा हुआ है, कहने के लिए हो सकता है कि उस शिक्षिका ने अपनी पसंद से यह हिजाब बांधा हुआ हो, लेकिन इसी मुस्लिम समाज के लडक़े अपनी शिक्षिका के साथ अश्लील हरकतें कर रहे हैं, उन्हें दुस्साहस से रिकॉर्ड कर रहे हैं, और अब पुलिस कार्रवाई के बाद उनके परिवार शिक्षिका को ही धमका रहे हैं। यह धर्म के नाम पर हिजाब जैसे प्रतिबंध लागू करने वाले मुस्लिम समाज के सोचने की बात है कि उसे अपने लडक़ों की जुबान को बांधना था, उनकी उंगलियों को बांधना था, लेकिन वह तो किया नहीं गया, उन गुंडे लडक़ों को बचाया जा रहा है, और इस शिक्षिका का साथ नहीं दिया जा रहा है जिसने मुस्लिम समाज की हिजाब की परंपरा को ढोया है।
हम उत्तरप्रदेश में इस अराजकता के साथ-साथ मुस्लिम समाज के इस रिवाज के बारे में भी बात करना चाहते हैं कि जब तक समाज के लडक़े और मर्द इस तरह बिगड़े रहेंगे, तब तक महिलाओं पर नाजायज रोकटोक से भी कोई फायदा नहीं होगा। महिलाओं को आत्मविश्वास के साथ, और बराबरी से हक से जीने का मौका मिलना चाहिए, जो कि मुस्लिम, और बाकी समाज भी नहीं दे पा रहे हैं। इस एक मामले को समाज के सामने नमूने की तरह पेश करना चाहिए, इन लडक़ों को उम्र की रियायत की वजह से जो भी मामूली सजा मिलेगी, वह नाकाफी रहेगी, अदालत को इनके परिवारों पर भी कोई जुर्माना थोपना चाहिए। दूसरी तरफ स्कूल मैनेजमेंट के ऐसे बर्ताव को देखते हुए प्रिंसिपल और दूसरे जिम्मेदार लोगों के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। एक ढकी हुई शिक्षिका अगर आज मवाली छात्रों की वजह से, और मैनेजमेंट की उदासीनता से आत्महत्या की कगार पर है, तो यह मामला एक सैंपल केस की तरह सामने रखने की जरूरत है कि कानून क्या कर सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी का ताजा ट्वीट राहुल गांधी की एक तस्वीर के साथ है। राहुल की पहनी हुई शॉल पर ओम का निशान उल्टा दिख रहा है इसलिए शिव की आरती करते राहुल की तस्वीर को स्मृति ने उल्टा टांग दिया और लिखा कि अब ठीक है, ओम नम: शिवाय। स्मृति ईरानी जैसा समर्पण बढ़ा दुर्लभ है। उन्होंने एक वक्त अपनी एक सहेली के पति के प्रति ऐसा समर्पण रखा कि उस घर में आग लगा दी, और उसके पति को अपना पति बना डाला। खैर यह बात उनके राजनीति में आने के बाद हम नहीं लिख रहे हैं, वे पहले भी मॉडलिंग और टीवी पर अभिनेत्री थीं, और उस वक्त से ये बातें खबरों में अच्छी तरह बनी हुई थीं। लेकिन किसी का इतिहास उसका पीछा तो नहीं छोड़ता है, इसलिए स्मृति ईरानी की ये बातें भी विस्मृत नहीं होती हैं, और खबरों में बनी रहती हैं। समर्पण की उनकी आदत पुरानी और मजबूत है। वे राजनीति में आईं, तो उन्हें सोनिया-राहुल की अमेठी-रायबरेली सीटों पर झोंका गया, और वे वहीं समर्पित होकर रह गईं। उनका सारा कामकाज इन्हीं दो नेताओं और इन्हीं दो सीटों तक सीमित रह गया। आज सच तो यह है कि बिना गूगल किए हमें भी याद नहीं है कि स्मृति ईरानी किस विभाग की मंत्री हैं। मंत्री की हैसियत से उनका पिछला काम क्या था, यह भी किसी को याद नहीं होगा। एक वक्त जरूर वे अपनी क्षमता से कई गुना अधिक की मानव संसाधन मंत्री बना दी गई थीं, और जल्द ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चूक समझ आ गई थी, और अगला मंत्रालय स्मृति ईरानी को उनकी क्षमता के मुताबिक दिया गया था, लेकिन इतने बरस मंत्री रहते हुए भी उनका कुल ध्यान इन दो संसदीय सीटों के मंत्री जितना ही रहा। उनकी ताजा ट्वीट भी इसी का एक सुबूत है कि वे कितने काम के लायक हैं।
अब अगर राहुल के ओढ़े कपड़े को उल्टा दिखाने के लिए वे महादेव की आरती को उल्टा कर सकती हैं, तो उनके गढ़े हुए इस पोस्टर को हिंदुत्व के वे सैनिक तो बर्दाश्त कर सकते हैं जो कि नाम देखकर काम की भावना तय करते हैं। अब अगर आरती के दीयों को थामे हुए राहुल की इस तस्वीर को कोई धर्मनिरपेक्ष नेता पोस्ट करते, तो अब तक उनकी मां-बहन को बलात्कार की धमकियां मिलने लगतीं। लेकिन ये तो उनकी अपनी स्मृति ईरानी है, इसलिए किसी धमकी के खतरे की कोई बात नहीं है। इस फौज को भी मालूम है कि स्मृति ईरानी को कौन सा समर्पित काम दिया गया है, और यह फौज उनके पीछे खड़ी है। दिक्कत सिर्फ यही है कि स्मृति ईरानी की जो कोई भी राजनीतिक संभावनाएं हो सकती थीं, उन सबको इस एक समर्पण ने खत्म कर दिया है। लोगों को याद होगा कि सोनिया गांधी के खिलाफ सिर मुंडाकर, जमीन पर सोने की संसद में घोषणा करने वाली सुषमा स्वराज का आगे बढऩा उस नफरत के चलते ही खत्म हो गया था, और जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने और उन्हें संसद के भीतर अपने से सीनियर सुषमा स्वराज को सोनिया-मंत्रालय देने की मजबूरी न रही, तो सुषमा स्वराज एकदम से हाशिए पर चली गई थीं। घाघ नेता अपने सैनिकों को इसी तरह छोटे-छोटे मोर्चो पर झोंक देते हैं। नरेन्द्र मोदी ने स्मृति ईरानी को केंद्र सरकार में जाने कौन सा मंत्रालय दिया है और असल में अमेठी-रायबरेली का मंत्री बनाया है। यह सिलसिला राहुल-सोनिया के महत्व को बढ़ाने का है, और स्मृति ईरानी की राजनीति को सीमित समेट देने का भी है। इसी मोदी सरकार में नितिन गडकरी जैसे दिग्गज मंत्री भी हैं जो कि घटिया बातें करने के बजाय बेहतर काम करके दिखाते हैं, और नेहरू की भी तारीफ करने का हौसला रखते हैं। लेकिन स्मृति ईरानी की चर्चा करते हुए नितिन गडकरी की बात करना गडकरी के लिए बेइंसाफी की बात होगी। जिस किसी की राजनीति एक संसदीय सीट, या उस सीट के विपक्षी नेता तक सीमित रह जाती है, वे महज एक सांसद बनने के लायक रह जाते हैं, और एक वक्त शायद ऐसा आएगा भी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर के एक नौजवान का एक वीडियो सोशल मीडिया पर तैरा, और उसे एक खास विचारधारा की साइबर-फौज ने दूर-दूर तक पहुंचाया। इस विचारधारा के जाने-माने लोग भी इस पर टूट पड़े क्योंकि इसमें मुस्लिम दिखता यह नौजवान अपना नाम राशिद खान बतलाते हुए यह कह रहा है कि श्रद्धा नामक युवती के 35 टुकड़े करके आफताब पूनावाला ने ठीक किया था, वह तो 35 की जगह 36 टुकड़े कर सकता है। अब एक हिन्दू लडक़ी के साथ ऐसा भयानक हैवानियत का काम करने वाले मुस्लिम युवक तो पकड़ाया जा चुका है, अब एक दूसरा मुस्लिम दिखता, अपना नाम राशिद खान बतलाता यह नौजवान उस लाश का एक टुकड़ा और करने की बात कर रहा है, तो यह बात देश में कई लोगों को लगातार फैलाने लायक लगी। दसियों हजार लोग अपनी इस ड्यूटी पर जुट गए। अब एक दिक्कत आ गई, उत्तरप्रदेश के योगीराज की पुलिस के बुलंदशहर के एसएसपी ने एक वीडियो पोस्ट करके कहा कि सोशल मीडिया पर तैर रहे इस नौजवान के वीडियो की जांच की गई, तो वह कोई राशिद खान नहीं, बुलंदशहर का विकास नाम का नौजवान निकला जिसके खिलाफ पहले से जुर्म के पांच मामले दर्ज हैं। इसे झूठ फैलाने और साम्प्रदायिकता के लिए गिरफ्तार भी कर लिया गया है। लेकिन इसके पहले जैसी कि उम्मीद थी मुस्लिमविरोधी मानसिकता वाले दसियों हजार लोग ट्विटर पर, और शायद लाखों लोग वॉट्सऐप पर फैला चुके हैं, और नफरत फैलाने के इस यज्ञ में वे अपनी आहुति दे चुके हैं।
यहां पर सवाल यह उठता है कि दिल्ली के मजदूर बाजार में तीन सौ रूपये रोजी पर काम करने वाला यह हिन्दू नौजवान क्योंकर अपने को राशिद खान बताता है, और हिन्दू लडक़ी की लाश के और अधिक टुकड़े करने की वकालत करता है? यह सब उस वक्त हो रहा है जब गुजरात में चुनाव हैं, वहां पर ध्रुवीकरण का हाल यह है कि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह कल ही वहां जाकर 2002 में सिखाए गए सबक के बाद की शांति गिना रहे हैं। इसी वक्त एक साजिश के तहत ऐसा वीडियो बनाया जाता है, विकास कुमार मुस्लिम हुलिए सरीखी दाढ़ी बना लेता है, अपना नाम राशिद खान रख लेता है, और देश के आज के एक सबसे हिंसक जुर्म की वकालत करते हुए उसे और आगे बढ़ाने की बात करता है। दो-तीन दिनों के भीतर यह वीडियो फर्जी साबित हो गया, लेकिन बुलंदशहर के एसएसपी का खंडन का वीडियो तो उन जगहों तक पहुंच नहीं सकेगा जहां तक विकास उर्फ राशिद खान के वीडियो को समर्पित या भत्ताभोगी साइबर-फौज पहुंचा चुकी है। जब तक सच जूतों के फीते बांधता है, तब तक झूठ शहर के दो फेरे लगा चुका रहता है। और जब देश की मानसिकता को सोच-समझकर, बड़ी साजिश और बड़ी कोशिश से साम्प्रदायिकता के लिए उपजाऊ जमीन बनाया जा चुका है, तो फिर अफवाहों को यह जमीन सोखने के लिए उसी तरह तैयार रहती है जिस तरह जून की जमीन पहली बारिश को सोखने तैयार रहती है। क्या इस वीडियो को महज संयोग कहा जा सकता है कि यह गुजरात चुनाव के ठीक पहले आया है, हिन्दी में बना हुआ है, इसका झूठ लोगों को बड़ी आसानी से समझ पड़ रहा है, और यह मुस्लिमों के खिलाफ दहशत और नफरत दोनों फैला रहा है? इस सिलसिले में मासूम कुछ भी नहीं है, हो भी नहीं सकता। जब देश में एक विचारधारा को किसी भी कीमत पर आगे बढ़ाने के लिए, किसी एक मजहब को किसी भी कीमत पर पीछे धकेलने के लिए समर्पित कार्यकर्ता और भाड़े के भोंपू दोनों ही अपार संख्या में मौजूद हैं, तो फिर धार्मिक ध्रुवीकरण करके लोकतांत्रिक चुनावों को धार्मिक जनमतसंग्रह क्यों न बना दिया जाए, यह तो एक बड़ा आसान काम है। जब विकास पर भरोसा न हो, तो फिर उसे राशिद खान नाम का खूनी खलनायक बनाकर पेश किया जा सकता है, और शायद वही हुआ भी है। ऑल्टन्यूज नाम की जिस फैक्टचेक वेबसाईट के दो संस्थापकों में से एक को अभी महीनों तक तरह-तरह के फर्जी मामले गढक़र बिना जमानत जेल में रखा गया था, और जिसे दिल्ली की एक अदालत ने जमानत देते हुए पुलिस को फटकार लगाई थी, उसने इस ताजा झूठ की सिलसिलेवार जांच करके सामने रखा है कि विकास के राशिद खान बनकर इस हिंसा की बात को सोशल मीडिया के किन प्रमुख लोगों ने, भाजपा के किन दिग्गज लोगों ने, किन-किन तथाकथित पत्रकारों ने हाथोंहाथ लिया और आगे बढ़ाया। यह इस देश की अदालत को सोचना है कि जब देश की सरकारें ऐसे संगठित और साजिश वाले जुर्म के खिलाफ कोई असरदार कार्रवाई करना नहीं चाहती हैं, तब अदालत का क्या जिम्मा बनता है? ऐसे मामलों की सुनवाई की नीयत अगर अदालत की सचमुच ही होगी, तो उसे कटघरे के लिए किसी स्टेडियम का इस्तेमाल करना होगा, और सोशल मीडिया के नफरतजीवी लोगों को हांककर वहां लाना होगा। और अगर ऐसी साजिशों और उन्हें बढ़ावा देने का यह सिलसिला इसी तरह चलने देना है, तो फिर लोकतंत्र और इंसानियत से बचने की उम्मीद करना बेकार होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया का एक देश ऐसा है जहां की टीम मैच जीतती है, तो भी वह देश जीतता है, और उसकी टीम अगर हार जाती है, तो भी वह देश जीतता है। इसका नजारा कतर में चल रहे विश्वकप फुटबॉल में अभी देखने मिला जब जापान में एक दिग्गज देश जर्मनी पर जीत पाई, और जापानी प्रशंसकों ने जीत के जश्न को तब तक मनाना शुरू नहीं किया जब तक उन्होंने पूरा स्टेडियम साफ नहीं कर दिए। जहां मैच खत्म होने की सीटी बजते ही खेल प्रशंसक उत्साह से हिंसा तक कई किस्म से जश्न मनाना शुरू कर देते हैं, जापानी दर्शकों ने आदतन कचरे की थैलियां निकालीं, और तमाम दर्शकों के फेंके गए खाने के पैकेट और दूसरे चीजों का कचरा बंटोरना शुरू कर दिया। जब स्टेडियम पूरा साफ हो गया, तब उन्होंने इस बड़ी जीत का जश्न मनाना शुरू किया। लोगों ने याद किया कि चार बरस पहले रूस में हुए विश्वकप में जब उनकी टीम बेल्जियम से हारी थी, तब भी जापानी दर्शकों ने ठीक इसी तरह स्टेडियम साफ किया था। जापानी बच्चों को बचपन से ही स्कूल के क्लासरूम और बरामदे साफ करना सिखाया जाता है, और वहां की स्कूलों का यह आम नजारा रहता है कि अपने इस्तेमाल की जगहों को साफ करना सीखा जाए, और रोजाना किया जाए। जापानी जिंदगी के इस तौर-तरीके पर फख्र भी करते हैं, और असल जिंदगी में इस पर सौ फीसदी अमल भी करते हैं।
जो लोग फुटबॉल मैच देखने आठ हजार किलोमीटर से अधिक का सफर करके कतर आए हुए हैं, रहने की महंगी जगहों पर ठहरे हुए हैं, वे इतनी बड़ी जीत का रोमांच छोडक़र अपनी संस्कृति की इस बुनियादी सीख पर चल रहे हैं, तो वह एक बहुत बड़ा अनुशासन भी है। एक खूबी यह भी है कि वे अपनी सादगी और अपने अनुशासन को नुमाइश की तरह पेश नहीं कर रहे, उनका बस चलता तो वे अदृश्य रहकर भी यह सफाई कर लेते, लेकिन जब वह मुमकिन नहीं है, तो वे अपनी खुशी को स्थगित रखकर यह सफाई कर रहे हैं। इससे दुनिया के उन देशों को जरूर सीखना चाहिए जो अपनी मौजूद, या नामौजूद और महज मान ली गई संस्कृति पर गर्व करते हैं, अपने देश को सबसे अधिक गौरवशाली मानते हैं, और अपने को विश्वगुरू मानते हैं। एक वक्त जर्मनी में हिटलर ने अपनी नस्ल को दुनिया की सबसे अच्छी नस्ल माना था, और नस्लवादी हिंसा में उसने दसियों लाख लोगों का कत्ल किया था। कहीं कोई जाति अपने को सबसे अच्छा मानती है, तो कहीं कोई देश, और कहीं कोई धर्म। लेकिन लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि जिस किसी बात पर उन्हें गर्व है, क्या उनका अपना चाल-चलन, उनका व्यवहार उस गर्व के लायक है? हिन्दुस्तान के लोगों को अब यह बात भूल चली होगी कि कुछ बरस पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश में सफाई अभियान शुरू किया था, और उनके सहित देश के तमाम लोग झाड़ू लिए हुए सडक़ों पर पिल पड़े थे, जहां सडक़ें चकाचक थीं, वहां भी चुनिंदा साफ-सुथरा कचरा लाकर बिखेरा गया था, ताकि कैमरों के सामने उसे साफ किया जा सके। एक वीडियो तो ऐसा भी था जिसमें मोदी खुद कचरे का बोरा टांगे हुए किसी समुद्रतट पर कचरा बीनते दिख रहे थे। लेकिन कुछ महीनों के भीतर यह सिलसिला इतिहास बन गया। यह मानो काठ की हांडी में पकाया गया खाना था, और काठ, यानी लकड़ी, की हंडी बार-बार तो चूल्हे पर चढ़ती नहीं। नतीजा यह हुआ कि देश अब पहले के मुकाबले और अधिक गंदा है, लेकिन अब कोई सफाई की चर्चा भी नहीं करते, और तो और सफाई के इस इतिहास की सालगिरह भी नहीं मनाते। असल और दिखावे में यह एक बड़ा फर्क होता है कि कैमरे हटने के साथ-साथ दिखावा घर चले जाता है, और असल खड़े रहता है, कोई जश्न भी शुरू करने का जायज मौका रहने पर भी स्टेडियम साफ कर लेने तक। अपने ही भाड़े के कैमरों के सामने दिखावे के लिए इतिहास में एक बार सफाई करने वाला मुल्क विश्वगुरू नहीं हो जाता।
हिन्दुस्तान में तो लोगों का गंदगी करने का सिलसिला उनकी आर्थिक ताकत के अनुपात में रहता है। जो जितनी अधिक खरीदी कर सकते हैं, जितनी अधिक खपत कर सकते हैं, वे उसी अनुपात में कचरा पैदा करते हैं, और बिखराते हैं। दूसरी दिलचस्प बात इस विश्वगुरू के साथ यह है कि इसके सबसे संपन्न, और आमतौर पर सवर्ण भी, तबके का यह मानना है कि उसे दलित तबके के सफाई कर्मचारी दुनिया खत्म होने तक हासिल रहेंगे ही। अपनी कमाने और गंदगी फैलाने की क्षमता से अधिक भरोसा उन्हें दलितों की मौजूदगी पर है, और उन्हें यह पक्का भरोसा है कि दलित गटर में डूब-डूबकर कचरा साफ करने के लिए मौजूद रहेंगे, नालियों में तो वे उतरे ही रहेंगे, और घूरे के ढेरों पर हिन्दुस्तानी गरीब कचरा छांटते हुए इस पहाड़ को कम करते रहेंगे। सफाई करने वालों की अनंतकाल तक मौजूदगी का इतना पक्का भरोसा करने के लिए इस देश को विश्वगुरू होना तो जरूरी है ही। अगर किसी समाजविज्ञानी प्रयोग की तरह एक पखवाड़े कचरा साफ करना बंद हो जाए, गटर और नालियों को साफ करना बंद हो जाए, तो शायद विश्वगुरू-जमात के लोग एक बार यह सोचने को मजबूर होंगे कि अगर यह पखवाड़ा कुछ महीनों खिंच गया तो क्या होगा?
इस विश्वगुरू के साथ दिक्कत यह है कि इसने अपने इतिहास के और भी पहले के पौराणिक काल से लेकर अब तक झूठे गौरव के इतने सारे पेशेवर गवाह खड़े कर लिए हैं कि इसे सचमुच के किसी गौरव की कमी भी नहीं खलती। जब लोगों के पास अपना गढ़ा हुआ इतिहास हो, उसकी कहानियां भी अपने मनपसंद किरदारों को लेकर गढ़ी गई हों, इतिहास की ऐसी तमाम कहानियों को खारिज करने की भी ताकत हो जो कि बहुत गौरवशाली नहीं लगतीं, तो फिर ऐसे में अपनी खुद की नजर में अपने को विश्वगुरू बनाने का यह जोश कोई ठंडा नहीं कर सकते। कैमरों से परे हिन्दुस्तानी उतने ही गंदे हैं जितने गंदे वे हमेशा से रहते आए हैं, और यह गंदगी ताजा शहरी संपन्नता के साथ-साथ बढ़ती चल रही है। लेकिन इसी के साथ-साथ, इसी अनुपात में गर्व भी बढ़ते चल रहा है। जिस विश्वगुरू की अपनी जिंदगी देश के दलितों की आजीवन उपलब्धता के भरोसे पर टिकी है, उस विश्वगुरू के पास जापान जैसे देश से, जापानियों जैसे लोगों से भी सीखने का कुछ नहीं है। स्वघोषित विश्वगुरू सीखने से ऊपर उठ चुके होते हैं, कोई शिष्य रहकर ही सीख सकते हैं, गुरू बनकर नहीं, और हिन्दुस्तान तो आज विश्वगुरू है! उसका भला सीखने से क्या लेना-देना? उसके पास तो एक ऐसा पुराना इतिहास है जिसने यह तय कर रखा है कि कौन सी जातियां अपनी तमाम आने वाली पीढिय़ों सहित गटर साफ करने में लगी रहेंगी ताकि लोग इत्मिनान से गंदगी फैला सकें। इसलिए जापानियों को अगर दुनिया को सिखाने की कोई उम्मीद भी है, तो उन्हें कहीं और जाना चाहिए, हिन्दुस्तानी सीखने से बहुत ऊपर जा चुके हैं, विश्वगुरू को भला कोई क्या सिखाएंगे? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश का चुनाव आयुक्त नियुक्त करने की प्रक्रिया पर जनहित के कई मुद्दे उठाने वाले देश के एक प्रमुख वकील प्रशांत भूषण, और कई दूसरे लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की है, और इस सुनवाई के चलते केन्द्र सरकार ने एक अफसर की रिटायर होने की अर्जी मंजूर की, और खड़े-खड़े उसे चुनाव आयुक्त बना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर चल रही सुनवाई के बीच ऐसी नियुक्ति से असहमति जताते हुए इसकी फाईल मंगवाई है कि यह देखा जा सके कि इस नियुक्ति में कुछ गलत तो नहीं हुआ है। केन्द्र सरकार के वकील ने अदालत की इस दिलचस्पी से असहमति जताई लेकिन अदालत ने उसे दरकिनार कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधानपीठ इस व्यापक महत्व के मुद्दे पर दायर की गईं कई याचिकाओं को जोडक़र सुनवाई कर रही है। इसमें इस बुनियादी बात को भी तय किया जाना है कि आज केन्द्र सरकार जिस तरह अपने पसंदीदा किसी रिटायर्ड अफसर को चुनाव आयुक्त बना देती है वह मनमानी किस तरह खत्म की जा सकती है। आज देश के इस एक सबसे नाजुक संवैधानिक दफ्तर में पसंदीदा लोगों को बिठाकर केन्द्र सरकार अपनी पसंद के चुनावी और राजनीतिक फैसलों की उम्मीद कर सकती है, और यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। लंबे समय से यह मांग की जा रही है, और विधि आयोग ने बहुत पहले से यह सिफारिश भी की है कि चुनाव आयुक्त छांटने के लिए कमेटी में नेता प्रतिपक्ष भी रहना चाहिए, ताकि सरकार अपनी मनमानी न कर सके। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बार-बार इन बातों को लिखते हैं कि रिटायरमेंट के बाद के ऐसे वृद्धावस्था पुनर्वास के लिए बहुत से अफसर आखिरी के कुछ बरसों में सत्ता की चापलूसी में लग जाते हैं, इसके साथ-साथ वे पुनर्वास के कार्यकाल में इस चापलूसी को जारी रखने का भरोसा भी दिलाते हैं। इसलिए हम बार-बार यह सुझाते आए हैं कि जिन राज्यों में कोई अफसर या जज काम कर चुके हैं, उन राज्यों में उन्हें कोई पुनर्वास नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर काबिल अफसरों और जजों की एक लिस्ट बननी चाहिए, और अलग-अलग प्रदेशों में उसमें से अपने प्रदेश के बाहर के लोगों को छांटा जाना चाहिए। ऐसा ही केन्द्र सरकार की सभी संवैधानिक नियुक्तियों पर होना चाहिए, बिना नेता प्रतिपक्ष या मुख्य न्यायाधीश के ऐसी नियुक्तियां नहीं होनी चाहिए।
कल सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर दिलचस्प बहस चली और जजों ने कहा कि चुनाव आयोग में टी.एन.शेषन जैसे व्यक्ति रहने चाहिए ताकि जरूरत पडऩे पर प्रधानमंत्री के खिलाफ भी कोई कार्रवाई करनी हो तो आयोग में उसका हौसला हो। लोगों को याद होगा कि टी.एन.शेषन एक रिटायर्ड कैबिनेट सेक्रेटरी थे, और उन्हें प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया था। वे छह बरस इस कुर्सी पर रहे, और उन्होंने यह साबित कर दिया कि हिन्दुस्तान जैसे अराजक चुनावों वाले देश में चुनाव किस तरह ईमानदारी से करवाए जा सकते हैं, और इस संवैधानिक ओहदे की ताकत कितनी होती है। लोगों को शेषन की कही वह बात याद होगी कि वे नाश्ते में नेताओं को खाते हैं। शेषन का मामला कुछ अधिक नाटकीय था, उनके तौर-तरीके अधिक तानाशाह से थे, फिर भी उन्होंने चुनाव आयोग की सत्ता की इस लोकतंत्र में पहली बार स्थापित किया। लोग अब रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग जैसी बहुत सी जगहों पर बिना रीढ़ के लोगों की आवाजाही देख रहे हैं, और ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह शुरुआती रूख हौसला बढ़ाता है कि चुनाव आयोग में देश के सबसे अच्छे लोगों को ही लाया जाना चाहिए, और इसके लिए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए। मोटेतौर पर अदालत का रूख सिर्फ सरकार की मर्जी के चुनाव आयुक्त बनने के खिलाफ है, और भारत जैसे लोकतंत्र का यह लंबा तजुर्बा है कि किसी भी संवैधानिक पद को सिर्फ सरकार की मर्जी पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
भारत में केन्द्र हो या राज्य, सरकार निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के बहुमत से बनती हैं, और उस पर पांच बरस बाद चुनाव में जाने का एक दबाव भी रहता है। ऐसे में उसके फैसले हर वक्त ही चुनावी दबाव के रहते हैं, और सच तो यह है कि किसी भी सरकार को बिना चुनावी दबाव के पांच बरस भी नहीं मिलते हैं क्योंकि हर एक-दो बरस में इस देश में कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। ऐसे में केन्द्र और राज्यों में सभी संवैधानिक या इस किस्म के दूसरे पदों पर नियुक्तियों में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, और सबसे बड़ी अदालत के मुख्य न्यायाधीश की एक कमेटी होनी चाहिए, और इसमें खुलकर चर्चा के बाद नाम तय होना चाहिए। भारत में किसी भी सरकार और किसी भी निर्वाचित नेता को इतने अधिकारों के लायक नहीं माना जाना चाहिए कि वे अपने विवेक से ऐसे संवैधनिक पदों को तय कर लें। ऐसे फैसले एक व्यवस्था के तहत होने चाहिए, पारदर्शी तरीके से होने चाहिए, और अधिक बेहतर तो यह होगा कि इसके लिए लोगों की अर्जियां भी बुलाई जानी चाहिए। अभी सुप्रीम कोर्ट में यह मामला बहुत शुरुआती बहस देख रहा है, और कई बार जुबानी जमाखर्च फैसलों से बिल्कुल अलग भी रह जाती है, फिर भी जजों का यह रूख उम्मीद बंधाता है कि खुद प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी का चुनावी भविष्य जिस कुर्सी से प्रभवित हो सकता है, उस कुर्सी का फैसला अकेले प्रधानमंत्री या उनकी सरकार न लें। इस पर बहस दिलचस्प होगी, और हमारी उम्मीद है कि सरकार की लुकाछिपी अदालत में उजागर हो जाएगी, और देश को निष्पक्ष और ईमानदार चुनाव आयुक्त मिल सकेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कतर में हो रहे विश्व कप फुटबॉल में अपने पहले मैच के पहले ईरान की टीम ने राष्ट्रगान नहीं गाया। आयोजकों की तरफ से हर टीम के देश का राष्ट्रगान बजाया जाता है, और परंपरागत रूप से सभी खिलाड़ी उसे गाते भी हैं। लेकिन ईरान में पिछले कुछ महीनों से जिस तरह जनता सरकार के खिलाफ सडक़ों पर है, मानवाधिकार आंदोलन पर जिस तरह सरकारी जुल्म टूट पड़े हैं, और करीब चार सौ मौतों का पिछले कुछ महीनों का ही अंदाज है, उसे देखते हुए ईरानी फुटबॉल टीम ने अपने देश की जनता का साथ देने और सरकार का विरोध करने का यह प्रतीकात्मक तरीका निकाला है। जाहिर है कि वे अपने देश की टीम बनकर वहां उतरे थे, न कि देश की सरकार की टीम बनकर।
आज दुनिया में कई जगहों पर सरकारों के खिलाफ लोगों के आंदोलन चलते रहते हैं। जो लोकतांत्रिक देश हैं, वहां पर भी देश या प्रदेशों की सरकारें अपनी नीतियों और फैसलों के खिलाफ किसी जनआंदोलन को बर्दाश्त नहीं करतीं। अब यह उस देश में लोकतंत्र की मजबूती या कमजोरी की बात रहती है कि वहां पर जनआंदोलन कितने जिंदा रह पाते हैं। ईरान के बारे में जो कुछ भी सुनाई पड़ता है, वहां की सरकार एक धर्म की, कट्टर और दकियानूसी सरकार है, और उसका मानवाधिकार का बहुत ही खराब रिकॉर्ड रहा है। जो फुटबॉल टीम आज प्रतीकात्मक विरोध में राष्ट्रगान गाए बिना खेल रही है, उसकी घरवापिसी के बाद उसकी गिरफ्तारी हो सकती है, और उसे सजा हो सकती है। ईरान जैसा इस्लामिक देश ही क्यों, आज तो भारत जैसे लोकतांत्रिक इतिहास वाले देश को देखें, तो यहां पर भी अगर कोई टीम अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में इस तरह का प्रतीकात्मक विरोध करेगी, तो उसके देश लौटने के पहले ही सोशल मीडिया पर दसियों लाख लोग उसे गद्दार और देशद्रोही करार देंगे, और उसके लिए कैद की मांग करेंगे, एयरपोर्ट पर कालिख लिए उनका इंतजार करेंगे। जब दुनिया के ऐसे लोकतांत्रिक देश, जहां पर कि संवैधानिक संस्थाओं के ढांचे तो हैं, वहां पर भी जब लोगों के लिए अहिंसक और शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध मुमकिन नहीं रह गया है, वह सजा का सामान बन गया है, तब ईरान की फुटबॉल टीम की बहादुरी की तारीफ की जानी चाहिए कि एक धर्मान्ध तानाशाह देश से कुछ दिनों के लिए बाहर आने पर भी उन्होंने ऐसा हौसला दिखाया है जो कि घर लौटने पर उनके लिए कैद और सजा का सामान बनना तय है।
ईरान के खिलाडिय़ों के इस हौसले से दूसरे देशों के और लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि ईरान के मुकाबले अधिक आजादी वाले देशों को अगर अपनी जमीन पर हक अधिक मिलते हैं, तो उनकी जिम्मेदारी भी अधिक होती है। हिन्दुस्तान में खासकर यह देखने में आ रहा है कि सरकारों के जुल्म के सामने लोकतांत्रिक हौसले घुटने टेक दे रहे हैं। जुल्म का सिलसिला इतना लंबा है कि सामाजिक आंदोलनकारियों को कई-कई बरस बिना जमानत जेल में रखा जा रहा है। यह जरूर है कि कुछ महीनों के भीतर जिस तरह ईरान में सैकड़ों लोगों को सरकारी दस्तों ने मार डाला है, उतनी बुरी नौबत हिन्दुस्तान में नहीं है, लेकिन दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों के लोगों को यह समझना चाहिए कि ईरान की अवाम के मुकाबले आज वे कितने महफूज बैठे हुए हैं, और कट्टरपंथी और जुल्मी ईरान सरकार के मुकाबले वहां की जनता किस हौसले से खड़ी है। अब या तो एक बात यह भी हो सकती है कि जुल्म का सिलसिला जब हद पार कर जाता है तब जनता उठ खड़ी होती है। ईरान में जिस तरह हिजाब न पहनने, या खिसक जाने पर एक लडक़ी को सरकारी नैतिक-पुलिस ने कैद में मार ही डाला, और उसी को एक प्रतीक मानकर ईरानी महिलाओं के आजादी के हक के लिए जिस तरह वहां का हर तबका उठकर खड़ा हो गया है, वह एक बहुत ही अभूतपूर्व नौबत है, और इससे दुनिया भर की अलोकतांत्रिक सरकारों को जाग जाना चाहिए। जागना तो सरकारों से परे दुनिया भर की जनता को भी चाहिए कि ईरानी जनता हक की लड़ाई की जैसी मिसाल बनकर उभरी है, उसे देखकर दूसरे देशों में भी लोगों को सीखना चाहिए, अपनी सामाजिक जवाबदारी पूरी करनी चाहिए।
जिस तरह सरकारें एक-दूसरे के जुल्म देखकर जुल्म की नई तरकीबें सीखती हैं, उसी तरह जनता को भी लोकतांत्रिक आंदोलनों की दूसरी मिसालें देखकर अपने भीतर ऐसे आंदोलन का हौसला पैदा करना चाहिए। एक तरफ हिन्दुस्तान में अंग्रेजों से अहिंसक लड़ाई लड़ रहे गांधी और उधर अमरीका में मानवाधिकार के लिए लड़ रहे मार्टिन लूथर, किंग जूनियर के सामने स्थितियां बिल्कुल अलग-अलग थीं, दोनों की कभी मुलाकात नहीं हुई थी, लेकिन किंग ने गांधी की अहिंसा की सोच को पढक़र अपना एक रास्ता बनाया था, और लिखा था कि गांधी उनके लिए राह दिखाने वाली रौशनी रहे। दो लोगों के बीच दुनिया में कोई बात होना भी जरूरी नहीं रहता, पाकिस्तान ने लड़कियों के पढऩे के हक के लिए कट्टरपंथी आतंकियों की गोलियां खाने वाली मलाला हो, या विकसित देशों के बीच से पर्यावरण बचाने के लिए लडऩे वाली ग्रेटा थनबर्ग हो, उनकी मिसालें ही दुनिया में बहुत से लोगों को हौसला देती हैं, राह दिखाती हैं। ईरान की फुटबॉल टीम और ईरान में देश भर में सडक़ों पर आंदोलन कर रही जनता आज दुनिया भर के सामने एक बड़ी मिसाल हैं, और दुनिया को इनसे सीखने का मौका चूकना नहीं चाहिए। दुनिया की सरकारें तो कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जाल के चलते एक-दूसरे के खिलाफ कुछ नहीं बोलती हैं, लेकिन आम जनता को तो दूसरे देश की लोकतांत्रिक अवाम के साथ खड़ा रहना आना चाहिए। हिन्दुस्तान की सरकार और हिन्दुस्तान की जनता, इन दोनों की सोच भी अलग-अलग हो सकती है, और दोनों के तरीके भी अलग-अलग हो सकते हैं। जनता को अपने देश की सरकार से परे अपनी खुद की अंतरराष्ट्रीय नैतिक जिम्मेदारी समझनी चाहिए।
लिव-इन-रिलेशनशिप में एक मुस्लिम ने हिन्दू लडक़ी के टुकड़े-टुकड़े कर दिए, तो हिन्दू समाज का मुस्लिमविरोधी तबका इस पर उबला हुआ है। जवाब में बहुत से समझदार लोगों ने ऐसी कई खबरें पोस्ट की हैं जिनमें किसी हिन्दू ने किसी गैरहिन्दू जीवनसाथी को मारा है। ऐसी खबरें तलाशने के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ी, ये खबरें इंटरनेट पर खूब अच्छे से सभी वेबसाईटों पर आई हुई हैं, और उनके सच होने में होने कोई शक नहीं है। अब इस एक ताजा घटना को लेकर इस किस्म की या दूसरी पारिवारिक हिंसा की और बहुत सी खबरें बढ़-चढक़र सामने आ रही हैं। मथुरा में हाईवे के किनारे एक सूटकेस में एक युवती की खून से सनी लाश मिली, और पुलिस ने न सिर्फ दिल्ली की इस लडक़ी की शिनाख्त कर ली बल्कि यह भी पता लगा लिया कि लडक़ी ने मर्जी से शादी की थी, और उसकी मां की मदद से बाप ने अपनी लाइसेंसी रिवाल्वर से उसे मार डाला, और सूटकेस में बंद करके हाईवे किनारे फेंक आए। लाश ठिकाने लगाने में मां भी बराबरी से साथ गई थी। परिवार में सभी हिन्दू थे, और जिस लडक़े से उसने शादी की थी, वह भी हिन्दू ही था, बस अलग जाति का था।
परिवारों के भीतर जितनी भयानक हिंसा हो रही है, वह दिल दहलाती है और चौंकाती भी है। अपनी ही औलाद को, या अपने ही पति-पत्नी को इस बुरी तरह मारना, और खबरों से यह जानकारी पाने के बाद मारना कि ऐसे तमाम कातिल जल्द ही पकड़ में आ जाते हैं, क्योंकि पुलिस किसी लाश के मिलने पर सबसे पहले आसपास में कातिल ढूंढना शुरू करती है। और अब मोबाइल फोन, सीसीटीवी रिकॉर्डिंग की मेहरबानी से इस किस्म के तमाम जुर्म पकडऩा आसान हो गया है। पारिवारिक या पहचान के, प्रेमसंबंधों के कातिलों का पकड़ा जाना बस दो-चार दिनों की बात होती है, लेकिन लोग हैं कि जाने किस अतिआत्मविश्वास में ऐसे कत्ल करके बैठे रहते हैं। अभी चार दिन पहले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक दुकानदार नौजवान ने अपनी प्रेमिका के लाखों रूपये शेयर मार्केट में गंवा देने के बाद उसके पैसे मांगने पर अपनी दुकान में उसका कत्ल कर दिया, और फिर अपनी ही कार में उस लाश को रखकर शहर में ही एक जगह उसे छोड़ दिया, और दुकान चलाने लगा। अब इसमें लाश की बरामदगी और इस नौजवान की गिरफ्तारी में एक-दो दिन से अधिक लगने भी नहीं थे, और यह गिरफ्तारी तेजी से हो गई, लेकिन दूसरों की खबरों को पढऩे वाले हत्यारे भी क्या सोचकर ऐसा गेम करते हैं जिसमें उनका गिरफ्तार होना महज वक्त की बात रहती है, यह हैरान करने वाली बात है।
हिन्दुस्तान इतना बड़ा देश है कि यहां पर इस किस्म के जुर्म को किसी जाति या धर्म से जोडक़र देखना नासमझी होगी। हर धर्म और जाति में ऐसे मुजरिम मिल रहे हैं, और जुर्म के पहले तक के तनातनी के रिश्ते मिल रहे हैं। अभी जब प्रेमिका की लाश के 35 टुकड़े करके नया फ्रिज खरीदकर उसमें भरकर रखा गया, और रोज दो-दो टुकड़े जंगल में फेंके गए, तो इस खबर को पढक़र साम्प्रदायिक लोगों ने बड़े फ्रिज को ऊंचे कद की हिन्दू लडक़ी से जोडक़र मुस्लिम समुदाय पर हमला किया, तो कई लोगों ने ऐसे लतीफे गढ़े कि कोई बीवी रोज झगड़ा करती थी, लेकिन जब से उसका पति घर में एक बड़ा फ्रिज लेकर आया है, तब से वह चुप रहने लगी है। पारिवारिक या प्रेमसंबंधों की हिंसा को मजाक का सामान बना लेना यही बताता है कि समाज में लोग हिंसा के आदी हो चल रहे हैं, करने के न सही, तो कम से कम देखने और बर्दाश्त करने के। जिस समाज में बलात्कार की घटनाएं लोगों को चौंकाना बंद कर चुकी होती हैं, वहां पर बलात्कार को लेकर लतीफे बनने लगते हैं। सोशल मीडिया की मेहरबानी से हिन्दुस्तान अपने लोगों की ऐसी हर किस्म की बीमार और हिंसक सोच का गवाह बनते चल रहा है।
अब इस चर्चा में सोचने की एक बात यह है कि परिवार के भीतर के रिश्ते हों, या फिर प्रेमसंबंध हों, लोग अपने भूतकाल के साथ जीना क्यों नहीं सीख पाते? अगर बालिग औलाद है, और वह अपनी मर्जी से शादी करके कहीं चली गई है, तो फिर मां-बाप को उसमें खानदान की इज्जत का मुद्दा बनाकर खूनखराबा क्यों करना चाहिए? इसी तरह प्रेमसंबंध जब तक चले, तब तक चले, उसके बाद अगर नहीं निभता है, तो किसी को मारने पर क्यों उतारू होना चाहिए? लोग दरअसल अपने भूतकाल के साथ जीना नहीं सीख पाते, फिर चाहे वह भूतपूर्व मालिक और भूतपूर्व नौकर का रिश्ता ही क्यों न हो। अच्छे-खासे पढऩे-लिखने वाले लोग भी अपनी बकाया जिंदगी अपने भूतपूर्व मालिक या नौकर के खिलाफ लिखने, बोलने, और भडक़ाने को समर्पित कर देते हैं। लोग भूतकाल की फिक्र में इतने डूब जाते हैं कि वे जुर्म के बाद के अंधेरे भविष्य की भी नहीं सोच पाते। यह सिलसिला लोगों के मानसिक रूप से विकसित न होने की वजह से भी होता है। वे पढ़-लिख तो लेते हैं, पढ़े-लिखे लोगों सरीखी जिंदगी भी गुजारते हैं, लेकिन उनमें समझ नहीं आ पाती। कभी वे परिवार की साख के नाम पर ऑनरकिलिंग पर उतारू हो जाते हैं, तो कभी रिश्तों पर पूर्णविराम लगाकर नई जिंदगी शुरू करने के बजाय बाकी की जिंदगी जेल में गुजारने जैसा काम कर बैठते हैं।
लोगों को पहले तो समाज, फिर अपने आसपास के दायरे, और फिर खुद के बारे में यह सोचना चाहिए कि क्या किसी भी वजह से कोई ऐसा जुर्म करना चाहिए जिससे कि बाकी की पूरी जिंदगी खुद जेल में रहें, और बाकी परिवार बर्बाद रहे?
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जिन दिनों इस जगह पर लिखने के लिए आसानी से कोई मुद्दा नहीं सूझता, अदालती खबरें एक अच्छा जरिया होती है। अदालतों में इतने किस्म के मामले पहुंचते हैं कि उनमें से बहुत से मामलों के मानवीय या लोकतांत्रिक, सरकारी या संवैधानिक पहलू कुछ न कुछ लिखने को मजबूर करते हैं। ऐसा ही एक मामला अभी सुप्रीम कोर्ट से आया है जिसमें राजस्थान हाईकोर्ट के एक फैसले पर रोक लगाई गई है। राजस्थान में बलात्कार के एक मुजरिम को नाबालिग लडक़ी से गैंगरेप के मामले में बीस साल की कैद हुई थी, और सजा शुरू होते ही उसकी पत्नी ने बच्चा पैदा करने के अपने मौलिक अधिकार का हवाला देते हुए पति को एक महीने की पैरोल देने की याचिका अदालत में लगाई थी। मामला राजस्थान हाईकोर्ट में पन्द्रह दिन की पैरोल के साथ निपटाया गया। यह तर्क एक हिसाब से सही था क्योंकि बीस बरस की कैद काटकर निकलने के बाद यह मुजरिम अपनी पत्नी के साथ इस उम्र में पहुंचा रहता कि उनके बच्चे शायद न भी हो पाते, इसलिए पत्नी की यह अपील तर्कसंगत थी। लेकिन अभी सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार में इसके खिलाफ तर्क दिया कि राजस्थान के पैरोल नियमों के मुताबिक रेप या गैंगरेप के मामलों में पैरोल नहीं दिया जा सकता। इस तर्क के बाद सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी है।
हमने पहले भी कई मौकों पर यह बात लिखी है कि जेल में बंद कैदी के जीवनसाथी के अधिकारों को रोकना जायज नहीं होगा, और उनके हक का ख्याल रखते हुए कैद के दौरान भी जीवनसाथी को एक न्यूनतम देह-संबंध बनाने की सहूलियत मिलनी चाहिए। हम कई बरस से इस बारे में लिखते आ रहे थे, और अभी सितंबर 2022 में पंजाब देश का पहला ऐसा राज्य बना है जिसने सजायाफ्ता मुजरिमों को अच्छे चाल-चलन के आधार पर उनके जीवनसाथी के साथ देह-संबंध बनाने की छूट दी है, और जेलों को इसका इंतजाम करने को कहा है। दुनिया के दर्जन भर प्रमुख देशों में ऐसी छूट है, और इनमें पाकिस्तान तक शामिल है। पंजाब की तीन चुनिंदा जेलों से इसकी शुरुआत हो रही है, और जेल की सहूलियतों के मुताबिक दो महीनों में एक बार दो घंटे के लिए अच्छे चाल-चलन वाले कैदियों को इसकी छूट मिलेगी। इससे वे जेल में अपना चाल-चलन बेहतर रख सकेंगे, और परिवार भी टूटने से बच सकेगा। जेलों में बंद महिलाओं को भी इसकी सहूलियत मिलने जा रही है। परिवार-मुलाकात नाम का यह कार्यक्रम कैदियों के जीवनसाथियों के संक्रामक रोग से मुक्त होने पर ही हो सकेगा।
राजस्थान का मामला इससे थोड़ा सा अलग भी है, और कुछ-कुछ इस किस्म का भी है। भारतीय न्याय व्यवस्था और सरकारों के अधिकारों के तहत एक कैदी को इंसान बने रहने की कितनी सहूलियत दी जा सकती है, दी जानी चाहिए, यह अदालतों और सरकार दोनों को अलग-अलग, और मिलकर भी तय करना होगा। हमारा यह मानना है कि सजा किसी को तकलीफ देने के अकेले मकसद से नहीं होने चाहिए। सजा का मकसद लोगों में सुधार की कोशिश होनी चाहिए, और यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि सजा के बाद लोगों को लौटकर अपने उसी परिवार में वापिस आना है, उसी समाज में जीना है। इन सब बातों को ध्यान में रखें, तो राजस्थान हाईकोर्ट का फैसला सही लगता है जिसने एक पत्नी के गर्भवती होने, और बच्चे पैदा करने के हक का सम्मान किया है। सुप्रीम कोर्ट ने अभी इस फैसले के खिलाफ कोई फैसला नहीं दिया है, महज उस पर रोक लगाई है, हो सकता है कि इस मामले में आखिरी फैसला हाईकोर्ट सरीखा ही आए। राजस्थान सरकार को भी यह समझने की जरूरत है कि अगर बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के मामलों में पैरोल न देने का नियम उसने बनाया हुआ है, तो क्या इससे सचमुच ही किसी कैदी में सुधार की संभावनाएं बढ़ जाती हैं? पंजाब में हमने बलात्कार के एक चर्चित बाबा, राम-रहीम को कई बार जेल से बाहर पैरोल पर आते देख लिया है। अगर राजस्थान सरकार पैरोल से मना करती है, तो भी वह पंजाब की परिवार-मुलाकात योजना की तरह की कोई सहूलियत शुरू कर सकती है जिससे कि मुजरिमों के जीवनसाथियों को उनके मौलिक अधिकार मिल सकें।
दरअसल जुर्म और सजा का सारा इंतजाम दुनिया के देशों में लोकतंत्र, मानवाधिकार, और सभ्यता के विकास से जुड़ा रहता है। जो देश इन बुनियादी मूल्यों के पैमानों पर कमजोर रहते हैं, वहां पर मौत की सजा भी दी जाती है, और कुछ अलोकतांत्रिक देशों में कैदियों के हाथ-पैर भी काटे जाते हैं। जैसे-जैसे देशों की सभ्यता विकसित होती है, वैसे-वैसे वहां पर लोगों के मौलिक अधिकारों की फिक्र बढ़ती है जिनमें कैदी भी शामिल होते हैं। भारत के सभी प्रदेशों को पंजाब की तरह परिवार-मुलाकात का इंतजाम करना चाहिए क्योंकि कैदियों के जीवनसाथियों को बिना किसी जुर्म के ऐसे अलगाव की सजा न मिले। यह अच्छा है कि राजस्थान का यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा हुआ है, और सुप्रीम कोर्ट के सामने आज यह मौका है कि वह राजस्थान सरकार के इस विरोध की रौशनी में पंजाब सरकार के उदार और मानवीय इंतजाम को भी परख सके, और पूरे देश के लिए एक सरीखी एक नीति बना सके। भारत सरीखे लोकतंत्र में बहुत से अदालती फैसले किसी एक छोटी सी अपील से शुरू होकर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच से निकलते हैं, और पूरे देश पर लागू होते हैं। भारत की जेलों में कैदियों की बदहाली की खबरें तो बहुत आती हैं, लेकिन अगर जेलों को सचमुच ही सुधारगृह बनाना है, तो कैदियों को, और उनके परिवारों को इंसान मानकर उन्हें कुछ हक देने भी पड़ेंगे।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने एक बार फिर भयानक साम्प्रदायिक बात सार्वजनिक रूप से कही, और सुप्रीम कोर्ट को आईना दिखा दिया कि उसकी कोई औकात भारतीय राजनीति में नहीं है। अभी कुछ वक्त पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नफरत की बातें करने वाले लोगों पर स्थानीय पुलिस अधिकारी खुद होकर मामले दर्ज करें, और अगर ऐसा नहीं किया गया तो उन अफसरों को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का दोषी माना जाएगा। अब गुजरात में हो रहे विधानसभा चुनाव प्रचार की रैली में असम मुख्यमंत्री ने कहा कि मोदी को जिताना बहुत जरूरी है, अगर वे नहीं जीते तो हर शहर में आफताब पैदा होगा। उन्होंने श्रद्धा हत्याकांड को लव-जिहाद का भयानक रूप बताते हुए कहा कि आफताब ने लव-जिहाद के नाम पर उसके 35 टुकड़े कर दिए और लाश फ्रिज में रखी। उन्होंने इसके अलावा भी इस किस्म की कई और बातें कहीं।
हर शहर में आफताब पैदा होने की यह चेतावनी एक खुली साम्प्रदायिक बात है क्योंकि हिन्दुस्तान में इस तरह की हत्या कई धर्मों के लोग करते आए हैं, और इसका मुस्लिम धर्म या उसके किसी रिवाज से कोई लेना-देना नहीं है। लव-जिहाद शब्द भी आक्रामक हिन्दुत्व के हिमायती लोगों का गढ़ा हुआ है जिसके बारे में केन्द्र सरकार ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में कहा है कि सरकार की भाषा में लव-जिहाद कोई शब्द नहीं है, और न ही केन्द्र सरकार की कोई एजेंसियां ऐसी भाषा का इस्तेमाल करती हैं। ऐसे में एक धर्म के लोगों के लिए सभी के मन में दहशत और नफरत भरने के लिए अगर चुनावी रैली में एक मुख्यमंत्री यह भाषण देता है कि मोदी को नहीं जिताया गया तो हर शहर में आफताब होगा, यह बात घोर साम्प्रदायिक भी है, घोर नफरत की भी है, दहशत पैदा करने की भी है, और सुप्रीम कोर्ट में हेट-स्पीच मामले में जो आदेश दिया है, यह उसके तहत कार्रवाई के लायक एकदम फिट मामला है। अब गुजरात की पुलिस से यह उम्मीद तो कोई कर नहीं सकते कि वह एक भाजपा मुख्यमंत्री के खिलाफ जुर्म दर्ज करेगी, लेकिन गुजरात या देश के दूसरे जगहों की धर्मनिरपेक्ष ताकतें जरूर इस बयान को लेकर सुप्रीम कोर्ट को याद दिला सकती हैं कि यह उसकी सोच-समझकर की गई तौहीन है, और इस अवमानना के खिलाफ अदालत को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। प्रेमिका या पत्नी को मारने का ऐसा हिंसक तौर-तरीका मुस्लिमों के एकाधिकार वाला कोई तरीका नहीं है, और न ही उनके धर्म के किसी रीति-रिवाज के मुताबिक यह कोई धार्मिक संस्कार है, हिन्दुस्तान में पिछले दशकों में लगातार हिन्दू-हत्यारों के किए हुए कई अलग-अलग किस्म के तंदूर हत्याकांड अच्छी तरह खबरों में छाए रहे हैं, और इस एक मुस्लिम हत्यारे की वजह से पूरे देश में दहशत फैलाना साम्प्रदायिक नफरत फैलाने के अलावा और कुछ नहीं है। लोगों को याद रखना चाहिए कि अभी पिछले ही पखवाड़े इसी वारदात वाली दिल्ली में एक मुस्लिम प्रेमिका द्वारा रिश्ता जारी रखने से मना करने पर उसके हिन्दू प्रेमी ने घर घुसकर उसकी हत्या कर दी, और एक-दो नहीं 9 गोलियां दागकर उसे छलनी कर दिया। तो क्या पूरे देश की मुस्लिम लड़कियों को ऐसे हिन्दू हत्यारे की दहशत दिखाई जाए?
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही अधिकतर मामलों में अपनी आंखों से कुछ देखने से इंकार कर रहे हैं। चुनाव आयोग तो केन्द्र सरकार के एक और विभाग की तरह काम कर रहा है, और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट खुद होकर कोई भी पहल करने से पूरी तरह पीछे हट चुका है। एक वक्त था जब सुप्रीम कोर्ट के कुछ जागरूक जज देश के जलते-सुलगते मुद्दों पर कोई पिटीशन न आने पर भी उनकी सुनवाई शुरू करते थे, लेकिन अब तो देश की सबसे बड़ी अदालत भी किसी पिटीशन के इंतजार में बैठी रहती है, फिर चाहे पूरे देश में आग लगती रहे। असम के मुख्यमंत्री का यह बयान एक कसौटी है कि अदालत अभी कुछ हफ्ते पहले के अपने खुद के फैसले की चेतावनी को लेकर कितनी गंभीर है। गुजरात वैसे भी एक पूरी तरह से हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण वाला राज्य बनाया जा चुका है, और वहां पहुंचकर हिन्दुओं को एक अकेले मुस्लिम हत्यारे की मिसाल देकर इस तरह धमकाना और मोदी के लिए वोट मांगना सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले से परे भी एक जुर्म है, और यह देखना है कि चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट किसी में लोकतंत्र की कोई जिम्मेदारी बची है या नहीं।
हिन्दुस्तानी चुनाव आमतौर पर यहां के नेताओं के मन में दबी-छुपी हिंसक कुंठाओं और नफरत को निकालने का एक मौसम रहता है। हर चुनाव कुछ न कुछ नेताओं की जुबान से लहूलुहान होते हैं, और ऐसा लगता है कि जनजीवन को, लोकतंत्र को, इंसानियत को लहूलुहान किए बिना इनकी जुबान को पहले से लगी हुई लहू की हवस पूरी नहीं होती है। चुनाव आयोग एक तरफ तो अंधाधुंध अधिकार अपने हाथ में रखे रहता है, और दूसरी तरफ ऐसी हिंसक और साम्प्रदायिक धमकी को अनदेखा करना वह एक धार्मिक जिम्मेदारी मानकर चल रहा है। हर कुछ दिनों में किसी न किसी नेता की ऐसी खूनी बात सामने आती है, और हिन्दुस्तान में एक ऐसा माहौल बन रहा है कि किसी पार्टी में ऊपर जाने के लिए, बहुसंख्यक मतदाताओं का दिल जीतने के लिए अधिक से अधिक हिंसक, अधिक से अधिक घटिया और अधिक से अधिक साम्प्रदायिक बात करना जरूरी है। अगर भारतीय लोकतंत्र में नफरत की इस सुनामी के बीच भी सुप्रीम कोर्ट अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता है, तो मीडिया में अच्छी तरह रिकॉर्ड ऐसे बयान, और सुप्रीम कोर्ट की दर्ज की गई यह चुप्पी इतिहास में एक साथ पढ़ी जाएगी कि जब देश में नफरत फैलाई जा रही थी, देश में सबसे अधिक ताकत वाले जज क्या कर रहे थे।
एक हवाला केस में दिल्ली की सबसे बड़ी तिहाड़ जेल में बंद केजरीवाल सरकार के मंत्री सत्येन्द्र जैन के कुछ वीडियो सामने आए हैं जिनमें वे जेल में मालिश करवा रहे हैं, और चम्पी करवा रहे हैं। भाजपा ने ये वीडियो जारी करते हुए जेल में बंद मंत्री को वीवीआईपी सहूलियतें देने का आरोप लगाया है, और जांच एजेंसी ईडी ने कोर्ट में एक हलफनामा देकर, कई तस्वीरें जमा कराके गिरफ्तार मंत्री के ऐशोआराम की बात कही है। मनीलॉड्रिंग केस में गिरफ्तार, सत्येन्द्र जैन को ईडी ने करोड़ों रूपये की गैरकानूनी अफरा-तफरी में गिरफ्तार किया था, और एजेंसी ने अदालत को बताया है कि सत्येन्द्र जैन उनके खिलाफ मामले के अन्य आरोपियों के साथ अपनी कोठरी में घंटों मीटिंग करते हैं। उल्लेखनीय है कि इस जेल में बंद एक बड़े चर्चित ठग सुकेश चन्द्रशेखर ने दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर को एक चिट्ठी लिखकर कहा है कि उसे जेल में सुरक्षा और सहूलियत देने के नाम पर सत्येन्द्र जैन ने दस करोड़ रूपये वसूले थे। अब जैसे-जैसे गुजरात का चुनाव करीब आ रहा है, दिल्ली की आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार के खिलाफ आरोप बढ़ते चल रहे हैं, और कई तरह के सुबूत भी सामने आ रहे हैं।
हिन्दुस्तान में ताकतवर लोगों पर अगर न्याय प्रक्रिया के तहत कोई कार्रवाई होती भी है तो उसका यही हाल होता है। और यह ताकत सिर्फ सत्ता की ताकत नहीं रहती, यह सुकेश चन्द्रशेखर जैसे ठग और जालसाज की ताकत भी रहती है जो कि तिहाड़ जेल में रहते हुए तरह-तरह के बहुत से मोबाइल फोन से अलग-अलग मामलों में फंसे हुए लोगों को फोन पर धमकाकर उनसे उगाही करता था, उनको ठगता था। अब जेल में मोबाइल की सहूलियत एक बड़ा जुर्म है, और मुजरिम के हाथ में वह एक हथियार भी है, लेकिन दिल्ली के तिहाड़ जेल से लेकर छत्तीसगढ़ की जेलों तक का यही हाल है, और जेलों में बंद बड़े मुजरिम और गैंगस्टर वहां से जुर्म का अपना कारोबार चलाते हैं। बाहरी लोगों की नजरों से दूर जेल के भीतर की दुनिया अपने आपमें सरकारी जुर्म का एक बड़ा कारोबार रहती है, और सत्ता या पैसों की ताकत से वहां लोग मनचाही जिंदगी जीते हैं। पंजाब में पिछले महीनों में कत्ल की जो बड़ी वारदात हुई हैं, उनके पीछे हिन्दुस्तानी जेलों में बंद बड़े गैंगस्टरों का हाथ मिला है जो कि जेलों की हिफाजत के हाल का एक बड़ा सुबूत है।
लेकिन जेलों से परे भी हिन्दुस्तान की सारी न्याय व्यवस्था उन लोगों के हाथ बिकी हुई है जिनके बारे में प्रचलित भाषा में कहा जाता है कि वे चांदी का जूता मारकर काम करवा सकते हैं। यानी न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग जूता खाकर काम करने के लिए तैयार रहते हैं, अगर वह जूता चांदी का होता है। मुकदमों से जुड़ा सिलसिला पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियों से शुरू होता है, और वहीं से भारी भ्रष्टाचार भी शुरू हो जाता है, और रिश्वत से परे राजनीतिक दबाव भी बराबरी का असर रखता है। पूरी जांच को भ्रष्ट कर देना, सुबूतों और गवाहों को तोड़-मरोड़ देना, मामले को पहले तो अदालत तक पहुंचने ही नहीं देना, और अगर पहुंच गया है, तो उसे अंतहीन आगे बढ़ाते चलना, यह सब बहुत ही बुनियादी और आम बातें हैं। ताकतवर मुजरिम इसी दौर में बरसों निकाल देते हैं, हर तरह के जुर्म और जुल्म जारी रखते हैं, लेकिन कटघरे से आंखमिचौली खेलते रहते हैं। फिर अगर किसी तरह अदालत से बचना मुमकिन नहीं रहा तो लोग कामयाब और घाघ वकील रखकर हक के नाम पर इंसाफ को पटरी से उतारने में पूरी ताकत लगा देते हैं। और बरसों बाद अगर कोई फैसला हो भी गया, तो संपन्न मुजरिमों के लिए ऊपर की बड़ी-बड़ी अदालतें हैं, जिनमें भारी असर रखने वाले बड़े-बड़े वकील हैं, और वहां भी न्याय प्रक्रिया या फैसले प्रभावित करने या खरीदने की कई तरकीबें हैं। ऐसे में जब बिना जमानत जेल में रहने की मजबूरी हो, तो वहां पर सहूलियतों का एक पूरा बाजार चलता है, और जेलों के अफसर करोड़ों की कमाई करते हैं, या सत्ता को खुश रखने के लिए बिना भुगतान पाए कुछ कैदियों की मालिश करते हैं। यह सिलसिला सिर्फ दिल्ली की तिहाड़ जेल का नहीं है, देश भर में यही हाल है, और चूंकि हिफाजत के नाम पर जेलों को कई तालों के भीतर रखा जाता है, इसलिए वहां बंद तालों की आड़ में हर तरह के गैरकानूनी काम किए जा सकते हैं। लोगों का यह आम तजुर्बा है कि किसी भी किस्म की ताकत रखने वाले मुजरिम जब जेल पहुंचते हैं, तो बड़ी रफ्तार से उनकी तबियत बिगड़ती है, और वे पहले जेल के अस्पताल ले जाए जाते हैं, और फिर वहां से बाहर के बड़े अस्पतालों में। यह एक अलग बात है कि फादर स्टेन स्वामी जैसे प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता को अपनी बहुत अधिक उम्र और बीमारियों की वजह से कांपते हाथों के बावजूद गिलास से कुछ पीने के लिए एक नली (स्ट्रॉ) देने के खिलाफ भी एनआईए ने विशेष अदालत में जान लगा दी थी, और स्टेन स्वामी मर गए, उन्हें पानी पीने के लिए प्लास्टिक की एक नली भी नहीं लेने दी गई। सरकारें जिन्हें नापसंद करती हैं, और जिन्हें पसंद करती हैं, उनके बीच नर्क और स्वर्ग सरीखा फासला जेल और हिरासत में खड़ा कर दिया जाता है।
हिन्दुस्तान में लोकतंत्र एक बड़ा ढकोसला बन चुका है। गरीब को बाकी बातों के साथ-साथ पांच बरस तक यह कहकर भी धोखा दिया जाता है कि उसके वोट से सरकार बनती है, वह लोकतंत्र में भाग्यविधाता है। जबकि हकीकत यह है कि वह वोट किसी को भी दे, उसके विधायक और सांसद ऊपर जाकर अपनी आत्मा और वोट दोनों की एक जोड़ी बनाकर बेचते हैं, और आम वोटर का यह घमंड बेबुनियाद साबित होता है कि वे सरकार चुनते हैं। एक तरफ नैतिकता से परे महज साजिश से बनी हुई सरकारें, सरकारों के अंधाधुंध भ्रष्टाचार, पैसों की असीमित ताकत, इन सबके सामने इंसाफ भीगी बिल्ली की तरह एक कोने में दुबक जाने को मजबूर हो जाता है। अब सरकारों में यह नैतिकता नहीं रह गई है कि अपने भ्रष्ट और दुष्ट लोगों को बाहर करे, न्याय व्यवस्था में यह ताकत नहीं रह गई है कि ताकतवर और गरीब के कानूनी हक बराबर कर सके। ऐसे में भ्रष्टाचार जेल के भीतर मालिश करवाता है, और वहां गलत मामले में फंसाकर डाले गए ईमानदार शायद भ्रष्टाचार का बदन दबाते हैं। लोकतंत्र, तुम्हारी जय हो!
दिल्ली में लिव इन रिलेशनशिप में साथ रह रहे एक हिन्दू-मुस्लिम जोड़े के बीच की हिंसा ने देश का दिल दहला दिया है। मुस्लिम नौजवान ने हिन्दू लडक़ी के साथ किसी विवाद या मतभेद के बाद उसे मार डाला, उसके 35 टुकड़े कर दिए, नया फ्रिज खरीदकर उसमें भरकर रखा, और दिल्ली के एक जंगल में जाकर रोज दो टुकड़े फेंके। महीनों बाद जाकर किसी तरह से यह मामला सामने आया, तो पुलिस जांच शुरू हुई, और यह मुस्लिम नौजवान गिरफ्तार हुआ। इसके बाद से जैसा कि होना था, मुस्लिम नौजवानों पर लव-जेहाद की तोहमत लगाते हुए सोशल मीडिया पर इस समुदाय पर भारी हमले चल रहे हैं, और जिन लोगों को आमतौर पर समझदार माना जा सकता है, वैसे लोग भी घोर साम्प्रदायिक बातें लिख रहे हैं, बिना यह याद रखे कि पिछले बरसों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिसमें हिन्दू जोड़ों में ही पति या प्रेमी ने साथी के टुकड़े कर दिए, और ऐसे एक मामले में तो सुशील शर्मा नाम के नौजवान ने अपनी पत्नी की हत्या करके उसे जलाने के लिए एक तंदूर में झोंक दिया था। यह कत्ल तंदूर हत्याकांड के नाम से खबरों में बरसों तक रहा। इसलिए कत्ल के ये तरीके धर्मों से परे हैं, और कई धर्मों के लोग साथी का कत्ल करके उसके टुकड़े कर देते हैं। इसलिए हम आज इस मुद्दे पर लिखते हुए हिन्दू-मुस्लिम नजरिये से नहीं लिख रहे हैं, बल्कि लिव इन रिलेशनशिप पर लिखना चाह रहे हैं।
हिन्दुस्तान में जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ा, पढ़ाई और रोजगार के लिए लडक़े-लड़कियों का दूसरे शहरों में जाकर रहना शुरू हुआ, हमउम्र लोगों से मुलाकात शुरू हुई, मोहब्बत या देह-संबंध बने, और कई मामलों में लडक़े-लड़कियों ने साथ रहना भी शुरू किया। कई लोग इसे भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध करते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक से अधिक मामलों में लिव इन रिलेशनशिप पर टिप्पणी की है, और फैसला दिया है, उसने यह साफ किया है कि बालिग लोगों के बीच इस तरह से रहना पूरी तरह उनका कानूनी हक है, और उन्हें इससे कोई नहीं रोक सकते। लेकिन ऐसा भी नहीं कि ऐसे रहने के खिलाफ कोई कानूनी मामले चल रहे थे, इसका विरोध मोटेतौर पर परिवार और समाज की तरफ से होता है, और वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले से थमने वाला नहीं है। अब यहां पर सवाल यह उठता है कि एक मुस्लिम नौजवान के हाथ टुकड़े होने वाली हिन्दू युवती की मिसाल देकर लोग लिव इन रिलेशनशिप के खिलाफ बहुत कुछ कह सकते हैं। केन्द्रीय मंत्री कौशल किशोर ने कल यह बयान दिया है कि शिक्षित लड़कियां अपने मां-बाप को छोडक़र लिव इन रिलेशनशिप में रहने की गलती की जिम्मेदार हैं। इस पर शिवसेना की राज्यसभा सदस्य प्रियंका चतुर्वेदी ने इस मंत्री को कैबिनेट से हटाने की मांग प्रधानमंत्री से की है। इस एक वारदात से इस देश में साथ रहने वाले लडक़े-लड़कियों पर समाज का कहर कुछ अधिक हद तक टूटना तय है क्योंकि यह मिसाल इतनी हिंसक और तकलीफदेह है कि यह लोगों को बाकी पहलुओं के बारे में सोचने का मौका नहीं देगी। यह याद करने का मौका भी नहीं देगी कि बहुत से शादीशुदा जोड़ों के बीच ठीक ऐसी ही हिंसा पहले हो चुकी है, एक ही धर्म के जोड़ों के बीच ऐसी हिंसा हो चुकी है, और कई परिवारों में तो लडक़ी के प्रेमप्रसंग या प्रेमविवाह से खफा परिवारों ने भी उनके टुकड़े किए हुए हैं। अब अगर एक लडक़ी के टुकड़े होने से लिव इन रिलेशनशिप इतनी खराब मानी जा रही है, तो घर के भीतर लडक़ी के टुकड़े होने की मिसाल से क्या पूरे परिवार ही तोड़ दिए जाएं, और मां-बाप, बच्चे सब अलग-अलग रहें?
लोगों को किसी भयानक मिसाल की रौशनी में सोचते-विचारते अपनी तर्कशक्ति नहीं खोना चाहिए, और साथ-साथ न्यायसंगत भी बने रहना चाहिए। दुनिया के जिन देशों में लिव इन रिलेशनशिप एक पूरी तरह आम बात है, वहां पर ऐसे जोड़ों के बीच हिंसा कम होती है, और हिन्दुस्तान जैसे देश में जहां आज भी ऐसे रिश्ते बहुत कम हैं, वहां लड़कियों के साथ सडक़ों से लेकर दूसरी जगहों तक यौन-हिंसा और दूसरे किस्म की हिंसा बहुत होती है। दूसरी बात यह है कि लिव इन रिलेशनशिप के बाद जिन जोड़ों में शादी होती है, उनके बीच तालमेल बेहतर होता है क्योंकि प्रेम-प्रसंग के दिखावे से उबरकर ऐसे जोड़े साथ रहते हुए एक-दूसरे के सबसे अच्छे और सबसे बुरे पहलू देख चुके रहते हैं, और शादी के बाद उन्हें सदमा लगने के खतरे घट जाते हैं। इसलिए जिन लोगों को लिव इन जिंदगी बेहतर लगती है, उनके लिए शायद वह बेहतर रहती भी है। शादी के बाद कुछ नई बातें देखकर तलाक की नौबत आए, इससे बेहतर यह है कि साथ रहने के बाद ठीक न लगे तो अलग हो जाएं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला एकदम सही था, और हिन्दुस्तान की आज की सामाजिक नौबत के हिसाब से सही समय पर आया था, क्योंकि देश की पुलिस किसी नौजवान जोड़े के साथ रहने पर उनके खिलाफ वेश्यावृत्ति जैसे कई कानून लागू करते आई है, और अब जाकर पुलिस के हाथ से शोषण और जुल्म का यह हथियार निकला है।
इस ताजा वारदात ने दो धर्मों के बीच का मामला होने से हिंसक सोच का एक सैलाब सा खड़ा कर दिया है। जिन लोगों के मन में मुस्लिमों से नफरत है, उन्हें अपनी हिंसा निकालने के लिए एक सुनहरा मौका हाथ लगा है, और वे उस काम में जुट गए हैं। लेकिन साम्प्रदायिकता से परे लोगों को यह सोचना होगा कि लिव इन रिलेशनशिप के मामले में हिन्दू-मुस्लिम से परे सोचने की जरूरत है, जिन लोगों को जीने का यह तरीका पसंद नहीं है, वे इसे सामाजिक रूप से नापसंद करते रहें, जिन्हें यह तरीका पसंद है, वे साथ-साथ रहते रहें, लेकिन इस वारदात के बहाने जो लोग अपनी साम्प्रदायिकता की भड़ास निकालना चाहते हैं, वे खुद उजागर हो रहे हैं, और वे यह याद भी करने का मौका जुटाकर दे रहे हैं कि इसके पहले किन-किन हिन्दुओं ने अपने साथी के साथ ऐसी ही हिंसा की थी। एक नाजायज मिसाल दूसरी बहुत सी मिसालों को खड़ा करती है, और वही आज हो रहा है।
दुनिया में पर्यावरण को जितने किस्म के खतरे हैं, और बढ़ते चल रहे हैं, उनकी कल्पना भी आसान नहीं है। इंसान हर दिन अपने कई तरह के काम से धरती और उसके पर्यावरण के लिए तरह-तरह की चुनौतियां खड़ी करते जा रहे हैं, जिनका कोई आसान इलाज नहीं है। इनमें से एक चुनौती बहुत से लोग आबादी को मानते हैं जो कि अभी तीन दिन पहले आठ अरब पार कर चुकी है, और हर सेकेंड पर दो नए जन्म हो रहे हैं। ऐसा अंदाज है कि 2080 तक यह आबादी 10.4 अरब पहुंचकर फिर स्थिर हो जाएगी, या गिरने लगेगी। मतलब यह कि आज से सवा गुना आबादी हो जाने तक इसमें किसी गिरावट का अंदाज आज नहीं है। आबादी के मामले में पर्यावरण के संदर्भ में हमारी सोच कुछ अलग है, लेकिन आज हम इस जगह पर सिर्फ आबादी पर चर्चा खत्म करना नहीं चाहते हैं, इसलिए हम कई लोगों की नजरों में पर्यावरण को एक बड़ा खतरा कही जाने वाली आबादी की चर्चा भर कर रहे हैं कि बहुत से लोग उसे पर्यावरण तबाह करने की बड़ी वजह मानते हैं। लेकिन आबादी से परे भी कई और किस्म की चीजें हैं जिनके बारे में भी गौर करना चाहिए।
हमारे पाठकों को याद होगा कि हम पिछले दस से अधिक बरसों में एक से अधिक बार इस बात को लिख चुके हैं कि दुनिया में बढ़ते हुए मोबाइल फोन देखते हुए उसके चार्जर एक सरीखे करने की कोशिश करनी चाहिए, और अब जाकर यूरोपीय संघ ने इसकी पहल की है, और अगले एक-दो बरस के भीतर सारे योरप में एक ही एक किस्म के चार्जर रह जाएंगे जिसकी वजह से एप्पल जैसी बड़ी कंपनी को अपने फोन का चार्जिंग पोर्ट बदलना पड़ेगा। इससे धरती पर प्लास्टिक का कचरा कम होगा, और लोगों की जिंदगी तो आसान होगी ही होगी। कुछ ऐसा ही काम बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों की बैटरियों को लेकर भी सोचा जा रहा है, और भारत सरकार इस पर जो नीति बना रही है उसमें बैटरी और उससे चलने वाली गाडिय़ां बनाने वाले निर्माताओं से राय मांगी गई है कि इनके पैमाने कैसे तय किए जा सकते हैं ताकि कम किस्म की बैटरियों से सभी गाडिय़ां चलें, और ऐसी चार्ज की हुई बैटरियों को बदलने के सर्विस स्टेशन शुरू हो सकें ताकि लोगों को अपने-अपने घरों पर ऐसी चार्जिंग का इंतजाम न करना पड़े। इस बारे में भारत सरकार कोई नीति बनाने, और पैमाने लागू करने के पहले दुनिया भर से इस मामले के तजुर्बे का अध्ययन भी कर रही है, और लोगों से सलाह भी उसने मांगी है। आज जिस तरह गाडिय़ों से निकलने वाले टायरों के पहाड़ धरती के पर्यावरण के लिए एक समस्या बनने जा रहे हैं, उसी तरह कल को बैटरियों का यही हाल न हो कि उनके पहाड़ लग जाएं। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि बैटरियों में जिस तरह की धातुएं लगती हैं, वे धरती पर सीमित तादाद में ही हैं, और उनकी कमी की वजह से नई बैटरियां बनना उतना आसान नहीं है। इसलिए बैटरियों को उनकी पूरी जिंदगी तक निचोड़ लेना भी जरूरी है, और उसके बाद भी उनके भीतर बची धातुओं का इस्तेमाल जरूरी है। इसके लिए सरकारों को बैटरी नीति बनानी होगी, और भारत जैसे बड़े देश में अगर यह समय रहते किया जा रहा है, तो उससे आगे की बर्बादी का खतरा घटेगा। ठीक इसी तरह की एक फिक्र पुराने मोबाइल फोन को लेकर हो रही है। मोबाइल फोन में कई तरह की धातुएं लगती हैं, और लोग नया फोन लेने के बाद पुराने फोन को री-साइकिलिंग के लिए देने की नहीं सोच पाते। पुराने सामान का मोह नहीं जाता, और उसे री-साइकिलिंग के लिए देने पर कोई फायदा नहीं दिखता। ऐसे में दुनिया के हर इंसान के पास एक से अधिक मोबाइल होने का खतरा खड़ा हो रहा है, और उसे बनाने में लगी धातुओं के दुबारा इस्तेमाल की संभावना खत्म हो रही है। अब देश और कुछ कंपनियां पुराने फोन वापिस लेने की पहल कर रहे हैं, लेकिन हिन्दुस्तान जैसे देश में, जहां पर लोग कबाड़ को सहेजकर रखने के आदी हैं, वहां पर यह परेशानी तो रहेगी ही।
पर्यावरण को सामान बनाने वाले कारखानों से भी बहुत नुकसान होता है, और जब गैरजरूरी सामान बढ़ते जाते हैं तो उन्हें बनाते हुए धरती पर कार्बन का बोझ बढ़ता है। अब इंसानों का एक ग्राहक के रूप में इस्तेमाल कंपनियों को बहुत सुहाता है, इसलिए जिसकी भी खरीदने की ताकत है, उसे जरूरत से कई गुना सामान बेचने की तरकीब बाजार चलाते ही रहता है। नई-नई फैशन के सामान हर दिन बाजार में उतरते हैं, और लोगों को लुभाते चलते हैं। पर्यावरण की फिक्र की बात करने वाले फिल्मी सितारे या खिलाड़ी भी किसी को खपत कम करने नहीं कहते क्योंकि लोगों की खपत बढऩे से ही उनकी मॉडलिंग जुड़ी हुई है, उनकी कमाई जुड़ी हुई है। इसलिए हर कुछ महीनों में फैशन बदलते जाती है, ताकि खरीदी बढ़ती जाए। अब यह जागरूकता कैसे आ सकती है, यह सोचने की बात है कि सितारों की चकाचौंध के झांसे में आकर गैरजरूरी सामान खरीदने में समझदारी नहीं है, धरती को बचाने में समझदारी है। और शुरू में हमने आबादी को लेकर जो अलग राय रखी थी, वह इससे भी जुड़ी हुई बात है। दुनिया की सबसे गरीब आबादी की प्रति व्यक्ति सामानों की खपत इतनी सीमित है, महज जिंदा रखने की उनकी जरूरतें इतनी गिनी-चुनी हैं कि दुनिया की संपन्न आबादी के एक-एक इंसान सैकड़ों विपन्न लोगों से अधिक खपत करते हैं। इसलिए बढ़ती हुई आबादी धरती पर बोझ नहीं है, साधनों और सुविधाओं के बंटवारे में गैरबराबरी बोझ है जिसकी वजह से गरीबों की भूख ऐसी दिखती है कि मानो वह बढ़ती आबादी की वजह से है, और अमीरों की चर्बी नहीं दिखती क्योंकि उसे जिम की मशीनों पर बिजली जला-जलाकर छांटा जाता है। अगर दुनिया की संपन्न और विपन्न आबादी के बीच सामानों का बंटवारा थोड़ा सा न्यायसंगत हो जाए तो 2080 में होने वाली सवा गुना आबादी भी धरती को बर्बाद नहीं करेगी।
आज संपन्नता के साथ दिक्कत महज निजी खपत की नहीं है, हम अपने आसपास की ऐसी म्युनिसिपलें देखते हैं जो कि अपनी संपन्नता की वजह से लोगों के घरों से कचरा इक_ा करते हुए उन्हें जागरूक करने की तरफ से बेफिक्र रहती हैं। लोग अगर अपने घर पर ही कचरे को छांटकर अलग-अलग करें तो उससे उसका उत्पादक उपयोग भी हो सकता है, और धरती बर्बादी से बच सकती है। लेकिन अगर म्युनिसिपलों के पास पैसा अधिक है, तो वे अपने नागरिकों को जिम्मेदार बनाने के बजाय उन्हें गैरजिम्मेदार वोटर बनाकर रखना चाहती हैं, और कचरे के निपटारे में लोगों की जिम्मेदारी का अहसास भी नहीं कराया जाता। नतीजा यह होता है कि कचरे के निपटारे की लागत बढ़ जाती है, और उसकी री-साइकिलिंग की संभावनाएं खत्म हो जाती हैं। ऐसी ही नौबत के चलते आज दिल्ली में कचरे के पहाड़ खड़े हो गए हैं, और अब वहां के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने घोषणा की है कि ब्रिटेन की किसी कंपनी को लाकर इस कचरे का निपटारा किया जाएगा।
पर्यावरण को मिलती चुनौतियां असीमित हैं, लेकिन आज इस चर्चा का मकसद इस बारे में ध्यान खींचना ही था, यहां पर किसी लेख की तरह तमाम बातों को शामिल करना मुमकिन नहीं है। पर्यावरण के साथ दिक्कत यह है कि जो पीढ़ी लापरवाह है, उसे आमतौर पर लापरवाही का नुकसान नहीं भुगतना पड़ता, इसका बोझ उसकी आने वाली पीढ़ी पर पड़ता है जो कि जहरीली, दमघोंटू हवा में फेंफड़ों की बीमारी पाने की वारिस बनती है। लोगों को अपने बच्चों के फेंफड़ों के बारे में सोचकर, उनको कैंसर के खतरे के बारे में सोचकर पर्यावरण के बारे में सोचना चाहिए। इंसान इस हद तक मतलबपरस्त हैं कि इस जुबान से कम में पर्यावरण के बारे में किसी को सोचने की जरूरत भी नहीं लगेगी।
अपने नए मालिक के मातहत ट्विटर ने हजारों लोगों को नौकरी से निकाल दिया है, और उसके बाद फेसबुक उसी रास्ते पर चला है, और उसने करीब 13 फीसदी कर्मचारियों को नौकरी से निकालने की घोषणा की, और कंपनी के मुखिया मार्क जकरबर्ग ने कहा कि यह उनकी कंपनी के इतिहास का सबसे मुश्किल फैसला था। अगली खबर ऑनलाईन बिक्री के प्लेटफॉर्म अमेजॉन से आई है जहां दस हजार लोगों को नौकरी से निकाला जा रहा है। कम्प्यूटर और इंटरनेट पर आधारित कारोबार वाली इन कंपनियों में नौकरियां एकदम से घटाने की कोई एक किस्म की वजह हो सकती है, लेकिन इससे परे भी दुनिया का हाल बहुत डांवाडोल है। और इसकी वजहें सिर्फ कारोबार और ग्राहक पर टिकी हुई नहीं हैं, कहीं पर चल रही जंग पर भी टिकी हैं, तो कहीं पर जंग के आसार से भी कारोबार खतरे में हैं। फिर पिछले दो-चार बरसों में ही मौसम में बदलाव की वजह से जो एक्स्ट्रीम वैदर का प्रलय आया है, वह भी अर्थव्यवस्था को दहलाने वाला है। अफ्रीका के कई हिस्से अभूतपूर्व अकाल का शिकार हैं, और वे भुखमरी देख रहे हैं, दसियों लाख लोगों का पलायन देख रहे हैं। और कल ही दुनिया की आबादी 8 अरब होने की जो खबर आई है वह बताती है कि अफ्रीका में ही आबादी सबसे तेज रफ्तार से बढ़ रही है, क्योंकि वहीं पर बच्चों को लेकर लोगों को यह भरोसा नहीं रहता है कि उनमें से कितने बड़े हो सकेंगे, बालिग होने तक जिंदा रह सकेंगे, इसलिए वे अधिक बच्चे पैदा कर रहे हैं, और कोई गरीब देश दुनिया की अर्थव्यवस्था में कुछ जोड़ नहीं सकता, इसलिए किसी भी किस्म के कारोबार से अरबों गरीब ग्राहक पूरी तरह से बाहर ही हुए जा रहे हैं। जब ग्राहक ही कम रहेंगे, खरीदी ही कम रहेगी, तो यह जाहिर है कि कारोबार को छंटनी करनी पड़ेगी।
हम दुनिया में छंटनी को लेकर भारत को उससे सीधे तो नहीं जोडऩा चाहते, लेकिन भारत के भीतर रोजगार बढऩा थमा हुआ है, और कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि रोजगार घट रहे हैं क्योंकि सरकारी संस्थानों का, सरकारी सेवाओं का निजीकरण हो रहा है, और निजी क्षेत्र में उसी काम के लिए कम लोगों की जरूरत पड़ती है क्योंकि मैनेजमेंट बेरहमी से काम लेता है। फिर सरकारी नौकरियां घटकर जब वही काम निजी क्षेत्र में जाते हैं, तो उनमें आरक्षण की कोई गुंजाइश नहीं रहती, और यह कमजोर तबके के लिए एक और नुकसान की बात रहती है। भारत में अमीर और गरीब के बीच का फासला तेजी से बढ़ रहा है, और इनका औसत मिलाकर देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तो ठीक दिखती है, लेकिन अंबानी और अडानी खाएंगे तो खाएंगे कितना, पहनेंगे तो पहनेंगे कितना, नतीजा यह है कि ग्राहकी घट रही है, और कारोबार मुश्किल में हैं। ऑनलाईन बिक्री और शहरों के बड़े-बड़े सुपरबाजारों का फायदा शहर के छोटे दुकानदारों को तो होता नहीं है, और उनका कारोबार घटते जा रहे है। भारत की अर्थव्यवस्था देश के बाहर से भी प्रभावित होती है, और अगर दूसरे देशों में लाखों नौकरियां घट रही हैं, तो उनमें से जितने हिन्दुस्तानी काम खो रहे हैं, उनका भेजा पैसा भी अब घर आना बंद हो जाएगा, और भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था में उनका योगदान घटेगा।
इस नौबत में आम लोगों को क्या करना चाहिए, इस पर बात करने के लिए आज हम इस मुद्दे को यहां छेड़ रहे हैं। जब भी कोई कंपनी छंटनी करती है, किसी को काम से निकालती है, तो बहुत सोच-समझकर सबसे कम काबिल, कम मेहनती, कम हुनरमंद लोगों को पहले निकालती है। कंपनियों को भी काम तो जारी रखना है, और कम संख्या में कर्मचारियों से काम करवाने के लिए उन्हें काबिल लोगों को छांट-छांटकर बचाए रखना पड़ता है। इसलिए छंटनी का सबसे बड़ा खतरा कम काबिल लोगों पर रहता है, कम मेहनती लोगों पर रहता है। आज जिन लोगों को नौकरी जाने की आशंका दिखती है, वे लोग अपने पर से खतरा कम कर सकते हैं, अपने आपको अधिक काबिल, अधिक मेहनती, और अधिक हुनरमंद बनाकर। जब अर्थव्यवस्था डांवाडोल होती है, तो छंटनी होती ही है, और लोगों को ऐसे दिन की सोचकर अपने आपको बेहतर बनाना जारी रखना चाहिए।
दुनिया की अर्थव्यवस्था से परे यह भी समझने की जरूरत है कि आज सारे कारोबार अपने खर्चों में कटौती के लिए कम्प्यूटरों और मशीनों का अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं, खर्च को घटाने की नई-नई तरकीबें ढूंढ रहे हैं। ऐसे में अपने आप ही बहुत से कामों के लिए इंसानों की जरूरत कम पड़ रही है। कहीं पर नए काम निकलना बंद हो रहे हैं, तो कहीं पर रिटायर हो रहे लोगों की जगह किसी की भर्ती नहीं हो रही है। ऐसी नौबत में निजी क्षेत्र में, या हिन्दुस्तान जैसे देश के सरकारी क्षेत्र में भी जब कभी कोई रोजगार निकलेगा, तो वह मुकाबले में सबसे काबिल के हाथ ही लगेगा। इसलिए अपने आपमें अच्छा होना काफी नहीं है, औरों के साथ मुकाबले में उनसे बेहतर होने की तैयारी करना भी जरूरी है। हिन्दुस्तान में आज लोग डिग्री लेकर बिना किसी हुनर और काबिलीयत के, बिना किसी तजुर्बे के नौकरी पाने के इंतजार में अर्जी देने की उम्र भी पार कर लेते हैं। इन सब लोगों को भी सिमटती हुई नौकरियों के खतरे समझना चाहिए, और अपने आपको बेहतर बनाना चाहिए। आने वाला वक्त उन देशों का रहेगा, उन नौजवानों या कामगारों का रहेगा जो कि अपने आपको आगे की जरूरत के किसी हुनर के लायक तैयार रखेंगे। कम होती नौकरियों ने बेहतर हुनर की जरूरत को पहले के मुकाबले और बढ़ा दिया है। आज हिन्दुस्तान के बहुत से राज्यों में लोग रोजगार के बाजार की जरूरत की जुबान, अंग्रेजी से नावाकिफ हैं, कम्प्यूटर के काम में दक्षता की जरूरत नहीं समझते हैं, अपने व्यक्तित्व के किसी तरह के विकास को जरूरी नहीं समझते हैं, और वे इसी देश के कुछ बेहतर प्रदेशों के बेहतर बेरोजगारों के मुकाबले बहुत पिछड़े हुए हैं। उनकी थोड़ी-बहुत गुंजाइश रिश्वत देकर या किसी और किसी किस्म की बेईमानी से अपने ही प्रदेशों के सरकारी ओहदों पर क्षेत्रीय आरक्षण की वजह से पहुंच जाने की रहती है, लेकिन ऐसी नौकरियां ही अपने आपमें घटती चल रही हैं, इन पर ज्यादा भरोसा करने वाले लोग बेरोजगार अधेड़ होकर रह जाएंगे।
आज दुनिया में रोजगार की जो बदहाली हो रही है, उसे देखकर भी हिन्दुस्तानी नौजवानों को बेरोजगार होने के पहले से बेहतरी की तैयारी करनी चाहिए, और रोजगार पाने के बाद भी उसे बचाए रखने के लिए मेहनत करनी चाहिए। सरकारें बहुत से रोजगार का झांसा दे सकती हैं, लेकिन इन नौकरियों के लिए कतार में लगे हुए लोग हजारों गुना अधिक ही रहेंगे, और उनमें से अधिकतर लोग कभी इन नौकरियों को नहीं पा सकेंगे। इसलिए सरकारी नौकरी के बजाय लोगों को अपनी काबिलीयत पर अधिक भरोसा करना चाहिए क्योंकि निजीकरण के इस दौर में आगे चलकर अधिक से अधिक नौकरियां निजी क्षेत्र में ही रहेंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सार्वजनिक जगहों पर राजनीतिक चेतना की आंदोलनकारी कलाकृतियां बनाने के लिए बैंक्सी के छद्मनाम से काम करने वाले इंग्लैंड में बसे एक कलाकार की कलाकृतियां अभी रूसी हमले में तबाह यूक्रेन के ताजा खंडहरों पर दिखाई पड़ी, और इन्हें देखकर ही यह अंदाज लगा कि बैंक्सी यहां आकर गया है। यह फुटपाथी कलाकार एक फक्कड़ मिजाज लगता है, लेकिन इसकी कुछ कलाकृतियां करोड़ों में बिकती हैं। और ऐसा कलाकार राजनीतिक चेतना की पेंटिंग्स सार्वजनिक दीवारों पर मुफ्त में, अपनी सामाजिक जिम्मेदारी मानकर बनाते चलता है। उसकी शिनाख्त उजागर नहीं हुई है, और कुछ लोग रॉबिन गनिंगहैम नाम के एक आदमी को बैंक्सी मानते हैं। यह रहस्य उसकी चर्चित कलाकृतियों को और अधिक खबरों में लाता है। उसने दुनिया भर के युद्ध के खिलाफ, रंगभेद और नस्लभेद के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, मानवाधिकार के हक में अंतहीन काम किया है, और उसकी कुछ सहज और सरल वॉलपेंटिंग्स दुनिया भर में करोड़ों-अरबों बार पोस्ट हो चुकी हैं, वे राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों का पोस्टर बन चुकी हैं। अभी बैंक्सी ने अपने इंस्टाग्राम पेज पर यूक्रेन की तबाह दीवारों पर कई पेंटिंग्स बनाई, और यूक्रेन के हालात को एक बार फिर चर्चा में ला खड़ा किया। उसकी बनाई एक पेंटिंग में एक बच्चा जूडो-कराते के कपड़े पहने हुए एक बड़े आदमी को पटकते हुए दिख रहा है, जो कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन की ऐसे कपड़ों में अक्सर दिखने वाली तस्वीरों से मिलता-जुलता दिख रहा है।
खैर, एक कलाकार की इस राजनीतिक चेतना की चर्चा महज उसके संदर्भ में करने का हमारा कोई इरादा नहीं है, बल्कि एक कलाकार की ऐसी जागरूकता के बारे में बात करने का है। राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक बेइंसाफी तो दुनिया की अधिकतर जगहों पर भरी हुई है। हिन्दुस्तान में इसके साथ-साथ धार्मिक बेइंसाफी और जुड़ जाती है। आज ही सुबह की एक खबर है कि सोमालिया ऐसी भयानक भुखमरी का शिकार है कि अगले एक-दो बरस में वहां पांच लाख से अधिक बच्चों के भूख से मर जाने की आशंका है। दुनिया के अलग-अलग देशों में पूंजीवाद की हिंसा गरीबों का जीना मुश्किल कर रही है, खाने से लेकर दवाई तक के कारोबार में पूंजीवाद गरीब जिंदगियों को खत्म कर रहा है, और खुद दानवाकार हो रहा है। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था कमजोर तबकों की पहुंच के बाहर है, कमजोर और उपेक्षित धर्म और जातियों के लोग सामाजिक जिंदगी के हाशिये पर धकेल दिए गए हैं, लेकिन हिन्दुस्तान की दीवारें गुप्तरोग के इश्तहारों से पटी हुई हैं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को जो खुला रोग हो चुका है, उसके इलाज के कोई इश्तहार मुफ्त की दीवारों पर नहीं हैं। ऐसे में लगता है कि थोड़ा सा रंग और एक मामूली कूंची लेकर बेइंसाफी के खिलाफ दीवारों जो प्रतिरोध दर्ज कराया जा सकता है, उससे भी हिन्दुस्तानी कलाकार अनजान हैं, या फिर बेपरवाह हैं। बंगाल में जरूर एक वक्त राजनीतिक चेतना की वॉलग्राफिती, या स्ट्रीटऑर्ट का नजारा होता था, लेकिन वामपंथियों के सूर्यास्त के बाद अब वह सिलसिला भी शायद कमजोर हो गया है, या बंद हो गया है। फिर भी बंगाल के बारे में इतना तो कहना ही होगा कि वहां साल के सबसे बड़े त्यौहार दुर्गापूजा के पंडालों में पूरी दुनिया के राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर राजनीतिक बयान वाली सोच दिखाई पड़ती है। एक से बढक़र एक मिसालें जागरूकता को स्थापित करती हैं। लेकिन बाकी का हिन्दुस्तान इस जागरूकता के पैमाने पर कहां पहुंचता है, इसे हर प्रदेश और समाज के लोगों को सोचना चाहिए।
जो कलाकृतियां कलादीर्घाओं और संग्रहालयों की शोभा बढ़ाती हैं, या कि जो करोड़पति-अरबपति, तथाकथित कलारसिकों के निजी संग्रह में उनके हरम की सुंदरी की तरह कैद रहती हैं, क्या उन्हें सचमुच ही कोई कला कहा जाना चाहिए, या फिर वह दुनिया के कला-कारोबार की एक करेंसी भर है? यह भी समझने की जरूरत है कि अपने आपको कलाकार, साहित्यकार, रचनाकार कहने वाले लोगों का अगर असल जिंदगी के जलते-सुलगते मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं है, तो फिर उनका जिंदा रहना भी क्या कोई जिंदा रहना है, उनका काम करना तो न करने से भी गया-बीता है। उन आम लोगों को तो कोई तोहमत नहीं दी जा सकती जिन्हें कोई कलाकृति बनाना नहीं आता। लेकिन जिन्हें आता है, उन पर तो सामाजिक जागरूकता की मिसाल पेश करने की जवाबदेही भी आती है। एक किसान या मजदूर अगर लिखना नहीं जानते, तो संघर्ष के कोई गाने लिखने की जिम्मेदारी उन पर नहीं आती है। लेकिन राजाओं की चाटुकारिता के ग्रंथ लिखने वाले लोगों को तो लिखना आता है, और जब उनके पास सामाजिक इंसाफ की हिमायत में लिखने को कुछ नहीं रहता, तो उनकी सरोकारविहीनता सिर चढक़र बोलती है।
बैंक्सी की यह मिसाल यह सोचने पर मजबूर करती है कि दीवारों पर बहुत मामूली रंगों से, बहुत मामूली कलाकारी से बनाई गई कोई तस्वीर महान इसलिए भी हो जाती है कि वह लगातार राजनीतिक चेतना का झंडा फहराने वाले कलाकार की बनाई हुई एक और राजनीतिक चेतनासंपन्न कलाकृति है। महज नाम ही काफी नहीं है, काम भी जागरूकता का होना जरूरी है। दूसरे देशों के लोगों को अपने-अपने चर्चित कलाकारों, लेखकों, और मूर्तिकारों को देखना चाहिए कि आज समाज की जलती-सुलगती हकीकत, और भूख की भभकती जरूरत के लिए उनकी कला, उनकी रचना में क्या है? अगर वे महज शास्त्रीय रागों में महज कृष्ण, बादलों, और सुंदरियों से प्रेम ही गाते हैं, तो वे मजदूर गीतों को रचने और अपनी खुरदुरी आवाज में गाने वाले लोगों के पांवों की धूल भी नहीं है। वे महज राज्याश्रय में पलने वाले तथाकथित कलाकार हैं, जिनकी तमाम शास्त्रीयता ऐसे कुलीन पैमानों पर गढ़ी, और उनसे बंधी रहती है, कि वह आम लोगों की पहुंच से उसी तरह दूर रहे, जिस तरह शूद्रों के कानों से शास्त्रों के शब्दों को दूर रखा जाता था। राजा और सत्ता के हरम की सुंदरियों की तरह की शास्त्रीय कलाएं जनता के पैसों पर अपना रूप-रंग निखारती हैं, और जनता की जिंदगी से अपने को अनछुआ भी रखती हैं। यूक्रेन की दीवारों पर बनी इन ताजा पेंटिंग्स से दुनिया भर में कला और कलाकारों की सामाजिक जवाबदेही के नए पैमानों पर चर्चा होनी चाहिए, और सरोकार से मुक्त कलाओं का धिक्कार भी होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने अभी केन्द्र सरकार को इस बात को लेकर जमकर फटकार लगाई है कि जजों की नियुक्ति का प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने महीनों से केन्द्र सरकार को भेजा हुआ है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के नाम केन्द्र सरकार मंजूर नहीं कर रही है। अदालत ने इसे लेकर केन्द्र के कानून सचिव को नोटिस भेजकर जवाब मांगा है कि सरकार के पास अभी भी दस नाम पड़े हुए हैं, और उस पर सरकार को न आपत्ति है, न उसकी मंजूरी है। ऐसे में जिन लोगों के नाम जज बनाने के लिए सरकार को भेजे गए थे उनमें से कुछ लोगों ने खुद होकर अपने नाम वापिस ले लिए, ऐसे एक प्रस्तावित व्यक्ति का तो इस इंतजार में निधन भी हो गया। दूसरी तरफ केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू का कहना है कि आज सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम प्रणाली मेें पारदर्शिता नहीं है, और उसमें जवाबदेही भी नहीं है। कानून मंत्री का यह कहना है कि दुनिया भर में कहीं भी जजों की नियुक्ति जज नहीं करते हैं, जैसा कि हिन्दुस्तान में होता है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को जब खारिज कर दिया, तब केन्द्र सरकार कुछ दूसरे कदम उठा सकती थी, लेकिन उसने तुरंत ऐसा नहीं किया, अदालत के फैसले का सम्मान किया, लेकिन उसका यह मतलब नहीं है कि सरकार हमेशा ही मौन बैठी रहेगी। कानून मंत्री का यह कहना एक किस्म से सुप्रीम कोर्ट को यह बतलाना भी है कि सरकार उसके फैसले के खिलाफ कोई और कानून भी बना सकती है, और जजों की नियुक्ति में सरकार की दखल बढ़ा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के जज अपने लिए और जज छांटते हैं, और हाईकोर्ट के लिए भी। इनके नाम केन्द्र सरकार को भेजे जाते हैं, और वहां से कोई आपत्ति न हो तो आगे-पीछे इन्हीं में से नए जज बनते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के जज अपनी पहचान के जजों और वकीलों के साथ भेदभाव करते हैं। और कई लोगों का यह भी मानना है कि इनमें जातियों का भी बोलबाला होता है, पहचान और रिश्तों का भी बोलबाला होता है, और शायद यह भी एक वजह है कि महिलाओं को बराबरी के मौके नहीं मिल पाते। जजों के लिए लोगों को किस आधार पर छांटा गया, या किन जजों को और ऊपर की अदालत तक ले जाना तय किया गया, इसके तर्क आम जनता के सामने कभी नहीं आते। इनके नाम केन्द्र सरकार को जरूर भेजे जाते हैं, और सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम यह उम्मीद करता है कि उसके भेजे तमाम नाम मंजूर कर लिए जाएं, और अधिकतर मामलों में ऐसा होता भी है। सरकार उसे मिले अधिकारों में से एक, देर करने के अधिकार का भरपूर इस्तेमाल करती है, और अपने को नापसंद जजों के नाम को इतना लटकाकर रखती है कि वे खुद होकर अपना नाम वापिस ले लें, या उन्हें जज बनने में, आगे बढऩे में अंधाधुंध देर होती रहे।
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम प्रणाली के नफा-नुकसान पर गए बिना हम एक अलग प्रणाली की चर्चा करना चाहते हैं जिसके तहत अमरीका में जजों की नियुक्ति होती है। वहां पर राष्ट्रपति अपनी पसंद के किसी व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए मनोनीत करते हैं, और उसके बाद वहां पार्टियों की मिलीजुली एक संसदीय समिति में उस मनोनीत की सुनवाई होती है। कई-कई दिनों तक सांसद ऐसे व्यक्ति से हजार किस्म के सवाल करते हैं, उनकी निजी मान्यताओं से लेकर नीचे की अदालतों में उनके दिए फैसलों पर भी बात करते हैं, कहीं उनके लिखे हुए, या कहे हुए शब्दों पर भी उनसे जवाब मांगा जाता है, और ऐसी कड़ी और लंबी सुनवाई के बाद उनके नाम को मंजूरी मिल पाती है। इस सुनवाई के दौरान इन व्यक्तियों की निजी सोच, उनके पूर्वाग्रह, उनकी जिंदगी के बारे में सब कुछ उजागर हो जाता है, और यह पारदर्शिता अमरीका को यह जानने में मदद करती है कि किन मुद्दों पर किस जज का क्या रूख रहेगा। हिन्दुस्तान में किसी को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बनाते समय उनके विवादास्पद पहलुओं पर गौर किया गया है या नहीं, इसका कोई जवाब सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम नहीं देखा। यह उसके विशेषाधिकार, और सरकार के रोकने के विशेषाधिकार के बीच की बात रह जाती है, और जिस जनता का सबसे अधिक हक होना चाहिए, उसे अपने जजों के बारे में बनने के पहले, और बनने के बाद कुछ पता नहीं लगता। हमारे हिसाब से अमरीका में सुप्रीम कोर्ट के जज बनाने का तरीका अधिक पारदर्शी और अधिक जवाबदेह है। हिन्दुस्तान को अपने तरीकों में जनता के प्रति जवाबदेही लानी चाहिए, चाहे वह सुप्रीम कोर्ट का मामला हो, चाहे सरकार का, उन्हें अपने ऐसे फैसलों की वजहों को खुलकर सामने रखना चाहिए। जो लोग इस देश के वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करने वाले फैसले देने का अधिकार पाने जा रहे हैं, उनके बारे में देश की जनता को अधिक जानने का बड़ा साफ हक होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट और कानून मंत्री के बीच जिस तरह के मतभेद जजों की नियुक्ति को लेकर सामने आए हैं उनका इस्तेमाल इस मामले पर बहस छेडऩे और आगे बढ़ाने में किया जाना चाहिए।
इन दिनों हिंदुस्तान में लोगों के मतदाता परिचय पत्र को उनके आधार कार्ड से जोड़ने का अभियान चल रहा है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने आधार कार्ड की ऐसी अनिवार्यता न करने का वायदा किया है, लेकिन हकीकत यह है कि उसे आम लोगों से करवाया ही जा रहा है और जुबानी बातचीत में कर्मचारी लोगों को बताते हैं कि ऐसा न करने पर वोट डालने नहीं मिलेगा। निर्वाचित नेता भी झूठ फ़ैलाने से परहेज नहीं कर रहे। सत्ता से जुड़े लोगों को जनता की निजता ख़त्म करने में बड़ा मजा आता है, उनके हाथ एक हथियार लग जाता है। सरकारी या चुनावी कामकाज से परे भी सरकार किसी भी खरीदी में डिजिटल भुगतान बढ़ाने में दबाव डाल रही है।
कई लोगों की फ़िक्र है कि डिजिटल खरीददारी की बंदिश से लोगों की निजता खत्म होगी और कोई व्यक्ति सरकारी रिकॉर्ड के लिए यह क्यों बताए कि उसने जूते खरीदे हैं या भीतरी कपड़े खरीदे हैं, वे हनीमून पर कहां जा रहे हैं, और तैयारी के लिए क्या सामान लिए हैं? लोगों को यह भी याद होगा कि आधार कार्ड को जिस तरह से हर चीज में अनिवार्य किया जा रहा है, उससे भी यह नौबत आ रही है कि लोगों की निजी जिंदगी की हर बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज होती जाएगी, और यह तो जाहिर है ही कि सरकारें, न सिर्फ हिन्दुस्तान की, बल्कि सभी जगहों की, अपने हाथ आई जानकारी का बेजा इस्तेमाल करती ही हैं। जब दूसरों की जिंदगी, कारोबार, खरीददारी, इन सबमें ताकझांक करने का मौका सरकारों को मिलता है, तो वह अपने लालच पर काबू नहीं पा सकतीं।
दस-पन्द्रह बरस पहले अमरीका की एक फिल्म आई थी, एनेमी ऑफ द स्टेट। इस फिल्म में सरकार एक नौजवान वकील के पीछे पड़ जाती है, क्योंकि उसके हाथ सरकार के एक बड़े ताकतवर नेता के कुछ सुबूत लग जाते हैं। अब इन सुबूतों को उससे छीनने के लिए सरकार जिस तरह से टेलीफोन, इंटरनेट, खरीदी के रिकॉर्ड, रिश्तेदारियों के रिकॉर्ड, और उपग्रह से निगरानी रखने की ताकत, जासूस और अफसर, टेलीफोन पर बातचीत और घर के भीतर खुफिया कैमरों से निगरानी रखकर जिस तरह इस नौजवान को चूहेदानी में बंद चूहे की तरह घेरने की कोशिश करती है, वह अपने आपमें दिल दहला देने वाली घुटन पैदा करती है। भारत में जो लोग आधार कार्ड को हर जगह जरूरी करने के कानून के खिलाफ हैं, उनका भी मानना है कि इससे निजता खत्म होगी। भारत में आज जिस तरह आधार कार्ड को जरूरी कर दिया गया है, उससे सरकार हर नागरिक की आवाजाही, सरकारी कामकाज, भुगतान और बैंक खाते, खरीददारी, सभी तरह की बातों पर पल भर में नजर रख सकती है।
और फिर जो बातें बैंकों और निजी कंपनियों के रिकॉर्ड में आती जाती हैं, उनका इस्तेमाल तो बाजार की ताकतें भी करती ही हैं। यह एक भयानक तस्वीर बनने जा रही है जिसमें भारत की सरकार लोगों से यह उम्मीद करती है कि वे अपनी हर खरीद-बिक्री, हर टिकट, हर रिजर्वेशन को कम्प्यूटरों पर दर्ज होने दें। आने वाले दिनों में किसी एक राजनीतिक कार्यक्रम के लिए किसी शहर में पहुंचने वाले लोगों की लिस्ट रेलवे से पल भर में निकल आएगी, और सत्तारूढ़ पार्टी के कम्प्यूटर यह निकाल लेंगे कि ऐसे राजनीतिक कार्यक्रमों में पहुंचने वाले लोग पहले भी क्या ऐसे ही कार्यक्रमों में जाते रहे हैं, और फिर उनकी निगरानी, उनकी परेशानी एक बड़ी आसान बात होगी।
आज जो दुनिया के सबसे विकसित और संपन्न देश हैं, वहां भी नगद भुगतान उतना ही प्रचलन में है जितना कि क्रेडिट या डेबिट कार्ड से भुगतान करना। भुगतान के तरीके की आजादी एक बुनियादी अधिकार है, और भारत सरकार आज कैशलेस और डिजिटल के नारों के साथ जिस तरह इस अधिकार को खत्म करने पर आमादा है, उसके खतरों को समझना जरूरी है।
आपातकाल को याद करें जब संजय गांधी अपने को नापसंद हर हिन्दुस्तानी को मीसा में बंद करने पर आमादा था। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी यह याद रखना चाहिए कि उनकी पार्टी के लोग भी आपातकाल में बड़ी संख्या में जेल भेजे गए थे। उस वक्त अगर संजय गांधी के हाथ यह जानकारी होती कि किन-किन लोगों ने क्या-क्या सामान खरीदे हैं, तो उस जानकारी का भी बेजा इस्तेमाल हुआ होता। आज भारत में निजी जिंदगी की प्राइवेसी या निजता पर चर्चा अधिक नहीं हो रही है, और यह अनदेखी अपने आपमें बहुत खतरनाक है।
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने दो महीने से अधिक का सफर तय कर लिया है और वह अब तक आधा दर्जन राज्यों से गुजर चुकी है। इसके बाद आधा दर्जन से अधिक राज्य और दो महीने से अधिक का वक्त अभी बाकी है। कुल मिलाकर 3570 किलोमीटर पैदल चलकर यह यात्रा कन्याकुमारी से कश्मीर पहुंचेगी और इसे औपचारिक रूप से तो कांग्रेस पार्टी ने शुरू किया है लेकिन यह मोटेतौर पर साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीतिक दलों, और गैरराजनीतिक लोगों की एक मिलीजुली कोशिश हो रही है। कांग्रेस ने इसे देश में कट्टरता और नफरत की राजनीति से लडऩे की एक मुहिम बनाया है, और मोटेतौर पर यह राहुल गांधी की अकेले की कोशिश की तरह शोहरत पा रही है। राहुल ने किसी तरह से अपने को कांग्रेस के ऊपर लादने की कोशिश नहीं की है, लेकिन उनके व्यक्तित्व की शोहरत ने कांग्रेस को अपने आप इस यात्रा में पीछे कर दिया है, इस यात्रा के मुखिया ही इस मकसद के झंडाबरदार की तरह उभरकर सामने आए हैं। दिलचस्प बात यह है कि बहुत से राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस की एक और नासमझी बता रहे हैं क्योंकि जब हिमाचल और गुजरात में चुनाव हैं, तब यह यात्रा उन प्रदेशों से दूर चल रही है, और राहुल गांधी इन प्रदेशों में चुनाव प्रचार से अलग भी हैं। वे इस यात्रा में भी कांग्रेस को एक पार्टी की तरह बढ़ावा देने के बजाय, यात्रा के मकसद पर टिके हुए हैं, और शायद यह एक बड़ी वजह है कि इसे शोहरत मिल रही है। ऐसा भी नहीं है कि हिमाचल और गुजरात में दोनों में ही कांग्रेस की संभावनाएं शून्य देखते हुए यह यात्रा, और राहुल गांधी, इसके चुनावी इस्तेमाल से दूर हैं। सच तो यह है कि हिमाचल में कांग्रेस भाजपा के मुकाबले टक्कर देते दिख रही है, और वहां तो इस यात्रा का कोई चुनावी इस्तेमाल हो सकता था, लेकिन कांग्रेस के भीतर कुछ लोगों की समझदारी अभी बची हुई है जो भारत के जोडऩे के इसके मकसद को किसी राज्य के चुनावी नफे से ऊपर लेकर चल रही है।
राहुल गांधी की रोजाना कई तस्वीरें उनके सोशल मीडिया पेज पर सामने आती हैं, और इस यात्रा में उनके साथ चलने वाले बहुत से गैरकांग्रेसी लोग, गैरराजनीतिक लोग, और दूसरी पार्टियों के लोग भी उन तस्वीरों को आगे बढ़ा रहे हैं। मोटेतौर पर आज यहां लिखने की वजह 65 दिनों से अधिक तक रोजाना ही राहुल की कई तस्वीरों को देखना है। इन तस्वीरों में उनका एक अलग ही व्यक्तित्व उभरकर सामने आया है जो कि राजनीति से परे का है, और राह चलते साथ आने वाले लोगों को सचमुच ही भारत जोड़ो की तरह जोडऩे वाला है। जिस तरह से शहर, गांव, कस्बों में औरत, बच्चे, लड़कियां, बूढ़े, मजदूर दौड़-दौडक़र उनके साथ कुछ दूरी तक पैदल चलने की कोशिश कर रहे हैं, वह देखने लायक है। आज का वक्त कांग्रेस के लिए बहुत निराशा का दौर है क्योंकि इस पार्टी ने पिछले कई चुनावों में महज खोया ही खोया है। और कुछ हफ्ते पहले तक इस पार्टी की जवाबदारी राहुल और उनकी मां पर ही थी। ऐसे निराशा के दौर में देश की आज की नंबर एक की सबसे बुनियादी जरूरत को लेकर राहुल गांधी अगर इतने लंबे सफर पर निकले हैं, तो यह खुद के सामने रखी गई एक अभूतपूर्व और अनोखी चुनौती भी है। जिस तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारों को कल सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जेल से छोड़ा गया है, उसी तमिलनाडु में अपना पिता खोने वाले राहुल गांधी वहां से पैदल चलकर, लगभग बिना किसी हिफाजत के, जनसैलाब से घिरे हुए निकलकर दूसरे प्रदेशों में पहुंचे हैं, वह देखने लायक है। जहां देश के बड़े से लेकर छोटे-छोटे नेताओं तक को अपनी हिफाजत के इंतजाम की दीवानगी रहती है, वहां पर राहुल गांधी जिस बेफिक्री से राह चलते लोगों से मिल रहे हैं, उनकी मोहब्बत का जवाब दे रहे हैं, बच्चों से लेकर बड़ों तक को लिपटा रहे हैं, वह बेफिक्री और वह इंसानियत देखने लायक है। देखने लायक इसलिए भी है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में यह आमतौर पर देखने नहीं मिलती है। किसी नेता की जिंदगी के किसी एक दिन में घंटे भर अगर यह दिख भी जाए, तो भी वह बड़ी बात रहती है, और राहुल महीनों से इसी जिंदगी को जी रहे हैं, और देश के सबसे बड़े अभिनेता भी इतने महीनों तक चेहरे पर मासूम मुस्कुराहट लिए हुए, बिना थके हुए, बिना बौखलाए और चिढ़े हुए, बिना नफरत बिखेरे हुए नहीं चल सकते। आज जहां हिन्दुस्तानी राजनीति में लोग एक दिन में कई-कई बार भारत तोडऩे की कोशिश करते हैं, नफरत का सैलाब छोडऩे की कोशिश करते हैं, जहां लोगों का दिन नफरत की बातों के बिना गुजरता नहीं है, लोगों को नफरत का लावा फैलाए बिना रात नींद नहीं आती, वहां पर एक आदमी (भारतीय राजनीतिक भाषा में नौजवान), लगातार महीनों तक अगर सिर्फ जोडऩे की बात और काम कर रहा है, महज मोहब्बत बिखरा रहा है, और हर किसी की मोहब्बत को बांहों में भर रहा है, तो यह भारतीय राजनीति में इंसानियत का एक नया दौर है। और सोशल मीडिया पर अनगिनत लोग, अमूमन ऐसे लोग जो कि कांग्रेसी नहीं हैं, वे अगर राहुल गांधी पर फिदा हो रहे हैं, तो यह छोटी बात नहीं है। आज के दौर में तो लोग नेताओं से नफरत बहुत आसानी से कर सकते हैं, मोहब्बत किसी से करने की गुंजाइश नहीं रहती।
राहुल गांधी के ये महीने किसी भी चुनावी पैमानों पर नापने से परे के हैं, वे कांग्रेस के भी एक पार्टी की तरह काम से परे के हैं। यह हिन्दुस्तान के लोगों को इतने करीब से, पैदल चलते हुए, उनके हाथ थामे उनसे बातें करते हुए, उनके कांधों पर हाथ रखे उनकी आंखों में झांकते हुए इस मुल्क को इतने भीतर से देखने का एक नया सिलसिला है, आज के नेताओं के बीच तो यह अनोखा है ही, हिन्दुस्तान के इतिहास में भी यह अपनी किस्म की एक सबसे लंबी कोशिश है, और यह अपने अब तक की शक्ल में एक नया इतिहास गढ़ते दिख रही है। जहां वोट पाने का कोई मकसद ठीक सामने खड़ा न हो, जहां कोई चुनाव प्रचार न हो, और जहां देश को जोडऩे के लिए मोहब्बत की बातें की जाएं, वह पूरा सिलसिला नफरत का सैलाब फैलाने के मुकाबले कम नाटकीय तो लगेगा ही, कम सनसनीखेज भी लगेगा, इस पर तालियां भी कम बजेंगीं, और वोटरों को उस हद तक रूझाया नहीं जा सकेगा, जिस हद तक नफरत उन्हें अपनी तरफ खींच सकती है, लेकिन यह देश को जोडऩे की एक कोशिश जरूर है। यह ऐसी कोशिश है जिसने प्रशांत भूषण सरीखे उन जागरूक लोगों को भी अपनी तरफ खींचा है जो कि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार को गिराने के दौर में एक प्रमुख आंदोलनकारी थे, आज उन्हें भी देश को जोडऩा अधिक जरूरी लग रहा है, और इसलिए वे कांग्रेस में न रहते हुए भी, कांग्रेस के समर्थक भी नहीं रहते हुए, इस यात्रा में राहुल गांधी के साथ चलते दिखे हैं।
आज हिन्दुस्तान में नफरत और हिंसा का गंडासा लेकर लोगों के बीच सद्भाव के टुकड़े-टुकड़े करने की जो कामयाब कोशिश जारी है, उसका यह एक अहिंसक और शांतिपूर्ण जवाब है जो कि गांधी की गौरवशाली परंपरा के मुताबिक है। दूसरा गांधी बनना किसी के लिए भी आसान बात नहीं है, लेकिन गांधी की बताई राह पर चलना उतना मुश्किल भी नहीं है, और राहुल गांधी आज इसी बात को साबित करने में लगे हुए हैं। लोग महज इतना याद करके देखें कि क्या उन्होंने हिन्दुस्तान में किसी राजनेता की लगातार महीनों की हजारों ऐसी तस्वीरें देखी हैं जिनमें से एक में भी बदमिजाजी नहीं है, बेदिमागी नहीं है, नफरत नहीं है, हिंसा नहीं है, सिर्फ मोहब्बत है। यह आसान नहीं है, खासकर तब जब आपके माथे पर एक पार्टी की नाकामयाबी की तमाम तोहमत धरी हुई है, और जब आपके सिर पर पार्टी को उबारने की चुनौती भी रखी गई है, वैसे में पार्टी को पूरी तरह छोडक़र, महज देश को जोडक़र चलने की यह कोशिश असाधारण है। एक बात यह जरूर लगती है कि 2014 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी और उनकी पार्टी ने अगर ऐसी जनयात्रा निकाली होती, तो शायद वह पार्टी के डूबते भविष्य को कुछ बचा सकती थी। लेकिन यह बात भी है कि भारत को जोडऩे की जरूरत 2014 में शायद उतनी नहीं लग रही थी, जो इन बीते बरसों में अब खड़ी हो चुकी है, और शायद इसीलिए यह यात्रा योगेन्द्र यादव से लेकर दूसरे गैरकांग्रेसी लोगों को अपनी तरफ खींच रही है। राहुल गांधी की इस शानदार कोशिश पर कहने के लिए हमारे पास बस दो शब्द हैं-मोहब्बत जिंदाबाद!
फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया पर एक ऐसा वीडियो तैर रहा है जिसमें गैरकानूनी पिस्तौल बेचने वाले लोग पिस्तौल दिखाकर उसकी खूबियां गिना रहे हैं, और ग्राहक ढूंढ रहे हैं। जाहिर है कि जब ऐसा वीडियो खबरों में आ रहा है तो वह सरकार की एजेंसियों की नजरों में तो आना ही चाहिए। सोशल मीडिया पर दूसरे कई किस्म की हिंसा की धमकियों को लेकर भी हम हर कुछ महीनों में यह मुद्दा उठाते हैं कि आईटी एक्ट के तहत किसी कार्रवाई के लिए जिन सुबूतों की जरूरत पड़ती है वे सुबूत ऐसे इंटरनेट और सोशल मीडिया जुर्म के मामलों में बड़ी आसानी से हासिल रहते हैं, और पुख्ता भी रहते हैं। लेकिन ऐसे मामलों में सजा की खबरें भूले-भटके ही कभी सामने आती हैं। ऐसा लगता है कि राज्यों की पुलिस और केन्द्रीय एजेंसियां जुर्म तो तेजी से दर्ज कर लेती हैं, लेकिन मुजरिमों को सजा दिलाने में उनकी यह तेजी गायब हो जाती है।
और बात सिर्फ सोशल मीडिया पर धमकियों की नहीं है, इन दिनों ईमेल और मोबाइल फोन के एसएमएस पर तरह-तरह के झांसे रोज आते हैं। किसी में लॉटरी मिलने की खबर रहती है, तो किसी में मोटी तनख्वाह पर काम पर रखने के लिए छांटने की बात रहती है। इन पर तो संदेश भेजने वाले नंबर भी रहते हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी पुलिस और जांच एजेंसियां इन नंबरों को भी नहीं रोक पातीं, और इनके पीछे के लोगों को पकड़ नहीं पातीं। कानून कड़ा है, लेकिन उस पर अमल ढीला है। नतीजा यह है कि इन दिनों खासा वक्त सोशल मीडिया या मोबाइल फोन पर गुजारने वाले लोग बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी और जालसाजी का शिकार हो रहे हैं, लेकिन न तो उनके नुकसान की भरपाई हो पाती है, और न ही मुजरिम पकड़े जाते हैं। इन दिनों छत्तीसगढ़ में ऑनलाईन सट्टेबाजी का एक एप्प खूब खबरों में है, लेकिन उसके लिए काम करने वाले छोटे-छोटे लोगों को तो पुलिस पकड़ रही है, लेकिन उसके पीछे के बड़े लोग शायद कुछ ताकतों की मेहरबानी से पकड़ से परे हैं। लोगों का अंदाज है कि ऐसी ऑनलाईन सट्टेबाजी के इस अकेले एप्लीकेशन में अब तक लोग हजारों करोड़ गंवा चुके हैं, और यह जारी ही है।
ऑनलाईन जुर्म परंपरागत जुर्म से कई मायनों में अलग है। दुनिया में कहीं भी बैठे लोग किसी भी देश में जालसाजी और धोखाधड़ी कर सकते हैं, लोगों को ठग सकते हैं। और भारत जैसे देश में जहां पर सरकार लगातार लोगों के बैंक खाते, और दूसरे तमाम किस्म के लेन-देन को आधार कार्ड से जोड़ रही है, कई किस्म की मोबाइल बैंकिंग को बढ़़ावा दे रही है, उसके चलते टेक्नालॉजी और उपकरणों की कम समझ रखने वाले लोग भी इनके इस्तेमाल को मजबूर हो रहे हैं, और अपनी जानकारी ऑनलाईन आ जाने से वे तरह-तरह की धोखाधड़ी का शिकार हो रहे हैं। डिजिटल लेन-देन और कैशलेस खरीद-बिक्री के इतने सारे तरीके आज प्रचलन में आ गए हैं कि लोगों को अपने मोबाइल फोन के लिए उतनी हिफाजत जुटाना अभी नहीं आया है। जहां तक साइबर मुजरिमों का सवाल है, वे पुलिस और दूसरी एजेंसियों से कई कदम आगे चलते हैं, और जब तक लाठी-बंदूक वाली पुलिस उनका ऑनलाईन पीछा कर पाती है, तब तक वे कई बैंक खाते खाली करके आगे बढ़ चुके रहते हैं।
हिन्दुस्तान में आज केन्द्र और राज्य की एजेंसियों को संगठित साइबर-जुर्म करने वाले लोगों की तुरंत शिनाख्त के तरीके सोचने और लागू करने होंगे। जब तक बड़ी संख्या में लोग लुट नहीं जाते, तब तक तो पुलिस तक बात भी नहीं पहुंच पाती है। ऐसी नौबत को बदलने के लिए केन्द्र सरकार को उसे मिले हुए निगरानी रखने के अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहिए, और ऐसे मोबाइल नंबर आसानी से पकड़े जा सकते हैं जो कि नौकरी या ईनाम, बैंक के खातों की जानकारी जैसे संदेश बड़े पैमाने पर लोगों को भेजते हैं। जब किसी नंबर से सैकड़ों-हजारों लोगों को एक सरीखे संदेश जाते हैं, तो उनकी पहचान करना अधिक मुश्किल नहीं होना चाहिए। इसके अलावा सरकारों को जनता से भी इसकी जल्द शिकायत पाने के तरीकों को बढ़ावा देना चाहिए ताकि ऐसे संदेश पहुंचें, और कोई न कोई उसकी शिकायत पुलिस को करे। आज ऑनलाईन कारोबार और लेन-देन जितना बढ़ रहा है, उसमें अगर सावधानी नहीं बरती गई, तो लोगों का नुकसान बहुत बड़ा होगा, और पुलिस के हाथ भी शिकायतों से भर जाएंगे। इसलिए बचाव को ही असली हिफाजत मानकर उसके तरीकों को लागू करना चाहिए।
दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर भी सरकारी एजेंसियों की नजर रहनी चाहिए ताकि वहां पर कोई कानून तोडऩे वाली बात पोस्ट करें, तो उन पर तुरंत कार्रवाई की जा सके, बजाय किसी शिकायत के आने का इंतजार करने के। इनमें से कोई भी बात ऐसी नहीं है जो सरकारों की सामान्य समझबूझ में न आए, लेकिन आज सरकारों तक शिकायत पहुंचने के पहले कोई कार्रवाई शुरू होते नहीं दिखती है। ऑनलाईन सट्टेबाजी के जिस एप्लीकेशन से जुड़े हुए छोटे-छोटे महत्वहीन मुजरिमों को बड़ी संख्या में गिरफ्तार करना जब शुरू हो चुका था, उसके बाद भी इस सट्टेबाजी के इश्तहार कम से कम एक बड़े अखबार में छपना जारी था, जबकि केन्द्र सरकार ने इसके कुछ दिन पहले ही ऐसे इश्तहारों के खिलाफ चेतावनी जारी की थी। ऐसे इश्तहारों में टेलीफोन नंबर या एप्लीकेशन डाउनलोड करने की जानकारी, और उन पर सट्टे का दांव लगाने के लिए बैंक खातों की जानकारी रहती है, लेकिन भारत सरकार इस पर कोई कार्रवाई करती नहीं दिख रही है।
किसी भी किस्म के जुर्म के लिए कानून को बहुत कड़ा बना देने से जुर्म में कमी नहीं आ सकती, यह तो कम कड़े कानून पर भी अधिक मजबूत अमल से आ सकती थी, जो कि नहीं आई, क्योंकि पिछले कानूनों का ही ठीक से इस्तेमाल नहीं किया गया। केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर और अलग-अलग भी तुरंत ही ऑनलाईन जुर्म के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, नहीं तो टेक्नालॉजी की सबसे कम समझ रखने वाले लोग सबसे बुरी तरह लुटते चले जाएंगे।
सोशल मीडिया न हो तो परंपरागत मीडिया में किनारे रह गई खबरें लोगों तक पहुंच भी न पाएं। अभी महाराष्ट्र के सांगली में एक घटना हुई, जो खबरों में कम और सोशल मीडिया पर ज्यादा आई। एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता सुधा मूर्ति की सांगली के एक घोर विवादास्पद हिन्दूवादी सामाजिक नेता संभाजी भिड़े से मुलाकात का विवाद सोशल मीडिया पर बहुत लोगों को खींच रहा है। संभाजी भिड़े लंबे समय से अपने आक्रामक हिन्दुत्व की वजह से खबरों में रहते हैं, और उससे भी अधिक विवादों में। कुछ बरस पहले भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा के मामले में उनके खिलाफ पुलिस में केस भी दर्ज है। वे पहले आरएसएस से जुड़े थे, बाद में उन्होंने अपना समानांतर हिन्दूवादी संगठन बनाया, और कई जगहों पर आक्रामक हिन्दुत्व का मुद्दा लेकर उनके समर्थक हिंसा भी करते आए हैं। अपने इलाके में वे भिड़े गुरूजी के नाम से चर्चित हैं, और 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने भी भिड़े से मुलाकात की थी, और उनके बारे में सोशल मीडिया पर बड़ी बातें लिखी थीं। अभी जब सुधा मूर्ति अपनी किताबों के प्रचार के एक कार्यक्रम में सांगली गईं, तो वहां संभाजी भिड़े उनसे मिलने पहुंचे, और मुलाकात की इन तस्वीरों को देखकर सोशल मीडिया पर लोगों ने सुधा मूर्ति की इस बात के लिए आलोचना की कि वे ऐसे घोर साम्प्रदायिक आदमी से मिल रही हैं। सुधा मूर्ति वैसे भी अपने पति, इन्फोसिस के संस्थापक और मालिक नारायण मूर्ति की वजह से भी जानी जाती हैं, लेकिन अब ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की सास होने की वजह से भी उनकी यह मुलाकात एक अलग विवाद की वजह बन गई है। ब्रिटेन के लोकतांत्रिक संगठन और वहां की संवैधानिक संस्थाएं पहले से भारत में साम्प्रदायिक तनाव को लेकर फिक्र जाहिर करते आई हैं, और अब ब्रिटिश प्रधानमंत्री की सास का ऐसे हमलावर तेवरों वाले हिन्दुत्व आंदोलनकारी के पांव छूना खबरों में अहमियत की बात हो गई है। अभी यह खबर से अधिक सोशल मीडिया पर है, और वहां इसे लेकर तरह-तरह की बहस चल रही है।
अब सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं उन्हें सार्वजनिक सभ्यता और संस्कृति के कुछ बुनियादी शिष्टाचार मानने भी पड़ते हैं। सुधा मूर्ति किसी वामपंथी विचारधारा की नहीं हैं जो उन्हें संभाजी भिड़े जैसे व्यक्ति के आने पर भी उनसे मिलने से परहेज होना चाहिए, और उम्र का इतना फासला होने पर उन्होंने अगर पैर छू लिए, तो यह भी बहुत बड़ा जुर्म नहीं है। सुधा मूर्ति देश में धर्मनिरपेक्षता की आंदोलनकारी भी नहीं हैं, और अपनी किताबों के मराठी संस्करणों के प्रचार के काम में इस प्रमुख मराठी व्यक्ति से मुलाकात से कुछ फायदा भी हो सकता है। इतना तो हुआ ही है कि इस विवाद के चलते लोगों को उनकी किताबों की कुछ अधिक जानकारी हुई है, और उनके मराठी संस्करणों की खबर भी हुई है। जिस कारोबार में प्रचार की जरूरत होती है वहां शोहरत और बदनामी में अधिक फर्क नहीं होता है, क्योंकि दोनों से ही चर्चा होती है। इसलिए सुधा मूर्ति का एक विवादास्पद बुजुर्ग से मिलना अटपटा नहीं रहा। यह जरूर है कि सोशल मीडिया पर लोग यह पूछने का हक रखते हैं कि सुधा मूर्ति ने भीमा-कोरेगांव हिंसा के मुख्य अभियुक्त संभाजी भिड़े के साथ मुलाकात की अपनी तस्वीर क्यों ट्वीट की?
हम संभाजी भिड़े की सोच और उनके तौर-तरीकों से पूरी असहमति रखते हुए भी इस बात को जायज मानते हैं कि अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों के बीच बातचीत का सिलसिला चलते रहना चाहिए। लोगों को याद होगा कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे और गांधी के एक बेटे के बीच इस हत्या के पीछे की सोच को लेकर लंबा पत्र व्यवहार हुआ था, दोनों ने एक-दूसरे से कई बातें पूछी थीं, और कई बातें बताई थीं। लोगों को यह भी याद होगा कि 2008 में प्रियंका गांधी ने तमिलनाडु की वेल्लूर जेल जाकर राजीव गांधी की हत्या की सजा काट रही उम्रकैदी नलिनी से मुलाकात की थी जो कि 26 बरस से जेल में थी। इससे अधिक विपरीत सोच और क्या हो सकती है कि हत्यारे या हत्यारे के परिवार से मृतक के परिवार के लोग बातचीत करें, और एक-दूसरे को समझने की कोशिश करें। लोकतंत्र का तकाजा यही होता है कि अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों के बीच बातचीत का रिश्ता खत्म नहीं होना चाहिए, फिर चाहे उनमें से एक तबका गांधीवादी अहिंसकों का हो, और दूसरा तबका साम्प्रदायिक संगठनों, या हथियारबंद नक्सलियों का हो। तमाम लोगों के बीच बातचीत जारी रहनी चाहिए, क्योंकि किसी की निंदा या भत्र्सना से उसकी सोच को नहीं बदला जा सकता, बातचीत से ही बदला जा सकता है। सुधा मूर्ति के मन में अगर भिड़े की हिंसक सोच को बदलने की बात भी होगी, तो भी उसके लिए बातचीत ही एक जरिया हो सकता है। प्रियंका गांधी ने जेल में नलिनी से मुलाकात में यही पूछा था कि उनके पिता को क्यों मारा गया, जो भी वजह थी उसे बातचीत से भी सुलझाया जा सकता था। गांधी के बेटे और गोपाल गोडसे के बीच लंबा पत्र व्यवहार हुआ था, और दोनों ने परस्पर सम्मान के साथ एक-दूसरे की सोच को समझने की कोशिश की थी।
इसलिए आज सुधा मूर्ति की एक विवादास्पद आक्रामक हिन्दुत्ववादी बुजुर्ग से मुलाकात को ही आलोचना का सामान बना लेना ठीक नहीं है। वे लिखने-पढऩे वाली महिला हैं, सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाती हैं, और उनसे जगह-जगह इस मुलाकात के बारे में कई सवाल किए जा सकते हैं, लोग सोशल मीडिया पर उनके और उनकी मुलाकात के बारे में लिख भी रहे हैं, और लोकतंत्र में एक-दूसरे को प्रभावित करने का यही जरिया होना चाहिए। अब विचारधारा के आधार पर किसी को अछूत करार देना ठीक नहीं है, किसी के काम अगर उसे अछूत बनाने लायक हैं, तो उन कामों पर उनसे चर्चा होनी चाहिए, और उनकी सोच को बदलने की कोशिश होनी चाहिए। लोगों के पास आज सोशल मीडिया एक बड़ा जरिया है, और उसके इस्तेमाल से कल तक के बेजुबान लोग भी आज अपनी बात दूर-दूर तक पहुंचा सकते हैं। आज लोकतंत्र में तो इतनी गुंजाइश भी है कि ब्रिटेन में प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को अपनी सास की इस मुलाकात पर सवालों का सामना करना पड़ सकता है। लोकतंत्र को वैसा ही लचीला रहने देना चाहिए।
जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़ देश के पचासवें मुख्य न्यायाधीश बने हैं, और अपने पिछले मुख्य न्यायाधीश के मुकाबले उनके पास खासा लंबा समय है। यू.यू. ललित कुल 75 दिन के सीजेआई थे, और चन्द्रचूड़ दो बरस तक रहेंगे। चन्द्रचूड़ के बारे में चर्चा इस जिक्र के बिना पूरी नहीं होती कि उनके वी.वाई. चन्द्रचूड़ देश में सबसे लंबे समय तक रहे सीजेआई थे, और वे सवा सात साल से अधिक इस ओहदे पर रहे। दिलचस्प बात यह भी है कि बेटे ने दशकों पहले के अपने पिता के दिए एक फैसले को पलट दिया था, और इस नाते वे पिता के साये के बाहर काम करने वाले व्यक्ति भी माने जा सकते हैं। लेकिन ऐसी निजी बातें और ऐसी इक्का-दुक्का मिसालें बहुत मायने नहीं रखती हैं, और हिन्दुस्तान के हर मुख्य न्यायाधीश से सभी की बहुत सी उम्मीदें रहती हैं, और हमारी भी हैं।
हम उन मामलों से परे जाकर बात करना चाहते हैं जो कि देश के कानून के जानकार कर रहे हैं कि नए सीजेआई अपनी सोच के मुताबिक देश के सबसे चर्चित और महत्वपूर्ण कुछ मामलों में क्या रूख अख्तियार करेंगे। वह तो अपनी जगह अहमियत रखता ही है, लेकिन हम उससे परे भी बात करना चाहते हैं। देश का मुख्य न्यायाधीश कानून मंत्री के माध्यम से केन्द्र सरकार से न्याय व्यवस्था के ढांचे पर लगातार बात कर सकता है, और करता भी है। चूंकि चन्द्रचूड़ का कार्यकाल दो बरस का है, इसलिए वे कुछ गंभीर कोशिशें कर सकते हैं, और सुप्रीम कोर्ट के सामने कटघरे में खड़े हुए मामलों से परे जाकर भी देश की न्याय व्यवस्था के बारे में कुछ बुनियादी बातें कर सकते हैं। और ये बुनियादी बातें कम नहीं हैं। ये बातें निचली जिला अदालतों से शुरू होती हैं, और न्याय व्यवस्था की इस पहली सीढ़ी की बदहाली के सवाल उठाती हैं। हम लगातार इस बात को देखते हैं कि छोटी अदालतों के लिए जज और मजिस्ट्रेट बनाने के जो तरीके हैं, वे बाबूगिरी के मामूली और बेदिमाग इम्तिहानों के हंै। लोग राज्य के लोकसेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में अधिक नंबर पाकर न्यायिक सेवा में आ जाते हैं, और उनकी किसी तरह की सामाजिक-राजनीतिक हकीकत की समझ नहीं आंकी जाती। वे कानून को बहुत ही क्रूर तरीके से समझकर आते हैं, और समाज की उनकी बेरहम नासमझी की वजह से वे अपने दिए गए किसी आदेश या अपने सुनाए गए किसी फैसले के पहले भी पूरी अदालती प्रक्रिया में भारतीय समाज की धर्म और जाति की व्यवस्था, उसके लैंगिक पूर्वाग्रह का शिकार रहते हैं। उनकी सोच में इंसाफ नहीं रहता है, और न ही निचली अदालत की सुनवाई में उसकी जरूरत मानी जाती है। आंखों पर पट्टी बांधे जिस तरह इंसाफ की देवी की प्रतिमा दिखाई जाती है, निचली अदालतें उसी तरह से फैसले देती हैं। लेकिन हम उनके फैसलों पर अभी टिप्पणी नहीं कर रहे हैं, फैसलों तक पहुंचने का सुनवाई का जो सिलसिला रहता है, वह देश के सबसे कमजोर तबकों, और गरीबों, महिलाओं के खिलाफ जितनी बेइंसाफी से भरा रहता है, उसे नए सीजेआई को खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए। हमारा ख्याल है कि देश के दर्जन-दो दर्जन सबसे जलते-सुलगते अदालती मामलों पर फैसलों से अधिक महत्वपूर्ण बात शायद यह होगी कि न्याय व्यवस्था की पहली सीढ़ी को गरीब के चढऩे लायक बनाया जाए। आज न्याय व्यवस्था जो कि पुलिस जांच से शुरू होती है, और जिला या निचली अदालत से पहला फैसला पाती है, वह पूरी की पूरी कमजोर लोगों के खिलाफ है, उसके पीछे समाज का पूरा पूर्वाग्रह काम करता है, और हिन्दुस्तानी भ्रष्टाचार देश में सबसे अधिक हिंसक अगर कहीं है, तो वह निचली अदालतों में है। जस्टिस चन्द्रचूड़ के सामने यह एक ऐतिहासिक मौका है अगर वे केन्द्र और राज्य सरकारों को इस बात के लिए सहमत करा सकें कि राज्य स्तर की न्यायिक सेवा के अधिकारियों को कैसे अधिक संवेदनशील बनाया जा सकता है, कैसे उन्हें सामाजिक सरोकारों की समझ दी जा सकती है। आज जो लोग भारत की सामाजिक हकीकत को जानते हैं, वे यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि देश के अल्पसंख्यक तबकों, दलित और आदिवासी, गरीब और महिला को लेकर निचली अदालतों का रूख बहुत ही सामंती, पुरूष प्रधान, और हिंसक पूर्वाग्रहों से लदा रहता है, सामाजिक हकीकत की उनकी समझ शून्य रहती है। यह तस्वीर बदलने की जरूरत है।
आज हिन्दुस्तान की छोटी अदालतों में कमजोर और गरीब तबकों की एक पूरी पीढ़ी मुकदमे लड़ते खप जाती है, अगर वे किसी ताकतवर के खिलाफ इंसाफ के लिए जाते हैं। और ऐसे ताकतवर का कोई इंसान होना भी जरूरी नहीं रहता, राज्य सरकारें पांच लीटर दूध में मिलावट साबित करने के लिए तीस-तीस बरस तक मुकदमे लड़ती हैं, और उसके बाद जाकर दूध वाले को कुछ महीनों की कैद होती है, जिससे खासा अधिक वक्त वह इन दशकों में अदालत जाते-आते लगा चुका होता है। जस्टिस चन्द्रचूड़ को न्याय व्यवस्था को समाज के सबसे कमजोर लोगों के प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए, वरना अपने सामने अपनी बेंच में आए हुए मामलों पर फैसला देना तो सुप्रीम कोर्ट में रोजमर्रा का काम है, वैसे फैसले किताबों में जिक्र पा सकते हैं, लेकिन देश की तीन चौथाई आबादी की दुआ नहीं पा सकते। हम नए मुख्य न्यायाधीश के आने पर सामने खड़े हुए चर्चित मामलों की फेहरिस्त पर चर्चा करने के मुकाबले इस बुनियादी बात को उठाना जरूरी समझते हैं, और सुप्रीम कोर्ट में जनहित के मामलों को लेकर लडऩे वाले कुछ प्रमुख वकीलों को भी नए सीजेआई के सामने इन बातों को किसी तरह से रखना चाहिए ताकि सबसे कमजोर लोगों को इंसाफ मिलने की थोड़ी सी गुंजाइश तो पैदा हो सके। आज केन्द्र और राज्य सरकारों में कहीं भी इस बुनियादी सुधार को लेकर कोई चर्चा नहीं है, इसलिए हम अपनी बात को एक बिल्कुल ही अकेली सलाह के रूप में देख रहे हैं, लेकिन हम इसे कम महत्वपूर्ण सलाह नहीं मान रहे। सुप्रीम कोर्ट के जज जिन अखबारों को पढ़ते हैं, वहां पर लिखने वाले कानून के जानकार भी न्याय व्यवस्था के बुनियादी ढांचे की बेहतरी का मुद्दा उठा सकें, तो ही अदालत पर एक वजन पड़ता है। जनहित याचिकाओं को लेकर जानकार वकीलों का तजुर्बा यह है कि जब तक इनके मुद्दे जनचर्चा में नहीं आते हैं, तब तक अदालत भी इन्हें जनहित का नहीं मानती है, और जनहित याचिका के जगह पाने की गुंजाइश भी नहीं रहती। इसलिए कई लोगों को अदालती नींव में सुधार की बात को बढ़ाना होगा, और इसीलिए हम यहां यह चर्चा छेड़ रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कोरिया की लाखों महिलाओं को सेक्स-गुलाम बनाकर रखने वाले जापान ने अपने इस ऐतिहासिक अपराध के लिए वह कोरिया से माफी माँगी थी। युद्ध के दौरान सैनिकों के सुख के लिए न सिर्फ जापान में, बल्कि दुनिया के कुछ और देशों ने भी ऐसे जुर्म सरकारी फैसलों के तहत किए हुए हैं। इससे इतिहास में दर्ज एक जख्म का दर्द कुछ हल्का हुआ। हिटलर ने जो यहूदियों के साथ किया, अमरीका ने जो जापान पर बम गिराकर किया, वियतनाम में पूरी एक पीढ़ी को खत्म करके किया, और अफगानिस्तान से लेकर इराक तक जो किया, अमरीका के माफीनामे की लिस्ट दुनिया की सबसे लंबी हो सकती है। लेकिन बात सिर्फ एक देश की दूसरे देश पर हिंसा की नहीं है। देश के भीतर भी ऐतिहासिक जुर्म होते हैं, और उनके लिए लोगों को, पार्टियों को, संगठनों को, जातियों और धर्मों को माफी मांगने की दरियादिली दिखानी चाहिए। ऑस्ट्रेलिया की एक मिसाल सामने है जहां पर शहरी गोरे ईसाईयों ने वहां के जंगलों के मूल निवासियों के बच्चों को सभ्य और शिक्षित बनाने के नाम पर उनसे छीनकर शहरों में लाकर रखा था, और अभी कुछ बरस पहले आदिवासियों के प्रतिनिधियों को संसद में बुलाकर पूरी संसद में उनसे ऐसी चुराई-हुई-पीढ़ी के लिए माफी मांगी। पोप ने पादरियों के हाथों बच्चों के यौन शोषण पर माफ़ी माँगी।
अब हम भारत के भीतर अगर देखें, तो गांधी की हत्या के लिए कुछ संगठनों को माफी मांगनी चाहिए, जिनके लोग जाहिर तौर पर हत्यारे थे, और हत्या के समर्थक थे। इसके बाद आपातकाल के लिए कांग्रेस को खुलकर माफी मांगनी चाहिए, 1984 के दंगों के लिए फिर कांग्रेस को माफी मांगनी चाहिए, इंदिरा गांधी की हत्या के लिए खालिस्तान-समर्थक संगठनों को बढ़ावा देने वाले लोगों को माफी मांगनी चाहिए, बाबरी मस्जिद गिराने के लिए भाजपा को और संघ परिवार के बाकी संगठनों को माफी मांगनी चाहिए, गोधरा में ट्रेन जलाने के लिए मुस्लिम समाज को माफी मांगनी चाहिए, और उसके बाद के दंगों के लिए नरेन्द्र मोदी और विश्व हिन्दू परिषद जैसे लोगों और संगठनों को माफी मांगनी चाहिए। इस देश के दलितों से सवर्ण जातियों को माफी मांगनी चाहिए कि हजारों बरस से वे किस तरह एक जाति व्यवस्था को लादकर हिंसा करते चले आ रहे हैं। और मुस्लिम समाज के मर्दों को औरतों से माफी मांगनी चाहिए कि किस तरह एक शहबानो के हक छीनने का काम उन्होंने किया। इसी तरह शाहबानो को कुचलने के लिए कांग्रेस पार्टी को भी माफी मांगनी चाहिए जिसने कि संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा। और बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि हिंदुस्तानी सुप्रीम कोर्ट को भी अपने बहुत से फ़ैसलों के लिए माफी माँगनी चाहिए।
दरअसल सभ्य लोग ही माफी मांग सकते हैं। माफी मांगना अपनी बेइज्जती नहीं होती है, बल्कि अपने अपराधबोध से उबरकर, दूसरों के जख्मों पर मरहम रखने का काम होता है। दुनिया के कई धर्मों में क्षमायाचना करने, या जुर्म करने वालों को माफ करने की सोच होती है, लेकिन ऐसे धर्मों को मानने वाले लोग भी रीति-रिवाज तक तो इसमें भरोसा रखते हैं, असल जिंदगी में इससे परे रहते हैं। लेकिन नए साल के करीब आने के मौके पर हमने अभी-अभी यहां पर लिखा था कि लोग कौन से संकल्प ले सकते हैं। इसमें आज की हमारी यह चर्चा भी जुड़ सकती है क्योंकि बीती जिंदगी की गलतियों और गलत कामों से अगर उबरना है, एक बेहतर इंसान बनना है, तो उन गलत कामों को मानकर, उनके लिए माफी मांगे बिना दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
आज जब संयुक्त राष्ट्र संघ औपचारिक रूप से यह कहता है कि रूस अपनी फ़ौजों को विग्राया देकर भेज रहा है कि उसके सैनिक यूक्रेनी महिलाओं से बलात्कार करें, तो पुतिन के बात के रूस के लिए यह एक मुद्दा रहेगा माँफी माँगने के लिए। और हिंदुस्तान में इस दौर में मुस्लिमों, दलितों, आदिवासियों के साथ जो हो रहा है, उसके लिए माफ़ी माँगना तो यह मुल्क अगले सौ बरस में भी नहीं सीख पाएगा, माफ़ी माँगने के लिए सभ्य होने की ज़रूरत होती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नए साल के आने की खुशी में हर तबका अपने-अपने तरीके से जश्न या खुशियां मनाता है। इसमें सरकार या प्रशासन के नियम यह तय करते हैं कि कोई दावत कितने बजे तक चले। मुम्बई में ऐसी दावतों के लिए पुलिस ने रात डेढ़ बजे तक का वक्त तय किया हुआ है। इसके खिलाफ होटल वालों ने हाईकोर्ट में अपील की थी और वहां से यह आदेश हुआ था कि पार्टियां सुबह पांच बजे तक चल सकेंगी। इस पर देश के एक बड़े संविधान विशेषज्ञ वकील हरीश साल्वे ने ट्वीट किया था कि यह कैसी नौबत आ गई है कि शराबखानों और पार्टियों को बंद करने का वक्त अदालतों को तय करना पड़ रहा है, राजनीतिक व्यवस्था अलोकप्रिय फैसले लेने से बचते हुए जिम्मेदारी की जगह अदालतों के लिए खुद खाली कर रही है।
हिन्दुस्तान आजादी के बाद से एक ऐसी अजीब से तानाशाह सरकारी इंतजाम का शिकार रहा है जिसमें सरकार हर किस्म के हक अपने हाथ में रखते हुए लोगों की जिंदगी को, कारोबार को, जीने के तौर-तरीकों की लगाम अपने हाथों में रखने की शौकीन रही है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम हर बरस एक-दो बार इस बारे में लिखते हैं कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही पुलिस रात साढ़े दस बजे से लाठियां लहराकर, गालियां देकर, पानठेलों तक को बंद करवाने पर उतारू हो जाती है। आधी रात काम से लौटते किसी मजदूर को, किसी रिक्शेवाले को कहीं भी एक प्याली चाय भी नहीं मिल सकती। दूसरी तरफ जो महंगे होटल हैं, उनको अपने सितारा दर्जे के नियमों के मुताबिक चौबीसों घंटे चाय-कॉफी और नाश्ते का इंतजाम रखना पड़ता है, और उतना खर्च उठाने की ताकत रखने वाले कोई भी वहां जाकर खा-पी सकते हैं। बेदिमाग और बददिमाग शासन और प्रशासन को यह समझ नहीं आता कि बाजार में काम करने वाले न सिर्फ कारोबारी-कर्मचारी, बल्कि खुद कारोबारी ही रात नौ-दस बजे के पहले अपने खुद के घर नहीं लौट पाते, और फिर अगर वे चाहें कि परिवार के साथ कुछ देर बाहर निकलें, तो उनको एक चाय ठेला भी खुला नहीं मिल सकता।
आज जब शहरीकरण की वजह से लोगों का रात-दिन काम करना होता है, तो फिर उनकी जरूरतों को भी रात-दिन पूरी होने से रोकने का हक किसी सरकार को नहीं है। जनता के हक के खिलाफ सरकारें अपनी बददिमागी दिखाती हैं, और चूंकि आम जनता संगठित नहीं है, इसलिए उसके रोज के हक को कुचलने के खिलाफ भी वह अदालत नहीं जा पाती। जिस कारोबार को सरकारी रोक से नुकसान हो रहा था, वह कारोबार मुम्बई में तो अदालत तक चले गया, बाकी जगहों पर भी देश का वही कानून लागू है, और देश के कानून में अमीर और गरीब ग्राहकों के बीच कोई फर्क भी नहीं है। इसलिए जब छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सरकार यह तय करती है कि शराबखानों में किस रेट से सस्ती शराब नहीं बेची जाएगी, तो फिर ऐसा नियम सस्ती शराब पीने की ही ताकत रखने वाले तबके के हक के खिलाफ है। लेकिन जनता में जागरूकता न होने से पुलिस अपने अंदाज में रात साढ़े दस बजे से बाजार का कर्फ्यू लगा देती है, और आम लोग अपने परिवार सहित बाहर निकलकर जिंदगी जीने का हक भी खो बैठते हैं। ठेले-खोमचे वालों को रात साढ़े दस बजे से लाठियों से भगा दिया जाता है, और बड़े होटलों में खाने को कुछ न कुछ तो चौबीसों घंटे मिलता है।
शहरीकरण और पर्यटन की मामूली समझ रखने वाले लोग भी यह समझ सकते हैं, कि जिस प्रदेश या शहर में रात कुछ खाने-पीने भी न मिले, वहां पर बाहर से आए हुए लोग उस जगह को किस तरह मरघटी सन्नाटे वाली पाते होंगे। अगर किसी देश-प्रदेश, शहर या इलाके को पर्यटकों को बढ़ावा देना है, कारोबार को बढ़ाना है, रोजगार के मौके बढ़ाने हैं, दिन के ट्रैफिक जाम के घंटों की भीड़ को रात तक फैलाना है, तो उसके लिए हर शहर में रात की जिंदगी को जीने का हक देना होगा। छत्तीसगढ़ सहित देश के बाकी जिस हिस्से में भी ऐसी रोक लगती है, उसके खिलाफ स्थानीय जनता या स्थानीय कारोबार अदालतों में जाकर सरकारी मनमानी के खिलाफ इंसाफ पा सकते हैं। यह बात लोकतंत्र में अतिसरकारीकरण, या अतिनियंत्रण है, और इसे खत्म किया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ के बारे में हम यह सकते हैं कि यहां बाहर से आने वाले पर्यटक कुछ गिनी-चुनी जगहों को देखने के अलावा रात में सब-कुछ मुर्दा पाते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। अगर रात में बाजार और मनोरंजन के घंटे बढ़ेंगे, तो उससे कर्मचारियों के नए रोजगार भी खड़े होंगे, और शाम की भीड़ देर रात तक खिसककर सडक़ों से ट्रैफिक जाम भी कम करने में मदद करेगी। जो लोग यह सोचते हैं कि रात में बाजार जल्द बंद करवाने से जुर्म कम होते हैं, उनको यह रिकॉर्ड देख लेना चाहिए कि जब तक सडक़ों पर चहल-पहल रहती है, कारोबार जारी रहता है, तब तक जुर्म कम होते हैं। जुर्म उस समय बढ़ते हैं, जब सडक़ों और बाजारों में सन्नाटा छा जाता है। वैसे भी आज के ऑनलाइन मार्केट के मुक़ाबले स्थानीय बाज़ार को जि़ंदा रखने के लिए उसे चौबीसों घंटे खुले रखने की इजाज़त देनी चाहिए। राज्यों में किसी को इस बात को समझना चाहिए, और जनता को देर रात तक अपने परिवार के साथ बाहर निकलकर कुछ खाने-पीने के लिए ठेले या रेस्तरां नसीब होने देना चाहिए, या जो लोग देर रात खऱीददारी करना चाहते हैं, दुकान चलाना चाहते हैं, उनको भी इसकी आज़ादी देना चाहिए। व्यापार संगठन जो ऑनलाइन कारोबार के ख़िलाफ़ लगे रहते हैं, उन्हें भी बाज़ार रात-दिन खुले रहने की छूट माँगनी चाहिए। जितना हक़ पैसेवालों का महँगे होटलों में देर रात खाने का है, उतना ही हक़ मज़दूर का भी फुटपाथ पर तमाम रात चाय-नाश्ता पाने का होना चाहिए।