संपादकीय
उत्तरप्रदेश के सहारनपुर से निकला हुआ एक वीडियो चारों तरफ फैल रहा है जिसमें राज्य कबड्डी प्रतियोगिता में आई महिलाओं को शौचालय में खाना परोसा दिखाया गया है। यह खुलेआम दिन की रौशनी में हो रहा है, और शौचालय के फर्श पर से सबको खाना दिया जा रहा है। शौचालय को देखकर बताया जा सकता है कि यह पुरूषों के लिए बना हुआ है, और मूत्रालयों के सामने ही फर्श से लड़कियां खाना ले रही हैं। हिन्दुस्तान में गरीब खिलाडिय़ों को आमतौर पर ऐसे ही दौर से गुजरना होता है। जो निजी मुकाबलों वाले खेल रहते हैं, वहां तो कुछ खिलाडिय़ों के मां-बाप संपन्न होने की वजह से उनके साथ सफर कर लेते हैं, उन्हें ठीक से ठहरा लेते हैं। लेकिन तमाम किस्म के मुकाबलों के तकरीबन तमाम खिलाडिय़ों को ऐसी ही बदहाली में सफर करना होता है, काम चलाऊ जगह पर नहाना-सोना होता है, और शौचालय में खाना पकाने और खिलाने का यह मामला तो भारत में खेलों के प्रति सरकारी रूख का एक नया रिकॉर्ड है। और सरकार से परे भी इस देश में जितने खेल संगठन हैं, उनमें से अधिकतर का यही हाल है। इसी उत्तरप्रदेश के खेलों से जुड़े एक नेता का एक अश्लील वीडियो अभी कुछ दिन पहले ही सामने आया था जिसमें वे एक महिला के साथ अंतरंग हालत में दिख रहे थे। यह बात भी भारतीय खेलों में कई जगह सुनाई पड़ती है कि खिलाडिय़ों को टीम में चुने जाने के लिए कई तरह के समझौते करने पड़ते हैं।
एक तरफ कुछ चुनिंदा खेलों, और चुनिंदा प्रदेशों से निकलकर खिलाड़ी दुनिया भर में लगातार देश का नाम रौशन करते हैं, लेकिन हरियाणा, पंजाब, मणिपुर जैसे कुछ गिने-चुने राज्यों को छोड़ दें, तो अधिकतर राज्यों से कोई खिलाड़ी निकलकर आगे बढ़ते नहीं दिखते हैं, जबकि वहां आबादी बहुत है, और वहां राज्यों में सौ तरह की सरकारी फिजूलखर्ची भी दिखती है। और हम खेलों को किसी अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में मैडल के हिसाब से भी नहीं देखते। हम खेलों को टीम भावना और खिलाड़ी भावना विकसित करने के लिए जरूरी समझते हैं, लोगों को जिंदगी भर फिटनेस और अच्छी सेहत की तरफ ले जाने के लिए भी कमउम्र से खेल जरूरी समझते हैं। लेकिन अधिकतर राज्यों में स्कूल शिक्षा विभाग आमतौर पर भ्रष्ट रहता है, और उसी के चलते खेलों के सामान से लेकर खेल के आयोजनों तक सब कुछ बर्बाद रहता है। फिर स्कूलों से ही बच्चों पर पढ़ाई-लिखाई का दबाव इतना बढ़ा दिया जाता है कि खेलों में दिलचस्पी को अधिकतर मां-बाप वक्त की बर्बादी मानकर चलते हैं, और हम आधी सदी पहले से यह नारा सुनते आए हैं- खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब।
अब स्कूलों की किताबी शिक्षा को हिन्दुस्तान में इतना महत्व दे दिया गया है कि बच्चों के मां-बाप अपने बच्चों को उससे परे कुछ करने ही देना नहीं चाहते। ऐसे माहौल के बीच अगर कुछ बच्चे अपने मां-बाप की सहमति, अनुमति, या उनके दिए हौसले से खेलों में आगे बढऩा चाहते हैं, तो न उनके खानपान का इंतजाम रहता, न उनके पास जूते और सामान रहते, और न ही उनके लिए सफर या रहने-खाने का ठीकठाक इंतजाम रहता। हालत यह है कि अंतरराष्ट्रीय मैडल लाने वाले अधिकतर खिलाड़ी किसी निजी कारोबार से मदद पाकर तैयारी किए हुए रहते हैं, वे रवानगी के आखिरी पल तक सरकार या खेल संघों की तानाशाही से जूझते रहते हैं, जो मैडल लेने के करीब पहुंचे रहते हैं, उनके कोच को बदलने में खेल संघों की राजनीति जुट जाती है, और क्वार्टर फाइनल के पहले का मुकाबला तो ये खिलाड़ी अपने खेल संघों और अपनी सरकारों से जीतकर ही टूर्नामेंट में पहुंच पाते हैं।
आज देश भर में खेलों को राजनीति से अलग करने की बात चलते रहती है, खेल संघों में सिर्फ खिलाड़ी-पदाधिकारी रहें, यह बात भी लंबे वक्त से कही जा रही है, लेकिन हम बीसीसीआई से लेकर राज्यों के क्रिकेट संघों तक, और भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन से राज्यों के ओलंपिक संघ तक देखते हैं कि अधिकतर जगहों पर गैरखिलाड़ी नेता, अफसर, कारोबारी काबिज हैं, और वे इन खेलों पर कब्जा करके अपना सार्वजनिक अस्तित्व बनाए रखते हैं, शायद मोटी कमाई भी करते हैं। खेल संघों के लोग और सरकार के खेल विभागों के लोग खिलाडिय़ों का सौ तरह से शोषण भी करते हैं, और उस बारे में अधिक लिखने का मतलब कई मां-बाप का हौसला पस्त करना होगा।
उत्तरप्रदेश के जिस जिले में लड़कियों के लिए पुरूष शौचालय में खाना पकाकर वहां खिलाया गया है, फर्श पर धरा खाना दिखता है, उनकी टीम में अगर एक भी नेता या अफसर के बच्चे होते, तो पूरा माहौल बदल गया होता। गरीब बच्चों के खेल में खिलाडिय़ों का यही हाल देखने मिलता है। दुनिया के न सिर्फ विकसित देश, बल्कि कई गरीब देश भी अपने खिलाडिय़ों को सहूलियत, अच्छा माहौल, और हिफाजत देकर उन्हें आगे बढ़ाते हैं। हिन्दुस्तान में बचपन से ही खिलाड़ी जिस गंदी राजनीति, भ्रष्ट सरकारी कामकाज, और तानाशाह खेल संघ देखते हुए आगे बढ़ते हैं, उनके मन में इन सबके लिए हिकारत पनपती होगी। खिलाडिय़ों के बीच से इन सबके खिलाफ आवाज उठनी चाहिए। अभी यह एक वीडियो सामने आया, तो देश भर में इससे खबरें बनीं, और हमें भी यह लिखना सूझा। ऐसे अधिक से अधिक भांडाफोड़ होने चाहिए, और उसके बाद ही किसी तरह के सुधार का रास्ता खुल सकेगा
मध्यप्रदेश के झाबुआ में कॉलेज छात्रों को उनके सीनियर छात्र परेशान कर रहे थे, पीट रहे थे तो उन्हें यह खतरा था कि वे हॉस्टल लौटेंगे तो और मार खाएंगे। उन्होंने पुलिस से हिफाजत मांगी तो वह नहीं मिली। इस पर उन्होंने जिले के पुलिस अधीक्षक को फोन किया, और मदद मांगी कि वहां से उन्हें और बुरी गंदी-गंदी गालियां सुनने मिलीं, और गिरफ्तारी की धमकी भी। यह बातचीत फोन पर रिकॉर्ड कर ली गई थी, और मामला मुख्यमंत्री तक पहुंचा। आवाज की जांच करने के बाद एसपी को सस्पेंड कर दिया गया है। इस घटना में नया कुछ भी नहीं है, सिवाय इसके कि एक बड़े अफसर से फोन पर की गई बातचीत रिकॉर्ड कर लिए जाने से जो सुबूत जुटा, उसकी बिना पर अफसर पर यह कार्रवाई हो सकी, अगर यह रिकॉर्डिंग नहीं होती, तो जिले के पुलिस कप्तान का कुछ भी नहीं बिगड़ा होता। आज चारों तरफ इस तरह की कॉल रिकॉर्ड करने की बात सामने आती है, और उसके बाद भी अगर लोग टेलीफोन पर धमकी देने, हिंसक और अश्लील बात करने से नहीं कतराते हैं, तो यह उनकी समझ की कमी भी है। आज वक्त ऐसा है कि हर किसी को यह मानकर चलना चाहिए कि उनकी बातचीत रिकॉर्ड तो हो ही रही है, और इसके लिए किसी खुफिया एजेंसी की जरूरत नहीं है, जिससे बात हो रही है वे भी इसकी रिकॉर्डिंग कर सकते हैं।
लेकिन बात रिकॉर्डिंग से परे की है, और पुलिस की बददिमागी की है। किसी भी जिले का पुलिस अधीक्षक बनना एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी पाना होता है। अफसर के हाथ में सरकार बहुत से घोषित और अघोषित अधिकार देती है, और उससे कई तरह की जायज और नाजायज उम्मीद भी करती है। अंग्रेजों के समय में जिस तरह जिला कलेक्टर अंग्रेज सरकार के एजेंट रहते थे, उसी तरह आज देश के अधिकतर प्रदेशों में कलेक्टर और एसपी सरकार के ऐसे ही एजेंट रहते हैं। और इसी हैसियत की वजह से वे करोड़ों-अरबों कमाते हैं, सरकार की राजनीतिक पसंद और नापसंद के मुताबिक कानून को हांकते हैं, और यह करते हुए वे बड़े बददिमाग भी हो जाते हैं। मध्यप्रदेश कोई अकेला ऐसा राज्य नहीं है, देश के अधिकतर राज्यों में जिलों के कलेक्टर और एसपी का यही हाल रहता है। और उनका यह मिजाज मातहत लोगों पर भी उतरते चलता है। इन दोनों दफ्तरों की जवाबदेही बहुत कम कर दी जाती है, और नतीजा यह होता है कि वे सामंती अंदाज में काम करने लगते हैं। हिन्दुस्तान में यह बात कही भी जाती है कि असली ताकत पीएम, सीएम, और डीएम में होती है। डीएम की देखादेखी जिलों के एसपी भी तानाशाह हो जाते हैं, और एक मामूली सी एफआईआर होने या न होने का फैसला भी पुलिस कप्तान की मर्जी से होता है। अभी लगातार यह देखने में आता है कि सत्ता से जुड़े हुए बड़े-बड़े कारोबारी अपनी कारोबारी दिलचस्पी के मामले पुलिस की दखल से निपटाने लगते हैं।
अब मध्यप्रदेश में तो पुलिस कप्तान ने सिर्फ गालियां दी हैं, और गिरफ्तारी की धमकी दी है, लेकिन देश भर से ऐसे वीडियो आते ही रहते हैं जिनमें बहुत बुरी तरह बर्ताव करते हुए पुलिस शिकायतकर्ताओं को ही पीटती दिखती है। अभी कल ही उत्तर भारत का कोई वीडियो सामने आया है जिसमें परिवार की लडक़ी से बलात्कार की शिकायत करने पहुंचे परिवार को पुलिस अफसर ही बहुत बुरी तरह पीटते दिख रहा है। हमारा अपना आम जिंदगी का तजुर्बा यही रहा है कि पुलिस को किसी मामले में दखल देने के लिए बुलाया जाए, तो वह आते ही गालियां देना, और पीटना शुरू कर देती है। ऐसे में शरीफ लोगों को धीरे-धीरे यह लगने लगता है कि मामूली गाली-गलौज और पिटाई की शिकायत करके पुलिस को बुलाने का उल्टा ही नतीजा होता है, और यही दोनों बातें और अधिक होने लगती हैं।
यह सोचा जाए कि पुलिस का ऐसा हिंसक बर्ताव क्यों रहता है, तो अलग-अलग समय पर बने हुए पुलिस आयोगों की रिपोर्ट सरकारों के पास धूल खाते पड़ी हैं जिनमें पुलिस के काम करने के हालात सुधारने की सिफारिश की गई है। यह बात बड़ी आम है कि अगर ऊपरी कमाई की गुंजाइश न रहे, तो पुलिस की नौकरी में किसी भी दूसरे सरकारी महकमे के मुकाबले काम के घंटे अधिक रहते हैं, रात-दिन का ठिकाना नहीं रहता है, कई किस्म के खतरे रहते हैं, और छुट्टियां नहीं मिलती हैं। फिर भी लोग पुलिस की नौकरी पाने के लिए लगे रहते हैं। ऊपरी कमाई की सहूलियत को अगर छोड़ दें, तो पुलिस की नौकरी में आमतौर पर नेताओं की जी-हजूरी करने, और सत्ता के पसंदीदा मुजरिमों को छोडऩे, सत्ता के खिलाफ बागी तेवर रखने वाले बेकसूरों के खिलाफ झूठे केस बनाने का काम पुलिस में रात-दिन चलता है। नतीजा यह होता है कि पुलिस की सोच से इंसाफ पूरी तरह खत्म हो चुका रहता है, और उसे यही लगता है कि या तो उसे ऊपर के लोगों की मर्जी का काम करना है, या अपने स्तर पर कोई फैसला लेना है तो अपनी मर्जी चलाना ही उसका अधिकार है। जहां जिम्मेदारी की सोच खत्म हो जाती है, जहां रिश्वत देकर कुर्सी पाई जाती है, जहां पर कुर्सी पाकर कमाई करना ही मकसद रह जाता है, वहां पर नैतिकता, लोकतंत्र, जवाबदेही जैसे शब्द निरर्थक हो जाते हैं। इसलिए पुलिस की बदसलूकी, उसकी हिंसा का सीधा रिश्ता राजनीतिक दखल और दबाव से टूटे हुए मनोबल से रहता है। फिर यह भी है कि जब एक बार राजनीतिक दबाव की वजह से माफिया को बचाना है, और शरीफ को फंसाना है, तो ऐसे जुर्म से सने हुए अपने हाथों से पुलिस अपने लिए भी कमाने लगती है।
पुलिस सरकार का एक कोई दूसरा आम महकमा नहीं है, वह न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा भी है। पुलिस से ही न्याय व्यवस्था शुरू होती है, और वही अदालत में फैसला होने तक जांच, सुबूत, गवाह, निष्कर्ष, और अदालती बहस का सामान जुटाती है। जब पुलिस ही टूटे मनोबल की भ्रष्ट संस्था हो जाती है, तो इंसाफ का पूरा सिलसिला ही पहले स्टेशन पर ही पटरी से उतर जाता है, और फैसले तक का लंबा सफर कदम-कदम पर एक भ्रष्ट और निकम्मी पुलिस के साथ तय होता है। लेकिन हमारी लिखी बहुत सी बातें, खासकर काम की अमानवीय परिस्थितियों की बात छोटे पुलिस कर्मचारियों पर तो लागू होती है, लेकिन बड़े अफसरों पर नहीं। किसी जिले के एसपी किसी अमानवीय स्थिति में काम नहीं करते, वे सहूलियतों से घिरे रहते हैं, और मातहत कर्मचारियों की फौज उनकी मालिश-पॉलिश करने को तैनात रहती है। इसलिए उनकी गाली-गलौज को काम के किसी बोझ से जोडक़र नहीं देखा जा सकता। अगर वे कमजोर आम लोगों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, तो वे मिजाज से हिंसक और अराजक हैं। हमने मध्यप्रदेश के एक मामले को महज मिसाल बनाकर यह बात यहां लिखी है, देश भर में अगर लोग पुलिस अफसरों से फोन पर बात करते हुए, या मिलते हुए बातचीत रिकॉर्ड करने लगें, तो आधे अफसरों के सस्पेंड होने की नौबत आ जाएगी। फिलहाल इस मामले से यह सबक तो मिलता ही है कि लोगों को जहां भी हो सके बातचीत रिकॉर्ड करना चाहिए ताकि ऐसी कार्रवाई हो सके।
उत्तरप्रदेश के योगीराज का एक दिलचस्प मामला सामने आया है। पिछले पांच दिनों से देश के कई उत्साही, समर्पित, राष्ट्रवादी, और हिन्दुत्व-रक्षक टीवी चैनल यूपी के एक डॉक्टर के आंसुओं के साथ बहकर निकलते बयान को देश भर के घरों में पहुंचा रहे थे, और घरों का फर्श गीला कर रहे थे। यह डॉक्टर रोते-रोते बता रहा था कि किस तरह उसे एक अंतरराष्ट्रीय कॉल पर धमकी दी गई है कि उदयपुर और अमरावती के बाद अब सर तन से जुदा की बारी उसकी है। मतलब यह कि हिन्दू होने की वजह से उसका सिर कलम कर दिया जाएगा। मामला भयानक बतलाते हुए बड़े-बड़े टीवी चैनल टूट पड़े थे, और यह डॉक्टर रोते-रोते ही मशहूर हो गया था। इसके आंसुओं के साथ स्क्रीन पर मुस्लिमों के पहले के किसी प्रदर्शन के वीडियो जोडक़र एक बहुत ही भयानक माहौल बना दिया गया था। और फिर यह सब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राज में हो रहा था, और एक ऐसे व्यक्ति के साथ हो रहा था जो कि भाजपा का पश्चिमी उत्तरप्रदेश का क्षेत्रीय मीडिया प्रभारी भी था। डॉ. अरविंद वत्स च्अकेलाज् नाम के इस नेता-डॉक्टर का फेसबुक भाजपा की तस्वीरों से भरा हुआ है। उसकी पुलिस शिकायत के बाद देश का नफरती मीडिया इस शिकायत को दुहने में लग गया था, और इस आदमी को देश का अगला हिन्दू शहीद साबित करने में लग गया था। लेकिन साइबर-जुर्म अधिक लंबे नहीं चलते, और इस मामले के गुब्बारे की हवा चार-पांच दिन में ही निकल गई।
यूपी के गाजियाबाद की पुलिस ने एक प्रेस नोट जारी करके कल दोपहर बाद यह बताया है कि डॉ. अरविंद की रिपोर्ट की जांच करने पर पता लगा कि उसने वॉट्सऐप पर धमकी की एक फर्जी घटना गढ़ी थी ताकि उसे लोकप्रियता मिल जाए। जिस नंबर से इस डॉक्टर ने धमकी की कॉल आना बताया वह नंबर डॉक्टर के ही एक पुराने परिचित का निकला जिससे इलाज के बारे में डॉक्टर की बात होते रहती थी। उसे सिर तन से जुदा करने की धमकी वाला कॉल बताने की उसने कोशिश की थी, लेकिन इस झूठ का भांडाफोड़ हो गया। उस नंबर वाले ने बताया कि वह इस डॉक्टर से मिल भी चुका है, और उनसे इलाज भी करवाता है। उसने अपनी बीमारी की तस्वीरें पहले भेजी हुई हैं, और डॉक्टर ने दवाईयां भी लिखर भेजी हुई हैं। अब झूठी शोहरत पाने के चक्कर ने इस डॉक्टर ने अपने को सिर कलम करने की धमकी मिलने की रिपोर्ट लिखाई थी। योगी की पुलिस ने ही यह प्रेस नोट जारी किया है कि यह फर्जी रिपोर्ट लिखाने वाले इस डॉक्टर के खिलाफ अब कार्रवाई की जा रही है।
अब एक सवाल यह खड़ा हो रहा है कि देश के बड़े-बड़े विख्यात और कुख्यात टीवी चैनलों ने इस एक रिपोर्ट की जांच भी होने के पहले इसके साथ जोडक़र जिस तरह से मुस्लिमों के किसी प्रदर्शन के वीडियो दिखाए, और इस डॉक्टर को एक हिन्दू शहीद की तरह पेश किया, उस उगले हुए इलेक्ट्रॉनिक जहर को अब कौन निगलेगा? लोगों के बीच तो वह जहर फैलाया जा चुका है, उससे जितने लोगों के मन में नफरत का सैलाब पैदा होना है वह हो चुका है, ऐसे टीवी चैनलों के समाचार बुलेटिनों के वीडियो क्लिप वॉट्सऐप पर इतने फैल चुके हैं कि वे अनंतकाल तक तैरते ही रहेंगे। तो अब यह पूरा मामला झूठा साबित होने के बाद टीवी चैनलों पर इसे लेकर जुटे हुए दो-दो, चार-चार स्टार-एंकर अब कहां जाएंगे? जिन हिन्दूवादी कथित संतों ने इस डॉक्टर के आंसू पोंछते हुए मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाई थी, वे अब कहां मुंह छिपाएंगे? वैसे आज हिन्दुस्तान में नफरत की बात करने वालों को मुंह छिपाने की जरूरत नहीं रहती क्योंकि उनके जहर के खरीददार बहुत हैं। जहर जितना अधिक जानलेवा हो, उसकी उतनी ही बड़ी जगह भी टीवी चैनलों पर बन जाती है। और फिर हिन्दुस्तान में आज तक किस टीवी चैनल ने लोगों को मुंह छिपाने को मजबूर किया है? अभी तो वे सारे टीवी एंकर शोहरत के (या बदनामी के?) आसमान पर पहुंचे हुए हैं जिन्होंने दो हजार के नोट में एक चिप रहने का रहस्य खोला था, और बताया था कि जमीन की कितनी गहराई में यह नोट रहने पर भी मोदी का उपग्रह उसकी लोकेशन ढूंढ निकालेगा, और आकर दबोच लेगा। इस तरह की बहुत सारी शानदार मिसालें हाल के बरसों में टीवी समाचार चैनलों ने पेश की हैं, और इनमें से किसी को भी मुंह नहीं छिपाना पड़ा, क्योंकि जब झूठ का भांडाफोड़ होने की नौबत आती है, तो कभी कंगना छा जाती है, तो कभी चीता आ जाता है।
आज इस देश में प्रेस कौंसिल से लेकर ब्रॉडकास्टिंग पर काबू रखने वाले एक संगठन का भी अस्तित्व है। लेकिन मजे की बात यह है कि बड़े-बड़े नामी-गिरामी लोगों की अगुवाई वाले ये संगठन मीडिया के किसी भी तरह के जुर्म के दर्जे के कारनामों पर भी कुछ नहीं करते। नतीजा यह है कि मीडिया एक गंदा शब्द हो गया है, और उसके साथ तरह-तरह के विशेषण इस्तेमाल होने लगे हैं, जो कि असल में गालियां हैं। आज हिन्दुस्तान में यह सोचने की जरूरत है कि भोपाल के यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली गैस सरीखी जो खबरें ये टीवी चैनल पेश कर रहे हैं, और इस देश के लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ नफरत से भर रहे हैं, उनका क्या इलाज हो सकता है? आज तो हिन्दुस्तानी समुदाय इनके किए हुए इतना बीमार हो चुका है कि उसकी नफरती सोच का इलाज भी अगले दो-चार चुनावों के गुजर जाने तक मुमकिन नहीं दिख रहा है। जब बात-बात में देश के गद्दार होने के तमगे लोगों को बांटे जाते हैं, तो यूपी के इस डॉक्टर के बारे में तो कानून को तय करना चाहिए कि नफरत फैलाने, साम्प्रदायिकता भडक़ाने, और उसकी शोहरत पाने की यह हरकत कितने बरस कैद के लायक है।
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चंडीगढ़ के एक निजी विश्वविद्यालय में कल से भूचाल आया हुआ है। वहां लड़कियों के हॉस्टल में एक लडक़ी ने साठ लड़कियों के नहाते हुए वीडियो बना लिए, और उन्हें अपने एक दोस्त को भेज दिया। उस दोस्त ने ये वीडियो फैला दिए। कल जब यह मामला उजागर हुआ तो आठ छात्राओं की खुदकुशी की कोशिश करने की खबर है। इनमें से कुछ की हालत गंभीर है, कुछ बेहोश हैं। हालांकि कुछ खबरों में पुलिस का यह बयान भी है कि आत्महत्या की कोशिश किसी ने नहीं की है, लड़कियां महज बेहोश हैं। विश्वविद्यालय में देर रात से छात्रों का प्रदर्शन चल रहा है। शुरुआती खबरों में बताया गया है कि वीडियो बनाने वाली छात्रा के दोस्त ने ये वीडियो इंटरनेट पर भी डाल दिए, और सामाजिक शर्मिंदगी के खतरे में शायद लड़कियों ने आत्महत्या की कोशिश की है।
इस मामले के कई पहलू हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। एक गल्र्स हॉस्टल के भीतर ऐसी नौबत कैसे आई कि कोई लडक़ी अपने साथ की साठ छात्राओं का नहाते हुए वीडियो बना सके? दूसरी बात यह कि चाहे इससे निजता खत्म होती है, नहाना कोई जुर्म नहीं है, और नहाते हुए वीडियो फैल जाने से अगर कई छात्राओं को आत्महत्या करना जरूरी लग रहा है, तो यह समाज के भी सोचने की बात है कि उसने अश्लीलता के कैसे पैमाने बना रखे हैं कि महज नहाने के वीडियो से लड़कियों को आत्महत्या को मजबूर होना पड़े। फिर एक बड़ी बात यह भी है कि किसी यूनिवर्सिटी की छात्रा और उसके दोस्त को यह काम करते हुए यह नहीं सूझा कि आज टेक्नालॉजी की मेहरबानी से किसी भी किस्म का साइबर क्राईम शिनाख्त से परे नहीं रह पाता। रोजाना अखबारों में साइबर-जुर्म के मुजरिमों की गिरफ्तारी की खबरें आती हैं, उसके बाद भी लोग ऐसा जुर्म करने का खतरा नहीं समझ पाते हैं। सिर्फ यही एक घटना नहीं है, हिन्दुस्तान में हर कुछ हफ्तों में लोग गिरफ्तार होते हैं कि उन्होंने बच्चों के सेक्स-वीडियो इंटरनेट पर पोस्ट किए हैं। हर दिन दर्जन-दो दर्जन लोग साइबर-ठगी में गिरफ्तार होते हैं। इन सबकी खबरें भी छपती हैं। मामूली जानकारी रखने वाले लोगों को भी पता है कि किसी भी तरह के जुर्म में, साइबर-जुर्म की शिनाख्त सबसे तेज और सबसे आसान रहती है, और उसके सुबूत भी अदालतों में खड़े रहते हैं। यह सब होने के बाद भी आज लोग अगर दूसरों के नग्न वीडियो पोस्ट करने का खतरा उठा रहे हैं, तो ऐसे लोगों की साइबर-समझ पर भी तरस आता है, और यह साफ लगता है कि हिन्दुस्तान के लोगों को साइबर-जुर्म, करने से, और उसका शिकार बनने से बचाने के लिए अधिक जनजागरण की जरूरत है।
अब दो बहुत ही मामूली औजारों के बारे में बात करना जरूरी है। आज हिन्दुस्तान के अधिकतर हाथों मेें ऐसे मोबाइल फोन हैं जिनसे तस्वीरें खींची जा सकती हैं, वीडियो बनाए जा सकते हैं, और बातचीत रिकॉर्ड की जा सकती है। जिंदगी की निजता को खत्म करने का यह एक बड़ा हथियार है, जो कि दिखता एक मासूम औजार है। लोगों को अपने फोन के ऐसे इस्तेमाल से बचना चाहिए जिसके खिलाफ कोई शिकायत होने पर उनके फोन और कम्प्यूटर सबसे पहले जब्त हो जाएं। आईटी एक्ट के तहत शिकायत होने पर पहली नजर में जुर्म दिखने पर तुरंत ही लोगों के ये उपकरण जब्त होते हैं, और शिकायतकर्ता से परे भी दर्जनों लोगों की निजी जानकारी किसी भी फोन या कम्प्यूटर पर हो सकती है। जांच एजेंसियों में भी लोगों के हाथ दूसरे लोगों की ऐसी जानकारी पहुंचना ठीक नहीं है। इसलिए ऐसी किसी भी नौबत के बारे में सोचकर लोगों को यह चाहिए कि वे अपने फोन, कम्प्यूटर, सोशल मीडिया अकाऊंट, ईमेल का इस्तेमाल सावधानी से करें क्योंकि कोई दूसरे लोग भी इनका बेजा इस्तेमाल करते हैं, तो सबसे पहले आप खुद फंसते हैं। और जिसकी शिकायत होगी उससे परे भी बहुत सारे लोगों की जिंदगी इससे मुश्किल हो सकती है।
हिन्दुस्तान में आज हालत यह है कि झारखंड के जामताड़ा नाम के गांव या कस्बे में रहने वाले सैकड़ों नौजवान रात-दिन मोबाइल फोन से लोगों को ठगने का काम कर रहे हैं। और इनमें से कोई नौजवान मामूली से अधिक पढ़े-लिखे नहीं हैं। दूसरी तरफ खासे पढ़े-लिखे लोग जिनमें कामयाब कारोबारी भी हैं, और बड़े-बड़े सरकारी ओहदों पर बैठे हुए लोग भी झांसे में आ रहे हैं, धोखा खा रहे हैं, और अपनी रकम लुटा दे रहे हैं। इससे पता लगता है कि साइबर-औजारों की समझ रखने वाले लोग, जनता के मनोविज्ञान को समझकर किस तरह जुर्म का कारोबार चला सकते हैं, और पढ़े-लिखे लोग अपना सब कुछ गंवा सकते हैं। इसलिए हिन्दुस्तान में निजी जीवन की निजता को सम्हालकर रखने से लेकर, अपने बैंक खातों की जानकारी को भी सम्हालकर रखने की ट्रेनिंग देने की बहुत जरूरत है। टेक्नालॉजी छलांगें लगाकर आगे बढ़ रही है, मुजरिमों की कल्पनाएं उन पर सवार होकर दूर-दूर का सफर कर रही है, बस लोग ही, पढ़े-लिखे लोग भी, अज्ञानी बने बैठे हैं जिन्हें खतरे समझ ही नहीं आ रहे। इन सब बातों के बारे में लोगों को जागरूक करना सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, सोशल मीडिया पर सक्रिय या जानकार लोग भी इसका अभियान चला सकते हैं।
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चारों तरफ से बुरी खबरों के बीच चंडीगढ़ से एक अच्छी खबर आई है कि वहां पीजीआई से पहले जुड़े रहे किसी एक व्यक्ति ने अपना नाम उजागर किए बिना इस मेडिकल इंस्टीट्यूट को दस करोड़ रूपये दान किए हैं। समाचारों में बताया गया है कि इस पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन के रीनल ट्रांसप्लांट सेंटर में अगस्त में 24 किडनी ट्रांसप्लांट हुए थे, और इनमें से एक मरीज इस दानदाता का रिश्तेदार था। आज हिन्दुस्तान में किडनी ट्रांसप्लांट के लिए लोगों को दानदाता ढूंढते बरसों इंतजार करना पड़ता है, एक-एक, दो-दो बरस तक कानूनी कागज पूरे नहीं होते, और कई महीनों की जांच के बाद अस्पताल में उनकी बारी आती है। ऐसे में चंडीगढ़ के इस सबसे बड़े सरकारी अस्पताल को बिना किसी शोहरत की उम्मीद के मिला इतना बड़ा दान बाकी लोगों के लिए भी एक मिसाल बन सकता है।
दुनिया में दान की परंपरा कई देशों में धर्म के साथ जुड़ी रही है। चर्च में लोगों के सदस्य बनने और दान देने का रिवाज हिन्दू मंदिरों के मुकाबले अधिक औपचारिक है, और वह पैसा दुनिया के बहुत से देशों में जाता भी है। दूसरी तरफ कई धर्मों में लोग दान तो करते हैं, लेकिन उनका पैसा या तो मंदिरों और मठों में कैद रह जाता है, वहां सोने की शक्ल में तिजौरियों में बंद रहता है, और उनका किसी भी तरह का सामाजिक इस्तेमाल नहीं हो पाता। हिन्दुस्तान में धर्म से परे दान की परंपरा बड़ी सीमित है। देश के कुछ बड़े कारोबारियों ने अपनी सारी दौलत का एक बड़ा हिस्सा समाजसेवा के लिए देने की घोषणा की है, और अजीम प्रेमजी जैसे अरबपति लगातार खर्च कर भी रहे हैं। अजीम प्रेमजी और नारायण मूर्ति जैसे लोग आम मुसाफिर विमानों में इकॉनॉमी क्लास का सस्ता सफर करते हैं, और अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा जनसेवा में लगाते हैं। दूसरी तरफ इस देश को लूटने के अंदाज में काम करने वाले कई चर्चित और विवादास्पद कारोबारी दान के नाम पर दो-चार दाने समाज की तरफ फेंक देते हैं, और अपनी दौलत दिन दूनी रात चौगनी बढ़ाते रहते हैं।
हिन्दुस्तान में ढेर सारे जनसंगठन, धार्मिक और सामाजिक संस्थाएं, तरह-तरह के अंतरराष्ट्रीय क्लबों के भारतीय यूनिट दान के नाम पर जो कुछ करते हैं, उससे कई गुना अधिक प्रचार अपने लिए जुटाते हैं। बहुत से धार्मिक और सामाजिक संस्थानों के लोग अस्पतालों में जाकर मरीजों को एक-एक फल देकर साथ में दर्जन-दर्जन भर लोग फोटो खिंचवाते हैं, और उसे अखबारों में छपवाते हैं। अधिकतर संगठन अपने बैनर तैयार रखते हैं, और आधा दर्जन घड़े लेकर कोई प्याऊ भी शुरू किया जाता है, तो उसके पीछे बैनर लेकर एक दर्जन लोग फोटो खिंचवाने लगते हैं, और फिर उसे सोशल मीडिया पर फैलाते हैं। दान का आकार प्रचार के आकार से किसी तरह भी अनुपात में नहीं रहता। फिर दान तो वह होना चाहिए जो अपनी जरूरतों में कटौती करके, अपने साधनों को निचोडक़र दूसरे लोगों की जरूरत के लिए दिया जाए। यहां तो लोग अपने जेब खर्च जितना दान देते हैं, और किसी महान दानदाता जितनी शोहरत जुटाते हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे दानदाताओं की नीयत का मखौल भी उड़ते रहता है, और उनकी तस्वीरों की लोग खिल्ली भी उड़ाते हैं। लेकिन दानदाताओं की अपार सहनशक्ति होती है, जो वे फिर कुछ दिनों में बाजार में सबसे सस्ता मिलने वाला फल लेकर और फोटोग्राफर लेकर अस्पताल रवाना हो जाते हैं, और घंटे भर में दान की संतुष्टि पाकर प्रचार में जुट जाते हैं।
दान के प्रचार में हम बहुत बुराई भी नहीं मानते क्योंकि बिलगेट्स जैसे बड़े कारोबारी ने जब अपनी दौलत का आधा हिस्सा समाजसेवा में देने का फैसला लिया, उस बारे में दुनिया को बताया, तो उनकी देखादेखी, और उनकी प्रेरणा से दुनिया के बहुत सारे दूसरे कारोबारियों ने भी इस तरह का संकल्प लिया, और समाज को वापिस देना शुरू किया। इसलिए नेक काम का प्रचार दूसरे लोगों को नेक काम के लिए प्रेरित भी करता है। लेकिन इसका एक अनुपात रहना चाहिए। हिन्दुस्तान में बहुत ही सीमित दान और असीमित प्रचार दिखता है, और खटकता भी है।
हाल ही के बरसों में जब देश में कोरोना फैला, और सरकार ने कारोबारियों से दान की उम्मीद की, तो देश के दो सबसे बड़े कारोबारियों ने अपनी एक-एक घंटे की कमाई भी शायद दान में नहीं दी। दूसरी तरफ टाटा एक ऐसा उद्योग समूह था जिसने डेढ़ हजार करोड़ रूपये से अधिक दान दिया था। इस तरह की बातों को समाज के बीच चर्चा का सामान भी बनाना चाहिए, जब तक सोशल मीडिया पर, और जनता के बीच इस तरह की तुलना करके बातचीत नहीं होगी, तब तक तो घंटे भर की कमाई देने वाले लोग भी अपने प्रचारतंत्र से अपनी महानता दिखाते रहेंगे। दान और समाजसेवा को लेकर इस देश में जागरूकता की जरूरत है, और इससे जुड़े सवाल उठाने के लिए जनता में जनजागरण की जरूरत है।
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हिन्दुस्तान की राजनीति बड़ी दिलचस्प है। पहले लोग कई काम आत्मा की आवाज पर करते थे। जब कभी विधानसभा या संसद में पार्टी के फैसले के खिलाफ वोट देना होता था, तो लोग कहते थे कि अंतरात्मा की आवाज पर वोट दिया। लेकिन फिर यह बात जब बहुत खुलकर सामने आई कि अंतरात्मा की आवाज गांधी की तस्वीरों वाले बड़े नोटों से निकलती है, तो दलबदल का कानून बना, और अंतरात्मा को कुछ आराम दिया गया। अब दलबदल कानून के तहत विधायकों या सांसदों की अंतरात्मा जब सामूहिक रूप से जागती है, तभी जाकर इस कानून से रियायत मिलती है। नतीजा यह निकला कि पहले जो जागना या जगाना सस्ते में हो जाता था, अब वह थोक में होता है, और काफी बड़ी खरीदी एक साथ करनी पड़ती है। विधायक दल या सांसद दल के लोग जब थोक में आत्मा बेचते हैं, जीते जी स्वर्ग जैसा अहसास होता है तो निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का दूसरी पार्टी में परकाया प्रवेश हो पाता है।
अब इसका सबसे ताजा मामला गोवा में सामने आया जहां पर कांग्रेस के 11 विधायकों में से 8 भाजपा में चले गए। जाहिर है कि पिछला चुनाव इन लोगों ने भाजपा के खिलाफ ही लड़ा था, लेकिन अब अंतरात्मा अगर परकाया प्रवेश पर उतारू हो गई है, तो इसमें भला विधायकों की काया कोई रोड़ा कैसे बन सकती है? नतीजा यह हुआ कि करीब पांच बरस कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे दिगम्बर कामत भी भाजपा में चले गए। बाकी लोगों के मुकाबले दिगम्बर कामत का मामला सच में ही कुछ अलौकिक किस्म का रहा। उन्होंने न्यूज कैमरों के सामने कहा कि वे एक मंदिर गए, और वहां देवी-देवताओं से पूछा कि उनके दिमाग में भाजपा में जाने की बात उठ रही है, उन्हें क्या करना चाहिए? इस पर ईश्वर ने कहा कि बिल्कुल जाओ, फिक्र मत करो। अब यह बात तो बहुत साफ है कि जब ईश्वर ही किसी बात की इजाजत दे दें, तो फिर फिक्र की क्या बात है, और किसी नैतिकता या दलबदल कानून की, जनता के प्रति जवाबदेही की बात रह भी कहां जाती है?
अब दिगम्बर कामत से सबक लेकर आज रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन भी यह कह सकते हैं कि वे चर्च गए थे, और वहां उन्होंने ईश्वर से कहा कि उनके मन में यूक्रेन पर हमले की बात आ रही है, क्या करें? और इस पर ईशु मसीह ने कहा कि बिल्कुल करो, फिक्र मत करो। अब ऐसी ईश्वरीय मंजूरी लेकर अगर कोई हमला किया गया है, तो संयुक्त राष्ट्र या पश्चिमी दुनिया का क्या हक बनता है कि वह इसे गलत करार दे? किसी भी धर्म के प्रति आस्था आमतौर पर कानून और संविधान से ऊपर मानी जाती है। अब दिगम्बर कामत पांच बरस कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे, अभी वे कांग्रेस टिकट पर जीते थे, यह बात क्या ईश्वर को मालूम नहीं है? लेकिन इसके बाद भी अगर ईश्वर इजाजत दे रहा है, तो फिर किसी को इसे दलबदल नहीं कहना चाहिए, यही कहना चाहिए कि जो ऊपर वाले को मंजूर था।
धर्म, और ईश्वर की धारणा लोगों के लिए कई किस्म की सहूलियत मुहैया कराती हैं। कोई कत्ल हो जाए, जवान लडक़े हैं, किसी का रेप कर बैठें, महाकाल के प्रदेश में कुपोषित बच्चों का दलिया खा जाएं, काबिल बेरोजगारों को पीछे धकेलकर नौकरियों को बेच दें, या हजार किस्म के दूसरे जुर्म करें, तो भी कोई दिक्कत नहीं है। पकड़ाए जाने पर यही कहना चाहिए कि वे अपने उपासना स्थल गए थे, उन्होंने अपने ईश्वर से पूछा था, और ईश्वर ने कहा कि ठीक है कत्ल करने से मत झिझको, रेप करने से मत झिझको, जाओ और करो, तो फिर इसके खिलाफ कोई सजा कैसे हो सकती है? अभी-अभी सुप्रीम कोर्ट में धार्मिक मामलों की एक सुनवाई के दौरान एक वकील ने जजों को याद दिलाया कि देश की बड़ी अदालतों के बहुत सारे जज धार्मिक प्रतीक से लैस होकर कोर्ट में बैठते हैं। तो यह भी जाहिर है कि जब ईश्वर की इजाजत लेकर कोई जुर्म किया जाएगा, तो उन पर धार्मिक प्रतीक वाले जज कौन सा फैसला देंगे? इसलिए धर्म से मुजरिमों के दिल बड़े मजबूत होते हैं, और उनका हौसला टूट नहीं पाता है। और जब किसी धर्म के बलात्कारियों के किसी गैंगरेप से बचाने के लिए उस धर्म के झंडे-डंडे लेकर जुलूस निकलने लगते हैं, तो जाहिर है कि सर्वज्ञ, सर्वत्र, और सर्वशक्तिमान ईश्वर की उससे असहमति तो हो नहीं सकती है। अगर ईश्वर असहमत होता, तो उसके नाम पर निकाले जा रहे ऐसे जुलूसों पर बिजली तो गिरा ही सकता था, ऐसे तमाम लोगों को राख कर ही सकता था। लेकिन चूंकि बलात्कार समर्थक लोग ईश्वर की खुली निगाहों के नीचे जुलूस निकालते हैं, ईश्वर के नारे लगाते हैं, इसलिए यह मानने में कोई दिक्कत नहीं होना चाहिए कि उनमें ईश्वर की मौन सहमति रहती है। और यह भी जाहिर है कि दुनिया के तमाम धर्मों में जब ईश्वर को कण-कण में मौजूद बताया जाता है, तो जब छोटी बच्चियों से दर्जन भर लोग गैंगरेप करते हैं, तो उस वक्त भी वहां पर ईश्वर तो मौजूद रहा ही होगा, और हमने बहुत सारी धार्मिक फिल्मों में देखा है, और हर धार्मिक कहानी में पढ़ा है कि किस तरह ईश्वर दुष्टों का पल भर में नाश कर देता है। इसलिए जब बच्चियों के बलात्कारी गिरोह को लंबी जिंदगी मिलती है, तो उसका बड़ा साफ मतलब है कि ऐसा सर्वशक्तिमान उस गैंगरेप को रोकना नहीं चाहता था, वरना वह आसमानी बिजली गिराकर सबको भस्म कर सकता था।
ऐसी ही धार्मिक सहूलियत का फायदा अब विधायकों और सांसदों को मिल रहा है, और हम दिगम्बर कामत की उनके ईश्वर से बातचीत पर जरा भी शक नहीं करते क्योंकि वह ईशनिंदा जैसा काम हो जाएगा, और हमको भी अपनी जान प्यारी है। किसी होटल या रिसॉर्ट में हुए दलबदल की आलोचना करना तो ठीक हो सकता है, लेकिन किसी उपासना स्थल पर ईश्वर की सहमति और अनुमति लेकर किया गया दलबदल आलोचना के घेरे में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि ऐसे आलोचकों को याद रखना चाहिए कि ईश्वर किस तरह भस्म कर सकता है। हरिइच्छा से ऊपर कोई राजनीतिक नैतिकता नहीं हो सकती, दलबदल कानून नहीं हो सकता, क्योंकि लोकतंत्र तो अभी ताजा-ताजा फसल है, ईश्वर तो अनंतकाल से रहते आए हैं, और वे अगर दिगम्बर कामत को किसी रंग का चोला पहनने को कह रहे हैं, तो इस पर कोई आलोचना नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस को यह मानकर चुप बैठना चाहिए कि वह क्या लेकर आई थी, और क्या लेकर जाएगी।
हिन्दुस्तान के कुछ प्रदेशों में हर त्यौहार साम्प्रदायिक तनाव की आशंका और खतरे के साथ आता है, लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में त्यौहार लोगों का जीना हराम करने वाले रहते हैं। कई-कई दिन तक लाउडस्पीकर पर ऐसा शोर किया जाता है कि इस प्रदेश में कोई कानून ही नहीं है। अभी गणेश विसर्जन कई दिनों तक चला, और सडक़ों पर आवाजाही बर्बाद हुई, और शहरों का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा जहां कान फाड़ देने वाले संगीत ने लोगों का जीना हराम न किया हो। हाईकोर्ट के कई तरह के आदेश सरकारी अफसरों की कचरे की टोकरी से होते हुए अब तक कागज कारखानों में लुग्दी बनकर दुबारा अखबारी कागज बन गए होंगे, लेकिन हाईकोर्ट की हस्ती पर नौकरशाही हॅंसती हुई दिखती है। किसी आदेश का कोई सम्मान नहीं है, और अगर कोई जज छत्तीसगढ़ के किसी भी बड़े शहर में विसर्जन-जुलूस के साथ कुछ घंटे चल ले, तो कई हफ्ते काम करने के लायक नहीं रह जाएंगे। यह एक अलग बात है कि हर शहर में अफसर इतने चतुर होते हैं कि वे राजभवन, मुख्यमंत्री निवास, जजों के बंगले, और बड़े अफसरों के रिहायशी इलाकों को लाउडस्पीकरों से दूर रखते हैं। हाईकोर्ट को कभी जिला प्रशासनों से फाइलें बुलाकर देखनी चाहिए कि जिला मुख्यालय की किन कॉलोनियों में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का उपयोग रोकने के आदेश जारी किए जाते हैं, और यह भी पूछना चाहिए कि बाकी इलाकों के इंसान इस हिफाजत के हकदार क्यों नहीं माने जाते हैं?
इस बार गणेश विसर्जन के पहले से सोशल मीडिया पर सामाजिक कार्यकर्ता लगातार अफसरों को आगाह कर रहे थे। और बात सिर्फ गणेशोत्सव की नहीं है, दूसरे धार्मिक त्यौहारों का भी यही हाल रहता है, और शहर के बड़े-बड़े महंगे होटलों और शादीघरों का भी यही हाल रहता है कि उनके आसपास एक-दो किलोमीटर में बसे हुए लोग भी लगातार हल्ले के बीच ही जीते हैं। कहने के लिए पुलिस और प्रशासन हमेशा ही दो-चार आंकड़े दिखा सकते हैं कि उन्होंने लोगों के लाउडस्पीकर जब्त किए हैं, लेकिन हकीकत यह है कि शहरों में जब बवाल करते हुए ऐसे अराजक जुलूस निकलते हैं जिनसे आसपास रह पाना भी बर्दाश्त के बाहर हो जाता है, तो पुलिस उन जुलूसों का इंतजाम करते चलती है, न कि उन्हें रोकते हुए। अभी विसर्जन के जुलूस में ही छत्तीसगढ़ के एक छोटे जिले में पुलिस ने लाउडस्पीकर बंद करवा दिए, तो वहां के धार्मिक संगठन इसे धर्म पर हमले की तरह करार देते हुए एकजुट हो रहे हैं। यह नौबत इसलिए आई है कि बाकी तकरीबन तमाम जिलों में हर तरह की अराजकता को पूरी छूट दी जा रही है, और किसी एक जिले में कार्रवाई होती है तो वह खटकने लगती है।
जब हाईकोर्ट के आदेश पूरे प्रदेश के लिए हों, और आदेश से परे कोलाहल अधिनियम के तहत पहले से बने हुए नियम हों, उन्हें तोडऩे वालों के लिए सजा का प्रावधान हो, तब अगर इसे पूरे प्रदेश में धड़ल्ले से तोड़ा जाता है तो यह मामला जिला प्रशासन की अनदेखी से परे प्रदेश सरकार की अनदेखी का रहता है। प्रदेश सरकार चला रहे नेताओं और अफसरों की अनदेखी के बिना सारे के सारे जिला प्रशासन एक जैसे लापरवाह और गैरजिम्मेदार नहीं हो सकते। यह तो सरकार की तय की हुई प्राथमिकता दिखती है कि किसी भी धार्मिक अराजकता को न छुआ जाए, ताकि वोटरों का कोई भी एक तबका सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ संगठित न हो सके। नतीजा यह हो रहा है कि वोटों की यह फिक्र लोगों की जिंदगी हराम कर रही है, और धर्मान्ध लोगों को छोडक़र बाकी तमाम लोगों को यह लगता है कि क्या धर्म के लिए ऐसा सारा उत्पात जरूरी है? क्या बिना हंगामे के धार्मिक रीति-रिवाज पूरे नहीं हो सकते?
यह भी समझने की जरूरत है कि जब धर्म बने थे तब न तो बिजली थी और न ही लाउडस्पीकर। अपने-अपने इलाकों में दिन में पांच बार कुछ मिनटों के लिए बजने वाले मस्जिदों के लाउडस्पीकरों के खिलाफ तो कई प्रदेशों में हिन्दुत्ववादी संगठन सडक़ों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, और अदालतों तक जा रहे हैं। दूसरी तरफ बर्दाश्त के बाहर का हल्ला करने वाले, शोर करने वाले लाउडस्पीकरों पर रोक की बात ये लोग नहीं करते। एक-एक त्यौहार पर कई-कई दिनों तक लाउडस्पीकरों पर जीना हराम किया जाता है, लेकिन उसे रोकना धर्म पर हमला करार दिया जाएगा या साम्प्रदायिक कहा जाएगा।
जो हाईकोर्ट छोटी-छोटी बातों को अपनी अवमानना से जोड़ता है, उसे छत्तीसगढ़ के तमाम बड़े शहरों से मीडिया और सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई खबरों और वीडियो पर राज्य सरकार से एक रिपोर्ट मांगनी चाहिए ताकि सरकार हलफनामे पर अदालत को यह बताए कि उसके अब तक के दिए गए कई आदेश, और दी गई कई चेतावनियां किस तरह कचरे की टोकरी में हैं। जब प्रदेश में सरकार और अफसरों का ऐसा रूख हो, जब सभी पार्टियों के सारे नेता अपने-अपने इलाके में अराजकता बढ़ाने में लगे हों, तब जनता से यह उम्मीद बेकार है कि वह बार-बार जनहित याचिका लेकर अदालत जाए, या अवमानना याचिका लेकर जजों को याद दिलाए कि गली-गली उनकी बेइज्जती की जा रही है। आम जनता के पास न तो इतना वक्त है और न ही इतना पैसा, लेकिन अदालतों के पास बेहिसाब ताकत है। जनता की जिंदगी को बचाने के लिए न सही, कम से कम अपनी इज्जत बचाने के लिए हाईकोर्ट के जजों को अवमानना की कार्रवाई शुरू करनी चाहिए, और सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाहिए। एक धर्म की अराजकता दूसरे धर्मों को भी बढ़ावा देती है, और इसे हम साल में कई बार देखते आ रहे हैं। अब तो जजों को देखना है कि उनकी कोई ताकत बची है या नहीं, और अपनी इज्जत का कोई अहसास उन्हें है या नहीं।
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अंग्रेजों की लंबी गुलामी से थके हुए हिन्दुस्तान में जब राज की चर्चा होती है, तब अंग्रेजों की छोड़ी गई शिक्षा प्रणाली को कोसा जाता है कि वह बाबू बनाने वाली है, यह भी याद किया जाता है कि कोहिनूर हीरे सहित और कौन-कौन सी बेशकीमती हिन्दुस्तानी चीजें अंग्रेज यहां से लूटकर ले गए थे। अंग्रेजों ने जिस तरह बंगाल के अकाल में दसियों लाख लोगों को मरने दिया, और जिस तरह जलियांवाला बाग जैसा हत्याकांड किया, उनमें से कुछ भी भूलने लायक नहीं है, और उन्हें अक्सर ही याद भी किया जाता है। लेकिन इतिहास के जानकार इन बातों के साथ-साथ कुछ और बातों को भी याद करते हैं कि अंग्रेज अगर न आए होते, तो हिन्दुस्तान के हिन्दू समाज की बेरहम जाति व्यवस्था का क्या हाल हुआ होता, और इस देश में जो समाज सुधार कानूनों की वजह से हुए हैं, उनका क्या हाल हुआ होता।
खैर, अंग्रेजों की चर्चा करते हुए यह भी याद रखने की जरूरत है कि हिन्दुस्तान में अपने संविधान का बुनियादी ढांचा ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से लिया है, यह एक अलग बात है कि आज आजादी की पौन सदी के मौके पर इस देश में किसी भी तरह की संसदीय व्यवस्था की जरूरत महत्वहीन हो गई दिखती है। आज ब्रिटेन अपने इतिहास के एक बड़े फेरबदल से गुजर रहा है जब 70 बरस तक राज करने वाली महारानी एलिजाबेथ गुजर गई हैं, और उनके बेटे प्रिंस चाल्र्स अब किंग चाल्र्स तृतीय बनकर ब्रिटेन के संविधान प्रमुख हो गए हैं। इस फेरबदल के मौके पर ब्रिटेन के सार्वजनिक जीवन में जो हो रहा है, उसे भी हिन्दुस्तान को देखना चाहिए क्योंकि इससे भी आज के हिन्दुस्तान को कुछ सीखने की जरूरत है। कल ब्रिटिश पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार किया क्योंकि उन्होंने महारानी के दर्शनार्थ रखे गए शरीर को देखने के लिए लगी हुई लंबी कतारों के बीच महारानी के खिलाफ नारे लगाए, चिल्लाकर यह सवाल किया कि इन्हें किसने चुना था? कुछ और लोगों को शाही परिवार के खिलाफ नारे लगाने पर पकड़ा गया, लेकिन इन तकरीबन तमाम लोगों को छोड़ भी दिया गया। जब दसियों लाख ब्रिटिश लोग शाही परिवार से अपने लगाव के चलते गमी में हैं, तब इस तरह के नारे लगाने वालों को पकडऩे पर भी वहां के कई संगठनों ने सवाल उठाए, और गिरफ्तारी का विरोध किया। खुद लंदन पुलिस ने कहा कि लोगों को विरोध करने का हक है। वहां के जनसंगठनों ने कहा कि गिरफ्तारी चिंता का विषय है क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी नागरिकों का अधिकार है। महारानी के अंतिम दर्शनों के लिए आ रहे लोगों के भी हक हैं, लेकिन इसके साथ-साथ दूसरे लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी भी है। एक संस्था ने कहा कि विरोध करने का हक राष्ट्र की तरफ से लोगों को मिला तोहफा नहीं है, यह लोगों का बुनियादी हक है। पुलिस ने एक बयान जारी करके यह कहा कि हम अपने सभी अधिकारियों को यह बता रहे हैं कि विरोध करना जनता का हक है, और उसका सम्मान किया जाना चाहिए, और यह हक लोकतंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
आज जब हिन्दुस्तान में बात-बात पर लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो रहे हैं, गिरफ्तारियां हो रही हैं, लोगों के एक-एक बयान को लेकर उन्हें बरसों तक जेल में बंद रखा जा रहा है, तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह ब्रिटिश पैमाना देखने, और उससे सीखने लायक है। आज तो हिन्दुस्तान में केन्द्र और राज्य सरकारों की पुलिस थाने के स्तर पर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तय कर रही है, लोगों का मान-अपमान तय कर रही है, यह तय कर रही है कि क्या अश्लील है, और क्या देशद्रोह है। ऐसे में देश को एक बार फिर यह सोचना चाहिए कि ब्रिटिश या अमरीकी लोकतंत्र की तारीफ करते हुए, या अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बतलाते हुए यह देश खुद कैसी मिसाल पेश कर रहा है? यहां के पत्रकार, यहां के सोशल मीडिया आंदोलनकारी, और कार्टूनिस्ट से लेकर फिल्मकार तक जिस तरह के फर्जी मामलों में उलझाए जा रहे हैं, क्या कोई यह कल्पना भी कर सकते हैं कि इस देश के किसी संवैधानिक प्रमुख की मौत हो जाने पर उसके खिलाफ सार्वजनिक जगहों पर नारे लगाए जाएं, और जनसंगठनों से लेकर पुलिस तक इस बात का सम्मान करे कि यह लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। जिन लोगों को भी यह धोखा है कि लोकतंत्र कोई सस्ती शासन प्रणाली है, उन्हें अपनी समझ सुधार लेनी चाहिए। लोकतंत्र एक बहुत ही लचीली व्यवस्था है, और यह नियम-कानून के बेजा इस्तेमाल से नहीं चलती, यह गौरवशाली और उदार परंपराओं से चलती है। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र बिगड़ते-बिगड़ते आज इस बदहाली में पहुंच गया है कि कायदे से तो 75वीं सालगिरह मनाने का इसे कोई हक नहीं होना चाहिए, पौन सदी पहले किसने यह सोचा होगा कि आज इस देश में लोकतांत्रिक अधिकार इस हद तक कुचल दिए जाएंगे।
अमरीका में जिस तरह वहां के शासन प्रमुख, अमरीकी राष्ट्रपति के खिलाफ बोलने, लिखने, चंदा देने, और चुनाव अभियान में शामिल होने की आजादी लोगों को रहती है, और किसी भी कारोबारी को यह डर नहीं रहता कि राष्ट्रपति का विरोधी होने की वजह से सरकारी एजेंसियां उन पर टूट पड़ेंगी। उससे भी हिन्दुस्तान को सीखने की जरूरत है, और ब्रिटेन के इस ताजा मामले से भी। लोकतंत्र में कोई भी सरकार अपने आपको लोगों की आलोचना से फौलादी जिरहबख्तर पहनकर नहीं बच सकती। अगर सरकारें इस तरह से बचती हैं, तो उसका मतलब यही है कि लोकतंत्र नहीं बचा। इसलिए एक परिपक्व लोकतंत्र को आलोचना की कई किस्म की आग से तपकर खरा साबित होना पड़ता है। चापलूसी से महज तानाशाही खरी साबित होती है, लोकतंत्र नहीं। हिन्दुस्तान में आज हर स्तर पर लोकतंत्र की इस बुनियादी समझ पर बात करने की जरूरत है, और यह देखने की जरूरत है कि किसी देश की करीब पौन सदी की महारानी गुजरने पर उसके शव के अंतिम दर्शनों में भी लोग उसके खिलाफ, राजपरिवार के खिलाफ किस तरह नारे लगा सकते हैं, और पुलिस को यह सिखाया जा रहा है कि यह लोगों का बुनियादी हक है।
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किसी अच्छे-भले काम को तबाह कैसे किया जाए, यह सीखना हो तो कांग्रेस से बेहतर आज कोई शिक्षक नहीं है। राहुल गांधी की पदयात्रा कन्याकुमारी से शुरू होकर केरल पार करके आगे बढ़ रही है, डेढ़ सौ दिनों में पैंतीस सौ किलोमीटर का यह सफर दर्जन भर से अधिक राज्यों से गुजरते हुए पूरा होने वाला है, और राहुल गांधी के अभूतपूर्व उत्साह की और सडक़ पर जनता की ओर से अभूतपूर्व स्वागत की सकारात्मक तस्वीरें रोजाना ही आ रही हैं। सोशल मीडिया इन तस्वीरों से भरा हुआ है, और देश के प्रमुख मीडिया से कोई अधिक उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती थी। जब चारों तरफ राहुल की मुस्कुराहट तैर रही है, और जब स्मृति ईरानी सरीखी गांधी परिवार से नफरत करने वाली बेकाबू नेता ऐसा खुला झूठ बोल रही है कि वह पल भर में पकड़ा जा रहा है, तब भी कांग्रेस शांत रहकर अपना काम नहीं कर पा रही है। कल ही कांग्रेस पार्टी ने इसी पदयात्रा को लेकर एक पोस्टर बनाया जिसमें आरएसएस के पुराने चले आ रहे प्रतीक चिन्ह, खाकी हाफपैंट को सुलगते हुए दिखाया है, और लिखा है कि अभी 145 दिन और बाकी हैं। कांग्रेस का निशाना इस बात पर है कि अगले 145 दिन में सुलग रहा यह हाफपैंट बचेगा भी नहीं। लेकिन सवाल यह है कि राहुल गांधी तमाम पार्टियों और जनसंगठनों के लोगों को जोडक़र जब यह पदयात्रा करना चाहते हैं, तो उस बीच कांग्रेस को आरएसएस पर हमले को इस यात्रा से क्यों जोडऩा चाहिए? क्या इस यात्रा से परे कांग्रेस के पास आरएसएस पर हमले का कोई सामान नहीं है? या फिर इस यात्रा को कांग्रेस अपनी डूबती हुई नाव के लिए एक तिनका मानकर उसका भी इस्तेमाल इस हमलावर तरीके से कर लेना चाहती है? जब राहुल गांधी भारत जोड़ो के नारे के साथ यह लंबी पदयात्रा कर रहे हैं, तो इस ऐतिहासिक मौके को बर्बाद करने के लिए इसे आरएसएस तोड़ो पदयात्रा में क्यों बदला जा रहा है?
बहुत से लोगों को महानता और कामयाबी ठीक से पच नहीं पाती है। आज जब तमाम चीजें एक सद्भावना को लेकर चल रही हैं, आम जनता के साथ राहुल गांधी की अनगिनत तस्वीरें उनका एक बहुत ही मानवीय पहलू दिखा रही हैं, जब सोशल मीडिया पर ही लोग यह बात लिख रहे हैं कि यह सद्भावना और मुस्कुराहट राहुल के विरोधियों को परेशान कर रही है, तब फिर कांग्रेस पार्टी को आरएसएस की चड्डी में आग लगाकर सद्भावना को पटरी से क्यों उतारना चाहिए? आज तो शायद आरएसएस ने राहुल गांधी पर कोई ताजा हमला भी नहीं किया है, हमला भाजपा के कई लोगों ने किया है, और आदतन स्मृति ईरानी बिना सोचे-समझे इस आग में कूद पड़ी हैं, और अपने ही हाथ-पांव जला बैठी हैं। जब विरोधी और आलोचक खुद ही अपने हाथ-पांव जला रहे हैं, तो कांग्रेस पार्टी को आरएसएस की चड्डी में आग क्यों लगानी चाहिए? अपने आपको बहुत महान मानने वाले कांग्रेस के नेताओं को शायद इस बात का अहसास और अंदाज नहीं होगा कि यह आग सद्भावना को महान बनाने की संभावनाओं में लग रही है, आरएसएस की चड्डी में नहीं। इस एक पोस्टर ने राहुल गांधी की सारी मुस्कुराहट पर पानी फेर दिया है, और उनके चेहरे पर एक अलग किस्म की क्रूरता मल दी है।
कांग्रेस की यह भारत जोड़ो यात्रा दलगत राजनीति से परे होती दिख रही थी। इससे कांग्रेस के लोग जुड़े हुए जरूर थे, लेकिन कांग्रेस से परे के भी कई लोग इससे जुड़े हैं, और कांग्रेस और भी लोगों के जुडऩे की उम्मीद कर रही है। ऐसे में जब देश के एक व्यापक हित के लिए बिना किसी आक्रामक नारे के भारत जोडऩे की बात हो रही है, तब किसी को भी तोडऩे की बात क्यों होनी चाहिए? देश की जनता के सामने यह बात साफ है कि देश को कौन तोड़ रहे हैं। उनके पोस्टर बनाने की जरूरत भी नहीं है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस संगठन इस पदयात्रा में राहुल गांधी की दिखती लोकप्रियता का नगदीकरण करवाने की हड़बड़ी में है, और कांग्रेस में जो लोग घोषित तौर पर आरएसएस के खिलाफ हैं, उन लोगों में इस लोकप्रियता का इस्तेमाल इस अभियान को आरएसएस के खिलाफ झोंकने में कर दिया है। यह सिलसिला कांग्रेस को फायदा तो दिलाने वाला है ही नहीं, बल्कि राहुल गांधी का नुकसान करने वाला है। जब सब कुछ अच्छा चल रहा हो, तब भी कुछ लोगों का मिजाज उसका फायदा पाने का नहीं रहता। उन्हें लगता है कि उनके हुनर के बिना ही यह फायदा हासिल हो जाए, तो उनका तो अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। कांग्रेस के अतिउत्साही लोग ऐसी ही कोशिशों में जुट गए हैं। अगर कांग्रेस में कोई सचमुच ही राहुल गांधी के शुभचिंतक हैं, तो उन्हें पार्टी के नेताओं के हाथों से माचिस छीन लेनी चाहिए, ताकि वे और कई जगहों पर आग न लगा सकें। कुछ अभियान बड़प्पन और महानता के साथ चलने चाहिए, इस बात को कांग्रेस के कुछ समझदार नेताओं को समझना चाहिए, और पदयात्रा पूरी होने तक ऐसी हमलावर पोस्टरबाजी किनारे रखनी चाहिए। अगर इस बीच कांग्रेस को भाजपा या आरएसएस, या किसी और पर भी हमले की जरूरत लगती है, तो वह इस पदयात्रा से परे अलग हमला करे। गांधी ने इस देश को पदयात्रा के साथ-साथ मौन रहना भी सिखाया था।
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एक ब्रेक के बाद हिन्दुस्तान के सबसे मशहूर कॉमेडी शो, कपिल शर्मा का नया सीजन शुरू हो गया है, और इसके साथ ही गरीबों और महिलाओं की बेइज्जती का नया सैलाब भी इस कार्यक्रम में आ गया है जिस पर हिन्दुस्तानी परिवार में महिलाएं भी बैठकर हॅंस रही हैं। दरअसल यह देश ऐसा है कि किसी के नाली में गिरने पर, या केले के छिलके पर से फिसलकर सडक़ पर गिरने पर लोग पहले हॅंसते हैं, और फिर दिल करता है तो मदद करते हैं। दूसरे की तकलीफों पर हॅंसना, लोगों की शारीरिक दिक्कतों पर हॅंसना, और महिलाओं की खिल्ली उड़ाने वाली हर बात पर हॅंसना आम हिन्दुस्तानी मिजाज है।
अभी किसी ने फेसबुक पर एक ऐसे रियलिटी शो का वीडियो पोस्ट किया है जिसमें पांच-छह बरस के छोटे बच्चे किसी कॉमेडी मुकाबले में शामिल हैं, और वे महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक लतीफे सुनाते जा रहे हैं, और फूहड़ बातें करने वाले जज उन पर जोरों से हॅंसते जा रहे हैं। इन बच्चों के, शायद, मां-बाप भी वहां बैठे हुए हॅंस रहे हैं, और जजों में शामिल महिलाएं भी। सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे पढ़े-लिखे दिखने वाले लोग भी महिलाओं पर बनाए गए लतीफों पर हॅंसते हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल रहती हैं। इन दिनों वॉट्सऐप जैसे मैसेंजर की मेहरबानी से लोग अपनी एक-एक फूहड़ बात एक क्लिक से ढाई सौ से अधिक लोगों को भेज सकते हैं, और बहुत से लोग महिलाओं की बेइज्जती करने वाले कार्टून या लतीफे आगे बढ़ाते हुए थकते नहीं हैं। अभी दो-चार दिन पहले ही लोगों ने अंग्रेजी शब्द वाईफ के हिज्जों से एक नई परिभाषा बनाकर कई जगह पोस्ट करना शुरू किया- वरी इनवाइटेड फॉर एवर।
जब छोटे-छोटे बच्चे स्टेज पर यह लतीफा सुना रहे हैं कि दुनिया का सबसे पुराना एटीएम औरत की मांग का सिंदूर है, जिस पर हाथ फिराते ही वह अपने आदमी की जेब से कितना भी पैसा निकाल सकती है, तब यह आसानी से समझा जा सकता है कि बड़े होकर इन बच्चों की सोच किस तरह की रहेगी। लोगों को यह भी याद होगा कि अभी हाल फिलहाल तक स्कूली किताबों में किस तरह कमल घर चल, कमला नल पर जल भर पढ़ाया जाता था। हो सकता है अभी भी कई किताबों में यही सुझाया जाता हो कि घर में लडक़े और लडक़ी के दर्जे में मालिक और गुलाम जैसा फर्क रहता है। हकीकत भी यही है कि बहुत से हिन्दुस्तानी परिवारों में अगर साधन सीमित हैं, तो लडक़े को बेहतर पढ़ाई, बेहतर खाना, और बेहतर इलाज मिलता है। मुम्बई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के एक अध्ययन के बारे में इसी जगह पर हम पहले भी लिख चुके हैं कि वहां बच्चों में कैंसर होने की शिनाख्त हो जाने पर किस तरह लडक़ों को तो इलाज के लिए वापिस लाया जाता है, लेकिन लड़कियों को मां-बाप आमतौर पर इलाज के लिए लाते ही नहीं हैं। एक भयानक तस्वीर छत्तीसगढ़ के गांवों की स्कूलों की कई जगहों से आ चुकी है जिनमें दोपहर के भोजन के वक्त स्कूली लडक़े पालथी मारकर बैठकर खा रहे हैं, और लड़कियां ऊकड़ू बैठकर। यह पता चला कि कई गांवों में यह परंपरा है कि घर में भी लड़कियां ऊकड़ू बैठकर खाती हैं क्योंकि ऐसे बैठकर खाने पर खाना कम होता है। इस तरह हिन्दुस्तानी कॉमेडी से लेकर हिन्दुस्तानी जिंदगी की असल हकीकत तक लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ जो हिंसक भेदभाव है, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ते जा रहा है।
जिस पति की मंगलकामना करते हुए, या जिसके नाम की तख्ती लगाने के नाम पर महिलाएं सिंदूर भरती हैं, बाकी दुनिया को यह बताते चलती हैं कि वे अब उपलब्ध नहीं हैं, उनका वह सिंदूर भी तरह-तरह से मखौल उड़ाने का सामान बना दिया जाता है। वे पति के लंबे जीवन के लिए करवाचौथ जैसा व्रत रखती हैं, और उस पर यह लतीफा बना दिया जाता है कि वे साल भर बाकी हर दिन पति का खून पीती हैं, और इस एक दिन उपवास करती हैं। इस देश में हिन्दी, और शायद कुछ और भाषाओं में भी, का बहुत सारा हास्य महिलाओं की बेइज्जती पर टिका होता है। राजस्थान के एक बड़े ही मशहूर मंच के कवि की पूरी जिंदगी ही अपनी बीवी पर तरह-तरह के अपमान के लतीफे बनाते हुए गुजर गई है, और उन्हें सुनकर हॅंसने वालों में महिलाएं भी रहती हैं। हिन्दी के कहावत-मुहावरों में सैकड़ों बरस से महिलाओं के अपमान का सिलसिला चले आ रहा है, उनके चाल-चलन के खिलाफ गंदी से गंदी बातें लिखी जाती हैं, उनके नि:संतान होने के खिलाफ, उनके पति खोने के खिलाफ दर्जनों कहावतों और मुहावरों को गढ़ा गया है। आज भी पुराने साहित्य को उठाकर देखें तो प्रेमचंद से लेकर गांधी तक हर महान लेखक की भाषा में औरत को बराबरी का दर्जा देने का व्याकरण ही नहीं है। मर्द में ही औरत को शामिल मान लिया गया है।
यह देश अपने साहित्य में, महान लोगों की सूक्तियों में, भाषाओं के व्याकरण में, कहावतों और मुहावरों में, स्कूली किताबों से लेकर कॉमेडी शो तक महिलाओं के अपमान की कलंकित परंपरा को जारी रखे हुए है। दिक्कत यह भी है कि इनकी शिकार महिलाओं को भी इस बात का अहसास नहीं होता है कि वे इस लैंगिक-हिंसा का निशाना हैं, उसका शिकार हैं। वे भी आए दिन किसी अफसर या नेता की नालायकी और निकम्मेपन का विरोध करने के लिए जुलूस लेकर उसे चूडिय़ां भेंट करने जाती हैं। भाषा और संस्कृति, रिवाज और सोच की यह हिंसा आसानी से खत्म नहीं होगी, क्योंकि अभी तो इसकी पहचान भी शुरू नहीं हो पाई है। लेकिन सोशल मीडिया एक ऐसी बड़ी सार्वजनिक जगह है जहां पर यह जागरूकता लाने का अभियान चल सकता है। इसके लिए लोगों को अपनी हिचक छोडक़र खुलकर लिखना होगा, इस भेदभाव का विरोध करना होगा, महिलाओं के अपमान के खिलाफ खड़े होना पड़ेगा। कुछ लोगों को ऐसा विरोध अप्रासंगिक लगेगा, और लगेगा कि इससे तो जिंदगी की खुशी छिन ही जाएगी। लेकिन लोगों को याद रखना होगा कि एक वक्त तो लोग अपनी खुशी के लिए एक गुलाम और एक शेर के बीच मुकाबला करवाकर उसका भी मजा लेते थे, जो कि आज के लोकतांत्रिक विकास के बाद संभव नहीं है। हिन्दुस्तान आज महिलाओं पर हिंसा के हास्य का मजा ले रहा है, लेकिन जागरूकता जैसे-जैसे बढ़ेगी, वैसे-वैसे यह साबित होगा कि यह ताजा इतिहास भी कितना बेइंसाफ था।
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असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा आमतौर पर मुस्लिम विरोधी नफरती बातों के लिए ही खबरों में आते हैं। लेकिन कल की एक खबर इससे कुछ अलग है, और उन्होंने कहा कि अदालती ढांचे को बेहतर बनाने के लिए केन्द्र सरकार पूरे देश को 9 हजार करोड़ रूपये दे रही है जिसमें से असम को तीन सौ करोड़ रूपये मिलने हैं, और राज्य सरकार निचली अदालत में नए जज नियुक्त करेगी ताकि लोगों को इंसाफ जल्दी मिल सके। उनकी बाकी बातों से परे, हम उन्हें भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति मानकर उनकी इस बात को आगे बढ़ाना चाहते हैं कि अदालतों में अधिक नियुक्तियां की जाएंगी। अब उनके बयान के मुताबिक तो देश के हर राज्य को केन्द्र सरकार की तरफ से अदालत के बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए बजट मिलना है, और अधिकतर राज्यों के सामने निचली अदालतों की चुनौतियां भी कमोबेश एक सरीखी हैं, और संभावनाएं भी।
देश के किसी भी राज्य को देखें तो निचली अदालतें सिवाय पेशी बढ़ाते चलने के बहुत ही कम दूसरा काम कर पाती हैं। बहुत कम फैसले होते हैं, और अधिकतर लोग उन्हीं मामलों में कार्रवाई जरा भी आगे बढ़े बिना बार-बार अदालत जाते हैं, हर बार रिश्वत देकर अगली तारीख सुनकर लौटते हैं, और पूरी तरह, बुरी तरह भ्रष्टाचार पर टिका हुआ यह अदालती ढांचा इंसाफ करने का एक ढकोसला करते दिखता है। देश की अधिकतर आबादी जिला अदालत से ऊपर किसी अदालत में मुकदमा लडऩे के लायक नहीं हैं, बल्कि जिला अदालत में ही अधिकतर लोग कर्ज से लद जाते हैं, हरिशंकर परसाई की लिखी एक बात पिछले लंबे समय से बार-बार सोशल मीडिया पर दुहराई जाती है जिसका मतलब यह है कि गरीब एक बार अदालत पहुंच जाए, तो उसकी सबसे अधिक मेहनत अपने ही वकील से अपने को बचाने में लग जाती है। और केन्द्र सरकार ने अभी जो रकम मंजूर की है उसका कोई भी असर वकील और मुवक्किल के बीच के रिश्तों को बेहतर बनाने वाला नहीं है। जो राज्य इस रकम का बेहतर इस्तेमाल करेंगे, या अपने खुद के बजट से भी खर्च करेंगे, वहां इतना ही हो सकता है कि सबसे गरीब लोग अपने जीते जी फैसला पा सकें।
यह लोकतंत्र की एक सबसे बुरी शिकस्त है कि लोग कानून को अपने हाथ में न लेकर, कानून पर भरोसा करके अदालत जाते हैं, और वहां पर पूरी जिंदगी गलियारों में गुजार देते हैं। इंसाफ के नाम पर जो फैसले होते हैं, वे भी अक्सर ही महज फैसले होते हैं, उनका इंसाफ से कम ही लेना-देना होता है। बहुत से अदालती मामलों में तो यह होता है कि ताकतवर अपने हक में फैसले खरीद लेते हैं, और इंसाफ गलियारे में गरीब के साथ चुपचाप खड़े रह जाता है। यह नौबत तब और भयानक हो जाती है जब न्याय व्यवस्था अमानवीय हो जाती है, और वह बिना यह सोचे लोगों को पूरी जिंदगी अदालत बुलाते रहती है कि उनकी जिंदगी के उतने दिन बर्बाद होने का उन्हें कितना नुकसान होगा। हिन्दुस्तान सचमुच ही बहुत ही अमन-पसंद लोगों का देश है, वरना पूरी जिंदगी अदालतों में बर्बाद करने को मजबूर लोग कानून अपने हाथ में ही ले चुके होते, और अपने हिसाब से फैसला कर चुके होते।
इस देश के बड़े-बड़े तकनीकी और प्रबंधन संस्थानों से निकले हुए लोग दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां चलाते हैं, लेकिन इस देश के अदालती ढांचे को सुधारने का काम मानो किसी सरकार की दिलचस्पी का नहीं है। न तो टेक्नालॉजी से, और न ही मैनेजमेंट से अदालतों को सुधारा जाता है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि कोई भी सत्तारूढ़ पार्टी अदालतों को अधिक उत्पादक और तेज रफ्तार बनाना नहीं चाहतीं क्योंकि ऐसा होने पर सत्ता के लोग ही सबसे पहले जेल जाएंगे। इसलिए अदालतों को निकम्मा बनाए रखने में सत्ता की निजी दिलचस्पी हो सकती है। दिक्कत यह है कि छोटी से छोटी अदालत भी अपने आपको अवमानना के ऐसे फौलादी कवच से ढांककर रखती है कि उससे कोई सवाल नहीं किया जा सकता। छोटे से जज के सामने उसी अदालत में बैठा बड़ा सा बाबू हर मुवक्किल और हर वकील से हर पेशी पर रिश्वत लेते हुए दराज में रखते चलता है, और जज-मजिस्ट्रेट कानून की देवी की तरह आंखों पर पट्टी बांधे इस दराज को अनदेखा करते चलते हैं। यह पूरा सिलसिला किसी नए खर्च का मोहताज नहीं है, बल्कि एक नई नीयत का मोहताज है कि अदालतों से भ्रष्टाचार खत्म करना है, और उनकी उत्पादकता बढ़ाना है। आज जिस ढर्रे पर हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था की छोटी अदालतें काम करती हैं, उनमें सुधार के रास्ते कोई मामूली इंसान भी बता सकते हैं, लेकिन ये बातें अगर किसी को नहीं सूझती हैं, तो यह बड़े-बड़े जजों को नहीं सूझती हैं।
अदालतों के जज, बाबू, वकील, और पुलिस, इन सबके निजी फायदे में यही होता है कि मामले अंतहीन चलते रहें। दो लीटर दूध में मिलावट का मामला अगर 29 बरस के बजाय 29 दिनों में तय हो गया होता, तो इनमें से हर किसी को सौ-सौ पेशी पर होने वाले फायदे का नुकसान हो गया रहता। यह पूरा सिलसिला सुधारने की जरूरत है, और इसके लिए कई किस्म के आयोग भी बनते आए हैं, उनकी रिपोर्ट भी आती रही है, लेकिन हुआ कुछ नहीं है। अब जब यह खबर आई है कि केन्द्र सरकार 9 हजार करोड़ रूपये राज्यों को दे रही है, तो राज्यों के जनसंगठनों को सरकार के सामने यह मुद्दा उठाना चाहिए कि नए खर्च के साथ ही पुराने इंतजाम को भी सुधारा जाए, वरना नया खर्च सिर्फ भ्रष्ट लोगों को फायदा पहुंचाएगा, और पुरानी अदालतें बदहाल बनी रहेंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी भी बात की प्रतिक्रिया का अंदाज लगाए बिना उसे छेडऩा कई बार आत्मघाती हो सकता है। अभी राहुल गांधी ने एक भाषण देते हुए आटे को किलो के बजाय लीटर के साथ कह दिया, तो उनके आलोचक कुछ सेकेंड की इस वीडियो क्लिप को लेकर सोशल मीडिया पर टूट पड़े। राहुल गांधी को बेवकूफ साबित करने का एक मुकाबला सा चल निकला। और ट्विटर पर जो लोग भाड़े के भोंपुओं की तरह काम करते हैं, उनकी फौज को राहुल गांधी पर छोड़ दिया गया। लेकिन बिना किसी फौज के इस हमले का जवाब आम लोगों ने ही सोशल मीडिया पर दिया जब उन्होंने नरेन्द्र मोदी से लेकर अमित शाह तक दर्जन भर अलग-अलग भाजपा नेताओं के भाषणों के वीडियो निकालकर पोस्ट करना शुरू किए जिसमें
उन्होंने बोलने की वैसी ही चूक कर दी थी जैसी राहुल गांधी से हो गई थी, और राहुल ने तो तुरंत ही उसे सुधारने की भी कोशिश की थी। अब राहुल के विरोधी नेताओं की जिन चूक को लोग भूल चुके थे, वे सब एक बार फिर याद आ गईं। अब उसी तरह राहुल गांधी ने अभी अपनी पदयात्रा के दौरान एक टी-शर्ट पहना जिस पर एक कंपनी का निशान भी था, और लोगों ने उस टी-शर्ट को इंटरनेट पर ढूंढ निकाला कि वह 40 हजार रूपये का है। और इसके बाद भाजपा के अपने ट्विटर हैंडल से, और दूसरे मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी राहुल गांधी की खिंचाई शुरू हुई कि वे 40 हजार का टी-शर्ट पहनते हैं, और जनता की फिक्र करने का नाटक करते हुए पदयात्रा करते हैं। अब इंटरनेट पर कोई सामान अलग-अलग दस किस्म के दामों पर मिलता है, इसलिए राहुल ने वह टी-शर्ट कितने में खरीदा, या ननिहाल जाने पर उसे किसी ने तोहफे में दिया, यह तो बात सामने नहीं आई है, लेकिन इससे दो अलग-अलग बातें सामने आईं। लोगों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बहुत सी तस्वीरें निकालकर यह बताया कि वे किस ब्रांड के जूते पहने हुए हैं जो कितने के हैं, किस ब्रांड का धूप का चश्मा लगाए हुए हैं, जो कितने का है, और किस तरह उनका नाम बुना हुआ सूट पहने हुए हैं जो कि 10 लाख रूपये का आता है। ऐसी तमाम बातों के साथ लोगों ने यह भी याद दिलाया कि राहुल गांधी जिस परिवार के हैं, उसके मोतीलाल नेहरू आजादी की लड़ाई के भी पहले कितने दौलतमंद थे, और इस परिवार ने देश को आज के भाव से किस तरह अरबों की दौलत भेंट की है। इसके साथ-साथ लोगों ने मोदी के बचपन की चाय बेचने की कहानियां भी याद दिलाईं जो कि मोदी ही कई बार सुना चुके हैं। किसी भी बात की एक प्रतिक्रिया होती है, और जब सार्वजनिक जीवन में या राजनीतिक हथियार की तरह किसी बात को इस्तेमाल किया जाता है, तो उसका उल्टा असर भी सोच लेना चाहिए।
अब अकेले राहुल के टी-शर्ट को लेकर आज इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत नहीं होती अगर ब्रिटेन की राष्ट्रप्रमुख, महारानी एलिजाबेथ के गुजरने के बाद लगातार यह माहौल नहीं बनता कि उन्होंने कितने महान काम किए थे, और किस तरह पूरी दुनिया में लोग उन्हें चाहते थे। वे व्यक्ति के रूप में अच्छी महिला हो सकती हैं, लेकिन उनकी सरकार ने, उनके देश की सरकार ने दुनिया भर को जिस तरह से लुटा है, जितना जुल्म ढहाया है, उसे इतिहास से मिटाना मुमकिन नहीं है। हिन्दुस्तान में जलियांवाला बाग का जो मानवसंहार एक अंग्रेज अफसर ने किया था, जिस तरह अंग्रेजीराज में बंगाल में अकाल में 30 लाख से अधिक लोगों को मर जाने दिया था, वैसी कहानियां दर्जनों देशों में अलग-अलग किस्म के जुल्म की हैं, जो कि ब्रिटिश सिंहासन से जुड़ी हुई हैं। दर्जनों देशों को गुलाम बनाकर अंग्रेजों ने जिस तरह उन देशों को लूटा है, उसे भी कोई भूल नहीं पाए हैं। इसलिए जब एलिजाबेथ को श्रद्धांजलि देते हुए बार-बार यह बात दुहराई जाने लगी कि दुनिया के लोग उन्हें कितना चाहते थे, तो गुलामी के उन दिनों से लेकर अभी इराक पर अमरीका के साथ गिरोहबंदी करके हमला करने में ब्रिटेन की भूमिका सबके सामने है, और एलिजाबेथ ही इस वक्त देश की मुखिया थीं।
इस पर लिखते हुए इंटरनेट पर जरा सा ढूंढें तो 2012 की सोलोमन आईलैंड्स की यह तस्वीर सामने आती है जिसमें ब्रिटिश राजघराने की प्रतिनिधि होकर नौजवान प्रिंस विलियम वहां गए थे, और वहां स्थानीय अफ्रीकी आदिवासियों के कंधों पर ढोए जा रहे सिंहासन पर बैठकर वे खुशी-खुशी घूमे थे। गुलामी के उस इतिहास को अभी दस बरस पहले 2012 में इस तरह दुहराते हुए भी इस शाही घराने को कुछ नहीं लगा था। एलिजाबेथ की ऐसी तस्वीर भी अभी तैर रही है जिसमें उनके मुकुट, उसके हीरे, उनके राजदंड, उनके बाकी गहने, इन सबके साथ लिखा गया है कि उन्हें किस-किस देश से लूटकर ले जाया गया था। हिन्दुस्तान में अंतरराष्ट्रीय परंपराओं के अनुरूप देश में एक दिन का राजकीय शोक रखा गया है, लेकिन लोगों का एक तबका इस पर भडक़ा हुआ है, और यह सवाल किया जा रहा है कि जिन्होंने हिन्दुस्तान को दसियों लाख मौतें दी हैं, उनका ऐसा कोई भी सम्मान क्यों किया जाना चाहिए। यह बात अलग है कि दुनिया में कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के चलते हुए हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराकर लाखों लोगों को मार डालने वाले अमरीका के राष्ट्रपति के जापान पहुंचने पर भी शिष्टाचार की वजह से उनका स्वागत ही होता है, और उसी तरह ब्रिटिश राजघराने से किसी के हिन्दुस्तान आने पर उनका भी स्वागत होता है। लेकिन किसी का गुणगान उनके इतिहास के स्याह पन्नों को भी निकालकर सामने रख देता है। इसलिए चाहे टी-शर्ट की बात हो, चाहे किसी और चीज की, किसी महत्वहीन बात को अंधाधुंध महत्व देने के पहले यह भी सोचना चाहिए कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी, और लोग सौ किस्म की बातें याद करेंगे।
दुनिया के इतिहास में सबसे लंबे समय तक राष्ट्रप्रमुख रहीं ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के गुजरने के साथ ही दुनिया के इतिहास का एक बड़ा अध्याय पूरा लिखा गया। वे 70 बरस तक ब्रिटेन के सिंहासन पर रहीं, और 96 बरस की उम्र में चल बसीं। अभी दो दिन पहले ही उन्होंने ब्रिटेन के पिछले प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का इस्तीफा मंजूर किया था, और कंटरवेटिव पार्टी की नई नेता लिज ट्रस को अगला प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। इन दोनों ही तस्वीरों में वे कमजोरी के साथ खड़ी लेकिन हॅंसती-मुस्कुराती दिख रही थीं। कुछ ही समय पहले उनके पति गुजरे थे, और ब्रिटेन की संवैधानिक परंपरा के मुताबिक वे अपने बेटे, अब तक के प्रिंस चाल्र्स, और अब किंग चाल्र्स तृतीय को सत्ता देकर गई हैं।
ब्रिटेन को दुनिया में लोकतंत्र की मां कहा जाता है, लेकिन एक विरोधाभासी बात यह भी है कि एक शाही परिवार अब भी न सिर्फ ब्रिटेन का राष्ट्रप्रमुख है, बल्कि राष्ट्रमंडल देशों के कुछ और बड़े देश भी महारानी को अपना शासनप्रमुख मानते हैं। ये देश ब्रिटिश साम्राज्य से अलग-अलग वक्त पर आजाद हुए हैं, लेकिन अपनी पसंद से वे ब्रिटिश महारानी को ही अपना संवैधानिक प्रमुख मानते हैं। ऐसे पन्द्रह देशों में ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड जैसे बड़े देश भी शामिल हैं। इसके अलावा क्वीन एलिजाबेथ राष्ट्रमंडल देशों की प्रमुख भी थीं जिसमें शामिल 56 देशों में से तकरीबन तमाम देश ब्रिटेन के गुलाम देश रहे हुए हैं, और इन्हें देखने का एक नजरिया यह भी हो सकता है कि मुक्त कराए हुए बंधुआ मजदूरों ने अपने ही पिछले जमींदार-मालिक के मातहत एक संघ बना लिया। खैर, एलिजाबेथ के जाने के बाद किंग चाल्र्स तृतीय इसके मुखिया हो गए हैं। महारानी एलिजाबेथ उस ब्रिटिश शासन की सबसे लंबी राष्ट्रप्रमुख रही हैं जिसके राज में सूरज कभी डूबता नहीं था, मतलब यह कि दुनिया भर में बिखरे हुए देशों में से इतने देशों पर ब्रिटेन का राज रहता था जिनमें से कुछ में हर वक्त दिन रहता था।
लोगों को यह बात कुछ अजीब भी लग सकती है कि वे इतने बरस राजगद्दी पर रहीं कि उनके वारिस प्रिंस चाल्र्स पूरी जिंदगी से ही उन्हें महारानी देखते रहे, और खुद उनके महाराजा बनने की बारी 73 बरस की उम्र में आई। कई बरस से एलिजाबेथ की सेहत ठीक नहीं चल रही थी, और वे चाहतीं तो पहले भी गद्दी अपने बेटे के लिए खाली कर सकती थीं। लेकिन ब्रिटेन की शाही परंपराओं, और उसके लोगों की सोच के बारे में हमें अधिक पता भी नहीं है, और न ही उसका यहां कोई महत्व है। लेकिन एक सवाल यह उठता है कि जिस देश को दुनिया में लोकतंत्र का जन्मदाता माना जाता है, उसने राष्ट्रप्रमुख मनोनीत करने के लिए कोई लोकतांत्रिक तरीका क्यों ईजाद नहीं किया?
लोकतंत्र के ब्रिटिश मॉडल को ही लेकर आगे बढऩे वाले हिन्दुस्तान ने एक बेहतर मिसाल पेश की जहां आज देश की हर जाति के, और तकरीबन हर धर्म के लोग राष्ट्रपति बन चुके हैं। ब्रिटिश जनता राजघराने का लंबा-चौड़ा खर्च उठाती है, और इस परिवार के लोगों की निजी दौलत अरबों-खरबों में है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में निर्वाचित राष्ट्रप्रमुख की व्यवस्था कायम होने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के राजाओं को सरकार से मिलने वाला प्रिवीपर्स नाम का भत्ता भी बंद करवा दिया, और राजा धीरे-धीरे करके आम जनता की बराबरी पर ही आ गए। ब्रिटिश गुलामी से बाहर निकले हिन्दुस्तान ने एक बेहतर मॉडल पेश किया, लेकिन परंपराओं को पसंद करने वाले ब्रिटिश लोगों ने राजघराने की व्यवस्था को जारी रखा, और देश के दूसरे बहुत से लोग भी ब्रिटिश महारानी, अब महाराजा को अपना राष्ट्रप्रमुख बनाकर चलते हैं। जो देश ब्रिटिश गुलामी से बाहर हो चुके हैं, वे भी अब अगर राजसिंहासन की इस व्यवस्था को ढो रहे हैं, तो यह उनकी अपनी पसंद की बात है।
महारानी एलिजाबेथ ने अपने जीते जी द्वितीय विश्वयुद्ध भी देखा, और दुनिया भर की पिछली करीब पौन सदी की तरह-तरह की राजनीतिक उथल-पुथल भी देखी। वे समकालीन इतिहास की एक सबसे बड़ी गवाह रहीं, और अगर उन्होंने कहीं इतिहास दर्ज कर रखा होगा, तो वह बहुत खास इस मायने में भी होगा कि पिछली सदी के सन् 50 के दशक से अब तक लगातार इतनी अहमियत वाले तख्त पर बैठकर दुनिया को देखने का ऐसा मौका किसी भी और को नहीं मिला है। ब्रिटिश लोगों का बहुमत राजघराने का हिमायती है, और इसी के साथ इस व्यवस्था की कोई भी आलोचना बेमायने हो जाती है। हर देश को अपनी व्यवस्था तय करने का हक है, और ब्रिटिश राष्ट्रप्रमुख को तो इतने सारे दूसरे देश अपना प्रमुख मानते हैं जिन पर कोई ब्रिटिश दबाव भी नहीं है। यह आम हिन्दुस्तानी समझ के मुताबिक समझ से परे की बात है, लेकिन हकीकत यही है।
ब्रिटेन की एक बात को लेकर तारीफ करनी होगी कि ऐसी शाही व्यवस्था वहां एक प्रतीक के रूप में तो कायम है, लेकिन वह मीडिया और समाज को नहीं रोकती कि उन्हें राजघराने की आलोचना नहीं करनी चाहिए। देश के नोटों और डाकटिकटों पर जिस परिवार की तस्वीरें हैं, उस परिवार के सेक्स-स्कैंडल ब्रिटिश अखबारों में एक आम बात रहते हैं। आज वहां राजगद्दी पर बैठे चाल्र्स जब प्रिंस चाल्र्स थे, तब उनके और उनकी पत्नी डायना के विवाहेत्तर संबंधों के स्कैंडल ब्रिटिश अखबारों को दिलचस्प बनाए रखते थे। अभी भी शाही परिवार के एक प्रमुख सदस्य को अदालतों में यह मुकदमा झेलना ही पड़ रहा है कि उसने एक नाबालिग लडक़ी से सेक्स किया था। ब्रिटिश मीडिया इस बारे में बेरहम है, और शाही परिवार की व्यवस्था चाहने वाली ब्रिटिश जनता भी ये सेक्स कहानियां चाहती है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि टैक्स देने वाली जनता को इतना सनसनीखेज मनोरंजन इससे सस्ते में नहीं मिल सकता था। किसी का भी गुजरना कमउम्र में और किसी हादसे से न हो, तो उसमें अधिक दुख मनाने का कुछ नहीं रहता। और जितनी लंबी और जितनी महत्वपूर्ण जिंदगी महारानी एलिजाबेथ गुजारकर गई हैं, उसका एक छोटा हिस्सा भी शायद उनके वारिसों को नसीब नहीं होगा। हमारे लिए यह निधन समकालीन इतिहास के सबसे लंबे गवाह का गुजरना है, और हम उम्मीद करते हैं कि उनका लिखा या दर्ज करवाया हुआ सामने आएगा।
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छह महीने से अधिक हुए जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया जिसकी चेतावनी कई दिन पहले से अमरीका देते आ रहा था, और अमरीका यह चेतावनी भी दे रहा था कि अगर रूस ने ऐसा किया तो उस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाएंगे। रूस ने हमला किया, और अमरीका ने योरप के देशों के साथ मिलकर रूस पर अभूतपूर्व कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए। इसके पहले पश्चिमी देश कभी अफगानिस्तान पर, कभी ईरान, उत्तर कोरिया और वेनेजुएला पर ऐसे प्रतिबंध लगाते आए हैं, उनका भी असर इन देशों पर अलग-अलग सीमा तक पड़ा, लेकिन रूस पर लगाए गए प्रतिबंध बहुत अधिक कड़े थे, और रूस इसी दौरान एक बड़े खर्चीले युद्ध को भी छेड़ बैठा था। नतीजा यह हुआ कि रूस के साथ दुनिया के एक बड़े हिस्से का कारोबार थम गया, और ऐसा माना जा रहा है कि रूस को जंग लडऩे के लिए भी तंगी हो रही है। दुनिया भर में रूसी सरकार, बैंकों, और कारोबारियों के बैंक खाते जब्त कर लिए गए हैं, फिर भी पश्चिम की उम्मीद पूरी नहीं हो पाई है, और रूस की घरेलू अर्थव्यवस्था की कमर नहीं टूटी है।
कल रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक आर्थिक मंच पर एक लंबे भाषण में पश्चिमी प्रतिबंधों पर जमकर हमला किया, और कहा कि इससे रूस का तो कोई नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन पश्चिमी देशों की हालत खराब हो गई है। पश्चिम की कोशिश तो रूसी अर्थव्यवस्था को खत्म करने की थी, लेकिन इन प्रतिबंधों से बाकी दुनिया की अर्थव्यवस्था चौपट हुई है। पुतिन की कही हुई बात इस मायने में तो सही है ही कि आज दुनिया भर के देश रूस-यूक्रेन जंग के चलते अभूतपूर्व महंगाई झेल रहे हैं, ईंधन की कमी है, साथ ही अनाज से लेकर खाद तक की कमी है, और इस जंग के खत्म होने तक नौबत सुधरने के आसार भी नहीं है। इसलिए पुतिन की कही बात को इस संदर्भ में देखने की जरूरत है कि इस जंग की वजह से लगाए गए प्रतिबंधों का नुकसान बाकी दुनिया को कितना झेलना पड़ रहा है? और पश्चिम के देश तो फिर भी संपन्न हैं, और वहां पर महंगाई को लोग किसी तरह झेलकर जिंदा भी रह लेंगे, लेकिन बाकी दुनिया के गरीब देश बिल्कुल भी इस हालत में नहीं हैं कि इस जंग और आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से पैदा हालात झेल सकें। हिन्दुस्तान के एकदम करीब के देश देखें तो श्रीलंका और पाकिस्तान बहुत खराब हालत में हैं, बांग्लादेश अच्छी हालत में नहीं है, और अफगानिस्तान में भुखमरी की नौबत अधिक दूर नहीं है। बाकी दुनिया के जो सबसे बदहाल देश हैं, उनमें यमन से लेकर सोमालिया तक बहुत से देश बिना रूसी-यूक्रेनी अनाज के भुखमरी की कगार पर हैं। जंग के बीच संयुक्त राष्ट्र की दखल से यूक्रेन से कुछ अनाज निकला है, जिसके बारे में पुतिन ने यह आरोप लगाया है कि वह गरीब देशों के नाम पर निकला है, लेकिन वह योरप ले जाया जा रहा है।
अब हिन्दुस्तान ने अमरीका और बाकी योरप के दबाव को झेलते हुए भी रूस के बहिष्कार का फतवा नहीं माना था। भारत ने यह भी साफ कर दिया था कि जब योरप रूस से गैस और तेल लगातार ले रहा है, तब भारत से रूस के बहिष्कार की उम्मीद करना नाजायज है। यह भी कह दिया गया था कि भारत में गरीबी अधिक है, और ऐसे देश को दूसरी जगहों से महंगा तेल लेने पर मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। भारत के रूस से जो पुराने दोस्ताना रिश्ते रहे हैं, उनका भी असर था कि भारत अमरीकी और पश्चिमी दबाव के सामने नहीं झुका। चीन, हिन्दुस्तान, और ईरान जैसे देश रूस के साथ कारोबारी रिश्ते बनाए चल रहे हैं, और रूस में इस वजह से भी हालात खराब नहीं हो पाए हैं।
लेकिन कल पुतिन की कही बातों को इस संदर्भ में भी देखने की जरूरत है कि यूक्रेन की स्वायत्तता का साथ देने के नाम पर नैटो देशों, और अमरीका ने जिस तरह से यूक्रेन को जंग के मोर्चे पर डटाकर रखा है, वह यूक्रेन के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने सरीखा मामला है। ये देश रूस के खिलाफ यूक्रेन को इतने हथियार दे रहे हैं कि वह जवाबी जंग जारी रख सके। इनका एक मकसद तो यह है कि यूक्रेनी फौज की शहादत की कीमत पर भी रूस को फौजी और आर्थिक रूप से कमजोर करना। इसके पीछे की रणनीति यह भी हो सकती है कि एक कमजोर रूस किसी और मोर्चे पर पश्चिमी देशों के खिलाफ बहुत हमलावर नहीं हो सकेगा। अगर सिर्फ कल्पना की बात की जाए तो जिस तरह यूक्रेन पर रूसी हमला हुआ, उसी तरह किसी भी दिन ताइवान पर अगर चीनी हमला होता है, तो उस नौबत में एक मजबूत रूस पश्चिमी फौजी हितों के खिलाफ रह सकता है। इसलिए भविष्य के किसी युद्ध की आशंका या संभावना देखते हुए पश्चिम आज से ही चीन के एक साथी देश को कमजोर कर रहा है, और इस काम में यूक्रेन उसे बंदूक टिकाने के लिए कंधे की तरह मिल गया है। पश्चिमी देशों की इस रूस विरोधी फौजी जरूरत, और चीन विरोधी संभावना से भारत का अधिक लेना-देना नहीं है। जंग के ये मोर्चे हिन्दुस्तान से बहुत दूर हैं, और हिन्दुस्तान ऐसे किसी भी दुस्साहसी फैसले का बोझ उठाने की हालत में भी नहीं है। इसलिए भारत अपने तात्कालिक सीमित राष्ट्रीय हितों के मुताबिक आज के इन अंतरराष्ट्रीय तनावों में किसी भी हिस्सेदारी से बच रहा है।
लेकिन आज जब रूस-यूक्रेन जंग का बोझ पूरी दुनिया की कमर तोड़ रहा है, तो ऐन उसी वक्त पाकिस्तान की विकराल बाढ़, और चीन से लेकर योरप तक के भयानक सूखे की विरोधाभासी प्राकृतिक विपदाएं एक साथ टूट पड़ी हैं। इन सबका भी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ रहा है। ये जिन देशों में हैं, उन पर तो बुरा असर है ही, लेकिन इनके अलावा वे देश भी बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं जो यहां से सामान खरीदते थे, या बेचते थे। कुल मिलाकर आज दुनिया का हाल न सिर्फ जंग से बदहाल है, बल्कि यह मौसम की मार का भी बुरा शिकार है। यह अर्थव्यवस्था दुनिया के किस हिस्से को कहां ले जाकर पटकेगी, इसका कोई ठिकाना अभी नहीं है। लेकिन इस नौबत से एक सबक सबको लेना चाहिए कि किसी को आज यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि आज उनके दिन जैसे हैं, उतने अच्छे आगे भी बने रहेंगे। ऐसी आशंका के साथ ही हर किसी को खर्च के लिए मुट्ठी भींचकर रखनी चाहिए, और मेहनत करने के लिए कमर कसकर तैयार रहना चाहिए।
करीब पन्द्रह बरस के मुख्यमंत्री वाले शिवराज सिंह चौहान के मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार देखने लायक रहता है। लोगों को व्यापमं का भ्रष्टाचार याद है जिसमें राज्यपाल, मंत्री, बड़े-बड़े अफसर, बड़े-बड़े दलाल फंसे हुए मिले, और राज्यपाल अपने कार्यकाल के बाद किसी कार्रवाई का शिकार होते, इसके पहले वे गुजर भी गए। हजारों लोगों के साथ इस भ्रष्टाचार में बेईमानी हुई, इसके दर्जन भर गवाह और आरोपी संदिग्ध हालात में मारे गए। ऐसे और भी बहुत से मामले समय-समय पर हुए, लेकिन अभी ताजा मामला किसी राजनीतिक आरोप से उपजा हुआ नहीं है, यह मध्यप्रदेश के महालेखाकार की रिपोर्ट से उजागर हुआ है जिसमें यह पाया गया है कि 110 करोड़ रूपये का पोषण आहार बच्चों और गर्भवती या दूध पिलाती महिलाओं को बांटने के बजाय फर्जीवाड़े में गायब कर दिया गया। लाखों ऐसे बच्चे जो स्कूल नहीं जाते उनके नाम पर भी करोड़ों का राशन बांट दिया गया। स्कूलों में फर्जी हाजिरी दिखाई गई, और नियमित रूप से उनके नाम पर सत्ता पर काबिज लोग खाते रहे। अब आज तो राज्य की तरह ही केन्द्र में भी भाजपा की सरकार है, और केन्द्र सरकार के नियुक्त महालेखाकार पर यह आरोप भी नहीं लगाया जा सकता कि वह विपक्षी पार्टी की सरकार को परेशान करने की नीयत से यह गड़बड़ी उजागर कर रहा है।
महालेखाकार की ऑडिट रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि यह पोषण आहार जिन ट्रकों से पहुंचाने के बिल लगाए गए हैं वे मोटरसाइकिल और स्कूटरों के नंबर निकले हैं, और पानी के टैंकरों के भी। भ्रष्टाचार करने वाले इस हद तक दुस्साहसी हैं कि उन्होंने पहले कई बार पकड़ी जा चुकी इस तरकीब से भी परहेज नहीं किया। कई जिलों में जितना पोषण आहार पहुंचा बताया गया, उससे हजारों टन कम बांटना बताया गया, यानी सरकार के कागजों में ही 62 करोड़ रूपये दाम का 10 हजार टन पोषण आहार गायब मिला। कई जगहों पर कोई रजिस्टर नहीं मिला, कई जगहों पर दसियों हजार टन घटिया क्वालिटी का पोषण आहार बांटा गया, और अफसरों ने इसके सैकड़ों करोड़ रूपये भुगतान भी कर दिए। जिन गाडिय़ों के नंबर दिए गए उनमें ट्रक बिल्कुल नहीं मिले। एजी की जांच में यह भी मिला कि जिन कारखानों में यह पोषण आहार बनाना बताया गया, उनमें बिजली की कुल खपत ही इतने उत्पादन के आधे से भी कम मिली, यानी पोषण आहार बना ही नहीं, और उसे गरीबों में बांटने तक का फर्जी हिसाब-किताब बना दिया गया। ऐसा ही एक दूसरा मामला मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अपने विदिशा जिले का भी सामने आया है जिसमें उनके खुद के नाम की मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना का पैसा नेता-अफसर, और दलालों के खातों में चले गया।
सरकार में भ्रष्टाचार बहुत अनोखी बात नहीं है, और मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य में किसी योजना में 110 करोड़ का भ्रष्टाचार तो बिल्कुल भी बड़ा नहीं है लेकिन यह भ्रष्टाचार किन लोगों के हक पर हो रहा है वह बड़ा मुद्दा है। कुपोषण के शिकार सबसे गरीब जच्चा-बच्चा के हक पर अगर सरकार संगठित और योजनाबद्ध तरीके से डाका डालती है, तो वह बांध निर्माण के भ्रष्टाचार के मुकाबले अधिक बड़ी हैवानियत है। और फिर यह भ्रष्टाचार ऐसे राज्य में और अधिक शर्मनाक है जहां पन्द्रह बरस के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने इस चौथे कार्यकाल में अपने आपको प्रदेश की लड़कियों का मामा कहलाते नहीं थकते हैं, किसी को बहन कहते हैं, किसी को भांजी मानते हैं, और ईश्वर के ऐसे भक्त हैं कि साल में 365 दिन उनके माथे पर तरह-तरह के तिलक सजे रहते हैं, वे अपनी पत्नी के साथ तरह-तरह की पूजा में बैठे दिखते हैं। अब मध्यप्रदेश में अगर सबसे गरीब लोगों के जिंदा रहने के हक पर इतना बेशर्म डाका डाला जा रहा है, तो तरह-तरह के रिश्तों के नारे और देवताओं के जयकारे का क्या मतलब है? यह नौबत देखकर लगता है कि सरकार से बेहतर तो वे लुटेरे रहते हैं जो अगर लूटते हैं तो कम से कम चेहरे पर कपड़ा बांधे रहते हैं, कम से कम चाकू दिखाकर लूटते हैं, और जिन्हें लूटते हैं, उन्हें बहन-बेटी-भांजी नहीं बताते हैं।
मतलब यह है कि किसी भी तरह का धर्म और किसी भी तरह के रिश्तों के दावे लोगों को न भ्रष्ट बनने से रोकते, न जुर्म करने से। समाज के सबसे गरीब के खाने-पीने के हक को छीनकर अपना घर भरने वाले सत्ता पर बैठे लोग अगर इतने संगठित हैं, तो उन पर यह कानूनी रोक लगनी चाहिए कि वे किसी को बहन-बेटी न बुला सकें। एक तरफ तो शिवराज सिंह चौहान आए दिन लड़कियों के भलाई के नाम पर तरह-तरह की योजनाएं शुरू करते हैं, कहीं वे लाड़ली लक्ष्मी योजना चलाते हैं तो कहीं बेटी बचाओ अभियान। अब कुपोषण के शिकार मां-बेटी ऐसे में कैसे बचेंगी अगर उन्हें 'पहुंचायाÓ गया फायदा खुद सत्ता की जेबों में पहुंचे। और दिलचस्प बात यह भी है कि इस विभाग के मंत्री अभी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद ही हैं।
हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में भ्रष्टाचार पर सजा के पैमाने तय करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कितने कमजोर पर कितने ताकतवर का भ्रष्टाचार हो रहा है। अगर रोजी का कोई मजदूर किसी मंत्री या अफसर के बंगले से कुछ चुरा ले तो उसकी सजा बहुत मामूली हो सकती है। लेकिन अगर समाज के सबसे कमजोर तबके की बुनियादी जरूरतों को मंत्री-अफसर, और ठेकेदार जालसाजी से चुरा रहे हैं, तो इसकी सजा भी बहुत बड़ी होनी चाहिए, और इसके जुर्माने की शक्ल में इनकी दौलत भी छीनी जानी चाहिए। एक सरीखी सजा ऐसे मामलों मेें कोई इंसाफ नहीं हो सकती। जब तक ऐसे मामले की पूरी जांच नहीं हो जाती, विभाग के प्रभारी मंत्री को खुद होकर इस विभाग को छोड़ देना चाहिए, लेकिन इस किस्म का आदर्श हिन्दुस्तान में दिखना अब मुमकिन नहीं दिखता है।
दो दिनों से हिन्दुस्तान का मीडिया टाटा के एक भूतपूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की सडक़ हादसे में मौत को लेकर अटकलें लगा रहा है कि एक नामी-गिरामी कंपनी की सुरक्षित कार के हादसे में किस तरह सामने बैठे दो लोग तो बच गए, पीछे बैठे दोनों लोग मर गए, और कार का बोनट तक नहीं टूटा है। कुछ लोग पेशेवर अपराधकथा-लेखक की तरह जुट गए हैं कि इस हादसे के पीछे कोई साजिश तो नहीं है। कार सवार चारों लोग पारिवारिक दोस्त थे, और कोई पेशेवर ड्राइवर इसके लिए नहीं रखा गया था। इस बात को भी लोग संदिग्ध और रहस्यमय मान रहे हैं कि इतने लंबे सफर में कोई ड्राइवर क्यों नहीं रखा गया था। खैर, साइरस मिस्त्री टाटा की कंपनियों में सबसे अधिक शेयरों के मालिक हैं, और कंपनी के साथ लंबी कानूनी लड़ाई के चलते वे कुछ बरस खबरों में भी थे, और दो बड़े कारोबारियों के बीच कत्ल करवाना फिल्मों में दिखते भी रहता है, इसलिए इस मामले में भी ऐसे शक पर टिकी चर्चाएं जारी हैं।
लेकिन हम इस हादसे के एक तकनीकी पहलू पर बात करना चाहते हैं जिससे बाकी हिन्दुस्तान भी सबक ले सकता है। शुरुआती पुलिस जानकारी से पता लगता है कि सामने की दोनों सीटों वाले लोगों ने सीट बेल्ट लगाए हुए थे, और पीछे के दोनों लोगों ने नहीं लगाए थे। ऐसा अंदाज है कि पीछे के लोग दोनों सीटों के बीच दबकर ही मर गए। अब तमाम महंगी कारों में पीछे भी सीट बेल्ट रहते हैं, और किसी टक्कर की नौबत में हर सीट बेल्ट उस मुसाफिर को सीट से बांधकर रखता है, इसलिए जान बचाने में सीट बेल्ट का सबसे बड़ा योगदान रहता है। फिर जो जानकार लोग लिख रहे हैं, उसके मुताबिक कारों में लगे हुए एयरबैग किसी टक्कर की हालत में तभी काम करते हैं जब सीट बेल्ट लगा होता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि अगर कार सडक़ किनारे बंद खड़ी है, उसमें कोई मुसाफिर नहीं है, सीट बेल्ट नहीं लगा है, तो टक्कर की हालत में उसके सीट बेल्ट खुलने की जरूरत नहीं रहती जिसे वापिस लगवाने में खासा खर्च भी होता है। इसलिए अगर चलती हुई कार में भी सीट बेल्ट नहीं लगे हैं तो उसके एयरबैग नहीं खुलते, और कार की यह पूरी सुरक्षा-प्रणाली बेकार हो जाती है। आज हिन्दुस्तान में हालत यह है कि कुछ महानगरों को छोड़ दें, तो बाकी पूरे देश में लोग सीट बेल्ट लगाने जितना आसान काम भी नहीं करते हैं जिससे कि उनकी जिंदगी जुड़ी हुई है।
अब यहां पर सरकार की जिम्मेदारी आती है कि वह अपनी पुलिस से ऐसे तमाम लोगों का चालान करवाए जो कि बिना सीट बेल्ट चलते हैं, दुपहिया पर बिना हेलमेट चलते हैं, या मोबाइल फोन पर बात करते हुए चलते हैं, नशे में या अधिक रफ्तार से चलते हैं। इनमें से हर बात को अब कैमरों में भी दर्ज किया जा सकता है, और हर चौराहे पर पुलिस की तैनाती भी जरूरी नहीं है। लेकिन आमतौर पर यह देखने में आता है कि सत्तारूढ़ पार्टी अराजक जनता पर भी कोई कार्रवाई करवाना नहीं चाहती कि नाराज वोटर अगली बार खिलाफ वोट न दे दें। दुनिया के दूसरे विकसित देशों में 25 बरस पहले से सुरक्षा कैमरे चौराहों पर नियम तोडऩे वाली गाडिय़ों की तस्वीर सहित कम्प्यूटर से बने चालान लोगों के फोन पर एक मिनट के भीतर ही पहुंचा देते हैं, और ईमेल आने की बीप सुनते ही लोग समझ जाते हैं कि लालबत्ती तोडऩे का सैकड़ों डॉलर का चालान आ गया है। हिन्दुस्तान कहने के लिए विकसित देश होने का दावा करता है, लेकिन यहां सार्वजनिक जगहों पर नियमों को लागू करवाने का काम सबसे ढीला है। जब सरकारें यह मान लेती हैं कि अराजक को भी नाराज नहीं करना है, तो हालत लगातार बिगड़ते चले जाना तय रहता है।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में पुलिस ने यह करके देखा है कि चौराहों पर लगे कैमरों से मिली तस्वीरों से लोगों के घर चालान भेजा जा सकता है। लेकिन मानो यह कोई वैज्ञानिक परीक्षण रहा हो, इसके कुछ नमूने जनता के सामने पेश करने के अलावा इसका बड़े पैमाने पर कोई इस्तेमाल नहीं किया गया। इससे सरकार को कमाई ही होती है, और लोगों की जिंदगी बचती है, लेकिन अलग-अलग जगहों पर पुलिस या तो भ्रष्ट रहती है, या लापरवाह और निकम्मी, और कई जगहों पर ये दोनों ही बातें लागू होती हैं। यह तो राज्य के राजनीतिक नेतृत्व के भी समझने की बात रहती है कि किसी भी सभ्य प्रदेश में सार्वजनिक जीवन में लोगों को जिम्मेदार बनाने का काम उस प्रदेश की तस्वीर बेहतर बनाने के काम भी आता है। दूसरे प्रदेशों से जो लोग किसी भी सिलसिले में आते हैं, वे शहरी विकास देखने के साथ-साथ ट्रैफिक देखकर भी समझ जाते हैं कि राज्य में नियमों का कितना पालन हो रहा है।
लेकिन इससे भी अधिक जरूरी एक बात यह है कि लोग जिंदगी में पहली बार अगर कोई कानून तोड़ते हैं, तो सबसे अधिक संभावना इसी बात की रहती है कि वह ट्रैफिक कानून हो। यहां से नियम-कानून की हिकारत का जो सिलसिला शुरू होता है, वह फिर आगे बढ़ते चलता है। अभी जिन शहरों में नौजवान रोजाना चाकूबाजी कर रहे हैं, हमारा अंदाज है कि इन्होंने ट्रैफिक नियम तोडऩे से गुंडागर्दी शुरू की होगी, और जब उस काम से उन्हें किसी ने नहीं रोका होगा, उस पर कोई जुर्माना या सजा नहीं भुगतना पड़ा होगा, तो फिर धीरे-धीरे वह अराजकता बढक़र उन्हें कातिल तक बना देती है। आम लोगों की जिंदगी का पहला जुर्माना हर मामले में ट्रैफिक चालान ही होता होगा, और अगर वहीं से उन्हें एक सबक मिलते चलता है, तो वे आगे अधिक बड़े मुजरिम बनने का खतरा कुछ कम रखते हैं। इसलिए ट्रैफिक नियम तोडऩे वालों पर तुरंत ही कड़ी कार्रवाई इसलिए होनी चाहिए कि आगे जाकर ये लोग कोई कत्ल या बलात्कार करने का हौसला न जुटाएं। शुरुआत में ही पुलिस से वास्ता पड़ जाए, जो जुर्माना देना पड़े, वह नुकसान उन्हें याद रहता है।
कहने के लिए सरकार और उसके अफसर यह कह सकते हैं कि जिन लोगों को अपनी जान की फिक्र नहीं उन्हें सरकार भी क्या बचा लेगी। लेकिन हकीकत यह है कि लोगों को जिम्मेदार बनाना सरकार की एक जिम्मेदारी रहती है। पहले लोग सिनेमाघरों में सिगरेट पीते थे, सरकार ने उस पर जुर्माना लगाया, और दूसरी कई सार्वजनिक जगहों पर भी रोक लगाई, और नतीजा यह है कि आने वाले बरसों में उस पर बहुत हद तक अमल भी होने लगा। आज सच तो यह है कि सरकार के ट्रैफिक से जुड़े विभागों को अराजक लोगों के साथ किसी रियायत करने का हक भी नहीं है, क्योंकि ऐसे लोग अपनी और दूसरों की जिंदगी के लिए खतरा रहते हैं। एक बड़े कारोबारी की ऐसी मौत के बाद लगातार खबरों में सीट बेल्ट की चर्चा को देखते हुए ट्रैफिक पुलिस को हर जगह कड़ाई बरतनी चाहिए, और एक-एक बार जुर्माना देने के बाद कम ही लोग होंगे जो कि दुबारा जुर्माना देने का नुकसान उठाएंगे। दुनिया के जिम्मेदार देशों में बार-बार नियम तोडऩे वाले लोगों के ड्राइविंग लाइसेंस रद्द करने का भी नियम रहता है, और हिन्दुस्तान में भी जिम्मेदार आम लोगों की जान बचाने के लिए ऐसी सजा देनी चाहिए।
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हिन्दुस्तान के सोशल मीडिया को भाड़े की फौज कहकर कोसा जाता है कि दो-दो रूपये लेकर लोग ट्वीट करते हैं, और जिस पर हमला करने को कहा जाए उसे बलात्कार की धमकियां तक देते रहते हैं। अब यह इस देश के राष्ट्रवादियों के लिए सोचने की बात होनी चाहिए कि ऐसी हिंसक और अश्लील धमकियां देने वाले, सोशल मीडिया की हवा में जहर और नफरत घोलने वाले लोगों में से बहुतायत में लोग अपने प्रोफाइल फोटो में, अपने परिचय में, अपने राष्ट्रवादी और हिन्दुत्ववादी होने का दावा क्यों करते हैं? अगर ये लोग राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व का बेजा इस्तेमाल करने वाले और झूठा प्रोफाइल बनाने वाले लोग हैं, तो आज तो देश की सरकार ही राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की हिमायती है, और वह ऐसे लोगों की शिनाख्त करने की कानूनी ताकत भी रखती है। ऐसी कानूनी ताकत के बाद भी जब सोशल मीडिया पर दसियों लाख लोग साम्प्रदायिक हिंसा और नफरत को फैलाने का ओवरटाइम करते रहते हैं, तो फिर उन्हें पकडऩे और सजा देने में ढिलाई से क्या साबित होता है?
आज इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत इसलिए है कि कल पाकिस्तान की क्रिकेट टीम ने हिन्दुस्तान की टीम को एक बड़े मैच में हराया, और उसके तुरंत बाद से हिन्दुस्तान के अनगिनत ट्विटर हैंडलों से पाकिस्तान के नाम मां की गाली का हैशटैग बनाकर उसके खिलाफ अंधाधुंध जहर उगलना शुरू कर दिया गया। जब हिन्दुस्तान की जमीन से रात-दिन राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व का गुणगान करने वाले लोग तिरंगे झंडे की प्रोफाइल फोटो लगाए हुए यह गंदगी फैला रहे हैं, तो यह राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व का झंडा लेकर चलने वाले लोगों की जिम्मेदारी हो जाती है कि वे अपने इन हिमायती साथियों को काबू करें। मैच हारने वाले देश के लोग अगर मैच जीतने वाले देश को मां की गालियां बकते हैं, तो वे गालियां बकने वालों को ही लगती हैं।
लेकिन पहले देश के भीतर एक धर्म के खिलाफ, एक राजनीतिक विचारधारा के खिलाफ, एक नेता के खिलाफ नफरत और हिंसा भडक़ाने का नतीजा यह होता है कि आज ऐसे लोग क्रिकेट में हार को बर्दाश्त करने के बजाय मां-बहन की गालियों पर उतर आए हैं, और यह सडक़ पर बेनाम चेहरे के मुंह से निकली हुई गालियां नहीं हैं, ये सोशल मीडिया पर किसी नाम और चेहरे से निकली हुई गालियां हैं जिनका साइबर सुबूत भी मौजूद है। और जब देश की सरकार और इनकी हिमायती विचारधारा इन पर कोई कार्रवाई नहीं करती है, तो नतीजा यह होता है कि हिन्दुस्तानी टीम का एक खिलाड़ी एक कैच छोड़ देने की वजह से सोशल मीडिया पर लाखों लोगों द्वारा खालिस्तानी करार दिया जा रहा है। जो सोच अपने देश के लोगों को इंसानी लहू पिला-पिलाकर पालती है, उसे ऐसे इंसानखोर ही नसीब होते हैं जो कि लहू का अगला कटोरा लाने वाले को ही चीरकर खा जाएं। आज इस देश के एक गैरमुस्लिम खिलाड़ी को, सिक्ख खिलाड़ी को खालिस्तानी करार दिया जा रहा है। जिन्हें पाकिस्तान और मुस्लिमों को गाली दिलवाना ठीक लगते रहा, उन्हें इस नौबत के लिए तैयार रहना चाहिए कि आज देश के एक सिक्ख खिलाड़ी को भी खालिस्तानी आतंकी और देश का गद्दार कहा जा रहा है। इसके बाद अगली बारी हिन्दू धर्म के करीब के दूसरे धर्मों की रहेगी, उसके बाद हिन्दू धर्म के भीतर के कहे जाने वाले दलित-आदिवासियों को गद्दार करार दिया जाएगा। नफरत के साथ दिक्कत यह है कि वह प्राण फूंके गए शेर की तरह रहती है, और उसे खाने को कोई न कोई लगते हैं। नतीजा यह होता है कि जब पाकिस्तान की मां को 25-50 लाख गालियां दी जा चुकी हैं, तब एक हिन्दुस्तानी सिक्ख की बारी आ गई, और नफरत को इस देश के भीतर रोकने का कोई जरिया भी नहीं रह गया।
जिन लोगों को यह लगता है कि सोशल मीडिया पर पाकिस्तान को मां की गालियां देकर वे क्रिकेट में हार का बदला ले लेंगे, वे लोग और उनकी औलादें जिंदगी में कभी कोई मैच नहीं जीत पाएंगे क्योंकि खेल के बजाय उन्हें गाली की ताकत पर भरोसा हो गया है। और सोशल मीडिया पर ही किसी समझदार ने यह भी याद दिलाया है कि पाकिस्तान को मां की गालियां बकने वाले लोग यह भी तो सोचें कि पाकिस्तान की मां आखिर है कौन? यह सवाल पूछने वाले ने जो नहीं लिखा है, उसे भी याद दिला देना ठीक होगा कि पाकिस्तान की मां तो वह अखंड भारत है जिसका सपना ये राष्ट्रवादी हिन्दुत्ववादी देख रहे हैं। अब वे सोचें कि ये गालियां आखिर किसके नाम लिखा रही हैं! हिन्दुस्तान की जो सोच अपने मुंह मियां मि_ू होकर विश्वगुरू होने का दावा करती है, उसके नाम कल यह तो लिखा ही गया है कि खेल में हारने के बाद इस देश के लोगों ने जीतने वाली टीम के देश को मां की गाली देने में विश्व रिकॉर्ड बनाया है। अगर यही विश्वगुरू होना है, तो फिर क्या इसी संस्कृति पर यह देश गौरव करने जा रहा है?
जब पूरे देश को नफरत और हिंसा का ऐसा खून मुंह लगा दिया गया है, तो यहां के बाकी लोगों को भी सावधान हो जाना चाहिए। ये लोग अभी तक तो अपनी हिंसक सोच से असहमत हिन्दुस्तानियों की मां-बहनों के नाम बलात्कार की धमकियां रात-दिन पोस्ट करते आए हैं, और अब वह बढक़र इस देश के एक खिलाड़ी तक पहुंच गई हैं। इस देश की जो सरकार ट्विटर के साथ देश की अदालतों तक में मुकदमे लड़ रही है कि बहुत सी सामग्री हटाई जाए, वह सरकार कल ट्विटर पर मां की गाली के इस हैशटैग को देखते हुए चुप थी, उसने ट्विटर से यह नहीं कहा कि इस हैशटैग को हिन्दुस्तान में ब्लॉक किया जाए। जब सरकार खुली आंखों से यह सब देखते हुए कोई भी कार्रवाई नहीं करती है, न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर, और न ही देश के नाम को कालिख पोतने वाले ऐसे हिंसक हिन्दुस्तानियों पर, तो फिर यह मानने की कोई वजह नहीं रह जाती कि यह सरकार इन गालियों से असहमत है। सरकार की तो यह कानूनी और संवैधानिक जिम्मेदारी ही है कि वह नफरत के खिलाफ कार्रवाई करे, लेकिन हिन्दुस्तानी सोशल मीडिया पर नफरत के जिस सैलाब को जिस तिरंगे झंडे के साथ बढ़ावा दिया जा रहा है, वह एक भयानक नजारा है, और अगर कुछ लोगों को यह लगता है कि यह देश आगे जाकर लोगों के लिए महफूज नहीं रह जाएगा, तो उन्हें गलत नहीं लगता है, यह देश आज भी उदार विचारधारा के लिए, लोकतांत्रिक सोच के लिए, सामाजिक इंसाफ के नजरिये के लिए महफूज नहीं रह गया है। क्रिकेट कोई ऐसी खबर नहीं है जो कि सरकार को न दिखे, और पाकिस्तान के साथ हिन्दुस्तान के रिश्ते ऐसे नहीं है कि सरकार पाकिस्तान के खिलाफ हिन्दुस्तान में चल रहे ऐसे किसी अभियान को न देखे। यह नौबत इस देश के चेहरे पर कालिख पोत चुकी है, और तथाकथित विश्वगुरू को अपनी इस गंदगी के बारे में सोचना चाहिए।
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केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण दो दिन पहले तेलंगाना के एक जिले में राशन दुकान देखने पहुंचीं तो उन्हें वहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तस्वीर नहीं दिखी। उन्होंने सार्वजनिक रूप से, वीडियो-कैमरों के सामने कलेक्टर को खूब फटकार लगाई कि जो केन्द्र सरकार राशन पर इतनी रियायत देती है, उसके प्रधानमंत्री का फोटो यहां लगाने में किसको दिक्कत हो सकती है? उन्होंने कलेक्टर को चेतावनी दी कि उनके (भाजपा के) लोग आकर फोटो लगाएंगे, और यह कलेक्टर की जिम्मेदारी होगी कि उस तस्वीर को न कोई हटा सके, और न ही कोई उसको नुकसान पहुंचा सके। उन्होंने कलेक्टर की जिम्मेदारी के दायरे के बाहर के कई सवाल किए, और कलेक्टर का इम्तिहान लेने के अंदाज में राशन-रियायत के आंकड़े पूछे। इस पूरे वक्त भाजपा के लोग उनके साथ थे, और वे बिना रूके देर तक कलेक्टर को फटकार लगाती रहीं।
तेलंगाना में सत्तारूढ़ टीआरएस पार्टी और उसके मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव कुछ दूसरे दक्षिणी मुख्यमंत्रियों की तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्र सरकार के कटु आलोचक हैं। सार्वजनिक रूप से केसीआर मोदी के खिलाफ जितनी आलोचना करते हैं, उतनी आलोचना शायद ही कोई दूसरे मुख्यमंत्री करते हों। निर्मला सीतारमण के इस बर्ताव के बाद टीआरएस कार्यकर्ताओं ने जगह-जगह गैस सिलेंडरों पर मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर चिपकाकर यह नारा लोगों को याद दिलाया, मोदीजी-1105 रूपये। और उन्होंने निर्मला सीतारमण के नाम से इन तस्वीरों को पोस्ट करते हुए पूछा कि वे प्रधानमंत्री की फोटो चाहती थीं न?
जिन लोगों ने केन्द्रीय वित्तमंत्री का यह वीडियो देखा है वे उनके व्यवहार को लेकर भी हैरान हैं। राशन दुकानों का इंतजाम राज्य सरकार की जिम्मेदारी, और उसके अधिकार क्षेत्र का मामला रहता है। इसलिए वहां पर किसी नेता के पोस्टर लगाए जाएं या नहीं, यह राज्य सरकार के तय करने का मामला है। खासकर एक ऐसे प्रदेश में जो कि प्रधानमंत्री का बहुत प्रशंसक नहीं है, वहां एक कलेक्टर को यह राजनीतिक चेतावनी देना कि भाजपा के लोग आकर फ्लैक्स लगाकर जाएंगे, और उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए, यह बात केन्द्र-राज्य संबंधों के मुताबिक कोई अच्छी बात नहीं थी। लोगों को याद होगा कि कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पसंदीदा समझे जाने वाले एक समाचार चैनल के स्टार-एंकर ने जब तमिलनाडु के वित्तमंत्री से इस बात को लेकर कड़े सवाल-जवाब चालू किए कि प्रधानमंत्री के कहने के बावजूद तमिलनाडु उनके निर्देशों का पालन क्यों नहीं कर रहा है, तो वित्तमंत्री ने समाचार बुलेटिन के इस जीवंत प्रसारण में बड़े सरल तर्कों से जिस तरह इस एंकर और उसकी पसंदीदा केन्द्र सरकार को एक साथ फटकारा था, वह देखने लायक नजारा था। उसने एंकर से सवाल किए कि प्रधानमंत्री अपने किस संवैधानिक अधिकार से राज्यों को ऐसे निर्देश दे सकते हैं, उनकी अपनी ऐसी कौन सी विशेषज्ञता है जिससे कि वे ऐसे निर्देश देने के हकदार बनते हैं, उनकी ऐसी कौन सी आर्थिक कामयाबी है जिससे कि कोई राज्य उनकी बात को सुने? तमिलनाडु के वित्तमंत्री ने इस दिग्गज एंकर को विनम्र शब्दों में फटकारते हुए याद दिलाया कि तमिलनाडु आर्थिक पैमानों पर भारत सरकार से बेहतर काम करके दिखा रहा है, उसे प्रधानमंत्री के कोई निर्देश क्यों मानने चाहिए?
दरअसल केन्द्र सरकार में या किसी राज्य में व्यक्ति पूजा जब सिर चढक़र बोलने लगती है, तो ऐसे व्यक्ति के भक्तजन बाकियों से यह उम्मीद करते हैं कि वे भी कीर्तन में शामिल हों। लेकिन निर्मला सीतारमण ने जिस तेलंगाना के एक जिले की राशन दुकान पर कलेक्टर को फटकारा, और वहां पर भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा जिले की हर राशन दुकान पर मोदी के फ्लैक्स लगवाने की घोषणा की, उस तेलंगाना के मुख्यमंत्री अपने सार्वजनिक कार्यक्रमों में मोदी की पुरानी घोषणाओं के वीडियो और आज की हकीकत दिखाते हुए प्रधानमंत्री की खासी आलोचना करते ही रहते हैं। बागी तेवरों वाले ऐसे प्रदेश में राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में दखल देकर वित्तमंत्री ने तेलंगाना सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी को मोदी की नाकामयाबी गिनाने का एक मौका और दे दिया। दरअसल किसी भी देश-प्रदेश में जनता के पैसों से होने वाले काम का श्रेय किसी व्यक्ति को देना वैसे भी जायज नहीं है। और हिन्दुस्तान का मीडिया जनता के खजाने से किए जा रहे खर्च को किसी सत्तारूढ़ नेता द्वारा दी गई सौगात लिखने में ओवरटाइम करता है। जनता को उसका हक मिले, और उसे सौगात की तरह लिखा जाए, तो इसका मतलब जनता को खैरात के अंदाज में कुछ दिया जा रहा है। इसी को कुछ हफ्ते पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों ने संसद के बाहर और भीतर रेवड़ी करार दिया था, और लोगों ने आनन-फानन यह याद दिला दिया था कि किस तरह हिन्दुस्तानी बैंकों के बड़े उद्योगपतियों के दस लाख करोड़ से अधिक के कर्ज माफ किए गए हैं, और सवाल पूछा था कि क्या यह भी रेवड़ी है?
किसी मंदिर या मठ में प्रसाद के रूप में पैकेट में दी जाने वाली रेवड़ी पर तो किसी देवता या मठाधीश की फोटो लगाना जायज होगा, लेकिन जब जनता के पैसों से ही उसे उसका बुनियादी हक दिया जा रहा है, तो देश के किसी भी नेता को उसे अपनी या अपनी सरकार की दी हुई खैरात क्यों साबित करना चाहिए? व्यक्ति पूजा का यह पूरा सिलसिला अलोकतांत्रिक है, और जब सरकारी खर्च पर इसे चलाया जाता है, तो वह खर्च तो आपराधिक रहता ही है। हिन्दुस्तान की राजनीतिक संस्कृति से देश-प्रदेश में व्यक्ति पूजा खत्म होनी चाहिए, और जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान होना चाहिए। ऐसी ही नौबत में भारत में राजनीतिक विचारधाराओं की विविधता का महत्व समझ आता है जब केन्द्र और राज्य के अलग-अलग नेता एक-दूसरे से सवाल करने के लायक अभी भी बचे दिखते हैं।
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कर्नाटक में एक और धार्मिक सेक्सकांड सामने आया है। इस बार वहां भारी राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव रखने वाले एक लिंगायत मठ के स्वामी शिवमूर्ति को मठ की आश्रम-स्कूल की नाबालिग दलित छात्राओं के यौन शोषण की शिकायत आने, और मजिस्ट्रेट के सामने इन लड़कियों का हलफिया-बयान हो जाने के बाद यह गिरफ्तारी की गई है। यह मठ कर्नाटक के सबसे ताकतवर मठों में से एक माना जाता है, और कर्नाटक के राजनीतिक दल स्तब्ध हैं कि वे क्या कहें। एक नेता, पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी के वी.एस.येदियुरप्पा ने इसे स्वामी के खिलाफ राजनीतिक साजिश कहा है, और इसे झूठा केस बताया है। हर किसी को डर है कि इस स्वामी की आलोचना करना राजनीतिक रूप से आत्मघाती हो सकता है क्योंकि कर्नाटक में लिंगायत आबादी 17 फीसदी है। जिस तरह बापू कहे जाने वाले आसाराम के अनगिनत राजनेता भक्त थे, उसी तरह लिंगायत मठों के स्वामियों के भी बड़े-बड़े नेता अनुयायी होते हैं। इस स्वामी की तस्वीरें अभी कुछ समय पहले ही कांग्रेस के मुखिया राहुल गांधी को दीक्षा देते हुए सामने आई थीं। खबरें बताती हैं कि लिंगायत मठ जाति व्यवस्था के खिलाफ कुछ सुधारवादी काम भी करते हैं, जिनमें गरीबों के लिए स्कूल चलाने जैसी बातें शामिल हैं। लेकिन अब मठ की ही स्कूल की छात्राओं की यह शिकायत सामने आई है, और इस मामले में हॉस्टल वार्डन की भी गिरफ्तारी हुई है।
यहां यह बात याद रखना चाहिए कि दुनिया भर में धर्म और आध्यात्म से जुड़े हुए बहुत से लोग तरह-तरह के सेक्स-अपराध करते पकड़ाते हैं। इनमें से अधिकतर ऐसे रहते हैं जो कि अपने धर्म या सम्प्रदाय की परंपराओं के मुताबिक शादियों से दूर रहते हैं। जाहिर है कि देह की जरूरत पर वे जीत हासिल नहीं कर पाते, और अपने कमजोर वक्त में वे पिघलकर किसी पर बिछ जाते हैं। वैटिकन के तहत आने वाले चर्चों में बच्चों के यौन शोषण का बड़ा लंबा इतिहास है, और ऐसी शिकायतों के सुबूत दर्ज हो जाने के दशकों बाद जाकर चर्च ने इन्हें माना, और इनके लिए माफी मांगी। लेकिन चर्च से परे अमरीका में हिन्दू धर्म के सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय संगठन, इस्कॉन के गुरूकुलों में बच्चों का यौन शोषण अच्छी तरह दर्ज है, और इसके ऊपर गंभीर रिसर्च-लेख भी लिखे गए हैं। लोगों ने हिन्दुस्तान की सडक़ों पर भी इस हरे कृष्ण आंदोलन के ब्रम्हचारियों को गाडिय़ों को रोक-रोककर इस्कॉन की किताबों को बेचते हुए देखा है। अब जिस धर्म या सम्प्रदाय में लोगों के ब्रम्हचारी होने की शर्त हो, वहां पर इस तरह के सेक्स-अपराध होते ही रहते हैं। भारत में कितने ही धर्मगुरू इसी तरह पकड़ाए गए हैं, इनमें सबसे चर्चित तो आसाराम है जिसने अपने सम्प्रदाय की एक स्कूल के छात्रावास की एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार किया था, और वह मामला कई बार सुप्रीम कोर्ट तक जाकर भी आसाराम को जमानत नहीं दिला पाया है, और सजा में मिली कैद जारी है। इसलिए जिस धर्म में जिनके ब्रम्हचर्य की शर्त रहती है, उन्हें आपस में एक-दूसरे के लिए, या बाकी भक्तों के लिए खतरा मानकर ही चलना चाहिए। जिन लोगों से उनके धर्म की व्यवस्था यह उम्मीद रखती है कि वे सारा वक्त ईश्वर की आराधना में लगाएंगे, उनका सारा वक्त अगर सेक्स की सोच में गुजरता है, तो ऐसे ब्रम्हचर्य से उस धर्म का क्या भला होता है?
लोगों को याद होगा कि अभी कुछ दिन पहले ही मध्यप्रदेश में उमा भारती के करीबी एक ओबीसी नेता ने हिन्दू धर्म के प्रवचनकर्ताओं के बारे में यह कहा कि प्रवचन करते हुए भी उनकी नजरें सामने बैठी हुईं महिलाओं में से सुंदर महिलाओं पर टिकी रहती है, और बाद में वे उनके घर खाने-ठहरने का जुगाड़ जमाने में लगे रहते हैं। ऐसी चर्चाएं सभी धर्म के बाबाओं, ब्रम्हचारियों, और गुरुओं के बारे में आम रहती हैं। लोगों को कुछ बरस पहले का स्वामी नित्यानंद का अपनी शिष्या के साथ का एक सेक्स-वीडियो याद होगा जिसमें वे एक अभिनेत्री के साथ बिस्तर पर सेक्स में जुटे दिखते हैं। अब यह स्वामी बलात्कार के आरोपों में अंतरराष्ट्रीय पुलिस, इंटरपोल का ब्लूनोटिस झेल रहा है, और दुनिया भर में इसकी तलाश की जा रही है। वह हिन्दुस्तान छोडक़र भाग गया, और बाद में एक किसी टापू पर उसने कैलाश नाम का अपना खुद का एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की घोषणा की।
छोटे स्तर पर देखें तो धर्म से जुड़े हुए अंधविश्वासों पर पलने वाले तांत्रिक जैसे लोग भी किसी का भूत उतारने के नाम पर, तो किसी का इलाज करने के नाम पर बलात्कार करते मिलते हैं, और जैसा कि हिन्दुस्तान का आम चलन है, ऐसे अधिकतर मामलों में पारिवारिक और सामाजिक दबाव में मामले पुलिस तक नहीं जा पाते, और उन्हें दबाकर, भुलाकर छोड़ दिया जाता है। जो लोग धर्म और आध्यात्म से जुड़े हुए लोगों के आसपास रहते हैं, उन्हें अपने, और अपने परिवार के लोगों की हिफाजत का ख्याल रखना चाहिए। धर्म के आसपास कोई भी सुरक्षित नहीं रह सकते, सिवाय मुजरिमों के। हर किस्म के मुजरिमों को पाप से बचने का रास्ता बताने वाले धर्म उन्हीं की सबसे अधिक हिफाजत कर पाते हैं क्योंकि प्रायश्चित पर खर्च करवाने का एक रिवाज है। धर्म के लोग जब बलात्कारी हो जाएं, तब उसमें हैरानी की कोई बात नहीं रहती, क्योंकि जब लोगों की आस्था अंधविश्वास की तरह मजबूत हो जाती है, तो उसका शोषण करने से बाबा और बापू से लेकर पादरी तक कौन चूकेंगे?
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देश की राजधानी दिल्ली के इलाके में उत्तरप्रदेश में सरकारी भ्रष्टाचार और बिल्डर माफिया की ताकत ने मिलकर सैकड़ों करोड़ के जो अवैध टॉवर बनाए थे, वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले और कड़े रूख के चलते गिराने पड़ गए। देश भर में बिल्डर माफिया बहुत सी जगहों पर इसी तरह गुंडागर्दी से अवैध निर्माण करते हैं, उन्हें लोगों को बेचकर निकल जाते हैं। यह मामला किसी तरह सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच सका, और उस पर कार्रवाई हो सकी। ऐसा अंदाज है कि इन दो इमारतों में जो नौ सौ फ्लैट बनाकर बेचने के लिए लोगों से रकम ले ली गई थी, उसके दाम सात सौ करोड़ रूपये से अधिक थे। जिस वक्त इन्हें विस्फोटक लगाकर उड़ाया जा रहा था, सोशल मीडिया पर तरह-तरह की बातें लिखी जा रही थीं कि इन इमारतों को राजसात करके वहां पर कोई समाजसेवा का काम शुरू कर देना चाहिए, और इन्हें बनाने में देश का जो पैसा लगा है उसे बर्बाद नहीं होने देना चाहिए। सौ मीटर ऊंची ये दो इमारतें करीब तीस-तीस मंजिल की थीं, और देश की राजधानी के इलाके में यह एक सबसे बड़ी बिल्डर-गुंडागर्दी थी जिसे मिट्टी में मिला देने का सबक बहुत से लोगों को मिलेगा।
जिन लोगों को यह लगता था कि इन इमारतों का कोई समाजसेवी उपयोग होना चाहिए, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि यह जगह इस रिहायशी कॉलोनी के बगीचे के लिए सुरक्षित थी, और वहां सुप्रीम कोर्ट भी उसका कोई और इस्तेमाल नहीं कर सकता था। उस जगह पर आसपास के उन हजारों लोगों का ही हक था जिन्होंने उस कॉलोनी में मकान खरीदे थे, और अब खाली हुई इस जगह पर बगीचा पाना जिनका हक था। अदालत में यह मामला नौ बरस तक चला था, और उसके बाद जाकर सुप्रीम कोर्ट से यह फैसला हुआ, और ये गैरकानूनी इमारतें गिराई गईं। यह तो वहां के निवासी संपन्न थे जो उन्होंने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी, वरना किसी गरीब इलाके के लोग तो नौ बरस सुप्रीम कोर्ट में दाखिल होने की ताकत भी नहीं रखते। ऐसे में यह मामला देशभर के प्रदेशों के सामने, म्युनिसिपलों के सामने एक नजीर की तरह रहना चाहिए कि ग्राहकों को धोखा देने वाले बिल्डरों का क्या हाल किया जाना चाहिए।
इसी तरह के मामलों के अदालत के बाहर निपटारे का काम राज्यों में बनाई गई रेरा नाम की संस्था कर सकती है जहां पर किसी भी बिल्डर या कॉलोनाइजर के खिलाफ ग्राहक जा सकते हैं, और उनके साथ हुई बेईमानी के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं। राज्यों में बनाई गई संवैधानिक संस्था के अधिकार देखें, तो वे बेईमान बिल्डरों को जेल भेजने लायक हैं। उनके कारोबार को बंद करवा देने के लायक हैं, उनके बैंक खाते जब्त कर देने के लायक हैं। अलग-अलग प्रदेशों में कम या अधिक कार्रवाई भी रेरा की सुनवाई के बाद हो रही है, और जहां पर यह संस्था ईमानदारी और सक्रियता से काम कर रही है, वहां पर बिल्डर माफिया पर मजबूत शिकंजा कस रहा है।
आज हिन्दुस्तान में रिहायशी या कारोबारी इमारतें बनाकर उनमें जगह बेचने का कारोबार कई किस्म की राजनीतिक और गुंडागर्दी की ताकत से लैस है। इन ताकतों को अदालतों में चलने वाले मामलों पर बड़ा भरोसा रहता है कि वहां से उनके खिलाफ कोई फैसला होने तक तो शिकायतकर्ता की जिंदगी ही खत्म हो जाएगी। इस मामले में भी देश की सबसे बड़ी अदालत में भी अगर नौ बरस लगे थे, तो बिल्डर के वकीलों की तरकीबों और ताकत का अंदाज लगाया जा सकता है। दूसरी तरफ रेरा जैसी संस्था को जो अधिकार दिए गए हैं उनमें हो सकता था कि नौ महीनों में ही इस बिल्डर के बैंक खातों पर रोक लग जाती, वहां जमा रकम वहीं पड़ी रह जाती, और उस हालत में बिल्डर इस हड़बड़ी में रहता कि रेरा में फैसला जल्दी हो जाए। देश के कानून में अदालतों से परे कई किस्म के मामलों को तेजी से निपटाने के लिए कहीं ट्रिब्यूनल बनाए गए हैं, कहीं प्राधिकरण बनाए गए हैं। देश की निचली अदालतें दो लीटर दूध में मिलावट का फैसला करने में तीस-तीस बरस ले रही हैं, दूसरी तरफ उपभोक्ता फोरम जैसी ग्राहक पंचायतें कुछ महीनों में ही इनका निपटारा कर सकती हैं। लोगों के बीच इस बात को लेकर जागरूकता भी रहनी चाहिए कि देश में उनके अधिकारों के लिए अदालतों से परे कौन-कौन सी संस्थाएं बनी हैं, और उनका इस्तेमाल कैसे हो सकता है।
हम छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में देखते हैं जहां कुछ गिने-चुने बिल्डरों और कॉलोनाइजरों को छोड़ दें, तो अधिकतर का काम बड़े पैमाने पर गैरकानूनी है। इनके खिलाफ इनके ग्राहकों को संगठित होकर शिकायत करनी चाहिए, और जो इलाके ऐसे प्रोजेक्ट से प्रभावित होते हैं, उन्हें भी कानूनी लड़ाई लडऩी चाहिए। दो-चार धोखेबाज कारोबारी हर प्रदेश में इस तरह की सजा पाएंगे, जेल भेजे जाएंगे, तो पूरा कारोबार सुधर जाएगा। देश में कानूनी विकल्प आसानी से हासिल हैं, और लोगों को अदालतों से अब तक मिली निराशा को छोडक़र इन नए विकल्पों का फायदा उठाना चाहिए।
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पुर्तगाल में एक भारतवंशी गर्भवती पर्यटक महिला को वहां के सबसे बड़े अस्पताल में ले जाया गया, लेकिन वहां उसे भर्ती नहीं किया गया, और दूसरे अस्पताल भेजा गया। लेकिन दूसरे अस्पताल पहुंचने के पहले हार्टअटैक से उसकी मौत हो गई। इस बात को अपनी निजी कामयाबी मानते हुए वहां की स्वास्थ्य मंत्री डॉ. मार्ता टेमिडो ने इस्तीफा दे दिया है। खबरें बताती हैं कि वे 2018 से स्वास्थ्य मंत्री थीं, और कोरोना के दौर में उन्होंने हालात बहुत अच्छी तरह सम्हाले थे। अपने विभाग या अपनी सरकार की किसी बहुत बड़ी चूक की वजह से अपनी कुर्सी छोड़ देना हिन्दुस्तान में कुछ दशक पहले तक एक लोकतांत्रिक परंपरा मानी जाती थी, और किसी बड़ी रेल दुर्घटना के बाद रेलमंत्री इस्तीफा देते थे, हालांकि कोई मंत्री खुद तो रेलगाड़ी चलाते नहीं हैं, न ही वे सिग्नल देते पटरियों के किनारे रहते हैं, लेकिन कानूनी जवाबदेही से परे नैतिक जवाबदेही का दायरा बड़ा होता है, और उसे मानने वाले लोग सचमुच के बड़े लोग होते हैं। आज जब किसी कुर्सी पर तब तक चिपके रहना, जब तक कि कानून के लंबे हाथ आकर टेंटुआ दबाकर घसीटकर न ले जाएं, का चलन है, तब हिन्दुस्तान में नैतिकता के अधिकार पर इस्तीफे की बात भी सुने लंबा अरसा गुजर गया है। पिछले दिनों किसान आंदोलन के दौरान जब एक केन्द्रीय मंत्री के बददिमाग और खूनी बेटे ने अपनी गाड़ी से किसानों को कुचलकर मार डाला था, तब उसकी गिरफ्तारी और चार्जशीट के बाद भी, देश भर से मांग उठने के बाद भी इस बेशर्म मंत्री ने कुर्सी नहीं छोड़ी थी। बिहार और गुजरात जैसे शराबबंदी वाले राज्यों में लोग थोक में जहरीली शराब पीकर मरे हैं, लेकिन इसके लिए किसी जिम्मेदार ने कोई इस्तीफा नहीं दिया। आज सत्ता पर पहुंच गए लोग जिस तरह कुर्सी से चिपककर बैठते हैं, उसे देखकर देह में चिपक जाने वाली जोंक भी शरमा जाती है कि वह मुकाबले में कहीं नहीं टिकती।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र अब पूरी तरह से अदालत से सजा मिल जाने के ठीक पहले तक सत्ता का मजा पाते रहने वाली हो गई है। अब या तो सरकार और पार्टी के मुखिया ही किसी की कुर्सी छीन लें, तो अलग बात है, अपने खुद के जुर्म किसी को यह अहसास नहीं कराते कि उन्हें अपनी पार्टी और सरकार को और अधिक बदनाम न करना चाहिए, न होने देना चाहिए। इस बुनियादी इंसानियत की जगह भी आज लोगों के नैतिक मूल्यों में नहीं रह गई है। जो लोग, बड़े-बड़े ताकतवर मंत्री भी, जिन बड़े जुर्मों में पकड़ा रहे हैं, वे भी आखिरी सांस तक सत्ता पर बने रहना चाहते हैं, और शर्मिंदगी के साथ चुप घर बैठने का सिलसिला खत्म ही हो गया है। और बेशर्मी का यह सिलसिला बहुत नया भी नहीं है। मायावती और लालू यादव सरीखे लोग सैकड़ों करोड़ की अनुपातहीन सम्पत्ति के मामले में अपने कुनबे सहित पकड़ाए जा चुके हैं, एक पांव अदालत में है, और एक पांव पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी पर है, और भविष्य जेल में है, लेकिन पार्टी के सुप्रीमो बने हुए हैं। उधर दक्षिण में जयललिता की अथाह काली कमाई का यही हाल था, देश भर में जगह-जगह नेताओं की दौलत भ्रष्टाचार की आदी जनता को भी हक्का-बक्का करने की ताकत रखती है। रबर स्लीपर पहनने वाली, बिना कलफ की सादी साड़ी वाली ममता बैनर्जी की सादगी किस काम की जब भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे उनके मंत्री की महिलामित्र के घर से पचास करोड़ के नोट निकलते हैं?
हिन्दुस्तान की राजनीति में जिम्मेदारी, वफादारी, ईमानदारी, इन सबका विसर्जन कर दिया गया है। अब लोग कालेधन की गुंडागर्दी से पार्टी में आगे बढ़ते हैं, साम्प्रदायिकता और जातिवाद की हिंसा से बड़े नेता बनते हैं, और चापलूसी या कुनबापरस्ती से बड़े ओहदे पाते हैं। फिर बड़े ओहदों की ताकत से वे और बड़ी गुंडागर्दी करते हैं, अपने पसंदीदा मुजरिमों को कारोबारी बनवाते हैं, और अपना भविष्य तिजौरियों में महफूज रखते हैं। यह सिलसिला इतना आम हो गया है, और जनता का एक बड़ा हिस्सा इनको लोकतंत्र मानने का इतना आदी हो गया है कि इनमें से कोई खामी लोगों को चुनाव नहीं हरवाती। इसलिए अब लोग इस परले दर्जे के बेशर्म हो गए हैं कि उनके मंत्रालय के मातहत, या उनके देश-प्रदेश में कितने भी बुरे काम होते रहें, वे खुद कितनी भी बड़ी गलतियां करते रहें, उनके मन में कभी भी कुर्सी से हटने का कमजोर खयाल नहीं आता। हिन्दुस्तान के नेता अब अपनी मुसीबत को देखते हुए कभी यह कहते हैं कि उनका फैसला जनता की अदालत में होगा, और कभी यह कहते हैं कि उनका फैसला कानून की अदालत में होगा। जिस अदालत में वे हार जाते हैं, वहां से निकलकर वे दूसरी अदालत का रूख करने लगते हैं।
जेलों से निकले संगठित हत्यारों और बलात्कारियों का माला और मिठाई से, तिलक और आरती से स्वागत करने वाला समाज अब किसी भी तरह की नैतिकता के बोझ से मुक्त हो गया है। लोकतंत्र अब पूरी तरह अदालतों के फैसलों से तय होने लगा है, यह एक अलग बात है कि अदालतों में फैसला देने वाले लोग किस तरह तय होने लगे हैं, यह भी लगातार खबरों में है, और वे किन वजहों से कैसे फैसले देते हैं, यह भी खबरों में है। जिस देश में लोकतंत्र की सभी संस्थाएं एक संगठित माफिया की तरह मिलकर काम करने लगें, उस देश में सुरंग के आखिरी सिरे पर दिखती रौशनी की एक किरण सरीखी भी रौशनी नहीं दिखती। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र आज एक ऐसे ही पूर्ण सूर्यग्रहण से ढंक गया दिखता है, और यह ग्रहण घटता नहीं दिख रहा है। इसलिए एक मौत को लेकर देश की स्वास्थ्य मंत्री के इस्तीफे जैसी खबरें हमें दुनिया के दूसरे देशों से ही मिलती रहेंगी, जहां सूर्यग्रहण इतना पूर्ण नहीं होगा।
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झारखंड की राजधानी रांची में पुलिस ने एक शिकायत के बाद भाजपा की एक महिला नेता सीमा पात्रा को गिरफ्तार किया है जिस पर अपनी घरेलू नौकरानी को बंधुआ मजदूर बनाकर रखने और उसकी भयानक प्रताडऩा करने का आरोप है। यह महिला भाजपा महिला विंग की राष्ट्रीय कार्यसमिति की सदस्य हैं, और उन्हें इस शिकायत के सामने आने के बाद बीजेपी ने निलंबित किया है। इस महिला के पति एक रिटायर्ड आईएएस अफसर हैं, और इसका बेटा अपनी मां के जुर्म से असहमत था, और उसी से यह जानकारी बाहर निकली, और पुलिस ने जाकर किसी तरह उस आदिवासी नौकरानी को कैद से निकाला जिसे यह महिला गर्म तवे और डंडों से पीटती थी जिससे उसके दांत भी टूट गए थे, और वह बहुत खराब शारीरिक-मानसिक हालत में आठ बरस से कैद थी। झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस ने भी इस पूरे मामले के उजागर होने पर राज्य के पुलिस प्रमुख से पूछा है कि इस पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई है। इस महिला नौकरानी ने मजिस्ट्रेट के सामने पूरा बयान दिया है।
घरेलू नौकरों को बंधुआ मजदूर की तरह रखकर उन पर तरह-तरह के जुल्म ढहाते हुए उनसे अमानवीय काम करवाना बहुत अनोखी बात नहीं है। गांव से जो नौकरों को लाकर शहरों में रखते हैं, वे बहुत से मामलों में उन्हें बंधुआ मजदूर से बेहतर नहीं रखते। न उन्हें इंसानों की तरह जीने की सहूलियत रहती, न नौकरी और तनख्वाह की कोई गारंटी रहती, और न ही इलाज या किसी और तरह के कानूनी अधिकार उन्हें मिलते हैं। गांव में भी घरवाले इतनी कमजोर आर्थिक स्थिति के रहते हैं कि किसी को शहर में जिंदा रहने लायक काम ही मिल जाए, तो उसे वे बहुत समझ लेते हैं। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों, कुछ पहाड़ी इलाकों, और अधिकतर आदिवासी इलाकों से लडक़े-लड़कियों को गुलाम की तरह ले जाया जाता है, और वे गांव के मुकाबले बेहतर जिंदगी की उम्मीद में चले जाते हैं। इनमें से कई लोग तो ईसाई स्कूलों की मेहरबानी से कुछ पढ़े-लिखे भी होते हैं, और उन्हें लगता है कि वे एक बार शहर पहुंच जाएंगे, तो ऊपर का सफर वे खुद तय कर लेंगे। लेकिन शहर बेरहम होता है, और अड़ोस-पड़ोस के लोग बेबस नौकर-नौकरानी पर, बाल मजदूरों पर जुल्म देखते हुए भी चुप रहते हैं, क्योंकि उनके मालिक पड़ोसियों के वर्ग-मित्र रहते हैं, और उनसे बुराई भला क्यों मोल ली जाए।
अभी झारखंड की राजधानी रांची में जुल्म की शिकार इस गरीब आदिवासी का मामला सामने आया है जो कि उसी राज्य की रहने वाली थी। जब ऐसे लोग महानगरों में जाकर वहां संपन्न घरों में बंधुआ मजदूरी करते हैं, तो वे और अधिक कमजोर और बेबस हो जाते हैं। वे अपने इलाके से, अपनी जुबान से बहुत दूर चले जाते हैं, और महानगरों की हमदर्दी किसी कमजोर के साथ रहती नहीं है। नतीजा यह होता है कि बहुत से मामलों में ऐसे मजदूर लडक़े-लड़कियों का देह शोषण भी होता है, और उन्हीं में से हर बरस दसियों हजार लोगों को देह के धंधे में धकेलकर कई लोग कमाई कर लेते हैं। ये दोनों-तीनों किस्म के मामले मिले-जुले रहते हंै, और कब घरेलू जुल्म से निकलकर इनमें से कुछ लड़कियां रेड लाईट एरिया पहुंच जाती हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता।
कुछ प्रदेशों में अगर ऐसा कानून होगा भी तो भी उस पर अमल जरा भी नहीं है कि घरेलू नौकर-नौकरानी की पूरी जानकारी करीब के थाने में दी जाए, और कोई सरकारी अमला या सामाजिक कार्यकर्ता बीच में कभी जाकर ऐसे नौकरों का हालचाल पूछकर आएं, यह समझकर आएं कि उन्हें किन स्थितियों में रहना पड़ रहा है, उनकी पूरी तनख्वाह मिलती है या नहीं। आज सरकारों के श्रम विभाग भी सिर्फ संगठित मजदूरों वाले संस्थानों तक अपनी दिलचस्पी सीमित रखते हैं, घरेलू नौकर-नौकरानी, या घरों में पूरे वक्त के लिए रखे जाने वाले दूसरे कामगार किसी तरह के कानूनी अधिकार नहीं पाते हैं। राज्यों को अधिक सुधारवादी रूख अपनाना चाहिए, और इस बात को दंडनीय अपराध बनाना चाहिए, अगर सरकार को लिखित जानकारी दिए बिना लोग घरेलू या व्यापारी संस्थानों में नौकर रखते हैं।
झारखंड और छत्तीसगढ़ उन आदिवासी इलाकों में से सबसे आगे हैं जहां से लड़कियां और महिलाएं महानगरों की प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा बाहर ले जाई जाती हैं, और वहां उन्हें काम से लगाया जाता है, या रेड लाईट एरिया में बेच दिया जाता है। मानव तस्करी के आंकड़े भयानक हैं, और सरकारें इस सामाजिक खतरे को मानने के लिए तैयार नहीं होती हैं क्योंकि दूसरे शहरों में बसे हुए मजदूर किसी पार्टी या नेता के संगठित वोटर नहीं होते हैं। सरकार के साथ-साथ इस बात को रिहायशी इमारतों की भी जिम्मेदारी बनाना चाहिए कि वहां के घरों में काम करने वाले लोगों का पूरा रिकॉर्ड इकट्ठा करके पुलिस को देना वहां के निवासी संघ या बिल्डर की कानूनी जिम्मेदारी रहे। सरकारों को नमूने के तौर पर ऐसे कुछ लोगों पर कार्रवाई करनी भी चाहिए, और ऐसे गैरजिम्मेदार लोगों पर मोटा जुर्माना भी लगाना चाहिए, इसकी खबरें और लोगों पर असर करेंगी।
झारखंड के इस मामले में फंसी हुई महिला भाजपा की ऐसी नेता है जिसका फेसबुक पेज और ट्विटर पेज पिछले कई हफ्तों से सिर्फ तिरंगे झंडे लिए हुए अपनी तस्वीरों वाला है। उसने अलग-अलग नेताओं के साथ, अलग-अलग कार्यक्रमों में अपनी खुद की सैकड़ों तस्वीरें झंडा थामे हुए पोस्ट की हैं। अब घरेलू नौकरानी को गर्म लोहे से पीटना, सलाखों से उसके दांत तोड़ देना, और बाहर तिरंगा यात्रा निकालना, घर-घर तिरंगा फहराना, यह सार्वजनिक जीवन में कथनी और करनी का बहुत बड़ा विरोधाभास है। कानून को कड़ाई से काम करना चाहिए, इस महिला को कई बरस की कैद होनी चाहिए, और इसकी दौलत का एक बड़ा हिस्सा इसकी शिकार महिला को मुआवजे में मिलना चाहिए। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जब कभी अपने विधायकों के साथ राज्य को सुरक्षित पाकर लौट सकें, तब उन्हें वहां की गरीब आदिवासी जनता की सुरक्षा भी करनी चाहिए।
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यूक्रेन पर रूस के हमले को छह महीने से अधिक हो गए हैं। दैत्याकार रूस की सेना के सामने यूक्रेन बहुत छोटा और कमजोर है, और पश्चिमी हथियार मिलने के बावजूद वह लगातार नुकसान झेल रहा है। यूक्रेन के काफी हिस्से पर रूसी फौज का कब्जा हो गया है, और यूक्रेन के इन इलाकों में बचे हुए, मोटेतौर पर बूढ़ों, महिलाओं, और बच्चों की आबादी को रूस अपने में शामिल करने की कोशिश भी कर रहा है। ऐसी आबादी लगातार जिस तनाव में जी रही है उसका एक अंदाज इससे लगता है कि जब ऐसे एक यूक्रेनियन से पूछा गया कि वे ऐसे हालात में किस तरह जी रहे हैं, तो उसने कहा- अपने-आपको खबरों से दूर रखकर।
जब चारों तरफ बहुत ही बुरी बातें हो रही हों, हौसले को तोडऩे की बात हो रही हो, हैवानियत नाच रही हो, तथाकथित इंसानियत दुबककर बैठ गई हो, तब अपने को खबरों से दूर रखना शायद अपने बचे-खुचे हौसले को बचाए रखने की एक तरकीब हो सकती है। हिन्दुस्तान में भी हम देखत हैं कि बहुत से लोग सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहते हैं, और लगातार वहां आ रही नकारात्मक खबरों को देख-सुनकर वे दिमागी रूप से टूटने लगते हैं। जो लोग थोड़े से संवेदनशील होते हैं, वे कुछ दिनों के लिए सोशल मीडिया से अलग हो जाते हैं। टीवी की खबरों से भी बहुत से लोग परहेज करने लगे हैं क्योंकि किसी नापसंद खबर को छोडक़र आगे बढ़ जाना टीवी पर मुमकिन नहीं होता है। अखबार में तो पन्ना पलटाया जा सकता है, दूसरी खबर पर जाया जा सकता है, ऐसी ही सहूलियत इंटरनेट पर खबरों के साथ रहती है, लेकिन टीवी की खबरें रेल के डिब्बों की तरह एक के बाद एक चलती हैं, और उन्हें छोडक़र आगे नहीं बढ़ा जा सकता। वैसे तो सोशल मीडिया पर भी बाकी इंटरनेट की तरह खबरों को छोडक़र आगे बढ़ा जा सकता है, लेकिन वहां फेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म के कम्प्यूटर आपको आपकी पसंदीदा और चुनिंदा चीजें दिखाते चलते हैं, और जब आप उनसे थक चुके रहते हैं, तब भी आपकी थकान का अंदाज लगाने में इन कम्प्यूटरों को कुछ वक्त लग जाता है। फिर यह भी रहता है कि फेसबुक जैसी जगह आप जिन्हें फॉलो करते हैं, या जो आपके दोस्त रहते हैं, उन्हीं की पोस्ट आपको अधिक दिखाई जाती है, और अगर वे किसी एक विचारधारा के हैं तो उनकी हिंसा, या उनकी नफरत, या उनकी निराशा आप तक भी पहुंचती है।
जिस तरह हम बीच-बीच में लिखते हैं कि जिंदगी में धर्म की एक सीमित भूमिका रहनी चाहिए, उसी तरह खबरों की भी एक सीमित जगह रोज की जिंदगी में होनी चाहिए। और जब हम इस जगह को सीमित करने की बात करते हैं, तो पाठक की पसंद और प्राथमिकता की गुंजाइश सबसे ऊपर रहना चाहिए। टीवी के साथ यह बिल्कुल भी नहीं है। रेडियो की खबरों के साथ भी यही दिक्कत है कि गैरजरूरी या नापसंद खबर को छोडक़र आगे बढऩा मुमकिन नहीं है। इसलिए लोगों को खबर पाने, समाचार या विचार पाने के अपने जरिये सोच-समझकर तय करना चाहिए। टीवी के आधे घंटे के एक बुलेटिन में जितनी जानकारी किसी दर्शक को मिलती है, उतनी जानकारी वे दर्शक पाठक बनकर दस मिनट में किसी अखबार या जिम्मेदार वेबसाइट से पा सकते हैं, या तो बीस मिनट बचा सकते हैं, या टीवी के मुकाबले तीन गुना खबरों को जान सकते हैं।
और यह बात हम महज समाचार-विचार के लिए नहीं कह रहे हैं, बल्कि जिंदगी में रोज लोग जितना समय जानकारी, विचार, और मनोरंजन पाने के लिए रखते हैं, उसका बड़ी सावधानी से इस्तेमाल होना चाहिए। अब अगर कोई किताब पढऩा शुरू किया गया है, और वह बेकार निकल गई है, तो उसे पूरा पढऩे की जहमत नहीं उठाई जाती, उसे छोड़ दिया जाता है, और किसी बेहतर किताब को उठाया जाता है। ठीक इसी तरह लोगों को अखबार, या कोई पत्रिका, या टीवी चैनल का समाचार या बहस का कार्यक्रम छांटना चाहिए। यह इसलिए जरूरी है कि आप धीरे-धीरे वैसे ही इंसान बनने लगते हैं जैसी सोच आप समाचार-विचार, या मनोरंजन से रोज पाते हैं। अगर आप रोज हॅंसने के ऐसे कार्यक्रम देखते हैं जिनमें लोगों के रूप-रंग, उनकी शारीरिक कमजोरियों को लेकर उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है, तो धीरे-धीरे आप असल जिंदगी में भी वैसी खिल्ली उड़ाने वाले बन जाते हैं। आप जिन टीवी चैनलों पर वक्त बर्बाद करते हैं, उन्हीं चैनलों की सोच आपकी भी सोच बन जाती है। इसलिए लोग किन लोगों के बीच रोज बैठते हैं, किन बातों पर बातें करते हैं, उतनी ही अहमियत इस बात को भी देनी चाहिए कि वे रोज क्या देखते और सोचते हैं।
इसके साथ-साथ जिस बात से हमने आज की चर्चा शुरू की है, वह भी मायने रखती है। आसपास अगर चारों तरफ सिर्फ निराशा और तकलीफ की खबरें हैं, तो उन्हीं खबरों को पूरे वक्त देखते रहना, सुनते रहना भी ठीक नहीं है। अपनी जानकारी के लिए इन बातों को एक बार जान लेना जरूरी है, लेकिन उन्हीं बातों को दस-दस, बीस-बीस अलग-अलग जरियों से जानने का मतलब अपने आपको निराशा में डुबा देना है। हिन्दुस्तान में आज जब हवा में जहरीली नफरत काले बादलों सरीखी जम गई है, तब पूरे वक्त इस नफरत को ही पढऩा, उसे ही जानते रहना दिमागी सेहत के लिए बहुत नुकसानदेह हो सकता है। जहां खुद के करने लायक कुछ न हो, वहां पर पूरे ही वक्त जहरीली नफरत से घिरे रहना ठीक नहीं है। लोगों को जिस तरह धर्म और आस्था पर खर्च किया जाने वाला अपना वक्त सीमित रखना चाहिए, ठीक उसी तरह आसपास की हिंसा और नफरत को देखने-समझने का वक्त भी सीमित रखना चाहिए। अब जब लोग असल जिंदगी के दोस्तों के दायरे की तरह सोशल मीडिया पर भी अपना एक आभासी दायरा बना लेते हैं, तब यह बात और जरूरी हो जाती है कि उन्हें एक ही सोच के सीमित दायरे के बाहर भी निकलना चाहिए, जिस तरह कि शहरी जिंदगी से घिरे हुए लोगों को कभी-कभी जंगल और कुदरत के बीच जाने का फायदा होता है। लोगों को आभासी दुनिया के अपने दायरे में धर्म, जाति, जेंडर, पेशे, राजनीतिक सोच, प्रादेशिकता की विविधता रखनी चाहिए, ताकि सारे ही वक्त उन्हें एक सरीखी नकारात्मकता में सांस न लेना पड़े।
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भाजपा सरकार वाले कर्नाटक की आठवीं की एक सरकारी पाठ्य पुस्तक को लेकर एक दिलचस्प विवाद उठ खड़ा हुआ है। कर्नाटक इन दिनों विनायक दामोदर सावरकर को महान देशभक्त साबित करने की कोशिशों से गुजर रहा है, और चूंकि सिर्फ इतने से हवा में साम्प्रदायिक जहर नहीं घुल सकता था, वहां साथ-साथ टीपू सुल्तान का विरोध भी किया जा रहा है ताकि इस मुद्दे को हिन्दू-मुस्लिम में तब्दील किया जा सके, मुस्लिमों के ध्रुवीकरण का सामान पेश किया जा सके, और उसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू ध्रुवीकरण की उम्मीद की जा सके। इसी सिलसिले में अभी इस किताब का एक हिस्सा सामने आया है जिसमें यह दावा किया गया है कि सावरकर जब अंडमान की जेल में थे, जहां उनकी कोठरी में एक चाबी के लिए छेद भी नहीं था, वहां बुलबुल उडक़र कोठरी में पहुंचती थीं, और सावरकर उनके पंखों पर बैठकर रोज मातृभूमि घूमकर आते थे। अब जब इस बात को लेकर विवाद हो रहा है तो किताब के बचाव में यह तर्क दिया जा रहा है कि यह साहित्य की अलंकारिक भाषा है, और उसका शाब्दिक अर्थ निकालना गलत है। आलोचकों का कहना है कि इस कन्नड़ पाठ्य पुस्तक को सीधी-सपाट भाषा में लिखा गया है, और इसमें किसी अलंकार या प्रतीक जैसी कोई बात नहीं है। यह बच्चों के दिमाग में सावरकर की करिश्माई महानता को बैठाने की एक बड़ी भोथरी कोशिश है, और यह कोशिश अपने आपमें अकेली नहीं है, सावरकर को महान बताने की कोशिशें गांधी से जुड़े एक सबसे प्रमुख संस्थान की पत्रिका में भी हाल ही में हुई है।
दरअसल झूठ को फैलाने और स्थापित करने की एक सीमा होनी चाहिए। सावरकर ने देश की आजादी के लिए जब तक, जो कुछ किया था, उसका सम्मान इंदिरा गांधी के समय भी हो चुका है जब प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने सावरकर पर डाक टिकट निकाली थी। और सावरकर की तारीफ भी की थी। लेकिन हकीकत यह है कि सावरकर का जीवन दो अलग-अलग हिस्सों में महानता और पलायन में बंटा हुआ था। एक वक्त उन्होंने अंग्रेज सरकार के खिलाफ काम किया, और उस वजह से उन्हें कालापानी की सजा देकर अंडमान जेल में बंद किया गया था। लेकिन जेल में रहते हुए सावरकर ने अंग्रेज सरकार पर माफीनामों और रहम की अपीलों की बौछार कर दी थी। कुछ इतिहासकार बताते हैं कि उन्होंने कम से कम आधा दर्ज दया याचिकाएं भेजी थी जिनमें से पहली तो जेल में छह महीने गुजारने के बाद ही चली गई थी। इन दया याचिकाओं में सावरकर ने अंग्रेज सरकार की किसी भी रूप में सेवा करने का मौका देने की अपील की थी, और कहा था कि वे राह से भटके हुए और लोगों को भी सरकार की तरफ लेकर आएंगे। आज जिस गांधी-स्मृति की पत्रिका में केन्द्र सरकार के मनोनीत आरएसएस के ट्रस्टी सावरकर की स्तुति छाप रहे हैं, उसके बारे में इतिहासकारों ने लिखा है कि सावरकर खुलेआम गांधी को गालियां देते थे, और गांधी के लिए उनका दिल नफरत से भरा हुआ था। यह एक और बात थी कि सावरकर की रहम की अपीलें अंग्रेज सरकार के पास जाने का दौर शुरू हो जाने के बाद उनके भाई की चिट्ठियों में की गई अपील के जवाब में गांधी ने महज यह सुझाया था कि सावरकर को केस की जानकारी देते हुए किस तरह अपील करनी चाहिए। गांधी के इस जवाब को आज इस तरह प्रचारित किया जा रहा है कि मानो गांधी ने सावरकर को रहम की अपील करना सुझाया था। जबकि गांधी से सावरकर के भाई के पहले संपर्क के चार बरस पहले सावरकर का पहला माफीनामा अंग्रेज सरकार को पहुंच चुका था। सावरकर की जिंदगी के शुरू के एक हिस्से में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में उनकी हिस्सेदारी को लेकर जब-जब उनके गौरवगान की कोशिश होगी, तब-तब लोगों को उनकी आगे की जिंदगी याद आएगी, याद दिलाई जाएगी कि अंग्रेजों से रहम की अपील में उन्होंने क्या-क्या लिखा था, और किस तरह अंग्रेज सरकार से वे बरसों तक माहवारी पेंशन पाते थे। जिस वक्त देश के हजारों स्वतंत्रता सेनानी जेलों में कैद थे, उस वक्त सावरकर अंग्रेज सरकार की वफादारी और उसकी सेवा करने का लिखित वायदा करके जेल के बाहर आए थे, और अंग्रेजी पेंशन पर रहते थे।
दरअसल यह दिक्कत सावरकर के साथ ही नहीं है, सार्वजनिक जीवन के बहुत से लोगों के साथ ऐसा होता है कि जब वे आसमान जैसी ऊंचाई पर पहुंचते हैं, और वहां से नीचे गिरते हैं, तो बहुत नीचे गिर जाते हैं। उनकी जिंदगी को मिलाजुला ही देखना चाहिए। जब कभी कोई उन्हें महज आसमान तक ले जाकर वहीं एक सिंहासन पर बिठा देना चाहेंगे, तो लोग तुरंत याद करेंगे कि वे कितने नीचे भी गिरे हुए थे। और फिर जो लोग इतिहास का हिस्सा हो चुके हैं, उन लोगों का समग्र मूल्यांकन अगर अभी नहीं होगा, और अभी भी अगर सिर्फ उनकी अच्छी बातें ही गिनी जाएंगी, तो फिर वे एक विचारधारा के महज प्रचार के लिए बनाए गए मुखौटे रह जाएंगे। जेल के नियमों में माफी मांगकर बाहर निकलने की कोशिश तो रहती है, लेकिन यह तो लोगों की अपनी पसंद रहती है कि वे अंग्रेजों से माफी मांगें, या रहम की भीख मांगें, या जलियांवाला बाग जैसे भयानक हत्याकांड करने वाले अंग्रेजों से पेंशन लें, या फिर वे जेल की सलाखों के पीछे मरने के लिए तैयार रहें। सावरकर ने अपने कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए यह किया था, और आज उनकी स्मृतियों को इन्हीं का भुगतान करना पड़ रहा है। जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, जब भगतसिंह जैसे नौजवान सीना ताने हुए देशभक्ति के गाने गाते हुए किसी भी रहम की अपील से दूर खुशी-खुशी फांसी पर झूल गए, तो वैसे दौर के सावरकर की रहम की अपीलों और अंग्रेजों की सेवा करने की गिड़गिड़ाहट को कैसे भुलाया जा सकता है। सावरकर को देश के इतिहास की किताबों में छोड़ देना चाहिए। आज स्कूली किताबों के रास्ते सावरकर को महान साबित करने की कोशिशें जब-जब होंगी, तब-तब सावरकर की अंग्रेजों की चापलूसी और रहम की भीख भी लोगों को याद आएगी। आज सावरकर को महान साबित करने वाले उनका भला नहीं कर रहे हैं, वे इतिहास के पन्नों को बार-बार सामने लाने को मजबूर कर रहे हैं कि आज वीर कहा जाने वाला यह आदमी किस कदर कमजोर था, और उसने किस तरह रिहाई की भीख मांगी थी।
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कुछ दिन पहले जापान में एक चुनाव प्रचार में लगे हुए वहां के एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिंजो एब पर एक नौजवान ने सार्वजनिक जगह पर ही घरेलू बनाई बंदूक से हमला कर दिया था, और इन्हीं जख्मों से शिंजो की मौत हो गई थी। अब खबर आई है कि इस हत्यारे ने इसलिए कत्ल किया था कि शिंजो जापान के एक विवादित धार्मिक सम्प्रदाय, यूनिफिकेशन चर्च से जुड़े हुए थे, और हत्यारे की मां ने अपनी पूरी दौलत चर्च को दान कर दी थी, और इससे वह भयानक गरीबी का शिकार हो गया था। अब जब हत्यारे के कम्प्यूटर से यह चिट्ठी मिली है तो इस चर्च की तरफ लोगों का ध्यान गया है, और यह खबर भी सामने आई कि जापान के मौजूदा प्रधानमंत्री फुकियो किशिदा ने हाल ही में अपने कई मंत्रियों को इस वजह से बर्खास्त कर दिया है कि वे इसी विवादास्पद यूनिफिकेशन चर्चा से जुड़े हुए थे।
ईसाई धर्म के तहत बहुत से अलग-अलग किस्म के सम्प्रदायों वाले अलग-अलग चर्च रहते हैं, इनकी रीति-नीति अलग रहती है, और इनके धार्मिक संस्कारों में भी फर्क रहता है। कुछ देशों में तो इस किस्म के चर्च भी हैं जो कि पूरी तरह से अंधविश्वासों पर भरोसा करते हैं, और वहां की प्रार्थना सभाओं में लोग अजगर और सांप लेकर नाचते हैं। यूनिफिकेशन चर्च नाम का यह नया धार्मिक आंदोलन दक्षिण कोरिया के सियोल में 1954 में शुरू हुआ और इसके तीस लाख सदस्य बताए जाते हैं। कोरिया और जापान बौद्ध धर्म से भी जुड़े हुए देश हैं, लेकिन इस ईसाई चर्च की कुछ नीतियों की वजह से इसे खतरनाक सम्प्रदाय भी माना जाता है। विकीपीडिया की जानकारी के मुताबिक यह चर्च राजनीति में खुलकर हिस्सा लेता है, यह घोर साम्यवादविरोधी चर्च है, और यह शैक्षणिक, राजनीतिक, और कारोबारी संगठनों से भी जुड़ा रहता है। यह चर्च उत्तर और दक्षिण कोरिया को एक करने के राजनीतिक अभियान में भी लगे रहता है, और यह अपने कोरियाई और जापानी अनुयाईयों के बीच बड़े-बड़े सामूहिक विवाह करवाता है ताकि दोनों देशों के बीच एकता बढ़ सके।
लेकिन इस चर्च पर अधिक लिखने का हमारा इरादा नहीं है। हम सिर्फ एक ऐसी खतरनाक नौबत के बारे में लिखना चाहते हैं जिसकी राजनीतिक सरगर्मी से उसके धार्मिक पहलू का नुकसान हो रहा है, और उसके साथ संबंधों को लेकर एक देश की सत्तारूढ़ पार्टी तोहमतें झेल रही है, और उसके मंत्रियों को बर्खास्त करना पड़ रहा है। और तो और अभी कातिल का शिकार बने पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो एब के भाई को भी मंत्री पद खोना पड़ा क्योंकि जनता इस चर्च को लेकर बौराई हुई है। जापान की इन बातों से दुनिया के बाकी देशों को भी सबक लेना चाहिए कि धर्म और राजनीति का घालमेल लोगों को कहां ले जा सकता है। अभी तक हमने इस्लामिक आतंकी संगठनों की दुनिया भर में हिंसक वारदातें देखी हैं, और म्यांमार और श्रीलंका जैसे देशों में बौद्ध लोगों की की गई हिंसा के शिकार मुस्लिमों और तमिलों को भी देखा है। हिंदुस्तान में हिंदू हिंसक संगठनों की जगह-जगह की जा रही हिंसा बीच-बीच में सामने आते ही रहती है। इजराइल में यहूदियों की कट्टरता पूरी तरह से फिलिस्तीन पर हो रहे जुल्मों के साथ रहती है।
दुनिया में धर्म का इतिहास हमेशा से हिंसक रहा है। एक ही धर्म के भीतर अलग-अलग सम्प्रदायों के लोग एक-दूसरे को मारने में भी लगे रहते हैं। ईरान से लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक हर कहीं मुस्लिमों के बीच एक-दूसरे को सम्प्रदायों के नाम पर मारने की होड़ लगी रहती है। हिंदुस्तान का पुराना इतिहास बताता है कि किस तरह अपने आप के शांतिप्रिय होने का दावा करने वाले हिंदू और बौद्ध सम्प्रदायों के बीच एक-दूसरे के सिर काटने का मुकाबला चलता था। इसलिए आज जब जापान के इन ताजा विवादों से यह बात सामने आ रही है कि किस तरह धर्म और राजनीति, धर्म और कारोबार का घालमेल न सिर्फ जानलेवा हो सकता है, बल्कि वह देश के लोगों के भीतर ऐसे धर्म के लिए नफरत भी खड़ी कर सकता है।
खासकर हिंदुस्तान के संदर्भ में इस बात को समझने की जरूरत है क्योंकि यहां पर आज सत्ता की मेहरबानी से, हिंदुत्व के नाम पर कई तरह की हिंसा चल रही है, देश में हिंदू-मुस्लिम विभाजन किया जा रहा है, मुस्लिमों के आर्थिक बहिष्कार का फतवा दिया जा रहा है, हिंदू धर्म और योग के नाम पर देश का एक सबसे बड़ा कारोबार खड़ा किया जा चुका है। भारत में आज हिंदुत्व के आक्रामक संस्करण को राजनीति, कारोबार, लोकतंत्र के संस्थानों सभी पर लादा जा रहा है। इस देश के लोगों को जापान के इन विवादों को कुछ अधिक ध्यान से देखना चाहिए कि वहां जब धर्म अखंड कोरिया, अखंड जापान-कोरिया बनाने की मुहिम में इस तरह लग गया है कि उससे जनता को नफरत होने लगी है, और प्रधानमंत्री को इस चर्च से जुड़े मंत्रियों को बर्खास्त करना पड़ा है। लोगों के लिए भी यह सोचने का मौका है कि जिंदगी में धर्म का महत्व कितना होना चाहिए, और इसमें से कितना हिस्सा निजी आस्था की तरह रहना चाहिए और उसका कितना हिस्सा सार्वजनिक जीवन का रहना चाहिए। लोग जब दुनिया के इतिहास से सबक लेने की बात करते हैं, तो उसका मतलब महज इतिहास से सबक लेना नहीं रहता, वह दुनिया के दूसरे हिस्सों के वर्तमान से भी सबक लेने का रहता है। देखें कि कुछ देशों के धर्म के हिंसक या राजनीतिक पहलुओं से बाकी देशों के लोग क्या सबक लेते हैं।
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