संपादकीय
मध्यप्रदेश का डिंडौरी जिला छत्तीसगढ़ के करीब है, और इसकी पहचान एक आदिवासी इलाके के रूप में होती है। लेकिन अभी चार दिन पहले की एक खबर बताती है कि ऐसे इलाके में भी हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक तनाव इतना बढ़ गया है, और मध्यप्रदेश की भाजपा की शिवराज सिंह सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में बुलडोजर को अल्पसंख्यकों के खिलाफ जिस तरह एक राजकीय हथियार बनाकर चल रही है, वह नौबत कितनी भयानक हो सकती है। एक हिन्दू लडक़ी और मुस्लिम लडक़े के बीच स्कूल के समय से मोहब्बत चली आ रही थी, और दोनों के परिवारों को भी यह बात मालूम थी। लेकिन लडक़ी का परिवार इस शादी के लिए तैयार नहीं था, इसलिए लडक़ी खुद घर छोडक़र चली गई और उसने फोन करके लडक़े को बुलाया, और दोनों ने जाकर एक हिन्दू मंदिर में शादी कर ली। इस पर लडक़ी के परिवार ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई और हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों ने प्रदर्शन करते हुए प्रशासन से यह मांग की कि इस लडक़े के परिवार के घर-दुकान गिराए जाएं। चूंकि भारत में हिन्दुत्व के सबसे कट्टर राज, उत्तरप्रदेश से यह सिलसिला शुरू हो चुका है कि मुस्लिमों को खत्म करने के लिए उनके सिर की छत और उनके रोजगार को बुलडोजर से खत्म कर दिया जाए, इसलिए हिन्दुत्व टीम के उपकप्तान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी इसी श्लोक का पाठ करते हैं, और उन्होंने जगह-जगह यही काम किया भी है। यह किसी और का आरोप नहीं है बल्कि डिंडौरी के कलेक्टर रत्नाकर झा ने खुद होकर कई तस्वीरें पोस्ट की हैं, और यह लिखा है- डिंडौरी जिले में छात्रा के अपहरण के मामले में आरोपी आसिफ खान के दुकान और मकान को जमींदोज कर दिया गया है। दो दिन तक आरोपी आसिफ खान की दुकानों सहित उसके अवैध मकान पर कार्रवाई की गई है। इसके साथ माफियामुक्तएमपी का हैशटैग भी लगाया गया है, और इस ट्वीट को सीएममध्यप्रदेश को टैग भी किया गया है। कलेक्टर ने लिखा है कि उन्होंने कार्रवाई करते हुए बुलडोजर/जेसीबी चलवाकर दुकानों और मकान को तोड़ दिया है। अब हिन्दू लडक़ी और मुस्लिम लडक़े की शादी पर साम्प्रदायिक संगठन तो अभी तक खुद बुलडोजर नहीं चला पा रहे हैं, लेकिन उनके लिए यह अधिक सहूलियत की बात है कि उनकी फरमाईश को प्रशासन विविध भारती की तरह पूरा कर रहा है, और सरकारी खर्च पर, पुलिस की मौजूदगी में मुस्लिमों के घर-दुकान जमींदोज किए जा रहे हैं। इस लडक़े के परिवार को पूरा गांव छोडक़र चले जाना पड़ा है, और रिश्तेदारों के यहां दिन गुजार रहे हैं। परिवार का कहना है कि 1992 में पंचायत ने सभी की सहमति से उन्हें यह घर आबंटित किया था।
हिन्दुस्तान में इन दिनों चल रहे बुलडोजर-इंसाफ पर सुप्रीम कोर्ट का रूख भी बड़ा ही हैरान करने वाला है। सीपीएम की नेता बृन्दा करात दिल्ली में मुस्लिमों बस्तियों पर बुलडोजर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची हुई हैं, और उन्हें अदालत ने प्रभावित पक्ष मानने से इंकार कर दिया, और हाईकोर्ट जाने कहा है। तब तक दिल्ली में छांट-छांटकर मुस्लिमों इलाकों में बुलडोजर चलाना जारी है, अधिकतर जगहों पर लोगों का कहना है कि उन्हें कोई नोटिस नहीं मिला था। अब डिंडौरी के मामले से तो यह जाहिर है कि हिन्दू-मुस्लिम शादी के चार दिन के भीतर अगर प्रशासन बड़े गर्व के साथ मुस्लिम परिवार के मकान-दुकान को जमींदोज करने की कामयाबी लिख रहा है, और मध्यप्रदेश को माफियामुक्त कराने का दंभ भी दिखा रहा है, तो इसके लिए अब क्या किसी अमरीकी अदालत में जाकर अपील की जाए? अगर हिन्दुस्तान में बड़ी अदालतों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास है, तो अब तक मध्यप्रदेश हाईकोर्ट को खुद होकर इस मामले में राज्य सरकार और डिंडौरी कलेक्टर को नोटिस जारी करना था, और पूछना था कि दो वयस्क लोगों की शादी में कौन सी माफिया हरकत शामिल है, और किस तरह प्रशासन किसी के मकान-दुकान को जमींदोज करने का काम कर सकता है? अगर अदालत इतना भी पूछने का सरदर्द नहीं ले रही है, तो फिर इंसाफ की गुंजाइश कम ही दिखती है। कायदे की बात तो यह होती कि सीधे सुप्रीम कोर्ट को ऐसे नोटिस जारी करने थे, और पगड़ी बांधे प्रोफाइल फोटो वाले कलेक्टर को कटघरे में बुलाना था। अदालतों को और कुछ नहीं तो कम से कम यह तो सोचना ही चाहिए कि एक बुलडोजर उनका विकल्प बना दिया गया है, और हिन्दुस्तान में न्यायपालिका का एकाधिकार एक कलेक्टर या म्युनिसिपल कमिश्नर छीन ले रहे हैं। ऐसा लगता है कि आंखों पर पट्टी बांधी हुई न्याय की देवी की आत्मा गुजर चुकी है, और एक मुर्दा बदन से तराजू टंगा रह गया है।
सुप्रीम कोर्ट बृन्दा करात के मामले की सुनवाई करते हुए इस बात को जाने क्यों अनदेखा कर रहा है कि भाजपा के राज वाले कई प्रदेशों में एक सिलसिले से ऐसे बुलडोजर चल रहे हैं। फिर हिन्दुस्तान में बीते कई दशकों में धीरे-धीरे करके अल्पसंख्यक समुदायों की रिहाईश हर शहर में कुछ चुनिंदा इलाकों में होती चली गई है। ऐसी मुस्लिम बस्तियों को कई शहरों में साम्प्रदायिक जुबान में मिनी पाकिस्तान कहा जाता है, और यहां तक म्युनिसिपल की सहूलियतें, या राज्य सरकार की इलाज और पढ़ाई की सहूलियतें बहुत कम पहुंच पाती हैं। ऐसे में मुस्लिम इलाकों की शिनाख्त एकदम साफ रहती है, और अब जब सरकारी बुलडोजरों को मुस्लिमों के कपड़े सुंघाकर उनके खिलाफ छोड़ा जा रहा है, तो भी इस नौबत को देखने से सुप्रीम कोर्ट इंकार कर रहा है। जब लोगों की जिंदगी भर की कमाई, रोजगार का अकेला जरिया, सिर छुपाने की अकेली छत, इन सबको बड़े गर्व के साथ खत्म किया जा रहा है, तब भी सुप्रीम कोर्ट के माथे पर शिकन नहीं आ रही है। ऐसे ही बुलडोजर किसी दिन असहमति वाले जजों के गाऊन सुंघाकर उनके पीछे छोड़े जाएंगे, तो उस दिन जजों के पास कोई नोटिस जारी करने के कलम-कागज भी नहीं बचेंगे।
यह नौबत ऐसी दिख रही है कि हिन्दुस्तानी अदालतों से कोई राहत न मिलने पर अब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय या संयुक्त राष्ट्र संघ में अपील की जाए, और अभी कम से कम राजद्रोह के नए मामले दर्ज करने पर रोक लगी है, इसलिए ऐसी अपील करने वालों के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा तुरंत दर्ज नहीं हो सकेगा। लेकिन आज जिस तरह धर्म देखकर बुलडोजर हांका जा रहा है, उसके खिलाफ अदालतों में जैसा सन्नाटा दिख रहा है, वह नौबत लोकतंत्र में बर्दाश्त करने लायक नहीं है। ऐसी अदालती चुप्पी और अनदेखी के खिलाफ भी लोगों को सडक़ों पर आना चाहिए।
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रेलवे की खबर है कि मोदी सरकार ने रेल मंत्रालय के 19 अफसरों को जबरदस्ती वीआरएस दे दिया जिनमें 10 तो संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी थे। रेलवे ने पिछले 11 महीनों में 75 बड़े अफसरों को वीआरएस दिया है। इनके बारे में कहा गया है कि ये ईमानदारी से काम नहीं कर रहे थे, नालायकी दिखा रहे थे, या उनके काम को लेकर दूसरी शिकायतें थीं। अब इस बात से एक सवाल यह उठता है कि केन्द्र सरकार अफसरों के इसी दर्जे, संयुक्त सचिव स्तर पर बिना किसी इम्तिहान, बिना किसी मुकाबले लोगों की सीधी भर्ती भी कर रही है। लेटरल एंट्री कहे जाने वाले ऐसे दाखिले को लेकर लोगों के मन में वैसे भी यह सवाल खड़ा हुआ है कि यह यूपीएससी सरीखी परीक्षा में बराबरी का अवसर पाने का मौका लोगों से छीनता है, और सरकार मनचाहे लोगों की भर्ती कर रही है। ऐसे में बड़ी संख्या में अफसरों को नौकरी से निकालना भी इससे जोडक़र देखा जाना चाहिए कि सरकार जिन लोगों को नापसंद कर रही है, या सचमुच ही जिनका काम खराब है, उन्हें निकाला जा रहा है। इन दोनों बातों को एक साथ देखें तो केन्द्र सरकार की नौकरशाही में एक तेज रफ्तार बदलाव आ रहा है, और इसके नफे या नुकसान दोनों ही गिनाए जा सकते हैं।
लेकिन आज हम इस मुद्दे पर चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों को लेकर आम जनता के मन में लगातार यह नाराजगी और शिकायत रहती है कि ये लोग जनता के पैसों पर तनख्वाह पाते हैं, सहूलियतें पाते हैं, लेकिन काम की इनकी संस्कृति जनविरोधी रहती है। सोशल मीडिया पर लोग इस बात को लिखते आए हैं कि सरकारी अमला काम न करने की तनख्वाह लेता है, और काम करने की रिश्वत। और यह बात बहुत गलत भी नहीं है। हर विभाग के हर अफसर-कर्मचारी के पास रिश्वत लेने की गुंजाइश शायद न रहती हो, लेकिन हिन्दुस्तान में रिश्वत का सिलसिला किसी बदहाल तालाब पर फैली हुई जलकुंभी सरीखा है। लोगों को याद होगा कि सरकारी दफ्तरों में काम न करने की जो संस्कृति है उस पर कई हिन्दी टीवी सीरियल बन चुके हैं, और आम जनता मुसद्दीलाल सरीखी बदहाल भटकती रहती है। अब ऐसे में सरकारी नौकरी के लोगों को रिटायर होने की उम्र तक नौकरी की सुरक्षा देना क्या ठीक है?
प्रशासन के जानकार विशेषज्ञ कई किस्म की बातें कर सकते हैं, लेकिन वैसी जानकारी से नावाकिफ हमारे सरीखे मामूली समझ के लोग यह महसूस कर सकते हैं कि पूरी जिंदगी की नौकरी की गारंटी से सरकारी अमला निकम्मा हो जाता है। यही अमला किसी दर्जे का काम निजी दफ्तरों और दुकानों में इससे एक चौथाई तनख्वाह पर करने को तैयार रहता है, और चार गुनी तनख्वाह की हसरत लिए हुए सरकारी नौकरी कोशिश करते रहता है। निजी नौकरी में जहां कोई गारंटी नहीं होती है, कोई मजदूर कानून लागू नहीं होते हैं, वहां लोग मेहनत से काम करते हैं। और जब सरकार में सारी हिफाजत हासिल रहती है, एक कर्मचारी की सरकार पर लागत निजी क्षेत्र के मुकाबले चार गुना आती है, तो भी यह अमला काम नहीं करता। यह सरकार में भी है, और सरकारी क्षेत्र के बैंकों में भी है। एक सरकारी बैंक तो काम न करने के लिए इस कदर बदनाम है कि अभी जब एलन मस्क ने ट्विटर खरीदा, तो लोगों ने मजाक में एक ट्वीट गढ़ा कि मस्क ने ट्वीट किया कि उसने भारत के इस सबसे बड़े सरकारी बैंक को खरीदने का प्रस्ताव रखा, तो बैंक ने जवाब दिया कि अभी लंच चल रहा है, बाद में आना।
मुद्दे की बात पर आएं तो हमारा यह मानना है कि सरकारी नौकरी कई कड़ी शर्तों के साथ शुरू होनी चाहिए। तीस-पैंतीस बरस की सरकारी नौकरी रहती है, और इसे चार हिस्सों में बांटना चाहिए, और हर सात-आठ बरस के बाद कर्मचारी और अधिकारी का मूल्यांकन होना चाहिए, और सबसे खराब काम करने वाले लोगों की छंटनी करने का नियम रहना चाहिए। यह बात कर्मचारी संघों के नेताओं को बहुत खराब लगेगी, लेकिन जब वे आम जनता की नजर से देखेंगे तो सरकारी दफ्तरों में बैठे हुए निकम्मे, और ऊपर से भ्रष्ट लोगों से जनता को जो तकलीफ होती है, तब उन्हें हमारी बात का तर्क समझ आएगा। सरकारी नौकरी का कोई हिस्सा ऐसी सुरक्षा का नहीं रहना चाहिए कि लोग मनमाना भ्रष्टाचार करके भी कुर्सी पर बने रहें। हर आठ बरस में लोगों का प्रमोशन भी हो, और उसके ठीक पहले उनका मूल्यांकन हो। जिनका काम ठीक नहीं हो ऐसे एक चौथाई लोगों को हटाने का कानून रहना चाहिए। अगले आठ बरस बाद बाकी लोगों में से फिर एक चौथाई को हटा दिया जाए, और यह सिलसिला रिटायर होने तक चलता रहे। इससे कम किसी बात से हिन्दुस्तान के सरकारी कामकाज को सुधारना मुमकिन नहीं है।
हिन्दुस्तान में सत्ता की राजनीति, और सरकारी नौकरी, इन दोनों के बीच भ्रष्टाचार की एक मजबूत भागीदारी कायम हो चुकी है। इन दोनों ही मोर्चों पर जब तक बुनियादी सुधार नहीं होगा, तब तक जनता के हिस्से का पैसा इसी तरह डूबते रहेगा। आज देश का कानून जिस तरह भ्रष्ट और मुजरिम लोगों के साथ है, उन्हें अंत तक हिफाजत देते चलता है, वैसे में यह जरूरी है कि सरकारी नौकरी की सुरक्षा खत्म की जाए, और जिस तरह नौकरी के लिए एक दाखिला इम्तिहान होता है, उसी तरह नौकरी जारी रखने के लिए भी हर आठ बरस में एक मूल्यांकन हो जिससे कि लोगों को काम करने का प्रोत्साहन मिलता रहे। आज तो सरकारी कामकाज में हालत यह है कि सबसे काबिल और सबसे नालायक, इन दोनों किस्म के लोगों के बीच रिटायर होने तक कोई खास फर्क नहीं हो पाता है। बेहतर काम करने का कोई प्रोत्साहन सरकार में नहीं रहता है, और भ्रष्ट और नालायक होने से भी कोई नुकसान नहीं होता है। केन्द्र सरकार ने जिस तरह बड़ी संख्या में अफसरों को हटाया है, उसे हम पहली नजर में कोई बदनीयत नहीं मान रहे, और जिस तरह खेतों में से जंगली घास को हटाया जाता है, उसी तरह सरकार से बेकार अफसर-कर्मचारी हटाए जाने चाहिए।
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सुप्रीम कोर्ट में अभी राजद्रोह कानून को लेकर बहस चल रही है। और यह बहस दो वकीलों की बीच में नहीं चल रही, यह अदालत और सरकारी वकील के बीच चल रही है। 1870 में आजादी के आंदोलन को कुचलने के लिए अंगे्रजों का लाया गया कानून आज डेढ़ सदी बाद भी आजाद हिंदुस्तान की पौन सदी पूरी होने के मौके पर जंगली घास की फसल सरीखे लहलहा रहा है। देश और प्रदेशों की सरकारें एक-एक बयान पर, एक-एक कार्टून पर, एक-एक ट्वीट पर इस कानून का इस्तेमाल कर रही हैं, मानो आजाद हिंदुस्तान के किसी नागरिक के कुछ शब्द देश की सरकार को पलटने का काम करने जा रहे हैं। लोगों के शब्दों की इतनी कीमत तो कभी नहीं थी। अंगे्रजों के वक्त भी गांधी और नेहरू की कही और लिखी बातों पर उनके खिलाफ इस कानून का ऐसा अंधाधुंध इस्तेमाल नहीं हुआ था जैसा कि आज चल रहा है। आज जब हम इस मुद्दे पर लिख रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार को इस बात का जवाब देना है कि यह कानून क्यों जारी रहना चाहिए, और अगर वह इस कानून पर पुनर्विचार कर रही है, तो वह पुनर्विचार होने तक राज्यों को इसके इस्तेमाल से रोक क्यों नहीं रही है?
अभी दोपहर आई खबर के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून के तहत देश में चल रहे तमाम मामलों की कार्रवाई तब तक के लिए रोक दी है जब तक केंद्र सरकार इस कानून के प्रावधानों पर पुनर्विचार नहीं कर लेता।
जब कोई ताकत राज करती है, तो उसे द्रोह का डर सताते रहता है। फिर चाहे वह लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार ही क्यों न हो, जिसका कि अधिकतम कार्यकाल 5 बरस का ही हो सकता है। दरअसल होता यह है कि हिंदुस्तान की संवैधानिक व्यवस्था के चलते हुए कोई पार्टी सत्ता पर 33 बरस लगातार रहने के दिन भी देखती है, तो कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री 18-20 बरस तक भी लगातार रह लेते हैं। लोगों को राजद्रोह का खतरा शायद 5 बरस के कार्यकाल पर तो कम लगता होगा, लेकिन जब कार्यकाल की उम्मीद दशकों तक उडऩे लगती है, तो फिर ऐसे खतरे अधिक डराने लगते होंगे। दुनिया के बहुत से सभ्य लोकतंत्र अपने-आपको ऐसे 18वीं सदी वाले सामंती कानूनों से आजाद कर चुके हैं, लेकिन हिंदुस्तानियों की गुलाम-मानसिकता उन्हें गोरे अंगे्रज मालिकों के पखाने का टोकरा सिर पर ढोने का गौरव दिलाती रहती है, और अंगे्रजों की छोड़ी गई सर्द देश की पोशाक में आज उबलते हिंदुस्तान की अदालत में जज और वकील इस कानून पर बहस कर रहे हैं। गुलाम मानसिकता लोगों को हिंदुस्तान की जुबान से दूर करती है, इस देश के गरीबों से दूर करती है, और लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी बराबरी के हक से दूर करती है। इसलिए सत्ता पर बैठे हुए परले दर्जे के भ्रष्ट और दुष्ट लोग भी देश के जागरूक लोगों को उनका मुंह खुलने पर उसमें राजद्रोह के कानून पर तपाकर पिघलाया गया सीसा उसी तरह भर देते हैं, जिस तरह एक वक्त हिंदुस्तान में शूद्र के कानों में वेद के वाक्य पड़ जाने पर उनमें पिघला सीसा भर देने का कानून था। आज अगर इस देश का एक छात्रनेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में गृह मंत्री अमित शाह का कहा हुआ शब्द, जुमला, दुहराता है, तो केंद्र सरकार के साथ-साथ हाईकोर्ट के जज भी इस छात्रनेता के मुंह में पिघला हुआ सीसा भर देने पर आमादा दिखते हैं। राजद्रोह का कानून ताकतवर के हाथ में हर कमजोर के खिलाफ, हर अकेले, हर जागरूक के खिलाफ अपने गलत कामों को बचाने के लिए ढाल की तरह है, यह एक अलग बात है कि इसे ढकोसले के लिए लोकतंत्र को बचाने के औजार की तरह दिखाया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट में अभी चल रही बहस के दौरान सरकार शायद इसलिए इस पर पुनर्विचार का तर्क देकर इसकी सुनवाई को टालना चाह रही है कि कुछ ऐसे जज तब तक रिटायर हो जाएं जो कि सरकार को अपने हमदर्द नहीं लगते हैं। अदालतों में ऐसी धूर्तता एक आम तरकीब रहती है, और इसे भांपते हुए ही इस मामले में याचिकाकर्ता के वकील कपिल सिब्बल ने टालने की इस तरकीब का विरोध किया है और कहा है कि अदालत की कार्रवाई इसलिए नहीं रोकी जा सकती कि सरकार उस पर विचार करने की बात कर रही है। लेकिन इस मामले में वकील कपिल सिब्बल का एक तर्क उनकी पार्टी के लिए घातक साबित हुआ है जिसमें उन्होंने कहा कि नेहरू ने कहा था कि हम जितनी जल्दी राजद्रोह कानून से छुटकारा पा लें, उतना अच्छा है। बिना कहे हुए कांगे्रस पार्टी के बड़े-बड़े मंत्रालय संभाल चुके कपिल सिब्बल ने यह मंजूर कर लिया, याद दिला दिया कि नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक अनगिनत सरकारें चलाते हुए भी कांगे्रस पार्टी ने इस कानून को खत्म नहीं किया था। जाहिर है कि मौका मिलते ही केंद्र सरकार के वकील ने सिब्बल के जवाब में कहा कि हम वही करने की कोशिश कर रहे हैं जो नेहरू नहीं कर सके थे।
अभी सुप्रीम कोर्ट से आ रही ताजा जानकारी बता रही है कि केंद्र सरकार ने उसके पुनर्विचार तक इस कानून के तहत दर्ज मामलों पर कार्रवाई रोकने का विरोध किया है, और यह सुझाया है कि राजद्रोह के मामले पुलिस अधीक्षक की पड़ताल के बाद दर्ज करने की व्यवस्था की जाए। केंद्र सरकार का यह तर्क कॉमेडी शो जैसा लगता है क्योंकि आज तो पुलिस अधीक्षक ही नहीं, उनसे चार दर्जा ऊपर के अफसर भी सत्ता के सामने पांवपोंछना बने हुए बिछे रहते हैं, और सत्ता को नाखुश करने वाले कार्टूनिस्ट का सिर तोडऩे को एक पैर पर खड़े रहते हैं। हिंदुस्तान में राजनीतिक सत्ता का जो हाल है उसे देखते हुए इस तरह के कानून को इन बददिमाग और बेदिमाग हाथों में नहीं दिया जा सकता। पूरे देश में राजद्रोह के कानून का जिस कदर भयानक राजनीतिक और साम्प्रदायिक इस्तेमाल हो रहा है, वह किसी आतंकी समूह के हाथ परमाणु हथियार देने सरीखा है। इस लोकतंत्र को न तो ऐसे कानून की जरूरत है, और न ही इस लोकतंत्र की सत्ता ऐसा कानून संभालने के लायक है। अभी इस पल सुप्रीम कोर्ट के जज सुनवाई से बाहर आकर बंद कमरे में अपनी कार्रवाई तय कर रहे हैं, लेकिन उसके पहले ही हम इसके बुनियादी पहलू पर लिख रहे हैं जो कि अदालत के आज के रूख से अलग है।
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हिन्दुस्तान में इक्कीसवीं सदी में भी पौराणिक काल में जीने वाले कुछ लोगों को श्रीलंका की आज की दिक्कतों को लेकर मजा आ रहा होगा कि रावण की लंका जल रही है, लेकिन जो लोग लोकतंत्र को समझते हैं, और जो लोग रामायण काल से निकलकर इक्कीसवीं सदी में आ चुके हैं, वे जानते हैं कि पड़ोस की राजनीतिक अस्थिरता और वहां का आर्थिक संकट खुद अपने देश को नुकसान पहुंचाने के अलावा कुछ नहीं करता। इसलिए श्रीलंका की आज की तबाही का बहुत बड़ा बोझ तरह-तरह से हिन्दुस्तान पर भी पड़ेगा जो कि आज इस छोटे से टापू-देश को जिंदा रहने में मदद कर रहा है। श्रीलंका के साथ रामायण काल के संघर्ष की कहानी अलग रही, अभी तो पिछले दशकों में हिन्दुस्तान ने लगातार श्रीलंका का साथ दिया है, और जब वहां सिंहलों और तमिलों के बीच गृहयुद्ध चल रहा था तब भी हिन्दुस्तानी फौजों ने जाकर वहां की सरकार की मदद की थी, और अमन-बहाली में हाथ बंटाया था।
श्रीलंका के ताजे हालात बहुत ही फिक्र के हैं, देश के लोगों की रोजमर्रा की सबसे बुनियादी जरूरतों के सामान भी वहां नहीं हैं, सरकार के पास पैसे नहीं हैं, जहां-जहां से कर्ज मिल सकता है, सब लिया जा चुका है, और अब पड़ोस के भारत, बांग्लादेश, और चीन की मदद से श्रीलंका के लोग किसी तरह जिंदा हैं। हालात सरकार के काबू के बाहर हो चुके हैं, लोगों का भरोसा नेताओं पर से उठ गया है, कल राष्ट्रपति के भाई प्रधानमंत्री ने इस्तीफा दे दिया है, और यह सत्तारूढ़ कुनबा देश की इस बदहाली के लिए अकेला जिम्मेदार करार दिया जा रहा है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, और दूसरे दो मंत्री, पूरा देश इसी कुनबे के शिकंजे में था, और इसकी मनमानी ने आज देश को डुबाकर रख दिया है। लेकिन इस राजपक्षे परिवार को कोसने के अलावा दो-तीन और बातों को भी सोचना-समझना जरूरी है जो कि श्रीलंका की आज की तबाही के पीछे जिम्मेदार रही हैं। जिस कोरोना-लॉकडाऊन ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को तबाह किया, उसने श्रीलंका से भी पर्यटन-उद्योग तकरीबन छीन ही लिया। सैलानियों से होने वाली कमाई पर देश बहुत हद तक टिके रहता था, और वह एक तो कोरोना की वजह से गायब हुई, दूसरा 2019 में ईसाई त्योहार ईस्टर के दिन श्रीलंका में चर्चों और होटल पर हुए आतंकी हमलों में ढाई सौ से अधिक लोग मारे गए थे, और पांच सौ से अधिक जख्मी हुए थे। इसने भी कोरोना के पहले ही श्रीलंका से पर्यटक छीन लिए थे। दूसरी बात यह कि श्रीलंका के सनकी प्रधानमंत्री महिन्दा राजपक्षे ने पिछले बरस अचानक यह फैसला लिया कि अब देश में कोई भी रासायनिक खाद नहीं आएगा, और सिर्फ आर्गेनिक खाद इस्तेमाल किया जाएगा। बिना किसी वैज्ञानिक और आर्थिक विश्लेषण के लिया गया यह सनकी फैसला श्रीलंका के अनाज उत्पादन की कमरतोड़ गया, और देश भर में किसानों और ग्राहकों दोनों में दहशत फैल गई, और कीमतें अंधाधुंध बढ़ गईं। अब हालत यह है कि किसानी के लिए न रासायनिक खाद है, न आर्गेनिक खाद है, और न ही ट्रैक्टर या पंप के लिए देश में डीजल रह गया है। लोगों के पास बच्चों को पिलाने के लिए दूध नहीं रह गया, अनाज नहीं रह गया, बिजली नहीं है, और हिन्दुस्तान से पहुंचने वाली मदद को देश के दूसरे हिस्सों में पहुंचाने के लिए ट्रकों के लिए डीजल भी नहीं है।
श्रीलंका में ऐसी तबाही की नौबत उस वक्त भी नहीं हुई होगी जब रामायण के कथा के मुताबिक हनुमान वहां आग लगाकर लौटे थे। आज हालत यह है कि वहीं की जनता ने प्रधानमंत्री के एक पारिवारिक घर को आग लगा दी है, भूखी जनता सडक़ों पर है, और रात भर में पांच मौतें हो चुकी हैं। कल जब सत्तारूढ़ पार्टी के एक सांसद को लोगों ने घेर लिया, तो पहले तो उसने भीड़ पर गोलियां चलाईं जिनमें एक व्यक्ति मारा गया, और फिर बुरी तरह घिर जाने के बाद उस सांसद ने अपने आपको गोली मार ली।
श्रीलंका की इस मुसीबत का कोई मुश्किल इलाज भी नहीं है। अंतरराष्ट्रीय संगठनों से जितना कर्ज श्रीलंका ले चुका है, उसके बाद उनसे कुछ और पाने की कोई उम्मीद नहीं है। भारत-बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों के मदद करने की भी एक सीमा है, और वह भी अधिक दूर नहीं है। चूंकि हिन्दुस्तान का तमिलनाडु श्रीलंका के एकदम करीब है, और श्रीलंका में एक बड़ी तमिल आबादी है, और चूंकि उन तमिलों की मदद करना तमिलनाडु में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा है, इसलिए वैध या अवैध तरीके से इन शरणार्थियों का तमिलनाडु आना जारी रहेगा, और यह भारत पर एक बड़ा बोझ भी रहेगा। इस नौबत में यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या इन लोगों में से भारत में शरण मांगने वाले लोगों की कोई जगह यहां बन पाएगी क्योंकि अभी दो दिन पहले की ही खबर है कि पाकिस्तान से आए हुए सैकड़ों हिन्दुओं को भारत में नागरिकता नहीं मिल पाई, और उन्हें वापिस पाकिस्तान जाना पड़ा। ऐसे में श्रीलंका से आने वाले तमिल शरणार्थियों का भारत में क्या भविष्य होगा यह सोच पाना बड़ा मुश्किल है। यह भी है कि भारत अपनी इस ऐतिहासिक और अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी से मुंह भी नहीं चुरा सकेगा, जैसा कि उसने म्यांमार से आने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में किया है। श्रीलंका से आ रहे तमिल लोग भारत के तमिलनाडु के लोगों के स्वजातीय हैं, और उनको अनदेखा करना भारत के लिए मुमकिन नहीं रहेगा।
आज श्रीलंका के भयानक हालात का कोई इलाज नहीं दिख रहा, लेकिन भारत पर उसका बोझ जरूर दिख रहा है। यह ऐसा मौका है जब भारत को पड़ोसी की मदद करने के अलावा अपनी फौजी रणनीति के तहत भी श्रीलंका का साथ देना होगा, क्योंकि अगर वह साथ नहीं खड़े रहा तो श्रीलंका का चीन के और करीब चले जाना तय रहेगा, जो कि हिन्दुस्तान को आज दी जा रही मदद के मुकाबले अधिक महंगा पड़ेगा। आने वाले कई महीने श्रीलंका इस नौबत से उबरने वाला नहीं है, लेकिन उसकी मिसाल ने बाकी देशों के सनकी नेताओं के मनमाने फैसले लेने के नुकसान की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा है, और यह दुनिया के लिए एक बड़ी सबक है।
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उत्तरप्रदेश के मेरठ में अपना एक निजी मदरसा चलाने वाले मुफ्ती ने वहां पढऩे वाले ग्यारह बरस के एक बच्चे से 19 बार रेप किया है। ईद के दिन घर गए बच्चे ने घरवालों को यह पूरा मामला बताया और यह भी बताया कि वह दूसरे बच्चों के साथ भी ऐसी ही हरकत करता है। इसके बाद परिवार पुलिस तक पहुंचा, रिपोर्ट लिखाई, और जांच में पता लगा कि मदरसे का मुफ्ती और बच्चों के साथ भी ऐसा करते आया है। मदरसे में चौबीस बच्चे रहते हैं, और अपनी खुद की जमीन पर इस मुफ्ती ने अवैध मदरसा खोल रखा है, और बरसों से बच्चों के साथ ऐसी हरकत करते आया है। जाहिर है कि मदरसे में पढऩे आए हुए बच्चे गरीब परिवारों के होंगे, और इसीलिए वे मुफ्त में मिलने वाली पढ़ाई के लिए यहां आकर रह रहे होंगे। धर्म की ऐसी पढ़ाई कुछ मठ-मंदिरों के साथ जुड़ी संस्कृत शालाओं में भी होती है, और वहां भी गांव-गांव से गरीब परिवारों के बच्चों को लाकर रखा जाता है। ईसाई स्कूलों और हॉस्टलों में पादरियों द्वारा बच्चों से बलात्कार का सैकड़ों बरस से चले आ रहा इतिहास है, पहले तो रोमन कैथोलिक चर्च के मुख्यालय, वेटिकन के पोप ने इस जुर्म को छुपाने की बड़ी कोशिश की, लेकिन फिर जब दुनिया के कई देशों से बच्चों के यौन शोषण के मामले बड़ी संख्या में आने लगे तो चर्च को अपने लोगों के इस जुर्म को मंजूर करना पड़ा, और एक सार्वजनिक माफी भी मांगनी पड़ी। लोगों को अगर याद होगा तो अमरीका में हरे कृष्ण आंदोलन, इस्कॉन, के आश्रम-स्कूल के छात्रों के साथ दशकों तक यौन शोषण चलते रहा, और ऐसे दर्जनों बच्चों में तीन साल से अठारह साल तक के उम्र के लडक़े और लड़कियां दोनों थे। इन बच्चों के साथ आश्रम शाला में मारपीट भी की जाती थी, और उन्हें बहुत भयानक स्थितियों में रखा जाता था। यह मामला अदालत तक पहुंचने पर बहुत बड़ी रकम चुकाकर अदालत के बाहर इसका निपटारा किया गया। बच्चों के ऊपर ऐसे जुल्म पर अमरीका में एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई गई थी।
जहां कहीं धर्म से जुड़ी हुई कोई बात आती है, तो वहां लोगों का तरह-तरह से शोषण होना तय रहता है। धर्म का लबादा पहनकर आसाराम ने अपने आपको बापू कहलवाना शुरू किया, बड़े-बड़े मुख्यमंत्रियों को अपने पैरों पर बिछवाने का शौक पूरा किया, और अपने ही छात्रावास की एक नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार किया जो कि इतना पुख्ता मामला साबित हुआ कि आज तक आसाराम को हिन्दुस्तान की किसी अदालत से कोई राहत नहीं मिली। फिर यह भी है कि धर्म के नाम पर सिर्फ औरत-बच्चों को ही जुल्म नहीं सहने पड़ते, पंजाब-हरियाणा में बिखरे हुए राम-रहीम के भक्त मर्दों को भी ऑपरेशन से बधिया बनाया जाता था, और उसकी भयानक कहानियां जांच एजेंसियों के पास बयान की शक्ल में हैं। दरअसल धर्म लोगों को अंधविश्वासी भक्तों के समर्पित तन-मन तक ऐसी पहुंच दे देता है कि वे मनचाहे बलात्कार कर सकते हैं, लोगों को मानसिक गुलाम बनाकर रख सकते हैं।
आज जब दुनिया में यह अच्छी तरह साबित हो चुका है कि बचपन से बच्चों को धर्म की शिक्षा में डालने का मतलब उन्हें अशिक्षित बनाने से अधिक कुछ नहीं है, तो ऐसे में किसी भी धर्म का समाज जब ऐसी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा देता है, तो वह अपनी अगली पीढ़ी को अनपढ़ और कमअक्ल, धर्मान्ध और दकियानूसी तैयार करता है। चाहे किसी भी धर्म का मामला हो, छोटे बच्चों को धर्म का चोगा पहने हुए शिक्षकों के हवाले करने का मतलब उन्हें बलात्कार के खतरे में डालना होता है। आज जो धार्मिक संगठन अपने धर्म की रक्षा के नाम पर, उसके विस्तार के लिए ऐसी धार्मिक शिक्षा शुरू करते हैं, वे सिर्फ अपने धर्म के गरीब और अनपढ़ लोगों को बेवकूफ बनाने का काम करते हैं क्योंकि ऐसे संस्थानों में पढऩे वाले बच्चे अपनी जिंदगी बर्बाद करने के अलावा और कुछ नहीं करते। धर्म का झांसा इतना तगड़ा रहता है कि गरीब मां-बाप उसमें तुरंत फंसते हैं, और यह सवाल भी उन्हें नहीं सूझता कि उनके धर्म के मठाधीश अपने बच्चों को पढऩे के लिए कहां भेजते हैं। आज अगर दुनिया के किसी भी देश में बच्चों को पढ़ाई के नाम पर सिर्फ धर्मशिक्षा देने के ऐसे सिलसिले का विरोध किया जाएगा, तो ऐसी आधुनिक और वैज्ञानिक पहल का धर्म की ओर से जमकर विरोध होगा। लेकिन अगर वैज्ञानिक सोच के मामले में पिछड़े हुए किसी धर्म के समाज को आगे बढ़ाना है, तो उसे शिक्षा के नाम पर सिर्फ धर्मशिक्षा देने से रोकना होगा। आज हिन्दुस्तान में जो बच्चे सिर्फ संस्कृत पाठशाला में पढ़ाए जा रहे हैं, मदरसे में पढ़ाए जा रहे हैं, क्या उनका कोई भविष्य है? या फिर वे धर्म के नाम पर मुफ्तखोरी करने के लिए तैयार किए जा रहे हैं जिनका रोजगार तब तक चलता रहेगा जब तक धर्म ईश्वर का झांसा देने में कामयाब रहेगा?
धर्म के नाम पर चलने वाले ऐसे संस्थान जहां भी रहेंगे, और जिनमें गरीब बच्चों को रखकर पढ़ाया जाएगा, वहां पर बच्चों के शोषण का ऐसा खतरा भी बने रहेगा। अब इस एक मदरसे में दर्जनों बच्चों से बरसों तक अगर सेक्स-शोषण चलते रहा था, तो उसका कैसा असर इन बच्चों पर पूरी जिंदगी के लिए पड़ा होगा? सरकारों और समाजों को आज के वक्त की जरूरत को समझना चाहिए और अपने बच्चों का वर्तमान और भविष्य दोनों बचाना चाहिए।
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हैदराबाद में अभी एक नए किस्म का लवजिहाद हुआ। लडक़ी मुस्लिम थी, और लडक़ा हिन्दू धर्म का दलित। दोनों ही गरीब भी थे, और कॉलेज पढ़ते हुए मोहब्बत हुई, और लडक़ी के भाई की मर्जी के खिलाफ जाकर इन दोनों ने शादी कर ली। हिन्दुस्तान में आमतौर पर मुस्लिम लडक़े और हिन्दू लडक़ी की शादी को हिन्दू संगठनों ने, और भाजपा ने लवजिहाद का नाम दिया है, लेकिन यहां मामला उल्टा था। शादी के कुछ दिनों के भीतर ही लडक़ी के भाई ने अपने एक रिश्तेदार के साथ मिलकर इस दलित बहनोई को खुली सडक़ पर लोगों के बीच मार डाला। बहन देखती रह गई, रोकती रह गई, लेकिन चाकू के हमले तब तक जारी रहे जब तक वह मर नहीं गया।
हिन्दू लडक़ी के मुस्लिम लडक़े से शादी करने पर उसका धर्म बदल जाने का एक मुद्दा रहता है, और कुछ मामलों में खानपान का भी मुद्दा रहता है। हिन्दू समाज का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिमों को नीची नजर से भी देखता है, इसलिए ऐसी शादी को भी सामाजिक अपमान मान लिया जाता है, और हर बरस ऐसे कई कत्ल होते हैं जिन्हें मीडिया में ऑनर-किलिंग लिखा जाता है, और जिनसे किसी का भी ऑनर जुड़ा नहीं रहता। लेकिन इस मामले में मुस्लिम और दलित परिवार के लडक़े-लड़कियों के बीच सामाजिक प्रतिष्ठा का इतना बड़ा मुद्दा शायद न रहा हो, लेकिन लडक़ी के भाई को बहन का दूसरे धर्म में शादी करना नहीं सुहाया, और उसने बहन को विधवा कर दिया, और खुद जेल चले गया।
हिन्दुस्तान में जितने किस्म की ऑनर-किलिंग देखी जाए, वे सबकी सब लड़कियों और महिलाओं को लेकर ऑनर, यानी सम्मान, की एक जनधारणा से जुड़ी रहती हैं। किसी लडक़ी या महिला से बलात्कार हो तो बलात्कारी के परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा कम हो या न हो, बलात्कार की शिकार के परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा खत्म ही मान ली जाती है। पोशाक और रहन-सहन को लेकर हजार किस्म की बंदिशें लड़कियों और महिलाओं पर ही लगाई जाती हैं, परिवार से लेकर स्कूल-कॉलेज तक उनके लिए नियम बनाए जाते हैं, और खाप पंचायतें यह तय करती हैं कि लड़कियों को मोबाइल फोन इस्तेमाल न करने दिए जाएं, उन्हें जींस न पहनने दिया जाए। हिन्दुस्तानी मर्दों के एक बड़े हिस्से ने अपने परिवार और अपनी जात-बिरादरी की लड़कियों और महिलाओं के लिए एक तालिबान जाग उठता है, और तरह-तरह की बंदिशें लगाने लगता है।
इस देश की बहुत सी जिम्मेदार और ताकतवर कुर्सियों पर बैठे हुए मंत्री, केन्द्रीय मंत्री, और मुख्यमंत्री तक महिलाओं को लेकर हिंसक और दकियानूसी बातें करते हैं, और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक साबित करने की फूहड़ कोशिश करते हैं। इस मामले में अधिकतर राजनीतिक दलों के लोग बढ़-चढक़र मुकाबला करते हैं, और बलात्कार की शिकार लड़कियों पर लांछन लगाने में ममता बैनर्जी जैसी महिला नेता भी पीछे नहीं रहतीं जिन्होंने इस किस्म की घटिया और हिंसक बातों को अपनी आदत में शुमार कर लिया है। अकेले मनोहर लाल, या योगी आदित्यनाथ को क्यों कोसा जाए जब संघ परिवार और भाजपा के बाहर के आजम खान सरीखे तथाकथित समाजवादी नेता भी बलात्कार की शिकार बच्ची की नीयत पर शक करके उसे राजनीतिक साजिश का हिस्सा करार देते हैं, और सुप्रीम कोर्ट की लात पडऩे पर बिलबिलाते हुए मजबूरी में माफी मांगते हैं।
दो दिन पहले हैदराबाद में जिस तरह की एक मुस्लिम नौजवान ने अपने बहनोई को मारकर बहन को विधवा कर दिया है, उसकी सोच पर मुस्लिम समाज के भीतर की वह कट्टरता तो हावी रही ही होगी जो कि मुस्लिम लडक़ी को दूसरे, तीसरे, या चौथे दर्जे का इंसान करार देती है, बल्कि उसके साथ-साथ उसके दिमाग पर देश का यह माहौल भी हावी रहा होगा कि परिवार की लडक़ी अगर अपनी मर्जी से ऐसा बड़ा फैसला लेती है तो वह भी पूरे परिवार के लिए अपमानजनक है, और उसकी सजा दी जानी चाहिए।
लोगों के बीच अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की धारणा इतनी मजबूत है, अपने धर्म, अपनी जाति, अपनी संपन्नता, और ताकत का अहंकार इतना बड़ा है कि वे परिवार की लडक़ी के किसी प्रेमप्रसंग, या पसंद की शादी पर सजा देने के लिए खुद ही जुर्म करते हैं, तथाकथित ऑनर-किलिंग के मामलों में अहंकार इतना बड़ा रहता है कि वे भाड़े के हत्यारे भी नहीं ढूंढते, और अपने हाथों हिसाब चुकता करके अपनी खोई इज्जत वापिस पाने की कोशिश करते हैं। यह बात भी तय है कि सोचे-समझे ऐसे कत्ल के पहले इन लोगों को यह भी अहसास रहता होगा कि इसके बाद वे कई बरस कैद में रहेंगे, या उम्रकैद, या फांसी भी हो सकती है, लेकिन इनका अहंकार ऐसी सजा के खौफ से भी ऊपर रहता है।
ऐसे मामलों में सरकार, पुलिस, और अदालतें कर भी क्या सकते हैं? हर किसी की हिफाजत के लिए उनके साथ पुलिस तो लगाई नहीं जा सकती, और ऐसे कत्ल के बाद गिरफ्तारी और सजा दिलवाने की बात ही सरकार के काबू की बात रहती है। लेकिन जब तक समाज की सोच नहीं बदलेगी, तब तक ऐसी हत्याएं नहीं रूक सकतीं। जब लोग जानते-समझते कत्ल करते हैं, थाने जाकर खुद अपने को पुलिस के हवाले कर देते हैं, सजा काटने को वे इज्जत वापिस पाना समझते हैं, तो फिर उन्हें रोकना मुमकिन नहीं है।
फिर इस मामले में जिस हैदराबाद शहर की बात है, वह एक विकसित और बड़ा शहर है। ऐसे में यहां पर शहरीकरण के थोड़े से असर की उम्मीद की जा सकती थी, लेकिन वह शायद इसलिए नहीं हो पाई कि बहुत बड़ी मुस्लिम आबादी के चलते हुए यह शहर मुस्लिम सोच का एक कबीला भी बना हुआ है, और धर्म के सबसे कट्टर लोगों का जमावड़ा ऐसे में हो जाता है। जब किसी धर्म के लोग कबीलाई अंदाज में बड़ी संख्या में इक_ा रहते हैं, तो वह धर्म की कट्टरता को बढ़ाने का काम करता है, कट्टरता को घटाता नहीं है। किसी भी धर्म, जाति, पेशेवर-तबके की भीड़ उसके बीच के सबसे घटिया लोगों को मुखिया बनने का मौका देती हैं, और उनके असर में समाज के लोगों का रूख किसी भी बदलाव के खिलाफ बड़ा हिंसक हो जाता है।
बिना सामाजिक बदलाव के पुलिस और अदालत की कितनी भी कड़ी कार्रवाई कट्टरता को शायद ही घटा सके। शहरीकरण से जो उम्मीद है वह भी पूरी होते नहीं दिख रही, और पढ़ाई-लिखाई भी किसी को बेहतर इंसान बनाने में मदद करती हो, ऐसा कहीं साबित नहीं होता। ऐसे में हिन्दुस्तान जैसे पाखंडी देश में अलग-अलग धर्म के लोगों के बीच, अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच शादियों को बढ़ावा देने, और उनके लिए बर्दाश्त बढ़ाने की जरूरत है। तब तक ऐसी हिंसा जारी रहेगी, और जब वह मरने-मारने तक पहुंचेगी, तो ही लोगों को उसके बारे में पता चलेगा।
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छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने नक्सलियों से बातचीत की पेश की है। वे पूरे प्रदेश का दौरा कर रहे हैं, और इस दौरान उन्होंने प्रदेश की सबसे बड़ी सुरक्षा-समस्या के बारे में कहा कि भारत के संविधान को मानने और हथियार छोडऩे पर वे माओवादियों के साथ बातचीत के लिए तैयार हैं। नक्सलियों ने मुख्यमंत्री की इस पेशकश पर कहा है कि वे बातचीत को तैयार हैं लेकिन बस्तर से सुरक्षा बलों को हटाया जाए, सुरक्षा बलों के शिविर हटाए जाएं, नक्सल नेताओं को जेलों से रिहा किया जाए, तभी बातचीत का माहौल बनेगा। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू ने इस पूरी चर्चा पर आज कहा कि नक्सलियों को अगर बात करनी है तो बिना शर्त के करें, भारतीय संविधान पर विश्वास करें। उन्होंने कहा कि बातचीत की कोई शर्त नहीं होनी चाहिए।
नक्सल मोर्चे पर हर बरस दोनों तरफ के लोग बड़ी संख्या में मारे जाते हैं, उनके अलावा बेकसूर आदिवासी भी नक्सलियों और सुरक्षा बलों के हाथों मारे जाते हैं, जिनमें से एक तबका उन्हें पुलिस का मुखबिर करार देता है, और दूसरा तबका उन्हें नक्सली बताता है। ऐसे में नक्सल-समस्या, खतरे, और मुद्दे का एक शांतिपूर्ण समाधान ढूंढा जाना जरूरी है। हमारे नियमित पाठक इस बात को जानते हैं कि हम मुश्किल से मुश्किल वक्त पर भी, बड़े हमलों और बड़े हादसों के बीच भी लगातार बातचीत की वकालत करते आए हैं क्योंकि हम यह जानते हैं कि दुनिया में कहीं भी उग्रवाद और आतंकवाद का समाधान सिर्फ बंदूकों से नहीं निकलता है। हर जगह बातचीत से ही रास्ता तैयार होता है, और हिंसा खत्म होती है। उत्तरी आयरलैंड से लेकर भारत के उत्तर-पूर्व तक, और पंजाब के भयानक आतंकी दिनों तक हर कहीं रास्ता बातचीत से ही निकला है।
छत्तीसगढ़ की विधानसभा में पिछले मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने यह घोषणा की थी कि वे नक्सल-समस्या को निपटाने के लिए जंगल के बीच भी आधी रात को भी बातचीत के लिए अकेले भी जाने के लिए तैयार हैं। लेकिन उनकी उस घोषणा से भी कोई बात नहीं बनी थी क्योंकि नक्सलियों का रूख बातचीत का नहीं था, तोहमतों का था, उन्होंने सरकार पर हिंसक कार्रवाई करने का आरोप लगाया और कोई बातचीत हो नहीं पाई। लोगों को याद होगा कि भाजपा सरकार के वक्त ही बस्तर इलाके के एक कलेक्टर का नक्सलियों ने अपहरण किया था, और चूंकि वह आईएएस अफसर था इसलिए उसकी रिहाई के लिए सरकार पर अधिक दबाव था। सरकार ने नक्सलियों से बात करने के लिए उनकी पसंद के कुछ मध्यस्थों को लेकर कुछ मौजूदा और रिटायर्ड अफसरों को लेकर एक कमेटी बनाई थी जिसने नक्सलियों की मांगों पर विचार किया था, जेलों में बंद बेकसूर आदिवासियों की रिहाई की थी, उनके खिलाफ मामले वापिस लिए थे, और अपने अफसर को सरकार ने छुड़ाया था। यह सिलसिला कई दिन चला था, और इस कमेटी की बैठक में शामिल अफसर उसके बाद भी राज्य सरकार को हासिल थे, नक्सलियों की पसंद के मध्यस्थ भी मौजूद थे, लेकिन सरकार इस मामले में चूक गई, और बातचीत की टेबल जो कि बन चुकी थी, उसका आगे इस्तेमाल नहीं किया गया। हमने उस वक्त भी इस अखबार में लगातार इस बात को उठाया था कि एक बार किसी तरह से भी बातचीत का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसे आगे बढ़ाना चाहिए था।
अभी सरकार और नक्सलियों के बीच जो बयान आए हैं, वे किसी बातचीत की जमीन को तैयार करने वाले नहीं हैं। बातचीत के लिए तो बिना किसी शर्त के बात होनी चाहिए, फिर चाहे दोनों पक्ष अपना-अपना काम क्यों न करते रहें। बस्तर में नक्सली अपना काम करते रहें, सुरक्षा बल अपना काम करते रहें, लेकिन उनसे परे बैठकर दोनों पक्षों के चुनिंदा लोग या उनके छांटे हुए मध्यस्थ उन मुद्दों पर बात कर सकते हैं जिससे नक्सल हिंसा खत्म हो सके। यह बातचीत किसी दुश्मन देश के साथ होने वाली बातचीत नहीं है जिसके पहले सरहद पार से होने वाले आतंकी हमलों को रोकने की मांग की जाए। हालांकि हम तो इस बात के हिमायती हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच भी तमाम किस्म के संघर्ष के चलते हुए भी बातचीत हो सकती है, और होनी चाहिए। बातचीत की टेबिल पर तो कोई हथियार लेकर आते नहीं हैं, इसलिए बातचीत नाकाम होने पर भी अधिक से अधिक कुछ लोगों के कुछ दिनों की बर्बादी होगी, उससे कोई हिंसा तो बढऩे वाली है नहीं।
किसी लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार की कामयाबी हम इसमें नहीं देखते कि वह किसी हथियारबंद मोर्चे पर कितने उग्रवादियों या आतंकवादियों को मारती है, कामयाबी तो इसमें है कि अपने देश के या किसी दूसरे देश के हथियारबंद समूहों से, दुश्मन लगती सरकारों से बातचीत से किस तरह खून-खराबा खत्म किया जा सकता है, या घटाया जा सकता है। ऐसे में किसी लोकतंत्र में हम निर्वाचित सरकार को बातचीत का माहौल बनाने के लिए अधिक जिम्मेदार मानते हैं क्योंकि हथियारबंद समूहों, नक्सलियों या किसी और में लोकतंत्र के प्रति आस्था तो है नहीं, इसलिए उनके लिए बातचीत का रास्ता इस्तेमाल करने की कोई मजबूरी भी नहीं है। सरकार को अपने सुरक्षा बलों की जिंदगी बचाने के लिए, राज्य के एक बड़े इलाके को हिंसक-संघर्ष से बचाने के लिए, बेकसूर जिंदगियों को बचाने के लिए, और विकास के लिए हथियारों के बजाय बातचीत अपनानी चाहिए। कई बार सार्वजनिक बयानों के मार्फत होने वाली बातचीत की ऐसी पेशकश कामयाब नहीं हो पाती। सरकार तो नक्सलियों के भरोसे के कुछ लोकतांत्रिक लोगों को छांटकर उनके माध्यम से बातचीत करनी चाहिए क्योंकि सरकार की कामयाबी किसी भी तरह बातचीत शुरू करने में रहेगी। जिन लोगों की बात नक्सली सुनते और मानते हैं उनको भी चाहिए कि वे अपने संपर्कों या अपने असर का इस्तेमाल करके नक्सलियों को सहमत कराएं कि उन्हें बातचीत की कोई शर्त नहीं रखनी चाहिए।
अभी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बातचीत की पेशकश की है तो इसे कुछ संभावनाओं तक पहुंचाने की कोशिश की जानी चाहिए। भूपेश बघेल के कुछ ऐसे साथी भी हैं जो कि अपनी अखबारनवीसी की जरूरत के लिए नक्सलियों के संपर्क में रहते आए हैं। उनके टेलीफोन भी पिछली रमन सरकार टैप करती थी, और बाद में एक मुख्य सचिव ने अपनी रिव्यू मीटिंग में ऐसी टैपिंग खत्म करवाई थी। इस सरकार को ऐसे संपर्कों का इस्तेमाल करना चाहिए, और नक्सलियों को बातचीत की जमीन तक लाना चाहिए। प्रदेश की दूसरी लोकतांत्रिक ताकतों और संस्थाओं को भी नक्सल-समस्या सुलझाने में राजनीति करने के बजाय इसे सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए। अभी यह पूरी बात दोनों पक्षों के एक-एक बयान तक सीमित है, लेकिन इसे आगे बढ़ाने की जरूरत है।
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दुनिया के एक सबसे बड़े कारोबारी एलन मस्क के ट्विटर खरीदने के बाद अब इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को इस्तेमाल करने वाले लोगों और आजादी के हिमायती, लोकतंत्र की फिक्र करने वाले लोगों में यह अटकल लग रही है कि एलन मस्क की इस नई मिल्कियत का क्या रवैया रहेगा? अभी जो सौदा हुआ है और जो जल्द ही पूरा होने जा रहा है उसके मुताबिक ट्विटर अब शेयर बाजार में दर्ज एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी के बजाय एलन मस्क की एक प्रायवेट लिमिटेड कंपनी रहेगी, और उस पर अकेले उनकी मर्जी चलेगी। इस कारोबार की बहुत बारीकियों तक जाना हमारा मकसद नहीं है, लेकिन यह बात समझने की है कि ट्विटर अब तक कंपनी के हजारों-लाखों शेयर होल्डरों के प्रति जवाबदेह थी, मुनाफे के लिए भी, और अपनी नीतियों के लिए भी। लेकिन अब वह सिर्फ एक अकेले मालिक की पसंद और नापसंद पर चलेगी। हो सकता है कि इस सौदे की वजह से हर बरस कर्ज की जो किस्त चुकानी होगी, उसके चलते हुए एलन मस्क को कई तरह के समझौते भी करने पड़ें, और वे अब तक ट्विटर पर आजादी की जैसी वकालत करते आ रहे थे, उसे पूरा न भी कर पाएं। लेकिन ऐसा न होने पर भी लोगों का यह सोचना तो जारी रहेगा कि आजादी के हिमायती नए मालिक का रूख दुनिया में विचारों को प्रभावित करने वाले इस प्लेटफॉर्म को कैसी शक्ल दे सकता है? इससे दुनिया के अलग-अलग किन हिस्सों में लोकतंत्र पर क्या असर पड़ेगा?
इस बारे में जो चर्चा चारों तरफ चल रही है उनमें यह भी है कि आजादी के मायने अलग-अलग संदर्भ में अलग-अलग होते हैं, और ट्विटर पर ट्रम्प जैसी अराजकता और उस दर्जे के झूठ को भी अगर आजादी दी जाती है, तो वह दुनिया के लोकतंत्र के खिलाफ रहेगी, धरती के हितों के खिलाफ रहेगी। लेकिन अगर यह आजादी ट्विटर पर झूठ, हिंसा, और अश्लीलता पर रोक के साथ रहेगी, तो वह जनकल्याणकारी भी हो सकती है। एक बड़ा फर्क जिसका वायदा एलन मस्क ने किया है उसे ट्विटर से परे भी दूसरे संदर्भों में भी देखने की जरूरत है। उन्होंने कहा है कि ट्विटर के कम्प्यूटरों का प्रोग्राम, एल्गोरिद्म, किसी ट्वीट को कम या अधिक कैसे दिखाता है, किसे दिखाता है, किससे छुपाता है किस्म की बातें वे सार्वजनिक और पारदर्शी कर देंगे। ऐसा होने पर कम्प्यूटरों के जानकार लोग यह देख-समझ पाएंगे कि अपने एल्गोरिद्म के पीछे ट्विटर की सोच क्या है, उसका तर्क क्या है, उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं। यह बात वैसे तो तमाम सोशल मीडिया पर लागू होनी चाहिए, लेकिन फेसबुक जैसे सोशल मीडिया लगातार अपने एल्गोरिद्म को छुपाते रहते हैं, और फेसबुक इस्तेमाल करने वाले लोगों की जानकारियों का बाजारू इस्तेमाल भी करते हैं, और देशों की जनता को प्रभावित करने की साजिश में शामिल भी होते हैं। इसलिए अगर एलन मस्क के मातहत ट्विटर अधिक पारदर्शी होता है, तो हो सकता है कि वह अधिक लोकतांत्रिक भी हो। बस यही देखने की बात रहेगी कि लोकतंत्र में जिस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ अनिवार्य रूप से जिम्मेदारियां भी जुड़ी रहती हैं, उन्हें ट्विटर आने वाले दिनों में किस तरह लागू करेगा।
एक दूसरी बात जो ट्विटर पर चर्चा से शुरू हो रही है लेकिन जो पूरी दुनिया में लागू होती है, वह है एक मालिक के मातहत काम करने के नफे और नुकसान। यह तो तय है कि एलन मस्क अपने फैसलों को ट्विटर पर पल भर में लागू करवा सकते हैं, लेकिन ये फैसले क्या सचमुच ही जनकल्याणकारी हो सकते हैं, या फिर वे एक कामयाब कारोबारी के एक और कारोबारी फैसले से अलग नहीं रहेंगे? व्यापार हो या सरकार हो, यह बात समझने की है कि किसी व्यक्ति की नीयत कितनी भी अच्छी क्यों न हो, अगर उसके हाथ असीमित ताकत है, तो उसके अपने खतरे रहते हैं। जिस तरह किसी लोकतंत्र में अपार ताकत रखने वाले किसी नेता के साथ होता है, वे शुरू में जनकल्याणकारी लग सकते हैं, बाद में उनके तानाशाही रूख के बावजूद वे जनकल्याणकारी-तानाशाह हो सकते हैं, और उसके बाद लोगों को यह अहसास भी नहीं होता कि जनकल्याणकारी शब्द कब धुंधला हो गया, और कब सिर्फ तानाशाह शब्द बच गया। जिन सरकारों, राजनीतिक दलों, सामाजिक संस्थाओं, में ऐसे जनकल्याणकारी लोग तानाशाही मिजाज के साथ रहते हैं, उनका कल्याण वाला हिस्सा कब तानाशाह हिस्से के सामने कुर्बान हो जाता है, यह पता भी नहीं चलता। हमने हिन्दुस्तान की राजनीति में, सरकारों, और पार्टियों में कई बार ऐसा देखा है कि घोषित रूप से जनकल्याणकारी नेता या कार्यक्रम कब आपातकाल के खलनायक संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम में बदल जाते हैं, और फिर ये पांच सूत्र भी गायब होकर पांच खलनायकों का एक गिरोह बच जाता है।
इसलिए दुनिया को किसी एक व्यक्ति की अंधाधुंध ताकत को बहुत जनकल्याणकारी मानकर नहीं चलना चाहिए। आज शेयर होल्डरों के प्रति जवाबदेह रहने के बावजूद फेसबुक की कंपनी में उसके संस्थापक और उसे चलाने वाले मार्क जुकरबर्ग की जो मनमानी चल सकती है, या चलती है, उस ताकत को कम नहीं आंकना चाहिए, और वह कब दुनिया में लोकतंत्र की जगह तानाशाही को जायज ठहराने लगेगी, इस खतरे को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। दुनिया में समाचारों और विचारों को प्रभावित करने वाली मीडिया या सोशल मीडिया कंपनियों पर किस किस्म का मालिकाना हक है, उनका कितना काबू है, इसे कभी भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। आज विकसित दुनिया की खुली बाजार व्यवस्था विचारों के कारोबार पर एकाधिकार को रोक पाने की ताकत नहीं रखती है, लेकिन समाज के लोगों को तो ऐसे खतरों से सावधान रहना चाहिए।
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दुनिया भर से तमाम किस्म की बुरी खबरें आकर मीडिया पर राज करती हैं क्योंकि यह माना जाता है कि बुरी खबरें अधिक चलती हैं, अधिक बिकती हैं, लेकिन दूसरी तरफ कुछ अच्छी खबरें भी बिकती हैं और लोगों के दिल को छू जाती हैं। अब जैसे उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले के काशीपुर नाम के छोटे शहर की एक खबर है। वहां एक व्यक्ति अपनी जमीन मुस्लिम समाज को ईदगाह के लिए देना चाहता था। लाला ब्रजनंदन रस्तोगी 2003 में गुजर गए और इस काम को पूरा नहीं कर पाए। अब उनकी बेटियों ने अपने पिता की इच्छा के मुताबिक 21 एकड़ जमीन जो कि करीब सवा करोड़ रुपए की होती है, ईद के ठीक पहले मुस्लिम समाज को तोहफे में दे दी। इस बार की ईद की नमाज बृजनंदन रस्तोगी के लिए दुआ करते हुए की गई। एक तरफ तो हिंदुस्तान भर में भाई-भाई के बीच महाभारत की तरह, या अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच किसी विवादित धर्म स्थान को लेकर ऐसी खबरें आती हैं कि सुई की नोक के बराबर जमीन भी नहीं दी जाएगी, देशभर के अपने महफूज घरों में बैठे हुए लोग यह नारा लगाते हैं कि दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे। ऐसी खबरों के बीच अच्छी खबरें गर्मी के मौसम में ठंडी हवा के झोंके की तरह आती हैं, और बहुत से ऐसे गुरुद्वारे और मंदिर हैं जहां पर लोगों ने मुस्लिमों को इफ्तार की दावत के लिए या रोजे तोडऩे के लिए जगह दी गई। बहुत से ऐसे गुरुद्वारे हैं जहां पर बाढ़ या तूफान की वजह से तबाह इलाकों के मुस्लिमों के खाने और रहने का इंतजाम किया गया, उनके नमाज पढऩे का इंतजाम किया गया। ऐसी अच्छी खबरें भी चारों तरफ से आती हैं, ये गिनती में कम रहती हैं, लेकिन दिल को अधिक छू जाती हैं।
मीडिया का एक बड़ा हिस्सा हिंसा और कमीनेपन की खबरों को अधिक प्रमुखता से छापता या दिखाता है, क्योंकि यह माना जाता है कि ऐसी खबरें बिकती अधिक हैं। लेकिन यह बात हकीकत है नहीं। लोगों की नीचता और कमीनगी की बातें पल भर के लिए तो एक सनसनीखेज सुर्खी बन जाती हैं, लेकिन लंबे समय तक असर नहीं करतीं। अब सवाल यह उठता है कि अच्छी खबरों के लिए जगह निकल पाए इसके पहले कुछ लोग रोजाना के अपने पेशे की तरह अगर हिंसा और कमीनगी की घटिया बातें कह-कहकर सुर्खियों को छीनने लगें, तो फिर अच्छी खबरों को जगह कहां मिलेगी? ऐसा लगता है कि आज कुछ लोग एक पेशेवर अंदाज में हर दूसरे-चौथे दिन कहीं से एक ऐसा बखेड़ा खड़ा करवाते हैं जो दो-चार दिन या हफ्ते भर खबरों पर कब्जा करके रखें और टीवी के न्यूज़ बुलेटिन उन्हीं पर अपनी बहसें करते रहें। यह सिलसिला कब तक चलेगा, कितना चलेगा, इसे कौन बदल सकता है, कौन रोक सकता है। यह समझना कुछ मुश्किल है क्योंकि ऐसा लगता है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उसे थमाए गए एक एजेंडे के तहत जिंदगी के लिए निहायत गैरजरूरी, निहायत सतही मुद्दों से टीवी की स्क्रीन पाटकर रख देता है ताकि जिंदगी के असली और जलते-सुलगते मुद्दे पल भर के लिए भी वहां दाखिल ना हो जाएं।
क्या सचमुच ही मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इस कदर बिक चुका है कि वह उसे थमाए गए हुक्मनामे पर अमल करते हुए अपनी बिकी हुई आत्मा को, उसके एक कतरे को भी वापस पाने की कोशिश नहीं करता? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो अच्छी खबरों के अवसर को खत्म होते देखकर मन में उठते हैं। अभी दो दिन पहले ही एक खबर आई कि किस तरह अपने एक किसी करीबी को एक सडक़ दुर्घटना में बिना हेलमेट मरते देखने के बाद कोई एक व्यक्ति अपना घर-बार बेचकर भी लोगों को हेलमेट बांटने का काम कर रहा है, और अगर सोशल मीडिया पर आई जानकारी सही है तो वह अब तक 55 हजार लोगों को हेलमेट बांट चुका है। ऐसे ही बहुत से लोग रहते हैं जो जरूरतमंद मरीजों के लिए खून का इंतजाम करते घूमते रहते हैं, बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपना खुद का खून हर तीसरे महीने तब तक देते रहते हैं जब तक उनकी बढ़ती उम्र या किसी बीमारी की वजह से डॉक्टर उन्हें मना नहीं कर देते हैं। कुछ लोग हैं जो दाह संस्कार का इंतजाम करते हैं, कफन-दफन का जिम्मा लेते हैं, और जो गुमशुदा लाशें मिलती हैं, उन्हें ठिकाने लगाते हैं। कोरोना महामारी के पूरे दौर में जब मरघटों पर दो-दो, तीन-तीन दिनों की कतारें लगी हुई थीं उस वक्त भी लोग वहां पर रात-दिन काम करके अंतिम संस्कार कर रहे थे, जब परिवारों के लोग अपनों का आखिरी चेहरा देखने से भी बच रहे थे तब कुछ दूसरे लोग ऐसे थे जो अनजानी लाशों को जलाते हुए रात और दिन एक कर रहे थे। अब एक सवाल मन में यह आता है कि ऐसी अच्छी खबरों और अच्छी मिसालों का असर लोगों पर क्यों नहीं हो पा रहा है? क्या इसलिए नहीं हो पा रहा है कि देश में और जो बड़ी-बड़ी मिसालें हैं, वे ऐसे किसी नेक काम को बढ़ावा नहीं देती हैं, और वह इस कदर घटिया काम करते हुए लोगों के सामने अपने आपको रखती हैं कि लोगों को लगता है कि घटिया काम करना ही उनका मार्गदर्शन है? जिस समाज में कुछ लोग अनजाने लोगों के लिए किडनी भी देने के लिए तैयार हो जाते हैं, जहां अपने किसी गुजरते हुए ब्रेन डेड हो चुके परिजन के सभी अंग दूसरों को देने के लिए तैयार हो जाते हैं, वहां पर अगर महामारी के बीच वेंटिलेटर खरीदने के काम में घोटाला और भ्रष्टाचार करने वाले लोग भी मौजूद हैं, तो क्या उनकी मिसालें लोगों के दिल-दिमाग पर इतनी हावी हो जाती हैं कि वे नेक काम करने के बजाए लूट को मिसाल मान लेते हैं?
आज हिंदुस्तान में हर त्यौहार एक बड़ा सामाजिक तनाव और खतरा लेकर आने लगा है। एक वक्त था जब सभी धर्मों के लोग मिलजुल कर सभी धर्मों के त्योहार मना लेते थे लेकिन अब बहुत से बड़े लोगों ने, प्रमुख लोगों ने और नेताओं ने, राजनीति, धर्म, और समाज के बड़े-बड़े नेताओं ने इतनी हिंसक बातें करके इतनी खराब मिसालें सामने रखी हैं कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा उसी में झुलस रहा है और उसको राष्ट्रीयता मान रहा है, उसे अपने धर्म का गौरव मान रहा है। ऐसे में उत्तराखंड के एक शहर से आई यह खबर एक राहत की बात है जहां बेटियां अपने बाप की इच्छा पूरी करने के लिए सवा करोड़ की जमीन मुस्लिम समाज को दे रही हैं, जिन्हें कि बहुत से लोग सिर्फ बेइज्जती, तोहमत, और मौत देना चाहते हैं। सरकारों से कोई उम्मीद नहीं है, और मीडिया की शायद यह प्राथमिकता नहीं है, ऐसे में लोगों को सोशल मीडिया पर उन्हें मुफ्त में मिली हुई जगह का इस्तेमाल नेक नीयत के ऐसे कामों को बढ़ावा देने के लिए करना चाहिए, इनके बारे में लगातार लिखना चाहिए और अपने बच्चों को इन बातों को पढक़र सुनाना चाहिए ताकि वे टीवी पर महज नफरत की बातें सुनते न रह जाएं, बल्कि अच्छी बातें भी सीख पाए।
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राहुल गांधी के बारे में किसी सनसनीखेज दिखती खबर का आना उनके विरोधियों और आलोचकों के लिए अच्छे दिन आ जाने से भी अच्छा होता है। अभी उनका एक वीडियो आया जिसमें वे किसी एक पार्टी में खड़े दिख रहे हैं जहां आसपास कुछ विदेशी हैं, कुछ संगीत चल रहा है, पास में एक महिला खड़ी है, और इसके साथ यह जानकारी थी कि वे नेपाल में एक शादी की दावत में थे। विरोधियों को इससे अधिक और लगता क्या है, नफरत को तिल का ताड़ बनाने में खाद नहीं लगता। इस बात को हिन्दुस्तान के हालात से, राजस्थान के जोधपुर में चल रहे साम्प्रदायिक तनाव से, भारत में कांग्रेस पार्टी की बदहाली से जोडक़र देखा गया, और भाजपा के सबसे बड़े प्रवक्ताओं ने यह हमला बोल दिया कि कांग्रेस नेता अपने घर को सम्हालना छोडक़र नाईट क्लब में पार्टी कर रहे हैं। कांग्रेस पार्टी ने इस पर साफ किया कि राहुल गांधी अपनी एक दोस्त, एक अंतरराष्ट्रीय पत्रकार, सीएनएन की पूर्व संवाददाता की शादी में काठमांडू गए हैं।
कांग्रेस प्रवक्ता ने भाजपा के नेताओं से यह भी सवाल किया कि आज सुबह तक तो इस देश का कानून यह था कि आप अपने रिश्तेदारों या दोस्तों की शादी के समारोह में शामिल हो सकते हैं, हो सकता है कि कल से गृहस्थ बनना और शादी समारोह में हिस्सा लेना जुर्म हो जाए क्योंकि ये आरएसएस को पसंद नहीं है। कांग्रेस के लोगों और आम लोगों ने सोशल मीडिया पर यह भी याद दिलाया कि राहुल गांधी तो शादी के एक न्यौते पर एक मित्र देश नेपाल में एक समारोह में गए थे, वे बिना बुलाए एक शत्रु देश में जन्मदिन का केक काटने नहीं गए थे जैसे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नवाज शरीफ के घर की दावत में पाकिस्तान पहुंच गए थे।
जब देश नफरत के आधार पर दो या दो से अधिक हिस्सों में बांट दिया गया हो, तो फिर लोगों का किसी सच से या किसी इतिहास से कुछ लेना-देना नहीं रहता। एक शादी की दावत में पहुंचे हुए राहुल गांधी को लेकर भाजपा के नेताओं ने इतना बवाल खड़ा किया है कि मानो यह किसी किस्म की बदचलनी हो। राहुल गांधी तो किसी क्लब में चल रही इस पार्टी में अपने दोनों हाथ अपने मोबाइल फोन पर रखे हुए दिख रहे हैं, उनके हाथ में गर कोई ग्लास होता, तो उनके आलोचक अब तक दारू के ब्रांड की अटकलें भी लगाते रहते। राहुल गांधी और उनके परिवार ने सार्वजनिक रूप से अब तक कोई भी अशोभनीय काम नहीं किया है। पूरा परिवार अपनी जिंदगी को लेकर बहुत सावधानी से चलता है, और अगर किसी मौके पर राहुल गांधी पर यह तोहमत लगाने की बात भी उनके विरोधियों को सूझ रही है कि वे राजस्थान में साम्प्रदायिक तनाव को छोडक़र विदेश गए हुए हैं, तो कम से कम भाजपा के लोगों को तो यह याद रखना चाहिए कि पिछले बरसों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सौ-पचास बार विदेश गए हैं, और हर बार देश के किसी न किसी हिस्से में कोई न कोई तनाव तो चलते ही रहता है। फिर भाजपा के प्रवक्ताओं और पदाधिकारियों को यह भी साफ करना चाहिए कि क्या किसी नाईट क्लब की पार्टी में जाना देश की संस्कृति के खिलाफ है?
राहुल गांधी तो बिना शराब वहां दिख रहे थे, लेकिन हिन्दुस्तान में भाजपा के कुछ सबसे बड़े नेता भी अपने निजी जीवन में आसपास के कई लोगों से अपने पीने को लेकर खुले हुए थे। राहुल गांधी पर बहुत ही घटिया हमले के जवाब में हम यहां पर भाजपा के उन नेताओं के नाम गिनाना नहीं चाहते जिनके महिलाओं से भी संबंध रहे, जिन्होंने खुलकर यह कहा कि वे अविवाहित हैं, लेकिन कुंवारे नहीं, जिनके पीने के बारे में अब तक दर्जन भर से अधिक जीवनियों में लिखा जा चुका है, और दर्जनों इंटरव्यू में करीबी जानकारों ने कहा हुआ है। ऐसे में किसी नेता के घोषित तौर पर, सार्वजनिक इंतजाम के बीच एक शादी के खुले समारोह में जाना अगर एक बखेड़े का सामान बनाया जा रहा है, तो फिर ऐसा सामान किस पार्टी के किस नेता के घर-परिवार से बरामद नहीं किया जा सकता?
लेकिन आज हिन्दुस्तान में बेरोजगारी जितनी अधिक है, और धार्मिक-साम्प्रदायिक आधार पर नफरत जितनी अधिक फैलाई जा चुकी है, उसमें राहुल-सोनिया के बारे में कुछ भी कहकर बखेड़ा खड़ा किया जा सकता है। अपने देश की मान्य संस्कृति के
मुताबिक अगर सोनिया गांधी इटली में अपने छात्र जीवन में किसी रेस्त्रां या बार में वेट्रेस का काम करती थीं, तो उसे हिन्दुस्तान में उनके विरोधी एक कलंक की तरह पेश करते हैं। अपने पढऩे और जीने के लिए छात्र जीवन से ही कुछ घंटे काम करके कमाई करने की गौरवशाली परंपरा की जरूरत उन लोगों को जरूर नहीं पड़ती है जो कि हिन्दुस्तान के नेताओं की औलाद हैं, और यहां के पैसों पर विदेशों में पढऩे जाते हैं। बाकी तो पश्चिम के देशों में अरबपतियों के बच्चे भी कॉलेज की पढ़ाई करते हुए काम करते ही हैं।
राहुल गांधी पर एक शादी में जाने पर जिस तरह के ओछे हमले किए जा रहे हैं, वे इन आलोचकों की सोच का पाखंड अधिक उजागर कर रहे हैं। किसी देश में भाजपा के इतिहास के एक सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी जिस तरह खुलकर अपनी एक शादीशुदा महिला मित्र के पूरे परिवार को अपने सरकारी घर में बसाकर रखते थे, उसकी बेटी को उन्होंने प्रधानमंत्री-परिवार के रूप में राजकीय मान्यता दे रखी थी, उसे लेकर भी कभी कांग्रेस या दूसरे गैरभाजपाई दलों ने कोई ओछे हमले नहीं किए थे। अलग-अलग बहुत सी पार्टियों में बहुत से नेताओं की निजी जिंदगी में सामाजिक पैमानों से परे की बातें रहती हैं जो कि सार्वजनिक भी होते रहती हैं, लेकिन राहुल गांधी के एक दावत में जाने में तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता जिसे लेकर उनकी आलोचक पार्टी इतनी उत्तेजना में आ जाए! दरअसल हिन्दुस्तान में शिष्टाचार के पैमानों को बुलडोजर से कुचलकर खत्म कर दिया गया है, और बेशर्मी का बैनर टांग दिया गया है। जब तक हिन्दुस्तानी जनता का एक हिस्सा फुटपाथी मदारी के जुमलों पर जुटने वाली भीड़ की तरह बना रहेगा, तब तक ऐसे ओछे हमले भी जारी रहेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
प्रधानमंत्री और देश के मुख्यमंत्रियों के साथ हुई एक बैठक में देश के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने अदालतों पर बोझ के बारे में आंकड़े सामने रखे जिनके मुताबिक देश की निचली, जिला अदालतों में चार करोड़ से ज्यादा केस चल रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि जिला अदालतों से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जजों की कुर्सियां खाली पड़ी हैं, और वहां पर नियुक्ति का जिम्मा सरकारें पूरा नहीं कर रही हैं। उन्होंने जिला अदालतों का हाल बताया कि प्रति लाख आबादी पर देश में दो जज हैं, और बढ़ती मुकदमेबाजी का बोझ निपटाने के लिए ये बहुत नाकाफी है। देश के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर मुख्य न्यायाधीश ने प्रधानमंत्री और देश की मुख्यमंत्रियों की मौजूदगी में यह तकलीफ जाहिर की।
देश में अदालतों का हाल इतना खराब है कि वहां से किसी को इंसाफ की कोई उम्मीद नहीं रहती। 2018 में आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट में यह कहा गया था कि उस वक्त अदालतों में लंबित 2.9 करोड़ मुकदमों के निपटारे में 324 साल लगने वाले थे। अब चार बरस में 4.7 करोड़ मामले अदालतों में हो गए हैं। अब शायद ताजा अंदाज लगाया जाए तो शायद इनके निपटने में साढ़े तीन सौ साल लगेंगे। जिस देश में इंसानों की औसत उम्र 70 बरस से कम ही है वहां पर अगर इंसाफ के लिए साढ़े तीन सौ बरस रूकने की सलाह किसी को दी जाए, तो लोग अदालतों के बजाय मुहल्ले के गुंडे को सुपारी देकर उससे अपनी पसंद का इंसाफ पाने की कोशिश करेंगे। वैसे भी आज भारत के अदालती इंतजाम में पसंद का फैसला पाने की संभावना ताकतवर और संपन्न तबके की ही अधिक होती है, कमजोर के इंसाफ पाने की गुंजाइश बहुत ही कम होती है।
मुख्य न्यायाधीश ने अदालतों के भ्रष्टाचार के बारे में न तो कुछ कहना था, और न उन्होंने कुछ कहा। लेकिन हिन्दुस्तानी अदालतों में इतने धीमे सिलसिले की एक वजह अदालती भ्रष्टाचार भी है जहां पर बाबुओं से लेकर जजों तक को रिश्वत देकर मनचाहे मामलों को मनमानी लेट करवाया जा सकता है। और एक बार लेट होने का यह सिलसिला जो शुरू होता है, तो फिर पांच लीटर दूध में मिलावट के मामले में फैसला आने में 27 बरस लगने पर हमने कुछ हफ्ते पहले ही इसी जगह पर लिखा था कि जिस मामले में प्रयोगशाला में तय होने वाले रासायनिक सुबूत के आधार पर फैसला होना था, उसमें भी चौथाई सदी लग गई, तो फिर पलटने वाले गवाहों, पुलिस जैसी कई मामलों में भ्रष्ट हो जाने वाली जांच एजेंसी, लोगों के गवाह खरीदने की ताकत के चलते हुए बाकी किस्म के मामलों में इंसाफ की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है। हम मुख्य न्यायाधीश की जजों की कमी की फिक्र को भी कम अहमियत देते हैं, और नीति आयोग के अंदाज को भी पल भर के लिए किनारे रखना चाहते हैं, इस जरूरी बात पर पहले चर्चा करना चाहते हैं कि भारत के अदालती मामले सबसे अधिक संख्या में राज्यों की पुलिस से निकलकर आते हैं, जो कि घोर साम्प्रदायिक, या जातिवादी, या भ्रष्ट, या राजनीतिक दबावतले दबी हुई रहती हैं, और उनसे जांच और मुकदमे में ईमानदारी की उम्मीद कम ही की जाती है। इसलिए जजों की कमी का तर्क तो ठीक है, लेकिन उससे परे न्याय की प्रक्रिया में जहां-जहां कमियां और खामियां हैं, उनकी भी मरम्मत करने की जरूरत है।
प्रधानमंत्री ने इस मौके पर यह गिनाया कि उनकी सरकार ने पिछले सात बरसों में देश में गैरजरूरी हो चुके 14 सौ से अधिक पुराने कानूनों को खत्म किया है। उनकी यह शिकायत भी रही कि राज्यों के अधिकार क्षेत्र के ऐसे गैरजरूरी हो चुके कानूनों को राज्यों ने खत्म नहीं किया है। हिन्दुस्तान की न्याय व्यवस्था लागू न किए जा सकने वाले, या जानबूझकर लागू न किए जाने वाले कानूनों से लदी हुई है। यह सिलसिला भी खत्म होना चाहिए। इस देश में अंग्रेजों की छोड़ी गई गंदगी को सिर पर ढोने में हिन्दुस्तानियों के एक ताकतवर तबके को बड़ा फख्र हासिल होता है। यहां समलैंगिकता को अभी हाल तक जुर्म रखा गया था, और इसे जुर्म करार देने वाले अंग्रेज अपने देश में इस दकियानूसी सोच से जमाने पहले छुटकारा पा चुके थे। ऐसे ही बहुत से और कानून है जिनमें से एक पर अभी आज-कल में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है, हिन्दुस्तानियों के खिलाफ अंग्रेजों का बनाया हुआ राजद्रोह का कानून आज तक इस लोकतंत्र की सरकारें अपने ही लोगों की असहमति के खिलाफ, सरकार की आलोचना के खिलाफ इस्तेमाल कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट को इसे खारिज करना चाहिए ताकि केन्द्र सरकार और बहुत सी राज्य सरकारें जो अलोकतांत्रिक मनमानी कर रही हैं, उन्हें यह अहसास हो सके कि वे काले हिन्दुस्तानियों पर राज कर रही गोरी सरकार नहीं हैं।
इसलिए हम हिन्दुस्तान की न्याय व्यवस्था की इस धीमी रफ्तार, और उसकी बेइंसाफी, बेरहमी को सिर्फ जजों की कमी से जोडक़र नहीं देखते, बल्कि मामलों को अदालत तक ले जाने वाली पुलिस की बुनियादी खामियों से जोडक़र भी देखते हैं, अदालतों के अपने भ्रष्टाचार से भी जोडक़र देखते हैं, और अदालतों के कम्प्यूटरीकरण, जेलों के साथ उनकी वीडियो सुनवाई, उसकी कार्रवाई को ऑनलाईन करने, और उसकी पूरी प्रक्रिया से भ्रष्ट मानवीय दखल को हटाने से भी जोडक़र देखते हैं। सत्ता पर बैठे हुए दुष्ट और भ्रष्ट किस्म के मुजरिम नेताओं के लिए यह बात सहूलियत की रहती है कि अदालतों की रफ्तार धीमी रहे, और नेताओं के मर जाने तक उनकी सरकारों का भ्रष्टाचार सजा न पा सके। शायद यही आत्महित सत्तारूढ़ नेताओं को जजों की कुर्सियां भरने से रोकता है। देश के मुख्य न्यायाधीश को अदालतों से जुड़े तमाम पहलुओं पर देश की जनता के सामने सब कुछ साफ-साफ पेश करना चाहिए क्योंकि यह उसकी जिंदगी, और उसके लोकतांत्रिक अधिकारों से जुड़ी हुई बात है।
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वैसे तो प्रशांत किशोर की आज की ताजा मुनादी पर कुछ लिखना जल्दबाजी होगी क्योंकि उन्होंने आज सुबह एक ट्वीट किया है जिसमें उन्होंने लिखा है- लोकतंत्र में एक सार्थक भागीदार बनने और जनसमर्थक नीति को आकार देने का मेरा दस साल का सफर रोलर-पोस्टर की सवारी (उतार-चढ़ाव) की तरह रहा है। अब मैं एक पन्ना पलट रहा हूं, और अब वक्त है असली मालिक, यानी जनता के पास जाने का ताकि मुद्दों को और ‘जन सुराज’ को बेहतर तरीके से समझा जा सके। शुरूआत बिहार से।
प्रशांत किशोर पर अभी-अभी दो बार लिखना कांग्रेस के सिलसिले में हुआ है, और वे इससे अधिक विचार के लायक फिलहाल नहीं थे, लेकिन आज की उनकी यह घोषणा कई तरह के कयास शुरू कर गई है। उन्होंने अभी कुछ ही दिन पहले कहा था कि वे 2 मई तक अपने अगले कदम की जानकारी दे देंगे, और उन्होंने उस बिहार से ‘कुछ’ शुरू करने की घोषणा की है जिस बिहार में वे नीतीश कुमार की जेडीयू के दूसरे नंबर के पदाधिकारी भी रहे हैं। लेकिन जिस तरह रेगिस्तान में रेत के टीले रातोंरात अपनी जगह बदल देते हैं, और शाम किसी जगह दिखते हैं, सुबह तक वे कहीं और पहुंच जाते हैं, उसी तरह प्रशांत किशोर पिछले कई चुनावों में लगातार अलग-अलग पार्टियों के लिए रणनीति बनाते रहे हैं, और किसी पार्टी की विचारधारा से उनका कुछ लेना-देना नहीं रहा। वे एक पेशेवर वकील की तरह हर किस्म के मुवक्किलों का केस लड़ते रहे, और उनकी जीत में मदद करते रहे। अब अगर वे राजनीति या चुनावी रणनीति बनाने से परे कुछ करने जा रहे हैं, और अपने बूते, अपने खुद के किसी कार्यक्रम पर अमल करने जा रहे हैं, तो यह उनका एक नया अध्याय होगा। लोगों को याद होगा कि एक वक्त सीएसडीएस नाम के गैरसरकारी सामाजिक अध्ययन संस्थान में काम करने वाले योगेन्द्र यादव टीवी पर चुनावी नतीजों की अटकल लगाते-लगाते, नतीजों का विश्लेषण करते-करते सक्रिय राजनीति में आए, और स्वराज इंडिया नाम की पार्टी बनाई। यह पार्टी चुनावों में तो कहीं नहीं पहुंच पाई, लेकिन योगेन्द्र यादव लगातार सामाजिक मोर्चों पर सक्रिय हैं, और किसान आंदोलन में वे भीतर तक जुड़े रहे।
अब भारतीय लोकतंत्र में आज के मौजूदा हालात में यह बात सोचने की है कि प्रशांत किशोर जैसे विचारधाराविहीन रणनीतिकार कोई पार्टी बनाकर, या बिना पार्टी बनाए कोई आंदोलन छेडक़र जनता के बीच क्या कर सकते हैं? इसकी सबसे करीब की मिसाल इस पल योगेन्द्र यादव दिखते हैं जो कि इन्हीं किस्म की भूमिकाओं से होते हुए आज देश के सामाजिक आंदोलनों का एक अनिवार्य हिस्सा दिखते हैं। तो क्या प्रशांत किशोर भी देश के कुछ मुद्दों को उठाने में कामयाब होंगे? हो सकता है कि आज हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में भाजपा के अश्वमेध यज्ञ के अंधाधुंध दौड़ रहे घोड़े को थामना किसी नई पार्टी के बस का न हो, लेकिन हम लोकतंत्र में छोटी और नई पार्टी की भूमिका को कम नहीं आंकते हैं। राजनीतिक दलों या सामाजिक आंदोलनों की भूमिका महज कुछ या अधिक सीटों पर चुनाव जीत जाने तक सीमित नहीं रहती। ऐसे तबके देश के लोकतंत्र के लिए जरूरी मुद्दों को उठाने के काम भी आते हैं जिन्हें कई बार कोई बड़ी पार्टी उठाना नहीं चाहती क्योंकि सबके बड़े-बड़े हित उन पार्टियों से जुड़ जाते हैं। बड़े कारोबार और सरकार मिलकर जिस तरह देश में जनधारणा प्रबंधन या जनमत गढऩे के कारोबार को भी काबू में कर चुके हैं, उन्हें देखते हुए ऐसे वैचारिक, सैद्धांतिक, और प्रतिबद्ध आंदोलनों की जरूरत हमेशा ही बने रहेगी जो कि सोशल मीडिया पर मुफ्त में हासिल कुछ जगह का इस्तेमाल करके सरकार-कारोबार की गिरोहबंदी उजागर कर सकें। हो सकता है कि प्रशांत किशोर बिना किसी पार्टी की चुनावी रणनीति बनाए लोगों के बीच मुद्दों को उठाने में कामयाब हो सकें ताकि जनता का फैसला बेहतर जानकारी और बेहतर समझ पर आधारित हो। आज हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियां और नेता जुमलों की जुबान बोलते हैं जिनका हकीकत से उतना ही लेना-देना रहता है जितना कि रामदेव का 35 रूपये का पेट्रोल और मोदी के 15-15 लाख का रहा। ऐसे में मुद्दों के संदर्भ, देश की दशा और दिशा, लोगों और पार्टियों के उछाले नारों की सच्चाई, ऐसे बहुत सारे पहलू हैं जिस पर एक व्यापक जनजागरण की जरूरत है। यह जनजागरण सत्ता की सीधी गलाकाट लड़ाई से परे की छोटी पार्टियां भी कर सकती हैं, लेकिन न जाने क्यों वामपंथी दल भी बरसों में एक बार बुलडोजर के सामने खड़े हो पाते हैं, बाकी तो सत्ता और बाहुबल की भागीदारी फर्म के बुलडोजर जनता को कुचलते रहते हैं, और पार्टियां दूर बैठीं नजारा देखती रहती हैं। इसलिए इस देश में स्वामी अग्निवेश, ज्यां द्रेज, योगेन्द्र यादव, अरुन्धति राय, स्वरा भास्कर जैसे लोगों की जरूरत हमेशा ही बनी रहेगी जो कि कमजोर तबकों की आवाज को मजबूती दे सकें, और मजबूत तबकों की दहाड़ की दहशत में आए बिना सीना तानकर खड़े हो सकें। अगर प्रशांत किशोर की आज की मुनादी जनजागरण में कुछ मदद कर सकती है, तो वह एक नये राजनीतिक दल के मुकाबले अधिक काम की रहेगी। आज तो ऐसे सामाजिक आंदोलनकारियों की जरूरत है जो कि चुनाव के मौकों पर, और दो चुनावों के बीच भी, पार्टियों और सरकारों की नीयत उजागर कर सकें, जनता की ओर से ऐसे सवाल उठा सकें जो जनता को या तो सूझते नहीं हैं, या जिन्हें उठाने की जनता की आवाज नहीं है। योगेन्द्र यादव की पार्टी की कामयाबी उनकी जीती हुई सीटों से लगाना गलत होगा, वे कुछ न जीतकर भी गलत की जीत का खतरा घटा सकते हैं, और बेहतर की जीत की संभावना बढ़ा सकते हैं। लोकतंत्र इन्हीं दो सिरों के बीच घटाने और बढ़ाने की कोशिशों का नाम है। यह तो आने वाले दिन बताएंगे कि प्रशांत किशोर के दिल-दिमाग में क्या है, लेकिन चूंकि वे राजनीति को बहुत से पेशेवर नेताओं से भी बेहतर समझते हैं, इसलिए उन्हें, और उनकी तरह के कई और लोगों को पार्टियों और नेताओं के राजनीतिक चरित्र का भांडाफोड़ करना चाहिए ताकि जनता कोई बेहतर फैसला ले सके। अब तक प्रशांत किशोर जनमत को प्रभावित करने, या कड़े शब्दों में कहें तो झांसा देने के काम को कामयाबी से करते आए हैं, लेकिन अब अगर वे सुराज की बात कर रहे हैं, तो उन्हें जनजागरण का काम करना होगा, फिर चाहे वह चुनावी रहे, या कि गैरचुनावी।
गुजरात के एक दलित नौजवान निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी को असम की एक अदालत ने जमानत दी है जिसमें एक मामले में जिग्नेश की जमानत के बाद आनन-फानन एक दूसरा मामला गढक़र उनकी गिरफ्तारी को जारी रखने की साजिश असम पुलिस ने की थी। जिग्नेश की पहली गिरफ्तारी प्रधानमंत्री की आलोचना करते हुए की गई एक ट्वीट को लेकर असम में एक भाजपा नेता की शिकायत पर दर्ज एफआईआर के आधार पर की गई थी, और इस गिरफ्तारी के लिए असम पुलिस गुजरात जाकर जिग्नेश को गिरफ्तार करके लाई थी। लेकिन इस सतही मामले में उनकी जमानत का आसार था, और शायद इसीलिए वहां की पुलिस ने एक महिला पुलिस अधिकारी से जिग्नेश के खिलाफ एक रिपोर्ट लिखाई कि गिरफ्तारी के दौरान जिग्नेश ने उससे छेडख़ानी की या बदसलूकी की। ट्वीट पर जमानत मिलने के बाद जब जिग्नेश को आनन-फानन फिर गिरफ्तार किया गया तो इस दूसरे मामले की सुनवाई करते हुए जज ने यह पाया कि महिला पुलिस अधिकारी ने रिपोर्ट में कुछ बात लिखाई थी, और मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान में कुछ अलग बात लिखाई थी। इस पर अदालत ने कहा कि जिग्नेश मेवाणी को पुलिस ने फंसाया है, और पुलिस की इस मनमानी पर रोक जरूरी है। कोर्ट ने इस साजिश के लिए पुलिस को कड़ी फटकार लगाई, और कहा कि अगर पुलिस की मनमानी नहीं रोकी गई तो यह राज्य एक पुलिस स्टेट बन जाएगा। अदालत ने यह भी सुझाव दिया है कि असम पुलिस को किसी को हिरासत में लेने की रिकॉर्डिंग करने के लिए बॉडी कैमरा पहनने कहा जाए और गाडिय़ों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं ताकि गिरफ्तारी दर्ज हो सके। जज ने यह भी कहा कि इस महिला अधिकारी की गवाही को देखते हुए लग रहा है कि जिग्नेश मेवाणी को किसी न किसी तरह हिरासत में बनाए रखने के लिए यह मामला बनाया गया है। जज ने यह भी कहा कि पुलिस की ओर से ऐसे आरोपियों को गोली मारकर उनकी हत्या करने या उन्हें घायल करने के मामले राज्य में नियमित हो गए हैं, और हाईकोर्ट पुलिस को सुधारने का निर्देश दे सकता है।
यह मामला छोटा नहीं है। जिस गुजरात में चुनाव होने जा रहे हैं, वहां पर एक विधायक को सत्तारूढ़ भाजपा के एक दूसरे राज्य की पुलिस द्वारा इस तरह गिरफ्तार करना, और फिर जमानत मिलने पर उसे साजिश करके एक झूठे मामले में फंसाकर रखना लोकतंत्र के लिए एक फिक्र की बात है। और जिग्नेश ने प्रधानमंत्री के खिलाफ किए गए एक ट्वीट में यह लिखा था कि मोदी गोडसे को गॉड मानते हैं। अब यह तो उनका अपना एक नजरिया है, और इसमें एक राजनीतिक आलोचना तो है, लेकिन इसमें न तो कोई बात अलोकतांत्रिक है, और न ही इसमें कोई जुर्म बनता। आज देश भर में जगह-जगह जिस तरह आक्रामक हिन्दुत्व से जुड़े हुए लोग गोडसे की पूजा कर रहे हैं, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपनी भाजपा की सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने जिस तरह से गोडसे की स्तुति करते हुए गांधी को गालियां दी थी, और जिस पर उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं हुई, तो यह बात कुछ लोगों के मन में मोदी की एक अलग तस्वीर बना सकती है, और हो सकता है कि मोदी और भाजपा इस तस्वीर से सहमत न हों। लेकिन लोकतंत्र में आलोचना और असहमति को लेकर बहुत तंगदिली नहीं चलती। चार दिनों के भीतर इस मुद्दे पर हमें दुबारा लिखना पड़ रहा है क्योंकि एक छात्र नेता उमर खालिद की जमानत अर्जी की सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के दो जजों ने जिस तरह उमर खालिद के प्रधानमंत्री के खिलाफ जुमला शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति की थी, वह भी हैरान करने वाली थी, और उसे लेकर हमने इसी जगह लिखा भी था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में 2015 में सबसे पहले इस शब्द का इस्तेमाल अमित शाह ने किया था, और फिर मानो उनके शब्द को दुहराते हुए ही देश के लाखों लोगों ने इस शब्द का इस्तेमाल मोदी के लिए शुरू किया। जिस तरह उन जजों को उमर खालिद जुमला शब्द का आविष्कारक लगा, उसी तरह असम की पुलिस को यह लग रहा है कि मोदी को गोडसे को गॉड मानने वाला कहना एक जुर्म है।
लोकतंत्र राज्यों की पुलिस के ऐसे बेदिमाग, बददिमाग, और साजिशाना तौर-तरीकों से नहीं चल सकता। देश के हर राज्य की पुलिस के हाथ में किसी को गिरफ्तार करने का अधिकार है। आज अगर बंगाल की पुलिस जाकर गुजरात के किसी विधायक को गिरफ्तार करके ले आए कि उसकी ट्वीट ममता बैनर्जी के लिए अपमानजनक है, तो इस किस्म के सिलसिले देश को कहां ले जाएंगे? अभी-अभी आम आदमी पार्टी की पंजाब सरकार की पुलिस दिल्ली आकर केजरीवाल के पुराने साथी और एक वक्त आम आदमी पार्टी में रहे कुमार विश्वास से पूछताछ करके लौटी क्योंकि उन्होंने कुछ समय पहले पंजाब में मतदान के ठीक पहले यह बयान दिया था कि एक वक्त उनसे केजरीवाल ने कहा था कि वे या तो पंजाब के मुख्यमंत्री बनेंगे, या फिर खालिस्तान के प्रधानमंत्री। और ऐसा लगता है कि मानो कुमार विश्वास की बात को सही साबित करने के लिए अभी दो दिन पहले पंजाब में खालिस्तान समर्थकों ने एक आक्रामक प्रदर्शन का ऐलान किया था, और वहां की शिवसेना ने अपनी छोटी मौजूदगी के बावजूद उसका आमने-सामने विरोध किया। अब क्या पंजाब सरकार के खिलाफ शिवसेना के महाराष्ट्र में कोई जुर्म दर्ज किया जाए कि वहां देश विरोधी प्रदर्शन हुए हैं, और यह पंजाब सरकार का राजद्रोह है?
अगर देश के संघीय ढांचे में केन्द्र और राज्यों के बीच राजनीतिक असहमति की वजह से राज्यों की पुलिस का ऐसा इस्तेमाल होने लगेगा जिसे कि एक छोटा जज भी साफ-साफ देख पा रहा है, तो यह इस्तेमाल देश में एक अभूतपूर्व संवैधानिक टकराव खड़ा करेगा जिससे उबर पाना मुश्किल होगा। आज देश में आधा दर्जन से अधिक अलग-अलग विचारधाराओं की राज्य सरकारें हैं। यह बात ठीक है कि अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, लेकिन दूसरी पार्टियां भी कहीं-कहीं सत्तारूढ़ हैं, और अगर हर राज्य पुलिस के ऐसे नाजायज इस्तेमाल पर उतारू हो जाए, तो सोशल मीडिया पर पोस्ट देख-देखकर विपक्षी पार्टियों, असहमत नेताओं को गिरफ्तार करके लाने, और फिर गिरफ्तारी के दौरान पुलिस से छेडख़ानी जैसे और फर्जी मामले दायर करने का कोई अंत नहीं होगा। यह तो अच्छा हुआ कि मामले को किसी बहुत बड़ी अदालत तक पहुंचने की जरूरत नहीं पड़ी, और असम की बदनीयत पुलिस की साजिश जमानत के दौरान ही उजागर हो गई। उसी राज्य के जज को राज्य के पुलिस के खिलाफ इतनी कड़वी बातें कहनी पड़ी हैं कि उससे राज्य सरकार की साजिश उजागर होती है। असम के भाजपा-मुख्यमंत्री ने पिछले महीनों में देश की एकता और अखंडता के खिलाफ जितनी हिंसक बातें कही हैं, उन्हें लेकर तो देश के अलग-अलग बहुत से गैर-भाजपा राज्यों में जुर्म दर्ज हो सकता है, और फिर क्या मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी के लिए दिल्ली में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन का इस्तेमाल किया जाएगा जहां पर हर राज्य की पुलिस दूसरे मुख्यमंत्रियों के लिए वारंट लेकर खड़ी रहेगी?
आज दूसरी दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तान का तमाम सोशल मीडिया लोगों के खिलाफ हिंसक धमकियों के साफ-साफ जुर्म से भरा पड़ा है, लेकिन उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है। इस देश ने एक बड़ा मजबूत सूचना-तकनीक कानून तो बना लिया है, लेकिन उसे छांट-छांटकर अपने को नापसंद लोगों के खिलाफ इस्तेमाल तक सीमित रखा गया है। यह सिलसिला अगर दूर नहीं होगा, तो इस देश में राज्यों की पुलिस का इस्तेमाल आलोचना और असहमति की मुठभेड़-हत्या के लिए किया जाएगा, और पहली मौत लोकतंत्र की होगी, हो भी रही है, जिन लोगों को जानवर को धीरे-धीरे काटकर मारने का तरीका नापसंद है, वे लोग आज लोकतंत्र को उसी तरीके से जिबह कर रहे हैं।
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उत्तरप्रदेश से आ रही खबरें बताती हैं कि वहां अभी तक करीब 50 हजार लाउडस्पीकर धर्मस्थानों से हटाए गए हैं, और करीब 60 हजार धर्मस्थानों के लाउडस्पीकरों की आवाज घटाई गई है। शायद उत्तरप्रदेश को लेकर ये कार्टूनिस्ट ने कार्टून बनाया है जिसमें बादलों के ऊपर आसमान में अल्लाह और भगवान दोनों राहत की सांस लेते हुए आपस में बात कर रहे हैं कि अब जरा चैन पड़ा है। दूसरी तरफ एक खबर यह है कि उत्तरप्रदेश के बगल के बिहार में भाजपा नेता लाउडस्पीकर पर रोक के हिमायती हैं, और सत्तारूढ़ गठबंधन की उनकी मुखिया पार्टी जेडीयू कह रही है कि बिहार में ऐसी किसी रोक की जरूरत नहीं है। यह पूरा सिलसिला मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकरों के खिलाफ देश में जगह-जगह शुरू हुआ, और महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पारिवारिक भाई राज ठाकरे ने मस्जिदों पर लाउडस्पीकर बंद करने का खुला अल्टीमेटम दिया हुआ है। लेकिन अल्पसंख्यक या मुस्लिम विरोधी दिखती इस मुहिम से परे देश की बड़ी अदालतों के अनगिनत फैसले हैं जो कि लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को रोकते हैं, और राज्य सरकारें ऐसे आदेशों पर कोई अमल नहीं करती हैं क्योंकि धर्म के मामले को छूना सरकारों को मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने सरीखा लगता है। लेकिन आज का वक्त ऐसा है कि इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।
जिन हिन्दू और मुस्लिम धर्मालुओं और कट्टर साम्प्रदायिक लोगों के बीच लाउडस्पीकर का यह शक्ति प्रदर्शन चल रहा है, उनसे परे क्या किसी धर्म के ईश्वर को, या आस्थावान को लाउडस्पीकर की जरूरत है? जब धर्म बने तो हजारों बरस तक कोई लाउडस्पीकर नहीं थे, गांव भी चैन की नींद सोते थे, और लोगों के ईश्वर भी बिना शोरगुल, चढ़ाया हुआ ढेर सारा प्रसाद खाकर खूब देर तक सोते थे। पिछले डेढ़-दो सौ बरस की टेक्नालॉजी ने लाउडस्पीकर मुहैया कराए तो इनका मंदिर-मस्जिद पर इस्तेमाल भी शुरू हुआ। चूंकि नमाज का वक्त तय रहता है, इसलिए दिन में पांच बार मस्जिदों से लाउडस्पीकर पर अजान की आवाज जाती है ताकि पांच वक्त के नमाजी लोग मस्जिद पहुंच सकें, या आसपास बसे हों तो वे आवाज सुनकर जहां हो वहां नमाज पढ़ सकें। मंदिर और गुरुद्वारों में वक्त की ऐसी पाबंदी नहीं रहती, इसलिए वहां आरती और शबद कीर्तन के वक्त लचीले रहते हैं, और लोग अपनी मर्जी से आते-जाते हैं, और अब तो ढोल-मंजीरा बजाने वाली भी मशीनें आ गई हैं जो कि आरती के वक्त शुरू कर दी जाती हैं, और एक अकेला पुजारी भी भक्तों की भीड़ होने का अहसास करा सकता है। आज हिन्दुस्तान में शायद ही कोई मंदिर बिना लाउडस्पीकर होगा। मस्जिद के लाउडस्पीकर तो दिन में पांच बार कुछ-कुछ मिनटों के लिए चलते हैं, लेकिन मंदिरों के लाउडस्पीकर तो एक-एक बार में घंटों भी चलते हैं, और साल में कई बार तो पूरे-पूरे दिन चलते हैं। इसलिए लाउडस्पीकर के शोरगुल को खत्म करना सिर्फ मुस्लिमों पर हमला मानना गलत होगा, यह इंसानों, जानवरों, और पंछियों, सभी को राहत देने का काम अधिक होगा।
आज उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार ने लाउडस्पीकर उतरवाने की जो पहल की है, वह अगर धर्म देखे बिना हो रही है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। शोरगुल करना किसी एक धर्म का बुनियादी हक मानना बेवकूफी की बात होगी। आज के वक्त जब हर जेब में मोबाइल फोन है, तब हर शहर की एक सम्प्रदाय की मस्जिदें अपना एक मोबाइल ऐप बना सकती हैं, जिससे सभी नमाजियों को तय समय पर अलार्म चला जाए। लाउडस्पीकर को किसी धर्म के बाहुबल की तरह इस्तेमाल करना 21वीं सदी की शहरी दुनिया में बाकी शोरगुल के साथ कुछ और जुल्म लोगों पर ढहाने सरीखा है। यह काम करना किसी धर्म का सम्मान बढ़ाना नहीं है। राज्य सरकारों को चाहिए कि सभी किस्म के लाउडस्पीकर तुरंत ही खत्म करवाए, और सारे धर्मस्थानों के बाहर लगे हुए स्पीकर खत्म करके उन्हें उनके भीतर इस्तेमाल के लायक छोटे स्पीकरों की इजाजत दी जाए जिसकी आवाज अहाते के बाहर न आए। आज देश में आसमान पर पहुंचा हुआ साम्प्रदायिक तनाव घटाने के लिए धार्मिक ताकत का प्रदर्शन भी घटाना जरूरी है। लाउडस्पीकर खत्म करना उसका एक कदम हो सकता है। अभी किसी एक नेता ने यह भी मांग की थी कि तमाम किस्म के धार्मिक जुलूसों पर रोक लगाई जाए। इस सोच में भी कोई बुराई नहीं है, और इसके लिए राज्य सरकार में दमखम होना चाहिए कि वह सभी धर्मों को बराबरी से देखते हुए एक सरीखी रोक लगाए। फिलहाल लाउडस्पीकर पर रोक लोगों में इंसानियत की वापिसी का पहला कदम हो सकता है, और इसकी पहल की जानी चाहिए।
अभी कुछ ही दिन पहले हमने लिखा था- कांकड़ पाथर जोडक़र मस्जिद लेई बनाए, तां चढ़ मुल्ला बांग दे बहरा हुआ खुदाय। मतलब यह कि कंकड़-पत्थर जोडक़र मस्जिद बना ली, और उस पर चढक़र मुल्ला इस तरह से अजान देता है कि मानो खुदा को कम सुनाई देता है।
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रमजान के धार्मिक मौके पर उत्तरप्रदेश के अयोध्या में एक बड़ा साम्प्रदायिक तनाव होने का खतरा अभी टल गया दिख रहा है। लेकिन उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पुलिस के अयोध्या के अफसरों ने साम्प्रदायिक दंगा फैलाने की कोशिश में सात स्थानीय नौजवानों को गिरफ्तार किया है, और कुछ फरार हैं, सबके-सब हिन्दू हैं। इन्होंने अयोध्या की तीन मस्जिदों और एक मजार पर मुस्लिमों के लिए आपत्तिजनक और अपमानजनक पोस्टर, मांस के टुकड़े, और एक धार्मिक ग्रंथ के फाड़े हुए पन्ने फेंके। ये सारे के सारे लोग सोच-समझकर साजिश और तैयारी से साम्प्रदायिक आग लगा रहे थे, और ऐसा करते हुए इन सबने मुस्लिमों में प्रचलित जालीदार टोपी पहन रखी थी जो कि वीडियो रिकॉर्डिंग में साफ दिख रही है। इन नौजवानों का सरगना एक ऐसा ब्राम्हण है जिसके ऊपर पहले भी साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाडऩे के मुकदमे दर्ज हैं। अयोध्या की पुलिस ने न सिर्फ आनन-फानन इन लोगों को गिरफ्तार किया, सुबूत और रिकॉर्डिंग जुटाई, बल्कि कामयाबी से धरपकड़ करने वाली पुलिस को एक लाख रूपये का ईनाम भी दिया गया है।
इन नौजवानों ने पुलिस को बतलाया कि वे दिल्ली की जहांगीरपुरी में रामनवमी जुलूस पर पथराव को लेकर नाराज थे, और उसका बदला निकालना चाहते थे। अब अगर हिन्दुस्तान के किसी शहर में निम्न-मध्यम वर्ग परिवारों के बेरोजगार लडक़े इकट्ठा होकर कुछ हजार रूपये से तबाही का इंतजाम कर सकते हैं, तो यह नौबत देश के लिए इसलिए खतरनाक है कि आज करोड़ों नौजवान बेरोजगार हैं, इनमें सभी धर्मों के लोग हैं, और इन्हें दूसरे धर्म के लोगों से, सरकार से, समाज से, अदालत से, पुलिस से, एक या कई तबकों से शिकायतें हो सकती है। और ऐसे में अगर वे किसी दूसरे धर्म से हिसाब चुकता करने या दंगा फैलाने का इंतजाम कर सकते हैं, और उसकी तोहमत किसी दूसरे धर्म पर डालने के लिए ऐसी टोपी पहन सकते हैं जिसे कि हिन्दुस्तान में पहनावे से पहचान कहा जाता है, तो यह पूरा देश ही सुलगाया जा सकता है, आग में झोंका जा सकता है। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ महीने पहले ही पंजाब में एक से अधिक गुरुद्वारों में विचलित दिखते हुए कमजोर लोगों को पीट-पीटकर मार डाला गया, उन पर ऐसा शक किया जा रहा था कि वे वहां सिक्ख पंथ के प्रतीकों का अपमान करने के लिए पहुंचे थे। महज शक के आधार पर उन्हें भक्तों की भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था। इसके पहले के कुछ दूसरे मामले वहां बरसों से चले आ रहे हैं जिनमें धार्मिक ग्रंथ की बेअदबी की तोहमत है, और वह पिछले चुनाव में एक बड़ा चुनावी मुद्दा भी था।
यह देश कृषि प्रधान देश नहीं है, यह धर्म प्रधान देश है। यहां पर आस्था का प्रदर्शन देश का सबसे बड़ा उत्पादन है। और ऐसे में जिसको जिससे हिसाब चुकता करना हो, उन्हें धर्म नाम का एक हथियार सबसे पहले सूझता है जिससे किसी को मारा जा सकता हो। जब धर्म काम का नहीं रहता, तभी कोई दूसरा हथियार तलाशना पड़ता है। आज देश में धार्मिक आस्था के एक सबसे बड़े प्रतीक, अयोध्या में रमजान के मौके पर इतना बड़ा बवाल करवाने की तैयारी की गई थी जिससे अयोध्या के बाहर भी देश भर में तनाव हो सकता था। देश भर में कुछ जानवरों के मांस, कुछ धार्मिक ग्रंथों के पन्ने लेकर कहीं भी साम्प्रदायिक हिंसा और दंगे करवाए जा सकते हैं। किसी देश को बारूद के ढेर पर इस तरह बिठाकर रखना जायज नहीं है। समझदारी तो यह होती कि इस देश में धर्म की जगह तय की गई होती, धर्म का सार्वजनिक और हिंसक प्रदर्शन बंद किया गया होता, और राजनीति में धर्म, और खासकर साम्प्रदायिकता को घटाया गया होता। लेकिन यह लगातार बढ़ते चल रहा है, इसका कोई अंत भी नहीं दिख रहा है। देश के दो सौ रिटायर्ड नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री को एक खुली चिट्ठी लिखकर देश में बढ़ती साम्प्रदायिकता और उस पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर निराशा जाहिर की है। देश की अदालतें भी देश में फैल रहे धार्मिक सैलाब के सामने कड़ाई से पेश आने की हिम्मत शायद नहीं जुटा पा रही हैं। राजनीतिक दलों में से कुछ ऐसे हैं जो कि परजीवी प्राणियों की तरह धर्म और साम्प्रदायिकता पर ही पलते और बढ़ते हैं। यह पूरी नौबत इस देश के वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए बहुत ही खतरनाक है। हिन्दुस्तान एक विकसित और सभ्य लोकतंत्र बनने की संभावना रख रहा था, लेकिन अब ऐसी संभावनाएं कम से कम कुछ दशक तो पीछे जा चुकी हैं। आज देश की आबादी के एक बड़े हिस्से की सोच इस हद तक नफरतजीवी, हिंसक, और साम्प्रदायिक हो चुकी है कि वह अपनी बेरोजगारी, पेट्रोल के रेट, बढ़ती महंगाई, सबको भूलकर सिर्फ नफरत खा-पीकर काम चला रहा है, और इसी में उसे आत्मगौरव हासिल है। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह नौबत भयानक है जहां पर पूरी की पूरी पीढिय़ां जिंदगी के तमाम असल मुद्दों को छोडक़र सिर्फ भडक़ाऊ साम्प्रदायिकता और राष्ट्रीयता के झूठे गौरव पर अपनी जिंदगी समर्पित कर देने पर आमादा हैं। पता नहीं यह सिलसिला कभी जाकर थमेगा भी, या फिर धर्मराज होने के नाम पर यह देश खत्म ही हो जाएगा।
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दिल्ली दंगों से जुड़े हुए मामलों में एक आरोपी छात्रनेता उमर खालिद को पुलिस ने 583 दिनों से जेल में रखा हुआ है, और पूरे दमखम से उसकी जमानत अर्जियों का विरोध किया गया है। एक जमानत अर्जी अभी दिल्ली हाईकोर्ट में सुनी जा रही है, और वहां पर कल इस पर बहस के दौरान हाईकोर्ट जजों ने उमर खालिद के वकील से जिस तरह के सवाल-जवाब किए हैं, वे हक्का-बक्का करते हैं। उमर खालिद पर यह आरोप लगाया गया है कि उन्होंने सार्वजनिक मंच से भाषण के दौरान लोगों को हिंसा के लिए भडक़ाया, और इसे लेकर उन पर देश के एक सबसे कड़े कानून यूएपीए के तहत जुर्म दर्ज किया गया, और लगातार जेल में रखा गया। उमर खालिद के इस भाषण की रिकॉर्डिंग अदालत में सुनी गई, और जजों ने इस बात पर आपत्ति की कि इस छात्रनेता ने प्रधानमंत्री के बयान के लिए ‘जुमला’ जैसे शब्द का इस्तेमाल किया। जजों ने कहा कि संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों की आलोचना करते समय लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना जरूरी है, यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के लिए कैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। अदालत ने उमर खालिद के भाषण में प्रधानमंत्री के लिए व्यंग्य से कहे गए एक और शब्द ‘चंगा’ (सब चंगा सी, यानी सब ठीक है) पर भी आपत्ति की तो उमर खालिद के वकील ने कहा कि चंगा शब्द तो प्रधानमंत्री ने ही अपने भाषण में कहा था।
दिल्ली हाईकोर्ट के जज, सिद्धार्थ मृदुल, और रजनीश भटनागर के उठाए गए सवाल देश के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर एक बड़ा सवाल उठाते हैं जो कि उमर खालिद के मौजूदा केस से परे भी लागू होते हैं। न तो जुमला शब्द आपत्तिजनक या अपमानजनक है, और न ही चंगा शब्द का व्यंग्यात्मक इस्तेमाल कोई जुर्म कहा जा सकता। लोकतंत्र में भाषा का लचीला इस्तेमाल तब तक जायज है जब तक वह हिंसा का फतवा नहीं है, हिंसा की धमकी नहीं है, जब तक वह किसी के चरित्र पर कोई लांछन नहीं है। एक छात्रनेता ने अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कही हुई बातों को जुमला कहा है, तो आज देश के करोड़ों लोग मोदी की कही बातों को सोशल मीडिया पर जुमला ही लिख रहे हैं। ऐसा लिखने वालों के विरोधी भी एक टोली की शक्ल में उन पर हमले करते हैं, और उसे भी लोकतंत्र किसी भी सीमा तक बर्दाश्त कर ही रहा है। चंगा शब्द पंजाबी और हिन्दुस्तानी में अक्सर इस्तेमाल होने वाला शब्द है, और इसका बड़ा साधारण मतलब बीमारी से उबरकर ठीक हो जाना, सेहतमंद रहना जैसा कई किस्म का रहता है, न तो यह गाली है, और न ही इसमें आपत्तिजनक कुछ है। अगर उमर खालिद ने प्रधानमंत्री पर तंज कसते हुए यह कहा था कि देश में इतना कुछ हो रहा है, फिर भी प्रधानमंत्री ऐसे बने हुए हैं कि सब कुछ ठीक है, तो भी उमर खालिद की बातों में एक लोकतांत्रिक व्यंग्य से परे कोई भी बात आपत्तिजनक नहीं है। हमें अदालत की इस बात पर भी हैरानी हो रही है कि उसने संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों के लिए शब्दों का ध्यान रखने के लिए कहा है। हमारी बहुत मामूली जानकारी और सामान्य समझ यह नहीं बता पा रही है कि संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग देश के आम नागरिक के मुकाबले अधिक सम्मानजनक या अधिक अधिकारसंपन्न कैसे हो सकते हैं? यह एक अलग बात है कि अंग्रेजों के वक्त से चली आ रही गुलाम-परंपरा के ही एक सिलसिले की तरह हिन्दुस्तानी अदालतों ने, और जजों ने अपने आपको कई किस्म के बनावटी और आडंबरी सम्मानों से घेर रखा है, और उन्हें संबोधित करते हुए जाने किस-किस तरह की भाषा का इस्तेमाल जरूरी कर दिया गया है। आजादी की पौन सदी सामने आ खड़ी हुई है, और हिन्दुस्तान के संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग अपने आपको सामंती परंपरा के सम्मान का हकदार बनाए हुए अपने को मानो एक बेहतर दर्जे का नागरिक साबित करने में लगे हुए हैं। एक चपरासी का ओहदा हो, या एक राष्ट्रपति का, जनता के पैसों पर तनख्वाह पाने वाले लोगों के सम्मान में फर्क कैसे किया जा सकता है? कुछ बरस पहले इस देश के एक राष्ट्रपति ने अपने ओहदे के साथ जुड़े हुए महामहिम नाम के सामंती आडंबरी शब्द को खारिज कर दिया था, और उसके बाद मानो मजबूरी में देश के राज्यपालों ने भी जगह-जगह इस शब्द का इस्तेमाल अपने लिए बंद करवाया। इस देश में एक आम नागरिक को जो सम्मान हासिल है, उससे अधिक सम्मान किसी संवैधानिक पद पर बैठे हुए किसी व्यक्ति को नहीं चाहना चाहिए, यह एक बहुत ही अलोकतांत्रिक सोच होगी।
अब हम अदालत की इस बात पर आते हैं कि उमर खालिद ने प्रधानमंत्री के बारे में व्यंग्यात्मक शब्द कहकर कोई गलत काम किया है। खुद प्रधानमंत्री के भाषणों को देखें तो वे हर कुछ महीनों में देश की किसी न किसी चुनावी सभा में बहुत ही आक्रामक लहजे में कभी किसी तबके के खिलाफ, तो कभी किसी नेता के खिलाफ बोलते हैं। कहीं वे लोगों की शिनाख्त उनके कपड़ों से करने की बात कहते हैं, तो कहीं वे किसी नेता की सौ करोड़ की गर्लफ्रेंड जैसी बात कहते हैं। और वे अकेले नहीं हैं, बहुत सी पार्टियों के बहुत से नेता इस तरह की बातें कहते हैं जो कि सचमुच ही भडक़ाने वाली रहती हैं, साम्प्रदायिक रहती हैं, आपत्तिजनक रहती हैं, हिंसक रहती हैं, लेकिन लोकतंत्र उन सबको भी बर्दाश्त कर लेता है। इस देश की कुछ अदालतें तो यह मानकर चल रही हैं कि मंच और माइक से दी गई धमकी अगर मुस्कुराते हुए दी जाती है तो उसे जुर्म नहीं माना जा सकता। तब से हाल के कुछ महीनों में ऐसे सैकड़ों कार्टून बने हैं, और हजारों ट्वीट किए गए हैं जिनमें मुजरिम को मुस्कुराते हुए जुर्म करने की सलाह दी गई है। दिल्ली हाईकोर्ट की इस ताजा सुनवाई में जिस तरह इन्कलाब और क्रांतिकारी शब्दों को लेकर जजों ने आपत्ति की है वह भी बहुत हैरान करने वाली है। ये दोनों शब्द हिन्दुस्तान के इतिहास के सबसे गौरवशाली शब्दों में से रहे हैं, और आजादी मिल जाने के बाद इन शब्दों की अहमियत कम नहीं हो गई है। आज भी तरह-तरह से क्रांतिकारी सोच की जरूरत लगती है, और इन्कलाब के नारों के बिना तो देश का कोई भी मजदूर आंदोलन एक दिन भी नहीं गुजारता है। लोकतंत्र में इन दो शब्दों का बहुत ही सम्मानजनक काम है, और इनके इस्तेमाल को आपत्तिजनक मानना लोकतंत्र के हाथ-पांव बांध देने जैसा है। उमर खालिद के वकील ने अदालत में यह सही तर्क दिया है कि सरकार की आलोचना करना कोई जुर्म नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि सरकार के खिलाफ बोलने के लिए किसी को यूएपीए जैसे कानून के तहत 583 दिन जेल में रखने का कोई प्रावधान नहीं है। लेकिन हैरानी यह है कि जजों को उमर खालिद के शब्द आपत्तिजनक और अप्रिय लगे हैं, इसमें भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि किसी के शब्द किसी दूसरे को ऐसे लग सकते हैं, लेकिन इसके बीच में कानून की जगह कहां बन जाती है? अदालत भाषा को लेकर यह कैसे कह सकती है कि आखिर शब्दों के प्रयोग की कोई मर्यादा तय की जाए। शब्दों के प्रयोग को लोकतंत्र में सीमाओं में कैसे बांधा जा सकता है?
यह अदालत लोकतंत्र में भाषा और व्यंग्य के इस्तेमाल को लेकर एक तंग नजरिया रखते दिख रही है। दुनिया के जो सभ्य और विकसित लोकतंत्र होते हैं वे असहमति और आलोचना की अपार गुंजाइश रखते हंै, और उसकी आजादी देते हैं। किसी नौजवान को उसके सार्वजनिक भाषण की लोकतांत्रिक जुबान के लिए बरसों तक बिना सुनवाई जेल में कैद रखने वाले कानून को अपना लोकतांत्रिक मूल्यांकन जरूर करना चाहिए कि उसमें ऐसी कौन सी बुनियादी खामी घर बना चुकी है कि जिसमें बिना फैसले महज जेल में बंद रखकर इंसाफ के नाम पर बेइंसाफी की जा रही है।
हैरानी यह है कि उमर खालिद की वकील ने अदालत को यह क्यों नहीं बताया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में जुमला शब्द का पहला इस्तेमाल अमित शाह ने 4 फरवरी 2015 को किया था जब उन्होंने कहा था कि नरेन्द्र मोदी के काला धन वापस लाने के बाद हर परिवार के खाते में 15-15 लाख रूपए जमा करने की बात बस एक जुमला है। उन्होंने कहा कि यह चुनावी भाषण में वजन डालने के लिए बोली गई बात है क्योंकि किसी के अकाऊंट में 15 लाख रूपए कभी नहीं जाते, ये बात जनता को भी मालूम है। अमित शाह ने यह बात एक न्यूज चैनल पर इंटरव्यू में कही थी जो रिकॉर्ड में दर्ज है।
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कांग्रेस और प्रशांत किशोर का एक-दूसरे से मोहभंग होना भारतीय चुनावी राजनीति की एक नाटकीय घटना है जिसमें आम जनता से लेकर बड़े नेताओं तक को 2024 के आम चुनावों में प्रशांत किशोर के कंधों पर सवार होकर कांग्रेस के एक बड़े सफर कर लेने की उम्मीद थी, और वह उम्मीद दिन की रौशनी भी नहीं देख पाई। जिस तामझाम से और धूमधाम से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के घर पर प्रशांत किशोर का चुनावी-राजनीतिक प्रस्तुतिकरण हुआ था, और सोनिया दरबार के कई घंटे पार्टी के कई बड़े नेताओं के साथ प्रशांत किशोर को दिए गए थे, वह कांग्रेस के इतिहास में एक बिल्कुल अलग किस्म की बात थी। उसके बाद कांग्रेस ने औपचारिक रूप से यह घोषणा की थी कि कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रशांत किशोर के प्रस्तुतिकरण पर रिपोर्ट देने के लिए मौजूद प्रमुख नेताओं की एक कमेटी बनाई है, फिर इस कमेटी ने हफ्ते भर के भीतर अपनी रिपोर्ट दे दी, और चारों तरफ यह हल्ला होने लगा कि प्रशांत किशोर कांग्रेस के बड़े पदाधिकारी होने जा रहे हैं, और वे एक किस्म के कांग्रेस के भविष्य निर्माता रहेंगे। लेकिन यह बड़ा सा रंगीन और चमकता हुआ बुलबुला चार दिन भी नहीं टिका, और कल कांग्रेस और प्रशांत किशोर दोनों ने एक-दूसरे का साथ न लेने-देने की औपचारिक घोषणा की। लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले भी प्रशांत किशोर ने सोनिया-कुनबे के साथ ऐसी बैठकें की थीं, और उस वक्त यह लग रहा था कि वे मोदी के खिलाफ ममता बैनर्जी की अगुवाई में एक विपक्षी मोर्चा बनाने की संभावनाओं को टटोलते हुए वहां पहुंचे थे। इस बार तो उनके औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा थी, और पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं ने उनके शामिल होने के बारे में ही अपनी जानकारी या अपने विचार सामने रखे थे।
यह नौबत कांग्रेस के उन तमाम लोगों के लिए बड़ी निराशा की हो सकती है जिन्होंने बाहर से जादूगर मैनड्रैक लाने के अंदाज में प्रशांत किशोर को इम्पोर्ट करके अपनी पार्टी की संभावनाओं को आसमान पर ले जाने के सपने देख लिए थे। वह सपना इतनी जल्दी इतनी बुरी तरह टूट जाएगा, यह लग नहीं रहा था। दूसरी तरफ कांग्रेस के भीतर जी-23 नाम का जो एक तबका बना है, और जो पार्टी में लोकतांत्रिक तौर-तरीकों, जवाबदेही, और संगठन चुनावों की मांग कर रहा है, उस तबके को भी यह हैरानी थी कि सोनिया गांधी ने उनके साथ बातचीत करने और उनकी मांगों-सिफारिशों पर विचार करने का जो वायदा किया था, उसे तो साल भर बाद भी आज भी छुआ भी नहीं गया है, और प्रशांत किशोर को एक उद्धारक के रूप में कांग्रेस अपने बीच बिठा रही है। अभी यह साफ नहीं है कि कांग्रेस के किन लोगों को प्रशांत किशोर से क्या शिकायतें थीं, या वे कौन सी उम्मीदें कर रहे थे जो कि पूरी नहीं हुईं। अभी यह साफ नहीं है कि कांग्रेस और प्रशांत किशोर में बातचीत किन वजहों से टूटी, लेकिन एक पार्टी के रूप में यह बात कांग्रेस के लिए बहुत ही शर्मिंदगी और फिक्र की है कि किसी एक बाहरी व्यक्ति पर सवा सौ साल पुरानी यह पार्टी इस हद तक मोहताज हो गई है कि सोनिया के घर उसे सुनने के लिए ऐसी बैठक हुई जैसी कि कांग्रेस के इतिहास में कभी नहीं हुई थी। आज जब एक पेशेवर रणनीतिकार से बातचीत में कांग्रेस इस हद तक आगे बढऩे के बाद किसी किनारे नहीं पहुंच पाई, तो 2024 के आम चुनाव में वह मोदीविरोधी मोर्चा बनाने में किसके साथ कहां पहुंच पाएगी? लोगों को याद होगा कि पिछली बार भी प्रशांत किशोर की सोनिया-परिवार से बातचीत के बाद सार्वजनिक मंचों पर प्रशांत किशोर और कुछ कांग्रेस नेताओं के बीच कड़वी जुबान में हमले हुए थे। इसके कुछ महीनों के भीतर ही दुबारा बात इस हद तक आगे बढऩा, और फिर पंक्चर गुब्बारे की तरह औंधे मुंह जमीन पर गिर जाना राजनीतिक परिपक्वता का संकेत नहीं है। इससे कांग्रेस पार्टी की संभावनाएं जितनी चौपट हुई हों, वह तो हुई हों, उसकी राजनीतिक साख भी गड़बड़ाई है, और पार्टी के बाहर के दूसरे लोगों से तालमेल की कमी की कमजोरी उजागर हुई है।
राजनीति में कोई स्थायी दोस्त नहीं होते, और न ही कोई स्थायी दुश्मन होते हैं। लेकिन आज हिन्दुस्तान की चुनावी राजनीति मोदी-शाह की मेहरबानी से जितना ऊंचा खेल बन चुकी है, उसमें कांग्रेस कहीं टिकी हुई नहीं दिखती है। इसलिए कांग्रेस की संभावनाओं की कोई भी संभावना कांग्रेस के लोगों में एक उत्साह पैदा करती है, और प्रशांत किशोर ने एक किस्म की उम्मीद जगाई थी, जो कि रफ्तार से नाउम्मीदी में तब्दील हो गई है। ऐसे में परंपरागत तरीके से सोनिया-कुनबे के मातहत ही चल रही इस पार्टी का अब क्या भविष्य हो सकता है, यह साफ नहीं है। लेकिन अपनी ही पार्टी के घोषित असंतुष्ट नेताओं को सुनने के बजाय, पार्टी में लोकतांत्रिक सिलसिला शुरू करने के बजाय पार्टी जिस तरह का इम्पोर्टेड इलाज ढूंढ रही थी, उससे पार्टी लीडरशिप की साख पार्टी के भीतर भी कमजोर हुई है। आज किस आत्मविश्वास से सोनिया गांधी जी-23 के नेताओं से बात कर सकती हैं? और अगर अपने ही संगठन के लोगों से वे बात नहीं कर सकतीं, तो फिर दूसरी पार्टियों के नेताओं से एक व्यापक गठबंधन पर किस तरह बात कर पाएंगी? कांग्रेस के भीतर जब उनकी लीडरशिप को दर्जनों बड़े नेताओं की तरफ से एक अघोषित चुनौती दिख रही है, तब वैसे में दूसरी पार्टियों से बातचीत का भी वजन नहीं रह जाता है। हम कभी भी प्रशांत किशोर जैसे आयातित और पेशेवर जादुई करिश्मे के हिमायती नहीं रहे हैं। कांग्रेस में अगर समझदारी होती, तो प्रशांत किशोर के साथ उसके इस प्रयोग का हल्ला नहीं होता, और कांग्रेस उसे बिना अधिक बड़ा मुद्दा बनाए हुए एक हफ्ते का विचार-विमर्श निपटा चुकी होती। लेकिन इस एक हफ्ते का शिगूफा कांग्रेस की साख पर गहरी चोट कर गया है, और इस पार्टी के निराश लोगों को अधिक निराश भी कर गया है। इससे कांग्रेस कैसे उबरेगी, और अपने दम पर कोई रास्ता कैसे निकाल सकेगी, यह अभी एक बड़ी पहेली बना हुआ है।
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यूक्रेन पर रूस के हमले के तुरंत बाद का दुनिया का सबसे बड़ा हमला भारतीय समय के मुताबिक आज सुबह से खबरों में हैं। पिछले दस दिनों से चले आ रहा असमंजस आज खत्म हुआ, और दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी एलन मस्क ने करीब 33 सौ अरब रूपये जितनी रकम से ट्विटर को खरीद लिया है। एक पंछी के मार्के वाला ट्विटर दुनिया में खबरों का पहला जरिया हो गया था, और यह ऐसा सोशल मीडिया था जिस पर दुनिया के तमाम बड़े नेता, कारोबारी, सरकारें, और चर्चित लोग अपनी पहली घोषणा करते थे। करीब सोलह बरस पहले यह कंपनी बनी थी, और गिने-चुने शब्दों में अपनी बात पोस्ट करने की मुफ्त सहूलियत देने वाले इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का हाल यह है कि अब सरकारों को अपने बड़े फैसले मीडिया को अलग से नहीं देने पड़ते, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री उन्हें ट्वीट करते हैं, और परंपरागत मीडिया उन्हें वहां से उठाकर खबर बनाते हैं। लेकिन जैसा कि किसी भी बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के साथ हो रहा है, ट्विटर पर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आजादी और उसकी सीमाओं के बीच एक बहस चलती रहती है कि आजादी किसे माना जाए? कितनी आजादी दी जाए, और कितनी बंदिश लगाई जाए? ऐसी बहस के बीच ही दुनिया के एक सबसे बड़े कारोबारी, बैटरी से चलने वाली कारों के सबसे बड़े निर्माता, कारोबारी अंतरिक्ष यात्रा शुरू करने वाले, एलन मस्क ने पिछले कुछ हफ्तों में लगातार ट्विटर के बारे में अपनी राय सामने रखी थी, और यह भी लिखा था कि वे विचारों की स्वतंत्रता के बड़े हिमायती हैं। अब अपने बारे में कही गई इस बात के कई मतलब निकलते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि एलन मस्क के मालिक बनने के बाद अब ट्विटर पर से पिछले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प पर लगाई गई बंदिश हट जाएगी क्योंकि एलन मस्क ऐसी बंदिशों के खिलाफ हैं। लेकिन ट्रम्प पर झूठ फैलाने और नफरत फैलाने की वजह से बंदिश लगाई गई थी, और अगर ऐसे सुबूतों के बाद भी नया मालिक अगर ट्रम्प को ट्विटर पर फिर आने देता है, तो विचारों की यह आजादी दुनिया भर के नफरतजीवी लोगों के लिए जश्न का मौका रहेगा। आज वैसे भी ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर नफरत और हिंसा का सैलाब है जिसे रोकने की या तो इनके मालिकान की नीयत नहीं है, या कूबत नहीं है। अब अगर ट्विटर एक कंपनी के बजाय, उसके संचालक मंडल के बजाय अगर सीधे-सीधे एक ऐसे मालिक के मातहत आ रहा है जो कि अपने सनकमिजाजी फैसलों के लिए जाना जाता है, तो यह सबसे ताकतवर सोशल मीडिया आज सचमुच खतरे में है।
एलन मस्क खुद के बनाए हुए कारोबारी साम्राज्य के मालिक हैं, और चूंकि पश्चिमी देशों के कारोबार में हिन्दुस्तान की तरह का दो नंबर के पैसों का अंबार नहीं होता है, इसलिए वहां के आंकड़े सही भी रहते हैं कि कौन सबसे रईस है, किसका कारोबार सबसे बड़ा है। एलन मस्क दुनिया के सबसे रईस तो हैं ही, उनका कारोबार भी भविष्य को देखते हुए खड़ा किया गया है, और बैटरी कारों से लेकर अंतरिक्ष पर्यटन तक का उनका कारोबार बढ़ते ही चले जाते दिख रहा है। ऐसे में एक बिल्कुल ही अलग किस्म के धंधे में, उसे मनमानी कीमत पर खरीदने की जिद पूरी करते हुए एलन मस्क ने दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती लोगों को असमंजस में डाल दिया है कि ट्विटर का भविष्य क्या होगा? क्या यह ट्रम्प जैसों के लिए लाल कालीन बिछाएगा, या ट्विटर पर से प्रमुख लोगों और संस्थानों को मिलने वाले ब्ल्यू टिक का आभिजात्य सिलसिला खत्म करेगा? नए मालिक, अकेले मालिक, और तानाशाह मिजाज के मालिक अगर जनकल्याणकारी हों, आजादी के हिमायती हों, तो भी उनके मनमाने फैसलों का खतरा तो बने ही रहता है।
खुद अमरीका में एक सवाल यह खड़ा हो गया है कि सोशल मीडिया जैसे कारोबार पर एकाधिकार किस हद तक होने देना चाहिए। एक वक्त अमरीका में अखबारों और टीवी स्टेशनों पर एकाधिकार को लेकर भी यह बात उठती भी, और अब सोशल मीडिया का हाल तो यह हो गया है कि फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग से पूछताछ के लिए संसदीय कमेटी की सुनवाई होती है, और संसद की तरफ से इस कारोबारी से कई दिनों तक सवाल-जवाब किए जाते हैं। दुनिया के दूसरे देशों में भी सोशल मीडिया की पहुंच को लेकर, और उसके बेजा इस्तेमाल के खतरों को लेकर फिक्र बनी हुई है। हिन्दुस्तान में अभी हाल ही में खोजी पत्रकारों की एक रिपोर्ट में यह स्थापित किया गया है कि इस देश के पिछले आम चुनावों में फेसबुक ने किस तरह भाजपा की मदद की, और दूसरी पार्टियों को बराबरी का हक नहीं दिया। खुद अमरीका के राष्ट्रपति चुनावों में यह बात सामने आ रही थी कि फेसबुक ने वहां के जनमत को मोडऩे के लिए सोच-समझकर कुछ साजिशें की थीं। खैर, अमरीका में कारोबारियों को भी आजादी है, और अदालतों को भी आजादी है, इसलिए वहां लोकतंत्र इतने बड़े खतरे में नहीं रहता, जितने बड़े खतरे में हिन्दुस्तान में दिखता है।
खैर, आज का यह मौका ट्विटर पर चर्चा का है कि नए मालिक की तरह यह विश्व जनमत का एक औजार बने रहेगा, या विश्व जनमत को कुचलने के लिए एक हथियार बन जाएगा। आने वाले हफ्ते या महीने यह बताएंगे कि अथाह दौलत रहने पर कोई रातोंरात जिस तरह दुनिया के सबसे बड़े सूचनातंत्र का मालिक बन सकता है, उसे बदल सकता है, तो यह विचारों की आजादी का सुबूत है या कारोबार की आजादी का? फिलहाल एलन मस्क की इस एक सनकी खरीददारी ने दुनिया के सोशल मीडिया कारोबार को हिलाकर रख दिया है कि उन पर क्या इससे भी बड़ा एकाधिकार हो सकता है? और क्या इनके मालिक दुनिया के लोकतंत्रों को कठपुतली की तरह हिला-डुला सकते हैं?
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फ्रांस में मौजूदा राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों फिर से राष्ट्रपति बन गए हैं, और उन्होंने उग्र दक्षिणपंथी उम्मीदवार मारीन ले पेन को हरा दिया है। ये चुनाव एक बहुत अलग किस्म के अंतरराष्ट्रीय तनाव के बीच हुए थे जिनमें फ्रांस पर रूस-यूक्रेन संघर्ष का दबाव भी था, और यूरोपीय समुदाय की एक सबसे बड़ी ताकत होने के नाते फ्रांस पर एक बड़ी जिम्मेदारी भी थी, और है। ऐसे में उग्र दक्षिणपंथी उम्मीदवार महिला के इर्द-गिर्द वोटर बहुत जुटे, पिछले चुनाव के मुकाबले मैक्रों के वोट आठ फीसदी गिर गए, मारीन ले पेन को पिछले चुनाव से बहुत अधिक वोट मिले, लेकिन राहत की बात यह है कि उग्र दक्षिणपंथ परास्त हुआ। मारीन ले पेन यूरोपीय समुदाय की धारणा के खिलाफ है, फ्रांस के भीतर बसे हुए दसियों लाख मुस्लिमों के हिजाब के हक के खिलाफ है, बाहर से आए प्रवासियों और शरणार्थियों के खिलाफ है, अल्पसंख्यकों के और काले लोगों के खिलाफ है। इसलिए न सिर्फ फ्रांस के उदारवादी लोगों को, बल्कि यूरोपीय समुदाय के लोगों को भी यह डर लगा हुआ था कि कहीं ऐसी कट्टरपंथी और दकियानूसी महिला फ्रांस की राष्ट्रपति न बन जाए। उसके राष्ट्रपति बनने से फ्रांस के यूरोपीय समुदाय से हटने का भी खतरा खड़ा हो सकता था जैसा कि ब्रिटेन उससे हट चुका है। जैसे कि किसी भी देश में घोर कट्टरपंथी लोग होते हैं जो कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ होते हैं, लोगों की धार्मिक आजादी के खिलाफ होते हैं, शरणार्थियों के खिलाफ होते हैं, गरीबों की मदद के खिलाफ होते हैं, वैसा ही हाल फ्रांस में होने का खतरा था, जो कि टल गया। दरअसल लोग इस खतरे को इस बात से जोडक़र देख रहे थे कि इन्हीं सारी खतरनाक बातों के लिए जाने जाने वाले डोनल्ड ट्रंप को अमरीकी मतदाताओं ने जिता ही दिया था, और वैसी ही कोई चूक फ्रांसीसी मतदाता न कर बैठें। मैक्रों न सिर्फ दुबारा जीते हैं बल्कि वे पिछले डेढ़ दशक में दुबारा जीतकर आने वाले पहले राष्ट्रपति भी रहे हैं। उन्होंने खुलकर इस बात को मंजूर किया कि उन्हें यह पता है कि बहुत से फ्रांसीसियों ने उन्हें इसलिए वोट दिया कि वे लोग उग्र दक्षिणपंथ के विचार को रोकना चाहते थे, न कि वे मेरा समर्थन कर रहे थे। उन्होंने कहा- इसलिए मुझे पता है कि उनका वोट मुझे आने वाले बरसों के लिए मेरी जिम्मेदारी बताता है।
दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग वक्त पर विचारधाराएं जोर पकड़ती हैं, या कमजोर होती हैं। डोनल्ड ट्रंप की शक्ल में अमरीका को हाल के दशकों का सबसे नस्लवादी और सबसे नफरतजीवी नेता मिला था। और भी कुछ-कुछ देशों में समय-समय पर साम्प्रदायिक और दकियानूसी दक्षिणपंथी काबिज हो जाते हैं। ऐसे में फ्रांस ऐसी ही एक नफरतजीवी सरकार पाने के मुहाने पर आ गया था। चुनाव हारने के बाद भी मारीन ले पेन उन्हें मिले हुए भारी वोटों को अपनी जीत बता रही है, और फ्रांस में आज मैक्रों के जीत के जश्न के बीच भी बहुत से लोग दक्षिणपंथियों को मिले इतने वोटों को अगले चुनाव के लिए भी खतरनाक मानते हुए फिक्र जाहिर कर रहे हैं। जिम्मेदार लोकतंत्र वही होते हैं जो खतरे की तरफ से बरसों पहले आगाह हो जाते हैं, और नफरत से बचने की कोशिश करते हैं। फ्रांस एक अलग किस्म की खतरनाक शुद्धतावादी, नस्लभेदी, अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से मुक्त सरकार पाने की कगार पर पहुंच गया था, लेकिन मैक्रों की जीत ने सबको राहत की एक सांस लेने का मौका दिया है।
दुनिया के देश अब एक-दूसरे से इतने कटे हुए भी नहीं हैं कि एक देश के मुद्दे दूसरे देश को प्रभावित न करें। बहुत से देशों के चुनाव अंतरराष्ट्रीय मुद्दों से प्रभावित होते हैं, और हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, या चीन की सरकारें अपने घरेलू मोर्चे पर लोगों को संतुष्ट रखने के लिए, या दुश्मन की उनकी एक धारणा को संतुष्ट रखने के लिए बहुत सा जुबानी जमाखर्च भी करती हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रति जवाबदेही रखने वाले बड़े और ताकतवर देश अगर जिम्मेदार पार्टियों के हाथ में रहते हैं, तो उसका बड़ा असर पड़ता है। आज जिस तरह से यूक्रेन पर रूस के हमले को लेकर दुनिया खेमों में बंट गई है, उसमें भी देशों में अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी समझने वाली और नैतिकता निभाने वाली सरकारों की जरूरत है, और जहां तक योरप का सवाल है, वहां पर आज के दिन फ्रांस में मैक्रों का लौटकर आना बहुत महत्वपूर्ण है, वरना न सिर्फ रूस के हाथ मजबूत हुए होते, बल्कि यूरोपीय समुदाय और अमरीका से भी फ्रांस के संबंध खराब हुए रहते।
आज टेक्नालॉजी और संचार-सहूलियतों के चलते दुनिया भर के लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए तो अधिक हैं, लेकिन एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदार कम रह गए हैं। एक वक्त था जब आम हिन्दुस्तानी भी दुनिया के दूसरे देशों के मुद्दों को लेकर चर्चा करते थे, और बहस करते थे। आज के हिन्दुस्तानी बाकी दुनिया के प्रति अपनी जिम्मेदारी से बहुत हद तक अछूते हो गए हैं। आज रूस-यूक्रेन की लड़ाई में दुनिया भर के देशों में अनाज की किल्लत हो गई है, और कई देश तो ऐसे हैं जहां पर अंतरराष्ट्रीय राहत एजेंसियों ने भी भूखी मरती आबादी के पूरे हिस्से को बहुत सीमित खाना देने के बजाय एक हिस्से को जिंदा रहने जितना खाना देना तय किया है, और एक हिस्से को खाना देना बंद ही कर दिया है। ऐसी भयानक नौबत इसी धरती पर चल रही है, लेकिन हिन्दुस्तानी लोगों के बीच मंदिर और मस्जिद के बीच पथराव सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। इंसानों और धरती के प्रति इतनी बड़ी गैरजिम्मेदार सोच इतिहास में जरूर ही दर्ज होगी। आज दुनिया के तमाम देशों को न सिर्फ अपने चुनावों में जिम्मेदारी दिखाने की जरूरत है, बल्कि दुनिया भर के मुद्दों में अपनी मानवीय जिम्मेदारी पूरी करने की भी जरूरत है। फ्रांस के चुनावी नतीजों को लेकर जो पहलू सामने आ रहे हैं, उन पर बाकी देश भी सोच-विचार कर सकते हैं।
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देश के एक बड़े अंग्रेजी अखबार द हिन्दू के एक पॉडकास्ट ने अभी सेना और सुरक्षाबलों के लोगों की आत्मघाती हिंसा के आंकड़ों को लेकर चर्चा की जा रही थी। फौज से अधिक आत्महत्याएं सीआरपीएफ जैसे पैरामिलिट्री सुरक्षाबलों के लोग करते हैं, लेकिन मीडिया और जनता इन्हें एक साथ गिन लेती हैं। इन दोनों में एक बुनियादी फर्क यह है कि फौज को अपने देश के दुश्मन देशों के साथ मोर्चों पर कभी-कभार जूझना पड़ता है, और उनका अधिकतर समय ऐसे कभी-कभार की तैयारी में ही गुजरता है, असल कभी-कभार के मौके हिन्दुस्तान जैसे देश में तो बहुत कम फौजियों की जिंदगी में एक-दो बार ही आते हैं। दूसरी तरफ पैरामिलिट्री सुरक्षाबल देश के भीतर अपने ही नागरिकों के मुकाबले तैनात किए जाते हैं जो कि नक्सल मोर्चों से लेकर कई और किस्म की जगहों पर अपने ही लोगों से जूझते हैं, और इसका एक अलग तनाव उन पर रहता है। फिर एक दूसरा बड़ा तथ्य यह भी है कि पैरामिलिट्री के मुकाबले मिलिट्री में सहूलियतें और रियायतें इतनी अधिक रहती हैं, उनके अपने अस्पताल और परामर्शदाता रहते हैं कि फौजियों को हर किस्म की मेडिकल और मानसिक मदद आसानी से मिलती है। दूसरी तरफ पैरामिलिट्री के लोग अधिक तनावपूर्ण मोर्चों पर तैनात रहते हैं लेकिन इन संगठनों के अपने खुद के अस्पताल या खुद के मनोचिकित्सा क्लिनिक नहीं रहते, और इनके लोग तैनाती के राज्यों में वहां के सरकारी इंतजाम के मोहताज रहते हैं।
लेकिन इन सबसे परे एक दूसरी चीज जो इन दोनों ही किस्म के सुरक्षा कर्मचारियों को खाती है, वह समाज में फैली हुई अराजकता, और सरकारों के भ्रष्टाचार का सामना। जब कोई फौजी या पैरामिलिट्री जवान छुट्टियों पर घर लौटते हैं तो उन्हें दिखता है कि देश के जिस लोकतंत्र के लिए वे बंदूक थामे हुए मुश्किल मोर्चों पर खड़े रहते हैं, वह लोकतंत्र हर गली-मोहल्ले में बिक रहा है। सरकारी दफ्तरों में बिना रिश्वत कोई काम नहीं होता, जमीन-जायदाद पर उनका कब्जा रहता है जिनके साथ अधिक लठैत रहते हैं, और तरह-तरह की सामाजिक बेइंसाफी उस लोकतंत्र के हाथ-पांव में हथकड़ी-बेड़ी बनकर पड़ी हुई है जिस लोकतंत्र को बचाने के लिए वे वर्दी पहनकर देश की सरहद पर तैनात हंै, या देश के भीतर गोलियां और गालियां झेल रहे हैं। ऐसे तनाव वर्दी के लोगों को हिंसक और आत्मघाती दोनों ही बना सकते हैं। बहुत से मामलों में सुरक्षाबलों की आत्महत्या इसलिए होती है कि परिवार की मुसीबत के वक्त उन्हें छुट्टी नहीं मिलती, और उन्हें यह मालूम रहता है कि बिना उनके गए उनके परिवार को कोई इंसाफ नहीं मिल सकता।
अब अभी आज ही उत्तरप्रदेश के बुलंद शहर की एक खबर है कि सीआरपीएफ में तैनात एक दलित जवान पुलिस के पास हिफाजत मांगने पहुंचा है कि वह जम्मू-कश्मीर में तैनात है, और अपनी शादी के लिए गांव आया है, लेकिन कुछ महीने पहले एक दलित की शादी में संगीत बजाने को लेकर एक ठाकुर ने एक दलित को मार डाला था, और उसे देखते हुए यह जवान अपनी शादी में घोड़ी पर चढक़र जाने के लिए पुलिस की हिफाजत चाहता है। अब जिस देश में एक दलित को अपनी शादी में घोड़ी पर चढऩे के लिए पुलिस हिफाजत जरूरी लगती हो, उस दलित को देश या लोकतंत्र को बचाने के लिए गोलियों या पत्थरों के मुकाबले तैनात किया जाता है, तो ऐसे लोकतंत्र पर उसकी कितनी आस्था हो सकती है? जिस जम्मू-कश्मीर में हर दो-चार दिनों में सुरक्षाबलों के जवान मारे जा रहे हैं, वहां तैनात एक जवान को अपने गांव अपने घर में ऐसी सामाजिक बेइंसाफी का भी सामना करना पड़ रहा है, तो ऐसे लोकतंत्र की हिफाजत के लिए उसके मन में कितना उत्साह रहेगा?
चूंकि फौज और सुरक्षाबल के लोग देश के बाकी सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले जान का खतरा अधिक झेलते हैं, इसलिए उन्हें लोकतंत्र को खोखला कर रही कई किस्म की ताकतों से तकलीफ अधिक होती होगी। उनमें से कुछ को अपने धर्म और अपनी जाति पर हो रहे हमले खटकते होंगे, कुछ को ये खबरें मिलती होंगी कि उनके समाज में प्रचलित खानपान पर कुछ दूसरे लोग किस तरह के हमले कर रहे हैं। ऐसी तमाम बातें भी उनके तनाव को बढ़ाती होंगी, और वर्दी का अनुशासन उन्हें कुछ भी कहने से पूरी तरह रोकने वाला भी रहता है। जिन लोगों के पास बोलने या सोशल मीडिया पर लिखने की आजादी रहती है, उनकी भड़ास तो फिर भी निकल जाती है, लेकिन जिन लोगों के दिल का गुबार निकल नहीं पाता, वह गुबार बढ़ते-बढ़ते खुद पर या दूसरों पर बंदूक की नाल से निकली गोली की शक्ल में भी निकलता है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर के नक्सल मोर्चे पर भी सीआरपीएफ के जवानों में बड़ी संख्या में आत्महत्याएं होती हैं, और कभी-कभी अपने साथियों को मारकर भी जवान खुदकुशी कर लेते हैं। आमतौर पर ऐसी आत्महत्याओं के पीछे तात्कालिक कारण ढूंढे जाते हैं। यह नहीं देखा जाता कि लोग वर्दी के नियम-कायदों से बंधी हुई जुबान, बंधी हुई उंगलियों के चलते किस तरह के तनाव के और किस तरह की भड़ास के शिकार रहते हैं, और कोई तात्कालिक कारण ऊंट की कमर तोडऩे वाला आखिरी तिनका साबित होता है, अकेले जिम्मेदार नहीं रहता। सुरक्षाबलों में आत्महत्या का विश्लेषण उन्हीं के भरोसे छोडऩा ठीक नहीं होगा क्योंकि वे पारिवारिक और सामाजिक हकीकत पर जाने की क्षमता नहीं रखते। ऐसे में किसी बाहरी संस्था को ऐसे मामलों का विश्लेषण करना चाहिए ताकि खुदकुशी की वजहें घटाई जा सकें।
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भारत सरकार के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों का विश्लेषण एक दिलचस्प लेकिन भयानक सामाजिक तथ्य सामने रखता है। इसके मुताबिक केन्द्र सरकार के पिछले बरसों के ये आंकड़े बताते हैं कि भारत में ऊंची समझी जाने वाली जातियों के लोग दलित और आदिवासी लोगों से औसतन चार से छह साल अधिक जीते हैं। इसी तरह ऊंची समझी जाने वाली हिन्दू जाति और मुसलमानों के बीच भी ढाई बरस का औसत फर्क है। यह नतीजा किसी एक इलाके, किसी एक वक्त, या कमाई से जुड़ा हुआ नहीं है, और औरत-मर्द में यह बराबरी से नजर आता है।
भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक जाति, धर्म के आधार पर पुरूषों की औसत उम्र के मामले में हिन्दू ‘ऊंची जाति’ के पुरूष 1997-2000 के बीच 62.9 साल जी रहे थे, मुस्लिम पुरूष 62.6, ओबीसी 60.2, दलित 58.3, और आदिवासी 54.5 साल जी रहे थे। इसके बाद 2013-16 के सर्वे के मुताबिक हिन्दू ‘ऊंची जाति’ के पुरूष 69.4 साल जी रहे थे, मुस्लिम पुरूष 66.8, ओबीसी 66, दलित 63.3, और आदिवासी 62.4 साल जी रहे थे।
भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक जाति, धर्म के आधार पर महिलाओं की औसत उम्र के मामले में हिन्दू ‘ऊंची जाति’ की महिलाएं 1997-2000 के बीच 64.3 साल जी रही थीं, मुस्लिम महिलाएं 62.2, ओबीसी 60.7, दलित 58, और आदिवासी 57 साल जी रही थीं। इसके बाद 2013-16 के सर्वे के मुताबिक हिन्दू ‘ऊंची जाति’ की महिलाएं 72.2 साल जी रही थीं, मुस्लिम महिलाएं 69.4, ओबीसी 69.4, दलित 67.8, और आदिवासी महिलाएं 68 साल जी रही थीं।
इन आंकड़ों का मतलब यह है कि ऊंची कही जाने वाली जातियों और दलितों के बीच औसत उम्र का फर्क पहले 4.6 साल था, जो अब बढक़र 6.1 साल हो गया है। आज हिन्दुस्तान में दलितों को जगह-जगह कूटा जा रहा है। वे अपने परंपरागत पेशों को लेकर वैसे भी हिकारत से देखे जाते हैं, और अब उनमें से जो लोग मरे हुए जानवर की खाल निकालने का काम करते हैं, उन लोगों को जगह-जगह गाय का हत्यारा कहकर मारा जा रहा है। फिर बढ़ते हुए शहरीकरण की वजह से नालियों और गटरों में उतरकर काम करने के लिए दलितों की जरूरत बढ़ती चल रही है, और यह काम सेहत के लिए खतरनाक, और सैकड़ों मामलों में जानलेवा भी होता है। नतीजा यह होता है कि गंदगी करने वाले ऊंचे लोग, सफाई करने वाले नीचे लोगों की मौत की वजह बनते हैं क्योंकि वे नालियों को कचरे से पाट देते हैं, और उन्हें साफ करने की जिम्मेदारी दलितों की ही रहती है। औसत उम्र के इस बड़े फासले को देखें तो एक बात यह भी दिखती है कि ऊंची कही जाने वाली जातियों के लोग दलितों के मुकाबले संपन्न होते हैं, और उनका खानपान बेहतर होता है, जीवन स्तर अधिक साफ-सुथरा और बेहतर होता है, वे अधिक पढ़े-लिखे होते हैं, और इलाज तक उनकी अधिक पहुंच होती है। दूसरी तरफ दलित बस्तियों में रहने वाले लोग गंदे कहे जाने वाले पेशे से जुड़े रहते हैं, और उनकी जिंदगी नालियों, पखानों, और मरे हुए जानवरों के बीच अधिक कटती है, नतीजा यह होता है कि उनकी सेहत हमेशा ही खतरे में रहती है, और बीमारियों का सामना करने के लिए उनके पास इलाज तक पहुंच कम रहती है। इस तबके में पढ़ाई भी कम रहती है, और सामाजिक जागरूकता कम होने से, समाज के बीच उनसे छुआछूत का भेदभाव होने से उनकी पहुंच बेहतर खाने तक भी कम रहती है, उनकी बस्तियां हर गांव की गंदगी बहने के ढलान पर आखिरी की बस्ती होती है, और साफ पानी तक भी दलितों की आसान पहुंच नहीं रहती है। इन सबका मिलाजुला नतीजा यह होता है कि लगातार गंदगी के बीच काम, लगातार संक्रमण का खतरा, गंदी बस्तियों में जीना, कमजोर खाना, और कम इलाज पाना। इन सबका नतीजा है कि ऊंची कही जाने वाली जातियों के मुकाबले दलितों की औसत उम्र इतनी कम है। चूंकि यह तबका आर्थिक रूप से कमजोर रहता है, इसकी महिलाएं भी कुपोषण का शिकार रहती हैं, भूखी रहती हैं, और साफ जिंदगी नहीं पाती हैं, नतीजा यह होता है कि वे गर्भावस्था में, और जन्म देने के बाद पर्याप्त पोषण आहार नहीं पाती हैं, और खानपान की यह कमजोरी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले चलती है।
आज जब हिन्दुस्तान में देश और प्रदेश की सरकारें न सिर्फ जाति के आधार पर सबकी बराबरी की बात करती हैं, और गरीबों के लिए कई किस्म की रियायती योजनाएं भी चलाती हैं, तब भी अगर सामाजिक हकीकत में उसकी झलक नहीं दिखती है, तो उससे यह बात साफ है कि समाज में बराबरी का ऐसा माहौल नहीं है कि दलित तबका अपने पूरे हक पा सके। किसी ग्रामीण इलाके में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि एक सरकारी अस्पताल में जांच और इलाज में किसी दलित को उसकी बारी पर मौका मिल जाए, जब उसके बाद की बारी किसी सवर्ण की हो। श्रीलाल शुक्ल के लिखे हुए ‘राग दरबारी’ की सामाजिक हकीकत गांवों के स्तर पर आज आधी सदी बाद भी वैसी ही बनी हुई है, प्रेमचंद की लिखी हुई जमीनी हकीकत में गांवों में कोई फर्क नहीं आया है, शहरों में जरूर जातियां बेचेहरा हो गई हैं, और तमाम लोग गुमनाम होने से कहीं-कहीं दलितों को भी बराबरी का हक मिल जाता है।
दलितों की फिक्र करने वाले जो तबके हैं उन्हें भारत सरकार के इन आंकड़ों के इस विश्लेषण को देखना चाहिए, और सोचना चाहिए कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा और कितनी सदियों तक इसी तरह कुचला जाता रहेगा? यह सवाल छोटा नहीं है, लेकिन आज हिन्दुस्तानी समाज में सवाल करने का हक जिन लोगों को है, उन लोगों में दलित नहीं हैं। दलितों के पास नंगी पीठ है, और ऊंची कही जाने वाली जातियों के कुछ हमलावर लोगों के हाथ में अपनी पतलून से निकाला हुआ चमड़े का बेल्ट है। गुजरात के उना में सडक़ों पर जिस तरह दलितों को पीटा गया था, वह सबका देखा हुआ है, और वैसा हर दिन देश भर में जगह-जगह होता है, जहां की तस्वीरें सामने नहीं आती हैं। ऐसे देश में एक तबके को पीढ़ी-दर-पीढ़ी बिना पेट भर खाने, बिना इंसान जैसी बुनियादी जिंदगी पाने, और बिना हक के जीने से कब तक कुचला जाता रहेगा, इस सवाल पर चर्चा होनी चाहिए। भारत सरकार के आंकड़ों पर शक करने की कोई वजह नहीं है, यह एक अलग बात है कि अगर खुद सरकार को अगर यह अहसास होता कि उसके आंकड़े इतनी भयानक सामाजिक हकीकत को इस हद तक नंगा करके खड़ा कर देंगे, तो शायद वह इन आंकड़ों को भी जारी नहीं करती। फिलहाल जिम्मेदार तबके को इस हकीकत पर चर्चा करनी चाहिए।
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फरवरी के आखिरी हफ्ते में यूक्रेन पर हुए रूसी हमले को दो महीने होने जा रहे हैं, और अब तक हजारों यूक्रेनी नागरिक भी रूसी सैनिकों के हाथों और रूसी बमबारी से, टैंक के हमलों से मारे गए हैं। दसियों लाख लोग यूक्रेन छोडक़र जाने मजबूर हुए हैं जिन्हें अड़ोस-पड़ोस के देशों से लेकर अमरीका तक में शरण दी जा रही है। यूक्रेन का ढांचा बहुत बुरी तबाह हो चुका है, वहां की कलादीर्घाएं, संग्रहालय, वहां की इमारतें, विश्वविद्यालय तबाह हो चुके हैं। और दुबारा यह देश कैसे खड़ा हो सकेगा, इसकी कल्पना भी आसान नहीं है। जो लोग वहां बच गए हैं, उनमें अधिकतर बुजुर्ग लोग हैं जो कि लंबा सफर करके किसी दूसरे देश जाने की हालत में भी नहीं हैं, और जिन्हें अब बाकी जिंदगी अपने पुराने घर से परे रहने की हिम्मत भी नहीं है। ऐसी नौबत में योरप के देश और अमरीका रूस के खिलाफ यूक्रेन की मदद करने में कम या अधिक हद तक लगे हुए हैं, और इस मदद का अधिकतर हिस्सा हथियारों की शक्ल में है ताकि यूक्रेन रूसी हमले का सामना कर सके। अधिक बारीक जुबान में अगर बात करें तो ये देश यूक्रेन को ऐसे हथियार अधिक दे रहे हैं जिनसे वह अपने को बचा सके, वह रूस पर हमला कर सके ऐसे हथियार देने से योरप के नाटो-सदस्य देश भी कतरा रहे हैं, और अमरीका भी। ये मददगार देश इस तोहमत से बचना चाहते हैं कि उन्होंने रूस-यूक्रेन की जंग को बढ़ाने का काम किया, और वह जंग बढक़र तीसरे विश्वयुद्ध तक, या कि परमाणु युद्ध तक पहुंच गई।
हम इसी जगह पर पहले भी लिख चुके हैं कि अंतरराष्ट्रीय सैनिक संगठन, नाटो के सदस्य देशों के सामने रूस का फौजी खतरा हमेशा ही खड़ा रहता है। और अमरीका तो रूस का परंपरागत प्रतिद्वंद्वी देश है ही, जो कि कुछ मायनों में एक दुश्मन देश सरीखा भी है। अब ऐसे में योरप के देशों, या नाटो-सदस्यों, और अमरीका का मिलाजुला निजी हित इसमें है कि रूस का अधिक से अधिक फौजी और कारोबारी नुकसान हो सके। अगर रूस कमजोर होता है, तो पश्चिमी ताकतें अधिक मजबूत होती हैं। ऐसे समीकरण के बीच यूक्रेन की शक्ल में अमरीका और नाटो-सदस्यों को एक ऐसा लड़ाकू देश मिल गया है जो कि किसी भी कीमत पर रूसी हमले का मुकाबला करने के लिए तैयार है। दुनिया के इतिहास में शायद ही ऐसा कोई दूसरा राष्ट्रपति रहा हो जो कि एक टी-शर्ट में महीनों गुजार रहा है, बंकरों में जी रहा है, और रूसी हमले से निपटने की जिसकी हसरत अपार बनी हुई है। अपने देश के नागरिकों और फौजियों की अनगिनत मौतों की कीमत पर भी यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की रूस का मुकाबला करने को तैयार है, और हर दिन वह वीडियो कांफ्रेंस पर दुनिया के किसी न किसी देश की संसद से अपील करता है कि यूक्रेन को फौजी साज-सामान की मदद करें। यह मदद आ रही है, इसकी वजह से रूस का फौजी नुकसान भी हो रहा है, लेकिन इस मदद का इस्तेमाल करते हुए खुद यूक्रेन के फौजी मारे जा रहे हैं, या फिर वे रूस के युद्धबंदी होकर एक अनिश्चित और खतरनाक भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं। यूक्रेन में रूसी हमले, और बाद की चल रही जंग के दौरान दसियों हजार नागरिकों की मौत तय है, पूरे देश की तबाही तो हो ही चुकी है, दसियों लाख नागरिक शरणार्थी होकर दूसरे देशों में चले गए हैं।
अब रूसी हमले को पूरी तरह नाजायज और गुंडागर्दी मानते हुए भी हम आज की इस नौबत पर जब सोचते हैं तो लगता है कि अमरीका और नाटो-सदस्य देश किस कीमत पर इस लड़ाई को जारी रखे हुए हैं? इन तमाम देशों से अरबों डॉलर की फौजी मदद तो यूक्रेन जा रही है, लेकिन इनमें से किसी का भी एक सैनिक भी वहां लडऩे नहीं गया है। किसी देश के लिए सबसे खतरनाक नौबत यही रहती है कि किसी दूसरे और तीसरे देश की लड़ाई में उसके अपने सैनिकों के ताबूत घर लौटें। इराक और अफगानिस्तान के भी पहले वियतनाम में अमरीका यह भुगत चुका है, और अभी-अभी अफगानिस्तान से मुंह काला कराकर लौटा हुआ अमरीका दुनिया के किसी मोर्चे पर अपनी फौज को झोंकना नहीं चाहता है, शायद उसकी औकात और हिम्मत भी नहीं रह गई है। ऐसी नौबत में रूस को नुकसान पहुंचाने की पश्चिमी नीयत पश्चिम के पैसों से तो पूरी हो रही है, लेकिन उसमें जिंदगियां यूक्रेन की जा रही है। वहां के सैनिक भी मारे जा रहे हैं, वहां के नागरिक भी मारे जा रहे हैं, और वह पूरे का पूरा देश दुनिया का सबसे बड़ा खंडहर बनने जा रहा है। रूस की संपन्नता तो इतनी है कि वह अपने तेल, गैस, और खनिज बेचकर आने वाले बरसों में किसी तरह खड़ा रहेगा, लेकिन यूक्रेन रहेगा भी या नहीं, इसी का कोई ठिकाना नहीं है। रूस के खिलाफ उसे उकसाकर मोर्चे पर डटाए रखने वाले देश शायद ही इस युद्ध को तीसरे विश्वयुद्ध में बदलने की नौबत खड़ी करेंगे। जिस जंग को किसी तर्कसंगत अंत तक ले जाना पश्चिमी देशों के हाथ में नहीं हैं, उसे इस तरह जारी रखवाना एक खतरनाक खेल है। अपने निजी स्वार्थों के चलते इन देशों को यूक्रेन को जंग में खड़े रखना अच्छा लग रहा है, लेकिन यह एक ऐसी मदद है जिसमें यूक्रेन की जिंदगी और उस देश को बचाने की कोई योजना नहीं है। यह मदद तब तक जारी है जब तक यूक्रेन रूस के खिलाफ डटा हुआ है, और रूस को कोई नुकसान पहुंचा पा रहा है। इसके बाद अगर यूक्रेन नाम का देश बचता है, तो उसके पुनर्निर्माण के लिए इनमेें से कौन से देश कितनी मदद करेंगे, और उससे कितनी जरूरतें पूरी होगी यह आने वाला वक्त बताएगा। फिलहाल तो यूक्रेन को घोड़े पर सवार करके पश्चिम के देश एक खेल खेलते दिख रहे हैं।
लोगों को याद होगा कि 1971 में पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच एक तनाव और संघर्ष चल रहा था, और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने पश्चिम में बसी हुई राजधानी और सरकार के खिलाफ एक मोर्चा खोल रखा था। उस वक्त भारत ने पूर्वी पाकिस्तान का साथ दिया था, और पाकिस्तान की फौज को भारत के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा था, बांग्लादेश बना था, और पाकिस्तान के हाथ से पूरब का अपना पूरा हिस्सा चले ही गया। लेकिन उस नौबत में अगर आत्मसमर्पण नहीं हुआ रहता, तो बहुत खून-खराबा होता। अब अगर उस वक्त अमरीका पाकिस्तान की फौजी मदद को उतरा रहता, और पाकिस्तान की फौज उस झांसे में आकर उस जंग को जारी रखती, तो क्या पाकिस्तान का सचमुच कोई भला हुआ रहता? इतिहास को लेकर कल्पना ठीक नहीं है, लेकिन बिना किसी विदेशी मदद के पाकिस्तान ने उस वक्त हिन्दुस्तान के सामने आत्मसमर्पण किया, और अपने देश का विभाजन होने दिया। अब आज अगर यूक्रेन बिना पश्चिमी मदद के अब तक आत्मसमर्पण करने के बारे में सोच भी पाया होता, तो आज पश्चिमी देशों ने वह संभावना उसके सामने से छीन ली है। आज उसे इतना फौजी सामान भेजा जा रहा है कि वह कहीं रूस के सामने आत्मसमर्पण न करे दे, और रूस योरप के और भीतर तक अपने टैंक न पहुंचा दे। दुनिया के फौजी ताकत वाले देश न तो यूक्रेन को अपनी फौजी-औकात में जीने दे रहे, और न ही इस लड़ाई को खत्म होने दे रहे। जिस जंग में शामिल होने के लिए ये देश तैयार नहीं हैं, क्या उस जंग को बड़ी मौतों और बड़ी तबाही की कीमत पर भी जारी रखवाना एक नैतिक काम है? कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि यूक्रेन में अमरीका और नाटो रूस के खिलाफ एक प्रॉक्सी युद्ध लड़ रहे हैं। यानी दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चला रहे हैं, और यूक्रेन ने लड़ाई की अपनी क्षमता के बाहर जाकर भी अपना कंधा मुहैया कराया है। अब सोचने की बात यह है कि यूक्रेन को चने के झाड़ पर चढ़ाकर क्या उसका साथ दिया जा रहा है, या उसका इस्तेमाल किया जा रहा है? यह सवाल छोटा नहीं है, और यूक्रेनी लोगों के भले के लिए इस सवाल का जवाब ढूंढना जरूरी है।
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हिन्दुस्तान में पेट्रोल और डीजल के अंधाधुंध बढ़ते हुए दामों के चलते हुए, और सरकारी रियायतों की वजह से भी बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों का चलन तेजी से बढ़ रहा है। बिजली से चार्ज होने वाली बैटरियों पर ईंधन की लागत पेट्रोल-डीजल के मुकाबले बहुत कम आ रही है, और यही वजह है कि लोगों को इन्हीं गाडिय़ों का भविष्य दिख रहा है, और है भी। इसके साथ-साथ बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों में डीजल-पेट्रोल को ऊर्जा में बदलने वाले इंजन का कोई काम नहीं रहता, इसलिए उसमें पुर्जे बहुत कम लगते हैं, उसकी आवाज नहीं के बराबर होती है, और उससे कोई धुआं नहीं निकलता। लेकिन दुनिया में कोई भी चीज एक हसीन सपने की तरह खूबसूरत नहीं हो सकती, इसलिए पिछले कुछ महीनों में हर हफ्ते हिन्दुस्तान में एक से अधिक बैटरी वाहनों में आग लग रही है, चलते-चलते सडक़ पर भी लग रही है, और घर में चार्जिंग के दौरान भी बैटरी-गाडिय़ां जल रही हैं। ऐसी एक आगजनी में उसी कमरे में सोए बाप-बेटी भी जल मरे हैं।
एक तरफ तो जिन शहरों में बैटरी से चलने वाले ऑटोरिक्शा बढ़ते जा रहे हैं वहां सडक़ों पर शोर घट गया है, और चौराहों पर धुआं। लोग राहत की सांस ले रहे हैं, और बैटरी से चलने वाले ऑटोरिक्शा इतने आसान भी हैं कि छत्तीसगढ़ में हजारों महिलाएं मुसाफिर-ऑटोरिक्शा चलाने लगी हैं। भारत में सरकार ने भी आने वाले बरसों में बहुत तेजी से बैटरी-गाडिय़ों का अनुपात बढ़ाने की घोषणा की है, और इसी अनुपात में डीजल-पेट्रोल की खपत में कमी भी आते जाएगी। यह सब कुछ पर्यावरण के हिसाब से भी बेहतर तस्वीर लग रही है, लेकिन इसमें एक दिक्कत भी आ रही है। उस दिक्कत पर चर्चा जरूरी है।
जानकार लोगों का कहना है कि बैटरी वाली गाडिय़ों में आग लगने के पीछे उनकी बैटरी घटिया होना एक बड़ी वजह हो सकती है। आज हिन्दुस्तान में कोई बैटरियां इन गाडिय़ों के लिए शायद बन नहीं रही हैं, और चीन बाकी बहुत से सामानों की तरह इस चीज का भी सबसे बड़े निर्माता है। तकनीकी जानकारी रखने वालों का कहना है कि बैटरी चार्ज करते हुए, और फिर उस चार्जिंग से गाड़ी चलाते हुए बैटरी के भीतर कई किस्म की रासायनिक क्रिया होती है, और अगर बैटरी के भीतर रसायनों में किसी तरह की मिलावट होती है, तो उसकी नतीजा भी आग की शक्ल में सामने आ सकता है। फिर बिजली के कनेक्शन से जब बैटरी को चार्ज किया जाता है, तब भी हिन्दुस्तान में बिजली के ऐसे कनेक्शन कई बार स्तरहीन होते हैं, उनकी अर्थिंग सही नहीं होती है, और वैसे में चार्जिंग से मोबाइल फोन तक में आग लगने की खबरें आते ही रहती हैं, वैसी ही खबरें अब बैटरी-गाडिय़ों में चार्जिंग के दौरान आग लगने की आने लगी हैं। इसलिए बिजली से बैटरी चार्जिंग की तकनीक तो सही है, लेकिन बिजली का कनेक्शन सही और सुरक्षित होना भी उतना ही जरूरी होता है।
अभी भारत में इस तकनीक के कुछ जानकार लोगों से मीडिया की बातचीत में यह सामने आया है कि बहुत से नए-नए वाहन निर्माता रातोंरात पैदा हो गए हैं जिनके पास कुछ चीजों को जोडक़र एक दुपहिया खड़ा कर लेने और उसे बैटरी से दौड़ाने के सामान तो हैं, लेकिन उनके पास न तो देश भर में मरम्मत का ढांचा है, और न ही उन्हें अपने ब्रांड की किसी साख को निभाना है। ऐसे नए-नए खिलाड़ी इस नई तकनीक के साथ बाजार में हैं, और दिक्कत यह भी है कि भारत में सरकार का कोई ढांचा बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों की तकनीक के बारीक पैमाने तय करने वाला नहीं है, और बैटरियों की पुख्ता जांच का भी कोई तरीका आज भारत में प्रचलन में नहीं है। चूंकि बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों की बैटरियों का भरपूर इस्तेमाल होता है, उनकी रोजाना पूरी चार्जिंग होती है, फिर उससे गाड़ी चलती है, तो यह अब तक कारों में महज हॉर्न और लाईट के लिए रहने वाली मामूली बैटरी से बिल्कुल अलग तकनीक है, और गाडिय़ों के इतने बड़े ईंधन-स्रोत की पुख्ता जांच के लिए यह देश अभी तैयार नहीं है।
सरकार के सामने कई किस्म की चुनौतियां हैं। उसे देश के प्रदूषण को कम करने के अपने अंतरराष्ट्रीय वायदे को भी पूरा करना है, देश में पेट्रोल-डीजल गाडिय़ों के चलन को घटाना है, और बैटरी गाडिय़ों को बहुत तेजी से बढ़ाना भी है। इसलिए टेक्नालॉजी और मरम्मत के ढांचे का पुख्ता इंतजाम हुए बिना भी सरकार ने इन गाडिय़ों को बाजार में आने की इजाजत दे दी है। जैसा कि किसी भी तकनीक के पहले-पहल इस्तेमाल में होता है, हिन्दुस्तान में भी इन गाडिय़ों के साथ हादसे हो रहे हैं, और शायद ऐसे हर हादसे के बाद सरकार, कारोबार, और ग्राहक, इन सभी को काफी कुछ सीखने मिलेगा। लेकिन इनमें सबसे महंगा ग्राहक का सीखना होगा क्योंकि उसने बरसों की बचत को डालकर ऐसी गाड़ी खरीदी होगी, और उसके साथ हादसा होने पर वह ईंधन में बचत पाना तो दूर रहा, गाड़ी से भी हाथ धो बैठेगा।
देश और प्रदेशों की सरकारों को चाहिए कि बैटरी-गाडिय़ों की चार्जिंग और मरम्मत के इंतजाम में अपने नियमों और अधिकारों का इस्तेमाल करके इन्हें ग्राहकों के लिए आसान बनाएं। एक बेहतर कल के लिए कम कलपुर्जे वाली ऐसी गाडिय़ां जो बिना धुएं के चलती हैं, जो शोर नहीं करती हैं, वे जरूरी हैं। और ऐसी जरूरी सामान के साथ आज अगर कुछ खतरे हैं, तो उन खतरों को कम करना सरकार की जिम्मेदारी है। राज्यों को भी बैटरी गाडिय़ों की चार्जिंग वाली जगहों के बिजली कनेक्शनों की कड़ी जांच लागू करना चाहिए ताकि चार्जिंग के दौरान गाडिय़ां और इंसान जलने के हादसे न हों। बैटरी की टेक्नालॉजी ही भविष्य इसलिए है कि धीरे-धीरे बिजली से चार्जिंग के बजाय सोलर पैनल से चार्जिंग का भी तरीका इस्तेमाल होने लगेगा, और धरती एक बेहतर जगह बन सकेगी।
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छत्तीसगढ़ में अभी राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव चल रहा है। यह एक बड़ा कार्यक्रम है, और सरकार इसकी मेजबानी कर रही है। तीन दिनों तक लगातार लोग अपने शोधपत्र पढ़ेंगे, और सरकारी समाचार के आंकड़े बतलाते हैं कि सौ से अधिक शोधपत्र पढ़े जाएंगे। इसके अलावा मेजबान छत्तीसगढ़ अपने स्तर पर जनजातीय नृत्य महोत्सव और जनजातीय कला प्रतियोगिता भी आयोजित कर रहा है। जिन लोगों को जनजातीय से ठीक-ठीक अहसास नहीं हो पा रहा है, उन्हें यह बता देना ठीक होगा कि आम बोलचाल में जिन्हें आदिवासी कहा जाता है, यह उन्हीं पर केन्द्रित कार्यक्रम है। जो विभाग इसे करवा रहा है वह भी आदिम जाति कल्याण विभाग है, इस आयोजन को पता नहीं क्यों आदिवासी की जगह जनजातीय कहा गया है। खैर, किस तबके को किस नाम से बुलाया जाए यह एक अलग बहस हो सकती है, लेकिन जहां सौ से अधिक शोधपत्र पढ़े जाने हैं, वहां हम आज आदिवासियों के एक खास पहलू पर चर्चा करना चाहते हैं, जो कि इस आयोजन की सरकारी खबर में तो कम से कम नजर नहीं आ रहा है।
आज न सिर्फ हिन्दुस्तान के, बल्कि पूरी दुनिया के आदिवासी एक अभूतपूर्व तनाव से गुजर रहे हैं। उनके इलाके कहीं हथियारबंद नक्सलियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष की जगह बने हुए हैं, कहीं उन्हें बेदखल करके खदान खोदकर खनिज निकालने की तैयारी चल रही है, कहीं उनके जंगल काटे जा रहे हैं, और बेदखल तो उन्हें तमाम जगहों से किया ही जा रहा है। छत्तीसगढ़ में पिछली भाजपा सरकार के वक्त एक लाख या अधिक आदिवासियों को बस्तर में सरकारी सलवा-जुडूम के चलते प्रदेश छोडक़र बगल के आन्ध्र जाना पड़ा था, उनकी घरवापिसी अभी तक हो नहीं पाई है, और कुछ दिनों पहले की ताजा पहल बताती है कि उनमें से सौ परिवारों को वापिस लाकर बसाने पर सरकार सहमत हुई है। कश्मीर से कश्मीरी पंडितों की बेदखली पर तो कश्मीर फाइल्स नाम की एक फिल्म को एक रणनीति के तहत बनाया गया, लेकिन भाजपा शासन काल में बस्तर से बेदखल आदिवासियों पर कोई फिल्म भी नहीं बनी है। खैर, हम एक ही मुद्दे पर बात को खत्म करना नहीं चाहते, इसलिए आदिवासियों से जुड़े हुए दूसरे बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जो कि अभी छत्तीसगढ़ में चल रहे इस राष्ट्रीय आयोजन में उठने चाहिए थे। लेकिन शायद सरकार मेजबान है, इसलिए आयोजन में आए लोग सत्ता पर मेहरबान हैं, और आदिवासियों के मुद्दे किनारे धरकर किताबी बातचीत ही चल रही है।
ऐसा भी नहीं है कि आदिवासियों के मुद्दों को लेकर दुनिया में कहीं लिखा नहीं जा रहा है। उनके बीच के लोग जो साहित्य लिख रहे हैं, या आदिवासियों पर जो साहित्य लिखा जा रहा है, वह भारी राजनीतिक चेतना का है, और कई असुविधाजनक बुनियादी सवाल भी उठाता है। आज जंगलों से बेदखली आदिवासी जनजीवन का सबसे बड़ा मुद्दा है। आदिवासी जीवनशैली का परंपरागत खानपान आज हमले का शिकार है। सरकारी पढ़ाई और नौकरी की गिनती घटती जा रही है, और आदिवासी की संभावनाएं भी। इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए क्योंकि आज सरकारी संस्थाओं का निजीकरण, और सरकारी पढ़ाई की जगह निजी संस्थान बढ़ते चलने से आरक्षित तबके की संभावनाएं घटती जा रही हैं। ऐसे में आदिवासी बोली या दूसरे किस्म के आदिवासी साहित्य के बजाय आदिवासियों के जलते-सुलगते मुद्दों पर अधिक बात होनी चाहिए थी, और ऐसा भी नहीं है कि इन मुद्दों पर लिखने वाले साहित्यकार कम हैं।
और यह बात सिर्फ आदिवासी साहित्य के साथ हो ऐसा भी नहीं है, आज तमाम वही साहित्य महत्व पाता है जो कि जिंदगी की जलती-सुलगती हकीकत को अनदेखा करते चलता है। फिर देश भर में जहां-जहां सत्ता के संरक्षण में साहित्या या संस्कृति को बढ़ावा देने की कोशिश होती है वहां जलते-सुलगते मुद्दों का भला क्या काम? इसलिए आज जब छत्तीसगढ़ में तीन दिनों का इतना बड़ा आयोजन आदिवासी साहित्य और उनसे जुड़े हुए कुछ मुद्दों पर हो रहा है, तो बस्तर जैसे इलाके में बेकसूर आदिवासियों को नक्सल बताकर उनकी हत्या पर कोई बात नहीं है, उनकी महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों के बलात्कार पर कोई बात नहीं है, पिछली भाजपा सरकार के दौरान कुख्यात पुलिस अफसरों ने जिस तरह गांव के गांव जलाए, थोक में बेकसूरों को मारा, उन पर कोई बात नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इन मुद्दों पर कोई आदिवासी-साहित्य लेखन हो ही नहीं रहा है, या वैसे साहित्य पर चर्चा की कोई असुविधा झेलना ही नहीं चाहते? पूरे देश में खदानों के लिए, कारखानों के लिए आदिवासियों के जंगलों की कटाई और उन पर कब्जा हॉलीवुड की फिल्म अवतार के अंदाज में चल रहा है। सरकार और कारोबार का मिलाजुला बाहुबल इस काम में लगा है, और आदिवासियों की तकलीफ को जगह देने के लिए भारत के शहरी लोकतंत्र में कोई मंच भी नहीं बचा है। नतीजा यह है कि नक्सली बंदूकों की नाल से ही आदिवासी की आह निकल पा रही है। लेकिन छत्तीसगढ़ के तीन दिनों के इस आयोजन में सत्ता की आलोचना वाला देश भर में कई जगह आदिवासियों पर लिखा गया साहित्य किसी चर्चा मेें नहीं है। इसमें अटपटा कुछ नहीं है, सत्ता कभी अपने आयोजनों पर खर्च करते हुए उनमें अपनी आलोचना को न्यौता नहीं देती है। लेकिन इस आयोजन में जुटे सैकड़ों लोगों में से किसी ने भी यह आवाज नहीं उठाई है कि इतने बड़े आयोजन में आदिवासियों के दर्द की कोई आवाज नहीं है।
छत्तीसगढ़ सरकार चाहती तो कार्यक्रम के सरकारी होने पर भी उसमेें हकीकत को जगह दे सकती थी, छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर तकरीबन तमाम जुल्म पिछले पन्द्रह बरस की भाजपा सरकार के दौरान दर्ज हुए थे, लेकिन सत्ता शायद सत्ता होती है, और वह ऐसी असुविधा खड़ी करना नहीं चाहती जो कि उसके आज के कामकाज पर भी लागू हो, और भारी पड़े। लेकिन जैसा कि बहुत से अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में होता है, इस आयोजन के समानांतर भी एक स्वतंत्र आयोजन हो सकता था जिसमें आदिवासियों की तकलीफों, और उनके जख्मों पर चर्चा हो सकती थी, लेकिन शायद इस देश में अब असल मुद्दों पर आंदोलन चला पाना भी आसान नहीं रह गया है, कहीं उन्हें नक्सली करार दे दिया जाएगा, कहीं टुकड़े-टुकड़े गैंग, और कहीं देशद्रोही। फिर भी आदिवासी जिंदगी को लेकर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को ऐसे मौके पर जलते-सुलगते पहलुओं की नामौजूदगी की बात तो उठानी ही चाहिए। अब तक तो ऐसी कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ रही है।
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कई बार चीजों के सुधरने के पहले उनका पूरी तरह से बिगड़ जाना भी जरूरी होता है। हिन्दुस्तान में अभी धार्मिक कट्टरता को बढ़ाने का सबसे बड़ा हथियार, लाऊडस्पीकर इतना लाऊड होते चले गया था कि अब सरकारों को उसका गला दबाने की जरूरत महसूस हो रही है। बात शुरू तो हुई थी मस्जिदों में लगे हुए लाऊडस्पीकरों को बंद करवाने की साम्प्रदायिक जिद से, लेकिन अब देश के दो सबसे बड़े राज्य, महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश धर्मस्थलों के लाऊडस्पीकर पर काबू के लिए नियम बना रहे हैं। महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ शिवसेना-गठबंधन के शिवसेना-कुनबे से अलग हुए और पूरी तरह से महत्वहीन और अप्रासंगिक हो चुके राज ठाकरे ने मस्जिदों से लाऊडस्पीकर हटाने के लिए सरकार को तीन मई तक का अल्टीमेटम दिया है। राज ठाकरे को हिन्दू ओवैसी करार देते हुए भी शिवसेना को यह सोचना पड़ रहा है कि अगर मस्जिदों के सामने सचमुच ही लाऊडस्पीकर लगाकर हनुमान चालीसा पढ़ी जाएगी तो क्या उससे होने वाला टकराव सचमुच ही काबू किया जा सकेगा? और कुछ ऐसी ही मजबूरी सरकार चलाने के लिए उत्तरप्रदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की दिख रही है जिनके सामने अभी कोई चुनाव नहीं है, और अभी तुरंत किसी ध्रुवीकरण की मजबूरी नहीं है, तो ऐसे में योगी ने भी कल अपने अफसरों की बैठक लेकर कहा कि प्रदेश में किसी धर्मस्थल से उसके लाऊडस्पीकर की आवाज बाहर नहीं आनी चाहिए। यह बात मस्जिदों के अलावा दूसरे धर्मस्थलों पर भी लागू होगी, और हो सकता है कि देश में अराजकता और उससे खड़े होने वाले गृहयुद्ध सरीखे खतरे को टालने के लिए योगी का यह समय पर उठाया गया कदम है, और हमारा यह मानना है कि देश की तमाम सरकारों को यह करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट और बहुत से हाईकोर्ट के शोरगुल रोकने, धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों के लिए सडक़ों पर म्यूजिक सिस्टम बजाकर किए जाने वाले शोरगुल को रोकने के लिए अलग-अलग समय पर आए हुए आदेशों को राज्य सरकारों और पुलिस-प्रशासन ने मोटेतौर पर कचरे की टोकरी में डाल रखा है क्योंकि अराजक जनता को नाराज करने की जहमत उठाना कोई नहीं चाहते। अभी छत्तीसगढ़ में जिले के अफसरों ने हाईकोर्ट में हलफनामा दिया है कि वे शोरगुल को रोकेंगे, और उस दिन से आज तक हर दिन राजधानी रायपुर सडक़ों पर लाऊडस्पीकरों से घिरी हुई है, अदालती हुक्म और अदालत में अपने खुद के हलफनामे का भी कोई वजन नहीं रह गया है। ऐसे में राज्य सरकारों को पूरे राज्य के स्तर पर धार्मिक और साम्प्रदायिक टकराव को भी रोकना चाहिए, और धर्म के शोरगुल से लोगों को बचाने का काम भी करना चाहिए। धार्मिक टकराव बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ चुका है कि कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हनुमान जयंती मना रहे दो अलग-अलग समूहों के बीच आपस में झगड़ा हुआ, पथराव हुआ, और कई गिरफ्तारियां हुईं। अब अगर इन दो समूहों में से कोई एक किसी अलग धर्म का होता, तो साम्प्रदायिक तनाव की एक नौबत आ खड़ी होती।
जब धर्म शुरू हुए उस वक्त कोई लाऊडस्पीकर नहीं थे। ईश्वर अगर कहीं था, तो वह बिना लाऊडस्पीकर के भी संतुष्ट था। यह तो बाद के बरसों में टेक्नालॉजी ने लाऊडस्पीकर मुहैया कराए, और हमलावर मिजाज वाले तमाम धर्मों ने अपना बाहुबल दिखाने के लिए अधिक से अधिक लाऊडस्पीकर लगाना शुरू किया। कुछ धर्मों में उपासना के खास समय के लिए भी लाऊडस्पीकर लगाए गए, ताकि उनके आसपास बसे हुए उसी धर्म के लोगों को खबर हो जाए, और वे नमाज या किसी और किस्म की उपासना के लिए पहुंच जाएं। लेकिन टेक्नालॉजी ने ही लाऊडस्पीकर के बाद घडिय़ां हर कलाई पर पहुंचा दीं, दीवारों पर पहुंचा दीं, अलार्म घडिय़ां आ गईं, और अब तो हर किसी की जेब में अलार्म वाले मोबाइल फोन हो गए हैं। इसलिए अजान या भजन का वक्त बताने के लिए लाऊडस्पीकर की कोई जरूरत नहीं रह गई है। वैसे भी सैकड़ों बरस पहले ऐसी आवाज लगाने की खिल्ली उड़ाते हुए इतिहास के सबसे हौसलामंद और सुधारवादी संत-कवि कबीर ने लिखा था- कांकड़ पाथर जोडक़र मस्जिद लेई बनाए, तां चढ़ मुल्ला बांग दे बहरा हुआ खुदाय। मतलब यह कि कंकड़-पत्थर जोडक़र मस्जिद बना ली, और उस पर चढक़र मुल्ला इस तरह से अजान देता है कि मानो खुदा को कम सुनाई देता है।
जिन लोगों को यह लगता है कि लाऊडस्पीकरों पर रोक मुस्लिम समाज पर हमला है, उन्हें तमाम धर्मस्थलों से लाऊडस्पीकरों को हटाने को एक अलग नजरिये से देखना चाहिए। नमाज की अजान तो दिन में पांच बार एक-दो मिनटों की होती है, लेकिन दूसरे धर्मस्थलों से तो रात-रात भर लाऊडस्पीकर बजाकर आसपास के लोगों का जीना ही हराम कर दिया जाता है। अब अगर उत्तरप्रदेश में योगी के ताजा हुक्म से सभी धर्मस्थलों का धार्मिक शोर उनके अहाते के भीतर तक सीमित रख दिया जाएगा, तो इससे लोग एक बेहतर जिंदगी जी सकेंगे, और यह सिर्फ मुस्लिम समाज पर कोई हमला नहीं रहेगा। देश की हर प्रदेश सरकार को ऐसा ही हुक्म देना चाहिए और उसे पूरी कड़ाई से लागू करना चाहिए। हम इसी जगह पर यह बात लिखते आ रहे हैं कि धर्म को निजी आस्था या धार्मिक परिसर के भीतर का काम रखना चाहिए, और सडक़ों पर धर्म के बाहुबल का प्रदर्शन बंद करना चाहिए। उत्तरप्रदेश में कल मुख्यमंत्री ने बिना इजाजत धार्मिक जुलूस पर रोक लगाने की बात भी कही है। धार्मिक जुलूस की इजाजत ही नहीं देनी चाहिए क्योंकि यह देश बारूद के ढेर पर बैठा हुआ देश हो गया है, और किसी भी दिन किसी एक जगह का दंगा देश में दूसरे शहरों तक भी फैल सकता है। धर्मस्थलों का शोरगुल, और सडक़ों की आवाजाही तबाह करते धार्मिक जुलूस, दोनों ही पूरी तरह गैरजरूरी हैं, और दोनों से ढेर तनाव खड़े हो रहे हैं। समझदार राज्यों को इन दोनों पर तुरंत रोक लगानी चाहिए।
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