संपादकीय
फरवरी के आखिरी हफ्ते में यूक्रेन पर हुए रूसी हमले को दो महीने होने जा रहे हैं, और अब तक हजारों यूक्रेनी नागरिक भी रूसी सैनिकों के हाथों और रूसी बमबारी से, टैंक के हमलों से मारे गए हैं। दसियों लाख लोग यूक्रेन छोडक़र जाने मजबूर हुए हैं जिन्हें अड़ोस-पड़ोस के देशों से लेकर अमरीका तक में शरण दी जा रही है। यूक्रेन का ढांचा बहुत बुरी तबाह हो चुका है, वहां की कलादीर्घाएं, संग्रहालय, वहां की इमारतें, विश्वविद्यालय तबाह हो चुके हैं। और दुबारा यह देश कैसे खड़ा हो सकेगा, इसकी कल्पना भी आसान नहीं है। जो लोग वहां बच गए हैं, उनमें अधिकतर बुजुर्ग लोग हैं जो कि लंबा सफर करके किसी दूसरे देश जाने की हालत में भी नहीं हैं, और जिन्हें अब बाकी जिंदगी अपने पुराने घर से परे रहने की हिम्मत भी नहीं है। ऐसी नौबत में योरप के देश और अमरीका रूस के खिलाफ यूक्रेन की मदद करने में कम या अधिक हद तक लगे हुए हैं, और इस मदद का अधिकतर हिस्सा हथियारों की शक्ल में है ताकि यूक्रेन रूसी हमले का सामना कर सके। अधिक बारीक जुबान में अगर बात करें तो ये देश यूक्रेन को ऐसे हथियार अधिक दे रहे हैं जिनसे वह अपने को बचा सके, वह रूस पर हमला कर सके ऐसे हथियार देने से योरप के नाटो-सदस्य देश भी कतरा रहे हैं, और अमरीका भी। ये मददगार देश इस तोहमत से बचना चाहते हैं कि उन्होंने रूस-यूक्रेन की जंग को बढ़ाने का काम किया, और वह जंग बढक़र तीसरे विश्वयुद्ध तक, या कि परमाणु युद्ध तक पहुंच गई।
हम इसी जगह पर पहले भी लिख चुके हैं कि अंतरराष्ट्रीय सैनिक संगठन, नाटो के सदस्य देशों के सामने रूस का फौजी खतरा हमेशा ही खड़ा रहता है। और अमरीका तो रूस का परंपरागत प्रतिद्वंद्वी देश है ही, जो कि कुछ मायनों में एक दुश्मन देश सरीखा भी है। अब ऐसे में योरप के देशों, या नाटो-सदस्यों, और अमरीका का मिलाजुला निजी हित इसमें है कि रूस का अधिक से अधिक फौजी और कारोबारी नुकसान हो सके। अगर रूस कमजोर होता है, तो पश्चिमी ताकतें अधिक मजबूत होती हैं। ऐसे समीकरण के बीच यूक्रेन की शक्ल में अमरीका और नाटो-सदस्यों को एक ऐसा लड़ाकू देश मिल गया है जो कि किसी भी कीमत पर रूसी हमले का मुकाबला करने के लिए तैयार है। दुनिया के इतिहास में शायद ही ऐसा कोई दूसरा राष्ट्रपति रहा हो जो कि एक टी-शर्ट में महीनों गुजार रहा है, बंकरों में जी रहा है, और रूसी हमले से निपटने की जिसकी हसरत अपार बनी हुई है। अपने देश के नागरिकों और फौजियों की अनगिनत मौतों की कीमत पर भी यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की रूस का मुकाबला करने को तैयार है, और हर दिन वह वीडियो कांफ्रेंस पर दुनिया के किसी न किसी देश की संसद से अपील करता है कि यूक्रेन को फौजी साज-सामान की मदद करें। यह मदद आ रही है, इसकी वजह से रूस का फौजी नुकसान भी हो रहा है, लेकिन इस मदद का इस्तेमाल करते हुए खुद यूक्रेन के फौजी मारे जा रहे हैं, या फिर वे रूस के युद्धबंदी होकर एक अनिश्चित और खतरनाक भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं। यूक्रेन में रूसी हमले, और बाद की चल रही जंग के दौरान दसियों हजार नागरिकों की मौत तय है, पूरे देश की तबाही तो हो ही चुकी है, दसियों लाख नागरिक शरणार्थी होकर दूसरे देशों में चले गए हैं।
अब रूसी हमले को पूरी तरह नाजायज और गुंडागर्दी मानते हुए भी हम आज की इस नौबत पर जब सोचते हैं तो लगता है कि अमरीका और नाटो-सदस्य देश किस कीमत पर इस लड़ाई को जारी रखे हुए हैं? इन तमाम देशों से अरबों डॉलर की फौजी मदद तो यूक्रेन जा रही है, लेकिन इनमें से किसी का भी एक सैनिक भी वहां लडऩे नहीं गया है। किसी देश के लिए सबसे खतरनाक नौबत यही रहती है कि किसी दूसरे और तीसरे देश की लड़ाई में उसके अपने सैनिकों के ताबूत घर लौटें। इराक और अफगानिस्तान के भी पहले वियतनाम में अमरीका यह भुगत चुका है, और अभी-अभी अफगानिस्तान से मुंह काला कराकर लौटा हुआ अमरीका दुनिया के किसी मोर्चे पर अपनी फौज को झोंकना नहीं चाहता है, शायद उसकी औकात और हिम्मत भी नहीं रह गई है। ऐसी नौबत में रूस को नुकसान पहुंचाने की पश्चिमी नीयत पश्चिम के पैसों से तो पूरी हो रही है, लेकिन उसमें जिंदगियां यूक्रेन की जा रही है। वहां के सैनिक भी मारे जा रहे हैं, वहां के नागरिक भी मारे जा रहे हैं, और वह पूरे का पूरा देश दुनिया का सबसे बड़ा खंडहर बनने जा रहा है। रूस की संपन्नता तो इतनी है कि वह अपने तेल, गैस, और खनिज बेचकर आने वाले बरसों में किसी तरह खड़ा रहेगा, लेकिन यूक्रेन रहेगा भी या नहीं, इसी का कोई ठिकाना नहीं है। रूस के खिलाफ उसे उकसाकर मोर्चे पर डटाए रखने वाले देश शायद ही इस युद्ध को तीसरे विश्वयुद्ध में बदलने की नौबत खड़ी करेंगे। जिस जंग को किसी तर्कसंगत अंत तक ले जाना पश्चिमी देशों के हाथ में नहीं हैं, उसे इस तरह जारी रखवाना एक खतरनाक खेल है। अपने निजी स्वार्थों के चलते इन देशों को यूक्रेन को जंग में खड़े रखना अच्छा लग रहा है, लेकिन यह एक ऐसी मदद है जिसमें यूक्रेन की जिंदगी और उस देश को बचाने की कोई योजना नहीं है। यह मदद तब तक जारी है जब तक यूक्रेन रूस के खिलाफ डटा हुआ है, और रूस को कोई नुकसान पहुंचा पा रहा है। इसके बाद अगर यूक्रेन नाम का देश बचता है, तो उसके पुनर्निर्माण के लिए इनमेें से कौन से देश कितनी मदद करेंगे, और उससे कितनी जरूरतें पूरी होगी यह आने वाला वक्त बताएगा। फिलहाल तो यूक्रेन को घोड़े पर सवार करके पश्चिम के देश एक खेल खेलते दिख रहे हैं।
लोगों को याद होगा कि 1971 में पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच एक तनाव और संघर्ष चल रहा था, और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने पश्चिम में बसी हुई राजधानी और सरकार के खिलाफ एक मोर्चा खोल रखा था। उस वक्त भारत ने पूर्वी पाकिस्तान का साथ दिया था, और पाकिस्तान की फौज को भारत के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा था, बांग्लादेश बना था, और पाकिस्तान के हाथ से पूरब का अपना पूरा हिस्सा चले ही गया। लेकिन उस नौबत में अगर आत्मसमर्पण नहीं हुआ रहता, तो बहुत खून-खराबा होता। अब अगर उस वक्त अमरीका पाकिस्तान की फौजी मदद को उतरा रहता, और पाकिस्तान की फौज उस झांसे में आकर उस जंग को जारी रखती, तो क्या पाकिस्तान का सचमुच कोई भला हुआ रहता? इतिहास को लेकर कल्पना ठीक नहीं है, लेकिन बिना किसी विदेशी मदद के पाकिस्तान ने उस वक्त हिन्दुस्तान के सामने आत्मसमर्पण किया, और अपने देश का विभाजन होने दिया। अब आज अगर यूक्रेन बिना पश्चिमी मदद के अब तक आत्मसमर्पण करने के बारे में सोच भी पाया होता, तो आज पश्चिमी देशों ने वह संभावना उसके सामने से छीन ली है। आज उसे इतना फौजी सामान भेजा जा रहा है कि वह कहीं रूस के सामने आत्मसमर्पण न करे दे, और रूस योरप के और भीतर तक अपने टैंक न पहुंचा दे। दुनिया के फौजी ताकत वाले देश न तो यूक्रेन को अपनी फौजी-औकात में जीने दे रहे, और न ही इस लड़ाई को खत्म होने दे रहे। जिस जंग में शामिल होने के लिए ये देश तैयार नहीं हैं, क्या उस जंग को बड़ी मौतों और बड़ी तबाही की कीमत पर भी जारी रखवाना एक नैतिक काम है? कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि यूक्रेन में अमरीका और नाटो रूस के खिलाफ एक प्रॉक्सी युद्ध लड़ रहे हैं। यानी दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चला रहे हैं, और यूक्रेन ने लड़ाई की अपनी क्षमता के बाहर जाकर भी अपना कंधा मुहैया कराया है। अब सोचने की बात यह है कि यूक्रेन को चने के झाड़ पर चढ़ाकर क्या उसका साथ दिया जा रहा है, या उसका इस्तेमाल किया जा रहा है? यह सवाल छोटा नहीं है, और यूक्रेनी लोगों के भले के लिए इस सवाल का जवाब ढूंढना जरूरी है।
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हिन्दुस्तान में पेट्रोल और डीजल के अंधाधुंध बढ़ते हुए दामों के चलते हुए, और सरकारी रियायतों की वजह से भी बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों का चलन तेजी से बढ़ रहा है। बिजली से चार्ज होने वाली बैटरियों पर ईंधन की लागत पेट्रोल-डीजल के मुकाबले बहुत कम आ रही है, और यही वजह है कि लोगों को इन्हीं गाडिय़ों का भविष्य दिख रहा है, और है भी। इसके साथ-साथ बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों में डीजल-पेट्रोल को ऊर्जा में बदलने वाले इंजन का कोई काम नहीं रहता, इसलिए उसमें पुर्जे बहुत कम लगते हैं, उसकी आवाज नहीं के बराबर होती है, और उससे कोई धुआं नहीं निकलता। लेकिन दुनिया में कोई भी चीज एक हसीन सपने की तरह खूबसूरत नहीं हो सकती, इसलिए पिछले कुछ महीनों में हर हफ्ते हिन्दुस्तान में एक से अधिक बैटरी वाहनों में आग लग रही है, चलते-चलते सडक़ पर भी लग रही है, और घर में चार्जिंग के दौरान भी बैटरी-गाडिय़ां जल रही हैं। ऐसी एक आगजनी में उसी कमरे में सोए बाप-बेटी भी जल मरे हैं।
एक तरफ तो जिन शहरों में बैटरी से चलने वाले ऑटोरिक्शा बढ़ते जा रहे हैं वहां सडक़ों पर शोर घट गया है, और चौराहों पर धुआं। लोग राहत की सांस ले रहे हैं, और बैटरी से चलने वाले ऑटोरिक्शा इतने आसान भी हैं कि छत्तीसगढ़ में हजारों महिलाएं मुसाफिर-ऑटोरिक्शा चलाने लगी हैं। भारत में सरकार ने भी आने वाले बरसों में बहुत तेजी से बैटरी-गाडिय़ों का अनुपात बढ़ाने की घोषणा की है, और इसी अनुपात में डीजल-पेट्रोल की खपत में कमी भी आते जाएगी। यह सब कुछ पर्यावरण के हिसाब से भी बेहतर तस्वीर लग रही है, लेकिन इसमें एक दिक्कत भी आ रही है। उस दिक्कत पर चर्चा जरूरी है।
जानकार लोगों का कहना है कि बैटरी वाली गाडिय़ों में आग लगने के पीछे उनकी बैटरी घटिया होना एक बड़ी वजह हो सकती है। आज हिन्दुस्तान में कोई बैटरियां इन गाडिय़ों के लिए शायद बन नहीं रही हैं, और चीन बाकी बहुत से सामानों की तरह इस चीज का भी सबसे बड़े निर्माता है। तकनीकी जानकारी रखने वालों का कहना है कि बैटरी चार्ज करते हुए, और फिर उस चार्जिंग से गाड़ी चलाते हुए बैटरी के भीतर कई किस्म की रासायनिक क्रिया होती है, और अगर बैटरी के भीतर रसायनों में किसी तरह की मिलावट होती है, तो उसकी नतीजा भी आग की शक्ल में सामने आ सकता है। फिर बिजली के कनेक्शन से जब बैटरी को चार्ज किया जाता है, तब भी हिन्दुस्तान में बिजली के ऐसे कनेक्शन कई बार स्तरहीन होते हैं, उनकी अर्थिंग सही नहीं होती है, और वैसे में चार्जिंग से मोबाइल फोन तक में आग लगने की खबरें आते ही रहती हैं, वैसी ही खबरें अब बैटरी-गाडिय़ों में चार्जिंग के दौरान आग लगने की आने लगी हैं। इसलिए बिजली से बैटरी चार्जिंग की तकनीक तो सही है, लेकिन बिजली का कनेक्शन सही और सुरक्षित होना भी उतना ही जरूरी होता है।
अभी भारत में इस तकनीक के कुछ जानकार लोगों से मीडिया की बातचीत में यह सामने आया है कि बहुत से नए-नए वाहन निर्माता रातोंरात पैदा हो गए हैं जिनके पास कुछ चीजों को जोडक़र एक दुपहिया खड़ा कर लेने और उसे बैटरी से दौड़ाने के सामान तो हैं, लेकिन उनके पास न तो देश भर में मरम्मत का ढांचा है, और न ही उन्हें अपने ब्रांड की किसी साख को निभाना है। ऐसे नए-नए खिलाड़ी इस नई तकनीक के साथ बाजार में हैं, और दिक्कत यह भी है कि भारत में सरकार का कोई ढांचा बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों की तकनीक के बारीक पैमाने तय करने वाला नहीं है, और बैटरियों की पुख्ता जांच का भी कोई तरीका आज भारत में प्रचलन में नहीं है। चूंकि बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों की बैटरियों का भरपूर इस्तेमाल होता है, उनकी रोजाना पूरी चार्जिंग होती है, फिर उससे गाड़ी चलती है, तो यह अब तक कारों में महज हॉर्न और लाईट के लिए रहने वाली मामूली बैटरी से बिल्कुल अलग तकनीक है, और गाडिय़ों के इतने बड़े ईंधन-स्रोत की पुख्ता जांच के लिए यह देश अभी तैयार नहीं है।
सरकार के सामने कई किस्म की चुनौतियां हैं। उसे देश के प्रदूषण को कम करने के अपने अंतरराष्ट्रीय वायदे को भी पूरा करना है, देश में पेट्रोल-डीजल गाडिय़ों के चलन को घटाना है, और बैटरी गाडिय़ों को बहुत तेजी से बढ़ाना भी है। इसलिए टेक्नालॉजी और मरम्मत के ढांचे का पुख्ता इंतजाम हुए बिना भी सरकार ने इन गाडिय़ों को बाजार में आने की इजाजत दे दी है। जैसा कि किसी भी तकनीक के पहले-पहल इस्तेमाल में होता है, हिन्दुस्तान में भी इन गाडिय़ों के साथ हादसे हो रहे हैं, और शायद ऐसे हर हादसे के बाद सरकार, कारोबार, और ग्राहक, इन सभी को काफी कुछ सीखने मिलेगा। लेकिन इनमें सबसे महंगा ग्राहक का सीखना होगा क्योंकि उसने बरसों की बचत को डालकर ऐसी गाड़ी खरीदी होगी, और उसके साथ हादसा होने पर वह ईंधन में बचत पाना तो दूर रहा, गाड़ी से भी हाथ धो बैठेगा।
देश और प्रदेशों की सरकारों को चाहिए कि बैटरी-गाडिय़ों की चार्जिंग और मरम्मत के इंतजाम में अपने नियमों और अधिकारों का इस्तेमाल करके इन्हें ग्राहकों के लिए आसान बनाएं। एक बेहतर कल के लिए कम कलपुर्जे वाली ऐसी गाडिय़ां जो बिना धुएं के चलती हैं, जो शोर नहीं करती हैं, वे जरूरी हैं। और ऐसी जरूरी सामान के साथ आज अगर कुछ खतरे हैं, तो उन खतरों को कम करना सरकार की जिम्मेदारी है। राज्यों को भी बैटरी गाडिय़ों की चार्जिंग वाली जगहों के बिजली कनेक्शनों की कड़ी जांच लागू करना चाहिए ताकि चार्जिंग के दौरान गाडिय़ां और इंसान जलने के हादसे न हों। बैटरी की टेक्नालॉजी ही भविष्य इसलिए है कि धीरे-धीरे बिजली से चार्जिंग के बजाय सोलर पैनल से चार्जिंग का भी तरीका इस्तेमाल होने लगेगा, और धरती एक बेहतर जगह बन सकेगी।
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छत्तीसगढ़ में अभी राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव चल रहा है। यह एक बड़ा कार्यक्रम है, और सरकार इसकी मेजबानी कर रही है। तीन दिनों तक लगातार लोग अपने शोधपत्र पढ़ेंगे, और सरकारी समाचार के आंकड़े बतलाते हैं कि सौ से अधिक शोधपत्र पढ़े जाएंगे। इसके अलावा मेजबान छत्तीसगढ़ अपने स्तर पर जनजातीय नृत्य महोत्सव और जनजातीय कला प्रतियोगिता भी आयोजित कर रहा है। जिन लोगों को जनजातीय से ठीक-ठीक अहसास नहीं हो पा रहा है, उन्हें यह बता देना ठीक होगा कि आम बोलचाल में जिन्हें आदिवासी कहा जाता है, यह उन्हीं पर केन्द्रित कार्यक्रम है। जो विभाग इसे करवा रहा है वह भी आदिम जाति कल्याण विभाग है, इस आयोजन को पता नहीं क्यों आदिवासी की जगह जनजातीय कहा गया है। खैर, किस तबके को किस नाम से बुलाया जाए यह एक अलग बहस हो सकती है, लेकिन जहां सौ से अधिक शोधपत्र पढ़े जाने हैं, वहां हम आज आदिवासियों के एक खास पहलू पर चर्चा करना चाहते हैं, जो कि इस आयोजन की सरकारी खबर में तो कम से कम नजर नहीं आ रहा है।
आज न सिर्फ हिन्दुस्तान के, बल्कि पूरी दुनिया के आदिवासी एक अभूतपूर्व तनाव से गुजर रहे हैं। उनके इलाके कहीं हथियारबंद नक्सलियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष की जगह बने हुए हैं, कहीं उन्हें बेदखल करके खदान खोदकर खनिज निकालने की तैयारी चल रही है, कहीं उनके जंगल काटे जा रहे हैं, और बेदखल तो उन्हें तमाम जगहों से किया ही जा रहा है। छत्तीसगढ़ में पिछली भाजपा सरकार के वक्त एक लाख या अधिक आदिवासियों को बस्तर में सरकारी सलवा-जुडूम के चलते प्रदेश छोडक़र बगल के आन्ध्र जाना पड़ा था, उनकी घरवापिसी अभी तक हो नहीं पाई है, और कुछ दिनों पहले की ताजा पहल बताती है कि उनमें से सौ परिवारों को वापिस लाकर बसाने पर सरकार सहमत हुई है। कश्मीर से कश्मीरी पंडितों की बेदखली पर तो कश्मीर फाइल्स नाम की एक फिल्म को एक रणनीति के तहत बनाया गया, लेकिन भाजपा शासन काल में बस्तर से बेदखल आदिवासियों पर कोई फिल्म भी नहीं बनी है। खैर, हम एक ही मुद्दे पर बात को खत्म करना नहीं चाहते, इसलिए आदिवासियों से जुड़े हुए दूसरे बहुत से ऐसे मुद्दे हैं जो कि अभी छत्तीसगढ़ में चल रहे इस राष्ट्रीय आयोजन में उठने चाहिए थे। लेकिन शायद सरकार मेजबान है, इसलिए आयोजन में आए लोग सत्ता पर मेहरबान हैं, और आदिवासियों के मुद्दे किनारे धरकर किताबी बातचीत ही चल रही है।
ऐसा भी नहीं है कि आदिवासियों के मुद्दों को लेकर दुनिया में कहीं लिखा नहीं जा रहा है। उनके बीच के लोग जो साहित्य लिख रहे हैं, या आदिवासियों पर जो साहित्य लिखा जा रहा है, वह भारी राजनीतिक चेतना का है, और कई असुविधाजनक बुनियादी सवाल भी उठाता है। आज जंगलों से बेदखली आदिवासी जनजीवन का सबसे बड़ा मुद्दा है। आदिवासी जीवनशैली का परंपरागत खानपान आज हमले का शिकार है। सरकारी पढ़ाई और नौकरी की गिनती घटती जा रही है, और आदिवासी की संभावनाएं भी। इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए क्योंकि आज सरकारी संस्थाओं का निजीकरण, और सरकारी पढ़ाई की जगह निजी संस्थान बढ़ते चलने से आरक्षित तबके की संभावनाएं घटती जा रही हैं। ऐसे में आदिवासी बोली या दूसरे किस्म के आदिवासी साहित्य के बजाय आदिवासियों के जलते-सुलगते मुद्दों पर अधिक बात होनी चाहिए थी, और ऐसा भी नहीं है कि इन मुद्दों पर लिखने वाले साहित्यकार कम हैं।
और यह बात सिर्फ आदिवासी साहित्य के साथ हो ऐसा भी नहीं है, आज तमाम वही साहित्य महत्व पाता है जो कि जिंदगी की जलती-सुलगती हकीकत को अनदेखा करते चलता है। फिर देश भर में जहां-जहां सत्ता के संरक्षण में साहित्या या संस्कृति को बढ़ावा देने की कोशिश होती है वहां जलते-सुलगते मुद्दों का भला क्या काम? इसलिए आज जब छत्तीसगढ़ में तीन दिनों का इतना बड़ा आयोजन आदिवासी साहित्य और उनसे जुड़े हुए कुछ मुद्दों पर हो रहा है, तो बस्तर जैसे इलाके में बेकसूर आदिवासियों को नक्सल बताकर उनकी हत्या पर कोई बात नहीं है, उनकी महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों के बलात्कार पर कोई बात नहीं है, पिछली भाजपा सरकार के दौरान कुख्यात पुलिस अफसरों ने जिस तरह गांव के गांव जलाए, थोक में बेकसूरों को मारा, उन पर कोई बात नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इन मुद्दों पर कोई आदिवासी-साहित्य लेखन हो ही नहीं रहा है, या वैसे साहित्य पर चर्चा की कोई असुविधा झेलना ही नहीं चाहते? पूरे देश में खदानों के लिए, कारखानों के लिए आदिवासियों के जंगलों की कटाई और उन पर कब्जा हॉलीवुड की फिल्म अवतार के अंदाज में चल रहा है। सरकार और कारोबार का मिलाजुला बाहुबल इस काम में लगा है, और आदिवासियों की तकलीफ को जगह देने के लिए भारत के शहरी लोकतंत्र में कोई मंच भी नहीं बचा है। नतीजा यह है कि नक्सली बंदूकों की नाल से ही आदिवासी की आह निकल पा रही है। लेकिन छत्तीसगढ़ के तीन दिनों के इस आयोजन में सत्ता की आलोचना वाला देश भर में कई जगह आदिवासियों पर लिखा गया साहित्य किसी चर्चा मेें नहीं है। इसमें अटपटा कुछ नहीं है, सत्ता कभी अपने आयोजनों पर खर्च करते हुए उनमें अपनी आलोचना को न्यौता नहीं देती है। लेकिन इस आयोजन में जुटे सैकड़ों लोगों में से किसी ने भी यह आवाज नहीं उठाई है कि इतने बड़े आयोजन में आदिवासियों के दर्द की कोई आवाज नहीं है।
छत्तीसगढ़ सरकार चाहती तो कार्यक्रम के सरकारी होने पर भी उसमेें हकीकत को जगह दे सकती थी, छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर तकरीबन तमाम जुल्म पिछले पन्द्रह बरस की भाजपा सरकार के दौरान दर्ज हुए थे, लेकिन सत्ता शायद सत्ता होती है, और वह ऐसी असुविधा खड़ी करना नहीं चाहती जो कि उसके आज के कामकाज पर भी लागू हो, और भारी पड़े। लेकिन जैसा कि बहुत से अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में होता है, इस आयोजन के समानांतर भी एक स्वतंत्र आयोजन हो सकता था जिसमें आदिवासियों की तकलीफों, और उनके जख्मों पर चर्चा हो सकती थी, लेकिन शायद इस देश में अब असल मुद्दों पर आंदोलन चला पाना भी आसान नहीं रह गया है, कहीं उन्हें नक्सली करार दे दिया जाएगा, कहीं टुकड़े-टुकड़े गैंग, और कहीं देशद्रोही। फिर भी आदिवासी जिंदगी को लेकर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को ऐसे मौके पर जलते-सुलगते पहलुओं की नामौजूदगी की बात तो उठानी ही चाहिए। अब तक तो ऐसी कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ रही है।
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कई बार चीजों के सुधरने के पहले उनका पूरी तरह से बिगड़ जाना भी जरूरी होता है। हिन्दुस्तान में अभी धार्मिक कट्टरता को बढ़ाने का सबसे बड़ा हथियार, लाऊडस्पीकर इतना लाऊड होते चले गया था कि अब सरकारों को उसका गला दबाने की जरूरत महसूस हो रही है। बात शुरू तो हुई थी मस्जिदों में लगे हुए लाऊडस्पीकरों को बंद करवाने की साम्प्रदायिक जिद से, लेकिन अब देश के दो सबसे बड़े राज्य, महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश धर्मस्थलों के लाऊडस्पीकर पर काबू के लिए नियम बना रहे हैं। महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ शिवसेना-गठबंधन के शिवसेना-कुनबे से अलग हुए और पूरी तरह से महत्वहीन और अप्रासंगिक हो चुके राज ठाकरे ने मस्जिदों से लाऊडस्पीकर हटाने के लिए सरकार को तीन मई तक का अल्टीमेटम दिया है। राज ठाकरे को हिन्दू ओवैसी करार देते हुए भी शिवसेना को यह सोचना पड़ रहा है कि अगर मस्जिदों के सामने सचमुच ही लाऊडस्पीकर लगाकर हनुमान चालीसा पढ़ी जाएगी तो क्या उससे होने वाला टकराव सचमुच ही काबू किया जा सकेगा? और कुछ ऐसी ही मजबूरी सरकार चलाने के लिए उत्तरप्रदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की दिख रही है जिनके सामने अभी कोई चुनाव नहीं है, और अभी तुरंत किसी ध्रुवीकरण की मजबूरी नहीं है, तो ऐसे में योगी ने भी कल अपने अफसरों की बैठक लेकर कहा कि प्रदेश में किसी धर्मस्थल से उसके लाऊडस्पीकर की आवाज बाहर नहीं आनी चाहिए। यह बात मस्जिदों के अलावा दूसरे धर्मस्थलों पर भी लागू होगी, और हो सकता है कि देश में अराजकता और उससे खड़े होने वाले गृहयुद्ध सरीखे खतरे को टालने के लिए योगी का यह समय पर उठाया गया कदम है, और हमारा यह मानना है कि देश की तमाम सरकारों को यह करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट और बहुत से हाईकोर्ट के शोरगुल रोकने, धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों के लिए सडक़ों पर म्यूजिक सिस्टम बजाकर किए जाने वाले शोरगुल को रोकने के लिए अलग-अलग समय पर आए हुए आदेशों को राज्य सरकारों और पुलिस-प्रशासन ने मोटेतौर पर कचरे की टोकरी में डाल रखा है क्योंकि अराजक जनता को नाराज करने की जहमत उठाना कोई नहीं चाहते। अभी छत्तीसगढ़ में जिले के अफसरों ने हाईकोर्ट में हलफनामा दिया है कि वे शोरगुल को रोकेंगे, और उस दिन से आज तक हर दिन राजधानी रायपुर सडक़ों पर लाऊडस्पीकरों से घिरी हुई है, अदालती हुक्म और अदालत में अपने खुद के हलफनामे का भी कोई वजन नहीं रह गया है। ऐसे में राज्य सरकारों को पूरे राज्य के स्तर पर धार्मिक और साम्प्रदायिक टकराव को भी रोकना चाहिए, और धर्म के शोरगुल से लोगों को बचाने का काम भी करना चाहिए। धार्मिक टकराव बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ चुका है कि कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हनुमान जयंती मना रहे दो अलग-अलग समूहों के बीच आपस में झगड़ा हुआ, पथराव हुआ, और कई गिरफ्तारियां हुईं। अब अगर इन दो समूहों में से कोई एक किसी अलग धर्म का होता, तो साम्प्रदायिक तनाव की एक नौबत आ खड़ी होती।
जब धर्म शुरू हुए उस वक्त कोई लाऊडस्पीकर नहीं थे। ईश्वर अगर कहीं था, तो वह बिना लाऊडस्पीकर के भी संतुष्ट था। यह तो बाद के बरसों में टेक्नालॉजी ने लाऊडस्पीकर मुहैया कराए, और हमलावर मिजाज वाले तमाम धर्मों ने अपना बाहुबल दिखाने के लिए अधिक से अधिक लाऊडस्पीकर लगाना शुरू किया। कुछ धर्मों में उपासना के खास समय के लिए भी लाऊडस्पीकर लगाए गए, ताकि उनके आसपास बसे हुए उसी धर्म के लोगों को खबर हो जाए, और वे नमाज या किसी और किस्म की उपासना के लिए पहुंच जाएं। लेकिन टेक्नालॉजी ने ही लाऊडस्पीकर के बाद घडिय़ां हर कलाई पर पहुंचा दीं, दीवारों पर पहुंचा दीं, अलार्म घडिय़ां आ गईं, और अब तो हर किसी की जेब में अलार्म वाले मोबाइल फोन हो गए हैं। इसलिए अजान या भजन का वक्त बताने के लिए लाऊडस्पीकर की कोई जरूरत नहीं रह गई है। वैसे भी सैकड़ों बरस पहले ऐसी आवाज लगाने की खिल्ली उड़ाते हुए इतिहास के सबसे हौसलामंद और सुधारवादी संत-कवि कबीर ने लिखा था- कांकड़ पाथर जोडक़र मस्जिद लेई बनाए, तां चढ़ मुल्ला बांग दे बहरा हुआ खुदाय। मतलब यह कि कंकड़-पत्थर जोडक़र मस्जिद बना ली, और उस पर चढक़र मुल्ला इस तरह से अजान देता है कि मानो खुदा को कम सुनाई देता है।
जिन लोगों को यह लगता है कि लाऊडस्पीकरों पर रोक मुस्लिम समाज पर हमला है, उन्हें तमाम धर्मस्थलों से लाऊडस्पीकरों को हटाने को एक अलग नजरिये से देखना चाहिए। नमाज की अजान तो दिन में पांच बार एक-दो मिनटों की होती है, लेकिन दूसरे धर्मस्थलों से तो रात-रात भर लाऊडस्पीकर बजाकर आसपास के लोगों का जीना ही हराम कर दिया जाता है। अब अगर उत्तरप्रदेश में योगी के ताजा हुक्म से सभी धर्मस्थलों का धार्मिक शोर उनके अहाते के भीतर तक सीमित रख दिया जाएगा, तो इससे लोग एक बेहतर जिंदगी जी सकेंगे, और यह सिर्फ मुस्लिम समाज पर कोई हमला नहीं रहेगा। देश की हर प्रदेश सरकार को ऐसा ही हुक्म देना चाहिए और उसे पूरी कड़ाई से लागू करना चाहिए। हम इसी जगह पर यह बात लिखते आ रहे हैं कि धर्म को निजी आस्था या धार्मिक परिसर के भीतर का काम रखना चाहिए, और सडक़ों पर धर्म के बाहुबल का प्रदर्शन बंद करना चाहिए। उत्तरप्रदेश में कल मुख्यमंत्री ने बिना इजाजत धार्मिक जुलूस पर रोक लगाने की बात भी कही है। धार्मिक जुलूस की इजाजत ही नहीं देनी चाहिए क्योंकि यह देश बारूद के ढेर पर बैठा हुआ देश हो गया है, और किसी भी दिन किसी एक जगह का दंगा देश में दूसरे शहरों तक भी फैल सकता है। धर्मस्थलों का शोरगुल, और सडक़ों की आवाजाही तबाह करते धार्मिक जुलूस, दोनों ही पूरी तरह गैरजरूरी हैं, और दोनों से ढेर तनाव खड़े हो रहे हैं। समझदार राज्यों को इन दोनों पर तुरंत रोक लगानी चाहिए।
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किसी नई सोच के लिए कई बार नए किस्म के लोगों की जरूरत पड़ती है। अब देश की नई राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेताओं को धर्म के बारे में कुछ कहते हुए संसद और विधानसभाओं में अपनी सीटों का खतरा अधिक दिखता होगा, इसलिए किसी छोटी पार्टी के नेता की ऐसी बात कह सकते थे कि देश में धार्मिक जुलूसों पर रोक लगाई जाए। बिहार के एक पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने यह ट्वीट किया है कि अब वक्त आ गया है जब देश में हर तरह के धार्मिक जुलूस पर रोक लगा दी जाए, धार्मिक जुलूसों के कारण देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है, इन्हें तुरंत रोकना होगा।
जीतन राम मांझी दलित समुदाय के हैं, और शायद अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि भी उन्हें धर्म के खतरे को समझने में मदद कर रही है। दलित समुदाय धर्म की मार को हमेशा ही झेलते आया है, और जीतन राम मांझी उत्तर भारत के बिहार की राजनीति में हैं, तो यह जाहिर है कि उन्होंने दलितों के साथ धर्म के सुलूक को अच्छी तरह देखा होगा। और आज हिन्दुस्तान में जिन लोगों को रोजी-रोटी और परिवार की फिक्र है, उनमें से बहुत से लोगों की मन की बात मांझी ने की है। इंसान और समाज दोनों की जिंदगी में धर्म की एक सीमित भूमिका ही रहनी चाहिए। धर्म या तो लोगों के मन और घरों में रहे, या फिर एक सीमित दायरे में रहे। जब धर्म हमलावर तेवरों के साथ हर बरस कई-कई बार एक-एक धर्म के हथियारबंद जुलूसों की शक्ल में सडक़ों पर आतंक फैलाता है, और टकराव का सामान बनता है, तो वह एक राष्ट्रीय खतरा भी बन जाता है। हिन्दुस्तान में आज कुछ राजनीतिक दलों और नेताओं की मेहरबानी से धर्म से बड़ा कोई आंतरिक खतरा नहीं रह गया है। और जिस अंदाज में इस देश में एक अल्पसंख्यक तबके को घेरकर मारा जा रहा है, तो उससे यह सिर्फ देश का आंतरिक खतरा नहीं रह गया है, बल्कि यह एक अंतरराष्ट्रीय खतरा भी बन गया है क्योंकि हिन्दुस्तानी लोग दुनिया के जितने किस्म के देशों में बसे हुए हैं, और रोजी-रोटी कमा रहे हैं, उन पर भी खतरा है। भारत के दूसरे कई देशों के साथ संबंधों में भी भारत के भीतर की धार्मिक असहिष्णुता का तनाव पड़ रहा है, और सडक़ों पर झंडा-डंडा लेकर नंगा नाच करने वाले लोगों को यह अंदाज भी नहीं होता कि उनकी हरकतों का देश बाहर क्या दाम चुकाता है। दरअसल जब देश में चुनावों को धार्मिक जनमत संग्रह में बदलने की कोशिश लगातार चल रही हो, तब देश को दुनिया में क्या नुकसान हो रहा है इसकी बहुत अधिक फिक्र भी नहीं की जाती है।
आज जिन लोगों को अमन-चैन से जीना पसंद है, उनके लिए यह बहुत तकलीफ का मौका है कि आए दिन सडक़ों पर साम्प्रदायिक और धर्मान्ध टकराव खड़ा किया जा रहा है। बहुत से समझदार लोग सोशल मीडिया पर बरसों से यह सवाल उठाते हैं कि सडक़ों पर साम्प्रदायिकता की आग मेें नौजवानों की जिस भीड़ को झोंका जा रहा है, क्या उनमें से कोई भी नौजवान किसी बड़े नेता की औलाद है? बड़े नेता तो अपने बच्चों को बड़े-बड़े कारोबार में लगाते हैं, वे बड़े-बड़े पेशेवर काम करते हैं, दुनिया भर में जाकर प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से विदेशी डिग्रियां लेकर अंतरराष्ट्रीय काम करते हैं। दंगे भडक़ाने वाले नेताओं में से किसी की भी औलाद झंडा-डंडा लेकर चलने वाली नहीं रहती। और आज जिन लोगों को इस आग में झोंका जा रहा है, उन्हें अगर धर्म और जाति के नाम पर, साम्प्रदायिकता के नाम पर उलझाकर नहीं रखा जाएगा, तो उन्हें इस बात का अहसास हो जाएगा कि वे बेरोजगार हैं, उनके आगे पढऩे की गुंजाइश नहीं है, आगे बढऩे की गुंजाइश नहीं है। उन्हें हकीकत का यह अहसास न हो जाए इसलिए उन्हें किसी न किसी बवाल का हिस्सा बनाकर रखा जाता है, और फिर उनके मन में भक्तिभाव और राष्ट्रवाद को भरकर उन्हें हिंसक प्रदर्शनकारी बनाने से अधिक असरदार उलझाव और क्या हो सकता है? धर्म और देश के नाम पर वे दो सौ रूपए लीटर पेट्रोल खरीदने पर आमादा हैं, और इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता हो गई है।
ऐसे जहरीले माहौल में बहुसंख्यक तबके की साम्प्रदायिकता के मुकाबले अल्पसंख्यक तबके की साम्प्रदायिकता खड़ी होना तय है, और फिर मानो एक तबके में दूसरे तबके के दलाल भी बैठे हुए हैं जो कि पत्थर चलवाना शुरू करते हैं। ऐसे में समझदारी की बात तो यही होगी कि हिन्दुस्तान के तमाम धर्मस्थलों पर से लाउडस्पीकर हटा दिए जाएं, तमाम धार्मिक जुलूसों पर सौ फीसदी रोक लगा दी जाए। लेकिन किसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के नेता इस तरह की बात कहकर लोगों को नाराज करना नहीं चाहेंगे। जीतन राम मांझी उतने बड़े नेता नहीं हैं, और उनका राजनीतिक भविष्य इतने बड़े दांव पर नहीं लगा हुआ है कि वे खरी बात कहने से हिचकें। नतीजा यह है कि उन्होंने एक ऐसी बात कही है जिससे देश की साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ से एक बड़ा हथियार निकल जाएगा। यह बात हिन्दुस्तान की राजनीतिक व्यवस्था के तहत मुमकिन है या नहीं, आज के कानून के तहत मुमकिन है या नहीं, इसमें गए बिना हम एक सोच के रूप में इस बात की तारीफ करते हैं, और अगर इस देश को बचाना है तो साम्प्रदायिकता के ऐसे प्रदर्शन रोकने होंगे, जिन्हें देख-देखकर अलग-अलग धर्मों के ईश्वर भी थके हुए होंगे। आज दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तान की न्यायपालिका देश के दर्जनों प्रदेशों में सरकारों की साम्प्रदायिकता पर भी कुछ नहीं कर पा रही हैं, और केन्द्र सरकार के जाहिर तौर पर साम्प्रदायिक दिखते फैसलों पर भी कुछ नहीं कर पा रही हैं। यह लोकतंत्र एक बड़ा ढकोसला साबित हो रहा है जिसमें संसद गिरोहबंदी के बाहुबल से काम कर रही है, अदालतें अपनी अवमानना की फिक्र से अधिक और कुछ करना नहीं चाहतीं, और देश की बहुसंख्यक आबादी साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, और हमलावर राष्ट्रवाद के सामूहिक सम्मोहन की शिकार हो चुकी है। कोई अगर यह सोचें कि देश के ताने-बाने को हुआ इतना नुकसान अगले दस-बीस बरस में सुधर सकता है, तो ऐसे लोग हकीकत के अहसास बिना जीने वाले लोग ही हो सकते हैं।
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कांग्रेस के लिए कल का दिन एक बड़ा नाटकीय दिन था जब देश के एक बड़े चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर न सिर्फ अचानक सोनिया गांधी के घर पहुंचे, बल्कि वहां आधा-एक दर्जन प्रमुख कांग्रेस नेताओं के सामने उन्होंने 2024 की चुनावी संभावनाओं पर चार घंटे तक अपनी राय और अपना अंदाज सामने रखा। यह राजनीतिक अटकल की बात नहीं है क्योंकि कांग्रेस के एक सबसे बड़े नेता ने इसके बाद औपचारिक रूप से मीडिया से कहा कि प्रशांत किशोर के प्रस्तुतिकरण पर फैसला लेने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष ने एक कमेटी बनाई है जो कि एक हफ्ते में अपनी रिपोर्ट कांग्रेस अध्यक्ष को देगी। ऐसा लगता है कि जिन नेताओं को कल प्रशांत किशोर के साथ की इस बैठक में बुलाया गया था, शायद उन्हीं से यह कमेटी बनी होगी, और इतने बड़े राजनीतिक कदम की घोषणा करने के पहले यह स्वाभाविक ही लगता है कि कांग्रेस और प्रशांत किशोर किसी आपसी सहमति और तालमेल पर पहुंच चुके होंगे, और अब उसकी औपचारिक घोषणा ही बाकी रह गई दिखती है।
जो लोग भारतीय राजनीति को लगातार देखते हैं उन्हें याद होगा कि कई महीने पहले भी प्रशांत किशोर ने ममता बैनर्जी के रणनीतिकार रहते हुए सोनिया, राहुल, और प्रियंका गांधी के साथ बैठक की थी, और भाजपा-एनडीए के मुकाबले देश में एक विपक्षी मोर्चे की वकालत की थी, लेकिन वह बात किसी किनारे पहुंच नहीं पाई थी। प्रशांत किशोर ने नाकामयाब होने के बाद कांग्रेस लीडरशिप के अहंकार को लेकर एक ट्वीट भी किया था, और कांग्रेस लीडरशिप के बचाव में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक ट्वीट से प्रशांत किशोर पर हमला भी किया था। खैर, उस दौरान प्रशांत किशोर शरद पवार जैसे कुछ और ताकतवर नेताओं से मिले थे, और कल की कांग्रेस के साथ उनकी बैठक हो सकता है कि कांग्रेस के रणनीतिकार बनने के बारे में न हो, और यह बैठक एनडीए के मुकाबले एक अधिक व्यापक विपक्षी गठबंधन बनाने की एक कोशिश की तरह हो। इन दोनों में से जो कुछ भी हो, ऐसा लगता है कि प्रशांत किशोर देश में मोदी के मातहत चल रही राजनीति की विकराल ताकत का खतरा देख रहे हैं, और उसका विकल्प बनाना चाहते हैं। लोकतंत्र में ऐसी कोई पहल जो कि विपक्ष को मजबूत बना सके, वह कुल मिलाकर लोकतंत्र को भी मजबूत बनाती है। लेकिन प्रशांत किशोर की भूमिका को लेकर हमारे मन में कुछ और बातें सामने आती हैं जिन पर हम पहले लिख भी चुके हैं।
आज देश में सवा सदी से पुरानी कांग्रेस पार्टी किनारे होते-होते हाशिए पर जा चुकी है। अभी सात बरस पहले तक जो सोनिया गांधी दस बरस सरकार चलाने वाली यूपीए की मुखिया थीं, उनके पास आज चलाने के लिए अपनी खुद की पार्टी का भी कोई ढंग का ढांचा नहीं बचा है, और कांग्रेस आज लोगों के मजाक का सामान बन चुकी है, लोगों की हमदर्दी की हकदार दिख रही है। जिस यूपीए ने दस बरस तक देश पर एक मजबूत सरकार चलाई, वह बड़ा गठबंधन कायम नहीं रह पाया, और उसकी मुखिया कांग्रेस पार्टी खुद भी लगातार चुनावी हार के सिवा कुछ हासिल नहीं कर पाई। यह बात कांग्रेस और बाकी विपक्ष के लिए सोचने की है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में आज ऐसे कोई किरदार नहीं दिख रहे हैं जो कि चार पार्टियों को साथ बिठाकर देश के लोकतंत्र को बचाने की उनकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी याद दिला सकें, उन्हें साथ ला सकें। लोगों को याद पड़ता है कि किस तरह सत्ता के मोह से परे रहते हुए जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में देश की तमाम गैरकांग्रेस पार्टियों की एकजुटता हुई थी। लेकिन जेपी कोई पेशेवर रणनीतिकार नहीं थे, वे बंद कमरे से काम नहीं करते थे, वे एक जननेता थे, और अपने गांधीवादी मूल्यों को लेकर लोगों के बीच जाने की हिम्मत रखते थे, और उन्होंने 1977 के चुनाव में इमरजेंसी की सरकार को उखाड़ फेंका था। आज लोगों को केन्द्र की मोदी सरकार से लोकतंत्र को खतरे तो बहुत दिखते हैं, लेकिन इस खतरे को घटाने के लिए विपक्ष को जोडऩे का काम करने की ताकत और क्षमता किसी एक नेता में नहीं दिख रही है। नतीजा यह है कि प्रशांत किशोर जैसा एक पेशेवर, और खुद राजनीति से परे रहने वाला इंसान विपक्षी एकता की पहल कर रहा है, ममता बैनर्जी से परे ऐसी पहल कर रहा है। क्या इसका हम यह मतलब निकालें कि किस तरह राजनीति के पुराने जानकार और मंजे हुए लोग विवेकशून्य हो गए हैं, इतने आत्मकेन्द्रित हो गए हैं कि अपनी पार्टी के सबसे बड़े स्वार्थों से परे कुछ भी नहीं सोच पा रहे हैं? ये सारे सवाल जो कि प्रशांत किशोर को इतनी बड़ी भूमिका निभाते देखकर खड़े होते हैं, वे भारत के राजनीतिक दलों में आपसी तालमेल बनाने की ताकत न रखने वाले नेताओं को देखकर हैरान रह जाते हैं। क्या इस विशाल लोकतंत्र में, और आजादी की 75वीं सालगिरह के इस मौके पर अब यही देखना रह गया है कि प्रशांत किशोर नाम का एक आदमी अपनी उम्र जितने बरस से राजनीति कर रहे लोगों को राजनीति सिखाने के लिए रखा जा रहा है? हम किसी भी उम्र में किसी से भी कुछ सीखने के खिलाफ नहीं हैं। अगर हिन्दुस्तान का विपक्ष प्रशांत किशोर की सेवाओं को लेकर मजबूत हो सकता है, तो वही सही। हर किसी को अपने आपको मजबूत करने के लिए सभी कानूनी तरीकों के इस्तेमाल की छूट रहती है, इसलिए प्रशांत किशोर से रणनीति बनवाकर अगर ममता बैनर्जी सत्ता पर लौटती हैं, या नीतीश कुमार सत्ता पर लौटते हैं तो इसमें अलोकतांत्रिक कुछ नहीं है। हैरानी की बात यही है कि क्या पूरी जिंदगी राजनीति में लगाने वाले लोग उसमें अपनी जिंदगी लगा नहीं रहे थे, और गंवा रहे थे? ये सब सवाल प्रशांत किशोर की काबिलीयत और उनकी जरूरत को कम नहीं आंकते हैं, बल्कि नेताओं को आईना दिखाते हैं कि एक अकेले पेशेवर रणनीतिकार के मुकाबले उन सबकी मिलीजुली औकात कितनी रह गई है!
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सदी के शुरू होने से अब तक पिछले बीस बरसों में दुनिया के कुछ देशों से वहां के गृहयुद्ध की वजह से, या वहां पर अमरीकी हमलों की वजह से लाखों लोग देश छोडक़र निकले, और समंदर की लहरों पर जान पर खेलते हुए योरप के अलग-अलग देशों पर पहुंचने की कोशिश की। खुद को और बच्चों को बचाने का संघर्ष भी था, और एक बेहतर जिंदगी की उम्मीद भी थी। योरप के अधिकतर देशों ने कम या अधिक संख्या में ऐसे शरणार्थियों को अपने यहां जगह दी, हालांकि ऐसा फैसला लेने वाली सत्तारूढ़ पार्टियों को वोटरों के एक ऐसे तबके की नाराजगी भी झेलनी पड़ी जो कि अपनी सरहदों को अपनी संस्कृति के लोगों के लिए बंद रखना चाहता है। ऐसे लोग योरप के हर देश में हैं, और योरप ही क्यों, हिन्दुस्तान में भी ऐसे लोग हैं जो कि आज रोहिंग्या शरणार्थियों को इस जमीन पर पांव भी रखना नहीं देना चाहते। खैर, अभी बात योरप की चल रही है जहां पर यूक्रेन पर रूसी हमले के चलते दसियों लाख यूक्रेनी शरणार्थियों का दबाव आसपास के देशों पर पड़ रहा है, और यह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का सबसे बड़ा शरणार्थी मोर्चा बन चुका है।
दुनिया जब सभ्य होने का दावा करती है तो सभ्यता का यह तमगा कई जिम्मेदारियों के साथ आता है, इनमें से एक शरणार्थियों को जगह देना भी है। श्रीलंका से गए हुए तमिल शरणार्थी भी योरप के बहुत से देशों में जगह पाकर वहां बसे हुए हैं, और काम कर रहे हैं। बहुत से मुस्लिम देशों से शरणार्थी योरप पहुंच रहे हैं, और वहां के शरण के नियमों के मुताबिक वे अगर यह साबित कर पाते हैं कि अपने देश लौटने पर उनकी जान को खतरा है, तो उन्हें वहां जगह मिलने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में अभी ब्रिटेन में एक नया मसला उठ खड़ा हुआ है। प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने वहां पहुंचने वाले शरणार्थियों को एक अफ्रीकी देश रूआंडा भेजने की योजना बनाई है जहां पर ब्रिटिश खर्च से शरणार्थी कैम्प बनाए जा रहे हैं, और ब्रिटेन की सरहद तक पहुंचे हुए लोगों को रूआंडा भेजा जा रहा है जहां उनके रहने-खाने की लागत ब्रिटिश सरकार उठाएगी। इस बात को लेकर संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी एजेंसी ने इस योजना को खारिज कर दिया है, और कहा है कि यह अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ है। इसके खिलाफ तर्क बहुत से हैं। पहला तर्क तो यही है कि रूआंडा का मानवाधिकार का रिकॉर्ड बहुत ही खराब रहा है, और ऐसे देश में शरणार्थी कैम्प बनाकर या बनवाकर ब्रिटेन जैसा देश रूआंडा को एक अनैतिक मान्यता दे रहा है। जानकार लोग रूआंडा को एक खतरनाक जगह भी मान रहे हैं लेकिन बोरिस जॉनसन का कहना है कि वह दुनिया में एक सबसे सुरक्षित देश है, और ब्रिटिश सरकार ने रूआंडा की सरकार के साथ एक अनुबंध भी किया है जिसके तहत मोटरबोट से ब्रिटिश सरहद से शरणार्थियों को रूआंडा पहुंचाना शुरू भी हो गया है। एक ब्रिटिश अखबार ने जब सरकार की इस योजना के बारे में अपने पाठकों के बीच सर्वे किया तो पता लगा कि 47 फीसदी पाठक इससे सहमत हैं, और कुल 26 फीसदी इसके खिलाफ हैं। यह बात सही है कि दुनिया के कई देशों में पिछले दशकों में जिस तरह बहुत से आतंकी हमलों में ऐसे शरणार्थी शामिल रहे हैं, उनकी वजह से पश्चिम के देशों में इन्हें जगह देने के खिलाफ एक जनमत बना हुआ है। यह बात भी है कि मुस्लिम देशों से आने वाले इन शरणार्थियों का धर्म और लोकतंत्र के प्रति, महिलाओं के प्रति, मानवाधिकार के प्रति नजरिया पश्चिम की स्थानीय संस्कृति से बिल्कुल ही अलग है, और उन्हें वहां जगह देकर लोग अपने आपको खतरे में भी महसूस करते हैं। इसलिए भी शरणार्थियों के खिलाफ इन अपेक्षाकृत विकसित देशों में एक माहौल बना हुआ है, और आज जब फ्रांस में राष्ट्रपति का चुनाव चल रहा है, तो वहां भी शरणार्थी एक बड़ा चुनावी मुद्दा बने हुए हैं।
आज जब पश्चिम के कुछ देशों में संकीर्णतावादी, कट्टर और राष्ट्रवादी पार्टियां शरणार्थियों के मुद्दे पर बेहतर चुनावी संभावनाएं पा रही हैं, तब इन देशों की सत्तारूढ़ पार्टियों को भी यह सोचना पड़ रहा है कि शरणार्थियों का लगातार बना हुआ दबाव उन्हें किस हद तक मंजूर करना चाहिए, और कब जाकर इसके लिए मनाही कर देनी चाहिए। जब अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों को अपनी घरेलू चुनावी संभावनाओं के साथ रखकर तौलकर देखना होता है, तो मुश्किल फैसले लेना कोई आसान काम नहीं होता है। यह सिलसिला अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों पर एक बड़ा तनाव भी डाल रहा है। आज यूक्रेन से जिस तरह दसियों लाख लोग घरबार, और सभी कुछ खोकर निकल चुके हैं, तो उसका दबाव दूर बसे अमरीका तक भी पड़ रहा है जिसने एक लाख शरणार्थियों को मंजूर करने की घोषणा की है।
अब चूंकि किसी देश की यह कोई जिम्मेदारी नहीं होती है कि वे शरणार्थी मंजूर करें, या कितने शरणार्थी मंजूर करें, तो ऐसे में इस बारे में भी सोचने की जरूरत है कि किन देशों में शरणार्थियों के लिए ऐसे कैम्प बनाए जा सकते हैं जिनका खर्च विकसित और संपन्न देश उठाएं, और जो एक किस्म से कमजोर देशों के लिए एक कमाई का जरिया भी बन सके। अब रूआंडा में अगर ब्रिटिश खर्च से ऐसे शरणार्थी बसाए जा रहे हैं, तो दुनिया के दूसरे देश भी इस बारे में सोच सकते हैं। आज भी दुनिया का संपन्न हिस्सा, कई किस्म के प्रदूषण वाले कारखानों को दुनिया के विपन्न हिस्से में खिसकाते चलता है, और अधिक मजदूरी, अधिक प्रदूषण वाले बहुत से काम अब गरीब देशों में ही होते हैं, और वहां से सामान बनकर संपन्न दुनिया में जाता है। इसलिए अगर अपने देशों में शरणार्थियों को जगह देने के बजाय कुछ देश कुछ तीसरे देशों में उनके लिए इंतजाम करते हैं, तो यह एकदम से खारिज कर देने वाली सोच नहीं है, फिर चाहे संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी एजेंसी इसे खारिज क्यों न करती रहे। हर देश के लिए शायद यह मुमकिन नहीं होगा कि वह बाहर से आते शरणार्थियों को अपने देश में अंतहीन जगह देता चले। अपने लोगों की हिफाजत से लेकर अपनी सामाजिक संस्कृति की हिफाजत तक, बहुत से ऐसे मुद्दे हो सकते हैं जिन पर किसी देश की सरकार को अपनी अंतरराष्ट्रीय नैतिक जिम्मेदारी छोडक़र भी फैसला लेना पड़े। इस बारे में सोचना चाहिए कि क्या कुछ देशों की अर्थव्यवस्था में ऐसे शरणार्थियों से कोई मदद मिल सकती है जिनका अपना देश जिंदा रहने लायक नहीं रह गया है, लेकिन जिन्हें मंजूर करना पश्चिम के देशों के लिए मुमकिन भी नहीं रह गया है। इसे एकदम से खारिज करने के बजाय सभी पक्षों के फायदे के बारे में सोचना चाहिए।
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मध्यप्रदेश के खरगोन में पहले कई बार साम्प्रदायिक हिंसा हो चुकी है। अब वहां संजय नगर नाम के एक इलाके में कई हिन्दू परिवारों ने अपने घरों के बाहर यह मकान बिकाऊ है लिख दिया है। बड़े अफसरों का कहना है कि यह बाहरी लोगों की करतूत है जो इस इलाके में साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाडऩा चाहते हैं लेकिन उनके सामने ही ऐसे मकान मालिक बतलाते हैं कि उन्होंने खुद ने यह लिखा है। लिखने वाले हिन्दू परिवारों के लोग हैं जो बतलाते हैं कि हर कुछ बरस में यहां साम्प्रदायिक तनाव होता है, और कभी दंगाई आग लगा देते हैं, तो कभी घर का सामान लूटकर ले जाते हैं इसलिए इसे बेचने के अलावा अब और कोई रास्ता नहीं है। अभी रामनवमी के समय हुए साम्प्रदायिक तनाव में लोगों के घरों को जला दिया गया, और सामान लूट लिया गया। यह इलाका एक मुस्लिम बहुल इलाका है जिसमें 20-25 गरीब हिन्दू परिवार रहते हैं। हर कुछ बरस में होने वाले साम्प्रदायिक तनाव ने इन गरीबों की जिंदगी तबाह कर दी है। मध्यप्रदेश में हाल ही में हुए साम्प्रदायिक तनाव को लेकर सरकार सडक़ों पर इंसाफ करते हुए वीडियो देख-देखकर हमलावर दिखते लोगों के घर-दुकान पर बुलडोजर चलवा रही है, और यह नौबत 15 बरस के भाजपा शासन के बाद आई है।
आज देश में जगह-जगह साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा हुआ दिख रहा है। कर्नाटक और उत्तरप्रदेश के बारे में हम पिछले दिनों यहां पर एक से अधिक बार लिख भी चुके हैं, और अभी मुम्बई में राज ठाकरे मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटवाने के लिए एक मुहिम छेड़े हुए हैं, और उत्तरप्रदेश में हिन्दू संगठन पांच वक्त की नमाज के वक्त मस्जिदों के लाउडस्पीकरों के मुकाबले लाउडस्पीकर लगाकर हनुमान चालीसा पढऩा शुरू कर चुके हैं। दो दिन पहले ही आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने बिना किसी प्रसंग के यह कहा है कि अगले 15 बरस में भारत अखंड भारत बन चुका रहेगा। अखंड भारत की संघ की धारणा में 1947 के पहले का भारत तो है ही, उसमें अफगानिस्तान तक शामिल है। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर यह लिखा भी है कि आज के 22 करोड़ हिन्दुस्तानी मुस्लिमों के मुकाबले भागवत के ऐसे अखंड भारत में 60 करोड़ मुस्लिम होंगे, और तालिबान भी उसमें शामिल रहेंगे। आरएसएस केन्द्र की मोदी सरकार का करीबी संगठन है, और भाजपा का वैचारिक मार्गदर्शक भी माना जाता है, लेकिन भागवत की हर कुछ महीनों में कही जाने वाली अखंड भारत की इस बात पर सात बरस की मोदी सरकार की तरफ से कभी कुछ नहीं कहा गया है, इसलिए लोगों का यह मानना है कि यह हिन्दुस्तान के हिन्दुओं की भावनाओं के साथ खिलवाड़ का एक तरीका है, और इसका भारत की विदेश नीति से कभी कोई रिश्ता नहीं हो सकता।
लेकिन आज देश में चारों तरफ बढ़ते हुए धार्मिक और साम्प्रदायिक तनाव की खबरों के साथ हम भागवत के बयान को जोडक़र इसलिए देख रहे हैं कि अगले 15 बरस में यह अखंड भारत तो नहीं बनते दिख रहा, लेकिन उसके बहुत पहले ही यह खंड-खंड भारत बनते जरूर दिख रहा है। किसी देश के खंड-खंड होने के लिए उसकी सरहदों का बदलना जरूरी नहीं होता, जब किसी देश के लोगों के बीच एक गहरी खाई खुद जाती है, और अलग-अलग धर्मों के, जातियों के, प्रदेशों के लोग जब अपने आपको अपने ही देश के दूसरे लोगों से अलग गिनने लगते हैं, मानो टापुओं पर रहने लगते हैं, तो वह देश खंड-खंड हो जाता है। इसके लिए देश के टुकड़े होना जरूरी नहीं है, इसके लिए समाज के टुकड़े होना काफी होता है, और वह आज बड़ी मेहनत से किया जा रहा है, और होते चल रहा है।
कर्नाटक हमलावर हिन्दुत्व की एक तेज रफ्तार प्रयोगशाला बना हुआ है, और भाजपा के शासन में, साम्प्रदायिक संगठनों और भाजपा की मिलीजुली कोशिशों से यहां पर मुस्लिमों के सामाजिक बहिष्कार की, उनकी आर्थिक नाकेबंदी की, उनको बेकाम करने की बड़ी और भारी कोशिशें चल रही हैं। मुस्लिमों से कोई मांस न खरीदे, मुस्लिमों की चलाई टैक्सी में सफर न करे, मुस्लिमों को फल-सब्जी की मंडियों से निकाला जाए जैसे साम्प्रदायिक फतवे और अभियान वहां पर सरकार की मेहरबानी से उसके साम्प्रदायिक मुखौटे चला रहे हैं, और एक अखंड कर्नाटक आज खंड-खंड किया जा रहा है। कुछ ऐसा ही हाल मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश का हो रहा है जहां पर पोशाक देखकर लोगों की शिनाख्त हो रही है, और कोड़े लगाने या फांसी चढ़ाने वाले जल्लाद की तरह बुलडोजर तैनात करके पुलिस ही जज बन बैठी है, सजा सुना रही है, सजा पर अमल कर रही है।
इन दो बातों में बड़ी गहरी विसंगति है। मोहन भागवत की बात का कोई भी वजन किसी सरकार की नजर में चाहे न हो, उनको मानने वाले लोग उन्हें गंभीरता से सुनते हैं, और गंभीरता से उन्हें सच मान लेते हैं। उन्हीं के साथ के कुछ दूसरे भगवाधारी हिन्दुओं को अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने की नसीहत दे रहे हैं, और 15 बरस बाद के अखंड भारत में हिन्दुओं का अनुपात अगर ठीक रखना है तो बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान के मुस्लिमों के अखंड भारत में आ जाने की हालत में हिन्दू आबादी को बढ़ाना तो जरूरी हो ही जाएगा।
यह भी समझने की जरूरत है कि आज जब भारत खंड-खंड हो रहा है, बस्तियों में हिन्दू और मुस्लिम आसपास रहने में खतरा महसूस कर रहे हैं, उस हालत में महंगाई और दूसरे जरूरी जलते-सुलगते मुद्दों की तरफ से ध्यान हटाने के लिए हर कुछ दिनों में अखबारी सुर्खियों को लूट लिया जाता है। कोई ऐसा शिगूफा छोड़ा जाता है कि सोशल मीडिया दो-चार दिन उसी में व्यस्त रहता है। देश के समझदार तबके को ध्यान बंटाने वाले ऐसे जाल को देखना और पहचानना सीखना चाहिए। जब कभी कोई इस किस्म की बातें करें, तो उनसे पूछना चाहिए कि महंगाई, बेरोजगारी, मंदी, और बढ़ती आर्थिक असमानता के बारे में उनका क्या कहना है। जब जमीन पर दिक्कतें ही दिक्कतें बिखरी रहती हैं, तो कुछ लोग इन्द्रधनुष दिखाने लगते हैं तो कुछ लोग अखंड रामधुन सुनाने लगते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि जिन लोगों की भावनाएं अखंड भारत, इन दो शब्दों से उत्तेजना से भर जाती हैं, उनकी उत्तेजना को शांत करने के लिए यह बताना जरूरी है कि ऐसे अखंड भारत में किस धर्म के कितने लोग रहेंगे, कितने आतंकी संगठन रहेंगे, और आज के हिन्दुस्तान की प्रति व्यक्ति आय घटकर कितनी रह जाएगी। आज अगर हिन्दुस्तान से कोई अश्वमेध यज्ञ करके उसके घोड़े को छोड़े, और वह पाकिस्तान-अफगानिस्तान जाकर अपना झंडा फहराकर आ भी जाए तो वह आज के हिन्दुस्तान के लिए सिवाय खतरे और दिक्कतों के कुछ लेकर नहीं लौटेगा। इसलिए जो लोग आज अखंड भारत का सपना दिखाते हैं, उन्हें तथ्यों को बताकर उन पर जवाब मांगना चाहिए।
आज हिन्दुस्तान बढ़ाए हुए साम्प्रदायिक तनाव की वजह से, धार्मिक भेदभाव की वजह से, और कट्टरता की वजह से जाति और धर्म के कई टापुओं में बंट चुका है। इस खंड-खंड भारत को एक बनाए रखने में ही अभी 15 बरस कम पडऩे वाले हैं, इसलिए मोहन भागवत का अखंड भारत हिन्दुस्तानियों के लिए एक बुरे सपने के अलावा कुछ नहीं हो सकता, फिर भी अगर कुछ लोगों के आक्रामक राष्ट्रीयता के उन्मादी अहंकार का पेट अगर अखंड भारत शब्द सुनकर भरता है, तो उन्हें तालिबानियों के पड़ोस के घर में रहने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
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उत्तरप्रदेश के चुनाव में बुलडोजर भी एक मुद्दा था, और सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की तरफ से उनकी भाजपा ने बार-बार यह तर्क दिया कि अपराधियों के अवैध निर्माण पर बुलडोजर चलाए जाएंगे। उत्तरप्रदेश में भाजपा को जितनी बड़ी जीत मिली है, उसके चलते हुए योगी आदित्यनाथ मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के मुकाबले बहुत बड़े कद के नेता हो गए हैं, और मानो योगी आदित्यनाथ की यह बड़ी जीत बाकी भाजपा मुख्यमंत्रियों के लिए बड़ी चुनौती भी बन गई है। कर्नाटक के भाजपा मुख्यमंत्री लगातार हिन्दुत्व के फतवों को बढ़ाते जा रहे हैं, जिसे हमने इसी जगह हमलावर हिन्दुत्व की प्रयोगशाला लिखा है। अब मध्यप्रदेश में बुलडोजर का इस्तेमाल इस साम्प्रदायिक अंदाज में हो रहा है कि जिसे देखकर बुलडोजर बनाने वाले को हैरानी हो रही होगी कि उसकी बनाई मशीन में भी साम्प्रदायिकता की संभावना कैसे ढूंढ निकाली गई है। हाल ही में रामनवमी और दूसरे धार्मिक जुलूसों में जिस तरह हिन्दू-मुस्लिम टकराव मध्यप्रदेश में सामने आया है, उसके बाद प्रदेश सरकार ने मुस्लिम समुदाय के लोगों को हमलावर करार देते हुए, पथराव के वीडियो पर निष्कर्ष निकालते हुए उनके मकान-दुकान बुलडोजर से जमीन में मिला दिए हैं। एमपी के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने एक टीवी चैनल, एनडीटीवी, के सवाल के जवाब में जिस तरह साफ-साफ कहा कि जो लोग वीडियो में हमला करते दिख रहे हैं वे आरोपी कहां से हो गए, वे तो अपराधी हैं, और सरकार ऐसे अपराधियों के निर्माण गिरा रही है। हालांकि उन्होंने यह कहा है कि जो निर्माण अवैध पाए गए हैं, उन्हीं को गिराया जा रहा है, लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या सिर्फ मुस्लिमों के निर्माण अवैध हैं, या उनमें से कुछ लोग पथराव करते कैमरों पर कैद हुए हैं तो उनके मकान-दुकान गिराना एक लोकतांत्रिक तरीका है? यह सवाल छोटा नहीं है क्योंकि किसी के किसी जुलूस पर हमलावर होने से छांटकर उसी के मकान-दुकान को गिराया जाए, तो यह साफ-साफ अदालत के बाहर एक फर्जी अदालती इंसाफ के अलावा कुछ नहीं है। ऐसा ही इंसाफ बस्तर के जंगलों में नक्सली करते हैं जहां वे किसी को पुलिस का मुखबिर साबित करते हुए उसका गला काट देते हैं, और वे यह काम एक भीड़ भरी तथाकथित जनसुनवाई के बीच करते हैं, ताकि बाकी लोगों तक भी धमकी पहुंच जाए। यूपी और एमपी में बुलडोजर के रास्ते दिया जा रहा फैसला कुछ इसी किस्म का है। इसके बाद बाकी राज्यों को भी चाहिए कि वे भी अपने इलाकों में बुलडोजर खरीदें, और अपने को नापसंद लोगों के साथ इसी तरह का इंसाफ कर डालें। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान की छोटी अदालतों में जो करोड़ों मामले चल रहे हैं, उनकी फाइलों के ढेर को बुलडोजर से ही धकेलकर इस तरह कम किया जा सकता है।
चूंकि उत्तरप्रदेश की योगीपीठ ने ऐसा बुलडोजरी इंसाफ कर दिखाया है, और इसके बाद वह बहुसंख्यक वोटों के आधार पर चुनाव जीतकर भी आ गई है इसलिए भारत की राजनीति अब वोटों की गिनती के बजाय धार्मिक जनगणना की तरफ बढ़ती हुई दिख रही है। ऐसे में जिस तबके की गिनती कम है, उस तबके पर बुलडोजर चलाना चुनावी फायदे का काम दिख रहा है, और इसीलिए एमपी यूपी के पदचिन्हों पर चलते हुए बुलडोजर की सवारी कर रहा है। देश में बहुत से प्रदेशों में, और केन्द्र सरकार के मातहत चल रही दिल्ली में मुस्लिमों के अलावा बड़ी संख्या में हिन्दू भी साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाते, हिंसा करते, और सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाते रिकॉर्ड हुए हैं, लेकिन उन पर कोई बुलडोजर चला हो ऐसा सुनाई नहीं पड़ा है। उत्तरप्रदेश के मामलों में तो यह भी याद पड़ रहा है कि देश की एक बड़ी अदालत ने राज्य सरकार को सार्वजनिक उपद्रव का आरोप लगाते हुए जिन अल्पसंख्यकों से वसूली की गई थी, उसे भी वापिस करने का हुक्म दिया है।
देश की सरकारों के साम्प्रदायिक होने का मुद्दा एकदम नया भी नहीं है। ऐसा पहले भी होते आया है, लेकिन इसमें नई बात यह जुड़ गई है कि सरकार किसी को आरोपी बनाने के बजाय, उसे सीधे मुजरिम करार दे रही है, और उसके मकान-दुकान पर बुलडोजर चलाकर नक्सली जनसुनवाई के अंदाज में फैसला सुना रही है, और सजा भी दे दे रही है। इस सिलसिले में न तो जज की जरूरत बच गई है, और न ही किसी जल्लाद की। यह सिलसिला इसलिए खतरनाक है कि यह कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच का फासला खत्म कर रहा है। कार्यपालिका और सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के बीच कोई फासला वैसे भी नहीं रह गया है। सरकारें इन दिनों संविधान और सरकारी नियमों के बजाय अपनी पार्टी के घोषित और अघोषित एजेंडे पर चल रही हैं। अब सत्ता की मनमानी का बुलडोजर अगर धर्म के आधार पर अपने दुश्मन तय करके उन्हें खाक में मिला देने का काम कर रहा है, तो इस माहौल में लोकतंत्र की गुंजाइश बिल्कुल भी नहीं रह जाती है।
मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा को पिछले महीनों में जिन लोगों ने चर्चित चेहरों के कहे एक-एक शब्द पर एफआईआर करने की धमकी देते हुए देखा है, वे इस बात को समझ सकते हैं कि गृहमंत्री किस तरह अपने आपको मुख्यमंत्री से अधिक हमलावर हिन्दुत्ववादी साबित करने पर आमादा हैं, और ऐसा लगता है कि वे मुस्लिमों पर बुलडोजर चलाते हुए असल में बुलडोजर से अपने लिए मुख्यमंत्री निवास तक का रास्ता बना रहे हैं। देश के बहुत से लोग इस बात को लेकर हैरान हैं कि ऐसे वक्त पर इन राज्यों की हाईकोर्ट या देश की सुप्रीम कोर्ट की क्या जिम्मेदारी बनती है? क्या अपने सम्मान और अपनी सहूलियतों से जुड़े हुए छोटे-छोटे मामलों पर अवमानना की सुनवाई शुरू करने वाले बड़े-बड़े जजों को देश के अल्पसंख्यक तबके के अस्तित्व पर खतरा नहीं दिख रहा है? क्या यह लोकतंत्र की अवमानना नहीं है? आज का यह वक्त सुप्रीम कोर्ट की सीधी दखल का है ताकि साम्प्रदायिक सरकारों का धर्मान्ध बुलडोजर रोका जा सके, और देश को टूटने से बचाया जा सके।
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कर्नाटक में एक सरकारी काम करने वाले ठेकेदार ने कल आत्महत्या कर ली, और वह चिट्ठी छोडक़र मरा है कि प्रदेश पंचायत राज मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता के.एस. ईश्वरप्पा की रिश्वत की मांग से थककर वह आत्महत्या कर रहा है। उसने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पिछले भाजपा मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के प्रति अपार सम्मान के साथ लिखते हुए यह अपील की है कि उसके परिवार का ख्याल रखा जाए। उसने अपनी चिट्ठी में यह लिखा है कि यह मंत्री उसकी मौत के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार है, और उसे इसकी सजा मिलनी चाहिए। चिट्ठी के मुताबिक इस ठेकेदार को पंचायत विभाग के तहत सडक़ों का ठेका मिला था, और मंत्री चार करोड़ के काम में चालीस फीसदी रिश्वत मांग रहा था। पुलिस ने आत्महत्या के बाद जो जुर्म दर्ज किया है उसमें मंत्री का नाम है। लोगों को याद होगा कि कुछ समय पहले कर्नाटक के सरकारी निर्माण के ठेकेदारों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चिट्ठी लिखकर राज्य में चालीस फीसदी कमीशन के चलन के शिकायत की थी, और उसकी भी खबरें खूब छपी थीं।
सरकारी कामकाज में भ्रष्टाचार कोई बहुत अनोखी बात नहीं है, और न ही यह कर्नाटक तक सीमित बात है। अधिकतर प्रदेशों में सरकारी कामकाज में भ्रष्टाचार बहुत ही आम है, और मंत्रिमंडल में किसी मंत्री की ताकत का अंदाज इसी बात से लगता है कि उसे कितने अधिक बजट वाले और कितने अधिक कमाई वाले विभाग मिले हैं। लेकिन कर्नाटक में यह भ्रष्टाचार जितने बड़े पैमाने पर और जितना अधिक सुनाई पड़ रहा है, वह कुछ अभूतपूर्व लगता है। अगर मंत्री ही चालीस फीसदी कमीशन लेने लगे, और बाकी विभाग का कमीशन भी बंधा हुआ रहता है, फिर ठेकेदार की अपनी कमाई, इन सबको देखें तो लगता है कि सरकार के खर्च का आधे से भी कम जमीन पर लगता होगा। भ्रष्टाचार की चर्चा करते हुए ही अभी यह भी याद पड़ता है कि पिछले कुछ दिनों से लगातार पंजाब के नए मुख्यमंत्री आम आदमी पार्टी के भगवंत सिंह मान का इश्तहार टीवी पर चल रहा है जिसमें उन्होंने प्रदेश की जनता से सरकारी दफ्तरों में मोबाइल फोन लेकर जाने कहा है, जो कि अभी तक कई जगहों पर प्रतिबंधित था, और कहा है कि कोई भी रिश्वत मांगे तो उसकी ऑडियो या वीडियो रिकॉर्डिंग करें, और मुख्यमंत्री को भेजें।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम सरकारी कामकाज में गलत निर्देशों को लेकर, या गलत मांग को लेकर बरसों से यह बात लिखते आ रहे हैं कि लोगों को इसकी रिकॉर्डिंग करना चाहिए ताकि वह सुबूत की शक्ल में हिफाजत से रहे। लोगों को उनके वरिष्ठ मंत्री या अफसर कई गलत निर्देश देते हैं जो कि कागजों पर लिखे हुए नहीं रहते, और दबाव डालकर गलत काम करवाए जाते हैं। ऐसी तमाम किस्म की बीमारियों का एक आसान इलाज रिकॉर्डिंग हो सकती है, और यह मोबाइल फोन पर बातचीत हो, या रूबरू कही जा रही बात हो, अगर यह सरकारी कामकाज से जुड़ी हुई बात है, तो उसकी सारी रिकॉर्डिंग जायज होनी चाहिए। ऐसा न हो कि इसे सरकार के भ्रष्ट लोग अनुशासनहीनता करार देकर रिकॉर्डिंग करने वाले लोगों का नुकसान करें। अभी तक ऐसा कोई मामला सामने आया नहीं है इसलिए किसी अदालत का कोई फैसला भी इसे लेकर नहीं है। लेकिन यह पारदर्शिता के लिए और सरकारी कामकाज से भ्रष्टाचार को हटाने के लिए एक असरदार औजार हो सकता है। आम आदमी पार्टी और पंजाब सरकार की दूसरी सौ बातों से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उसका यह फैसला ठीक है कि सरकारी दफ्तर में मोबाइल लेकर जाने पर अब कोई रोक नहीं रहेगी, और कोई नाजायज मांग होने पर लोग उसकी रिकॉर्डिंग कर सकेंगे। सरकारी दफ्तर में सरकारी समय पर सरकारी कामकाज से जुड़ी हुई बातों को रिकॉर्ड करने पर कोई रोक क्यों होनी चाहिए?
अभी छत्तीसगढ़ में लगातार ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें पुलिस कर्मचारियों और अधिकारियों ने एक संगठित मुजरिम गिरोह की तरह लोगों से उगाही और वसूली की है, वरना उन्हें तरह-तरह के खतरनाक जुर्म में फंसाने की धमकी दी है। ऐसी रिकॉर्डिंग सामने आने के बाद जिला पुलिस ने ऐसे लोगों को लाइन अटैच भी किया गया है। अगर ऐसी रिकॉर्डिंग न होती, तो इनकी बात भला कौन मानते? इसलिए आज हर जेब में रहने वाले इस मामूली से औजार को भ्रष्टाचार के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल किया ही जाना चाहिए। जो लोग जनता के पैसों से तनख्वाह पाते हैं, और सरकार में अधिकार संपन्न हैं, उन्हें ईमानदार होने के साथ-साथ जनता से अपना बर्ताव भी ठीक रखना चाहिए। बहुत से अफसर और कर्मचारी ऐसे रहते हैं जो अपनी बदजुबानी और बदतमीजी के लिए जाने जाते हैं, इन सबका इलाज भी ऐसी रिकॉर्डिंग हो सकती है। आज भी सरकार का कोई कानून इसके खिलाफ नहीं है, लेकिन भ्रष्ट और बददिमाग अफसरों ने अपने स्तर पर अपने दफ्तरों में ऐसे नोटिस लगा रखे हैं, इन्हें भी गैरकानूनी करार देना जरूरी है। हर व्यक्ति का यह हक है कि उसके साथ सरकारी दफ्तर में कैसा बर्ताव होता है, उसे रिकॉर्ड करके रखे।
कर्नाटक के जिस मंत्री के बारे में भाजपा के ही इस समर्थक या सदस्य ठेकेदार ने आत्महत्या की चिट्ठी में लिखा है, उसका इस्तीफा तुरंत ही लिया जाना चाहिए। अब तक मुख्यमंत्री भी इस बारे में कुछ बोल नहीं रहे हैं, और न ही सत्तारूढ़ भाजपा ने कुछ कहा है। लेकिन जिस तरह वहां के ठेकेदारों ने कुछ अरसा पहले सीधे प्रधानमंत्री को लिखकर इसकी शिकायत की थी, और जिस तरह इस खुदकुशी करने वाले ने भी प्रधानमंत्री के बारे मेें लिखा है, तो उसे देखते हुए भाजपा का इस पर चुप रहना जिम्मेदारी का बर्ताव नहीं है।
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पश्चिम बंगाल में 14 बरस की एक लडक़ी को एक जन्मदिन की पार्टी से उसके घर वापिस पहुंचाया गया, उसके बदन से खून निकल रहा था, अगली सुबह उसकी तबियत बिगड़ी, और उसकी मौत हो गई। परिवार ने पुलिस में शिकायत के पहले उसका अंतिम संस्कार कर दिया, और पांच दिन बाद पुलिस ने तृणमूल कांग्रेस के एक नेता के बेटे के खिलाफ बलात्कार की रिपोर्ट लिखाई। परिवार का कहना है कि जो लोग मेरी बेटी को जन्मदिन की पार्टी में ले गए थे, उन्होंने उसे पहुंचाकर धमकी दी थी कि अगर हमने अपना मुंह खोला तो वे घर को आग लगा देंगे, उस वक्त हम डर गए थे इसलिए पुलिस में रिपोर्ट नहीं की थी, लेकिन अब इंसाफ चाहिए। अंतिम संस्कार के इतने दिन बाद पुलिस की जांच की संभावना भी बड़ी सीमित हो जाती है, और बंगाल में यह बात भी मुमकिन है कि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के नेता किसी परिवार को इस हद तक डरा सकते हैं कि वे बेटी के गुजरने के तनाव के बीच पुलिस रिपोर्ट की न सोच पाएं। परिवार का कहना है कि पुलिस ने तृणमूल कांग्रेस के नेता के दबाव में बिना पोस्टमार्टम कराए लडक़ी का जबरन अंतिम संस्कार करवा दिया। तृणमूल कांग्रेस के इसी नेता के 21 साल के बेटे पर अपने दोस्तों के साथ मिलकर इस नाबालिग लडक़ी से सामूहिक बलात्कार का आरोप है। अभी-अभी बंगाल में घर में आग लगाकर दर्जन भर लोगों को मार डालने का मामला खबरों में बना हुआ है, और उसमें भी तोहमत तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेता पर है। इसलिए राज्य में सत्ता के ऐसे आतंक के बीच यह मुमकिन है कि लोग सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के खिलाफ शिकायत की हिम्मत न जुटा सकें।
लेकिन इस मामले की हकीकत से परे आज यहां इस पर चर्चा का मकसद कुछ और है। बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बैनर्जी ने अपने राज्य की इस चौदह बरस की नाबालिग लडक़ी की मौत पर सवाल उठाते हुए कहा है कि कहानी बताई जा रही है कि रेप की वजह से नाबालिग लडक़ी की मौत हो गई, क्या आप उसे रेप कहेंगे? वो लड़क़ी गर्भवती थी या उसका प्रेम-प्रसंग चल रहा था, क्या आपने जानने की कोशिश की? पुलिस ने मुझे बताया है कि लडक़ी और उस लडक़े का अफेयर चल रहा था।
ममता बैनर्जी का यह बयान परले दर्जे की घटिया सोच है, और एक राज्य की शासन प्रमुख के लिए ऐसी सोच धिक्कार की बात है। वे इस मामले की जांच की बात तो कर रही हैं, लेकिन जांच करने वाली अपनी मातहत एजेंसियों को वे अपना रूख पहले ही बता दे रही हैं। ममता बैनर्जी जैसी सनकी, और अस्थिर चित्त की नेता का कहा हुआ उनकी सरकार के लोगों के लिए एक धार्मिक फतवे सरीखा होता है। इस तरह के सार्वजनिक बयान के बाद उनकी सरकार में किसकी हिम्मत है जो कि इस लडक़ी के प्रेम-प्रसंग से परे कोई और संभावना जांच सके? ममता बैनर्जी को एक दुखी परिवार के जख्मों पर नमक रगड़ते हुए ऐसा बयान देते एक महिला के रूप में भी शर्म नहीं आई। उनके बयान में कानून की एक बहुत मामूली समझ कहीं भी नहीं झलकती कि लडक़ी नाबालिग थी, और ममता की पार्टी के एक नेता के जिस बेटे पर बलात्कार का आरोप लगा है, वह वयस्क था। केवल उम्र के ऐसे फर्क से यह मामला बलात्कार का बन जाता है, लेकिन ममता बैनर्जी ऐसे संवेदनाशून्य बयान पहले भी देते आई हैं। इसे देखकर ऐसा लगता है कि उनके भीतर की महिला लगातार सत्ता में बने रहने से मर चुकी है, और एक नाबालिग लडक़ी की लाश के साथ भी उनकी न तो एक महिला की हैसियत से हमदर्दी है, न ही उस राज्य की मुख्यमंत्री की हैसियत से उन्हें ऐसी मौत पर कोई अफसोस है, और न ही एक इंसान के रूप में एक गमजदा परिवार के साथ उनकी कोई हमदर्दी है। सत्ता बहुत से लोगों पर इस किस्म का असर डालती है, और बहुत सी महिलाएं भी लंबे समय तक सत्ता में बने रहकर अपनी संवेदना खो बैठती हैं। बंगाल की राजनीति में वामपंथियों, भाजपाईयों, और तृणमूल कांग्रेसियों के बीच खूनी संघर्ष लंबे समय से चलते रहा है, और वहां का माहौल हिंसा को लेकर संवेदनाशून्य हो चुका है। भारत के नेताओं में महिलाओं से बलात्कार को लेकर गंदी सोच एक बड़ी आम बात है, और अधिकतर पार्टियों के नेता बलात्कार के लिए महिलाओं को ही उन पर बलात्कार के लिए किसी न किसी तरह से जिम्मेदार ठहराने के फेर में रहते हैं, लेकिन जब कोई बड़ी महिला नेता भी ऐसी ही जुबान का इस्तेमाल करती है, तो हमारा मन भारी हो जाता है।
पश्चिम बंगाल में सत्ता की छत्रछाया में सत्तारूढ़ पार्टी के लोगों द्वारा विधानसभा चुनाव के बाद से लेकर अब तक लगातार कई बार की गई हिंसा की कई किस्म की जांच चल रही है। कलकत्ता हाईकोर्ट और दूसरी संवैधानिक संस्थाओं ने बंगाल की हिंसा पर तरह-तरह की जांच शुरू करवाई है, वे अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंची हैं। इस बीच ममता बैनर्जी ने केन्द्र सरकार के साथ टकराव के अपने पुराने रूख को तो जारी रखा ही हुआ है, उन्होंने राज्य में चल रही हिंसा की जिम्मेदारी भी एक शासन प्रमुख के रूप में लेने से इँकार कर दिया है। यह पूरा सिलसिला उन्हें महज एक सत्तारूढ़ नेता भर बनाकर छोड़ रहा है। ममता बैनर्जी ही नहीं, इस देश के अनगिनत और ऐसे नेता हैं जो मुख्यमंत्री या केन्द्र सरकार की बड़ी कुर्सियों तक पहुंचे, लेकिन उन ओहदों के नाम से परे वे किसी तरह से भी महान नेता नहीं बन पाए। उनके पास क्षमता भी थी, उनमें संभावनाएं भी थीं, लेकिन उनमें महानता का गुण नहीं था, इसलिए वे चुनावी कामयाबी से आगे नहीं बढ़ पाए। ममता बैनर्जी को कुछ इंसानियत सीखने की जरूरत है, और अपनी सरकार, अपनी पार्टी के हर जुर्म को मंजूरी देने की अपनी जिद्द छोडऩे की जरूरत है। देश में एक बड़ी भूमिका निभाने की उनकी हसरत जरूर है, लेकिन आए दिन की उनकी ऐसी हरकत उन्हें ऐसी हसरत से दूर धकेलने का ही काम कर रही है। देश के समाज के सजग हिस्से को नेताओं की घटिया सोच और गंदी जुबान के खिलाफ खुलकर बोलना और लिखना चाहिए।
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उत्तरप्रदेश के महाराजगंज जिले की खबर है कि वहां की एक अदालत से एक दूधवाले को उम्रकैद हुई है और बीस हजार रुपये जुर्माना सुनाया गया है। इतने में तो कोई बात अटपटी नहीं है क्योंकि इस दूध में यूरिया की मिलावट पाई गई थी जो कि इंसानी बदन के लिए भारी नुकसानदेह है। जाहिर है कि ऐसी मिलावट में कड़ी सजा होना ही था। लेकिन अटपटी बात यह है कि यह मामला तेईस साल पहले का था, और एक प्रयोगशाला की रिपोर्ट के आधार पर यह सजा हुई है। ठीक इसी तरह एक दूसरा मामला उत्तरप्रदेश के ही शाहजहांपुर की अदालत का है जहां दो लोगों को उम्रकैद हुई है, और यह फैसला पच्चीस साल बाद आया है। इस मामले में 1997 में जहरीले आटे से बनी रोटी खाकर चौदह लोगों की मौत हो गई थी, और उसकी सजा अब दी गई है। जाहिर है कि आटे के जहरीले होने की रिपोर्ट भी प्रयोगशाला से ही आई होगी। जो लोग ऐसे मामलों में पुलिस और दूसरे सरकारी विभागों के काम के तरीके जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि सुबूत जब्त और सील करने से लेकर प्रयोगशाला की रिपोर्ट आने तक का पूरा सिलसिला आम हिंदुस्तान भ्रष्टाचार से भरा हुआ रहता है, और इस बाधा दौड़ को पार करते हुए जब कोई सुबूत प्रयोगशाला में मिलावटी, स्तरहीन, या जहरीला पाया जाता है, तो ही सजा की नौबत आती है। आमतौर पर हिंदुस्तान में ऐसे सुबूतों की जांच को लेकर मुजरिम और भ्रष्ट लोग चैन की नींद सोते हैं कि बहुत सी प्रयोगशालाओं में नतीजों को आसानी से खरीदा जा सकता है, और किस प्रयोगशाला में सैम्पल भेजा गया है, वह पता लगाना भी आसान रहता है, महज कुछ हजार की रिश्वत का काम रहता है।
अब सवाल यह उठता है कि रासायनिक सुबूतों वाले ऐसे आसान से मामलों में भी जब फैसला आने में चौथाई सदी लग जा रही है, तो उसका मतलब यह है कि जांच और न्याय व्यवस्था इस देश में तकरीबन नामौजूद हैं। अधिक गुंजाइश तो यही रहती है कि पच्चीस बरस पहले ऐसे मिलावट के जिम्मेदार मुजरिम अब तक मर-खप गए होंगे, और किसी के सजा पाने की गुंजाइश कम ही रहती है। फिर यह भी है कि इतने बरस जाकर अब निचली अदालत से सजा हुई है, तो अभी ऊपर की बड़ी अदालतों तक अपील और सुनवाई, और फैसला बदल जाने की गुंजाइश बाकी ही है। आज हालत यह है कि देश भर में मिलावट और नकली खानपान पकडऩे वाले विभाग अपने-अपने प्रदेशों में सबसे भ्रष्ट चुनिंदा विभागों में से एक रहते हैं। कहीं नकली खोवा पकड़ाता है, तो पास का त्यौहार निकल जाने हफ्तों बाद उसकी जांच रिपोर्ट आती है। नतीजा यह रहता है कि मिलावटी सामान लोगों के पेट में जाते ही रहता है। पुलिस और दूसरे विभागों के सैम्पल जब्ती के सही तरीके, और उनकी प्रयोगशाला से आनन-फानन जांच की गारंटी जब तक नहीं होगी, तब तक कोई इंसाफ नहीं हो सकता। जिस देश की न्यायपालिका को इस बात पर शर्म नहीं आती कि मिलावट के मामलों में सजा देने में उसकी पच्चीस बरस लगते हैं, वहां ऐसे जुर्म के शिकार लोगों को इंसाफ भला कब और कैसे मिल सकेगा?
हिंदुस्तानी स्कूलों में बच्चे बचपन से ही निबंध लिखना सीखते हैं कि देर से मिला न्याय, न्याय नहीं होता। लेकिन हिंदुस्तान में न्याय का यही तरीका है, यही सिलसिला है, और यही रफ्तार है। कायदे की बात तो यह है कि अलग-अलग प्रदेशों को अपने राज्य में मिलावट और नकली खानपान के दर्ज मामलों का अध्ययन किसी गैरसरकारी एजेंसी से करवाना चाहिए कि उनमें से इंसाफ या सजा तक मामले कितने बरस में पहुंच पाते हैं। ये मामले जमीनों पर कब्जे के अदालती मामलों से अलग रहते हैं क्योंकि इनसे लोगों की जिंदगी जुड़ी रहती है। अब सवाल यह है कि देश-प्रदेश की सरकारें अपनी खुद की नाकामी के मामलों के कितने अध्ययन करवाएंगी, क्योंकि आज तो सरकारों की नीयत अपनी कमियों और खामियों को किसी भी तरह से ढंकने की रहती है। फिर भी लोकतंत्र में एक कारगर तरीका है जिसका इस्तेमाल जनसंगठन कर सकते हैं। सरकारों से जो जानकारी सूचना के अधिकार में भी नहीं मिलती है, वैसी जानकारी किसी सांसद या विधायक को पकडक़र उससे सदन में एक सवाल लगवाकर पाई जा सकती है। ऐसी जानकारी के तहत यह भी पाया जा सकता है कि मिलावट और नकली खानपान के दर्ज मामले कितने वक्त से चले आ रहे हैं, और उनमें प्रयोगशाला की जांच रिपोर्ट आने में कितना वक्त लग रहा है, अदालती सुनवाई में कितना वक्त लग रहा है, और कितने फीसदी मामलों में सजा हो रही है। किसी भी प्रदेश में विधानसभा में पूछा गया एक सवाल सरकार को मजबूर कर सकता है कि वह ऐसी पूरी जानकारी इकट्ठा करके सदन के सामने पेश करे। चूंकि ऐसे सवाल जनता के हित में रहते हैं इसलिए विधायकों को इनके लिए तैयार भी किया जा सकता है, और जनसंगठन, सामाजिक कार्यकर्ता, या अखबार ऐसे सवाल विधायकों को देकर अपील भी कर सकते हैं।
हिंदुस्तान में सूचना का अधिकार लागू है, और अगर सरकारें ईमानदार नीयत से जनता को यह हक देने में योगदान करें, तो सरकारी व्यवस्था की बहुत किस्म की खामियां सामने आ सकती हैं। उत्तरप्रदेश की अदालतों के ये दो ताजा फैसले जनता की जागरूकता की मांग करते हैं ताकि सरकार और अदालत की रफ्तार सुधारी जा सके।
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छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में राजधानी रायपुर के अफसरों ने हलफनामा दिया है कि वे ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए हाईकोर्ट के आदेश का शब्दश: पालन करेंगे। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई बार के आदेश के बावजूद छत्तीसगढ़ के शहरों में भयानक ध्वनि प्रदूषण किया जाता है, और उसे रोकने का जिम्मा जिन अफसरों पर है वे पूरी तरह उसकी अनदेखी करते हैं। ऐसे में रायपुर में अदालती अनदेखी करने को लेकर अफसरों के खिलाफ अवमानना याचिका लेकर लोग हाईकोर्ट गए थे, और वहां पर अदालत को अफसरों ने यह भरोसा दिलाया है। अदालत तक बार-बार जाने वाले लोगों में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी और सरकार के बड़े करीबी लोग भी शामिल हैं, जिससे जाहिर है कि सरकार तक उनकी पहुंच शोरगुल को कम करने में काम नहीं आ रही है। राजधानी रायपुर के कुछ सामाजिक कार्यकर्ता लगातार सोशल मीडिया पर होटलों और शादी-ब्याह, जुलूस और शोभायात्राओं के लाउडस्पीकरों के वीडियो भी लगातार सोशल मीडिया पर पोस्ट होते हैं, लेकिन अफसरों पर इनका कोई असर नहीं होता। सौ जगहों पर कानून तोड़ा जाता है तो दो जगहों के चालान को अफसर अपनी कार्रवाई के सुबूत की तरह पेश कर देते हैं। और ऐसा लगता है कि जब किसी प्रदेश की राजधानी ही इस हद तक अराजक रहे तो उसका एक मतलब यह भी होता है कि सत्ता को भी उस मुद्दे से कोई फर्क नहीं पड़ रहा। जिला स्तर के अफसरों के ऊपर के बड़े अफसरों और मंत्रियों तक अदालत की अवमानना के मामले आमतौर पर नहीं पहुंचते, और इसलिए किसी की आंखें भी नहीं खुलतीं। जिस प्रदेश के डीजीपी और मुख्य सचिव को कटघरे में खड़ा किया जाता है, उस प्रदेश में जिले के अफसरों के हाथ-पैर हिलने लगते हैं।
ध्वनि प्रदूषण जब कारोबारी और संगठित रूप से होता है, जब वह एक जलसे और जुलूस की शक्ल में होता है, तो वह फटाखा जलाकर भाग जाने जैसा काम नहीं होता है, बल्कि वह सोच-समझकर, खर्च करके, नुमाइश करके, और अपनी शान दिखाने के लिए किया गया काम होता है, जो कि स्थानीय पुलिस और दूसरे अफसरों की नजरों से बचा नहीं रहता, और जो कानून और अदालती हुक्म को एक सीधी चुनौती जैसा रहता है। जब बड़ी-बड़ी गाडिय़ों पर ढेर सारे लाउडस्पीकर बांधकर, तरह-तरह की रौशनी एक-एक किलोमीटर तक लोगों की आंखों में फेंकते हुए सडक़ों पर रास्ता जाम करते हुए जुलूस निकलते हैं, तो भला कोई अफसर अपने आपको उससे अनजान कैसे बता सकते हैं?
अदालत ने अभी यह भी कहा है कि अफसर लोगों को फोन नंबर मुहैया कराएं जिस पर लोग शिकायत कर सकें। यह काम तो वैसे भी होना चाहिए, और हर जिले के अफसरों को न सिर्फ शोरगुल के लिए बल्कि किसी भी दूसरे तरह के कानून तोडऩे के खिलाफ शिकायत के लिए सोशल मीडिया के पेज भी मुहैया कराने चाहिए, और फोन नंबर भी। आज किसी अराजकता की वीडियो रिकॉर्डिंग करके उसे पोस्ट करना या वॉट्सऐप पर भेजना बड़ा आसान हो गया है, और यह पुलिस के लिए मुफ्त में हासिल होने वाली मुखबिरी जैसी है। साथ-साथ अब चूंकि यह मामला अदालत में अफसरों के दिए हुए हलफनामे पर भी जाकर टिक गया है, तो ऐसे संदेश और पोस्ट की गई ऐसी शिकायतें एक सुबूत की तरह भी काम करेंगी। आज दिक्कत यह है कि इन सुबूतों के रहते हुए भी अफसर इतना मामूली जुर्माना करते हैं कि अगले दिन से फिर वही गाड़ी वाले वही स्पीकर लगाए फिर कानून तोड़ते हुए, और लोगों का जीना हराम करते हुए निकल पड़ते हैं। ऐसी गाडिय़ां राजसात करना, इनका रजिस्ट्रेशन रद्द करवाना, ऐसे सामान जब्त करना, ऐसा कारोबार करने वाले लोग और उन्हें भाड़े पर लेने वाले लोगों को गिरफ्तार करना अगर शुरू किया जाए तो अगले दिन से तस्वीर बदल जाएगी।
इस बार सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अफसरों के खिलाफ हाईकोर्ट में जिस तरह की घेरबंदी की है, उसमें आम लोगों को भी साथ देना चाहिए। आम लोगों को भी कानून तोडऩे के सुबूत जुटाकर उन्हें मीडिया को भी भेजना चाहिए, और सोशल मीडिया पर भी पोस्ट करना चाहिए। होटल और मैरिज गार्डन किस्म के जो कारोबार लगातार कानून तोड़ते हैं, उनके खिलाफ रिकॉर्डिंग करके हाईकोर्ट को भी भेजना चाहिए ताकि स्थानीय अफसरों पर अपने असर का इस्तेमाल करके उनका बचना जारी न रहे। हाईकोर्ट बरसों से अफसरों को चेतावनी देते आ रहा है, और अफसर बरसों से उसके हुक्म को कचरे की टोकरी में फेंकते आ रहे हैं। अब लोहा गर्म हो चुका है, और अब भी अगर लोगों की जिंदगी को हराम करने का यह सिलसिला जारी रहता है, तो ऐसा करने वाले लोगों, और उन्हें छूट देने वाले अफसरों को अदालती कटघरे तक ले जाने के सुबूत लोगों को जुटाने चाहिए।
हमारा ख्याल है कि जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हाईकोर्ट तक जाकर जनहित याचिका लगाई थी, और जो बार-बार अवमानना याचिका भी लगा रहे हैं, उन्हें सोशल मीडिया पर इसके लिए पेज बनाकर उसका प्रचार करना चाहिए, ताकि लोग वहां पर कानून तोडऩे के सुबूत पोस्ट कर सकें। इसके बाद अफसरों के लिए भी यह आसान नहीं रहेगा कि वे जानकारी न होने या शिकायत न मिलने का बहाना बना सकें। आज शहरी जिंदगी में लोगों पर इतना काम रहता है, लोगों को फोन पर और दूसरी तरह से भी इतना काम करना पड़ता है कि पास घंटों बजते हुए लाउडस्पीकर उनकी जिंदगी का सुख-चैन तो खत्म करते ही हैं, उनकी उत्पादकता भी खत्म करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि राजधानी में प्रशासन ने राजभवन और मुख्यमंत्री निवास के आसपास के इलाके में लाउडस्पीकर बजाने पर स्थायी रूप से रोक लगा रखी है। क्या इन्हें नागरिकों से ऊपर का कोई बुनियादी हक मिला हुआ है? या फिर आम नागरिकों की कीमत आम की गुठली जितनी है जिन्हें कि किसी भी तरह के शोरगुल से, प्रदूषण से हलाकान किया जाए। अब अदालती आदेश के बाद छत्तीसगढ़ के शहरों की जनता की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह सक्रिय हो, कानून तोडऩे की रिकॉर्डिंग करे, और उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट करे, अपने इलाके के अफसरों को भेजे।
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उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद के एक बहुत ही विवादास्पद और साम्प्रदायिक महंत यति नरसिम्हानंद ने हिन्दुओं से अधिक बच्चा पैदा करने की अपील की है ताकि आने वाले दशकों में हिन्दुस्तान हिन्दूविहीन राष्ट्र न हो जाए। अभी-अभी नरसिम्हानंद हरिद्वार में नफरती भाषण के मामले में जमानत पर रिहा हुए हैं। उन्होंने उसके बाद एक भाषण में कहा कि गणितीय गणना कहती है कि 2029 तक एक गैरहिन्दू प्रधानमंत्री बन जाएगा। उन्होंने कहा कि अगर एक बार कोई गैरहिन्दू प्रधानमंत्री बन गया, तो बीस साल में यह देश हिन्दूविहीन हो जाएगा। उन्होंने हिन्दुओं से अधिक बच्चे पैदा करने को कहा है। इसके पहले इतवार को ही उन्होंने दिल्ली की एक हिन्दू महापंचायत में भी हिस्सा लिया था, और कहा था कि अगर कोई मुसलमान भारत का प्रधानमंत्री बनता है तो पचास फीसदी हिन्दू धर्मांतरित हो जाएंगे, और हिन्दुओं को अपने अस्तित्व के लिए लडऩे के लिए हथियार उठाने बाध्य होना पड़ेगा।
इस तरह की बकवास करने वाले अलग-अलग कई धर्मों के लोगों के बारे में राजनीति बड़े सहूलियत का रूख अख्तियार करती है। अपनी-अपनी पसंद से नेता इनकी बातों को सही ठहराते हैं, या अधिक असुविधा होने से उस पर कुछ कहने से बच जाते हैं। धर्म की वकालत करने वाले कुछ लोग ऐसे लोगों को कभी महत्वहीन बड़बोले करार दे देते हैं, तो कभी उनकी लगाई हुई आग पर अपनी चुनावी रोटी सेंकने के लिए घेरा डालकर बैठ जाते हैं। कुल मिलाकर इस तरह घोर साम्प्रदायिक और हिंसक बातों को करके धर्म के ये झंडाबरदार कसौटी के पत्थर पर अदालत के बर्दाश्त को भी घिसते हैं कि बिना सजा पाए और क्या-क्या कहा जा सकता है। आज महानता के सारे दावे करने के बावजूद हिन्दू धर्म का हाल यह हो गया है कि एक से बढक़र एक घटिया और हिंसक बातें करने वाले लोग अपने आपको इस धर्म का ठेकेदार साबित करते हैं, और जिन अनगिनत हिन्दुओं को वे अपना मातहत बताते हैं, उनमें से अधिकतर चुप रहकर ऐसे दावों को मानो मंजूरी भी दे देते हैं। कुछ गिने-चुने ऐसे हौसलामंद लोग हैं जो सोशल मीडिया पर खुलकर यह कहते हैं कि ऐसे बकवासी तथाकथित हिन्दुत्व-ठेकेदार मेरा प्रतिनिधि नहीं करते हैं। लेकिन जहां पर बात चुनावों में भेड़ों के रेवड़ की तरह हॉंककर ले जाने वाले वोटरों की है, तो उन्हें वोट डालने तक बरगलाने की ताकत काफी रहती है, और उसके बाद की यह फिक्र नहीं रहती कि इससे हिन्दुस्तान के विविधतावादी बुनियादी ढांचे पर कितने जख्म लग रहे हैं। अभी-अभी हमने इसी जगह पर कर्नाटक में चल रही हिन्दुत्व की प्रयोगशाला को लेकर लिखा था और कल से कर्नाटक में मुस्लिम टैक्सी ड्राइवरों के बहिष्कार का एक नया फतवा और जुड़ गया है। हिन्दू धर्म का आज उसके बहुत से ठेकेदारों ने महज यह इस्तेमाल मान लिया है कि उससे गैरहिन्दुओं पर, और फिलहाल खासकर मुसलमानों पर कितना हमला किया जा सकता है। क्या हजारों बरस पहले का यह धर्म या हिन्दुत्व अब महज इतना तंग हो चुका है कि उसे जिंदा रहने के लिए अपने लोगों को बर्बाद कर देने वाली राय देनी पड़ रही है। यह बात साफ है कि सबसे गरीब लोगों के अधिक बच्चे होते हैं, क्योंकि उनमें से कितने जिंदा बचते हैं, और कितने मर जाते हैं, इसका ही ठिकाना नहीं रहता। ऐसे में आज गरीबी, फटेहाली, भुखमरी, और कुपोषण के बीच गरीब हिन्दुओं को अधिक बच्चे पैदा करने का फतवा धार्मिक होने का दावा करने वाला एक ऐसा आदमी दे रहा है जो बिना मेहनत धर्म के नाम पर ऐशोआराम करते हुए जीने वाले तबके का है।
जिन लोगों को यह लगता है कि अधिक बच्चे पैदा करना किसी धर्म को बचाने का काम हो सकता है, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि दुनिया में धर्म अधिक संख्या की वजह से नहीं फैला, अधिक संपन्नता की वजह से फैला है, और सत्ता की अधिक ताकत की वजह से फैला है। अपने लोगों को अधिक बच्चों के बोझ से और अधिक लादकर उनके बच्चों को कुपोषण का शिकार बनाना, उन्हें अनपढ़ रहने देना, और उन्हें हमेशा के लिए गरीब बना देना यह किसी धर्म की भलाई का काम नहीं हो सकता। ईसाई धर्म संपन्न शासकों का धर्म था, इसलिए वह हिन्दुस्तान तक आकर यहां फैल सका, और लोगों को ईसाई बना पाया। ठीक इसी तरह मुगल ताकतवर थे, और इसलिए वे हिन्दुस्तान तक आकर यहां हमला कर पाए, और यहां लंबा राज किया, और लोगों को मुसलमान बना पाए। हिन्दू अगर संपन्न होंगे, सक्षम होंगे, ताकतवर होंगे, तो वे और लोगों को हिन्दू बना पाएंगे, लेकिन अगर वे आबादी बढ़ाने के मकसद से अधिक बच्चे पैदा करेंगे तो वे एक गरीब आबादी की भीड़ खड़ी करेंगे जिसे खिलाने का जिम्मा हिन्दुओं के भी कोई मठ-मंदिर नहीं लेंगे, जिनके पास इतनी दौलत है कि जिसे गिनना भी मुमकिन नहीं है।
धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता की हिंसक बातें करने वालों के हौसले आज के हिन्दुस्तान में आसमान पर हैं। जो बकवासी आदमी अभी जेल से जमानत पर छूटा हुआ है, वह फिर से घोर साम्प्रदायिक और हिंसक बातें कर रहा है, और धर्म के आधार पर नफरत फैलाने के अपने पसंदीदा शगल में जुट गया है। आज देश की हवा ऐसी है कि गांधी की हत्या की वकालत करने वाले लोगों को संसद पहुंचाया जा रहा है, और गोडसे के मंदिर बनाए जा रहे हैं। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि साम्प्रदायिकता की इतनी बातें करने वाले इस महंत को भी कोई राज्यसभा या लोकसभा पहुंचा दे। लेकिन हिन्दू धर्म के समझदार लोगों को यह देखना चाहिए कि जिनकी आबादी अधिक है, उनकी बदहाली का क्या हाल है। ऐसे फतवेबाज आबादी तो शायद नहीं बढ़वा पाते, लेकिन नफरत जरूर बढ़ा पाते हैं, जिससे कि आज वैसे भी हिन्दुस्तान की हवा जहरीली हो चुकी है। ऐसे लोगों का भांडाफोड़ किया जाना चाहिए, और यह काम इन्हीं के धर्म के लोगों को करना होगा।
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आज बहुत से लोग समाचारों के लिए सोशल मीडिया की तरफ देखते हैं। ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर खबरें सबसे पहले आती हैं, टीवी और समाचार की वेबसाइटों से भी पहले। लेकिन बहुत से लोग फेसबुक पर आने वाली जानकारी को खबरें मानकर उसी से अपना काम चला लेते हैं। अभी पश्चिम में हुई एक गंभीर रिसर्च में यह बात सामने आई है कि वहां रहने वाले लोग अगर मौसम में बदलाव की खबरों के लिए अगर फेसबुक पर भरोसा करते हैं, तो वे गलत जानकारियों से घिरने के खतरे में रहते हैं। अमरीका की कॉर्निल यूनिवर्सिटी में अभी एक रिसर्च में पाया कि 99.5 फीसदी वैज्ञानिक एक बात पर एकमत हैं कि क्लाइमेट चेंज इंसानों का पैदा किया हुआ है। किसी भी निष्कर्ष पर इतने वैज्ञानिक शायद ही कभी एक साथ रहते हैं। लेकिन अगर फेसबुक पर जाएं तो वहां सच्चाई कुछ और है। वहां पर जलवायु परिवर्तन को लेकर पोस्ट की जा रही गलत जानकारियां इस कदर हावी हैं कि अगर कोई उनमें से कुछ बातों में दिलचस्पी ले, तो फेसबुक का एल्गोरिदम् उन्हें ऐसी ही दूसरी गलत जानकारियों से लाद देता है। फेसबुक का काम करने का तरीका यही है कि लोगों की दिलचस्पी जैसी बातों में हो, उन्हें वैसे ही बातें अधिक दिखाई जाती हैं।
अब अभी एक संस्थान ने एक प्रयोग किया, उसने दो अलग-अलग नामों से दो फेसबुक खाते खोले, एक में उसने पर्यावरण और मौसम-बदलाव से जुड़ी हुई सही जानकारी में दिलचस्पी दिखाना शुरू किया, और दूसरे खाते से इन्हीं मुद्दों पर झूठी जानकारी और अफवाह में दिलचस्पी लेना शुरू किया। नतीजा यह निकला कि कुछ ही दिनों में सही देखने वाले को दूसरी सही जानकारियां दिखने लगीं, और गलत देखने वाले पर गलत जानकारियां लदती चली गईं। पर्यावरण को लेकर, वैक्सीन को लेकर, कोरोना और लॉकडाउन को लेकर, हिन्दुस्तान जैसे देश में गोमांस या बीफ को लेकर, मुस्लिमों को लेकर, फेसबुक तरह-तरह की झूठी जानकारी और पूर्वाग्रहों से भरा हुआ है। दुनिया की यह एक सबसे अधिक कमाने वाली कंपनी अपने प्लेटफॉर्म पर भरी हुई गलत और बदनीयत जानकारी को हटाने के लिए दिखावा जरूर करती है, लेकिन यह जाहिर है कि अंधाधुंध कमाई के बावजूद अगर वह गलत सूचना और दुर्भावना के विचार हटाने के लिए, नफरत और हिंसा हटाने के लिए काफी कुछ नहीं कर रही है, तो उसका मतलब यही है कि वह काफी कुछ करना नहीं चाहती है। आज फेसबुक का इश्तहारों का बाजार इस बात पर नहीं टिका है कि उस पर पोस्ट करने वाले, उसे पढऩे वाले या उस पर सक्रिय लोग बेहतर इंसान हैं या नहीं। विज्ञापन देने वालों को सिर्फ गिनती से मतलब रहता है कि कितने लोग फेसबुक पर कितनी देर सक्रिय हैं, और वे कितने इश्तहारों के सामने पड़ते हैं। इसलिए जब फेसबुक यह पाता होगा कि नफरत या झूठी जानकारी को लेकर लोग अधिक सक्रिय रहते हैं, और झूठी जानकारी पाने वाले लोग भी उस प्लेटफॉर्म पर अधिक वक्त गुजारते हैं, तो उसके कम्प्यूटरों का एल्गोरिदम् उन्हीं को बढ़ाने का काम करता होगा क्योंकि आखिरकार फेसबुक है तो कारोबार ही।
जो दो अकाऊंट खोलकर फेसबुक पर यह प्रयोग किया गया उससे यह बात भी सामने आई कि झूठ और गलत जानकारी में दिलचस्पी लेने वाले पर झूठ की बरसात सी हो रही थी, और उसके मुकाबले सही जानकारी पाने वाले को सीमित संख्या में ही सही जानकारी मिल रही थी। मतलब यह कि जो पुरानी कहावत चली आ रही है कि जब तक सच अपने जूतों के तस्मे बांधता है, तब तक झूठ शहर का एक फेरा लगाकर आ जाता है। यह भी लगता है कि हिन्दुस्तान जैसे देश में साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता को बढ़ाने के लिए जो लोग शौकिया, या भुगतान पाकर यह काम करने वाले पेशेवर की तरह काम करते हैं, वे समझदारी की और अहिंसा की बातें करने वालों के मुकाबले बहुत अधिक सक्रिय रहते हैं, और झूठ के मुकाबले सच के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते हैं। आज फेसबुक की पकड़ और जकड़ भयानक रफ्तार से फैलने वाली जंगली घास की तरह हो गई है जो कि दूसरी फसल के लिए जगह नहीं छोड़ती है। आज लोगों की जिंदगी में सामाजिक अंतरसंबंधों का जो समय है, उसका एक बड़ा हिस्सा फेसबुक ने कब्जा रखा है, और वह अगर लापरवाही से, या कि सोच-समझकर लोगों को एक तरफ मोड़ रहा है, तो वह लोगों की लोकतांत्रिक और मानवीय सोच को अपने कारोबारी फायदे के लिए, और अपने किसी बड़े ग्राहक के राजनीतिक या साम्प्रदायिक फायदे के लिए उसी तरह मोड़ रहा है जिस तरह नदी की धार को एक नहर बनाकर उस तरफ मोड़ा जाता है।
फेसबुक के खतरे कम नहीं हैं, और अमरीका में अभी संसद के सामने इसके मालिक की लंबी पेशी हुई है, जिसमें वहां के सांसदों ने फेसबुक के गैरजिम्मेदार रूख के बारे में कड़े सवाल किए हैं। अभी-अभी भारत में फेसबुक के बारे में यह रिपोर्ट आई है कि इसने 2019 के चुनावों के दौर में बाइस महीनों में हुए दस अलग-अलग चुनावों में भाजपा से विज्ञापनों का कम भुगतान लिया है, और दूसरे राजनीतिक दलों से अधिक भुगतान लिया है। पत्रकारों की एक संस्था, द रिपोटर््र्स कलेक्टिव ने एक बड़ा रिसर्च किया है जिसमें उसने यह पाया है कि फेसबुक ने भाजपा, उसके उम्मीद्वारों और उसके सहयोगी संगठनों के इश्तहार जिस रेट पर दिखाए, कांग्रेस के इश्तहार उससे 29 फीसदी अधिक रेट पर दिखाए। जिन लोगों को फेसबुक एक मासूम कारोबार लगता है, उन्हें यह बात समझने में दस-बीस बरस लग सकते हैं कि यह किसी देश के लोकतंत्र को, वहां की जनता की पसंद को प्रभावित करने का एक धंधा भी है, और यह सिर्फ चुनाव प्रभावित करने की मशीन नहीं है, यह नफरत फैलाने और हिंसा फैलाने का प्लेटफॉर्म भी है जिसे अंधाधुंध कमाई के बावजूद सुधारा नहीं जा रहा है। रिपोर्टरों की इसी जांच-पड़ताल में यह बताया है कि फेसबुक ने भाजपा के एजेंडा को बढ़ाने वाले बहुत से दूसरे मुखौटाधारी विज्ञापनदाताओं को खूब बढ़ावा दिया, और उसने भाजपा की विरोधी पार्टियों और उनके उम्मीदवारों के मुद्दों को उठाने वाले वैसे विज्ञापनदाताओं को ब्लॉक करने का काम भी किया।
फेसबुक नाम का यह खतरा हिन्दुस्तानी चुनावों के इतिहास में बूथ पर कब्जा करने वाले गुंडों की तरह का दिखता नहीं है, लेकिन यह लोकतंत्र में जनता की सोच को प्रभावित करने का भाड़े का एक हथियार बन गया है जो कि मानो सुपारी लेकर काम करता है।
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कर्नाटक में पहले हिजाब को लेकर सत्ता और सत्तारूढ़ पार्टी के फतवे चले, जिसने पांच राज्यों के चुनाव के बीच देश में हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का काम किया। फिर कर्नाटक हाईकोर्ट ने हिजाब के हक की मांग करने वाली मुस्लिम छात्राओं को कोई राहत नहीं दी, तो वह मुद्दा फिलहाल टल गया, और कर्नाटक भाजपा के बड़े नेताओं ने प्रदेश की हिन्दू आबादी से अपील की कि वे मुस्लिम तरीके से, हलाल करके काटे गए जानवर का गोश्त न खाएं क्योंकि उससे मुस्लिम एक आर्थिक जिहाद चला रहे हैं। यह मामला अभी हवा में उछला ही हुआ था कि वहां हाईकोर्ट के एक फैसले के मुताबिक सभी धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर हटाने की जगह मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने के फतवे दिए गए, और कर्नाटक का एक पुराना घोर साम्प्रदायिक संगठन श्रीराम सेना इसके लिए जुट गया है। अभी इसको चार दिन भी नहीं हुए हैं कि श्रीराम सेना ने मुस्लिम फल व्यापारियों के बहिष्कार का फतवा दिया है, और उसका तर्क है कि आम के थोक बाजार पर मुस्लिम कारोबारियों का दबदबा है जो हिन्दू किसानों से फल खरीदने के लिए इंतजार कराते हैं, और फिर सस्ते रेट पर आधी रात में आम खरीदते हैं। इस संगठन का कहना है कि कुछ जिलों में पचास फीसदी तक फल-सब्जी कारोबारी मुसलमान हैं।
भाजपा के राज वाले इस प्रदेश में मुख्यमंत्री बसावराज बोम्मई से लेकर उनके मंत्री, उनकी भाजपा के बड़े नेता, और दूसरे हिन्दू संगठन लगातार प्रदेश में मुस्लिमों पर हमला करने का अभियान चलाए हुए हैं, और कर्नाटक हमलावर हिन्दुत्व की एक प्रयोगशाला की तरह चलाया जा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि यह देश में ऐसे हिंसक, अलोकतांत्रिक, और साम्प्रदायिक प्रयोग करने वाला अकेला प्रदेश है, लेकिन यह योगी के उत्तरप्रदेश और शिवराज के मध्यप्रदेश के मुकाबले भी कई गुना अधिक साम्प्रदायिक हो चुका है, और बढ़ते चल रहा है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इन तमाम मुस्लिम विरोधी मुद्दों का पर्याप्त असर जनता पर नहीं हुआ, और आम लोगों ने ऐसी फतवेबाजी को अनसुना किया है इसलिए नए-नए मुद्दे उठाए जा रहे हैं ताकि लोग कहीं चैन से रहना जारी न रखें। लेकिन राजनीति की समझ रखने वाले लोगों का एक दूसरा भी सोचना है। कुछ जानकार मानते और बताते हैं कि मुख्यमंत्री बसावराज बोम्मई पहले जनता दल में थे, और 2008 में वे भारतीय जनता पार्टी में आए। उन्होंने पिछले भाजपा मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के साथ काम किया था, और अब मुख्यमंत्री बने। लेकिन भाजपा के दायरे में ऐसा माना जाता है कि बोम्मई की कार्यकर्ताओं के बीच कोई पकड़ नहीं है, और वे भाजपा में नए हैं, और वे लोगों के बीच कट्टर हिन्दुत्व को बढ़ावा देकर अपनी एक बुनियाद बना रहे हैं।
जो भी हो, भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी है और उसकी एक राज्य सरकार उसकी राष्ट्रीय नीतियों से परे मनमानी तो कर नहीं सकती है। और एक संगठन के रूप में भाजपा की तरफ से कर्नाटक के इन हिन्दुत्व-प्रयोगों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है, बल्कि इनका साथ ही दिया गया है। इसलिए यह माना जाना चाहिए कि कर्नाटक की इस प्रयोगशाला को केन्द्र सरकार और भाजपा की मंजूरी प्राप्त है। यह भी लगता है कि एक के बाद दूसरा लगातार ऐसा प्रयोग क्या राष्ट्रीय स्तर पर किए जाने वाले कई प्रयोगों के पहले का कोई पायलट प्रोजेक्ट तो नहीं है? कई बार राजनीति और सार्वजनिक जीवन में जनमत और जनभावना को तौलने के लिए ऐसे प्रयोग किए जाते हैं, और देश के अलग-अलग तबकों का बर्दाश्त देखकर उनका विस्तार किया जाता है। अभी कुछ लोगों का यह भी मानना है कि कश्मीर फाइल्स नाम की एक फिल्म पर लोगों का रूख और रूझान देखकर अब किसी बड़े फैसले की तैयारी चल रही है, और इस फिल्म को एक नरेटिव सेट करने के लिए उतारा गया, लोगों की भावनाएं तौली गईं, और उन भावनाओं को एक सांचे में ढाला भी गया। कश्मीर से धारा 370 खत्म करने के बाद, और राज्य का तीन हिस्सों में बंटवारा करने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 24 अप्रैल को पहली बार कश्मीर प्रवास पर जा रहे हैं। वे वहां पर कश्मीरी पंडितों के कार्यक्रम में भी जाएंगे। इसलिए अगर कश्मीर फाइल फिल्म को लेकर देश भर में बना, और बनाया गया माहौल प्रधानमंत्री के इस प्रवास के पहले की भूमिका की तरह था, तो भी हैरानी नहीं होनी चाहिए। और इसी तरह कर्नाटक में अभी चल रहे आक्रामक प्रयोग अगर देश भर में ऐसे धार्मिक ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिकता का पायलट प्रोजेक्ट हैं, तो भी हैरानी नहीं होनी चाहिए।
सवाल यह है कि आज जब हिन्दुस्तान और बाकी दुनिया एक आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं, गिने-चुने लोगों के हाथ की दौलत बढ़ते चल रही है, लेकिन आबादी के अधिकतर हिस्से का हाल खराब होते चल रहा है, वैसे में देश को साम्प्रदायिकता के प्रयोगों, और फिर उनके विस्तार में झोंकने की अभी ऐसी क्या हड़बड़ी है? क्या यह 2024 के आम चुनावों के पहले जमीन को जोतकर फसल के लिए तैयार करने की लंबी तैयारी है, या फिर इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी, उसे तौला जा रहा है?
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि कर्नाटक में चल रहे ऐसे हिंसक और साम्प्रदायिक प्रयोगों का जो विरोध, कांग्रेस, जनता दल, जैसे संगठनों को करना चाहिए था, वैसा किया नहीं जा रहा है। ये राजनीतिक पार्टियां भी चुप बैठी हैं, या चुप सरीखी हैं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के इतिहास के इस दौर में सबकी प्रतिक्रिया दर्ज होते चल रही है।
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ हुई एक बैठक में देश के बड़े अफसरों ने यह सुझाया है कि अलग-अलग राज्य सरकारें जिस तरह लोगों को मुफ्त में चीजें देने में लगी हुई हैं, उससे इन प्रदेशों की माली हालत बहुत खराब हो सकती है। प्रधानमंत्री की देश के करीब दो दर्जन से अधिक बड़े अफसरों के साथ यह बैठक शायद की मुफ्त की योजनाओं को लेकर ही की गई थी क्योंकि इस बैठक की इन्हीं मुद्दों पर चर्चा सामने आई है। खबरों में जो आया है उसके मुताबिक बैठक में उन राज्यों की चर्चा हुई जो कि कर्ज में डूबे हुए हैं लेकिन जो वोट के बदले नोट सरीखी मुफ्त के तोहफों वाली योजनाएं घोषित किए जा रहे हैं, और लागू किए जा रहे हैं। यह जानकारी सामने रखी गई कि बिहार पर ढाई लाख करोड़, पंजाब पर पौन तीन करोड़ से अधिक, आन्ध्र पर करीब चार लाख करोड़, गुजरात पर पांच लाख करोड़, बंगाल पर साढ़े पांच लाख करोड़ से अधिक, और उत्तरप्रदेश पर साढ़े छह लाख करोड़ से अधिक का कर्ज है। लेकिन तमाम राज्य चुनावों के वक्त तरह-तरह की मुफ्त चीजों की घोषणा करते हैं, और फिर कम या अधिक हद तक इसे पूरा करते हैं। नतीजा यह होता है कि विकास के कामों के लिए सरकारों के पास पैसा नहीं बचता, बल्कि चुनावी वायदों के लिए भी राज्यों को लंबा-चौड़ा कर्ज लेना पड़ता है। इस बैठक में शामिल अफसरों ने श्रीलंका की मिसाल सामने रखी कि जिस तरह वहां पर अर्थव्यवस्था चौपट हुई है, उसी तरह की नौबत भारत के कई राज्यों में या पूरे देश में आ सकती है। हालांकि श्रीलंका को लेकर कई और वजहें भी गिनाई गईं, जो कि कम या अधिक हद तक भारत पर भी लागू होती हैं, लेकिन हम आज यहां पर जनता को मुफ्त में चीजें देकर वोटों के लिए रिझाने वाले पहलू पर ही बात करना चाहते हैं।
लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में तमिलनाडु जैसा राज्य जनता को सरकारी खर्च पर तोहफे देने में सबसे अधिक चर्चित रहा है, और वहां एक वक्त मुख्यमंत्री रहीं जयललिता का नाम जोड़-जोडक़र लोगों को तरह-तरह के मुफ्त सामान दिए जाते थे। यह एक अलग बात है कि बाकी तमाम राज्यों की तरह तमिलनाडु में भी मुफ्त के ऐसे सामानों की खरीदी और सप्लाई का बड़ा ठेका चलता था, और जिसमें बड़ा भ्रष्टाचार भी होता था। सरकारें जब भी किसी सामान को मुफ्त बांटती हैं तो उनमें सप्लायर के मार्फत बड़ी रिश्वतखोरी की गुंजाइश पहले तय होती है क्योंकि जो जनता किसी सामान को मुफ्त में पाती है, वह उसकी क्वालिटी को लेकर कोई सवाल नहीं करती, हिन्दुस्तान में लंबे समय से कहावत चली आ रही है कि दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते। एक-एक करके बहुत से राज्यों में अलग-अलग पार्टियों ने एक-दूसरे आगे बढऩे के लिए मुफ्त के सामानों का मुकाबला खड़ा किया, और अब वह बढ़ते-बढ़ते नगदी पर आ गया है, और हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कुछ पार्टियों ने हर महिला को हर महीने कुछ हजार रूपये देने की घोषणा भी की है।
लेकिन लोगों को मुफ्त मिलने वाले सामानों को एक ही दर्जे में रखना ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के पहले कार्यकाल से ही गरीबों को सस्ता चावल देने की जो योजना शुरू हुई, वह कभी बंद नहीं हो पाई क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी चाहे बदल जाए, गरीब समाज की यह जरूरत नहीं बदली है, और कोई पार्टी इसे बंद करने की हिम्मत नहीं कर सकती। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय गरीबों को सबसे बड़ा तोहफा देने का काम तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने किया था, उन्होंने तेंदूपत्ता का राष्ट्रीयकरण करके उन्हीं मजदूरों के बीच सारी कमाई बांटना शुरू किया था, पूरे प्रदेश में रिक्शा चलाने वालों को मालिकाना हक दिया था, सरकारी जमीन पर जो जहां बसे हुए थे, उन्हें वहां उसी जगह का मालिकाना हक दिया था, और हर गरीब के घर पर एकबत्ती कनेक्शन दिया था। इनमें से कोई भी योजना बंद नहीं हो सकी क्योंकि ये बड़े-बड़े तबकों के फायदे की तो थी हीं, ये समाज के आर्थिक विकास और गरीब परिवारों के मानवीय-सामाजिक विकास के लिए भी जरूरी थीं। इसी तरह स्कूलों में दोपहर के भोजन की योजना, पोषण आहार केन्द्रों में गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों को पोषण आहार की योजना से सबसे गरीब तबके को कुपोषण की जिंदगी से कुछ हद तक राहत मिली, और सबसे गरीब जनता के जीवन स्तर को एक न्यूनतम स्तर तक लाने की कोशिशों को सरकारी तोहफों से जोडक़र नहीं देखना चाहिए, हालांकि शहरी-संपन्न तबका ऐसा करता है क्योंकि सस्ता अनाज मिलने और मनरेगा में काम मिलने की वजह से शहरों को अब सस्ते और बेबस मजदूर नहीं मिलते।
कमजोर तबकों के न्यूनतम खानपान और न्यूनतम रहन-सहन, इलाज और पढ़ाई से जुड़ी हुई योजनाओं को तोहफे में गिनना गलत होगा। लेकिन हाल के बरसों में अलग-अलग चुनावों के वक्त सरकारें बिना आर्थिक बेबसी वाले तबकों को भी तरह-तरह से नगद या सामानों के जो तोहफे दे रही हैं, उससे उन राज्यों में विकास ठप्प होना तय है। जब सरकार अपनी कमाई से भी बाहर जाकर कर्ज लेकर लोगों में बांटती है, तो यह तय है कि जरूरी योजनाओं पर खर्च के लिए उसके पास पैसा ही नहीं बचेगा। फिर हाल ही में जिस तरह कर्नाटक के सरकारी ठेकेदारों ने प्रधानमंत्री को लिखकर भेजा है कि भाजपा की राज्य सरकार ठेकेदारों से चालीस फीसदी कमीशन मांग रही है, तो उससे भी यह तय है कि राज्यों के बजट का जो हिस्सा विकास कार्यों के लिए रहता है, उसका एक बड़ा हिस्सा इस तरह के भ्रष्टाचार में भी चले जाता है। इसलिए देश को इस बारे में सोचना चाहिए कि जनता के किस तबके को कौन सी बुनियादी जरूरतों के लिए मदद करना मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना नहीं है, और इन चीजों को बढ़ावा देना वोटरों को रिश्वत देने सरीखा काम है।
ऐसे ही वक्त याद पड़ता है कि देश में योजना आयोग नाम की एक संस्था थी जिसके सामने हर राज्य को अपने बजट और आर्थिक कार्यक्रम रखने पड़ते थे, और वहां से उसे कई किस्म की नसीहतें भी मिलती थीं, जानकारों के सुझाव मिलते थे। लेकिन चूंकि वह नेहरू के वक्त की बनी हुई संस्था थी, इसलिए यह जाहिर है कि अब उसकी जरूरत नहीं रह गई थी, और आज प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में कुछ अफसर उस तरह की चर्चा कर रहे हैं जिस तरह कि बात योजना आयोग में औपचारिक रूप से होती थी, और राज्यों की काफी हद तक जवाबदेही भी तय रहती थी। आज जब जनता की सामूहिक चेतना इस हद तक गैरजिम्मेदार हो गई है कि उसे राज्य के दीवालिया हो जाने की कीमत पर भी मुफ्त के तोहफे सुहा रहे हैं, तो उसका वोट पाने के लिए राजनीतिक दल तो इस तरह की तोहफेबाजी करते ही रहेंगे। यह सिलसिला पता नहीं कहां जाकर थमेगा, शायद वहां तक जाए कि इसकी हालत श्रीलंका जैसी दीवालिया हो जाए।
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हिन्दुस्तान के पड़ोस में दो देशों में अलग-अलग वजहों से एक भयानक अस्थिरता की नौबत आई हुई है, और इसका भारत पर कई तरह से असर पडऩा तय है। श्रीलंका में जो आर्थिक इमरजेंसी खड़ी हुई है उसमें वहां के लोगों का जीना मुहाल हो गया है, सरकार खत्म हो चुकी है, सत्तारूढ़ कुनबा अपने इस्तीफे देकर विपक्षियों को सरकार में शामिल होने का न्यौता देकर बैठा है, यह एक और बात है कि डूबते हुए जहाज की ऐसी कप्तानी में भागीदारी करना कोई नहीं चाहते। यह एक अजीब सा देश हो चुका था जिसमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भाई हैं, और इनके कुनबे के तीन और लोग अलग-अलग मंत्री हैं। अभी जब देश में बगावत की नौबत आ गई, लोगों के पास खाने को नहीं बचा, देश में बिजली-पेट्रोल नहीं बचा, जब राजधानी में लोगों की भीड़ राष्ट्रपति भवन की तरफ बढ़ गई, तब ऐसे जनदबाव में परिवार के तीन लोगों ने मंत्री पद से इस्तीफा दिया क्योंकि राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री छोडक़र सभी मंत्रियों के इस्तीफे ले लिए गए थे। लेकिन नाराज जनता सडक़ों पर नारे लगा रही है कि ये राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री भी जाएं क्योंकि आर्थिक बदहाली के लिए वे ही जिम्मेदार हैं। श्रीलंका से यह सबक लेना जरूरी है कि किस तरह वहां बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी के बीच चले लंबे गृहयुद्ध ने देश की अर्थव्यवस्था को चौपट किया, फिर श्रीलंका से होने वाले सामानों का निर्यात घटा, और 2019 में राजधानी कोलंबो में होटलों और चर्चों पर आतंकी हमले हुए जिसमें साढ़े तीन सौ से ज्यादा लोग मारे गए, और श्रीलंका का पर्यटन उद्योग पूरी तरह चौपट हो गया। यही तमाम बातें देश की कमाई थी, और सब कुछ खत्म होने के साथ-साथ अभी ठीक एक बरस पहले राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने एक सनकी फैसला लिया कि देश में रासायनिक खाद का इस्तेमाल पूरी तरह बंद किया जा रहा है, और खाद का आना रोक दिया गया, फसल गिर गई, और यह अर्थव्यवस्था के ताबूत की आखिरी कील साबित हुई। आज श्रीलंका दाने-दाने को मोहताज है, और अपने बंदरगाह चीन के पास गिरवी रखकर एक-एक दिन काट रहा है, भारत से मदद की अपील कर रहा है।
भारत के दूसरी ओर पाकिस्तान एक बिल्कुल ही अलग किस्म की राजनीतिक अस्थिरता से घिर गया है, अपनी ही पार्टी में अल्पमत का शिकार होकर प्रधानमंत्री इमरान खान ने संसद के भीतर अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने की बात तो कही, लेकिन अपनी ही पार्टी के संसद अध्यक्ष के हाथों अविश्वास प्रस्ताव को खारिज करवाकर उन्होंने राष्ट्रपति के मार्फत संसद भंग करवा दी, और अब देश एक और चुनाव के मुहाने पर पहुंच रहा है। हालांकि अभी सुप्रीम कोर्ट में संसद के फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई चल रही है, लेकिन यह देश अपने अस्थिर लोकतंत्र की लंबी परंपरा को बढ़ाते हुए आज फिर बुरी तरह अस्थिर खड़ा हुआ है। देश में ऐसे ही मौकों पर फौज ने कई बार सत्ता संभाली हुई है, और इस बार भी अगर ऐसी कोई नौबत आती है तो वह अभूतपूर्व नहीं रहेगी, और न ही ऐतिहासिक रहेगी। दिक्कत यह है कि पाकिस्तान और हिन्दुस्तान जब-जब किसी घरेलू संकट का शिकार होते हैं तो वहां की सरकारें सरहद पार पड़ोस से कोई टकराव खड़ा करके लोगों का ध्यान उधर खींचने का काम करती हैं। ऐसे में पाकिस्तान की घरेलू समस्या कब भारत के लिए कोई समस्या हो सकती है, इसका अंदाज लगाना न बहुत आसान है, और न बहुत मुश्किल। पाकिस्तान से भारत की चल रही तनातनी के चलते हुए वहां का कोई बोझ सीधे-सीधे हिन्दुस्तान पर नहीं पडऩे वाला है, लेकिन कार्यकाल के बीच में बदलने वाली सरकार पता नहीं कैसी अगली सरकार के लिए रास्ता खाली करेगी, और उसकी भारत नीति कैसी रहेगी, यह एक फिक्र की बात तो है ही क्योंकि पाकिस्तान मुस्लिम आतंकियों की पनाहगाह भी है, और एक परमाणु शक्ति भी है। पाकिस्तान में परमाणु शक्ति अगर आतंकी हाथों तक पहुंचती है, तो उसके नतीजे कल्पना से परे के भयानक हो सकते हैं। इसलिए वहां पर लोकतंत्र की शिकस्त को लेकर खुशी मनाने वाले कुछ हिन्दुस्तानी हालात की नजाकत को नहीं समझते हैं।
श्रीलंका में जब कभी गृहयुद्ध होता है, या कोई और आर्थिक संकट आता है तो उसका असर भारत के कुछ हिस्सों पर भी पड़ता है। भारत का तमिलनाडु न सिर्फ श्रीलंका के बहुत करीब है, बल्कि श्रीलंका की तमिल आबादी पहले भी गृहयुद्ध के चलते हुए लाखों की संख्या में तमिलनाडु में आकर शरणार्थी रह चुकी है। अभी भी पिछले कुछ दिनों में श्रीलंका से तमिल लोग तमिलनाडु पहुंच रहे हैं, और यह भारत के लिए एक फिक्र की बात रहेगी, भारत पर एक बड़ा आर्थिक बोझ भी रहेगा। भारत के लिए श्रीलंका एक मजबूरी इसलिए है कि मुसीबत में उसका साथ न देने पर वह चीन की गोद में जाकर बैठने को मजबूर हो जाएगा, और वह भारत के लिए एक बड़ा फौजी खतरा रहेगा। इसलिए पाकिस्तान से अलग, श्रीलंका भारत के लिए एक आर्थिक बोझ रहेगा, और आज हिन्दुस्तान की खुद की हालत ऐसी नहीं है कि वह श्रीलंका को एक सीमा से अधिक मदद कर सके। इतना जरूर है कि जहां श्रीलंका में सत्तारूढ़ नेता जनता का भरोसा पूरी तरह खोकर उसके निशाने पर हैं, जहां पाकिस्तान ने प्रधानमंत्री इमरान खान अपनी पार्टी के सांसदों का भी भरोसा खो चुके हैं, वहां पर हिन्दुस्तान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश में एक अभूतपूर्व जनसमर्थन वाले नेता बने हुए हैं। लेकिन देश पर पडऩे वाले बोझ और देश की सरहदों पर खड़े खतरे को अनदेखा नहीं किया जा सकता। भारत जैसे बड़े देश का नेता, और यह देश पड़ोसी देशों में हो रही हलचल से अछूता नहीं रह सकता। भारत की विदेश नीति की जटिलताओं को समझने वाले इस बात को बेहतर तरीके से समझ और समझा सकते हैं कि इन दो देशों के अलावा चीन के साथ चल रहे तनावपूर्ण संबंधों को भी साथ-साथ निभाना भारत का एक बड़ा बोझ है। यह देखना भी दिलचस्प है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के ऐसे मोर्चे पर इसी महीने भारत में नए विदेश सचिव काम सम्हालने जा रहे हैं, जो कि अभी तक एक बहुत ही छोटे देश नेपाल में भारत के राजदूत हैं। भारत सरकार की यह नीति भी थोड़ा हैरान करती है कि जो देश का अगला विदेश सचिव होने जा रहा था, उसे नेपाल जैसे छोटे देश में राजदूत रखा गया था। खैर, आने वाले महीने कई देशों के साथ भारत के संबंधों को लेकर बड़े नाजुक बने रहेंगे, आगे-आगे देखें, होता है क्या।
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यूक्रेन में रूसी हमले की रफ्तार शायद कुछ इलाकों में कुछ कम हुई है, और एक शहर में जहां से रूसी फौजों को पीछे हटना पड़ा है वहां पर एक साथ चार सौ से अधिक नागरिकों की लाशें मिली हैं। अब बचे हुए यूक्रेनियों को यह भी समझ नहीं आ रहा है कि चारों तरफ बिखरी लाशों का निपटारा कैसा किया जाए। और जब लाशें सड़ रही हों, लोगों के इलाज के लिए डॉक्टर न हों, तब क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि इन लाशों का डीएनए टेस्ट करवाकर रखा जाए ताकि बाद में इनके परिवार के लोगों को पता लग सके कि इनकी मौत हो गई थी, और क्या इनको दफन करने की जगह का भी कोई रिकॉर्ड रखा जा सकता है? जब जिंदा लोगों को बचाने के साधन-सुविधा न हों, तो फिर कफन-दफन की गुंजाइश कहां निकलती है। जिन परिवारों के लोग अपने लोगों को नहीं ढूंढ पाएंगे, आज जंग के बीच उन्हें मरा हुआ ही मान लिया जाएगा। जंग महज फौजों को खत्म नहीं करती है, किसी देश के इतिहास, वर्तमान और भविष्य सबको खत्म करती है।
आज दुनिया के अधिकतर देश रूस और यूक्रेन को लेकर अपनी रणनीति तय कर चुके हैं, और उनमें कोई बदलाव होते नहीं दिख रहा है। इन खबरों के आने के बाद भी उनमें कोई बदलाव आते नहीं दिखेगा कि यूक्रेन में चल रही बमबारी और धमाकों की वजह से वहां पर गर्भवती महिलाओं को समयपूर्व प्रसव हो रहा है, और ऐसे जल्द जन्मे बच्चे चार सौ और छह सौ ग्राम वजन के भी हैं जिन्हें बचा पाना आम हालात में भी नामुमकिन सा रहता, और आज तो गिर रही इमारतों के बीच, बिना बिजली, बिना दवाई किस तरह से इन बच्चों को बचाया जा सकेगा, बचाया जा रहा है, यह वहीं के समर्पित स्वास्थ्य कर्मचारी जानते हैं। कई ऐसे मामले युक्रेन के शहरों से सुनाई पड़ रहे हैं जिनके बारे में डॉक्टरों का कहना है कि आम दिनों में जितने समयपूर्व प्रसव होते हैं, जंग शुरू होने के बाद से उनकी संख्या तीन गुना बढ़ चुकी है। ऐसे जन्म के पहले कई माताएं तीन-तीन दिन तक बिना खाए-पिए लगातार सफर करके अस्पताल तक पहुंची हैं, और जन्म दिया है। ऐसे हालात में गर्भ में वक्त पूरा किए बिना पैदा बच्चों के बचने की गुंजाइश भी बहुत कम रह जाती है, लेकिन दुनिया के अलग-अलग देशों की अपनी-अपनी रणनीति और प्राथमिकताएं हैं। किसी को तेल चाहिए, किसी को फौजी साज-सामान चाहिए, किसी को अमरीका के खिलाफ हिफाजत चाहिए, किसी को अमरीका से मदद चाहिए, दुनिया का हर देश विदेश नीति के मामले में पहले अपने देश के प्रति अपनी नीति तय करता है, और उसके बाद ही वह किसी और मोर्चे पर इंसाफ के बारे में सोचता है। अभी कुछ ही वक्त पहले हमने लिखा था कि हर देश के विदेश मंत्रालय के बाहर बिना लिखा हुआ एक नोटिस टंगा होता है कि नैतिकता बाहर छोडक़र आएं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता के दिन लद गए हैं, और एक वक्त ऐसे महान नेताओं का दौर था जो पूरी दुनिया के भले की कोशिश करने में अपने देश के लोगों को भी नाराज करने का हौसला रखते थे, जिन्होंने पूरी इंसानियत का भला सोचकर अपने लोगों के हिस्से कुछ तकलीफ ले लेने को तकलीफ नहीं माना था। आज रूस की संपन्नता और उसके बाहुबल को देखते हुए दुनिया के कई देश यूक्रेन की तकलीफ को देखना भी नहीं चाहते क्योंकि उसे देखना महंगा पड़ेगा। जिस तरह हिन्दुस्तान में किसी दबंग से मार खाते किसी कमजोर को बचाने की हसरत कम ही लोगों में जाग सकती है, कुछ वैसा ही आज यूक्रेन के साथ हो रहा है, कुछ ऐसा ही इस सदी में इराक के साथ हुआ, अफगानिस्तान के साथ हुआ, सीरिया के साथ हुआ।
आज यूक्रेन की तकलीफ छोटी नहीं है, लेकिन वह विश्व इतिहास में अभूतपूर्व भी नहीं है। बहुत से देशों ने बड़ी ताकतों के हाथों इस तरह की मार खाई है, और दुनिया का इतिहास बताता है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी कागजी संस्था के सूखे आंसुओं से परे किसी देश ने नैतिकता के आधार पर शायद ही कभी किसी का साथ दिया हो, या किसी का विरोध किया हो। जब अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने गढ़े हुए झूठे सुबूतों के आधार पर इराक पर हमला किया था, तो संयुक्त राष्ट्र के सारे विरोध के बावजूद दुनिया के देश अमरीका के साथ बने रहे, और हमले में भागीदार भी रहे। जिन जनसंहार के हथियारों के इराक में होने का दावा अमरीका ने किया था, उनमें से कोई हथियार वहां नहीं निकला, फिर भी इराक के मुखिया सद्दाम हुसैन को मौत की सजा दे दी गई। दुनिया के अनगिनत देशों में अमरीका ने ऐसे हमले किए, लेकिन इनका विरोध महज उन देशों ने किया जो अमरीका का विरोध वैसे भी कर रहे थे। इसलिए विश्व राजनीति में अपने लिए सस्ता तेल, अपने लिए हथियार पाने का मौका छोडक़र शायद ही कोई देश नैतिकता के आधार पर दूसरे देश का साथ देता है। आज अमरीका और पश्चिम के जो देश यूक्रेन के साथ खड़े दिख रहे हैं, उनकी अपनी रणनीति रूस का विरोध करने की है, और रूस को नुकसान पहुंचाने के लिए ये देश यूक्रेनी फौजों और नागरिकों की जिंदगी की कीमत पर भी इस जंग को जारी रखना चाहते हैं, जारी रखे हुए हैं।
विश्व इतिहास इस बात को अच्छी तरह दर्ज करेगा कि दुनिया की एक महाशक्ति रूस ने जब एक बेकसूर यूक्रेन पर हमला किया था, और वहां वक्त से पहले पैदा होने वाले बच्चे इस तरह मर रहे थे, तब कौन-कौन से देश इसे अनदेखा कर रहे थे।
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उत्तरप्रदेश के गोंडा की एक खबर है कि चार बच्चों की एक मां और सत्रह साल के उसके प्रेमी लडक़े ने एक साथ, लेकिन अलग-अलग जगहों पर आत्महत्या कर ली। दोनों ने फांसी लगा ली। इस महिला का पति बाहर रहकर काम करता है, उसके चार बच्चे हैं, जिनमें बड़ी लडक़ी की उम्र मां के इस प्रेमी लडक़े से कुल पांच साल कम है। नवीं कक्षा में पढऩे वाला यह लडक़ा घर के आसपास की ही इस दोगुनी उम्र, 34 बरस की इस महिला के साथ प्रेम-संबंध में था। आसपास के लोगों को जब इसकी खबर लगी तो दहशत में आकर इन दोनों ने अलग-अलग आत्महत्या कर ली।
हिन्दुस्तान में ही नहीं, बल्कि हर देश में ऐसे मामले सामने आते हैं, कुछ समाज व्यवस्थाएं अधिक उदार हैं, और उनमें लोग मनचाहे रिश्ते बना सकते हैं, उन्हें कोई कुछ नहीं कहते। दूसरी तरफ कुछ समाज अधिक तंगदिल होते हैं, और उनमें ऐसे संबंध मरने-मारने की नौबत ले आते हैं। हिन्दुस्तान पढ़-लिख गया है, संपन्न भी हो गया है, लेकिन यहां तो जवान और बालिग प्रेमी जोड़े को भी अपनी पसंद से प्रेम करने या शादी करने की छूट नहीं मिलती है, ऐसे में इस देश में विवाहेत्तर संबंधों को भला कैसे छूट मिल सकती है। फिर जिस घटना से आज यहां लिखने की वजह बन रही है उसमें तो यह लडक़ा नाबालिग था, और महिला अधेड़ थी, शादीशुदा थी, और चार बच्चों की मां भी थी। लेकिन जैसा कि जिंदगी की हकीकत में होता है, प्रेम और देह संबंध न तो उम्र का फासला देखते हैं, और न ही रिश्तों के वर्जित होने से उनमें कोई बाधा आती है। लोगों के तन और मन की जरूरतें जाति और समाज व्यवस्था से लाखों बरस पुरानी हैं, और अधिक बुनियादी हैं। वे जरूरत पडऩे पर तमाम व्यवस्थाओं को तोडक़र अपने इंसान होने का दावा करने लगती हैं।
यह भी समझने की जरूरत है कि विकास होने के साथ-साथ क्या दुनिया में सामाजिक प्रतिबंध कहीं पर कम हो रहे हैं, और कहीं पर बढ़ रहे हैं? दुनिया के जिन देशों में लोगों के बीच बेरोजगारी अधिक है, जहां लोग ठलहा बैठे हुए हैं, जहां महिलाओं को काम करने के मौके कम हैं, और जहां घरेलू काम और पड़ोस के गॉसिप तक सीमित रहना उनकी मजबूरी है, उन जगहों पर समाज के प्रतिबंध बढ़ते चलते हैं। दूसरी तरफ जिन देशों में खूब आर्थिक विकास है, जहां पर हर किसी के पास या तो रोजगार है, या फिर जीने के और तरीके हैं, वहां पर समाज व्यवस्था भी उदार होने लगती है क्योंकि तमाम लोग अपने आपमें मस्त रहते हैं। जहां लोगों के पास अपने वक्त का इस्तेमाल नहीं रहता है, वहां पर उन्हें धार्मिक आध्यात्मिक प्रवचनों में फंसाकर रखा जाता है, और वहां संकीर्णता पनपने लगती है।
वैसे दुनिया के सबसे विकसित और संपन्न देशों को देखें तो वहां पर भी एक कमउम्र नाबालिग, और दूसरे अधेड़ के बीच के सेक्स संबंध जुर्म के दायरे में ही आते हैं, और उत्तरप्रदेश के गोंडा का यह ताजा मामला उसी दर्जे का है। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ अरसा पहले ही छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में ऐसा एक मामला सामने आया था जिसमें एक अधेड़ शिक्षिका ने अपने एक नाबालिग छात्र से जबर्दस्ती सेक्स-संबंध बना लिए थे, और फिर उस लडक़े ने थक-हारकर तनाव में खुदकुशी कर ली थी, और उसकी छोड़ी चिट्ठी की बिना पर उस शिक्षिका को गिरफ्तार भी किया गया था।
जब कभी अपने आसपास की आम और औसत समाज व्यवस्था से बहुत परे जाकर तन या मन के कोई संबंध बनते हैं, तो वे कई बार मरने या मारने तक पहुंच जाते हैं। धर्म, जाति, या परिवार ऐसे लोगों को मारने पर उतारू हो जाते हैं, या फिर उन्हें इतना प्रताडि़त किया जाता है कि वे खुदकुशी कर लें। भारत चूंकि विविधताओं वाला देश है, और यहां पर न सिर्फ धर्म और जाति की विविधता है, बल्कि क्षेत्रीय रीति-रिवाजों, और स्थानीय संस्कृतियों की विविधता भी है, और इतने किस्म की समाज व्यवस्था लोगों की निजी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को कुचलने के लिए काफी रहती हैं। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है, जैसे-जैसे लड़कियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ रही है, वैसे-वैसे सामाजिक दबाव से बाहर निकलने की संभावनाएं बढ़ रही हैं। फिलहाल आत्मघाती हिंसा के ऐसे मामलों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि लोगों को अगर सामाजिक बंधनों को तोडक़र अपने हिसाब से जीना है, तो उन्हें अपनी जगह और अपनी आर्थिक क्षमता के बारे में पहले सोचना चाहिए। गोंडा में जिस तरह बाहर कमाने गए एक गरीब कामगार की बीवी ऐसे रिश्ते में पड़ी, उसके बजाय अगर वह किसी महानगर में रहने वाली करोड़पति महिला होती, और अपने आसपास के किसी नाबालिग लडक़े से उसका रिश्ता हो गया रहता, तो उन दोनों के मरने की नौबत उतनी आसान से नहीं आई रहती। मतलब यह कि एक ही देश, एक ही धर्म, समान समाज व्यवस्था में भी अलग-अलग आर्थिक क्षमता के लोगों के लिए सामाजिक नियम अलग-अलग रहते हैं। करोड़ों के किसी फ्लैट में साथ रहने वाले गैरशादीशुदा लडक़े-लडक़ी को अड़ोस-पड़ोस के ऐसे किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ता जैसा कि किसी मोहल्ले में एक कमरा लेकर रहने वाले अविवाहित लडक़े-लडक़ी को झेलना पड़ेगा। मतलब यह कि पैसे की ताकत लोगों को कई किस्म की तथाकथित अनैतिकता की ताकत भी दे देती है।
लोगों को अपने दायरे को देखते हुए ही अपना चाल-चलन तय करना चाहिए, वरना लोग उन्हें मार डालेंगे, या खुदकुशी के लिए मजबूर कर देंगे। जब कांच के मछलीघर में मछलियों को रखा जाता है, तो वे पानी की पीएच वेल्यू अपने हिसाब से बदल लेती हैं, और अगर नहीं बदल पातीं, तो मर जाने का खतरा ढोती हैं। इंसानों को भी या तो समाज की सोच को बदलना होगा, या उसकी तलवार के सामने अपनी गर्दन रखनी होगी।
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गुजरात के अहमदाबाद में मौजूद महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम के पूरे इलाके को विकसित करने के गुजरात सरकार के एक बहुत बड़े इरादे के खिलाफ गांधी के पड़पोते तुषार गांधी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं। गुजरात हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के खिलाफ तुषार की याचिका खारिज कर दी थी, और अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी सुनवाई मंजूर कर ली, और कल उसने गुजरात हाईकोर्ट को यह निर्देश दिया है कि वह तुषार गांधी की अपील की जांच करे।
राज्य की भाजपा सरकार ने साबरमती आश्रम को बारह सौ करोड़ रूपए लगाकर विकसित करने की योजना बनाई है। इसमें आश्रम के मूल ढांचे को तो नहीं छुआ जा रहा है, लेकिन उसके आसपास कई एकड़ की जमीन पर विशाल योजना है, जिसे तुषार गांधी महात्मा गांधी की सोच के खिलाफ बतला रहे हैं। उनका तर्क है कि इससे सादगी और किफायत का गांधी का पूरा दर्शन ही परास्त हो जाएगा। गुजरात सरकार की ओर से हाईकोर्ट में यह केस आने पर एक छोटा सा जवाब दे दिया गया था कि साबरमती आश्रम के मूल ढांचे को नहीं छुआ जा रहा है, और हाईकोर्ट ने उस जवाब से संतुष्ट होकर तुषार गांधी की याचिका खारिज कर दी थी।
गांधी की अपनी जिंदगी सादगी और त्याग की एक मिसाल रही। उन्होंने एक धोती को काटकर दो टुकड़े किए, और एक वक्त पर एक टुकड़े से ही अपना काम चलाया। वे कम से कम सामान और खपत के साथ जीते थे, अपने खुद के तमाम काम खुद करते थे, और उनके आश्रमों की जिंदगी भी बहुत ही किफायत की थी। यह सोच पाना भी तकलीफ देता है कि गांधी के आश्रम को विकसित करने पर बारह सौ करोड़ रूपए खर्च किए जा रहे हैं, और उस देश में खर्च किए जा रहे हैं जहां आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी गरीबी की रेखा के नीचे है, भूख की कगार पर है, जिसके बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, जिन्हें ठीक से इलाज नसीब नहीं है, जिन्हें ठीक से इंसाफ नसीब नहीं है। ऐसे देश में सरदार पटेल के नाम पर तीन हजार करोड़ से अधिक की एक प्रतिमा बना दी गई, और अब गांधी के आश्रम के पूरे इलाके को बारह सौ करोड़ रूपए से एक नई शक्ल दी जा रही है, यह जाहिर है कि वहां आश्रम की दहलीज तक पहुंचते-पहुंचते लोग इतना कुछ देख चुके रहेंगे कि गांधी की किफायत की सोच की हवा खत्म हो चुकी होगी।
यह देश अब निर्माण के ठेके देने वाली सरकारों, ठेके पाने वाले ठेकेदारों, और योजनाओं पर अपने नाम का ठप्पा लगाने वाले नेताओं और योजनाशास्त्रियों का देश होकर रह गया है। छत्तीसगढ़ में नई राजधानी बनाने के लिए नया रायपुर नाम का एक खाली शहर बसाया गया था, जहां आज भी मरघटी सन्नाटा छाया रहता है, और उस पर भी हजारों करोड़ रूपए खर्च कर दिए गए थे जिसकी कोई उत्पादकता नहीं है। कुछ ऐसा ही हाल बरसों तक गुजरात की राजधानी अहमदाबाद के बारे में सुनाई पड़ता था जहां गांधीनगर नाम का नया राजधानी शहर बसाया गया था, और जहां बरसों तक दिन में भी उल्लू बोलते थे। सरकार और ठेकेदार के लिए खूबसूरत सपने की तरह का नया रायपुर आज भी अपने सन्नाटे के चलते एक छत्तीसगढ़ी कहावत याद दिलाता है कि वहां मरे रोवय्या न मिले। सरकारों की ऐसी बड़ी योजनाएं जिनसे जनता का कोई भला नहीं होता, वे अहंकार और कमाई दोनों के लिए बनाई जाती हैं, कुछ से अहंकार पूरा होता है, कुछ से कमाई पूरी होती है, और कुछ से दोनों साथ-साथ पूरे होते हैं। अब बारह सौ करोड़ रूपए जिस साबरमती के संत के नाम पर खर्च किए जा रहे हैं, उसने अपनी पूरी जिंदगी यह कहते हुए गुजारी कि लोगों के काम ऐसे रहने चाहिए कि उससे समाज के सबसे कमजोर तबके के आखिरी व्यक्ति का फायदा हो सके। आज सरकारों के फैसले नेताओं और ठेकेदारों को फायदा देते हैं, फिर चाहे वे गांधी की स्मृतियों को कुचल देने की कीमत पर ही क्यों न हों।
इस देश को महान विरासतों से लेकर शहरों की स्थानीय विरासत तक जहां जो मिला है, उसे राह चलते मिल गई बिन मालिक की गाय की तरह दुहने के लिए लोग उतारू रहते हैं। इस देश के शहरों को देखें तो सैकड़ों या हजारों बरस पहले के जो तालाब हैं, आज उनका बाजारू इस्तेमाल हो रहा है, अंग्रेजों के वक्त छोड़े गए खेल के मैदानों को काट-काटकर वहां मनोरंजन और पार्किंग का इस्तेमाल हो रहा है, कहीं तालाबों को पाटकर खाने-पीने के बाजार बनाए जा रहे हैं, और सुप्रीम कोर्ट के तमाम हुक्म कचरे की टोकरी में फेंक दिए गए हैं। सरकार और बाजार की मिलीजुली बदनीयत इतनी ताकतवर हो जाती है कि उसके खिलाफ लंबी अदालती लड़ाई भी अगर कोई रोक लाती है, तो उससे बचने के लिए सरकारें इतना संघर्ष करती हैं जितना संघर्ष किसी पेशेवर मुजरिम का नियमित वेतनभोगी वकील भी नहीं करता।
जिन लोगों को आज गांधी को गालियां देने वालों को और गोडसे का महिमामंडन करने वालों को संसद पहुंचाने में ओवरटाईम करना सुहा रहा है, वे अगर गांधी की स्मृति पर हजारों करोड़ रूपए खर्च करने जा रहे हैं, तो वह गांधी के लिए नहीं है, नेता, आर्किटेक्ट, और ठेकेदार के भले के लिए है। ठीक ऐसा ही दिल्ली में बीस हजार करोड़ रूपए खर्च करके नए संसद भवन और उसके इलाके को बनाने में किया जा रहा है। देश की विरासत को बर्बाद करने की एक बड़ी मिसाल जालियांवाला बाग है जहां पर ऐतिहासिक निशानों को मिटाते हुए, दीवारों पर दर्ज इतिहास खत्म करते हुए उस पूरे इलाके को सैलानियों के कारोबार के लिए विकसित किया गया है, और उस भयानक त्रासदी की अनगिनत यादों को मिटा दिया गया है।
रूस तो आज यूक्रेन पर हमला करते हुए वहां की ऐतिहासिक इमारतों को खत्म कर रहा है, लेकिन हिन्दुस्तान में तो यहां की सरकार ही इस काम में लगी है, और बाकी प्रदेशों में भी सरकारें अपने-अपने स्तर पर ऐतिहासिक या प्राकृतिक धरोहरों को खत्म करके एक कार्यकाल की अधिक से अधिक काली कमाई का रिकॉर्ड बनाने में लगी हुई हैं। गुजरात हाईकोर्ट ने तुषार गांधी के तर्क को नहीं समझा, यह उस हाईकोर्ट की कमजोर समझ है, जो कि सरकार का साथ देने से कम नहीं है। हमारा यह मानना है कि साबरमती आश्रम हो या कि गांधी से जुड़ी हुई कोई भी और याद, उसके संरक्षण के अलावा और कोई आधुनिक या सरकारी दखल उनमें नहीं होना चाहिए, वह इतिहास को खत्म करना भी होगा, और गांधीवाद को भी।
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केरल की एक खबर है कि वहां त्रिशूर जिले के एक प्रमुख मंदिर में एक समारोह में एक भरत नाट्यम नर्तकी को इसलिए कार्यक्रम में प्रदर्शन से रोक दिया गया क्योंकि वह हिन्दू नहीं थी। यह मंदिर राज्य शासन के नियंत्रण वाला मंदिर ट्रस्ट चलाता है। मनसिया नाम की इस नर्तकी ने भरत नाट्यम में पीएचडी भी किया हुआ है, और एक मुस्लिम परिवार से आने की वजह से उसे अपने नृत्य के लिए मुस्लिम मुल्लाओं की आलोचना भी झेलना पड़ी है। अपने फेसबुक पेज पर मनसिया ने अभी लिखा कि 21 अप्रैल को मंदिर में उसका कार्यक्रम तय था, और वहां के एक पदाधिकारी ने उसे बाद में फोन करके यह कहा कि चूंकि वह हिन्दू नहीं है इसलिए उसे वहां के कार्यक्रम में नृत्य करने की इजाजत नहीं दी जा रही। अब इस बखेड़े के खड़े होने पर लोग उससे यह भी पूछ रहे हैं कि क्या वह संगीतकार श्याम कल्याण से शादी के बाद हिन्दू हो चुकी है? मनसिया का कहना है कि उसका कोई धर्म नहीं है, और वह अब कहां जाए? कुछ बरस पहले भी केरल के एक और बड़े प्रमुख मंदिर ने उसे निर्धारित कार्यक्रम से मना कर दिया था, और उस वक्त भी उसके गैरहिन्दू होने की वजह बताई गई थी। उसका कहना है कि जब कोई एक कला किसी एक धर्म में प्रतिबंधित हो, और वह अनिवार्य रूप से किसी दूसरे धर्म से जुड़ी हुई हो, तो फिर उसके जैसी कलाकार कहां जा सकती है? अभी त्रिशूर के इस मंदिर के बारह एकड़ के आहाते में दस दिनों तक यह समारोह चलना है, और इसमें करीब आठ सौ कलाकार मंच पर प्रस्तुति देंगे, लेकिन चूंकि ट्रस्ट के पूछने पर मनसिया ने लिखकर दिया था कि उसका कोई धर्म नहीं है, इसलिए उसे ट्रस्ट ने इजाजत नहीं दी। यह हाल केरल का है जहां पर अब तक वामपंथी और कांग्रेस ही राज करते आए हैं। लोगों को याद होगा कि यहां के एक प्रमुख मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर लंबा बवाल चले आ रहा है।
यह खबर इस दौर में आई है जब कर्नाटक की भाजपा सरकार ने मुस्लिम लड़कियों का हिजाब पहनकर स्कूल-कॉलेज जाना रोक दिया है, और हाईकोर्ट से भी इन लड़कियों को कोई राहत नहीं मिली है। इसके बाद मानो सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा की हसरत पूरी न हुई हो, प्रदेश भाजपा के बड़े पदाधिकारियों ने प्रदेश के हिन्दुओं से हलाल मीट का बहिष्कार करने के लिए कहा है ताकि मुस्लिम कसाई भूखे मरें। इसी कर्नाटक से समझदारी की एक आवाज उठी है और वहां की एक कामयाब बेटी, देश की एक प्रमुख उद्योगपति किरण मजूमदार शॉ ने अभी एक ट्वीट में कर्नाटक के मुख्यमंत्री को नसीहत दी है कि राज्य में बढ़ते धार्मिक विभाजन का जल्द हल निकालें, नहीं तो इस साम्प्रदायिकता में देश तबाह हो जाएगा। कर्नाटक में अभी सत्ता और भाजपा के दबाव में मंदिरों के त्यौहारों पर उनके आसपास भी किसी गैर हिन्दू के व्यापार करने से रोका जा रहा है, और इसी पर किरण मजूमदार शॉ ने यह ट्वीट किया है- कर्नाटक ने हमेशा समावेशी आर्थिक विकास किया है, और हमें इस तरह केसाम्प्रदायिक बहिष्कार की अनुमति नहीं देनी चाहिए, अगर सूचना प्रौद्योगिकी और जैव प्रौद्योगिकी साम्प्रदायिक हो गई तो यह हमारे वैश्विक नेतृत्व को नष्ट कर देगी। उन्होंने सीएम से खुली अपील की कि इस धार्मिक विभाजन को हल करें। इस पर भाजपा के नेता उन पर टूट पड़े हैं, और इसे राजनीतिक पूर्वाग्रह का बयान बताया है।
भाजपा के राज वाले कर्नाटक में, और वामपंथी राज वाले केरल में धर्म का हाल एक जैसा है। कहीं सत्ता और धर्म मिलकर कदमताल कर रहे हैं, और कहीं धर्मनिरपेक्ष सत्ता रहने पर भी मंदिर देश के लोगों में, कलाकारों में इतना भयानक भेदभाव कर रहे हैं। धर्म में लोगों के बीच खाई खोदने की इतनी अपार क्षमता है कि खुदाई करने वाली बड़ी से बड़ी मशीनें भी उनके मुकाबले कमजोर साबित हों। आज जब दुनिया के अधिकतर देश आर्थिक मंदी का सामना कर रहे हैं, महंगाई, बेरोजगारी से उबरने की कोशिश कर रहे हैं, वैसे में हिन्दुस्तान को धर्म के ऐसे तमाम मुद्दों में उलझाया जा रहा है जिनसे देश के तबाह होने का खतरा बढ़ते चल रहा है। और यह बात किसी कम्युनिस्ट की कही हुई नहीं है जिस पर भाजपा के लोग लाठी लेकर टूट पड़ें, यह बात देश की एक प्रमुख उद्योगपति की कही हुई है जो कि समय-समय पर अपनी सामाजिक चेतना लिखने के लिए जानी जाती हैं, और अभी भी उन्होंने यही काम किया है। जब कोई सत्ता या संगठन देश-प्रदेश का भला चाहने वाले लोगों की भली नीयत की बातों के लिए इतनी हिकारत और नफरत पाल लें, तो उनके राज में तबाही का खतरा बढ़ते चलता है। जो धर्म किसी को दो रोटी नहीं दे सकता, जो धर्म लगातार दुनिया में सबसे बड़ी सामाजिक बेइंसाफी बना हुआ है, उस धर्म को मुसीबत से गुजर रहे इस देश में लोगों के कमाने और जिंदा रहने पर इतना हावी किया जा रहा है कि उससे लोगों को तमाम ईश्वर मिलकर भी नहीं बचा सकेंगे। आज जब देश के कारोबारी होठों को सिलकर बैठे हुए हैं, वैसे में किरण मजूमदार शॉ ने जो हौसला दिखाया है, वह काबिले तारीफ है और देश के भले का है। इसे खारिज कर देना ठीक नहीं है, और देश को बचाने के लिए और अधिक लोगों को सामने आना पड़ेगा, मुंह खोलना पड़ेगा।
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रूस और यूक्रेन के बीच जो जंग चल रही है उसके चलते योरप के बाकी देश और अमरीका कई तरह से और कई वजहों से फिक्रमंद हैं। एक तो उन्हें गैस और तेल की सप्लाई मुश्किल में पड़ते दिख रही है जिसकी वजह से इन देशों को उस सऊदी अरब से बात करनी पड़ रही है जिससे वे अनबोला रखना चाहते थे क्योंकि उसने अपने एक पत्रकार का कत्ल करवाया था, और मानवाधिकारों का हनन कर रहा है। दूसरी तरफ उन्हें ईरान के साथ नरमी बरतनी पड़ रही है क्योंकि वे रूस के मुकाबले ईरान का तेल बाजार में चाहते हैं, और इसके लिए उन्हें कई आर्थिक प्रतिबंध हटाने पड़ सकते हैं। लेकिन यूक्रेन से निकलने वाले दसियों लाख शरणार्थियों के लिए भी पड़ोस के देशों को जगह बनानी पड़ रही है जो कि आसान नहीं है। अमरीका ने भी एक लाख यूक्रेनी शरणार्थियों को जगह देने की घोषणा की है। लेकिन इन तमाम बातों के बीच पश्चिम के देशों को यूक्रेन का साथ सीमित हद तक देने के बावजूद रूस से एक असीमित खतरा है, और इसकी तरफ से हर रूस विरोधी देश चौकन्ना रहना चाहता है, लेकिन यह उतना आसान भी नहीं है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बार-बार यह बात लिखते हैं कि आने वाले वक्त की जंग सरहदों पर हथियारों से लडऩे के बजाय एक साइबर जंग भी हो सकती है जिससे कि कुछ कम्प्यूटरों पर बैठे हुए लोग दुनिया के किसी भी देश के तमाम सरकारी और सार्वजनिक इंतजाम तबाह कर सकते हैं। इस तरह की तबाही के कुछ नमूने हॉलीवुड की फिल्मों में दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उससे परे असल जिंदगी में भी ऐसे साइबर हमले होते आए हैं, और कोई वजह नहीं है कि रूस और चीन जैसी काबिल साइबर ताकतें वक्त आने पर अपने विरोधी और दुश्मन देशों को साइबर अटैक से तबाह करने की कोशिश न करें। आज यह माना जा रहा है कि चूंकि अमरीका और योरप के देशों ने रूस पर बहुत से आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं तो रूस के घोषित और अघोषित साइबर हैकर इन देशों में तबाही ला सकते हैं। रूस के हैकर पहले भी यूक्रेन पर ऐसे हमले करते आए हैं, और कभी वहां पर बिजली का इंतजाम चौपट कर देते हैं, तो कभी कुछ और। यूक्रेन पर किए गए ऐसे ही एक और रूसी हमले से एक तबाही वाला सॉफ्टवेयर दुनिया भर में फैल गया था, और उससे लाखों कम्प्यूटरों को नुकसान हुआ था, कामकाज और कारोबार चौपट हुआ था। ऐसे ही एक साइबर हमले की वजह से अमरीका में तेल की पाईप लाईन बंद करनी पड़ी थी, और अमरीका के कई राज्यों में इमरजेंसी घोषित करनी पड़ी थी, पेट्रोल पंपों पर अफरा-तफरी मच गई थी। दुनिया भर में कई तरह के साइबर जुर्म करने वाले मुजरिम रूस में बसे हुए हैं, और वे सरकार के साथ मिलकर, या फिर सरकार की अनदेखी से वहां काम करते हैं, और दुनिया भर से वसूली करते हैं। अब पश्चिम की सरकारों को यह आशंका है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन रूस के साइबर मुजरिमों को पश्चिमी सरकारों और सुविधाओं पर हमला करने को कह सकते हैं।
हम पहले भी यह बात लिखते आए हैं कि सरहद पर हथियारों से एक हद तक ही नुकसान पहुंचाया जा सकता है, और अगर कम्प्यूटर हैकरों में काबिलीयत है तो वे अपने घर बैठे दुनिया भर में जहां चाहें वहां सार्वजनिक सुविधाओं को खत्म कर सकते हैं, सरकारी कामकाज ठप्प कर सकते हैं। हमारी तरह की साधारण समझबूझ रखने वाले लोगों को भी यह दिखता है कि अगर इंटरनेट और संचार कंपनियों के कम्प्यूटरों को कोई ठप्प कर दे, तो हिन्दुस्तान जैसे देश के हजारों काम ठप्प हो जाएंगे। ट्रेन और प्लेन की बुकिंग और आवाजाही खत्म हो जाएगी, बैंक, एटीएम और क्रेडिट कार्ड काम करना बंद कर देंगे, बिजलीघर ठप्प हो जाएंगे, और वित्तीय संस्थान, मेडिकल जांच, और कई किस्म के इलाज खत्म हो जाएंगे। अब तक दुनिया के सामने इतनी बड़ी तबाही करने की कोई वजह थी नहीं, लेकिन आज जब रूस और पश्चिमी देशों के टकराव को तीसरे विश्व युद्ध की आशंका लाने वाला माना जा रहा है, तब ऐसे साइबर युद्ध की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता। अमरीका ने अभी एक-दो बरस के भीतर ही ऐसा साइबर हमला देखा था कि उसके पानी साफ करने के कारखानों में मिलाया जाने वाला केमिकल साइबर अटैक से बढ़ा दिया गया था, और वह जानलेवा साबित हो सकता था। अभी से 13-14 महीने पहले फ्लोरिडा में हुए ऐसे एक हमले में एक साइबर घुसपैठिये ने अमरीकी जल संयंत्र पर कब्जा कर लिया था, और रसायन की मात्रा बदल दी थी।
पश्चिम के देश भारत के भी मुकाबले कम्प्यूटर और इंटरनेट के अधिक मोहताज हैं, और उनका रोज का कामकाज इन्हीं से चलता है। हॉलीवुड की एक एक्शन फिल्म में साइबर हैकरों का एक गिरोह एकाएक शहरी ट्रैफिक सिग्नलों को चारों तरफ हरा कर देता है, और पल भर में चारों तरफ गाडिय़ां एक पर एक चढ़ जाती हैं, और आवाजाही पूरी तरह बंद हो जाती है। इसी तरह कहीं बांध के गेट खोल दिए जा सकते हैं, या बिजली की सप्लाई बढ़ाई जा सकती है जिससे कि पूरी ग्रिड ठप्प पड़ जाए। अमरीका और योरप के देशों का साइबर सुरक्षा इंतजाम भारत के मुकाबले बहुत बेहतर है, लेकिन आज पश्चिम की आशंका को देखते हुए भारत जैसे देश को यह समझना चाहिए कि चीन की तरह की साइबर आर्मी के रहते हुए वह अपने कमजोर इंतजामात पर कितने चैन से सो सकता है? आग कहीं और लगी हुई है, लेकिन बाकी लोगों को भी अपने घर सम्हाल लेने चाहिए।
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हिन्दुस्तान में शहरों की सफाई एक बड़ा मुद्दा है, और किसी शहर के विकसित होने का एक बड़ा पैमाना भी है। केन्द्र सरकार देश भर के शहरों के बीच मुकाबला करवाती है, और पिछले बरसों में मध्यप्रदेश का इंदौर ऐसे कई मुकाबले जीत चुका है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे शहर को देखें तो शहर के भीतर ही उसके अलग-अलग हिस्से अलग-अलग साफ या गंदे दिखते हैं। मोटेतौर पर तो पूरा शहर एक ही म्युनिसिपल के तहत आता है, लेकिन अलग-अलग वार्ड के निर्वाचित पार्षद अपनी अधिक और असाधारण कोशिशों से अपने इलाके को अधिक साफ रख पाते हैं। इसमें संपन्न इलाकों में जनभागीदारी से भी खर्च जुटा लिया जाता है, और दिन भर सफाई चलती रहती है, गाडिय़ां दौड़ती रहती हैं। शहरों में ऐसे कुछ सक्रिय पार्षदों वाले इलाकों में इतने अधिक सफाई कर्मचारी काम करते दिखते हैं कि इन इलाकों में रहने वाले लोग अपने घर-दुकान के सामने मनचाहा कचरा फेंक सकते हैं, वह साफ होते रहता है। इसके साथ-साथ अगर सुबह की सैर पर निकलने वाले लोग कचरे और सफाई के इस सिलसिले को ध्यान से देखें तो समझ पड़ता है कि घरों से निकलने वाला कचरा छांटकर अलग नहीं किया जाता, और हर तरह के कचरे को एक साथ मिलाकर फेंक दिया जाता है, या कचरा गाड़ी के लिए रख दिया जाता है। आम लोग इस कचरे को नाली में भी फेंक देते हैं, जहां से इसे निकालना सफाई कर्मचारियों के लिए भी बड़ी मशक्कत का काम रहता है, और वे बड़ी नालियों या गटर में डूब-डूबकर भी ऐसा कचरा निकालते हैं, और इसमें कई बार कई कर्मचारियों की मौत भी होती है।
यह सिलसिला सिरे से गलत है कि वोट देने वाली जनता की इतनी चापलूसी की जाए कि वह मनचाही गंदगी मनचाहे तरीके से फैलाती रहे, और वार्ड का पार्षद या म्युनिसिपल उसे साफ करते रहें। वोट पाने के लिए लोगों की आदत इतनी बिगाडक़र उनके तलुए सहलाने का सिलसिला ठीक नहीं है। पार्षद तो आते-जाते रहते हैं लेकिन जनता की आदत पीढ़ी-दर-पीढ़ी खराब होते चलती है जो कि धरती के सीने पर बोझ बढ़ाते रहती है। हिन्दुस्तान की अधिकतर म्युनिसिपल अपने रहवासियों की आदत सुधारने की जहमत उठाना नहीं चाहती क्योंकि वह अलोकप्रिय काम हो जाएगा, उसके बजाय सफाई कर्मचारियों और गाडिय़ों को बढ़ाकर कचरा उठाना उन्हें ज्यादा आसान लगता है। लेकिन यह बात वैज्ञानिक तथ्य है कि अगर घर, दुकान, हॉस्टल, अस्पताल जैसी जगहों से निकलने वाला कचरा अगर उसी जगह पर छांटकर अलग कर दिया जाता है, तो उसे ढोना भी आसान है, उसका निपटारा भी आसान है, और उसका तरह-तरह का उत्पादक इस्तेमाल भी हो सकता है। यह कचरा उसी शहर की कमाई बढ़ाने में इस्तेमाल हो सकता है, बजाय इसे महंगे खर्च से उठाने, और निपटाने के। दक्षिण भारत के कुछ म्युनिसिपलों ने कचरे को अलग करके सार्वजनिक जगह पर अलग-अलग डालना अपने नागरिकों की ही जिम्मेदारी बना दी है। शुरुआती प्रतिरोध के बाद लोग इसके आदी हो गए हैं, और म्युनिसिपल कचरे से कमाई कर रहे हैं, सफाई पर कोई खर्च नहीं कर रहे। देश में अव्वल आने वाले इंदौर जैसे शहर में सफाई पर बड़ी रकम खर्च होती है, और चूंकि कामयाब कारोबार वाले शहरों की कमाई खूब होती है, इसलिए वहां कचरे और सफाई पर अनुपातहीन खर्च भी लोगों को खटकता नहीं है।
लेकिन यह पूरा सिलसिला इस बात पर टिका हुआ है कि स्थानीय संस्थाओं के पास कचरे के निपटारे के लिए अंधाधुंध पैसा हमेशा ही बने रहेगा, और इससे भी बड़ी बात समाज का यह भरोसा है कि सफाई कर्मचारी हमेशा ही गंदगी ढोने के लिए, नालियों में उतरने के लिए, और घर-घर जाकर कचरा लाने के लिए तैयार रहेंगे, हासिल रहेंगे। क्या कोई यह सोच सकते हैं कि आमतौर पर दलित दबके से आने वाले सफाई कर्मचारियों ने अगर यह काम करना बंद कर दिया, तो हिन्दुस्तान जैसा देश अपने कचरे को लेकर क्या करेगा? हफ्ते भर के भीतर हर शहर की हर नाली बंद हो चुकी रहेगी, और हर मोड़ कचरे से पट जाएगी। फिर हफ्ते भर के बाद क्या होगा? कोई महामारी फैलना शुरू होगी, और जिस तरह गुजरात के सूरत में एक वक्त प्लेग फैला था, उस तरह की कई बीमारियां लोगों को मारना शुरू कर देंगी। आज लोग जिन सफाई कर्मचारियों को देखना भी पसंद नहीं करते हैं, उन्हीं की वजह से आज हिन्दुस्तान जैसा देश रोजाना देखने लायक बचा हुआ है। लेकिन सामाजिक बेइंसाफी के इस सिलसिले पर टिकी हुई शहरी व्यवस्था जायज नहीं है। सफाई कर्मचारियों का तबका गुलाम नहीं है कि उसकी मर्जी के खिलाफ उससे काम लिया जा सके। और अगर यह तबका सफाई करना बंद कर देगा, कचरा ले जाना और नाली-गटर साफ करना बंद कर देगा, तो देश में इस काम के लिए और तो कोई तबका है नहीं।
सामाजिक न्याय के हिसाब से तो यह बात बेहतर होगी अगर पूरे देश के सफाई कर्मचारी एक हफ्ते की हड़ताल कर दें। लोगों को उनकी जरूरत भी समझ आ जाएगी, और अपने इर्द-गिर्द कचरा देखने के बाद जब उन्हें कचरे को छांटने और निपटारे में भागीदारी सिखाई जाएगी, तो शायद उनके लिए सीखना आसान होगा। आज जहां कचरा पैदा हो रहा है वहीं पर उसे छांटने का सबसे सस्ता और सबसे आसान काम वोटरों की चापलूसी करने के लिए अनदेखा किया जा रहा है, और लोगों की आदतें बिगाडक़र रखी जा रही हैं। यह सिलसिला तुरंत बंद करना चाहिए। लोग महज एक छोटा सा सफाई-शुल्क देकर धरती पर मिलेजुले कचरे का बोझ इस तरह बढ़ाते रहें यह ठीक नहीं है। शहरी सफाई अपने नागरिकों को जागरूक बनाए बिना महज खर्च करके करना ठीक नहीं है। यह जागरूकता न लाकर स्थानीय नेता अपनी महानता और कामयाबी साबित करते हैं, यह बुनियादी तौर पर एक गलत बात है, और नागरिकों को गैरजिम्मेदार बनाना पूरे भविष्य को खराब करना है।
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कल अमरीका के सबसे बड़े फिल्म अवार्ड समारोह, ऑस्कर, में एक अभूतपूर्व घटना हुई जब मंच संचालन कर रहे एक कॉमेडियन क्रिस रॉक ने सामने बैठी एक अभिनेत्री जेडा पिंकेट स्मिथ के बालों को लेकर एक मजाक किया, जो कि एक गंभीर बीमारी से गुजर रही है, और उस बीमारी की वजह से उसे अपना सिर मुंडाना पड़ा है, और यह बात उसने सोशल मीडिया पर खुलासे से लिखी हुई भी है। जैसा कि किसी कॉमेडियन की कही अधिकतर जायज और नाजायज बातों के साथ होता है, इस बात पर भी जेडा के अभिनेता पति विल स्मिथ सहित तमाम लोग हॅंस पड़े, सिवाय जेडा के। और इसके बाद पत्नी का चेहरा देखने पर शायद विल स्मिथ को भी कॉमेडियन की, और खुद की चूक समझ आई, और फिर उसने गुस्से में मंच पर पहुंचकर क्रिस रॉक को जोरों से एक थप्पड़ मारा, और वापिस आकर बैठ गया। इसके बाद भी वह वहां बैठकर क्रिस रॉक के लिए गालियां कहते रहा। यह एक बड़ा अजीब संयोग था कि इसके तुरंत बाद विल स्मिथ को अपने लंबे अभिनय जीवन का पहला ऑस्कर पुरस्कार मिला, और उसे लेते हुए उसने तमाम लोगों से एक आम माफी मांगते हुए जिंदगी में परिवार के महत्व के बारे में बहुत सी बातें कहीं। दरअसल टेनिस खिलाड़ी बहनों वीनस और सेरेना विलियम्स की जिंदगी पर बनी इस फिल्म में विल स्मिथ ने इनके पिता का किरदार किया है, और वह किरदार भी परिवार को महत्व देने वाला है। नतीजतन इस अभिनय के लिए ऑस्कर लेते हुए विल स्मिथ ने न सिर्फ विलियम्स परिवार के संदर्भ में महत्व की बात कही, बल्कि अपनी बीमारी से गुजर रही पत्नी के मजबूरी में हटे बालों की तकलीफ की तरफ भी इशारा किया।
खैर, यह बात तो उस वक्त आई-गई हो गई, लेकिन जैसा कि दुनिया में समझदार लोगों को करना चाहिए, कल ही विल स्मिथ और क्रिस रॉक दोनों ने सोशल मीडिया पर अपनी गलतियां मानीं, एक-दूसरे परिवार से भी माफी मांगी, और बाकी तमाम लोगों से भी। क्रिस रॉक ने अपनी इस दुविधा का भी बखान किया कि किस तरह एक कॉमेडियन के लिए कई बार सीमा तय करना मुश्किल हो जाता है, और किस तरह उन्होंने यह सीमा लांघी जिससे कि उनके दोस्तों को तकलीफ हुई और उनकी अपनी साख भी चौपट हुई। उन्होंने यह भी मंजूर किया कि जो लोग अपनी जिंदगी में तकलीफ से गुजर रहे हैं, उन पर कोई मजाक बनाना कॉमेडी नहीं होता। इसी तरह विल स्मिथ ने भी अपने सार्वजनिक बयान में यह कहा कि जब उनकी पत्नी की बीमारी की दिक्कत का मजाक उड़ाया गया तो वे बर्दाश्त नहीं कर पाए, और भावनाओं में उन्होंने ऐसा काम किया। उन्होंने क्रिस और बाकी तमाम लोगों से अपनी गलती मानते हुए माफी मांगी है।
इस मुद्दे पर अधिक लिखने की जरूरत इसलिए नहीं रह गई थी कि इन दोनों के बयान आज खबरों में वैसे भी आ जाएंगे, और तमाम लोगों को कुछ सबक मिल जाएगा। लेकिन हम इस पर एक दूसरी वजह से लिखना चाहते हैं कि हिन्दुस्तान में कॉमेडी के नाम पर जिस तरह की सामाजिक बेइंसाफी होती है, उस बारे में भी लोगों को सोचना चाहिए। हिन्दुस्तान में ऐतिहासिक कामयाबी वाला कॉमेडी शो, कपिल शर्मा देखकर तमाम लोग हॅंसते हैं, लेकिन उसमें जिस तरह की बेइंसाफी होती है, उस बारे में शायद ही किसी का ध्यान जाता है। अपने शो के अपने से कम कामयाब या मशहूर हास्य कलाकारों के बारे में कपिल शर्मा का हिकारत भरा बर्ताव देखा जाए, तो वह एक स्थायी शैली है। दूसरी तरफ कार्यक्रम में आमंत्रित बड़े सितारों की चापलूसी भी उतनी ही स्थायी शैली है। आधे लोगों की चापलूसी और आधे लोगों को दुत्कारना, यह बताता है कि ताकतवर और कमजोर के साथ बर्ताव में कैसा फर्क किया जाता है। इससे परे भी देखा जाए कि भिखारियों के लिए, गरीब, बेघर और भूखों के लिए जिस तरह की जुबान कपिल शर्मा और उनका शो इस्तेमाल करते हैं, तो वह किसी भी चेतना संपन्न और संवेदनशील व्यक्ति को सदमा पहुंचा सकता है, पहुंचाता होगा, यह एक और बात है कि सार्वजनिक रूप से कोई मशहूर कामयाबी के खिलाफ लिखते नहीं हैं, बोलते नहीं हैं। बहुत पुरानी बात चली आ रही है कि कामयाबी से बहस नहीं होती, इसलिए कपिल शर्मा जब अपने शो में कई बार भिखारियों की नकल करते हुए अपनी उंगलियां मोडक़र ऐसा दिखाते हैं कि मानो किसी कुष्ठ रोगी की गली हुई उंगलियां हों, तो आम हिन्दुस्तानी को इससे कोई तकलीफ नहीं होती, और किसी कुष्ठ रोगी की तो कोई जुबान हो नहीं सकती। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में सत्ता और ताकत का मजाक उड़ाने वाले कॉमेडियन को जगह-जगह पुलिस रिपोर्ट का सामना करना पड़ता है, उनके कार्यक्रम लगातार रद्द होते हैं, और लोकतंत्र उन्हें कैमरे के सामने से और मंच पर से अलग ही कर देता है।
यहां यह भी समझने की जरूरत है कि हास्य और व्यंग्य में एक बुनियादी फर्क होता है। हास्य तो बिना किसी सामाजिक जिम्मेदारी के, बिना किसी सामाजिक सरोकार के किया जा सकता है, लेकिन व्यंग्य के लिए जिम्मेदारी और सामाजिक सरोकार दोनों जरूरी होते हैं। लोकप्रिय मंचों पर हर कॉमेडियन को व्यंग्यकार मान लेना भी ज्यादती होगी क्योंकि बहुत से कॉमेडियन सिर्फ हास्य के लिए पहुंचते हैं, बहुत से हास्य कवियों की तरह। उनसे व्यंग्य की तरह की जिम्मेदारी की उम्मीद कुछ अधिक ही बड़ी हो जाएगी। ऑस्कर समारोह में कल एक गैरजिम्मेदार हास्य ने सबके मुंह का स्वाद कड़वा कर दिया, ऐसे हास्य की जगह अगर जिम्मेदार व्यंग्य होता, तो वह किसी की बीमारी की खिल्ली नहीं उड़ाता। इस बारीक फर्क को हिन्दुस्तान में भी लोगों को समझना चाहिए, और फूहड़ हास्य कलाकार, फूहड़ हास्य कवि को व्यंग्य का दर्जा देना बंद करना चाहिए।
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