अंतरराष्ट्रीय
काबुल की एक यूनिवर्सिटी की तस्वीर सोशल मीडिया पर साझा की जा रही है जिसमें लड़के और लड़कियों के बीच पर्दा खींच दिया गया है. लड़के-लड़कियों को अलग-अलग पढ़ाने के लिए नए नए तरीके निकाले जा रहे हैं.
काबुल यूनिवर्सिटी में पढ़ने वालीं 21 साल की अंजीला जब तालिबान के सत्ता में आने के बाद पहली बार क्लास के लिए पहुंचीं तो हैरान रह गईं. उन्होंने देखा कि उनकी क्लास में बीचोबीच एक पर्दा लगा दिया गया था.
टेलीफोन पर काबुल से बातचीत में उन्होंने कहा, "पर्दे लगाना तो मंजूर नहीं किया जा सकता. मैं जब क्लास के अंदर पहुंची तो मुझे बहुत खराब लगा.”
अफगानिस्तान में तालिबान को सत्ता में आए तीन हफ्ते से ऊपर हो गए. जीवन सतह पर सामान्य नजर आने लगा है. विश्वविद्यालय खुल गए हैं और छात्र कक्षाओं के लिए लौट रहे हैं. लौटने वालों में छात्रों में लड़कियां भी हैं. लेकिन सोशल मीडिया पर आई कुछ तस्वीरों ने दुनियाभर को न सिर्फ हैरान किया है बल्कि तालीबान के शासन में महिलाओं की सामाजिक स्थिति को लेकर चिंता में भी डाल दिया है.
बंटवारे की तस्वीर
एक ऐसी तस्वीर सोशल मीडिया पर साझा की जा रही है जिसमें यूनिवर्सिटी की एक क्लास में पुरुष और महिला छात्र अलग-अलग बैठे हैं और उनके बीच में एक पर्दा लगा दिया गया है. यह तस्वीर काबुल की एविसेना यूनिवर्सिटी की है.
समाचार एजेंसियों की रिपोर्ट्स बताती हैं कि विदेशी ताकतें स्कूलों और विश्वविद्यालयों पर कड़ी नजर रख रही हैं क्योंकि तालिबान के राज में महिला अधिकारों को लेकर चिंता जाहिर की जाती रही है. 1996 से 2001 के बीच जब तालिबान पिछली बार सत्ता में आए थे तब महिलाओं की पढ़ाई और काम करने पर कड़ी पाबंदियां लगा दी गई थीं.
वैसे, हाल के हफ्तों में तालिबान ने कई बार कहा है कि महिला अधिकारों का सम्मान इस्लामिक कानूनों के दायरे में किया जाएगा. लेकिन असल में इसका अर्थ क्या है, इस बारे में अब तक स्थिति स्पष्ट नहीं है.
देशभर में किया जा रहा है अलग
देश के सबसे बड़े शहरों काबुल, कंधार और हेरात में स्थित विश्वविद्यालयों के छात्रों और शिक्षकों ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि महिला छात्रों को कक्षाओं में अलग किया जा रहा है, उन्हें अलग से पढ़ाया जा रहा है और कई जगह तो कैंपस के विशेष हिस्सों से बाहर आने नहीं दिया जा रहा है.
काबुल यूनिवर्सिटी की अंजीला बताती हैं कि तालिबान के शासन से पहले भी लड़के और लड़कियां क्लास में अलग-अलग ही बैठते थे लेकिन यूं कमरों को बांटा नहीं गया था.
देश के निजी विश्वविद्यालयों की एसोसिएशन ने कक्षाएं दोबारा शुरू करने के बारे में एक सूचना जारी की है, जिसमें कुछ नियम बताए गए हैं. इनमें लड़कियों के लिए हिजाब पहनना और अलग रास्ते से आना-जाना जैसी बातें हैं.
इस नोटिस में यह बात भी लिखी है कि छात्राओं को पढ़ाने के लिए महिलाओं को काम पर रखा जाना चाहिए और महिलाओं की क्लास या तो अलग लगेगी या फिर छोटी क्लास की सूरत में उन्हें पर्दे से अलग किया जाएगा.
आधिकारिक नियम क्या हैं?
यह तालिबान की आधिकारिक नीति है या नहीं, इस बारे में किसी अधिकारी या यूनिवर्सिटी एसोसिएशन के किसी सदस्य ने कोई टिप्पणी नहीं की है. तालिबान ने पिछले हफ्ते कहा था कि स्कूल शुरू हो जाने चाहिए लेकिन लड़कों और लड़कियों को अलग करना होगा.
तालिबान के एक वरिष्ठ नेता ने रॉयटर्स को बताया कि कक्षाओं को बांटने के लिए पर्दों का इस्तेमाल पूरी तरह स्वीकार्य है और चूंकि अफगानिस्तान के पास संसाधनों की कमी है तो बेहतर यही होगा कि एक ही शिक्षक दोनों तरफ की क्लास को पढ़ाए.
कई शिक्षकों का कहना है कि वे नियमों को लेकर उलझन में हैं क्योंकि तीन हफ्ते से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी अब तक अफगानिस्तान में सरकार नहीं बनी है.
हेरात यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता पढ़ाने वाले एक प्रोफेसर ने बताया कि उन्होंने अपनी एक घंटे की क्लास को दो हिस्सों में बांट दिया है. आधे घंटे में वह लड़कों को पढ़ाते हैं और फिर लड़कियों को.
उनकी क्लास के लिए 120 छात्रों ने रजिस्टर किया था लेकिन सोमवार को एक चौथाई से भी कम छात्र आए. वह कहते हैं, "छात्र काफी परेशान थे. मैंने उनसे कहा कि आते रहें और पढ़ाई करते रहें. आने वाले दिनों में नई सरकार नए नियम लागू कर देगी.”
वीके/एए (रॉयटर्स)
म्यांमार की सैन्य सरकार ने विवादित बौद्ध भिक्षु अशीन विराथु को रिहा कर दिया है. विराथु अपनी राष्ट्रवादी और मुस्लिम विरोधी पहचान के लिए जाने जाते हैं.
इससे पहले उनके ख़िलाफ़ नागरिक सरकार ने राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया था. फ़रवरी में हुए सैन्य तख़्तापलट में नागरिक सरकार को हटा दिया गया था.
फ़ायरब्रांड भिक्षु को अपने सैन्य समर्थित विचारों के लिए भी जाना जाता है.
मुसलमानों और ख़ासकर रोहिंग्या समुदाय को निशाना बनाकर दिए गए उनके भाषण के कारण उन्हें ‘बुद्धिस्ट बिन लादेन’ भी नाम दिया गया.
बीते कुछ सालों में वो सैन्य समर्थित रैलियों में नज़र आते रहे हैं जहां उन्होंने राष्ट्रवादी भाषण दिए और म्यांमार की नेता आंग सान सू ची और उनकी तत्कालीन सरकार नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी की आलोचना की.
पिछले साल नवंबर में किया था सरेंडर
साल 2019 में उन पर नागरिक सरकार के ख़िलाफ़ ‘नफ़रत और अवमानना’ भड़काने का मामला दर्ज किया गया था.
विराथु इसके बाद फ़रार हो गए थे लेकिन पिछले साल नवंबर में उन्होंने प्रशासन के आगे सरेंडर कर दिया था. इसके बाद से उनके ट्रायल का इंतज़ार था.
सोमवार को सैन्य सरकार ने कहा कि उनके ख़िलाफ़ सभी दर्ज मामलों को हटा दिया गया है. इन मामलों को क्यों हटाया गया है इसका प्रशासन ने कोई कारण नहीं बताया है.
सैन्य सरकार ने यह भी कहा है कि उनका सैन्य अस्पताल में इलाज चल रहा है. विराथु के स्वास्थ्य की स्थिति अभी तक साफ़ नहीं हो पाई है. (bbc.com)
छह फ़लस्तीनी क़ैदी इसराइल की सबसे सुरक्षित माने वाली जेल से भाग गए हैं. अब इसराइली अधिकारी रातोंरात भागने वाले इन क़ैदियों को पकड़ने के लिए बड़े स्तर पर तलाशी अभियान चला रहे हैं.
माना जा रहा है कि ये फ़लस्तीनी इसराइल के गिल्बाआ जेल में पिछले कई महीनों से सुरंग खोद रहे थे जो बाहर सड़क की ओर निकली.
इस घटना की तुलना हॉलीवुड की किसी थ्रिलर फ़िल्म से की जा रही है.
क़ैदियों के भागने की ख़बर सुनकर फ़लस्तीनियों ने ख़ुशी ज़ाहिर की और वो जश्न मनाते हुए सड़कों पर आ गए.
इन क़ैदियों को भागने की जानकारी इसराइली अधिकारियों को तब मिली जब कुछ किसानों ने उन्हें खेतों से होकर भागते हुए देखा.
भागने वाले क़ैदियों में से पाँच इस्लामिक जिहाद के सदस्य थे और एक फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन अल अक़्सा मार्टर्स ब्रिगेट का पूर्व नेता.
फ़लस्तीनी गुटों ने बताया 'हीरो'
इसराइली जेल सेवा के एक अधिकारी ने इस घटना को 'बड़ी सुरक्षा और ख़ुफ़िया चूक' कहा है. वहीं, फ़लस्तीनी चरमपंथी गुटों ने इसे 'जांबाज़' बताया है.
उत्तरी इसराइल में स्थित और सबसे ज़्यादा सुरक्षित माने जाने वाली गिल्बोआ जेल में उस समय हड़कंप मच गया जब अधिकारियों को किसानों से पता चला कि उन्होंने पास के खेतों में कुछ 'संदिग्ध लोगों' को देखा है.
जेल के स्टाफ़ ने जब क़ैदियों की गिनती की तो उसमें छह लोग लापता पाए गए.
माना जा रहा है कि फ़लस्तीनी क़ैदियों ने अपने बाथरूम की फ़र्श से होते हुए एक सुरंग खोदी जो जेल के बाहर जाकर निकली.
सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हो रही कुछ तस्वीरों और वीडियो में देखा जा सकता है कि इसराइली अधिकारी एक सिंक के नीचे एक छोटे से छेद और जेल की दीवारों से सटी धूल भरी सड़क पर दूसरे छेद की जाँच कर रहे हैं.
सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि फ़लस्तीनी क़ैदियों ने किसी तरह जेल के बाहर लोगों से संपर्क कर लिया था. इस तरह उन्होंने जेल में मोबाइल का इस्तेमाल किया और फ़ोन करके कार बुला ली.
टाइम्स ऑफ़ इसराइल अख़बार के अनुसार इन छह लोगों में से पाँच इसराइली नागरिकों पर घातक हमले के सिलसिले में उम्रक़ैद की सज़ा काट रहे थे. इनमें से एक कैदी पर हत्या की कोशिश समेत दो दर्जन अपराधों के लिए मुक़दमा चल रहा था.
गज़ा में बँटी टॉफ़ियाँ, जश्न का माहौल
फ़लस्तीनी क़ैदियों को पकड़ने के काम में लगी इसराइली सुरक्षा पुलिस और सेना के जवानों ने इन्हें क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक या जॉर्डन पहुँचने से रोकने के लिए रास्तों पर अवरोधक लगा दिए हैं.
इसराइली प्रधानमंत्री नफ़्टाली बेनेट ने सार्वजनिक सुरक्षा मंत्री उमर-बर-लेव से इस बारे में बात की है.
इस्लामिक जिहाद समूह ने क़ैदियों के भागने की घटना को 'जांबाज़ी भरा' बताया है और कहा है कि इससे इसराइली रक्षा तंत्र को धक्का लगेगा.
फ़लस्तीनी संगठन हमास के प्रवक्ता ने इसे 'बड़ी जीत' बताया और कहा, "हमारे बहादुर सैनिकों का इच्छाशक्ति और दृढ़ता को दुश्मन जेल में भी नहीं हरा सकते."
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार गज़ा में इस्लामिक जिहाद के समर्थकों ने ख़ुशी मनाते हुए सड़क से गुजरने वालों को टॉफ़ियाँ बाटीं. (bbc.com)
नई दिल्ली, 6 सितम्बर| पश्चिम अभी भी कट्टरपंथी इस्लामी समूहों द्वारा 9/11 जैसे हमलों के खतरे का सामना कर रहा है, लेकिन इस बार जैव-आतंकवाद (बायो-टेररिज्म) का उपयोग किया जा सकता है। द गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार, पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने इस बारे में चेतावनी दी है।
द गार्जियन के अनुसार, 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर अल कायदा के आतंकवादी हमलों की 20वीं वर्षगांठ की याद में रक्षा थिंकटैंक रुसी के एक भाषण में, ब्लेयर, जो उस समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री थे और इराक और अफगानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप का समर्थन करते थे, ने जोर देकर कहा कि आतंकवादी खतरा बना हुआ है।
उन्होंने जोर देकर कहा कि आतंकवादी हमलों में गिरावट के बावजूद इस्लामवाद और विचारधारा तथा हिंसा दोनों ही एक प्रथम-क्रम का सुरक्षा खतरा बना हुआ है।
उन्होंने कट्टरपंथी विचारधारा और हिंसा पर चेताते हुए कहा कि यह एक प्रकार से अनियंत्रित है, जो कि हमारे पास आएगा, भले ही हमसे बहुत दूर केंद्रित हो, जैसा कि 9/11 ने प्रदर्शित किया था। ब्लेयर ने कहा कि कोविड-19 ने हमें घातक रोगजनकों के बारे में सिखाया है। जैव-आतंक की संभावनाएं विज्ञान कथाओं के दायरे की तरह लग सकती हैं, लेकिन अब हम सतर्क होंगे कि गैर-राष्ट्र दिग्गजों द्वारा उनके संभावित उपयोग के लिए तैयार किया जाए।
उन्होंने अफगानिस्तान के संबंध में जोर देकर कहा, हमारा रीमेकिंग विफल नहीं हुआ क्योंकि लोग नहीं चाहते थे कि देश रीमेड हो। निश्चित रूप से, हम रीमेड बेहतर कर सकते थे, लेकिन अफगानों ने तालिबान के अधिग्रहण को नहीं चुना। अंतिम राय के तौर पर 2019 के पोल ने उन्हें अफगान लोगों के बीच 4 प्रतिशत समर्थन के साथ दिखाया था।
ब्लेयर ने कहा, उन्होंने हिंसा से देश को जीत लिया, अनुनय-विनय से नहीं। राष्ट्र-निर्माण के लिए बाधा आमतौर पर लोग नहीं हैं, बल्कि कई वर्षों में भ्रष्टाचार सहित खराब संस्थागत क्षमता और शासन है; और सबसे बड़ी चुनौती यह है कि जब तक निर्माण करने की कोशिश की जाए बाहरी समर्थन के साथ मिलकर आंतरिक तत्व नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि ब्लेयर ने बाहरी तत्वों का स्पष्ट तौर पर नाम तो नहीं लिया, लेकिन उनका मानना है कि पाकिस्तान तालिबान का समर्थन करता है। (आईएएनएस)
यूरोप में कार उद्योग पेट्रोल और डीजल के बजाय इलेक्ट्रिक वाहनों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, लेकिन इस क्रांति ने इस क्षेत्र में लाखों नौकरियां भी खतरे में डाल दी है.
आंद्रेया क्नेबेल ने पिछले दो दशकों से जर्मन शहर बुइल में बॉश कंपनी के लिए काम किया, लेकिन उनकी कंपनी का कहना है कि जिन 700 लोगों की 2025 तक नौकरी जा सकती है उनमें क्नेबेल भी हो सकती हैं. यूरोपीय संघ 2035 में पेट्रोल और डीजल वाहनों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाएगा, जिसका मतलब है कि तब सिर्फ इलेक्ट्रिक वाहन ही बेचे जाएंगे.
यूरोपीय संघ के मुताबिक इस प्रतिबंध का कारण यह है कि ब्लॉक में चलने वाले वाहनों से 15 फीसदी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है.
उद्योग में कुछ सबसे कुशल श्रमिकों की नौकरियां बनी रहेंगी, लेकिन वे इलेक्ट्रिक कार क्षेत्र में ही काम कर पाएंगे. हालांकि बड़ी संख्या में कुशल श्रमिकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है. यूरोपियन ऑटो मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के मुताबिक यूरोप में 1.46 करोड़ लोग ऑटो सेक्टर में काम करते हैं, जो यूरोप के कुल कार्यबल का लगभग 7 प्रतिशत है.
क्नेबेल ट्रेड यूनियन की सदस्य हैं और बुइल में नगर परिषद का भी प्रतिनिधित्व करती हैं. वह इस समय प्रशासन से बातचीत कर रही हैं. क्योंकि अधिकांश कर्मचारी डर के कारण बोल नहीं पा रहे हैं. लेकिन क्नेबेल की खुद की नौकरी फिलहाल सुरक्षित नहीं है. 55 वर्षीय क्नेबेल कहती हैं, "मैं वास्तव में चिंतित हूं." वे कहती हैं, "चार साल में मैं साठ साल की हो जाऊंगी. मेरी बेटी तब भी पढ़ाई कर रही होगी."
कुशल कर्मचारियों के पास मौके
डीजल से चलने वाली ट्रेन प्रणाली में इलेक्ट्रिक सिस्टम की तुलना में दस गुना अधिक कार्यबल की जरूरत होती है. वैकल्पिक रोजगार या प्रशिक्षण के अवसर प्रदान किए बिना इलेक्ट्रिक वाहनों में जाने की सामाजिक लागत बहुत अधिक है. अर्थशास्त्रियों ने इस बात पर जोर दिया है कि हरित उत्पादों की ओर बढ़ने से व्यवसायों को अधिक लाभ होगा और इसका नौकरियों और विकास दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.
श्रमिक अधिकार संघों के मुताबिक वृद्ध या अकुशल श्रमिक जिन्हें कहीं और नहीं लगाया जा सकता है, उन्हें राज्य की सामाजिक सहायता की आवश्यकता होगी. वर्तमान में सलाहकार की नौकरी के लिए आवेदन कर रही क्नेबेल का कहना है कि "उम्र" के कारण उनके लिए नई नौकरी खोजना मुश्किल है.(dw.com)
एए/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
हांग कांग में पालतू जानवरों के लिए एक दर्जन से ज्यादा शवदाह-गृह खुल गए हैं. लोगों का कहना है कि सरकारी एजेंसियां मृत पालतू जानवरों के शरीर को कचरे के गड्ढों में डाल देती हैं.
हांग कांग में एक तो जमीन प्राप्त करना एक मुश्किल काम है और उसके ऊपर से शवों को दफनाने का खर्च बहुत अधिक है. ऐसे में जानवरों के लिए दर्जन भर से ज्यादा शवदाह-गृह बनाए गए हैं, जहां पालतू जानवरों का दाह संस्कार किया जाता है.
कुत्तों के लिए पॉज गार्जियन रेस्क्यू शेल्टर नाम का आश्रय चलाने वाले केंट लुक कहते हैं कि इस विकल्प की वजह से पालतू जानवरों को एक करुणामयी दाह संस्कार मिल रहा है. लुक एक साथ करीब 500 बेघर कुत्तों की देखभाल करते हैं और इनमें से कई की देखरेख तो उन्हें उन कुत्तों के अंत समय तक करनी पड़ती है.
अंतिम विदाई
उनका मानना है कि एक सम्मान-पूर्ण अंतिम विदाई से उनके कुत्तों को जीवन के अंत में भी इज्जत मिलती है. उन्होंने यह भी बताया कि वो अगर अपने कुत्तों के शवों को सरकार को सौंप देंगे तो उन्हें शहर के कचरे के कई गड्ढों में से एक में डाल दिया जाएगा.
लुक कहते हैं, "हम यह नहीं चाहते कि इन शवों को कचरे में डाल दिया जाए. हम चाहते हैं कि इनके साथ थोड़ी इज्जत से पेश आया जाए." दाह संस्कार पास ही में स्थित एक पशुओं के लिए बने एक शवदाह-गृह में किए जाते हैं, जहां एक 'सांकेतिक' शुल्क भी लिया जाता है.
इंसानों के जैसा दाह-संस्कार
कई पालतू जानवरों के मालिक ज्यादा पैसे भी देते हैं. यह शुल्क 180 डॉलर से शुरू होता है और बड़े पशुओं के लिए और अधिक शुल्क भी देना पड़ सकता है. जानवरों के मालिकों को अलग से एक कमरा दे दिया जाता है जहां वे उन्हें अंतिम विदाई दे सकते हैं.
बाद में अगर वे चाहें तो शव के जल जाने के बाद बची भस्म को घर ला सकते हैं या एक शवदाह केंद्र के बागीचे में बिखेर सकते हैं. जोई वॉन्ग ने अपनी बिल्ली सुएट सुएट के लिए दाह संस्कार चुना. उन्होंने बताया कि वो अपनी बिल्ली की भस्म को अपनी बालकनी में लगे ताड़ के एक पेड़ के नीचे बिखेरना चाहती हैं.
वॉन्ग चाहती थीं कि सुएट सुएट को इंसानों की तरह दाह संस्कार मिले. उन्होंने बताया, "वो बालकनी से हमें देख सकती है...और वो हमारी जिंदगी का हिस्सा बनी रह सकती है और हमारे बच्चों को बड़ा होते हुए देख सकती है."
सीके/वीके (रॉयटर्स)
एक फिल्मकार के रूप में शहरबानो सदात ने बीते महीने देखा कि कैसे अफगानिस्तान में तालिबान के लड़ाकों ने देश पर कब्जा कर लिया. उन्होंने खौफ में भागते हुए लोगों को देखा और वे समझ गईं कि अब जाने का समय आ गया है.
शहरबानो सदात के परिवार की काबुल से खतरनाक तरीके से बच निकलने के बाद, अब वह विश्व सरकारों को चेतावनी दे रही हैं कि ''तालिबान एक आतंकवादी समूह है'' और दुनिया को एहसास होना चाहिए कि वे खतरनाक हैं. सदात फिलहाल पेरिस में हैं और उन्होंने समाचार एजेंसी एसोसिएटेड प्रेस से बात की.
पश्चिमी देशों से उम्मीद
सदात कहती हैं, ''मैं लोकतंत्र, मानवाधिकारों, महिला अधिकारों में अपना विश्वास खो रही हूं.'' क्योंकि उन्हें लगता है कि पश्चिमी देश इन मुद्दों को बचाने के लिए पर्याप्त नहीं कर रहे हैं.
सदात की पहली फिल्म ''वुल्फ एंड शीप'' ने साल 2016 में कान फिल्म फेस्टीवल में एक अवॉर्ड जीता था. विदेशी सरकारों द्वारा हजारों लोगों को अफगानिस्तान से बाहर निकालने के दौरान सदात के परिवार के नौ सदस्य भी देश से निकलने में कामयाब रहे.
वे कहती हैं कि परिवार ने काबुल एयरपोर्ट पर 72 घंटे बिताए. देश से बाहर निकलने के लिए कड़ी जद्दोजहद की. वे बताती हैं कि उन्होंने कतर में ही नींद ली, लोगों की इतनी भीड़ थी कि पांच मिनट में कुछ सेंटीमीटर लाइन आगे बढ़ती.
फ्रांस में रहकर देश की फिक्र
सदात कहती हैं, "तीन दिनों के लिए हमें क्वॉरंटीन किया गया, इसलिए हम कहीं नहीं जा सकते थे. मेरे पास इंटरनेट नहीं था. जब उन्होंने हमें जाने दिया तो हमारे पास केवल दो घंटे थे और मैं सिम कार्ड लेने के लिए मोबाइल की दुकान पर गई, लेकिन दूसरे लोग आइफल टावर देखने चले गए."
सदात कहती हैं कि उन्हें इस बात को लेकर बहुत गुस्सा आया क्योंकि हमने अपने देश को खो दिया और लोग लापरवाह दिखे. वे लोग पर्यटन में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं जबकि घर में संकट है.
सदात अफगानिस्तान में अपने रिश्तेदारों को लेकर चिंतित हैं और एक कलाकार को लेकर फिक्रमंद हैं जो पंजशीर में ही फंसी हुई हैं.
सदात जर्मनी में अपनी बहन और पार्टनर के पास जाने की उम्मदी जता रही हैं. वह अपनी रोमांटिक कॉमेडी फिल्म पर दोबारा से काम शुरू करना चाहती हैं.
वे कहती हैं, "एक अफगान से अफगानिस्तान के युद्ध और एक स्त्री परिप्रेक्ष्य के बारे में बात करना महत्वपूर्ण है."
एए/वीके (एपी)
जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने कहा है कि तालिबान के साथ बातचीत जरूरी है ताकि जर्मन सरकार के लिए काम कर चुके अफगानों को वहां से निकाला जा सके.
जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल तालिबान के साथ राजनीतिक बातचीत के पक्ष में हैं. रविवार को उन्होंने कहा कि वह इस्लामिक संगठन तालिबान के साथ राजनीतिक बातचीत शुरू करने के समर्थन में हैं.
पश्चिमी जर्मनी के हागेन की यात्रा के दौरान मैर्केल ने कहा, "तालिबान के बारे में तथ्य यह है कि बेशक हमें उनसे बात करनी पड़ेगी क्योंकि अब तो वही हैं जिनसे बातचीत की जा सकती है.”
क्या बोलीं मैर्केल?
मैर्केल हागेन की यात्रा पर गई थीं, जो इसी साल भयंकर बाढ़ से प्रभावित हुआ था. उस दौरान पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा कि जो लोग अफगानिस्तान में छूट गए हैं, उन्हें निकालने के लिए बातचीत जरूरी है.
मैर्केल ने कहा, "जिन लोगों ने जर्मनी की संस्थाओं के साथ काम किया है, हम उन्हें देश से निकालना चाहते हैं. खासकर उन्हें जो खतरा महसूस कर रहे हैं.” जर्मन चांसलर ने कहा कि बातचीत से अफगानिस्तान में मानवीय मदद की सप्लाई जारी रह सकेगी. उन्होंने काबुल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को यातायात के लिए खोले जाने को भी ‘अच्छा संकेत' बताया.
आगामी आम चुनाव में सीडीयू-सीएसयू पार्टी के उम्मीदवार आर्मिन लाशेट भी इस दौरे पर मैर्केल के साथ थे. उन्होंने तालिबान के साथ बातचीत के मैर्केल के सुझाव का समर्थन किया.
तालिबान का रुख
अंगेला मैर्केल का यह बयान तालिबान के प्रवक्ता के उस बयान के बाद आया है जिसमें उन्होंने जर्मनी के साथ आधिकारिक रिश्तों की इच्छा जताई थी. जर्मन अखबार द वेल्ट अम जोनटाग को दिए एक इंटरव्यू में तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा, "हम जर्मनी के साथ मजबूत और आधिकारिक राजनयिक रिश्ते चाहते हैं.”
मुजाहिद ने कहा कि जर्मन नागरिकों का अफगानिस्तान में हमेशा स्वागत है. उन्होंने तो यहां तक कहा कि जर्मनी को कभी सकारात्मक प्रभाव के रूप में देखा जाता था. मुजाहिद ने कहा, "दुर्भाग्य से उन्होंने अमेरीकियों का साथ दिया. लेकिन अब वह सब माफ कर दिया गया है.”
तालिबान चाहते हैं कि जर्मनी अफगानिस्तान की आर्थिक और मानवीय मदद भी करे. वे जर्मनी से स्वास्थ्य, कृषि और शिक्षा के क्षेत्र सहयोग चाहते हैं.
रणनीति पर विचार
जर्मनी ने फिलहाल अफगानिस्तान में अपना दूतावास बंद कर रखा है और वहां के राजदूत मार्कुल पोत्सेल दोहा से काम कर रहे हैं. लेकिन जर्मन सरकार तालिबान के संपर्क में है.
तालिबान ने 15 अगस्त को बीस साल बाद दोबारा अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था. अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों के दो दशक लंबे अभियान के औपचारिक रूप से खत्म होने से पहले ही तालिबान ने देश पर नियंत्रण कर लिया.
अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन अगले हफ्ते जर्मनी की यात्रा पर आ सकते हैं, जहां वह अफगानिस्तान की स्थिति पर जर्मन नेताओं से बातचीत करेंगे. कुछ जर्मन नेताओं ने अमेरिका के अफगानिस्तान को छोड़ जाने के फैसले की आलोचना की है. इनमें बवेरिया प्रांत के मुख्यमंत्री मार्कुस जोएडर शामिल हैं.
वीके/एए (रॉयटर्स, एपी, डीपीए)
यूं जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा के इस्तीफे का जापान के रक्षा बजट के एक फीसदी जीडीपी की सीमा को पार करने से कोई लेना देना नहीं है. उन्होंने कोविड-19 और ओलंपिक खेलों के आयोजन पर हुई आलोचना के बाद इस्तीफा दिया है.
डॉयचे वेले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट
बरसों से रक्षा मामलों में चुप-चाप रहने वाले जापान ने पिछले कुछ वर्षों में अपना सामरिक और सुरक्षा दृष्टिकोण बदला है. इस बदलाव का असर न सिर्फ जापान के रक्षा बजट पर पड़ा है बल्कि हाल ही में जारी रक्षा श्वेतपत्र, नेताओं के विदेश और सामरिक नीति संबंधी बयानों और यहां तक कि संविधान संबंधी मामलों में भी यह परिवर्तन देखने को मिला है. इसी कड़ी में एक नया पन्ना हाल ही में तब जुड़ गया जब 31 अगस्त को जापान के रक्षा मंत्रालय ने इस साल के रक्षा बजट को बढ़ा कर 50 अरब अमेरिकी डालर करने की बात कही. जापान जैसे देश के लिए यह कोई छोटी बात नहीं है.
आंकड़े कहते हैं कि 2018 के बाद से यह सबसे तेजी से बढ़ा बजट है जो संस्तुति के बाद लगभग तीन प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कराएगा. इस साल के मुकाबले 2.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करने के साथ ही यह बजट 50 अरब के आंकड़े तक पहुंच जाएगा. बजट की पेशकश और मंजूरी के बीच महीनों का फासला है. और अगर वित्त मंत्रालय और संसद की मंजूरी मिली तो भी यह बजट 1 अप्रैल 2022 से ही प्रभाव में आएगा.
जापान की बदलती प्राथमिकता
लेकिन जापान के रक्षा मंत्रालय की इस पेशकश ने इंडो-प्रशांत क्षेत्र में मंडराते तनाव की ओर इशारा तो किया ही है. और पिछले दिनों हुए परिवर्तनों को देखने तो यह नहीं लगता कि यह बादल आसानी से छंटने वाले हैं. जापानी रक्षा मंत्रालय ने अपने सालाना रक्षा बजट में इतनी बढ़ोत्तरी की वजह चीन को बताया है और कहा है कि चीन के खतरनाक रवैये से उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताएं बढ़ गयी हैं और चीनी आक्रामकता से निपटने के लिए जापानी सेना को अधिक संसाधनों की जरूरत है.
अभी पिछले साल ही जापान ने चीन को अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा करार दिया था. लेकिन रक्षा बजट में इस बढ़ोत्तरी के बावजूद जापान चीन से अभी काफी पीछे है और यह अंतर सिर्फ धन का नहीं बल्कि तकनीक और कुल ताकत का भी है. गौरतलब है कि अमेरिका के बाद चीन दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य महाशक्ति है. चीन की अमेरिका से बढ़ती तनातनी, दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ दक्षिण चीन सागर में अतिक्रमण के मामले, ताइवान और आये दिन आक्रमण करने की धमकियों के मद्देनजर जापान की चिंता स्वाभाविक है.
चीन की आक्रामकता से चिंता
सेनकाकू द्वीप और अपने एडीआईजेड में चीनी दखल से जहां जापान की चिंताएं बढ़ी हैं तो वहीं ताइवान की सुरक्षा भी जापान के लिए सरदर्द का कारण बन रही है. दूसरे विश्वयुद्ध के समय से ही जापान ताइवान को अपनी सुरक्षा से जोड़कर देखता है. चीन की ताइवान को लेकर बढ़ती आक्रामकता से कहीं न कहीं जापान को यह लग रहा है कि चीनी ड्रैगन के गुस्से की लपट में वह भी आ सकता है. और इस चुनौती से निपटना अब दूरगामी स्ट्रेटेजी नहीं तात्कालिक जरूरत बन गया है.
अगर जापान के रक्षा बजट सम्बन्धी नीतिगत ट्रेंड पर नजर डाली जाय तो इस सन्दर्भ में सबसे बड़े और महत्वपूर्ण कदम तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने ही उठाये थे. सेल्फ डिफेंस फोर्सेस को चुस्त दुरुस्त करने और उन्हें बड़ी अंतरराष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार करने की पहल शिंजो आबे ने ही की थी जब 2015 में उन्होंने संविधान के आर्टिकल 9 में परिवर्तन लाने की कोशिश की हालांकि यह पूरी तरह सफल नहीं हो पाई थी. देखा जाय तो शिंजो आबे के समय से ही सेनकाकू द्वीप के मालिकाना हक को लेकर जापान ने भी अपने रुख में सख्ती बरतना शुरू किया है.
यही नहीं, सूत्रों के अनुसार अमामी, योनागुनी, और मियाको जैसे सुदूर द्वीपों की सुरक्षा को भी चाक चौबंद करने का मंसूबा भी जापानी रक्षा मंत्रालय ने बांध लिया है. इसके तहत ही इसीगाकि द्वीप पर एक नए कैम्प की स्थापना करने की भी योजना है. आबे के उत्तराधिकारी योशिहिदे सुगा ने भी इन प्रयासों को जारी रखा है. भले ही घरेलू राजनीतिक उठापटक और तेजी से घटती लोकप्रियता के कारण उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़ने का फैसला किया है, लेकिन प्रधानमंत्री कोई भी हो, जापान की सामरिक और कूटनीतिक दशा और दिशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आएगा. (dw.com)
नई दिल्ली, 5 सितंबर | पाकिस्तान के इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हामिद के काबुल पहुंचने के एक दिन बाद तालिबान ने रविवार को कहा कि वह अफगानिस्तान में काबुल और इस्लामाबाद के बीच द्विपक्षीय संबंधों को सुधारने के लिए है। इस बीच, हिज्ब-ए-इस्लामी पार्टी के नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार के करीबी सूत्रों ने कहा कि हामिद ने हिकमतयार से भी मुलाकात की और उन्होंने देश की मौजूदा स्थिति पर चर्चा की। यह जानकारी टोलो न्यूज ने दी।
इससे पहले, पाकिस्तानी मीडिया ने बताया कि हामिद तालिबान के निमंत्रण पर काबुल में था, लेकिन तालिबान ने कहा कि पाकिस्तान ने काबुल की अपनी यात्रा का प्रस्ताव दिया था।
टोलो न्यूज की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान के सांस्कृतिक आयोग के उप प्रमुख अहमदुल्ला वासिक ने कहा कि तालिबान नेताओं ने हामिद के साथ द्विपक्षीय संबंधों और अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तोरखम और स्पिन बोल्डक र्दे पर अफगान यात्रियों की समस्याओं के बारे में बात की।
वसीक ने कहा, यह पाकिस्तानी अधिकारी सीमावर्ती इलाकों में विशेष रूप से तोरखम और स्पिन बोल्डक में अफगान यात्रियों की समस्याओं को हल करने के लिए आया है। वे चाहते थे (उनकी काबुल की यात्रा) और हमने स्वीकार कर लिया।
एक पत्रकार द्वारा काबुल दौरे के बारे में पूछे जाने पर हामिद ने कहा, चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा।
हामिद ने यह भी कहा कि उनका देश अफगानिस्तान को काबुल में हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर परिचालन फिर से शुरू करने के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करेगा।
पत्रकार सामी यूसुफजई ने कहा, "हालांकि हामिद का कहना है कि उनकी यात्रा अफगानिस्तान-पाकिस्तान के मुद्दों और अफगान यात्रियों के लिए है, मुझे लगता है कि काबुल की उनकी यात्रा ने अफगानों के बीच चिंता पैदा कर दी है और इसका मतलब है कि पाकिस्तान सरकार को मान्यता देगा कि तालिबान घोषणा करेगा।"
रिपोर्ट में कहा गया है कि हामिद शनिवार को काबुल पहुंचा और तालिबान के शहर पर कब्जा करने के बाद काबुल का दौरा करने वाला वह एकमात्र उच्च पदस्थ विदेशी अधिकारी है।(आईएएनएस)
नई दिल्ली, 5 सितंबर| अफगानिस्तान में तालिबान आतंकवादियों ने एक प्रांतीय शहर में एक पुलिसकर्मी की गोली मारकर हत्या कर दी है। स्थानीय मीडिया में बानू नेगर नाम की महिला की हत्या मध्य घोर प्रांत की राजधानी फिरोजकोह में परिजनों के सामने परिवार के घर में कर दी गई।
यह हत्या अफगानिस्तान में महिलाओं के बढ़ते दमन की बढ़ती खबरों के बीच हुई है।
घटना का विवरण अभी भी अस्पष्ट है, क्योंकि फिरोजकोह में कई लोग बोलते हैं तो प्रतिशोध का डर होता है। लेकिन तीन सूत्रों ने बीबीसी को बताया है कि तालिबान ने शनिवार को बानू नेगर को उसके पति और बच्चों के सामने ही पीट-पीट कर मार डाला।
रिपोर्ट में कहा गया है कि रिश्तेदारों ने एक कमरे के कोने में दीवार पर खून के छींटे और एक शरीर दिखाते हुए ग्राफिक चित्र दिए, जिसमें चेहरा बुरी तरह से विकृत हो गया था।
परिवार का कहना है कि स्थानीय जेल में काम करने वाली बानू आठ महीने की गर्भवती थी।
रिश्तेदारों का कहना है कि शनिवार को तीन बंदूकधारी घर पहुंचे और परिवार के सदस्यों को बांधने से पहले उसकी तलाशी ली।
एक प्रत्यक्षदर्शी ने कहा कि घुसपैठियों को अरबी बोलते हुए सुना गया।
तालिबान ने बीबीसी को बताया कि नेगर की मौत में उनकी कोई संलिप्तता नहीं है और वे इस घटना की जांच कर रहे हैं।
प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा, "हम घटना से अवगत हैं और मैं पुष्टि कर रहा हूं कि तालिबान ने उसे नहीं मारा है, हमारी जांच जारी है।"
उन्होंने कहा कि तालिबान ने पहले ही पिछले प्रशासन के लिए काम करने वाले लोगों के लिए माफी की घोषणा कर दी थी, और नेगर की हत्या को 'व्यक्तिगत दुश्मनी या कुछ और' में डाल दिया। (आईएएनएस)
-रियाज़ मसरूर
जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन के वरिष्ठ नेता सैयद अली शाह गिलानी के अंतिम संस्कार को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ है.
92 वर्षीय गिलानी का निधन एक सितंबर की रात को हुआ था और दो सितंबर तड़के उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया.
गिलानी के बेटों का कहना है कि उनका अंतिम संस्कार परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ किया गया जबकि पुलिस ने इन आरोपों से इनकार किया है.
हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस के अध्यक्ष रहे गिलानी के बेटे डॉक्टर नईम ने कहा, "हमें अपने पिता का इस्लामी क़ायदे के हिसाब से अंतिम संस्कार नहीं करने दिया गया. ये हमारा अधिकार था लेकिन हमसे ये अधिकार भी छीन लिया गया. हम इस बात को लेकर बहुत दुखी हैं."
डॉक्टर नईम और उनके भाई डॉक्टर नसीम का कहना है कि वो अपने पिता के अंतिम संस्कार में हिस्सा नहीं ले सके.
दोनों भाइयों का आरोप है कि बुधवार को जब गिलानी ने अंतिम सांस ली तब पुलिस और सरकारी अधिकारी उनके पिता के शव को ज़बरदस्ती ले गए.
दोनों भाई कहते हैं, "न उन्हें अंतिम स्नान कराया जा सका, न जनाज़े की नमाज़ पढ़ी गई और न ही हम अपने हाथों से उन्हें क़ब्र में उतार सके."
डॉक्टर नसीम के मुताबिक़, मौत से चंद मिनट पहले तक उनका ऑक्सीजन स्तर सामान्य था. इसी समय उनके मेडिकल असिस्टेंट उमर को बुलाया गया था जो लंबे समय से उनकी सेहत का ख़याल रख रहे थे.
उमर को लगा कि सब कुछ ठीक नहीं है और फिर एसकेआईएमएस अस्पताल के निदेशक को बुलाया गया जिन्होंने बताया कि गिलानी का निधन हो चुका है.
इसी दौरान पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने उनके घर को घेर लिया. दो वरिष्ठ अधिकारियों ने उनके अंतिम संस्कार को लेकर परिवार से चर्चा की.
डॉक्टर नसीम बताते हैं, "हमने उनसे कहा कि अंतिम संस्कार सुबह होगा ताकि सभी रिश्तेदार आ सकें और उनका चेहरा देख सकें.''
''घर में मौजूद महिलाओं ने पुलिस से कहा कि वे उनके शव को न छुएं. लेकिन वो सुबह तीन बजे फिर से आए और हमने रात में अंतिम संस्कार करने से इनकार कर दिया. वो ज़बरदस्ती शव को उठाकर ले गए और बिना परिजनों के अंतिम संस्कार कर दिया."
पुलिस ने इन आरोपों का खंडन किया है. पुलिस का कहना है कि गिलानी के शव को छीना नहीं गया था बल्कि पुलिस ने परिवार को 300 मीटर दूर क़ब्रिस्तान तक पहुंचने में मदद की थी.
कश्मीर रेंज के आईजी विजय कुमार ने कहा, "पुलिस ने कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए अंतिम संस्कार कराया. शांति व्यवस्था को ख़तरे के मद्देनज़र जल्दी अंतिम संस्कार कराया गया."
पुलिस का आरोप, पाकिस्तानी झंडे में लपेटा गया शव
जम्मू-कश्मीर पुलिस ने बताया है कि दो सितंबर को "उपद्रवियों और अन्य तत्वों के ख़िलाफ़" बडगाम में एक जनरल एफ़आईआर दर्ज की गई है.
यह एफ़आईआर "भारत विरोधी नारे लगाने और दूसरे देश विरोधी गतिविधियों" में शामिल लोगों के ख़िलाफ़ है.
पुलिस का यह भी कहना है कि अलगाववादी नेता के शव को पाकिस्तानी झंडे में लपेटा गया था.
इस मामले में किसी को नामज़द नहीं किया गया और न ही किसी की गिरफ़्तारी हुई है.
यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस ने अगर अपनी निगरानी में अंतिम संस्कार कराया तो अज्ञात लोगों ने देश विरोधी नारे कैसे लगाए और शव को पाकिस्तानी झंडे में कैसे लपेटा गया.
डॉक्टर नसीम कहते हैं, "पुलिस अधिकारी उस कमरे में गए जहाँ शव रखा था. कश्मीर पुलिस के प्रमुख विजय कुमार ने हमारे आँगन में खड़े होकर मेरे भाई नईम से कहा कि सुरक्षा की चिंताओं को देखते हुए अंतिम संस्कार जल्दी से हो जाना चाहिए."
''हम लोग उस वक़्त सदमे में थे. हमें नहीं पता कि उनके ताबूत पर पाकिस्तानी झंडा किसने लगाया."
इमरान ख़ान का भारत पर निशाना
इस घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने ट्विटर पर लिखा है, "कश्मीर के सबसे सम्मानित नेताओं में से एक 92 साल के सैयद अली शाह गिलानी के शव को छीनना और फिर उनके परिवार पर मुक़दमा दर्ज करना भारत के नाज़ी प्रेरित आरएसएस-बीजेपी के शासनकाल में फ़ासीवाद की तरफ़ बढ़ने की एक और मिसाल है."
सैयद अली शाह गिलानी के निधन के बाद जम्मू-कश्मीर में पुलिस और सुरक्षा बल अलर्ट पर थे. यहाँ फ़िलहाल हालात शांतिपूर्ण बने हुए हैं.
हालाँकि बडगाम ज़िले के नरकारा में पत्थरबाज़ी की एक घटना हुई है.
पुलिस के मुताबिक़ शांति व्यवस्था बनाने के लिए सख़्त क़दम उठाए गए हैं और कई 'शरारती तत्वों' को हिरासत में लिया गया है.
इसी साल जून में हुर्रियत के वरिष्ठ अलगाववादी नेता और गिलानी के क़रीबी मोहम्मद अशरफ़ सेहराई की पुलिस हिरासत में मौत हो गई थी. उन्हें जन-सुरक्षा क़ानून के तहत हिरासत में लिया गया था.
बाद में पुलिस ने उनके अंतिम संस्कार के दौरान "राष्ट्र विरोधी नारे" लगाने के आरोप में उनके बेटों और दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज किया गया था. सेहराई के बेटों को पुलिस ने हिरासत में भी लिया था. (bbc.com)
काबुल, 5 सितम्बर | काबुल में मुख्य मनी एक्सचेंज मार्केट फिर से खुल गया है, तालिबान के अधिग्रहण के 10 दिन बाद युद्धग्रस्त देश में बैंकिंग संकट अभी भी मौजूद है। इसकी जानकारी एक स्थानीय सूत्र ने दी। मनी एक्सचेंज के एक डीलर नजीबुल्लाह ने समाचार एजेंसी सिन्हुआ को बताया, "द अफगानिस्तान बैंक या सेंट्रल बैंक ने 2 सितंबर को घोषणा की थी कि सराय शाहजादा निजी एक्सचेंज बाजार शनिवार को फिर से खुल गया है।"
उन्होंने कहा कि विदेशी मुद्रा विनिमय दरों में अभी भी उतार-चढ़ाव है क्योंकि दरें स्थिर नहीं हैं और दिन के दौरान अक्सर बदलती रहती हैं।
नजीबुल्लाह ने कहा, "शनिवार की सुबह बाजार फिर से खुलने के बाद एक अमेरिकी डॉलर का कारोबार 87 और 89 अफगानी करेंसी के बीच हुआ। तालिबान के 10 दिन पहले अधिग्रहण से पहले एक डॉलर 79 अफगानी करेंसी के बराबर था।"
पास का व्यापारिक केंद्र, काबुल का मंडावी भी खुल गया है, हालांकि, व्यापार और दैनिक कामकाज अच्छे नहीं हैं क्योंकि राजधानी शहर का मध्य भाग सामान्य नहीं हुआ है और बाकी भीड़ है।
उन्होंने कहा, व्यापार केंद्र में कुछ ग्राहक हैं।
उन्होंने कहा, "देश में अब बैंकिंग का बहुत बड़ा संकट है। शहर के चारों ओर सरकारी और निजी बैंकों की मुख्य शाखाओं के बाहर लोगों की लंबी कतारें लगी रहती हैं।"
"अभी तक बैंकों की शाखाएं नहीं खुल पाई हैं। लोग अपना पैसा नहीं निकाल सकते हैं, उन्हें केंद्रीय बैंक के आदेश के अनुसार साप्ताहिक आधार पर केवल 200 डॉलर या 20,000 अफगानी करेंसी ही मिलते हैं।"
स्थानीय मीडिया र्पिोटों के अनुसार, निजी वेस्टर्न यूनियन और मनी ग्राम, दो मनी ट्रांसफर सेवा एजेंसियों ने भी 3 सितंबर को अफगानिस्तान के अधिकांश 34 प्रांतों में अपना संचालन फिर से शुरू किया और लोग अब विदेशों से पैसा प्राप्त कर सकते हैं। (आईएएनएस)
वाशिंगटन, 5 सितम्बर | अमेरिकी राजधानी में पुलिस ने कहा कि वाशिंगटन डीसी में गोलीबारी की घटना में तीन लोगों की मौत और तीन अन्य घायल हो गए। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार डीसी मेट्रोपॉलिटन पुलिस विभाग ने एक बयान में कहा कि एनडब्ल्यू के लॉन्गफेलो स्ट्रीट के 600 ब्लॉक में शनिवार शाम करीब साढ़े सात बजे गोलीबारी हुई।
कुल छह लोगों को गोली मार दी गई और उन्हें स्थानीय अस्पतालों में ले जाया गया, जिनमें तीन की मौत हो गई।
तीन अन्य का इलाज चल रहा है।
डीसी पुलिस प्रमुख रॉबर्ट कोंटी ने कहा कि संदिग्धों ने एक वाहन से बाहर निकलकर ब्लॉक के नीचे गोलियां चलाईं।
उन्होंने कहा कि अभी यह पता नहीं चल पाया है कि भीड़ को क्यों निशाना बनाया गया।
कोंटी ने कहा कि मारे गए तीन व्यक्ति युवा वयस्क प्रतीत होते हैं।
संदिग्धों के अभी भी बड़े पैमाने पर और तलाशी जारी है। पुलिस संदिग्धों के ठिकाने के बारे में जानकारी देने में सक्षम किसी को भी 75,000 डॉलर तक की पेशकश कर रही है। (आईएएनएस)
अरुल लुइस
न्यूयॉर्क , 5 सितम्बर | अमेरिका में आए तूफान ईडा की वजह से आई बाढ़ से न्यूयॉर्क में भारतीय मूल के चार लोगों और एक नेपाली परिवार के तीन लोगों की मौत हो गई है।
न्यूयॉर्क शहर में 1 सितंबर को बेसमेंट फ्लैट में पानी भर जाने से 43 वर्षीय फामती रामस्क्रिट और 22 वर्षीय उनके बेटे कृशा डूब गए।
शहर में रिकॉर्ड-सेटिंग बारिश से पानी उनके बेसमेंट फ्लैट में भरने से मिंगमा शेरपा, 48, और आंग गेलू लामा, 52, और उनके बच्चे लोबसंग लामा, 2, भी डूब गए।
राष्ट्रपति जो बाइडेन मंगलवार को न्यू यॉर्क सिटी काउंटी का दौरा करने वाले हैं जहां उनकी मौत हो गई और न्यू जर्सी क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित हैं।
पड़ोसी न्यूजर्सी में, 46 वर्षीय मालती कांचे, बाढ़ वाली सड़क पर अपनी कार के रुकने के बाद बह गई, जिससे वह डूब गए।
न्यू जर्सी में भी, 31 वर्षीय धनुष रेड्डी बाढ़ से 36 इंच के सीवर पाइप में फंस गए थे।
भले ही तूफान ईडा लुइसियाना राज्य और दक्षिण में उसके पड़ोसियों में सबसे विनाशकारी था, जहां इलाके पूरी तरह से नष्ट हो गए थे, इसका सबसे घातक मानव टोल न्यूयॉर्क क्षेत्र में था जहां कम से कम 42 लोग मारे गए, जिसमें न्यू जर्सी में 25, न्यू यॉर्क सिटी में 16 और कनेक्टिकट में एक की मौत हो गई।
बारिश की तीव्रता से शहर का बुनियादी ढांचा चरमरा गया।
नेताओं ने मूसलाधार बारिश के लिए ग्लोबल वामिर्ंग को जिम्मेदार ठहराया।
सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता चक शूमर ने कहा, "ग्लोबल वामिर्ंग का बुरा असर हम पर पड़ रहा है और यह बदतर होता जा रहा है, जब तक कि हम इसके बारे में कुछ नहीं करते।"
उन्होंने कहा, "जब आपको मौसम में हमारे द्वारा देखे गए सभी बदलाव मिलते हैं, तो यह कोई संयोग नहीं है।"
बाइडेन ने दोनों राज्यों के लिए आपातकाल की स्थिति घोषित कर दी है ताकि उन्हें तेजी से संघीय सहायता मिल सके।
न्यूयॉर्क पोस्ट ने बताया कि बाढ़ का पानी रामस्क्रिट्स के बेसमेंट फ्लैट से टकराया, उनके मकान मालिक रागेंद्र शिवप्रसाद ने उन्हें आसन्न खतरे से आगाह करने की कोशिश की और उन्हें बाहर निकलने के लिए कहा है।
शिवप्रसाद ने पोस्ट को बताया, "जैसा कि मैंने पानी को ऊपर उठते हुए देखा है, मैं वापस जाता हूं, मैं उनसे कहता हूं, 'तुम लोग सावधान रहो, तुम लोग आगे बढ़ो', लेकिन पानी पहले ही फ्लैट में समा गया था और फामती और कृषा डूब गए थे।"
फामाटी के पति दमेश्वर और एक अन्य बेटा डायलन बच गए।
लामा परिवार की एक पड़ोसी डेबोरा टोरेस ने पोस्ट को बताया कि पानी इतनी तेजी से बढ़ा कि बाहर निकलने का मौका मिलने से पहले ही वह दूसरी मंजिल पर उसके घुटनों तक पहुंच गया।
अखबार ने कहा कि पुलिस गोताखोरों को अगली सुबह शव मिले।
रारिटन के मेयर जाचरी ब्रे ने फेसबुक पर कांचे की मौत की घोषणा करते हुए लिखा, "यह भारी मन के साथ है कि मुझे तूफान ईडा के कारण अपने ही एक नागरिक के नुकसान की रिपोर्ट करनी पड़ रही है।"
पैच, एक ऑनलाइन समाचार आउटलेट ने बताया कि एक रिश्तेदार के अनुसार उसकी कार ब्रिजवाटर में बाढ़ के पानी में रुक गई और वह बह गई, जबकि उसकी 15 वर्षीय बेटी कार डीलरशिप में तैरने में सक्षम थी और उसे बचा लिया गया।
एक अन्य स्थानीय समाचार साइट टेपइन्टू के अनुसार, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर मलाथी कांचे का शव लगभग 8 किमी दूर बाउंडब्रुक में मिला था।
रेड्डी की मौत की घोषणा करने वाले साउथ प्लेनफील्ड के मेयर मैथ्यू अनेश ने कहा कि पुलिस ने बाढ़ में एक आदमी के बह जाने के बारे में मदद के लिए एक महिला की चीख सुनी।
उन्होंने कहा कि जवाब देने वाली पुलिस ने पाया कि दो लोग लापता थे और उनमें से एक को बचाने में सफल रहे।
उन्होंने कहा, "हम जीवन के इस दुखद नुकसान से दुखी हैं और रेड्डी और उनके परिवार के लिए प्रार्थना करते हैं।" (आईएएनएस)
-विनीत खरे
तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन का ये कहना कि उनके पास भी कश्मीर के मुसलमानों के लिए आवाज़ उठाने का अधिकार है, इस पर कश्मीर और कश्मीर के बाहर से प्रतिक्रियाएं आई हैं.
दोहा से बीबीसी के साथ ज़ूम पर बात करते हुए शाहीन ने कहा था, "एक मुसलमान के तौर पर, भारत के कश्मीर में या किसी और देश में मुस्लिमों के लिए आवाज़ उठाने का अधिकार हमारे पास भी है. हम आवाज़ उठाएँगे और कहेंगे कि मुसलमान आपके लोग हैं, आपके देश के नागरिक हैं. आपके क़ानून के मुताबिक़ उन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं."
उन्होंने अमेरिका के साथ हुए दोहा समझौते की बात करते हुए कहा कि किसी भी देश के ख़िलाफ़ सशस्त्र अभियान चलाना उनकी नीति का हिस्सा नहीं है. उन्होंने दावा किया कि ताबिलान अफ़गानिस्तान में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नहीं हैं.
शाहीन के इस बयान के बाद बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी ने कहा था कि तालिबान भारतीय मुसलमानों को 'बख़्श' दे.
समाचार एजेंसी एएनआई के अनुसार नक़वी ने कहा, ''मैं उनसे (तालिबान) से हाथ जोड़कर अपील करता हूँ कि वो भारतीय मुसलमानों को बख़्श दें. यहाँ मस्जिद में नमाज़ अदा करते हुए लोगों पर बम और गोलियों से हमला नहीं किया जाता. यहाँ लड़कियों के स्कूल जाने पर उनके हाथ और पैर नहीं काटे जाते.''
क्या तालिबान लड़ाके कश्मीर में घुसेंगे?
शाहीन के बयान पर श्रीनगर में राजनीतिक विश्लेषक बशीर मंज़र ने कहा, "आज का भारतीय मुसलमान सहमा हुआ है. हो सकता है कि ऐसे में तालिबान भारत से कह रहे हों कि आप अपने अल्पसंख्यकों का ध्यान रखिए और हमें अपने अल्पसंख्यकों का ख़याल रखने दीजिए."
श्रीनगर में एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक नूर अहमद बाबा कहते हैं कि तालिबान जिस तरह की विचारधार के साथ आए हैं, उनकी ओर से इस तरह के बयान आना अपेक्षित था.
नूर अहमद का दावा है कि अफ़गानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े पर बड़ी संख्या में कश्मीरी उत्साहित थे.
तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन के बयान पर नूर अहमद कहते हैं, "तालिबान पाकिस्तान के आभारी हैं लेकिन भारत के हालात को लेकर फ़िक्र तालिबान के अलावा पूरी दुनिया में है."
नूर अहमद के मुताबिक़ बहुत कुछ निर्भर करेगा कि तालिबान कश्मीर और भारत के मुसलमानों पर कितने ज़ोश-खरोश से बात करते हैं.
कश्मीर में सुरक्षा के हालात देखते हुए उन्हें उम्मीद नहीं है कि तालिबान लड़ाके कश्मीर में घुसेंगे.
भारतीय मुसलमानों से जुड़ी ख़बरें देने वाली संस्था 'मिली गज़ेट' के संपादक और दिल्ली माइनॉरिटीज़ कमीशन के पूर्व प्रमुख डॉक्टर ज़फ़रुल इस्लाम खान के मुताबिक़ तालिबान का ये कहना है कि वो कश्मीर और पूरे भारत के मुसलमानों के लिए और भारत के बाहर के मुसलमानों के लिए आवाज़ उठाते रहेंगे, इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है.
वो कहते हैं, "कई देश और अंतरराष्ट्रीय संस्थान राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर मानवाधिकार के हालात पर आवाज़ उठाते रहते हैं और ये बिल्कुल सही और स्वाभाविक है. अगर अफ़गानिस्तान में मानवाधिकारों का हनन होता है तो हमें भी आवाज़ उठाने का अधिकार है."
'ऐसे बयान से फ़ायदा नहीं'
उधर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता सज्जाद नोमानी ने कहा कि मीडिया में इस तरह के बयानों से कोई सकारात्मक नतीजा नहीं आएगा.
सज्जाद नोमानी के मुताबिक़ दोनों ही पक्षों की ओर से अभी तक सकारात्मक पहल नज़र आई है.
वो कहते हैं जहां तालिबान की तरफ़ से भारत को लेकर सकारात्कमक बयान आए हैं, भारत सरकार ने भी संयम बरता है और ये ज़रूरी है कि इस माहौल को खराब न किया जाए क्योंकि ये भारत और अफ़गानिस्तान दोनों के हक़ में बेहतर होगा.
उन्होंने कहा, "पब्लिक कंजंप्शन के लिए और राजनीतिक फ़ायदों के लिए न उनको (तालिबान को) कोई ऐसी बात मीडिया के ज़रिए कहनी चाहिए जिससे करीब होते ताल्लुकात में भी दूरी पैदा हो जाए, फासले जो कम होने लगे वो फिर बढ़ने लगें. न हमारी भारत सरकारी की ओर से ऐसी बात आनी चाहिए."
तालिबान ने अपने पूर्व के वक्तव्यों में कश्मीर या भारत के आंतरिक मुद्दों से बचकर बातें कहीं थीं.
सीएनएन-आईबीएन के साथ के इंटरव्यू में प्रमुख तालिबान नेता अनस हक्कानी ने कहा, कश्मीर हमारे कार्यक्षेत्र में नहीं है और दखलअंदाज़ी करना हमारी नीति के खिलाफ़ है."
एक पाकिस्तानी चैनल के साथ साक्षात्कार में एक अन्य तालिबान प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद भारत और पाकिस्तान को साथ बैठकर सभी समस्याओं को हल करने को कहा था.
सुहैल शाहीन का बीबीसी को दिया बयान ऐसे वक्त आया है जब भारत ने तालिबान इलाकों में अफ़गान हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों की हालत पर चिंता जताई है, और दूसरी ओर आलोचकों का कहना है कि साल 2014 के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल में मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत बढ़ी है, हालाँकि बीजेपी इन आरोपों से इनकार करती रही है.
जम्मू कश्मीर की स्वायत्ता ख़त्म करने का भारत का फ़ैसला और इसे लागू करने के तरीक़ों के कारण वहाँ रहने वाले कई लोग नाराज़ है.
ऐसे में ये साफ़ नहीं है कि तालिबान भारत में किन लोगों को अपने बयान से निशाना बना रहे थे.
इस बीच वायरल हुए एक वीडियो में अभिनेता नसीरुद्दीन शाह में उन मुसलमानों की निंदा की जो उनके शब्दों में तालिबान की जीत का जश्न मना रहे हैं.
तालिबान और कश्मीर का विज़न
श्रीनगर में मौजूद बशीर मंज़र के मुताबिक़ अफ़गानिस्तान में जो हो रहा है वो पूरी तरह इस्लामिक विज़न के आधार पर हो रहा है, लेकिन कश्मीर में जो हो रहा है वो सिर्फ़ इस्लाम को लेकर नहीं है.
वो कहते हैं, "यहां इस्लामिक सोच वाले लोग हैं, राष्ट्रवादी कश्मीरी हैं और भारत की ओर झुकाव रखने वाले कश्मीरी भी हैं. ऐसे में यहां तालिबान की राजनीति सोच के फैलने की गुंजाइश कम है. क्या यहां तालिबान का राजनीतिक असर और बंदूक का असर हो सकता है, ये हमें आगे देखना होगा."
उन्होंने कहा, "कश्मीर में बहुत सारे चरमपंथी पाकिस्तान की ओर से आते रहे हैं. क्या उसमें तालिबान के लोग भी शामिल होंगे, ये अभी नहीं कहा जा सकता."
बशीर मंज़र के मुताबिक़ ताबिलान को लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि अभी भी अफ़ग़ानिस्तान में उनकी सरकार नहीं बनी है.
वो कहते हैं कि पुराने और नए तालिबान में कुछ अंतर दिखता है, ये अभी देखना होगा कि इस तालिबान सरकार का रवैया कैसा रहता है.
डॉक्टर ज़फ़रुल इस्लाम खान तालिबान के बयानों की ओर इशारा करते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि उनकी नीति पाकिस्तान की नीति से अलग होगी.
यहां ये बताना ज़रूरी है कि तालिबान पर लगातार आरोप लगे रहे हैं कि उनकी कथनी और करनी में अंतर है.
सज्जाद नोमानी कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान के अंदर भी ज़्यादातर इलाकों में जिस तरह उन लोगों ने आम माफ़ी का ऐलान किया, और एक गोली चलाए बगैर वो आगे बढ़ते गए, और पब्लिक ने भी जिस तरह उनका जिस तरह स्वागत किया, ये सब बहुत सकारात्मक बातें थीं. इससे उम्मीद हो गई थी कि अफ़गानिस्तान के अंदर शांति कायम हो जाएगी."(bbc.com)
सैन फ्रांसिस्को, 4 सितंबर| स्पेसएक्स के सीईओ एलन मस्क ने दावा किया है कि उपग्रह आधारित इंटरनेट सेवा स्टारलिंक में प्रकाश जितनी तेज गति से डेटा ट्रांसफर की क्षमता होगी। जिग्मोचाइना ने बताया कि इस समय स्टारलिंक नेटवर्क एक डिश, उपग्रहों और ग्राउंड स्टेशनों पर निर्भर करता है।
कंपनी का लक्ष्य इन ग्राउंड स्टेशनों से छुटकारा पाना है, जो उपग्रहों के साथ संवाद करने में लगने वाले लंबे समय के कारण तेजी से डेटा ट्रांसफर में बाधा साबित हुए हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि लेजर के साथ, ट्रांसमिशन की गति, जैसा कि मस्क का दावा है, ऑप्टिकल फाइबर की तुलना में लगभग 40 प्रतिशत तेज होने की उम्मीद है। नतीजतन, हम जमीन को छूने की आवश्यकता के बिना तेज इंटरनेट हस्तांतरण क्षमताओं को देख सकते हैं।
मस्क के बयान पर विचार करते हुए और ऑप्टिकल फाइबर के साथ मौजूदा गति के आधार पर गति की गणना करते हुए, स्टारलिंक 180,832 मील प्रति सेकंड पर डेटा पैकेट स्थानांतरित करने में सक्षम होगा। पता चला है कि इसकी गति प्रकाश गति की गति का लगभग 97 प्रतिशत है।
मस्क ने सुनिश्चित किया है कि स्टारलिंक जल्द ही पूरे आर्कटिक से ग्राउंड स्टेशन तत्व को काट देगा और पर्याप्त बैंडविड्थ भी प्रदान करेगा।
हाल ही में मस्क ने ट्विटर पर कहा है कि उनकी एयरोस्पेस कंपनी स्पेसएक्स जल्द ही भारत में स्टारलिंक लॉन्च कर सकती है।
मस्क ने एक ट्विटर पोस्ट का जवाब दिया कि कंपनी यह पता लगा रही है कि देश में नियामक अनुमोदन प्रक्रिया स्टारलिंक के लिए कैसे काम करेगी।
स्टारलिंक ने हाल ही में ग्राहकों को 100,000 टर्मिनल भेजे हैं। इस परियोजना का उद्देश्य उपग्रहों के समूह के माध्यम से वैश्विक ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी प्रदान करना है। (आईएएनएस)
काबुल/नई दिल्ली, 4 सितम्बर| एक महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक घटनाक्रम में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद शनिवार को इस्लामाबाद से एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के साथ काबुल पहुंचे। टोलो न्यूज ने बताया कि तालिबान द्वारा पाकिस्तान के शीर्ष जासूसी एजेंसी के अधिकारी और उनकी टीम को आमंत्रित किया गया था। इस यात्रा का समय बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि अटकलें लगाई जा रही हैं कि वह आईएसआई ही है, जिसका तालिबान पर बड़ा प्रभाव है।
आईएसआई न केवल प्रतिबंधित आतंकी संगठन हक्कानी नेटवर्क का मुख्य संरक्षक है, बल्कि आईएसआई बॉस समान रूप से क्वेटा शूरा के मुल्ला याकूब और मुल्ला अब्दुल गनी बरादर तथा हक्कानी नेटवर्क के बीच बढ़ते मतभेदों को हल करना चाहते हैं।
पाकिस्तान के जासूस ऐसे समय में मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे हैं, जब अफगानिस्तान में सरकार के गठन को लेकर तालिबान के शीर्ष नेतृत्व और हक्कानी नेटवर्क के बीच महत्वपूर्ण व्यस्त बातचीत चल रही है।
लीक हुए दस्तावेजों के अनुसार, इस बीच अमेरिका ने अफगानिस्तान में संकट के रूप में पाकिस्तान से आतंकी समूहों से लड़ने का आग्रह किया है।
एक प्रमुख अमेरिकी मीडिया आउटलेट को लीक हुए दस्तावेजों और राजनयिक केबल्स के एक सेट के अनुसार, राष्ट्रपति जो बाइडेन का प्रशासन अफगानिस्तान पर तालिबान के अधिग्रहण के बाद आईएसआईएस-के और अल कायदा जैसे खूंखार आतंकवादी समूहों से निपटने में सहयोग करने के लिए चुपचाप इस्लामाबाद पर दबाव डाल रहा है।
पाकिस्तानी अखबार डॉन ने शनिवार को अफगानिस्तान में तालिबान विद्रोहियों द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के बाद हाल ही में वाशिंगटन और इस्लामाबाद के बीच आदान-प्रदान किए गए राजनयिक संदेशों पर पोलिटिको द्वारा शुक्रवार को प्रकाशित एक समाचार के हवाले से एक रिपोर्ट प्रकाशित की।
तालिबान के दिवंगत संस्थापक मुल्ला उमर के बेटे मोहम्मद याकूब और शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई, जिसने अफगानिस्तान में 1996 और 2001 के बीच विद्रोहियों के आखिरी बार सत्ता में आने पर उप विदेश मंत्री के रूप में कार्य किया था, की कथित तौर पर नई सरकार में प्रमुख भूमिकाएं होंगी। (आईएएनएस)
वाशिंगटन, 4 सितम्बर | रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) के एक नए अध्ययन के अनुसार, अमेरिका में 0-17 वर्ष की आयु के बच्चों में कोविड-19 के मामले, आपातकालीन विभाग के दौरे और अस्पताल में भर्ती होने की संख्या जून से अगस्त तक बढ़ी है। दो सप्ताह की अवधि (14-27 अगस्त) में, सबसे कम टीकाकरण कवरेज वाले राज्यों में उल्लिखित आयु वर्ग के बीच कोविड-19 से संबंधित आपातकालीन विभाग का दौरा और अस्पताल में प्रवेश उच्चतम टीकाकरण दर वाले राज्यों की तुलना में 3.4 और 3.7 गुना था। सीडीसी की रुग्णता और मृत्यु दर रिपोर्ट में शुक्रवार को प्रकाशित अध्ययन में क्रमश: कहा गया है।
एक दूसरी सीडीसी रिपोर्ट भी शुक्रवार को प्रकाशित हुई, जिसके अनुसार, बच्चों और किशोरों के बीच साप्ताहिक कोविड -19 से जुड़े अस्पताल में भर्ती होने की दर जून के अंत से अगस्त के मध्य तक लगभग पांच गुना बढ़ गई, जो अत्यधिक पारगम्य डेल्टा वेरिएंट के बढ़ते प्रचलन के साथ मेल खाती है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अस्पताल में भर्ती होने की दर पूरी तरह से टीका लगाए गए किशोरों की तुलना में 10 गुना अधिक थी और अस्पताल में भर्ती बच्चों और गंभीर बीमारी वाले किशोरों का अनुपात डेल्टा प्रबलता की अवधि से पहले और उसके दौरान समान था।
इस बीच, अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स एंड द चिल्ड्रन हॉस्पिटल एसोसिएशन के अनुसार, पिछले सप्ताह लगभग 204,000 मामलों के साथ, बच्चों में कोविड -19 के मामले सामने आए हैं।
26 अगस्त को समाप्त सप्ताह के लिए, रिपोर्ट किए गए साप्ताहिक मामलों में बच्चों का हिस्सा 22.4 प्रतिशत था।
अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स एंड द चिल्ड्रन हॉस्पिटल एसोसिएशन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल की शुरूआत में अमेरिका में महामारी की शुरूआत के बाद से अब तक लगभग 48 लाख बच्चों ने कोविड -19 के लिए पॉजिटिव परीक्षण किया है।(आईएएनएस)
सैन फ्रांसिस्को, 4 सितंबर | फेसबुक के स्वामित्व वाले व्हाट्सएप ने आईओएस से सैमसंग एंड्रॉइड डिवाइस पर स्विच करते समय उपयोगकर्ताओं के लिए अपने चैट इतिहास को स्थानांतरित करने की क्षमता को जोड़ा है। द वर्ज के मुताबिक, सैमसंग ने घोषणा की कि यह फीचर उसके अगस्त अनपैक्ड इवेंट के एक हिस्से के तौर पर आ रहा है।
उपयोगकर्ता यदि पहले व्हाट्सएप के क्लाउड बैकअप फीचर का चयन करते थे, तो आईओएस चैट इतिहास को आईक्लाउड में संग्रहीत किया जाता था, जबकि एंड्रॉइड के इतिहास ने गूगल ड्राइव का बैकअप लिया, जिससे उन फोन के बीच चैट को स्थानांतरित करना लगभग असंभव हो गया जो समान ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं चला रहे थे।
कंपनी ने एक ब्लॉग पोस्ट में कहा, "अगर आप आईफोन से सैमसंग एंड्रॉइड डिवाइस पर जा रहे हैं, तो आप अपने अकाउंट की जानकारी, प्रोफाइल फोटो, व्यक्तिगत चैट, ग्रुप चैट, चैट हिस्ट्री, मीडिया और सेटिंग्स को ट्रांसफर कर सकते हैं।"
इसके अलावा, उपयोगकर्ता केवल नए सैमसंग डिवाइस के शुरुआती सेटअप के दौरान ही माइग्रेशन कर सकते हैं, क्योंकि व्हाट्सएप के निर्देश कहते हैं कि माइग्रेशन की अनुमति देने के लिए आपका नया एंड्रॉइड डिवाइस फैक्टरी नया होना चाहिए या फैक्टरी सेटिंग्स पर रीसेट होना चाहिए, ताकि उपयोगकर्ताओं के पास अपने सैमसंग डिवाइस का पूर्ण फैक्टरी रीसेट करने का विकल्प रहे, यदि यह पहले से ही चालू है।
पुराने आईफोन में व्हाट्सएप आईओएस वर्जन 2.21.160.17 या नया होना चाहिए और नए सैमसंग फोन में व्हाट्सएप एंड्रॉइड वर्जन 2.21.16.20 या नया होना चाहिए।
नए डिवाइस में सैमसंग स्मार्टस्विच ऐप वर्जन 3.7.22.1 या नया इंस्टॉल होना चाहिए। स्थानांतरण यूएसबीसी-सी के माध्यम से लाइटनिंग केबल में होता है, इसलिए उपयोगकर्ताओं को उनमें से एक की जरूरत होगी।(आईएएनएस)
जर्मनी में इस समय संसदीय चुनावों की सरगर्मियां हैं. जर्मनी में भारत जैसी संसदीय व्यवस्था है लेकिन चांसलर का चुनाव भारत के प्रधानमंत्री से अलग है. कितना अलग है चांसलर का चुनाव भारतीय प्रधानमंत्री से?
जर्मनी में चुनाव प्रचार की शुरुआत होने से पहले ही बड़ी पार्टियां इस शीर्ष पद के लिए अपने उम्मीदवार घोषित करती हैं. इस साल हो रहे चुनावों में चांसलर मैर्केल की सत्ताधारी सीडीयू/सीएसयू पार्टियों के असावा देश को तीन बार चांसलर देने वाली सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी और ग्रीन पार्टी ने अपने चांसलर उम्मीदवारों की घोषणा की है. ये पार्टियां इन नेताओं के नाम पर चुनाव लड़ती हैं, किंतु चांसलर का चुनाव तब तक पूरा नहीं होता है जब तक नई संसद बुंडेस्टाग में होने वाले मतदान में किसी उम्मीदवार को बहुमत वोट न मिल जाए.
जर्मनी में हमेशा दो या तीन पार्टियों के गठबंधन वाली सरकार रही है. नई संसद को आम चुनाव के 30 दिनों के भीतर इसकी पहली बैठक बुलानी पड़ती है. ताकि अधिकतम सीटें जीतने वाली पार्टी जल्द से जल्द सरकार बनाने का काम शुरू कर सके. अब तक सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने वाली पार्टी को सरकार बनाने का असली दावेदार माना जाता है. चुनाव में जीत हासिल करने वाली पार्टी बहुमत सरकार बनाने के लिए एक या अधिक पार्टियों से बातचीत करती है ताकि साझा कार्यक्रमों के आधार पर गठबंधन बनाया जा सके और नई सरकारी बुंडेस्टाग में पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सके.
जीत के बाद सरकार बनाने की कवायद
एक बार जब यह साफ हो जाता है कि सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी किसके साथ गठबंधन बनाएगी, तब गठबंधन के अनुबंध के प्रारूप पर विमर्श किया जाता है जो नई सरकार के गठन का आधार होती है. इस समझौते में चार साल के लिए नई सरकार की योजनाओं का जिक्र होता है. इसी बातचीत के दौरान गठबंधन के सहयोगी दल यह तय करते हैं कि वे किसे चासंलर बनाना चाहते हैं तथा किसे मंत्रिमंडल में जगह देना चाहते हैं. ये तय होता है कि सबसे बड़ी पार्टी का चांसलर उम्मीदवार ही संसद में होने वाले चुनाव में गठबंधन पार्टियों का चांसलर उम्मीदवार भी होगा.
इसके बाद नवनिर्वाचित 600 से अधिक सदस्यों के लिए बुंडेस्टाग का पहले सत्र की बैठक बुलाई जाती है, जिसमें वे नए चांसलर के लिए गुप्त मतदान में भाग लेते हैं. यह राष्ट्रपति पर निर्भर करता है कि वे बुंडेस्टाग की पहली बैठक में चाहें तो किसी प्रत्याशी के बारे में सुझाव दें. यह बाध्यता नहीं है कि वे उस व्यक्ति का नाम प्रस्तावित करें जिसे गठबंधन वार्ता के दौरान चुना गया हो. उनसे ऐसे उम्मीदवार का नाम प्रस्तावित करने की उम्मीद की जाती है जिसके जीतने की संभावना हो. यदि वह व्यक्ति पहले दौर की वोटिंग में पूर्ण बहुमत प्राप्त करता है तो राष्ट्रपति को उसे चांसलर नियुक्त करना होगा.
अब तक पहले ही दौर में चुने गए चांसलर
अब तक सभी जर्मन चांसलर को पहले दौर में ही चुना गया है. हालांकि कभी-कभी बहुमत बहुत मामूली रहा है. कोनराड आडेनावर 1949 में पश्चिम जर्मनी पहले चांसलर चुने गए थे. वे अब तक सबसे कम बहुमत से जीतने वाले चांसलर हैं. 1974 में चांसलर चुने जाने वाले हेल्मुट श्मिट और 1982 में चांसलर बनने वाले हेल्मुट कोल को बहुमत के लिए जरूरी मतों से महज एक वोट ज्यादा हासिल हुआ था. चार बार चांसलर बनने वाली अंगेला मैर्केल के लिए सबसे कम अंतरों से चुनाव जीतने का अनुभव 2009 में रहा जब उन्हें संसद के 612 सदस्यों में से सिर्फ 323 का समर्थन मिला. यह चासंलर बनने के लिए जरूरी मतों से सिर्फ 16 ज्यादा था.
यदि चुनाव के पहले दौर में चांसलर के उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तो चुनाव का दूसरा दौर शुरू होता है. इस दौर में संसद के सदस्य दूसरे उम्मीदवारों के नाम प्रस्तावित कर सकते हैं, लेकिन इन प्रत्याशियों को बुंडेस्टाग के एक चौथाई सदस्यों का समर्थन होना जरूरी है. इसके बाद के दो हफ्ते में चांसलर का चुनाव हो जाने तक मतदान के कई दौर हो सकते हैं. यदि 14 दिन के अंत तक भी कोई चांसलर नहीं चुना जाता है तो एक बार आखिरी दौर की वोटिंग होती है.
क्या होता है जब किसी को बहुमत न मिले
इस दौर में यदि कोई प्रत्याशी पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लेता है तो उसका नाम तुरंत ही चांसलर के लिए तय कर दिया जाता है और राष्ट्रपति उसे चांसलर नियुक्त कर देंगे. लेकिन वह अगर उसे बहुमत तो नहीं लेकिन सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं तो राष्ट्रपति के पास यह तय करने के लिए सात दिनों का समय होता है कि अल्पमत चांसलर को स्वीकार किया जाए या नहीं, जिसे पूर्ण बहुमत प्राप्त चांसलर के समान ही अधिकार होंगे या फिर बुंडेस्टाग को भंग कर दिया जाए. अगर राष्ट्रपति संसद को भंग करने का फैसला करते हैं तो 60 दिनों के अंदर फिर से संसद का चुनाव करवाना अनिवार्य है. (dw.com)
यूं जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा के इस्तीफे का जापान के रक्षा बजट के एक फीसदी जीडीपी की सीमा को पार करने से कोई लेना देना नहीं है. उन्होंने कोविड-19 और ओलंपिक खेलों के आयोजन पर हुई आलोचना के बाद इस्तीफा दिया है.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट-
बरसों से रक्षा मामलों में चुप-चाप रहने वाले जापान ने पिछले कुछ वर्षों में अपना सामरिक और सुरक्षा दृष्टिकोण बदला है. इस बदलाव का असर न सिर्फ जापान के रक्षा बजट पर पड़ा है बल्कि हाल ही में जारी रक्षा श्वेतपत्र, नेताओं के विदेश और सामरिक नीति संबंधी बयानों और यहां तक कि संविधान संबंधी मामलों में भी यह परिवर्तन देखने को मिला है. इसी कड़ी में एक नया पन्ना हाल ही में तब जुड़ गया जब 31 अगस्त को जापान के रक्षा मंत्रालय ने इस साल के रक्षा बजट को बढ़ा कर 50 अरब अमेरिकी डालर करने की बात कही. जापान जैसे देश के लिए यह कोई छोटी बात नहीं है.
आंकड़े कहते हैं कि 2018 के बाद से यह सबसे तेजी से बढ़ा बजट है जो संस्तुति के बाद लगभग तीन प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कराएगा. इस साल के मुकाबले 2.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करने के साथ ही यह बजट 50 अरब के आंकड़े तक पहुंच जाएगा. बजट की पेशकश और मंजूरी के बीच महीनों का फासला है. और अगर वित्त मंत्रालय और संसद की मंजूरी मिली तो भी यह बजट 1 अप्रैल 2022 से ही प्रभाव में आएगा.
जापान की बदलती प्राथमिकता
लेकिन जापान के रक्षा मंत्रालय की इस पेशकश ने इंडो-प्रशांत क्षेत्र में मंडराते तनाव की ओर इशारा तो किया ही है. और पिछले दिनों हुए परिवर्तनों को देखने तो यह नहीं लगता कि यह बादल आसानी से छंटने वाले हैं. जापानी रक्षा मंत्रालय ने अपने सालाना रक्षा बजट में इतनी बढ़ोत्तरी की वजह चीन को बताया है और कहा है कि चीन के खतरनाक रवैये से उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताएं बढ़ गयी हैं और चीनी आक्रामकता से निपटने के लिए जापानी सेना को अधिक संसाधनों की जरूरत है.
अभी पिछले साल ही जापान ने चीन को अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा करार दिया था. लेकिन रक्षा बजट में इस बढ़ोत्तरी के बावजूद जापान चीन से अभी काफी पीछे है और यह अंतर सिर्फ धन का नहीं बल्कि तकनीक और कुल ताकत का भी है. गौरतलब है कि अमेरिका के बाद चीन दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य महाशक्ति है. चीन की अमेरिका से बढ़ती तनातनी, दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ दक्षिण चीन सागर में अतिक्रमण के मामले, ताइवान और आये दिन आक्रमण करने की धमकियों के मद्देनजर जापान की चिंता स्वाभाविक है.
चीन की आक्रामकता से चिंता
सेनकाकू द्वीप और अपने एडीआईजेड में चीनी दखल से जहां जापान की चिंताएं बढ़ी हैं तो वहीं ताइवान की सुरक्षा भी जापान के लिए सरदर्द का कारण बन रही है. दूसरे विश्वयुद्ध के समय से ही जापान ताइवान को अपनी सुरक्षा से जोड़कर देखता है. चीन की ताइवान को लेकर बढ़ती आक्रामकता से कहीं न कहीं जापान को यह लग रहा है कि चीनी ड्रैगन के गुस्से की लपट में वह भी आ सकता है. और इस चुनौती से निपटना अब दूरगामी स्ट्रेटेजी नहीं तात्कालिक जरूरत बन गया है.
अगर जापान के रक्षा बजट सम्बन्धी नीतिगत ट्रेंड पर नजर डाली जाय तो इस सन्दर्भ में सबसे बड़े और महत्वपूर्ण कदम तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने ही उठाये थे. सेल्फ डिफेंस फोर्सेस को चुस्त दुरुस्त करने और उन्हें बड़ी अंतरराष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार करने की पहल शिंजो आबे ने ही की थी जब 2015 में उन्होंने संविधान के आर्टिकल 9 में परिवर्तन लाने की कोशिश की हालांकि यह पूरी तरह सफल नहीं हो पाई थी. देखा जाय तो शिंजो आबे के समय से ही सेनकाकू द्वीप के मालिकाना हक को लेकर जापान ने भी अपने रुख में सख्ती बरतना शुरू किया है.
यही नहीं, सूत्रों के अनुसार अमामी, योनागुनी, और मियाको जैसे सुदूर द्वीपों की सुरक्षा को भी चाक चौबंद करने का मंसूबा भी जापानी रक्षा मंत्रालय ने बांध लिया है. इसके तहत ही इसीगाकि द्वीप पर एक नए कैम्प की स्थापना करने की भी योजना है. आबे के उत्तराधिकारी योशिहिदे सुगा ने भी इन प्रयासों को जारी रखा है. भले ही घरेलू राजनीतिक उठापटक और तेजी से घटती लोकप्रियता के कारण उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़ने का फैसला किया है, लेकिन प्रधानमंत्री कोई भी हो, जापान की सामरिक और कूटनीतिक दशा और दिशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आएगा.(dw.com)
पिछले कुछ समय में इंस्टाग्राम ऐप में कई बदलाव हुए हैं. कुछ बदलावों की वजह यूजर एक्सपीरियंस अच्छा करना तो कुछ की वजह ऐप को बच्चों के लिए सुरक्षित बनाना बताई गई है. लेकिन कई जानकार इन बदलावों से डरे हुए भी हैं.
डायचे वेले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
पिछले दिनों दो महीनों में इंस्टाग्राम ने अपनी ऐप में कई बदलाव किए हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है दुनियाभर में इसकी बढ़ती लोकप्रियता. दरअसल इंस्टाग्राम अब यूजर्स की संख्या के मामले में फेसबुक और यूट्यूब जैसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को टक्कर दे रहा है.
इस पर एक्टिव यूजर्स की संख्या 1 अरब के आंकड़े को पार कर गई है. भारत, अमेरिका, ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे देशों में इसे करोड़ों लोग इस्तेमाल करते हैं. सिर्फ भारत में ही इसके करीब 18 करोड़ यूजर्स हैं.
भारत में चीनी इंटरटेनमेंट ऐप टिकटॉक के बैन होने से इंस्टाग्राम के यूजरबेस में काफी इजाफा हुआ है. इंस्टाग्राम इन वर्चुअल गतिविधियों का भलीभांति फायदा उठा रहा है. यही वजह है कि पिछले कुछ समय में इसने अपनी ऐप में कई बदलाव किए हैं. कुछ बदलावों की वजह यूजर एक्सपीरियंस अच्छा करना तो कुछ की वजह ऐप को बच्चों के लिए सुरक्षित बनाना बताई गई है.
बदला सर्च
इंस्टाग्राम ने अपने सर्च में एक बड़ा बदलाव किया है. कुछ समय पहले तक इंस्टाग्राम पर कुछ सर्च करने पर रिजल्ट में सिर्फ लोगों के इंस्टा हैंडल और उस कीवर्ड से जुड़े हैशटैग आते थे लेकिन अब कुछ सर्च करने पर उससे जुड़े फोटो और वीडियोज भी देखे जा सकते हैं.
हालांकि यह अब भी सीधे नहीं दिख रहे. सर्च करने पर सर्च साइन के साथ लिखे कुछ कीवर्ड्स के सजेशन दिखते हैं, जिन पर आपने क्लिक किया तो आपको फोटो और वीडियोज दिखने लगेंगे. जानकारों का मानना है कि इंस्टाग्राम का यह कदम टिकटॉक जैसी राइवल ऐप को टक्कर देने की रणनीति है. बता दें कि टिकटॉक के सर्च में आप कीवर्ड डाल उससे जुड़े वीडियोज ढूंढ सकते हैं.
हालांकि इंस्टाग्राम कहता है कि उसने यह बदलाव यूजर एक्सपीरियंस को अच्छा करने के लिए किया है ताकि लोग अपनी रुचि के फोटो और वीडियोज बिना हैशटैग सर्च किए ढूंढ सके. इसके लिए अब इंस्टाग्राम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से लोगों की पोस्ट की तस्वीरों और उनके कैप्शन की छानबीन कर रिजल्ट दिखाएगा.इतना ही नहीं वह अपनी ओर से भी कीवर्ड्स सजेस्ट करेगा.
मसलन आपने स्ट्रीट फोटोग्राफी सर्च किया तो वह आपको इसके साथ मुंबई, कोलकाता या हैदराबाद जैसे कुछ और सर्च सजेस्ट करेगा ताकि आप बिल्कुल खास तरह से अपनी रुचि को फॉलो कर सकें. हालांकि इस बदलाव से जानकार डरे हुए भी हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह बदलाव लोगों को और लंबे समय तक इंस्टाग्राम पर फंसाए रखेगा जबकि पहले ही ऐसी ऐप अनंत कंटेंट परोसकर लोगों को घंटों स्क्रीन से चिपकाए रखती हैं.
एक महीने पहले 5 बड़े बदलाव
यूजर एक्सपीरियंस बेहतर करने का दावा करते हुए इंस्टाग्राम ने करीब एक महीने पर ऐप पर एक साथ पांच बदलाव किए थे. इसमें पहला था, 60 सेकेंड की रील. इंस्टाग्राम पर पहले 60 सेकेंड की रील हर यूजर के लिए उपलब्ध नहीं थी. कुछ सिर्फ 15 सेकेंड की रील बना सकते थे तो कुछ 30 सेकेंड की. लेकिन अब हर यूजर इस पर 60 सेकेंड की रील बना सकता है. कई जानकार इस बदलाव को भी टिकटॉक या उसके जैसी शॉर्ट वीडियो ऐप से जोड़ रहे हैं.
किसी भी भाषा में लिखा पढ़ सकेंगे
इंस्टाग्राम किसी खास कला या संस्कृति को फॉलो करना का बेहतरीन जरिया है. और ग्लोबलाइज होती दुनिया में इस प्लेटफॉर्म के जरिए भारत में बैठे यूजर्स का कोरिया, मिडिल ईस्ट, साउथ अमेरिका या यूरोप जैसी जगहों के कलाकारों को फॉलो करना आम हो चला है.
अक्सर ये स्टार अपनी इंस्टा स्टोरी में कुछ लिखकर भी शेयर करते हैं लेकिन ज्यादातर यह लिखी हुई बात उनकी ही भाषा में होती है, जिसे समझ पाना नामुमकिन होता है. इंस्टाग्राम ने इसे समझने की राह आसान कर दी है. अब स्टोरी में लिखे टेक्स्ट का यूजर्स हैंडल के नीचे लिखी सबहेडिंग पर क्लिक कर अनुवाद कर सकते हैं. यही ऐप में हुआ दूसरा बदलाव है.
'ओरिजिनल ऑडियो' को बदल सकेंगे
अगर आप इंस्टा वीडियो देखते हों तो पाएंगे कि जिन वीडियो में कंटेंट क्रिएटर किसी गाने का इस्तेमाल नहीं करते और अपनी आवाज में बोल रहे होते हैं, उसमें उनके नाम के नीचे 'ओरिजिनल ऑडियो' लिखकर आ रहा होता है. लेकिन अब आपको इस ओरिजिनल ऑडियो की जगह क्रिएटर से जुड़ी दूसरी इंफॉर्मेशन दिखने लगी होंगी.
आप भी चाहें तो ऐसा कर सकते हैं. सिर्फ आपको इस ऑप्शन को कस्टमाइज कर अपनी जानकारी डालनी होगी. यही ऐप का तीसरा बदलाव है.
प्लान कर सकेंगे स्टोरीज
मान लीजिए आप इंस्टाग्राम स्टोरी पर रोज कुछ न कुछ पोस्ट करना चाहते हैं लेकिन आप अगले दो दिन ऑफिस के कामों में बहुत बिजी रहने वाले हैं. तो दो दिन इंस्टा बंद? नहीं आपको ऐसा नहीं करना होगा.
अब आप इंस्टाग्राम पर स्टोरी ड्राफ्ट करके रख सकते हैं और इसे बिजी रहने के दौरान पोस्ट कर सकते हैं. पहले भी आप अपने वीडियो और रील्स बनाकर मोबाइल में सेव कर सकते थे और बाद में इन्हें पोस्ट कर सकते थे. लेकिन यह ऑप्शन लिखे हुए टेक्स्ट के लिए मौजूद नहीं था.
रील्स बनाते हुए डाल सकेंगे इफेक्ट्स
पहले आपको रील्स बनाने के लिए इफेक्ट्स ढूंढ़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी लेकिन अब इंस्टाग्राम ने रील्स वाले इंटरफेस पर ही ट्रेंडिंग का एक नया ऑप्शन जोड़ दिया गया है. जिसके जरिए आप वहीं से रील्स बना सकेंगे. यानी अब इफेक्ट्स खोजने के लिए पहले जितनी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी.
बताना होगा जन्मदिन
इंस्टाग्राम यूजर्स से उनका बर्थडे पूछ रहा है. ऐसा बच्चों की साइबर सुरक्षा के लिहाज से किया जा रहा है. कई बार यह ऐप खोलते ही यूजर्स से जन्मतिथि पूछता है. अगर यूजर कई बार पूछने पर भी बर्थडे नहीं बताते तो यह उन्हें टेम्परेरी ब्लॉक भी कर सकता है.
कंपनी ने एक बयान में कहा, "कुछ लोग जन्मदिन की गलत जानकारी भी देते हैं. ऐसे लोगों से निपटने के लिए एआई का इस्तेमाल कर उनकी उम्र जानने की कोशिश कर रहे हैं. खासकर उनकी जन्मदिन की फोटो के आधार पर." कुछ जानकार टेक्नोलॉजी के इस तरह के प्रयोग से डरे हुए भी हैं और इसे निजता में दखल मान रहे हैं.
कुछ दिन पहले यह खबर भी आई थी कि इंस्टाग्राम 13 साल के कम उम्र के बच्चों के लिए एक नया इंस्टाग्राम प्रोडक्ट लॉन्च कर सकता है. जानकार मानते हैं यह कदम इसकी तैयारी भी हो सकता है. इससे पहले इंस्टाग्राम ने बच्चों की प्रोफाइल को प्राइवेट कर दिया था. साथ ही उन्हें मैसेज कर सकने वाले लोगों के लिए भी रोक लगा दी थी. साथ ही ऐसे यूजर्स की पहचान भी शुरू की थी, जिनका व्यवहार बच्चों के प्रति संदिग्ध होता है. (dw.com)
रोमानिया के तेजी से विकसित हो रहे शहर क्लुज-नेपोका में रहने वाले रोमा समुदाय के लोगों का कहना है कि स्थानीय अधिकारी उनके साथ मानव कचरे की तरह व्यवहार करते हैं.
डायचे वेले पर रूबी रसेल की रिपोर्ट
क्लुज-नेपोका, रोमानिया के सबसे तेजी से विकसित हो रहे शहरों में से एक है. इस शहर के बाहरी इलाके में हवाई अड्डे में बगल में कचरे का विशाल ढेर है. इस कचरे के ढेर कर कई घर बसे हुए हैं. घोड़े से खींची जाने वाली गाड़ियां शहर की ओर लौटने वाले खाली कचरा ट्रकों के साथ रास्ते को पार करती हैं. बच्चे नंगे पांव लकड़ी के बने अस्थायी घरों के बीच दौड़ते हैं और कौवे कचरे के ढेर के उपर चक्कर लगाते हैं.
यह पाटा रैट है, जो देश का सबसे बड़ा लैंडफिल है. दशकों से यहां कचरा जमा किया जा रहा था. कचरे में अक्सर लगने वाली आग से जो प्रदूषण फैलता है, वह कभी-कभी यहां मौजूद लकड़ी के घरों में रहने वाले लोगों की जान ले लेता है.
यूरोपीय संघ के दबाव में, शहर ने 2015 में इस जगह पर कचरा जमा करने पर रोक लगाने का काम शुरू किया. हालांकि, 70 वर्षों में फुटबॉल के 27 मैदानों के बराबर जगह में यहां 2.5 मिलियन मीट्रिक टन कचरा जमा हो चुका था. स्थानीय प्रशासन ने इस कचरे के निपटारे का काम शुरू किया. आखिरकार 2019 के अंत में स्थानीय अधिकारियों ने पाटा रैट को ‘इतिहास' घोषित कर दिया.
इसके बावजूद, यहां रहने वाले 1,500 रोमा लोगों के लिए पाटा रैट अभी भी मौजूद है. उनका कहना है कि अभी भी वे इस पर्यावरणीय संकट से उबरे नहीं हैं. 2015 में पुराने लैंडफिल के बगल में कचरे को रखने के लिए दो अस्थाई जगह बनाई गई थी और वहां कचरे का ढेर लगातार बढ़ रहा है. साथ ही, विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि पुराने कचरे का निपटारा भी ठीक से नहीं किया गया.
नोडिज कहते हैं, "यह एक इकोलॉजिकल लैंडफिल नहीं था. इसे यूरोपीय मानकों के अनुरूप नहीं बनाया गया था. सभी जहरीले पदार्थ मिट्टी और भूजल में मिल गए. इस क्षेत्र में सब कुछ प्रदूषित हो गया है."
पाटा रैट में रहने वाले रोमा समुदाय के लोग 1960 के दशक के अंत में और 1970 के दशक की शुरुआत में यहां रहने आए थे. ये लोग गरीबी की वजह से यहां आए थे और कुछ लोगों ने लैंडफिल में कचरा बीनने का काम शुरू कर दिया. 2000 के दशक में जब क्लुज-नेपोका में रियल एस्टेस की कीमतों में उछाल हुई, जमीन और मकान की कीमतें तेजी से बढ़ीं, तब एक बड़ी आबादी को शहर से बेदखल कर दिया गया और वे यहां रहने लगे.
शहर से कचरे के ढेर पर पहुंचाया गया
आखिरी बार 2010 में, स्थानीय अधिकारियों ने बीच शहर में मौजूद कोस्टेई स्ट्रीट में रहने वाले करीब 350 लोगों को वहां से हटाकर पाटा रैट पहुंचा दिया था. लिंडा ग्रेटा जिसिगा को दिसंबर की वह सर्द सुबह याद है. उस दिन पुलिस, स्थानीय अधिकारी और बुलडोजर की आवाज ने उन्हें और उनके परिवार को जगाया.
इसके ठीक दो दिन पहले, उन्हें और स्ट्रीट में रहने वाले 75 अन्य रोमा परिवारों को यह जगह खाली करने की चेतावनी दी गई थी. अब उनका ठिकाना पाटा रैट में पहले से मौजूद शिविरों के बीच स्थित एक छोटा घर था.
जिसिगा का कहना है कि कोस्टेई स्ट्रीट में रोमा समुदाय पूरी तरह से बसे हुए थे. वे वहां पीढ़ियों से रह रहे थे. उन्होंने वहां मिले सरकारी घर और सुविधाओं के लिए पैसे चुकाए. उनके बच्चे स्थानीय स्कूलों और किंडरगार्टन में गए. इसके बावजूद, उन्हें शहर के कूड़े के ढेर पर फेंका जा रहा था.
वह कहती हैं, "वे हमें कचरा मानते थे, इंसान नहीं. उन्होंने सोचा कि हम उस कचरे के ढेर पर ही रहने लायक हैं."
भेदभाव झेल रहे रोमा
पिछले साल एक सर्वेक्षण के जवाब में, 10 में से 7 रोमानियाई लोगों ने कहा कि उन्हें रोमा पर भरोसा नहीं है. सर्वे में शामिल 20% से 30% लोगों ने कहा कि रोमा के खिलाफ हिंसा करने की अनुमति दी जानी चाहिए या रोमा के खिलाफ भेदभाव और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने वाले सजा नहीं दिया जाना चाहिए.
रोमानिया के लिए इस तरह के दृष्टिकोण अलग नहीं है. पूरे यूरोप में, सबसे बड़े जातीय अल्पसंख्यक के खिलाफ नस्लवाद का नतीजा है कि रोमा लोगों को बुनियादी अधिकार नहीं मिल रहे हैं. उन्हें रोजगार और सार्वजनिक सेवाओं के इस्तेमाल से वंचित किया जाता है.
हाशिए पर खड़े रोमा समुदाय के लोगों को उन जगहों पर भेज दिया जाता है जहां न तो पीने को साफ पानी मिलता है और न ही साफ-सफाई रहती है. साथ ही, कचरों का ढेर मौजूद होता है.
अक्सर ये जगह काफी खतरनाक होते हैं. पिछले साल यूरोपीय पर्यावरण ब्यूरो (ईईबी) ने "मध्य और पूर्वी यूरोप में रोमा समुदायों के खिलाफ पर्यावरण नस्लवाद" पर प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि रोमा लोग "लैंडफिल या गंदे उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित थे."
तेजी से बीमार हो रहे रोमा
पाटा रैट पहुंचने पर, 12 सदस्यों वाले जिसिगा के परिवार को 16 वर्ग मीटर का कमरा रहने को मिला. यह जगह परिवार के हिसाब से इतनी कम थी कि ज्यादातर सामान बाहर रखने पड़े. यहां इसी तरह के तीन अन्य परिवारों के लिए एक शौचालय था और बाथरूम था. सभी को इसी से काम चलाना था.
जिसिगा उस पल को याद करते हुए बताती हैं कि वह अपनी खिड़की से चारों ओर फैले कचरे के समुद्र को देख रही थीं. वह कहती हैं, "मुझे प्रकृति से प्रेम है, लेकिन वहां एक भी कबूतर नहीं था और न ही पेड़ थे."
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की 2012 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि वहां रहने वाले 22% वयस्क पुरानी बीमारी या किसी न किसी प्रकार की विकलांगता से पीड़ित हैं. शोधकर्ताओं ने त्वचा संक्रमण, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, उच्च रक्तचाप, और हृदय और पेट की समस्याओं का विवरण तैयार किया.
इसके अलावा, यूरोपीय रोमा राइट्स सेंटर की एक रिपोर्ट में पाया गया कि शहर से निकाले जाने के दो वर्षों में, कोस्टेई समुदाय के बीच स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं दोगुनी हो गईं.
ईईबी के अध्ययन में बताया गया कि रोमा के खिलाफ पर्यावरणीय नस्लवाद के प्रमुख कारकों में से एक उन्हें "महंगी जगहों" से जबरन बेदखल करना है. कोस्टेई समुदाय को उन्हें उनके पुराने जगह से बेदखल करने का कारण नहीं बताया गया. हालांकि, जिसिगा को पता है कि उन्हें क्यों हटाया गया. वह कहती हैं, "वे क्लुज से रोमा को 'साफ' करना चाहते थे. अब बहुत ही कम रोमा शहर में शहर में रहते हैं."
क्लुज-नेपोका की नगर पालिका ने डीडब्ल्यू को बताया कि वे पाटा रैट की सफाई कर रहे हैं. साथ ही, समुदाय को स्वास्थ्य और अन्य सेवाएं उपलब्ध करा रहे हैं. उन्होंने यह भी कहा कि वे जबरन बेदखल करने को रोकने की कोशिश कर रहे हैं. 30 परिवारों के लिए घर उपलब्ध कराने के लिए एक कार्यक्रम में भागीदार हैं, हालांकि वे इस योजना के लिए धन उपलब्ध नहीं करा रहे हैं.
कचरा बीनने वालों का कारोबार ठप्प
लैंडफिल कवर होने के बाद से पाटा रैट इलाके में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को लेकर कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. हालांकि, इस इलाके में काम कर रहे एक एनजीओ के कार्यकर्ता के मुताबिक, बच्चों में सांस की बीमारियां आम बात है. लैंडफिल के बंद होने के बाद से, पाटा रैट में जीवन जीना और भी कठिन हो गया है. कचरा बीनने वालों का काम ठप्प हो गया है.
चार बच्चों की मां 28 वर्षीय एडेला लुडविग लैंडफिल के पास रहती हैं. उनका घर प्लाईवुड से बना है. छत के नाम पर विज्ञापन का बैनर है. यह बैनर उन्हें कचरे के ढेर पर मिला था.
लुडविग इस घर को ही अपना ‘विला' मानती हैं. रसायनिक कचरे के ढेर पर बना यह ‘विला' कंटीले तारों से घिरा हुआ और नीले प्लास्टिक की पन्नी से ढका हुआ है.
लुडविग प्लास्टिक की बोतलें और पन्नी, डिब्बे और कार्डबोर्ड इकट्ठा करती थीं. वह कहती हैं कि स्थानीय रीसाइक्लिंग कंपनी एक किलो प्लास्टिक के लिए 12 सेंट के बराबर भुगतान करती थी. ऐसे में वह एक दिन में करीब 40 यूरो तक कमा लेती थीं. वह कहती हैं, "इन पैसों से मैं खाना खरीदती थी और जरूरत पड़ने पर बच्चों के लिए दवा खरीदती थी."
अब नए ‘अस्थायी' लैंडफिल बंद कर दिए गए हैं. इसकी वजह से लुडविग जैसे कचरा बीनने वालों का काम ठप्प हो गया है. वह कहती हैं, "लोग भूख से रो रहे थे." लुडविग को पांचवां बच्चा होने वाला है. उन्हें हर महीने बच्चे के नाम पर 220 यूरो मिलते हैं. इसी के सहारे वह अपने चार बच्चों के साथ जीवन-यापन कर रही हैं.
अपनी बेहतरी के लिए खुद कर रहे संघर्ष
लैंडफिल के ‘इतिहास' घोषित होने के एक साल बाद, क्लुज-नेपोका के प्रमुख ने वादा किया था कि पाटा रैट में मौजूद कैंप "2030 तक हटा दिए जाएंगे" लेकिन यह नहीं बताया गया कि वहां रहने वाले 350 परिवार के लोग कहां जाएंगे. हालांकि, उनकी घोषणा से ठीक पहले, यहां के निवासियों ने इस मामले को अपने हाथों में ले लिया था. अपनी समस्या खुद से दूर करने में जुट गए.
2012 में, जिसिगा और कोस्टेई कैंप के अन्य लोगों ने एक संगठन बनाया. यह संगठन पाटा रैट में रहने वाले लोगों को घर दिलाने के लिए अभियान चलाने और बेदखली के खिलाफ अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम कर रहा है. फिलहाल वे, यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय से अपने मामले पर निर्णय का इंतजार रहे हैं.
वहीं, नॉर्वे ग्रांट्स की पहल से कोस्टेई के 35 परिवारों को 2014 और 2017 के बीच क्लुज-नेपोका या आसपास के गांवों में बसाया गया. नॉर्वे ग्रांट्स के जरिए नॉर्वे सरकार दक्षिणी और पूर्वी यूरोप में सामाजिक परियोजनाओं के लिए फंड मुहैया कराती है.
अब जिसिगा, अपने पार्टनर और तीन बच्चों के साथ शहर में तीन कमरों वाले अपार्टमेंट में रहती हैं, लेकिन उन्होंने पाटा रैट से मुंह नहीं मोड़ा है. उनके भाई-बहन और परिवार के सदस्य अभी भी वहीं रहते हैं. वह नॉर्वे ग्रांट के दूसरे चरण में 30 परिवारों को सहायता दिलाने के लिए साइट पर काम कर रही हैं. वह कहती हैं, "मैं चाहती हूं कि कोई भी पाटा रैट में न रहे. वह जगह किसी के रहने लायक नहीं है." (dw.com)
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट में बताया गया है कि महामारी की रोकथाम और स्वास्थ्य कल्याण में हुए खर्चों के बावजूद हालात बदतर हैं.
डायचे वेले पर क्रिस्टी प्लैडसन की रिपोर्ट
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी आईएलओ की बुधवार को जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की आधा से ज्यादा आबादी के पास किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है. ये हाल तब है जबकि कोविड-19 की वैश्विक महामारी फैलने के बाद सामाजिक सुरक्षा के विभिन्न उपायों में अभूतपूर्व विस्तार देखा गया है.
2020 में दुनिया के सिर्फ 47 प्रतिशत लोगों को कम से कम एक सामाजिक सुरक्षा उपाय तक प्रभावी पहुंच हासिल हो पाई थी. शेष 53 प्रतिशत लोग यानी करीब 4.1 अरब लोगों के पास कोई बचाव नहीं था.
सामाजिक सुरक्षा में हेल्थ केयर और आय की सुरक्षा भी शामिल है. जैसे बेरोजगारी के मामलों में, काम न कर पाने की स्थिति में, बुढ़ापे की वजह से और बच्चों वाले परिवारों में.
आईएलओ के महानिदेशक गी राइडर ने रिपोर्ट की प्रस्तावना में कहा हैः "सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से हम सब एक ही नाव पर सवार हैं. हमारे सुख और नियतियां अभिन्न हैं और परस्पर गुंथी हुई हैं, भले ही हमारी लोकेशन, पृष्ठभूमि या काम कुछ भी हो. अगर कुछ लोग बीमारी में या क्वॉरंनटाइन की अवस्था में आय की सुरक्षा का लाभ नहीं उठा पाते हैं तब वैसे हालात में पब्लिक हेल्थ का कोई मतलब नहीं रह जाएगा और हमारी सामूहिक खुशहाली भी बाधित होगी.”
सामाजिक सुरक्षा उपायों में तीखे अंतर
वर्ल्ड सोशल प्रोटेक्शन रिपोर्ट 2020-22 में पूरी दुनिया भर की सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों में हाल के बदलावों और सुधारों का आकलन किया गया है. स्टडी के मुताबिक आज भी देश और इलाके के लिहाज से सामाजिक सुरक्षा का कवरेज यानी दायरा काफी अलग है.
यूरोप और मध्य एशिया के लोगों को सबसे अच्छी सामाजिक सुरक्षा हासिल है. उनकी 84 फीसदी आबादी को कम से कम एक लाभ तो मिल ही रहा है. अमेरिकी महाद्वीप में ये दर 64.3 फीसदी है. एशिया और प्रशांत क्षेत्र के अलावा अरब देशों में भी आधा से थोड़ा कम आबादी को सामाजिक सुरक्षा मिली हुई है जबकि अफ्रीका में सिर्फ 17.4 प्रतिशत लोगों को कम से कम एक लाभ ही मिल पाया है.
आईएलओ के मुताबिक, दुनिया के अधिकांश बच्चों के पास सामाजिक सुरक्षा नहीं है. दुनिया में चार मे से सिर्फ एक बच्चे को एक सामाजिक सुरक्षा लाभ मिल पाता है. नवजात शिशुओं वाली सिर्फ 45 प्रतिशत मांओं को ही नकद मातृत्व लाभ मिल पाता है.
गंभीर विकलांगता वाले तीन में से सिर्फ एक व्यक्ति को विकलांगता से जुड़े लाभ मिल पाते हैं और नौकरी गंवाने वाले पांच में से सिर्फ एक व्यक्ति को ही सामाजिक सुरक्षा मिल पाती है.
रिटायर हो चुके तीन चौथाई लोगों को कुछ पेंशन मिलती है लेकिन ये कवरेज इलाका दर इलाका, गांव बनाम शहर और औरत बनाम आदमी के बीच अलग अलग है.
अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई
रिपोर्ट में सामाजिक सुरक्षा पर कोविड-19 महामारी के दुष्प्रभावों की जांच भी की गई है. सबके लिए न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित कराने के लिए होने वाला अतिरिक्त खर्च, जिसे वित्त अंतराल या फाइनेन्सिंग गैप भी कहा जाता है, वो महामारी की शुरुआत से अब तक करीब 30 प्रतिशत ऊपर जा चुका है.
कम आय वाले देशों को हर साल करीब 78 अरब डॉलर अतिरिक्त के खर्च की जरूरत होगी जिसके जरिए वे कम से कम बुनियादी सामाजिक सुरक्षा कवरेज अपने लोगों को दे पाएंगे. ये रकम उनके सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 16 प्रतिशत है. लोअर-मिडल-इनकम वाले देशों को हर साल करीब 363 डॉलर अतिरिक्त की जरूरत होगी और अपर-मिडिल-इनकम वाले देशों को हर साल 750.8 अरब डॉलर अतिरिक्त चाहिए होंगे.
औसतन दुनिया भर के देश सामाजिक सुरक्षा (हेल्थ केयर को हटाकर) पर जीडीपी का 13 प्रतिशत खर्च करते हैं. लेकिन देशों के बीच ये खर्च अलग अलग है. ऊंची आय वाले देश जीडीपी का करीब साढ़े 15 प्रतिशत सामाजिक सुरक्षा पर खर्च कर डालते हैं जबकि कम आय वाले देश अपनी जीडीपी का सिर्फ एक प्रतिशत हिस्सा ही सामाजिक सुरक्षा के नाम दे पाते हैं.
खर्चा बढ़ाने की जरूरत
कोराना वायरस से पैदा हुई वैश्विक स्वास्थ्य इमरजेंसी ने सरकारों को सामाजिक सुरक्षा पर बड़ा खर्च करने के लिए विवश किया है. इसमें लाभ के उपाय बढाने, डिलीवरी मकेनिज्म को सुधारने और पहले असुरक्षित रह गए समूहों तक कवरेज ले जाना शामिल है.
अंतरराष्ट्रीय प्रयत्नों के बावजूद, बड़ी आय वाले देशों में कम और मध्यम आय वाले देशों की अपेक्षा अच्छा रिस्पॉन्स देखा जा रहा है. देशों के बीच सामाजिक सुरक्षा कवरेज और फाइनेन्सिंग गैप- अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, आईएमएफ के एक हालिया अंदेशे की ही तस्दीक करते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक आईएमएफ ने आगाह किया था कि अमीर देशों में रिकवरी के अच्छे निशान नजर आ रहे हैं जबकि गरीब देशों में हालात बिल्कुल उलट दिखते हैं.
असमान वैक्सीन वितरण ने भी भी दुश्वारियां बढ़ाई हैं. सामाजिक सुरक्षा के ये अंतराल, कोविड-19 से वैश्विक स्तर पर हो रही रिकवरी में भी असमानता की बढ़ती आशंका की ओर इशारा करते हैं.
आईएलओ के सामाजिक सुरक्षा विभाग की निदेशक शाहरा रजावी ने एक प्रेस रिलीज में बताया कि सामाजिक सुरक्षा, विकास के सभी स्तरों पर देशों को चौतरफा सामाजिक और आर्थिक लाभ मुहैया करा सकती है. इनमें बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा, ज्यादा टिकाऊ आर्थिक प्रणालियां, बेहतर रूप से संचालित माइग्रेशन और मानवाधिकारों की बेहतर निगरानी शामिल है.
रजावी का कहना है, "संकट से निपटने के उपायों पर भारीभरकम सार्वजनिक खर्च के बाद, देशों को वित्तीय दृढ़ता की ओर बढ़ने के लिए एक जोरदार धक्का मिला है. लेकिन सामाजिक सुरक्षा उपायों में कटौती से गंभीर नुकसान हो सकता है- निवेश की जरूरत यहां है और अभी है.” (dw.com)